Thursday 18 July 2013

क्या हम बालकों को शिक्षा के द्वारा मानव बना रहे हैं?

यह तो सभी मानते हैं कि हमें मनुष्य बनने के लिये शिक्षा अत्यंत आवश्यक है । प्रश्न है कि शिक्षा कैसी हो। इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि हमें कैसा मनुष्य या नागरिक बनाना है। क्या शिक्षा दी‌ जाए, क्यों दी जाए, कब दी जाए, कौन दे, और कैसे, यह आदि काल से निर्धारित किया जा रहा है, वह बदलता भी गया हैं, संवर्धित भी।
 
1. मनुष्य कैसा होना चाहिये, इसकी अनेक दृष्टियां हो सकती हैं। यह जानने के लिये, एक दृष्टि से, हम प्रकृति से सीखने का प्रयत्न कर सकते हैं, क्योंकि मनुष्य तो उसी‌ ने बनाया है। जानवर जैसे चीता अपने तेज वेग के लिये, हिरन अपनी चपलता, वेग और प्रबलता (स्टैमिना) के लिये, उल्लू अंधकार में देखने के लिये, गाय दूध देने के लिये, आदि आदि विशेषज्ञ हैं। निहत्था और अकेला मानव किसी भी बड़े वन्य जानवर से नहीं जीत सकता। मानव अपनी प्रकृति से, अन्य जानवरों की तुलना में, जन्मजात निर्विशेषता के लिये प्रसिद्ध है और यही हम सभी की अतिजीविता के मूलाधार हैं। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मनुष्य विशेषता प्राप्त नहीं कर सकते; मनुष्य आवश्यकतानुसार अनेकों विशेषताएं प्राप्त कर सकते हैं। प्रकृति से शिक्षा लेते हुए हमें भी अपनी शिक्षा ऐसी बनाना चाहिये कि शिक्षा का मूलाधार 'निर्विशेषता' हो और जिससे यथासमय यथोचित विशेषज्ञता प्राप्त की‌ जा सके।
 
2. निर्विशेषता कैसी हो, इसके लिये हम, प्रथमत:, देखें विश्व के पुरातनतम ग्रन्थ वेद। यजुर्वेद के तैत्तिरीय उपनिषद में शिक्षावल्ली 1अर्थात शिक्षा के विषय में उन ऋषियों के गहन विचार हैं। मैं उसमें से एक ही मंत्र का अनुवाद प्रस्तुत करना चाहता हूं। शिक्षावल्ली के ११ वें अनुवाक में दीक्षान्त समारोह के वर्णन में गुरु शिष्यों को अन्तिम उपदेश देते हैं - “सत्य बोलो, धर्म के अनुसार आचरण करो (अर्थात शास्त्रों के अनुसार कर्तव्य करो), अध्ययन से प्रमाद मत करो अर्थात उसे अकर्तव्य समझकर मत छोड़ो, . . . कौशल से प्रमाद नहीं करना चाहिये, भौतिक समृद्धि से प्रमाद नहीं करना चाहिये, अध्ययन और प्रवचन (व्याख्यान) देने से प्रमाद नहीं करना चाहिये, . . . हमारे जो अनिंदित कर्म हैं उऩ्हीं का अनुसरण करना, दूसरों का नहीं। जो हमारे सुचरित हैं उऩ्हीं का अनुसरण करना, अन्य का नहीं। " यद्यपि आज ऐसी निर्विशेष शिक्षा भारत में धर्म निरपेक्षता के नाम पर बन्द हो गई है, किन्तु यह तो मानव बनने के लिये हमेशा ही सत्य है।
 
3. मैं अथर्ववेद (५.७.४) से एक मंत्र का अनुवाद उद्धृत करना चाहती हूं, " हम ऐसी शिक्षा और ऐसा ज्ञान आत्मसात करें और उनका उत्सव मनाएं जो परस्पर सहयोग की‌ भावना बढ़ाएं तथा कल्याणकारी हों ।" यह शिक्षा भी निर्विवादरूप से मानव के लिये नितांत आवश्यक है ! किन्तु क्या ऐसी शिक्षा भी सच में दी जा रही है ? मैं ऋग्वेद के साँतवें‌ मण्डल से 'मण्डूक सूक्त की चर्चा करना चाहती हूं। इसमें मण्डूक को देवता मानकर उसकी स्तुति की गई है। इस तरह मेंढक को इंद्र, अग्नि, मित्र आदि देवताओं के साथ रखकर उसका सम्मान किया गया है। यह ऋषियों की दृष्टि ही थी कि उऩ्होंने मेंढक का पारिस्थितिकीय महत्व दर्शाया, जो आज के आधुनिक विज्ञान का विषय है, और जिसकी शिक्षा के बिना शिक्षा अधूरी ही कहलाई जाएगी।
 
