Monday, 29 July 2013

भाजपा अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह को एक आम भारतीय का खुला पत्र

श्री राजनाथ जी,
बहुधा राजनेता अपनी ही बनायी दुनियां में मस्त रहते हैं और आम आदमी के बारें में दूसरों के द्वारा उपलब्ध करायी गयी जानकारी के आधार पर ही अपने विचारों को अभिव्यक्त करते हैं। इस पत्र के माध्यम से एक आम आदमी, भारत की एक शीर्षस्थ राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष से जुड़ने का प्रयास कर रहा है। मैंने इसके लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया है। फिर भी मेरा ऐसा मानना है कि  मेरी बात  आप तक नहीं पहुंचेगी और यदि  पहुंच भी गयी तो आप इसे गम्भीरता से नहीं लेंगे। सोशल मीडिया जैसे सर्वाधिक लोकप्रिय सूचना प्रेषण माध्यम से भी यदि कोर्इ आम भारतीय अपने नेताओं से नहीं जुड़ पाता है, तो फिर दिल्ली से सैंकड़ो किलोमिटर दूर किसी सुदूर गांव में बैठा भारतीय  नागरिक अपनी पीड़ा किसी राजनीतिक सख्शियत तक  निश्चित रुप से नहीं पहुंचा सकता।
भाजपा भारत का एक बड़ा राजनीतिक दल है। देश भर में इसके करोड़ो वोटर है, लाखों कार्यकर्ता हैं, हज़ारो जन प्रतिनिधि हैं। किन्तु भाजपा का अध्यक्ष पद इतना शक्तिशाली नही है, जितना कांगे्रस अध्यक्षा का है। जहां भाजपा अध्यक्ष को अपने वरिष्ठ नेताओं से परामर्श और उचित मार्ग निर्देश लेना पड़ता है। अपने विचारो से उन्हें सहमत करने के लिए उनसे आग्रह करना पड़ता है। उनके विरोध का आदरपूर्वक सम्मान करना पड़ता  है। इसी तरह अपने समकक्ष और कनिष्ठ  नेताओं को  भी अपने विचारों और विरोध को अध्यक्ष के सामने रखने का अधिकार होता है। परन्तु दूसरी ओर कांगे्रेस अध्यक्षा के निर्णय और आदेश को सिर्फ सुना जाता है ओैर उसका अक्षरश: पालन किया जाता।  विरोध और प्रतिप्रश्न का वहां कोर्इ सवाल ही नहीं उठता। कांग्रेस अध्यक्षा का पद सर्वोच्च है। इसकी सर्वोच्चता को न तो चुनौती दी जा सकती है न ही उन्हें लोकतांत्रित परम्परा से बदला जा सकता है। निस्सदेंह उन्हें  निरंकुश अधिकार है। इन्हीं निरंकुश अधिकारों ने कांग्रेस को सता तक पहुंचाया। किन्तु इसी निरंकुशता के कारण आज पार्टी के पास ऐसे नेताओं की भरमार हो गयी है, जिन्होंने योग्यता से नहीं, वरन पार्टी अध्यक्षा की चापलुसी और वफादारी से बहुत ऊंचा स्थान बना लिया है। ये अभिमानी नेता सार्वजनिक रुप से जिस तरह निरर्थक बयानबाजी कर रहे हैं उससे लगता हैं एक पार्टी  न केवल विचारधाराविहिन हो गयी है, वरन उसमें योग्य और अनुशासित नेताओं का भी अकाल पड़ गया है।
एक अक्षम, अकुशल, असफल व अलोकप्रिय तथा अति भ्रष्ट सरकार का कार्यकाल  बेहद असंतोषप्रद और विवादास्पद रहा है, किन्तु कांग्रेस अध्यक्षा की शक्तियों में कोर्इ कमी नहीं आर्इ है। कोर्इ अपने नेता से असुंष्ट और नाराज नही है। पार्टी के किसी भी नेता ने अपने पार्टी के शासन के संबंध में कोर्इ सवाल नहीं उठाया है और न ही विरोध किया है। सम्भवत: इसीलिए पार्टी के नेता अपनी नेता के प्रति समपर्ण का भाव रखते हुए अगला चुनाव जीतने की तैयारी में लगे हुए हैं।
वहीं दूसरी और भाजपा के आंतरिक लोकतंत्र से पार्टी अध्यक्ष को कार्य करने में काफी दिक्कते आ रही है। सभी को संतुष्ट करना और साथ ले कर चलना, उनके लिए काफी दुरुह कार्य बन गया है। अत: जब से आप अध्यक्ष बने हैं, इस दुरुह कार्य को सुगम बनाने में लगे हुए हैं। इस कवायद में आपका काफी समय खराब हो गया है।
यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगला लोकसभा चुनाव भारत के संसदीय लोकतांत्रिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण चुनाव बनने जा रहा है। यह चुनाव भाजपा के साथ-साथ भारत की जनता के भाग्य का फैंसला करेगा। निस्संदेह भारतीय जनता अगले लोकसभा को बहुत गम्भीरता से लेगी। किन्तु दुर्भाग्य से भाजपा जैसी सशक्त पार्टी, जो एक भ्रष्ट सरकार को पुन: सता में आने से रोकने में सक्षम हैं, आने वाले चुनावों के लिए जितनी गम्भीरता दिखानी चाहिये, उतनी नहीं दिखा पा रही है। पार्टी  के सभी नेता अब तक एकजुट नहीं हो पाये है।  नेताओं के मध्य बन रहे वैचारिक द्वंद्व, संशय और अपने कद को दूसरे से बड़ा बताने की दुविधा ने पार्टी को एक असंमजस  पूर्ण स्थिति में डाल दिया है। अधिकांश नेता आधे-अधुरे मन से ही चुनावों की तैयारी में लगे हुए हैं। शायद वे यह समझने में भूल कर रहे हैं कि पार्टी में आस्था रखने वाले मतदाताओं और समर्पित कार्यकर्ताओं ने ही उन्हें वहां तक पहुंचाया है। मतदाता  और पार्टी का कद उनसे बड़ा है, वे उसके समक्ष बहुत ही बौने हैं।
मेरे जैसे करोड़ो भारतीय किसी भी हालत में उस राजनीतिक दल को पुन: सता में नहीं देखना चाहते, जिस दल के नेताओं ने बड़ी ही निर्लज्जता से देश के संसाधनों को लूटा है और बहुत ही दम्भपूर्ण तरीके से अपराध छुपाने का प्रयास कर रहे हैं। यह पार्टी सारे गलत और सही तरीके अपना कर पुन: सता पाने के लिए व्यग्र है, जबकि पार्टी के पास ऐसी कोर्इ उपल​िब्ध्यां नहीं है, जिसके आधार पर यह पुन: जनादेश पाने का अधिकार रखती है।

