Friday, 5 July 2013

आर्थिक विषमता एक अभिशापहै, क्या इससे मुक्ति के लिए हम गम्भीर हैं?

आर्थिक विषमता में कोई देश हमारा मुकाबला नहीं कर सकता।  हम शीर्ष पर खडे़ हैं। हमें इस अभिशाप से छुटकारा कैसे मिले, इस पर मंथन करना आवश्यक हैं।  जिस देश में अरबपतियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है, उस देश में गरीबी क्यों बढ़ रही है ? प्रतिवर्ष गरीबी रेखा के नीचे और अधिक आबादी क्यों आ जाती है ? देश खाद्यान का निर्यात करता है, फिर एक चौथाई आबादी भूखी क्यों सोती है ? जिस देश की सरकार राष्ट्रपति चुनाव के पहले, समर्थक पार्टियों के सांसदों को दिये गये भोज पर प्रति थाली आठ हजार रुपया खर्च कर सकती है, उसी देश की जनता, अपने भोजन की थाली पर पांच रुपये भी खर्च करने की हैसियत क्यों नहीं रखती ?
भारत में दो भारत है- एक विपन्न भारत और एक संपन्न भारत।  विपन्न भारत की स्थिति अब सोमालिया से भी बदतर हो गयी है। वहीं सम्पन्न भारत के नागरिकों का जीवन स्तर अमेरिका और योरोप के नागरिकों के समकक्ष रखा जा सकता है। इस देश में ऐसे नागरिक भी है, जिनके पास सैंकड़ो नहीं हज़ारो जोड़ी कपडे़ हैं, वहीं इस देश के करोड़ो नागरिकों को तन ढ़कने के लिए एक या दो जोड़ी कपडे़ भी नहीं है। देश में ऐसे लोग भी हैं, जो एक दिन में शराब पर हजारों रुपया खर्च कर देतें हैं, वहीं इस देश में एक से पांच वर्ष के सतर प्रतिशत बच्चों को पीने के लिए दूध भी नहीं मिलता।
विचित्र देश है यह। क्रिकेट खिलाड़ी और फिल्मी कलाकारों की वार्षिक आय अब हजारों करोड़ में जा रही है, क्योंकि विज्ञापन बाजी में कम्पनियां, इन पर करोड़ो रुपये लूटा रही है। ये आधुनिक भारत के भगवान बन गये हैं। परन्तु दुर्भाग्य से करोडो़ युवा, पांच हजार रुपया महीने की नौकरी पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इतनी असमनता होने पर भी सभी चुप-चाप बैठे हैं। कोई यह जानने के लिए गहरायी में नहीं उतरना चाहता कि आखिर यह क्यों हो रहा है ? क्यों भारत वर्ष की जनता को असमानता का अभिशाप भोगना पड़ रहा है ?
आर्थिक असमानता का मूल कारण है- विद्रुप राजनीतिक व्यवस्था। इस राजनीतिक व्यवस्था ने ही भारत में  सम्पन्न भारत का निर्माण किया है। यह सम्पन्न भारत, विपन्न भारत के निरन्तर शोषण से ही समृद्ध हुआ है। उदाहरण के लिए यदि भारत में प्रति वर्ष एक अरबपति की संख्या बढ़ती है, तो उसके अनुपात में लाखों नागरिकों को गरीबी रेखा के नीचे जाना पड़ता है। विपन्न भारत की समृ़िद्ध घट रही है और सम्पन्न भारत की बढ़ रही है, इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि विपन्न भारत का पैसा सम्पन्न भारत की ओर बह रहा है।  यदि कोई उद्योगपति करों की चोरी कर के पैसा बनाता है, इसका सीधा मतलब है वह राजकोष को चुना लगा रहा है। उसका पैसा जो करों के रुप में राजकोष में जाना था, वह वहां नहीं जा कर उसकी जेब में जाता है।  कई  उद्योगपति करों की चोरी करते हैं जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ जाता है, उसकी भरपायी के लिए सरकार को टेक्स लगाना पड़ता है, टेक्स से महंगाई बढ़ती है। महंगाई अंतत: अभावों में वृद्धि करती है।