4. हमारे यहां जीवन में चार पुरुषार्थ माने गए हैं - धर्म (शास्त्रोक्त नैतिकता तथा कर्तव्य), अर्थ, काम ( इच्छाएं) और मोक्ष ( सांसारिक दुखों से मुक्ति)। वैदिक काल में इन चारों को प्राप्त करने की शिक्षा दी जाती थी। आज धर्म निरपेक्षता के गलत प्रकाश में धर्म की शिक्षा का लोप कर दिया गया है। यहां धर्म का अर्थ 'रिलीजन' नहीं है, कर्तव्य है, कर्मों की नैतिकता है, तुलसी का "पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।" है। यहां धर्म का अर्थ मानवता धर्म है। मोक्ष का गहरा अर्थ सांसारिक दुखों से मुक्ति है, कर्म बन्धनों से मुक्त जो शान्ति प्राप्ति होती है वह मोक्ष है। (चूंकि कर्म सिद्धान्त के अनुसार पुनर्जन्म होता है तब उस परम शान्ति के लिये जन्मों के चक्र से मुक्त होना भी‌ मोक्ष है। यदि हम पुनर्जन्म नहीं मानते, तब तो मोक्ष का अर्थ सीधा इसी‌ जन्म में कर्मों के बन्धन अर्थात सांसारिक सुख -दुख से मुक्ति है।) आज मोक्ष की चर्चा भी‌ नहीं की‌ जाती। यहां तक कि 'कामनाएं कैसी हों', इसकी भी शिक्षा नहीं दी‌ जाती। अर्थात उन चार पुरुषार्थों में से एक ही पुरुषार्थ की शिक्षा दी‌ जा रही‌ है। कितनी असंतुलित है हमारी शिक्षा पद्धति ! इस विषय पर दलाई लामा जो कहते हैं वह शिक्षा के लिये कितना उपयुक्त है, देखें -
'एक अंतर्राष्ट्रीय सभा में ब्रज़ीलाई पादरी लेओनार्दो बाफ़ ने दलाई लामा से एक शरारती प्रश्न किया, “ हे महात्मन, विश्व में कौन सा धर्म सर्वश्रेष्ठ है?” लेओनार्दो तो निश्चित थे कि दलाई लामा बोलेंगे 'बौद्ध धर्म'।'
किन्तु दलाई लामा ने मुस्कराकर उत्तर दिया -
“धर्म महत्वपूर्ण नहीं है। जो आपको ईश्वर के निकटतम ले जाए और एक बेहतर मनुष्य बनाए ।"
अब तो लेओनार्दो झेंप गए और उऩ्होंने ने अपनी झेंप मिटाने के लिये पूछा,
“ महात्मन, वह क्या है जो मुझे बेहतर मनुष्य बनाएगा ?
दलाई लामा ने सरलता से उत्तर दिया,
“ जो भी आपको अधिक करुणामय बनाएगा, अधिक संवेदनशील, अधिक वियुक्त, अधिक स्नेही, अधिक मानवीय, अधिक जिम्मेदार तथा अधिक नैतिक बनाएगा।"
लेओनार्दो बाफ़ उनके अनमोल उत्तर से अभिभूत थे !
 
5. आज के इस पूँजीवादी तथा भोगवादी भारत में शिक्षा मनुष्य को धन कमाने की‌ मशीन बना रही है, और वास्तव में नैतिक शिक्षा की कमी उसे 'राक्षस' बना रही है, और अज्ञानवश वह खुशी‌ खुशी राक्षस बन रहा है - किसी भी कीमत पर, अपने सुख के लिये अपनी‌ इच्छाओं को पूरी‌ करना ही तो राक्षसत्व है । मानव बनने के लिये यथा समय चारों पुरुषार्थों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – अर्थात चारों कर्तव्यों की शिक्षा आवश्यक है। धर्म का अर्थ यहां किसी संप्रदाय के नियमों का कठोर पालन नहीं, वरन मानव बनने के लिये जो गुण आवश्यक हैं वह धर्म है, यथा धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य तथा अक्रोध आदि गुण हैं। अर्थों का अर्जन अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये करना भी हमारा कर्तव्य है, और मोक्ष अर्थात इस संसार में दुखों से निवृत्ति भी। इन चारों कर्तव्यों की शिक्षा के स्थान पर आज मात्र एक कर्तव्य की‌ शिक्षा ही दी जा रही है - अर्थार्जन की शिक्षा। यहां तक कि कामनाएं कैसी हॊं, इसकी‌ शिक्षा विज्ञापन, विशेषकर टीवी के रंगीन तथा निर्बाध विज्ञापन देते हैं। टीवी भोगवाद बढ़ाने के लिये स्वर्ण का वह पर्दा बन गया है जो मानवता को ढ़ँके रहता है।
 