अपनी सरकार की साख बचाने के लिए राजनीतिक दलों से सरकार के पक्ष में समर्थन जुटाने की जो क्षुद्र कोशिश की जा रही है, उससे सरकार से जुड़े राजनेताओं की नीति और नीयत की झलक साफ दिखार्इ दे रही है। निश्चय ही चुनावों के बाद भाजपा सब से बड़ी राजनीतिक पार्टी बन कर उभरेगी, किन्तु सारी अवसरवादी और भ्रष्ट पार्टियां अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए धर्मनिरपेक्षता का चोगा पहन कर  एक हो जायेगी और भाजपा को सता में नहीं आने देगी। दरअसल, प्रादेशिक राजनीतिक दलों को जो नेता संचालित कर रहे हैं, उन्हें देश की भ्रष्ट व्यवस्था को सुधारने और राष्ट्र की ज्वलन्त समस्याओं को सुलझाने में कोर्इ दिलचस्पी नहीं है। वे राजनीति की प्रदुषित गंगा को कभी पवित्र नहीं करना चाहते, क्योंकि यि वह पवित्र हो गयी, तो उनका राजनीतिक जीवन समाप्त हो जायेगा।
भाजपा को कांग्रेस के साथ-साथ क्षत्रपों का कद भी घटाना होगा, अन्यथा उसके पास अगली लोकसभा में सब से ज्यादा सांसद भले ही क्यों न हो, पार्टी को विपक्ष में ही बैठना होगा। इस अप्रिय स्थिति को टालने के लिए भाजपा नेताओं को असंमजसपूर्ण स्थिति को त्याग कर देश और पार्टी हित में एक-एक लोकसभा सीट को जीतने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। मीडिया में बयानबाजी करने से चुनाव नहीं जीते जाते। चुनाव जीतने के लिए दूर देहात में बैठे हुए प्रत्येक मतदाता से जुड़ना रहता है। उसको अपनी बात सरल भाषा में समझाने की कोशिश करनी पड़ती है, क्योंकि भारत का अधिकांश मतदाता अखबार नहीं पढ़ता और टीवी पर समाचार नहीं सुनता। वह कुंठित है। राजनीतिक व्यवस्था से चिढ़ा हुआ है। उसका भारत की राजनीति और राजनेताओं पर से विश्वास उठ गया है। उसका विश्वास जीतने की कवायद करनी होगी।  उसके कष्टों को पहले समझना होगा और उसका निदान उसे समझाना होगा। उसे भरोसा दिलाना होगा, तभी वह आपको वोट देगा।
यदि भाजपा नेता जनता का दिल जीतने में कामयाब हो जायेंगे, उन्हें जो सफलता मिलगी वो चौंकाने वाली होगी। ऐसी सफलता का आज तक कोर्इ राजनीतिक विश्लेषक अनुमान नहीं लगा पाया हैं। परिवर्ततन की एक ऐसी लहर भीतर ही भीतर बह रही है, उसे यदि कोर्इ राजनीतिक दल मोड़ने में सक्षम हो जायेगा, वह भारत का भाग्य विधाता बन जायेगा।
राजनाथ जी, आपको एक एतिहासिक दायित्व निभाना है। पार्टी को एक कीजिये। महासमर को जीतने के लिए आज से ही कमर कस लीजिये। यदि समय का सही उपयोग नहीं किया, तो समय लौट कर वापस नहीं आयेगा।