इसी तरह एक नौकरशाह जिसे सरकारी खजाने में रुपया लाने की जिम्मेदारी होती है, जिसके एवज में वह सरकारी खजाने से  वेतन भी  पाता है।  यदि वह अधिकारी, उद्योगपति से मिल कर उसके कर चोरी के कार्य में सहायक बन जाता है, तब वह दो तरह से सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचाता है- एक: सरकारी खजाने से उसे वेतन दिया जाता है, वह व्यर्थ जाता है, क्योंकि वह अपना उतरदायित्व नहीं निभा रहा है। दो: उसके भ्रष्ट आचरण से राजकोष में पर्याप्त धन नहीं पहुंचता है, जिससे राजकोषीय  घाटा बढ़ जाता है, जिसका भार भी निर्धन भारत को ओढ़ना पड़ता है।
प्राकृतिक संसाधन, जो राष्ट्रीय निधि होते हैं, अर्थात उसकी मालिक देश की जनता होती है। इनका उपयोग इस तरह किया जा सकता है, जिससे देश की समृद्धि बढे़ और उसका लाभ देश के सभी नागरिकों को मिले।  परन्तु यदि उद्योगपति, राजनेता और नौकरशाह मिल कर प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबाट अपने निजी स्वार्थ के लिए कर लेते हैं, अर्थात उसे लूट लेते हैं।  प्राकृतिक संसाधनों की लूट एक तरह से देश के नागरिकों की संपति लूटना ही है। अभी जो घोटाले प्रकाश में आ रहे हैं, उसमें अधिकांश मामले प्राकृतिक संसाधनों की लूट के ही है। निश्चय ही, इस लूट से लुटेरों की समृ़िद्ध बढ़ी हैं और देश की जनता गरीब हई है।
एक सांसद चुनाव जीतने के लिए अनुमानत: दस से पचास करोड़ रुपया खर्च कर देता है।  इसी तरह एक विधायक को चुनाव जीतने के लिए एक से दस करोड़ तक खर्च करना रहता है। लोकसभा और विधानसभा की एक सीट पर एक ही प्रत्यासी जीतता है और दो से अधिक प्रत्यासी चुनाव हारते है। परन्तु धन सभी प्रत्यासियों को खर्च करना रहता है।  यदि देश की सभी लोकसभा और विधानसभाओं की सीटों को जोड़ा जाय, तो राजनेताओं द्वारा चुनाव जीतने के लिए जो धन खर्च किया जाता है, वह कई लाख करोड़ तक जाता है। ये लाखों करोड़ रुपये वे कहां से लाते हैं ? सम्भवत: कुछ पैसा ये अपने स्त्रोत से जुटाते हैं और कुछ उन्हें अपनी पार्टी देती हैं, किन्तु अप्रत्यक्ष रुप से सारा पैसा उन्हें उद्योगपति ही देते हैं। निश्चय ही उद्योगपति उन्हें दान नहीं देते,  धूर्तता से वे पैसे राजनेतओ और नौकरशाहों के साथ मिल कर जनता की जेब से ही निकालते हैं।  दान में यदि एक रुपया देते हैं] तो चोरी दस रुपये की करते हैं।
विद्रुप राजनीतिक व्यवस्था के भयावह परिणाम सामने हैं। करोडो़ रुपये की सुनियोजित लूट के सिलसिलेबार कई घोटालों के ऊपर से पर्दा उठ रहा है, जो इस बात का साक्षी है कि भारतीय जनता निरन्तर छली जा रही है। उसका बहुत ही चालाकी से शोषण हो रहा है। राजनीति एक तरह लूट का पर्याय बन गयी है। सब से दु:खद तथ्य यह है कि लुटेरों के मन में आत्मग्लानी नहीं है।  वे कभी लूट को स्वीकार ही नहीं करते, चाहे उन्हें कितने ही तर्क दिये जाय।  निश्चय ही, वे बैखोप है। उन्हें मालूम है, पकड़े जाने पर भी सजा नहीं होगी।  वे धन के बलबूते लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को अपने नियंत्रण में लेते रहेंगे और देश को निरन्तर लूटते रहेंगे। इस तरह भारत में आर्थिक अससमानता की खाई भरने के बजाय बढ़ती जायेगी।
जितनी असमानता की खाई बढे़गी समाज में विकृतियां बढ़ेगी। निर्धन भारत के युवाओं का आक्रोश बढ़ता जायेगा, जिससे वे गलत रास्त पर चल पडेंगे। हमे इस अभिशाप से छुटकारा पाने के उपाय सोचने चाहिये। इसका एक ही उपाय है- हमें वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था बदलनी होगी। व्यवस्था परिवर्तन तभी सम्भव है, जब राजनीति मे अच्छे लोगों का आगमन हो और वे बिना  धन खर्च किये एवं राजनीति दलों का अवलम्बन लिये चुनाव जीत सके।

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