6. विज्ञापन का ध्येय अपने लिये तथा विज्ञापनदाता के लिये धन कमाना होता है। उऩ्हें जनमानस की भलाई का ध्यान शायद ही होता है, यद्यपि उनकी‌ भाषा (दृष्टिक या शाब्दिक) ऐसा भ्रम देती‌ है कि वे तो मात्र जनमानस की भलाई ही कर रहे हैं। वास्तव में विज्ञापन में‌ भाषा का साज शृंगार कर उसे बहुत बहुत लुभावना बनाया जाता है, मानों कि आज का विज्ञापनकार ग्राहकों को. लुभाने के लिये भाषा को 'कोठे' पर ही बिठा देता है। और सामान्य जन मोहित होकर विज्ञापित वस्तुओं को खरीद लेते हैं, चाहे वे आवश्यक हों‌ या नहीं। 'मार्कैटिंग' वाले विज्ञापन का कार्य अनावश्यक को आवश्यक सिद्ध करना होता है जिसे वे बड़ी सफ़लता से कर रहे हैं। आज के प्रौद्योगिकी के समय में पुराना मुहावरा ' आवश्यकता आविष्कार की‌ जननी है' सिर के बल खड़ा कर दिया गया है - ' आविष्कार आवश्यकता का जनक है '। आज का उद्योगपति, विज्ञापन के द्वारा, लुभावनी (सैक्सी) भाषा में कहता है, " मैने एक नई वस्तु जैसे नए मोबाइल या नए जूते का आविष्कार कर लिया है जिसकी आवश्यकता आपको है और उसे आप तुरंत ही‌ खरीदें, अन्यथा आप पिछड़ जाएंगे।' इसके फ़लस्वरूप बड़ी ही लुभावनी भाषा (शाब्दिक तथा दृष्टिक) के द्वारा निर्बाध भोग की शिक्षा ही मिल रही है जो मनुष्य को राक्षस बनाती है। अपने भोग अर्थात सुख के लिये ही अर्जन करना है, न तो नैतिकता का बन्धन है और न इसकी‌ चिन्ता कि यह तो अन्तत: सभी को दुख ही देगा, और अन्तत: प्रकृति का विनाश करेगा ।
 
7. निर्विशेषता की शिक्षा के लिये क्या क्या विषय होना चाहिये :--
१. भाषा, क्योंकि 'भाषा और विचार करना' मनुष्य तथा अन्य जानवरों में उसकी श्रेष्ठता के लिये सबसे बड़ा अन्तर है।
२. गणित, क्योंकि अमूर्त की कल्पना और उसका उपयोग मनुष्य को भाषा की सीमा के पार ले जाता है और गणित मूर्त तथा अमूर्त के बीच संबन्ध भी स्थापित करती है।
३. वैज्ञानिक समझ, इसका अर्थ उतना विज्ञान के सिद्धान्त नहीं जितना तर्क संगत तथा प्रमाणों पर आधारित जानकारी को जाँच परखकर स्वीकार करना है, इस अवधारणा के निकट एक और शब्द है 'स्कैप्टिसिज़म' अर्थात 'संशयवाद', जिसका मूल उद्देश्य है अंधविश्वास न करना, बिना प्रमाण न मानना तथा प्रमाण न मिलने तक मस्तिष्क को खुला रखना।
४. स्वस्थ शरीर तथा श्रम का महत्व ।
५. प्रकृति प्रेम, कला प्रेम, मानव प्रेम।
६. खेल अर्थात मन और शरीर की क्रियाओं में मेल, संयम तथा नियोजन।
७. कर्तव्य परायणता, अविलंबता, शिल्प कर्म तथा कौशल।
८. ऊर्जा, पारिस्थितिकी तथा पर्यावरण का महत्व ।
९. जिज्ञासा, प्रश्नाकुलता तथा ज्ञानप्रेम, सौहार्द, मैत्री, सहयोग, समानता, साहसिकता, सहानुभूति, स्वाभिमान, सकारात्मक संवेदनाएं यथा प्रेम, करुणा, उदारता आदि 'हृदय के गुणों की शिक्षा, ।
१०. सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षा है 'स्वयं सीख सकने' की शिक्षा।
 
8. भाषा की शिक्षा के भी पहले शिशु माता पिता, परिवार आदि से उनके हावभाव, बोलचाल तथा व्यवहार से बहुत कुछ सीख लेता है। पहले ८ – १० वर्ष की आयु तक की समस्त प्रकार की शिक्षा उसके व्यवहार की नींव का निर्माण करती है। अत: शिक्षा की नींव के लिये परिवार तथा समाज का उत्तरदायित्व बनता है कि वे अपने व्यवहार से उसे प्रेम, सहयोग, करुणा, संवेदनशीलता, जिज्ञासा, प्रश्नाकुलता, सत्य, निश्छलता, कार्य निष्ठा, स्वस्थ तथा जिम्मेदार बनने आदि की शिक्षा दें। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम के जन्म तथा विकास के समय में अयोध्या के समस्त निवासी‌ बहुत ही मानवीय गुणों से युक्त थे तभी राम राम बन सके । एक अफ़्रीकी कहावत भी है कि 'बालक के विकास के लिये पूरे गाँव का योगदान चाहिये। एक महान समाज महान पुरुष पैदा कर सकता है; वैसे यह भी सच है कि कमल पंक में‌ हो सकता है। यह भी सच है कि एक चना भाड़ नहीं फ़ोड़ सकता और यह भी सच है कि मात्र एक महान पुरुष समाज को बदल सकता है।
 