Monday, 22 July 2013

वे लाख गुनाह करें, इसका उन्हें मलाल नहीं, पर दूसरों का एक गुनाह भी माफी के काबिल नहीं

मुल्क को बांटा। लाखों मरे, करोड़ो को बेघरबार किया। लोगों को अपनी पुरखों की ज़मीन से बेदखल किया गया। उन्हें समझाया, अब यह ज़मीन आपकी नहीं रही- यहां पाकिस्तान बन गया है। आपका हिन्दुस्तान यहां से दूर चला गया है। या उन्हें कहा गया- छोड़ दो यह जम़ीन। ये घर-बार। यह तहज़ीब। उधर चले जाओं, जहां तुम्हारा अपना मुल्क बना है। यह हिन्दुस्तान है, तुम्हारा पाकिस्तान उधर है। चाहें तुम्हारे पुरखे यहीं दफनायें गये हों, चाहे तुमने  मां की कोख से बाहर आ कर यहीं खुली हवा में सांस ली हो। चाहे पहली बार इसी धरती पर तुम अपने नन्हें पावों से खड़े हो कर इतराये हो, पर अब यहां सब कूछ तुम्हारा नहीं रहा।
भारतीय इतिहास के इस क्रूर मज़ाक के गुनहगारों ने आज तक माफी नहीं मागी। अलबता उन्होंने उस दुखद घड़ी में जब देश में कत्ले आम हो रहा था। करोड़ो लोग आंखों में आंसू लिए बदहवाश हो कर इधर से उधर अपनी जान बचा कर भाग रहे थे- ये बड़ी बेशर्मी से लाल किले पर तिरंगा पहरा रहे थे। यह घटना इस बात की साक्षी है कि इन्होंने मानवीय पीड़ा के प्रति हमदर्दी जताने के बजाय अपने सियासी सुखों को ज्यादा अहमियत दी है।
बंटवारे के बाद की सबसे बड़ी सौगात इन्होंने देश को दी, वह है -कश्मीर का अन्‍​र्तराष्ट्रीयकरण। कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा। धारा-370 अर्थात कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग कहा जायेगा, पर व्यवहार में ऐसा होगा नहीं। क्या यह देश की सम्प्रभुता के साथ किया गया  छल नहीं था ? क्या कश्मीर को विवादास्पद बना कर पाकिस्तान के शासकों को दुश्मनी निभाने का मौका नहीं दिया गया? कश्मीर के नाम पर चार युद्ध लड़ लिए। पिछले पच्चीस वर्षों से पाकिस्तान भारत के साथ एक छद्म युद्ध लड़ रहा है, जिसमें न किसी की जीत होती है, न हार होती है और न ही युद्ध विराम होता है। अंदाज लगाईए- पाकिस्तान के साथ लड़े गये युद्धों में कितने सैनिक हताहत हुए? कितने अरब रुपये इन युद्धों में फूंके गये? पिछले पच्चीस वर्षों से दहशतगर्दी का जो खेल पाकिस्तान खेल रहा है, उसमें हज़ारों निर्दोष नागरिक मारे गये हैं। इस सब घटनाओं  का अंतत: दोषी कौन है?
दरअसल कश्मीर समस्या पैदा कर अप्रत्यक्षरुप से पाकिस्तान का अस्तित्व बनाये रखने में मददगार बने थे। कश्मीर के बहाने ही एक कृत्रिम राष्ट्र नफरत की दीवार को अक्षुण्ण बनाये हुए हैं। यदि कश्मीर समस्या नहीं होती, तो नफरत की दीवार पांच वर्षों में ही ढ़ह जाती। करोड़ो नागरिकों की जिंदगी खुशहाल होती। हमे गरीबी और पिछड़ेपन से मुक्ति मिलती। हमारी सम्मिलित ताकत का लोहा दुनिया मानती। क्योंकि तब हमरी पहचान अन्‍​र्तराष्टी्रय जगत में एक निर्धन, समस्याग्रस्त और बेबस राष्ट्र के रुप में नहीं होती। एक शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्र के रुप में दुनियां में अपनी पहचान बनाते।
देश के साथ इतना बड़ा छल जिस पार्टी के नेताओं ने किया हो, उस पार्टी ने कभी इसे स्वीकार नहीं किया और न ही इसके दुखद परिणामों के लिए देश से माफी मांगी। देश टूट गया। भारतीय उपमाद्वीप की जनता बंटवारें के परिणामों के दंश झेल रही है, परन्तु गुनहगारों को न तो इस बात का कभी अफसोस हुआ और न ही रंज।
सियासी सुखों भोगने में इतने तल्लीन रहें कि केवल पंचशील के कबूतर उड़ाने से ही फुर्सत नहीं मिली और देखते ही देखते हज़ारों एकड़ ज़मीन चीन ने हडप्प ली। भारत की युद्ध में
शर्मनाक  पराजय हुई, किन्तु पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपने पद से त्यागपत्र नहीं दिया।
1965 और 1971 का युद्ध हमारे जवानो के शौर्य और वीरता का उदाहरण बना, परन्तु उनके बलिदान पर तब पानी फिर गया, जब राजनेता ताशकंद और शिमला समझौता कर टेबल पर जवानों द्वारा जीता गया युद्ध हार गये। राजीव गांधी ने  श्रीलंका में तमिलों का संहार करने के लिए भारतीय सेना को भेजा और बेवजह हज़ारों सैनिकों को अपने जीवन आहूति देनी पड़ी।
