Thursday, 4 July 2013

हम देश के जागरुक नागरिक बन कर, व्यवस्था परिवर्ततन का स्वपन साकार करें !

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हमारे जन प्रतिनिधि कैसे हों? उनके व्यक्तित्व में क्या विशेषताएं होंनी चाहिये, इसका मापदंड हम तय करेंगे। राजनीति दलों को बाध्य करेंगे कि जिस व्यक्ति को वे अपनी पार्टी के प्रत्यासी के रुप में प्रस्तुत करेंगे, उसमें उक्त गुण आवश्यक होने चाहिये, अन्यथा हम उसे अस्वीकृत कर देंगे। इस संबंध में  मैंने अपने विचार-’राजनीति-खेल नहीं, एक गम्भीर विषय है- राजनीति का शुद्धिकरण आवश्यक है।’ में व्यक्त किये थे। इस विषय पर कुछ प्रतिक्रयाएं प्राप्त हुई है। यह टिप्पणी की गयी थी कि यह एक कोरी कल्पना है। इसे कैसे सम्भव बनाया जा सकता है?
हॉं, मैं यह मानता हूं कि मेरी कल्पना का साकार होना वर्तमान परिस्थितियों में  बहुत मुश्किल है। किन्तु असम्भव नहीं है। यह भी सही है कि भारत की राजनीति, शक्तिशाली गिरोहों द्वारा नियंत्रित की जा रही है। ये राजनेता नहीं, विशुद्ध व्यावसायी है, जो छल, कपट और धोखा देने में निष्णात है। भारत की राजनीतिक व्यवस्था पर इनका नियंत्रण है  और किसी भी हालत में नियंत्रण छोड़ना नहीं चाहेंगे।   राजनीति का व्यवसाय भारी मुनाफा देने वाला है। कोई भला इस सोने की खान को क्यों छोड़ना चाहेगा? उन्हें मालूम है कि भारत की जनता को किस तरह मूर्ख बनाया जा सकता है और कैसे उसे ठगा जा सकता है।
‘कुछ नहीं हो सकता, ऐसे ही चलेगा’। यह सोच कर क्या हम हकीकत से हमेशा आंखें बंद किये चुपचाप बैठे रहेंगे? क्या यही हमारी नियति रहेगी? यही संतोष कर लेंगे कि हम से भी ज्यादा दुखी लोग इस संसार में  है। हम उनसे तो अच्छा जीवन जी रहे हैं। जब कि राजनीति व्यवस्था का प्रतिकूल प्रभाव देश के हर नागरिक पर पड़ रहा है और वह इसकी पीड़ा को भोग रहा है।
क्या यह सही नहीं है कि जो सामान पहले  आपको सौ रुपये में मिलता था, उसे अब आप दो सौ में खरीद रहे हैं? आपको अपनी जेब से दुगुना पैसा देना पड़ रहा है, जब कि आपका वेतन इतना नहीं बढ़ा है। सामान इसलिए महंगा मिल रहा है, क्योंकि उस पर टेक्स पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गये हैं। उद्याोगपतियों ने उस पर अपना मुनाफा बढ़ा दिया है। टेक्स इसलिए बढ़ गये, क्योंकि बजटघाटा प्रतिवर्ष बढ़ता रहता है। क्योंकि जिन्हें जनता के पैसे का प्रबन्धन सौंपा जाता है, वे पूरी तरह से जवाबदेय और ईमानदार नहीं है। जनता के पैसे का अपव्यय कर रहे है या इसका चालाकी से गबन कर रहे हैं।
भारत में सांसद या विधायक का चुनाव जीतना साधारण नागरिक के बस की एक बात नहीं है। सांसद को चुनाव लड़ने के लिए पचास करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करने पड़ते है। चुनावों में उद्योगपतियों का धन बहता है। यह भी सच है कि कोई भी व्यापारी अपना पैसा नाली में नहीं फैंकता है। यदि वह कही एक रुपया फैंकता है, तो वहां से दो रुपया खींचता है। निश्चय ही अपना पैसा या तो उत्पाद की लागत बढ़ा कर पूर्ति करता है या नौकरशाहों और राजनेताओं के साथ मिल कर घोटालों को अंजाम देता है। वस्तुत: यह एक सुनियोजित लूट है। इस लूट में राजनेता, व्यावसायी और नौकरशाह मिले हुए हैं। इस त्रिगुट के अवैध संबंधों की प्रगाढ़ता ही सारी समस्याओं की जड़ है और देश की दुर्दशा का कारण बनी हुई है।