9. शिक्षा का अर्थ मात्र स्कूली शिक्षा ही नहीं है, परिवार तथा समाज का भी बहुत बड़ा हाथ है, और यह शिक्षा सारा जीवन चलती है। किसी भी 'गलत' समाज के बच्चों को 'सही' शिक्षा देना अत्यंत कठिन कार्य है। इसके प्रमाण अनेक हैं, उदाहरणार्थ, (यह जानकार लोगों को समाचार पत्रों, इंटरनैट, बीबीसी आदि द्वारा विदित है कि) ब्रिटैन2 के स्कूलों में यह कठिनाई इतनी हो रही है कि शिक्षक, माता पिता तथा पुलिस सभी अपने को निस्सहाय पा रहे हैं। ब्रिटैन के युवाओं की दो बहुत बड़ी समस्याएं हैं - युवाओं का, यहां तक कि किशोरों का, 'शराबी' होना, तथा दूसरी दयनीय समस्या है, स्कूलों में मुफ़्त कंडोम बाँटने तथा यौन शिक्षा देने के बाद भी 'अविवाहित निस्सहाय माताओं' की बढ़ती संख़्या' । यूएसए में अनेक स्कूलों में युवाओं को हथियारों के लिये 'स्कैन' किया जाता है। वहां के स्कूली विद्यार्थियों द्वारा की गई निर्मम हत्याएं विश्वकुख्यात हैं। वहां स्कूलों में विद्यार्थियों को और घरों में बालकों को शारीरिक दण्ड देना अपराध है। वहां के युवा विद्यार्थियों की उपरोक्त जो समस्याएं हैं उनके लिये यह दण्ड का निषेध एक महत्वपूर्ण कारण है। यह देखते हुए हमें पश्चिम से इस नियम की नकल नहीं करना चाहिये। मेरी समझ में बालकों को केवल वे ही‌ दण्ड दे सकते हैं जो उनसे प्रेम करते हैं, और जिनका उद्देश्य बालकों को मानव बनाना है। इस प्रक्रिया में‌ कुछ गलतियां‌ होंगी, किन्तु गलती करने वालों को दण्ड दिया जा सकता है। उद्दण्ड बालकों और विद्यार्थियों को कितना और कौन सा दण्ड देना उचित है, इस पर गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। यदि हम बच्चों को मानव बनाना चाहते हैं तब हमें मानवोचित शिक्षा देते हुए स्वयं मानव सा व्यवहार तो करना ही चाहिये।
 
10. बच्चों को प्राथमिक शालाओं में कैसी निर्विशेष शिक्षा देना चाहिये?‌ उसे भाषा, गणित, संगीत, शिल्प तथा कला और कौशल की विशेष शिक्षा आदि के साथ उपरोक्त दस शिक्षाएं देना चाहिये। और इन समस्त विषयों की शिक्षा में हमें मानवता की शिक्षा को मूल में अवश्य ही रखना चाहिये । गणित उऩ्हें गिनने की तथा मूर्त से 'अमूर्त' को समझने की शिक्षा देती है। भाषा अन्य सभी ज्ञानों के लिये माध्यम के रूप में आवश्यक है; दूसरे, यह उसके सोचने का प्रमुख माध्यम भी है। सोचने के अर्थ में विश्लेषणात्मक, संश्लेषणात्मक, सृजनशील तथा नवाचारी सोच सम्मिलित हैं। और तीसरा कारण है भाषा का संस्कृति की वाहिनी‌ होना, जो कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । भाषाओं में श्रव्य तथा दृष्य भाषाएं सम्मिलित हैं, जो प्रश्न करने की शक्ति तथा सोचने की शक्ति देती है जो समस्याओं को हल करने की योग्यता देती हैं जो मनुष्य को जानवरों से श्रेष्ठ बनाती हैं तथा जीवन को नरक के स्थान पर शांति तथा समृद्धि का सागर बनाती हैं।
 
11. एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि कौन सी‌ भाषा में बालकों को शिक्षा देना चाहिये? भाषा का महत्व जानने के लिये जर्गैन हेबरमैस3 द्वारा दी गई परिभाषा सहायता करती है - 'भाषा जीवनतंत्र का माध्यम है, उसी तरह जिस तरह पैसा आर्थिक तंत्र का और 'शक्ति' राजनैतिक तंत्र का, इसीलिये भाषा समाज को बदल सकती‌ है -अच्छे के लिये या बुरे के लिये। राबर्ट बैल्लाह4 के अनुसार भाषा विश्व को जीवन्त बनाती है। भाषा की अपनी संस्कृति होती है, जान सर्ल5 के अनुसार भाषा एक सामाजिक संस्था है। जिस तरह व्यापार तथा विपणन का वैश्वीकरण हो रहा है, उसी तरह भाषा के अंग्रेज़ीकरण के रूप में वैश्वीकरण करने का पूरा प्रयास यूएसए तथा ब्रिटैन कर रहे हैं। किन्तु जिस तरह व्यापार के 'समतलीकरण' में, जो कि समता का छद्म है, शक्तिशाली ही‌ जीतता है, उसी तरह भाषा के वैश्वीकरण में अंग्रेज़ी तंत्र ही‌ जीतेगा, उनके जीवन मूल्य अर्थात भोगवाद छा जाएंगे जिसमें मानव एक हिंस्र पशु बन जाता है। भारतीय भाषाएं मानवीय मूल्य लाती हैं, वसुधैव कुटुम्बकम स्थापित करती हैं। (इतिहास साक्षी है कि भारत ने कभी भी तलवार के बल पर अपनी संस्कृति किसी‌ पर भी‌ कभी‌ भी‌ नहीं लादी, यद्यपि चीन यह स्वीकार करता है कि भारतीय संस्कृति ने उनके ऊपर २००० वर्ष राज्य किया।) अतएव शिक्षा का माध्यम विकसित राष्ट्रभाषाएं‌ या मातृभाषाएं ही होना चाहिये। इसलिये भी कि शिक्षा, विशेषकर संस्कृति की शिक्षा, तथा सृजन शिक्षा के लिये सर्वोत्तम भाषा मातृभाषा ही होती है, और संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार यह बालकों का मानवाधिकार भी‌ है।
 