जो कुछ घटित हुआ था, वो इतिहास की इबारत बन गया है, जो काच की तरह साफ है। यह सही है कि महात्मा गांधी की कांग्रेस ने देश को आज़ादी दिलाई, किन्तु पंड़ित जवाहर लाल  नेहरु की कांग्रेस ने देश को कई बड़ी और जटिल समस्याओं का उपहार दिया है। मसलन इंदिरा जी ने पंजाब में अकालियों को मात देने के लिए 49 पतिशत ​हिदुओं के वोट पाने के लिए हिन्दू कार्ड खेला, जिसके भयानक परिणाम सामने आये। पंजाब जल उठा। अंतत: ब्लयू स्टार ऑपरेशन उसी भिंड़रवाला के लिए किया गया, जिसका भूत कांग्रेस ने ही तैयार किया था, किन्तु वह नियंत्रण से बाहर हो गया। इस घटनाक्रम के बाद इंदिरा जी को अपनी शहादत देनी पड़ी।  जवाब में देश भर में सिखों का कत्लेआम किया गया। किन्तु दु:खद घटनाक्रम पर यह कर अफसोस जता दिया गया कि कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तब जमीन तो कांपती ही है। फिर गोधरा कांड़ के बाद जो कुछ हुआ इस पर इतना शोर क्यों मचाया जा रहा है? जबकि सिखों का कत्लेआम करने वाले अपराधियों को सरकार आज तक बचा रही है और गुजरात में पूरी सरकारी मशीनरी और जांच एजंसिया और मानवाधिकार को छोड़ कर निरपराध व्यक्तियओं को फंसाने का षड़यंत्र कर रही है। एक ही देश में ऐसा दोहरा माप दंड़ अपनाने की आखिर वजह क्या है? क्या यह नही कि उनका छोटा सा अपराध भी माफ नहीं किया जा सकता, किन्तु हमारे बड़े-बड़े अपराधों को नज़रअंदाज किया जाना आवश्यक हैं।
साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की बाते करते नहीं थकने वालों के पास क्या इस बात का जवाब है कि शांत पंजाब में जानबूझ कर आग क्यों लगाई गयी? रामजन्म भूमि के ताले खोलने के पीछे  उनका क्या घृणित उद्धेश्य था? दोनो घटनाओं के बाद देश अशांत हुआ और देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। जिस पार्टी के माथे पर साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने का कलंक लगा हो, उसे इस बारें में कुछ भी बोलने का नैतिक अधिकार नहीं हैं।
सरकार की अक्षमता के कारण 1992 में हुए बम्बई के साम्प्रदायिक दंगों में भारी जन हानि हुई थी। यही नहीं देश भर में जितने  बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं, वे सभी कांग्रेस शासित राज्य सरकारों के शासन के दौरान ही हुए हैं। 2002 के गुजरात दंगो के अलावा गुजरात में पिछले ग्यारह साल से  कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। इसी तरह जब भी राज्यों में अन्य पार्टियां या भाजपा सतारुढ़ रही, दंगों की संख्या नगन्य बनी रही। ऐसा क्यों है? क्या सही नहीं कि कांग्रेस के खाने के दांत दूसरे और दिखाने के अलग हैं।
1992 के बम्बई बम विस्फोट के अपराधियों को न केवल बचाया गया, वरन उन्हें आसानी से देश से भागने में सहायता दी। ये अपराधी आज भी विदेशों में बैठे हुए भारत में आंतकवाद को बढ़ाने का षड़यंत्र कर रहे हैं। आतंकवाद से निपटने के लिए कांग्रेस पार्टी पूरी तरह अक्षम साबित हुए हैं। देश भर में पिछले दस वर्षों से कई आतंकी घटनाएं हुई, किन्तु एक आध को छोड़ कर आज तक कोई अपराधी पकड़ा नहीं गया। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि छद्म धर्मनिरपेक्षता की नीति के कारण भारत आतंकवादियों को शह और प्रश्रय मिल रहा है।
भ्रष्टतंत्र का बिजारोहण नेहरु युग में हो गया था। अब यह वटवृक्ष बन गया है। इस वटवृक्ष को हमेशा कांग्रेसी सरकारों ने सींचा है। पिछले पांच साल में हुए एतिहासिक आर्थिक घोटाले एक सरकार का बहुत ही घिनौना चेहरा देश के सामने उजागर हुआ है। घोटालों के कारण देश की अर्थव्यवस्था तबाह हो गयी है और जनता को भारी महंगाई बोझ सहना पड़ रहा है।
परन्तु दुर्भाग्य हमारा यह है कि एक अपने अपराधों के लिए उस पार्टी के नेताओं ने कभी माफी नहीं मांगी, किन्तु देश की जनता ने हमेशा उन्हें माफ कर दिया। देश की दुर्गति का यही मूल कारण है।