सरकार की नीतियों का प्रभाव न केवल आपकी जेब पर पड़ता है, वरन शिक्षा, स्वास्थय और देश की  आंतरिक सुरक्षा भी प्रभावित होती है। अत: राज का कार्य सम्भालने के लिए असाधारण व्यक्तित्व चाहिये। स्वाथ्री, तिकड़मी और धूर्त व्यक्ति नहीं। यदि हर समय हम अपना प्रतिनिधि चुनने में भूल करते रहें, तो हमारी समस्याएं बढ़ती जायेगी।
इस समय सारे राजनीतिक दल चुनावों की तैयरियों में लगे हुए हैं। चुनाव कैसे जीता जाय और कैसे अपने दल की सरकार बनायी जाय?- इस बारे में रणनीति बनायी जा रही है। सारी पार्टियां धन के जुगाड़ में लगी हुई है।  चुनाव की घोषणा होते ही प्रचार प्रारम्भ हो जायेगा। एक दूसरे को श्रेष्ठ बताने की कवायद होगी। अपने पापों को छिपाने की लिपापोती  होगी। लोकलुभावन नीतियों से जनता को लुभाने की कोशिश होगी। कई तरह के नारे हवा में उछाले जायेंगे। जनता से वादे किये जायेंगे। कुछ पार्टियां एक दूसरे के विरुद्ध चुनाव में अपना-अपना उम्मीदवार उतारेगी, परन्तु चुनाव खत्म होने पर सरकार बनाने के लिए एक हो जायेंगे।
कुछ महीनों तक चलने वाले इस पूरे तमाशे  में हमारी स्थिति मूक दर्शक की  ही होगी । हम उनकी बातों को चटकारे ले कर सुनेंगे। आपस में ही एक दूसरे से बहस करेंगे। किस को कितनी सीटे मिलेगी और कौन सरकार बनायेगे, इस पर भविष्यवाणी करेंगे। मतदान होगा। मतदान की गणना होगी। परिणाम आयेंगे और सांस रोक कर परिणाम सुनेंगे। अंतत: सरकार बन जायेगी।  सरकार बनाने के लिए सिद्धान्तहीन, अपवित्र गठबंधन बनेंगे। नयी सरकार का स्वरुप वही होगा, जैसा पहले था। कुछ चेहरे बदल जायेगें,  परन्तु कार्य करने के तरीके वही होंगे। त्रिगुट फिर सक्रिय हो जायेगा। लूट का कार्य जारी रहेगा। जनता ठगी सी, हाथ मलते हुए सब कुछ देखती रहेगी।
निश्चय ही सरकार हमारी होगी। इसे चुनने हमारा महत्वपूर्ण रोल होगा, परन्तु यह हमारे लिए काम नहीं करेगी। हम इससे संतुष्ट नहीं होंगे। प्रश्न उठता है कि फिर क्यों हम बार-बार राजनेताओं से धोखा खाने को अभ्यस्थ हो रहे हैं? क्या इन परिस्थितियों से निजात पाने के लिए सोचना हमारा अधिकार नहीं है? निश्चय ही अब हमे ऐसा नहीं होने देना चाहिये। हम उन्हें ही चुनेंगे, जिन्हें हम चाहेंगे। उन्हें नहीं, जिन्हें, राजनीति पार्टियां और उद्याोगपति मिल कर हम पर थोपेंगे।
जब राजनेता अगला चुनाव लड़ने के लिए सक्रिय हो गये हैं, तो हम क्यों निष्क्रिय बैंठे हैं? इस सूचना क्रांति के युग में क्या हम एक दूसरे नहीं जुड़ सकते हैं? क्या हम अपने विचारों को एक दूसरे से साझा करने की स्थिति में नहीं हैं? बिना किसी नेतृत्व के और राजनीतिक दलों के सहयोग से जब हजारों युवक-युवतियां एक दुष्कर्म से पीड़िता के प्रति संवेदना व्यक्त करने सड़को पर उतर सकते हैं, तो क्या हम किसे अपना जनप्रतिनिधि चुने, इस विषय पर एक नहीं हो सकते?
हम अपने  विचार एक साथ एक हजार व्यक्तियों के साथ साझा कर सकते हैं। और यदि यह प्रक्रिया बढ़ती जायेगी तो यह संख्या एक हजार से एक लाख तक बढ़ायी जा सकती है। एक चुनाव क्षेत्र में दस लाख तक मतदाता होते हैं। यदि इनमें से एक लाख मतदाता किसी विचार पर एक हो जाय, तो राजनीतिक दलों के सारे समीकरण फैल हो जायेंगे। वे जनता के सामने झुक जायेंगे और उन्ही व्यक्ति को आपका जनप्रतिनिधि बनाने के लिए विवश हो जायेंगे, जिन्हें आप चाहेंगे। अगर ऐसा होगा तो बिना धन खर्च किये चुनाव जीते जायेंगे। उद्योगपतियों की भूमिका समाप्त हो जायेगी। सही लोगों का राजनीति में प्रवेश होगा। यह जागरुकता ही क्रांति लायेगी। एक शांत जनक्रांति, जिससे व्यवस्था परिवर्तन का स्वपन साकार होगा।

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