12. चाहे जितने करोड़ व्यक्ति काम चलाऊ अंग्रेज़ी में गिटपिट कर लें, किन्तु उसमें गंभीर कार्य कर सकने वाले तो कुछ हजार ही‌ हैं। ' एजुकेशन फ़र्स्ट' (ईएफ़) एक विश्वव्यापी संस्था है जिसका प्रमुख ध्येय वैश्विक स्तर पर अंग्रेज़ी‌ भाषा का शिक्षण देना है, और यह विदेशों में अंग्रेज़ी‌ भाषा में नौकरी दिलाने का कार्य भी‌ करती है जिसके लिये यह निवेदकों की अंग्रेज़ी जानकारी का परीक्षण भी‌ करती है जिसे यह 'ईएफ़ इंग्लिश प्रौफ़िशियैंसी सूची' के नाम से प्रकाशित करती है। इसकी वैश्विक अर्थात कुल ४५ देशों की सूची में‌ भारत का स्थान ३१ वां है जो 'लो प्रौफ़िशिएन्सी' (निम्न निपुणता) में आता है, और इसके बाद ब्राज़ील और रूस हैं, जिनके बाद 'वेरी लो प्रौफ़िशिएन्सी' श्रेणी के देश हैं ! केवल 'आन लाइन' परीक्षण होने से इसकी महत्ता कुछ कम आँकी जाती है; किन्तु जो विदेशों में‌ कार्य करना चाहते हैं आज उऩ्हें कम्प्यूटर पर कार्य की जानकारी तो आवश्यक ही मानी‌ जाएगी। इससे कुछ निष्कर्ष निकलते हैं, कि बचपन से ही अंग्रेज़ी पढ़ाने से कोई आवश्यक नहीं है कि वयस्क समय में‌ अंग्रेज़ी में‌ निपुणता बढ़ जाएगी, हां उनकी अपनी‌ ही‌ भाषा में निपुणता अवश्य कम हो जाएगी। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण है कि भारतीयों में १५० बरसों के शिक्षण के बाद भी अंग्रेज़ी में निपुणता कितनी कम है। वास्तव में यूरोपीय देशों में ही अंग्रेजी‌ में‌ अच्छी निपुणता मिलती है। अर्थात भारत में कुछ हजार व्यक्ति ही अंग्रेज़ी के बल पर मलाई खा रहे हैं, और खाते रहेंगे।
 
13.  अनेक ब्राउन साहब दावा करते हैं कि भारत को 'साफ़्ट वेअर में विदेशों में जो उच्च स्थान प्राप्त है उसका कारण साफ़्टवेअर के साथ उनका अंग्रेज़ी ज्ञान है। यह अन्य देशों से तुलना करने पर सही नहीं निकलता। पाकिस्तान में ४९% (भारत में लगभग १०%) व्यक्ति अंग्रेज़ी में‌ बातचीत कर सकते है ( जो भारत में अंग्रेज़ी में‌ बातचीत कर सकने वालों की संख्या की तुलना में ७० % है।) किन्तु साफ़्टवेअर में उनका  कहीं विशेष नाम नहीं है। भारतीय गणित और इसलिये तर्कशास्त्र में निपुण होते हैं, चीनी‌ भी इसी‌ श्रेणी में आते हैं। इसलिये साफ़्टवेअर में‌ हमारा मुकाबला चीनियों से होता है यद्यपि चीनियों की अंग्रेज़ी हमारी तुलना में‌ निश्चित ही कमज़ोर मानी‌ जाती है। अंग्रेज़ी के वैश्विक तथा देशी कुप्रचार के कारण अंग्रेज़ी की आवश्यकता सिद्ध करने के लिये तरह तरह के भ्रम फ़ैलाए गए हैं। इस विषय में ब्रिटैन से प्रकाशित 'गार्जियन वीकली' के १३ मार्च १२ के अंक में राबर्ट फ़िलिप्सन का लेख ' लिन्ग्विस्टिक इंपीरियलिज़म एलाइव एन्ड किकिंग' ( भाषाई उपनिवेशवाद जीवित और कर्मठ है) पठनीय है जो प्रामाणिक जानकारी देता हुआ अपने कथन सिद्ध करता है -
(१) नमीबिया में इंग्लिश थोपे जाने के बाद भी भयंकर असफ़ल रही है, और वह बालकों के मस्तिष्क को विषैला कर रही है।
(२) भाषाई मिथ पाकिस्तान में (जहां ५०% व्यक्ति अंग्रेज़ी बोल सकते हैं) स्कूली शिक्षा को अपंग बना रही है, यह मिथ है कि 'अंग्रेज़ी पढ़ो और जीवन में सफ़लता पाओ' ! (दृष्टव्य है कि यही‌ मिथ भारत में भी व्याप्त है। इस समय अंग्रेज़ी में पढ़े एक इंजीनियर स्नातक को प्रारंभिक वेतन १०००० रु. प्रति माह मिलता है जो कि एक अपढ़ चपरासी के वेतन के लगभग बराबर है। कुछ समय बाद अंग्रेज़ी वाले भी जेब काटते, लोगों को लूटते, उऩ्हें‌ ठगते नज़र आएंगे, वरन आ रहे हैं।)
(३) यूएस ए तथा ब्रिटिश शासन अंग्रेज़ी के प्रसार में तेज़ी से कार्य कर रहे हैं।
(४) अंग्रेज़ी 'एक भाषावाद' को बढ़ाती है, अर्थात मात्र अंग्रेज़ी का उपनिवेश।
(५.) ब्रिटिश काउन्सिल विश्व की अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली विशालतम संस्था है। और प्रचार करते करते यह बहुत धन का अर्जन भी करती‌ है - प्रत्येक १.६ डालर के खर्च पर यह ४ डालर कमा रही‌ है !
(६) ब्रिटिश के जो लक्ष्य उपनिवेश काल में थे , वही‌ लक्ष्य आज भी‌ हैं; वह आज भी अंग्रेज़ी के पक्ष में वही तर्क दे रही‌ है जो लार्ड मैकाले8 ने १८३५ में दिये थे ।
(७) अंग्रेज़ी‌ की‌ (षड़यंत्रकारी ) माँग पश्चिमी सरकारों, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं तथा उनके मित्र देशों ने मिलकर अपने 'एजैंडे' के लिये बनाई है। (क्या ब्राउन साहब अब भी चेतेंगे ?)
 