Sunday, 21 July 2013

क्या है भारत के विकृत सेकुलरवाद (इस्लाम First बाकी सब बकवास) का रहस्य?

  1. आज कल बहुत लोग कोंग्रेस पार्टी को गलिया देते है! बहुसंख्य भारतवासियों की ये दृढ भावना है की काँग्रेस संस्था उसकी १२५ वर्षों (काँग्रेस की स्थापना के अंग्रेज अधिकारी ए.ओ.ह्यूम[१] ने १८८५ में मुंबई में की) की स्थापना से ही सेकुलरवाद (इस्लाम फर्स्ट बाकी सब बकवास) की प्रचारक रही है! इस बात में कोई संदेह नही की कोंग्रेस इंग्लिश सत्ता के हित रक्षण के लिए बनाई गई थी! किन्तु ये पूर्ण तहा असत्य है की १२५ वर्ष पुरानी कोंग्रेस सेकुलरवाद (अर्थात मुल्ला शाही) के लिए लड़ने वाली संस्था थी! जरा आप ही सोचिए की अंग्रेज यदी कोई संस्था शुरू करेंगे तो वे अपने हितों के लिए करेंगे, मुल्लो की हा जी हा जी अंग्रेज क्यों करेंगे? जो की उस समय सारे मुल्ले अंग्रेजो के लाचार गुलाम थे! इस बात से ये स्पष्ट होता है की स्वय कोंग्रेस संस्था सेकुलरवाद की चपेट में आई! ये कैसे हो सकता है? वो ऐसे की, एक बात हमे ध्यान में रखनी चाहिए की कोंग्रेस या कोई भी पार्टी ये एक संस्था है! संस्था मने एक कंपनी होती है! कंपनी को अपनी कोई नीतिया नही होती! कंपनी की नीतिया उसके चलाने वाले निश्चित करते है! जब उस कंपनी के चालक बदल जाते है तब उसकी नीतिया भी बदल जाती है! ठीक यही घटना कोंगेस नामक संस्था के साथ हुआ! १९२० के पहले की कोंग्रेस का ‘सेकुलरवाद’ (जिसे हम सब मुस्लिम अनुनय, तुष्टिकरण और न जाने कितने नमो से जानते है) से कुछ विशेष लेना देना नही था! आज के सेकुलरवाद का विषैला परिवर्तन कोंग्रेस में १९२० के वर्ष से आरंभ हुआ! इतिहास के उन अनदेखे पन्नों को पलट कर हम आज उस घटना को देखने वाले है, जीसके भयंकर परिणामस्वरूप कोंग्रेस का रूपांतर खान्ग्रेस में हुआ! इस लेख को पढ़ने वाले वाचक एक क्षण के लिए सोचे, अंग्रजो का साम्राज्य सारे विश्व में फैला था तो केवल भारत में ही ये सेकुलरवाद के नाम पर इस्लाम का महत्व बढ़ाने वाले राजनेता क्यों पनपते है? यदी अंग्रजो द्वारा कोंग्रेस के माध्यम से सेकुलर वाद का राक्षस खड़ा हुआ तो ऐसा चमत्कार केवल भारत में ही क्यों हुआ? सिंगापूर, केनिया, साऊथ अफ्रिका, श्रीलंका इत्यादी देशो में क्यों नही हुआ? यहाँ पर भी तो अंग्रेजो का शासन चलता था! इसके साथ मै स्वय अपना भी कुछ व्यक्तिगत अनुभव जोड़ना चाहता हू! मुझे विश्व के लगभग १० से १५ देशो में भ्रमण करना का सौभाग्य मिला! इन देशो में हमे भारत जैसा चित्र कही नही देखता जहा राजनैतिक पार्टियों के नेता अरबी टोपी (जिसे आप लोग मुस्लिम कॅप भी कहते है) पहनकर इफ्तियार पार्टी मानते है! या अपने चुनाव प्रचार में किसी मुल्ला मौलवी को अपना प्रचारक बनाने में कोई विशेष अभिमान का अनुभव करते है! अथवा हज यात्रा करने के लिए सरकारी पैसा देता है! जब तक हम इस रहस्य की जड़ तक नही पोहोचेंगे तब तक हमरे सारे प्रयास विफल होते रहेंगे! ये उसी घटना (जिससे कोंग्रेस का रूपांतर खान्ग्रेस में हुआ) का परिणाम है की आज भारतवासी लहुलोहन होकर रक्त के आसु रो रहे है! सन १९२० ये वर्ष बहुत महत्वपूर्ण था! इसी वर्ष एसी दो घटनाए घटी जीसके कारण आनेवाली पिडियो को भयंकर संकटो का सामना करना पड़ा, और आज भी कर रहे है! कोंग्रेस की स्थापना भले ही अंग्रेजो ने की थी, किन्तु आगे चालकर उस संस्था का नेतृत्व लाल, बाल, पाल जैसे क्रांतिकारी नेता गणों के हाथ गया! ये वो नेतृत्व था जिन्होंने कोंग्रेस को लोगों के ह्रदय तक पोहोचाया! ऐसा नही की सारे कांग्रेसी इन लाल, बाल, पाल के ध्वज तले लढ़ रहे थे, कुछ कांग्रेसी ऐसा मानते थे की अंग्रजो की कृपा पाकर ही भारतीय सुरक्षित हो सकते है! इन दोनों विचारों में कोई तीसरा ऐसा नही था जो सेकुलरवादी (अर्थात मुल्लावादी था)! सारे देश में स्वदेशी का विचार तेजी से फ़ैल रहा था! ये वो समय है जब सारे भारत में आर्य समाज लोगों के बीच एकरूप हो रहा था! ऐसे ही समय बिट रह था की अचानक सन १९१९ के वर्ष में प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हुआ और अंग्रेज सरकार युद्ध लढ़ने के लिए लोगों का सहयोग चाहती थी! अंग्रजी सरकार के संकट को अपना अवसर मान के क्रांतिकारीयो ने अपना संघर्ष तीव्र कर दिया! सारा देश अंग्रेजो के विरुद्ध क्रोधित हो उठा था ऐसे निर्णय की घडी में लोक मान्य तिलक (जो उस समय लोक आन्दोलन के प्रमुख थे) की मृत्यु हो गई! सारे देश वासी अपने सेनापति को खो चुके थे और सब की दृष्टी इस पर जम गई थी की भारत का नेतृत्व अब कौन संभाल सकता ही! इस अशुभ घडी में भारत वासीयो का नेतृत्व अचानक से एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में चला गया, जिसे ना कोई जानता था ना उसकी कोई पहचान थी! जैसे ही इस नए संचालक ने कोंग्रेस का नेतृत्व संभाला उसने सेकुलर वाद का उसका घिनौना प्रयोग पहली बार किया! उस विकृत नेता ने अपना अमंगल कुतर्क दिया यदी भारत वासी अंग्रजो से मुक्त होना चाहते है तो उन्हें मुसलमानों का सहयोग लेना चाहिए! आप में से अधिकांश लोगों के मन में इस दुरात्मा का नाम बिजली समान चमक गया होगा! विश्व युद्ध में अंग्रेज विजय की ओर बढ़ रहे थे! अंग्रेजी सेना ने तुर्की के बादशाह का युद्ध में पराजय किया और तुर्की साम्राज्य समाप्त कर दिया! इस तुर्क बादशाह को हराने में अरब, कुर्द, इराकी लोगों ने अंग्रजो का साथ दिया! क्या आप जानते है इस तुर्की के बादशहा को उसकी गद्दी वापस देने के लिए आन्दोलन किसने खड़ा किया? क्या तुर्को ने? नही तुर्की के सैनिक शासक कमल आत्तुर्क ने तो बादशाह की इस्लामी सत्ता खिलाफत समाप्त कर दी! तो फिर अरबो ने? हो ही नही सकता! क्योकि अरब सुलतानो ने तो तुर्की को गिराने में अंग्रेजो का साथ दिया था! फिर किसने आन्दोलन किया तुर्की के खलीफा के लिए? आश्चर्य होगा सुन के, की उसी दुरात्मा पाखंडी ने जो लोकमान्य तिलक की मृत्यु उपरांत भारत का नेता बन बैठा था! उनका नाम मोहनदास करमचंद गाँधी! उस महान आत्मा ने भारतवासीयो भ्रमित किया की यदी तुम तुर्की के खलीफा को वापिस सुलतान बनाने के लिए अंग्रेजो के विरुद्ध आन्दोलन छेड दोगे तो सारे मुस्लिम भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में अपने आप आ जाएँगे! यहा से शुरू हुआ वो भयानक दौर जिसे हम आज सेकुलर वादी की गाली कहते है! गाँधी द्वारा मुस्लिम सत्ता को तुर्की पर पुर्नस्थापित करने का यह आन्दोलन खिलाफत आंदोलन के नाम से कुविख्यत हुआ! खिलाफत आंदोलन को वास्तव में कुछ सरफिरे मुल्लो ने शुरू किया था! किन्तु उन चंद मुल्लो के अतिरिक्त उस आंदोलन कोई नही पूछता था! गाँधी ने इस खिलाफत आंदोलन को मुल्ला आंदोलन से जन आंदोलन बनाया! इस महान घटना का उलेख पाकिस्तान के लेखक ने उसके पुस्तक में बड़ी ही रोचक रूप में किया है! वो लिखते है.... ‘खिलाफत का आंदोलन अपने आप में अजीब था, क्यों की पहली बार ऐसा हुआ की जिस खलीफा को तुर्कोने और अरबो ने ठुकराया उसके लिए हिंदु लध रहे थे! जीन मुल्ला मौलवियो को मस्जिद की चार दीवारी के बाहर कोई नही पूछता था, वे अचानक से राजनीती के नेता बन गए” ये खिलाफत आंदोलन का विवेचन एक पाकिस्तानी लेखक का है इस बात पर हमे विशेष धयान देना होगा! गाँधी का आवाहन सुन के अनेक स्त्रियों ने अपने आभूषण तक बेच दिए! वह सारा धन गया खिलाफत आंदोलन के लिए! ये इसी खिलाफत आंदोलन का परिणाम था की भारत के मुस्लिम ये पहली बार अपनी अलग मुस्लिम पहचान के आधार पर संघठित हुए! इसी संगठन आगे जा के पाकिस्तान का नाम लिया और भारत में मिनी पाकिस्तना का!