14. शिक्षा के माध्यम की समस्या केवल कुछ पूर्व गुलाम देशों की ही है, अन्य सभी देश, यहां तक कि छोटा सा नवजात देश इज़राएल भी, अपनी ही भाषा में शिक्षा देते हैं। सभी साम्राज्यवादी देशों ने अपने उपनिवेशों में अपनी भाषाएं बल तथा छलपूर्वक स्थापित की थीं। अब उनके चले जाने के बाद भी, भारत में लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति के अनुसार सभी 'ब्राउन साहिब' वही औपनिवेशिक भाषा ही चाहते हैं। गुलामी का एक सर्वमान्य लक्षण है 'स्टाकहोम सिंड्रोम' जिसके अनुसार सबसे पक्का गुलाम वह है जो गुलाम होते हुए भी अपने को गुलाम नहीं मानता, इसीलिये हमारे ब्राउन साहब (१००% गुलाम) अपनी सोच में गुलाम होते हुए भी अपने को पूर्ण स्वतंत्र मानते हैं । और इसीलिये हमारे देश में अंग्रेज़ी का राज्य है, जिसके परिणामस्वरूप हमारी सोच भी गुलाम है।
 
15. हमारी राष्ट्रभाषाएं, एक अपवाद के साथ, संस्कृत की पुत्रियां हैं, और उनमें अपनी‌ माता के गुण सहज ही विद्यमान हैं। विश्व के अनेक सुप्रसिद्ध विद्वान संस्कृत भाषा को विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा मानते हैं। नासा के वैज्ञानिक रिक ब्रिग्ज़ : “कम्पूटर के लिये सर्वोत्तम भाषा संस्कृत है, स्वाभाविक भाषा (संस्कृत) कृत्रिम भाषा की तरह भी कार्य कर सकती है।" प्रसिद्ध भाषाविद तथा संस्कृत पंडित विलियम जोन्स :- “संस्कृत भाषा की संरचना अद्भुत है; ग्रीक भाषा से अधिक निर्दोष तथा संपूर्ण; लातिनी‌ भाषा से अधिक प्रचुर; तथा इन दोनों से अधिक परिष्कृत। इसी तरह भाषाविद तथा विद्वान विलियम कुक टेलर, जार्ज इफ़्राह, मौनियेर विलियम्स, सर विलियम विल्सन हंटर, अल्ब्रेख्ट वैबर, लैनर्ड ब्लूमफ़ील्ड, वाल्टर यूजीन क्लार्क, फ़्रैडरिख वान श्लेगल, और आज के (सेंट जेम्स इंडिपैन्डैन्ट स्कूल, कैन्सिन्गटन, लंदन के संस्कृत विभागाध्यक्ष) वारिक ज़ैसप, ब्रिटैन के शिक्षा विशेषज्ञ पाल मास आदि ने खुले हृदय से संस्कृत की‌ प्रशस्ति में‌ गीत गाए हैं।
 
16. उपरोक्त गुलामी मानसिकता के कारण शिक्षा का पहला ही नियम कि ज्ञान का प्रसार ज्ञात से अज्ञात की ओर किया जाना चाहिये, निर्ममता पूर्वक तोड़ा गया है। आज शिक्षा का माध्यम सारे भारत में अंग्रेज़ी किया गया है, जिसके कारण बालकों ने पहले पाँच वर्षों में जो अमूल्य सीखा है, (और जो वे आजीवन सीखते रहेंगे,) उसका बहुत कम उपयोग होता है, और उऩ्हें 'नर्सरी राइम' तथा 'अर्थहीन' अंग्रेज़ी शब्द रटाए जाते हैं। उसकी बुद्धि के विकास में बचपन से ही यह बेड़ी डाली जा रही है, और गुलाम लोग मस्त हैं क्योंकि रोटी तो अंग्रेज़ी से ही मिलेगी। हम लोग इतने गुलाम या मजबूर हैं कि हम यह नहीं जानते कि अंग्रेज़ी की रोटी‌ में ज़हर है। आज अंग्रेज़ी को हमने अत्यावश्यक मान लिया है, यद्यपि जो सही‌ नहीं है, तब भी हम अंग्रेज़ी अवश्य सीखें किन्तु प्राथमिक विद्यालय में‌ नहीं। प्राथमिक शाला में मातृभाषा तथा राष्ट्र्भाषा (राज भाषा) के प्रति प्रेम का विकास होना चाहिये, जो अंग्रेज़ी के आने से बधित होता है। प्राथमिक स्तर से ही न केवल अंग्रेज़ी की शिक्षा, वरन शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी किये जाने के कारण बालक के रट्टू तोता बनने की आशंका बहुत अधिक बढ़ जाती है। जब कि लगभग पाँचवीं कक्षा तक मातृभाषा (या क्षेत्रीय भाषा) में पढ़ने से उनके मन मस्तिष्क में एक भाषा ठीक से बैठ सकती है। वरना वे उसी‌ कच्ची आयु से खिचड़ी‌ भाषा का प्रयोग करने लगते हैं जिससे हिंग्लिश, बंगिंग्लिश, टमिंग्लिश आदि वर्णसंकर भाषाएं जिऩ्हें अंग्रेज़ी‌ में‌ 'क्रियोल' कहते हैं, उत्पन्न हो रही‌ हैं। मारीशस तथा वैस्ट इंडीज़ आदि में पहले गिरमिटियों की भोजपुरी आदि का क्रियोलीकरण हुआ और अब वे लुप्त प्राय हैं।। अत: यदि बहुत जल्दी करना ही है तब छठवीं कक्षा से अंग्रेज़ी भाषा की शिक्षा प्रारंभ की‌ जा सकती है। और अंग्रेज़ी‌ माध्यम में शिक्षा महाविद्यालयों से ही प्रारंभ करना चाहिये क्योंकि तब तक विद्यार्थियों के मन में भिन्न अवधारणाओं के गूढ़ अर्थ ठीक से बैठ सकते हैं जो विदेशी भाषा में रटने से नहीं हो सकते। मैं और ऐसे असंख्य व्यक्ति हैं जिऩ्होंने इसी तरह ही अंग्रेज़ी शिक्षा पाई थी, और हमें कहीं भी, यहां तक कि मुझे और अन्य अनेक साथियों को इंग्लैण्ड में एम टैक करने में भी‌ कोई कठिनाई नहीं हुई।
 
17. चौथे पैरा में उद्धृत अथर्ववेद के रत्न के कथन पर आश्चर्य होता है कि उस पुरातन काल (लगभग ५००० वर्ष पूर्व) में‌ भी‌ उनके विचार इतने अनोखे और सार्वकालिक थे कि आज भी सत्य हैं। और हमारे पास यह ज्ञान - जो परस्पर सहयोग की‌ भावना बढ़ाएं तथा कल्याणकारी हों - होते हुए भी हमारी आज की शिक्षा मात्र अर्थार्जनी‌ रोबाट पैदा कर रही‌ है, जो स्वभावतया रोबाट न रहकर राक्षस बन रहे हैं जिसका दुष्परिणाम यह देश हिंसा, आतंक, अनाचार, व्यभिचार आदि के रूप में‌ भुगत रहा है।
 
18. अंग्रेज़ी शिक्षा इसी तरह जहां भेद न हों वहां भी अन्य भेद डालती है, यथा पुरुष – स्त्री भेद, धार्मिक भेद, भाषा भेद, आर्य – द्रविड़ भेद आदि।
 
19. दिखाने के लिये कि 'निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करना 'बालकों का अधिकार है' विधेयक २००८ में पारित किया गया। और तब इसका बड़ा गाना गया। तात्कालीन मानव संसाधन मंत्री ने घोषणा की कि "यह एक ऐतिहासिक विधेयक है, जैसा कि पिछले ६२ वर्षों में पारित नहीं हुआ, और जिसके द्वारा बालकों का भविष्य समुन्नत होगा। हम यह कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं कि हमारे बालक शिक्षा न पाएं।" और यह स्पष्ट दिख रहा है कि यह कागज़ पर ही जीवित है, और यथार्थ कुछ और है। शासकीय विद्यालयों में शिक्षकों कि भारी कमी, उन कम शिक्षकों को भी शिक्षा से इतर कार्यों, जैसे चुनाव, जनगणना आदि, में हमेशा ही लगाना। जब से इस विधेयक के अनुकूल शिक्षा दी जा रही है, तब से या शिक्षा ही खतम हो गई है या बालकों की शिक्षा का उद्द्देश्य ही गड़बड़ा गया है । शिक्षकों का अधिकांश समय मध्याऩ्ह भोजन बनाने तथा खिलाने और सफ़ाई करने में निकल जाता है। सरकारी स्कूलों में मध्याऩ्ह तक बच्चों को शरीर के लिये भोजन' तो, चाहे जैसी गुणवत्ता वाला हो, मिलता है; किन्तु मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिये शायद ही कुछ मिलता हो । इसका दोष शिक्षकों के सिर और जातिभेद पर मढ़ा जाता है। इस तरह द्वेष देखने का कारण भी अंग्रेज़ी शिक्षा द्वारा जाति भेद डालना है। अंग्रेज़ी शिक्षा इसी तरह जहां भेद न हों वहां भी अन्य भेद डालती है। क्योंकि अंग्रेज़ी शिक्षा या संस्कृति भोगवाद अर्थात स्वकेन्द्रित तथा स्वार्थी संस्कृति के बीज डालती है। यदि अंग्रेज़ी‌ भारत में पूरी तरह आ गई तब भारत के टुकड़े होने की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाएगी, जब कि लोगों को भ्रम है कि भारत को आज अंग्रेज़ी जोड़ रही‌ है, यह नितांत गलत है। हम लोग, चाहे हमारी‌ भाषा हिन्दी‌ हो या बांग्ला, या तमिल हो या उड़िया या तेलुगु हो या कन्नड़ हो या मलयालम हो या पंजाबी, असमी हो या कश्मीरी, कोई भी‌ हो पर हो भारतीय, भारतीय संस्कृति के प्रेम के कच्चे धागे से बँधे हैं।
 