बेतुकी है पंथनिरपेक्षता पर बहस

सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने पिछले दिनों भारत की बहुलतावादी संस्कृति को लेकर जो विचार व्यक्त किए, वे वस्तुत: इन दिनों सैकुलर जमात द्वारा पंथनिरपेक्षता पर चलाई जा रही बहस को सिरे से नकारते हैं। उत्तराखंड की भयावह विपदा में सुरक्षा बलों के सराहनीय योगदान पर आयोजित एक सभा को संबोधित करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘कुछ ही देश गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि कोई व्यक्ति जो बहुसंख्यक समुदाय का नहीं है, प्रधान न्यायाधीश बना।’’ उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा इसलिए संभव है कि मजहब अलग होने के बावजूद हमारी सोच एक समान है। हिंदू, सिख, ईसाई, मुसलमान होते हुए भी हम एक हैं। उन्होंने भारत की पंथनिरपेक्षता की प्रशंसा करते हुए इसे बनाए रखने की अपील भी की। 

विडम्बना यह है कि देश में राष्ट्रवाद पर चर्चा चलते ही उसे सांप्रदायिक ठहराने का कुत्सित प्रयास किया जाता है। मौजूदा बहस उसी मानसिकता से ग्रस्त है। पिछले दिनों विदेशी समाचार एजैंसी ‘रायटर्स’ को दिए साक्षात्कार में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कहा, क्या उस पर कोई देशभक्त आपत्ति कर सकता है? उन्होंने कहा है, ‘‘मैं राष्ट्रवादी हूं। मैं देशभक्त हूं। जन्मना मैं हिंदू हूं, इसलिए आप कह सकते हैं कि मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं।’’ किंतु मोदी के मुंह से जैसे ही ये वाक्य निकले, सैकुलरिस्टों के कुनबे ने अपनी कुटिल मुहिम शुरू कर दी।

नरेंद्र मोदी को गुजरात की जनता ने लगातार तीसरी बार राज्य की कमान सौंपी है। उस जनादेश में समाज के सभी वर्गों का योगदान है। नरेंद्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता और सर्वस्वीकार्यता से सैकुलर कुनबे की घबराहट स्वाभाविक है। उपरोक्त साक्षात्कार के अंशों को इस तरह कुप्रचारित किया जा रहा है मानो मोदी, भाजपा और संघ अल्पसंख्यक विरोधीहों।

सरकारी आंकड़ों से यह स्थापित सत्य है कि सैकुलरिस्टों द्वारा शासित राज्यों के मुकाबले गुजरात में अल्पसंख्यकों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर है। किंतु सैकुलरवाद की आड़ में अल्पसंख्यकों का भयादोहन कर सांप्रदायिकता और मजहबी कट्टरवाद को भड़काने की निरंतर कोशिशें हो रही हैं। 

तीस्ता सीतलवाड़, अरुणा राय, हर्ष मंढेर, अरुंधति राय, महेश भट्ट जैसे स्वयंभू मानवाधिकारियों के साथ-साथ कांग्रेस के सलमान खुर्शीद, दिग्विजय सिंह आदि भाजपा विरोधी मुहिम के अग्रिम नेता हैं। इनके ‘सैकुलरवाद’ की परिभाषा का खुलासा स्वयं उनका आचरण करता है। सलमान खुर्शीद जब उत्तर प्रदेश में कांगे्रस प्रभारी थे, तब वह ‘सिमी’ नामक संगठन की पुरजोर वकालत करते थे।