20. बच्चों को यदि शासकीय विद्यालयों में न सही किन्तु निजी विद्यालयों में शिक्षा,चाहे वह कितनी‌ भी‌ मँहगी क्यों न हो, मिल तो रही है, । किन्तु क्या यह मँहगी शिक्षा भी संतोषप्रद है? नहीं, क्योंकि पाठ्यक्रम तो अर्थार्जनी रोबाट या राक्षस ही पैदा कर रहा है । तब प्रश्न उठता है कि हम इस तानाशाही जनतंत्र शासन के समय क्या करें। इतनी गड़बड़ी होने पर भी‌ इसे ठीक करने के लिये हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। इस शासन के कार्यकाल में तो पाठ्यक्रम को बदलना एक बहुत बड़े आन्दोलन की‌ माँग करता है। तब भी‌ वह यक्ष प्रश्न खड़ा रहता है कि हम इस विचित्र जनतंत्र में क्या करें। इसके हल ढ़ूँढ़ने का हल भी तो शिक्षा का एक लक्ष्य होना चाहिये । किन्तु इस 'एक पुरुषार्थी' शिक्षा के फ़लस्वरूप तो हर व्यक्ति धन कमाने में लगा है, शासन मनमानी कर (लूट्) रहा है। यदि हम अपने को इस जनतंत्र में निस्सहाय तथा निराश पाते हैं, तब विचित्र बात तो नहीं। इसके हल की दिशा में जाने के लिये मुझे एक पगडंडी नज़र आती है, जो आशा है कि भविष्य में हमें राजमार्ग से जोड़ देगी।
 
21. आज शिक्षा पद्धति का उद्देश्य बालकों को साक्षर - चिट्ठी पत्री पढ़ने के लिये , नौकरी आदि करने के लिये साक्षर - बनाना हो गया है। यह शिक्षा उऩ्हें रोटी कमाने का कौशल अवश्य देती है, किन्तु उऩ्हें सोचने की शिक्षा शायद ही देती है। अनेक उद्योगपति तो मांग करते हैं कि उऩ्हें जिस कौशल से युक्त युवक अपने माल का उत्पादन और विपणन करने के लिये चाहिये, वैसी शिक्षा युवकों को दी‌ जाना चाहिये । क्या हम मात्र आर्थिक जानवर हैं ! यदि हम गहराई से सोचें तब हमें मनुष्य बनने के लिये चारों पुरुषार्थों के हेतु शिक्षा मिलना चाहिये, शैशव अवस्था से वृद्धावस्था तक, और यह कर्तव्य मातापिता, गुरु, समाज तथा शिक्षा संस्थानों का है। कौशल के लिये शिक्षा अवश्य दी जाए किन्तु पहले मानव बनने की शिक्षा दी जाना चाहिये। यदि हम इस तथा कथित सैकुलर जनतंत्र में आत्महंता शिक्षा पद्धति को सुधारने के लिये अपने को असहाय पा रहे हैं, तब स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा बालकों में मानवीय मूल्यों के बीज डालने के लिये कहानियां सुनाना तथा योग्य पुस्तकालय चलाना एक अत्यंत उपयोगी कार्य हो सकता है। आधुनिक 'एक पुरुषार्थी' शिक्षा पद्धति में यह अतिरिक्त कार्य नैतिक शिक्षा की कमी को पूरा कर सकता है, तथा कहानियां सुनाने के समय उचित, अनुचित कामनाओं पर भी प्रकाश बखूबी डाला जा सकता है। सामान्यत: शिक्षाविद यह मानते हैं कि प्राथमिक शालाओं की शिक्षा की गुणवत्ता विद्यार्थी के भविष्य की‌ नींव डालती है। मेरा अनुभव कहता है कि प्राथमिक शालाओं के साथ तथा इससे भी पहले विकास की जो नींव पड़ती है वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस नींव के लिये दो घटक महत्वपूर्ण हैं - उसके परिवार का व्यवहार तथा उसके द्वारा सुनी गई कहानियां।

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