सलमान ही क्या, इस देश के तमाम सैकुलरिस्ट सिमी को छात्र संगठन बताकर उसके बचाव में खड़े होते थे। सिमी को आतंकी गतिविधियों में लिप्त होने के कारण प्रतिबंधित किया गया। अब वह ‘इंडियन मुजाहिद्दीन’ के नए अवतार में सभ्य समाज को रक्तरंजित करने में जुटा है, जिसका ताजा निशाना अभी बोधगया बना। एक आतंकी संगठन का बौद्धिक बचाव करने वाले सलमान खुर्शीद को पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया है। क्या यही है सैकुलरवाद?

सलमान खुर्शीद ने 1986 में एक पुस्तक -‘ए होम इन इंडिया: ए स्टेटमैंट ऑफ इंडियन मुस्लिम्स’ लिखी। सिख विरोधी दंगों का उल्लेख करते हुए खुर्शीद ने लिखा है, ‘‘1984 में दिल्ली में सिखों का नरसंहार हुआ। उससे मुसलमानों को गहन आत्मसंतुष्टि हुई जो देशविभाजन के बाद की त्रासदी को भूल नहीं पाए हैं। हिंदू और सिख अपने पापों की सजा भुगत रहे हैं। 1947 में उन्होंने जो लहू बहाया, उसकी कीमत चुका रहे हैं।’’

ऐसी विषाक्त मानसिकता रखने वाले खुर्शीद ने नरेंद्र मोदी के उपरोक्त साक्षात्कार को ‘ऑक्सीमोरोन’ बताया है। अंग्रेजी का यह शब्द वैसे कथनों या भाषणों के लिए प्रयुक्त होता है, जिसमें परस्पर विरोधी बातें कही गई हों। खुर्शीद को ‘हिंदू’ और ‘राष्ट्रवाद’ विपरीतार्थक लगते हैं। क्या इनमें आपस में कोई विरोधाभास है?

देश का रक्तरंजित बंटवारा मजहब के आधार पर अलग पाकिस्तान के सृजन के लिए हुआ। बंटवारे के बाद पाकिस्तान ने खुद को इस्लामी देश घोषित कर लिया। यह बहुत स्वाभाविक होता, यदि भारत ने भी तब खुद को हिंदू राष्ट्र घोषित कर लिया होता। किंतु ऐसा हुआ नहीं। क्यों? क्योंकि भारत की सनातनी संस्कृति में बहुलतावाद और अनेकता में एकता गहरे पैबस्त है। उसी दर्शन के कारण देश में पंथनिरपेक्षता अक्षुण्ण है। पंथनिरपेक्षता कहीं से आयातित या संविधान के किसी अनुच्छेद से सृजित नहीं है। अनादि काल से भारत में बहुलतावाद पल्लवितपोषित होता रहा है। यही कारण है कि सम्राट अशोक के काल को छोड़ दें तो यहां कभी किसी मत या पंथ को राज्याश्रय नहीं मिला।

हिंदू का अर्थ किसी मत या पंथ के अनुयायी न होकर इस देश के जीवनदर्शन का नाम है। सिंधु के पार रहने वालों को सिंधु कहा गया, जो बाद में हिंदू के रूप में रूढ़ हो गया। यही हमारी राष्ट्रीयता है, इसमें संदेह कैसा? किंतु विडम्बना यह है कि जिन्होंने अलग पाकिस्तान के लिए सबसे ज्यादा पसीना बहाया, वे मुस्लिम रहनुमा विभाजन के बाद भारत में ही रह गए। रातों-रात उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया और आज सैकुलरवाद की परिभाषा गढ़ रहे हैं। इनका सैकुलरवाद हिंदू विरोध से प्रारंभ और मजहबी कट्टरवाद के पोषण पर खत्म होता है तो आश्चर्य कैसा?

जिन महान तपस्वियों-मनीषियों ने आजाद भारत का सपना बुना, उनके लिए राष्ट्रवाद के क्या मायने थे? उन्होंने किस दर्शन को आत्मसात किया? स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवादी विचारों ने आजादी की लड़ाई के लिए विप्लव के बीज बोए। क्रांतिकारियों के हाथों में स्वामी विवेकानंद के साहित्य होते थे। गांधी जी ने लिखा है, ‘‘विवेकानंद को पढऩे से मेरे अंदर का राष्ट्रप्रेम सौ गुना बढ़ा है। रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा, ‘‘भारत को जानना है तो विवेकानंद को पढ़ो।’’ राजाजी, महर्षि अरविंद, सुब्रमण्यम भारती आदि सभी विवेकानंद से खासे प्रभावित थे।

उन विवेकानंद का कहना था कि भारत में राष्ट्र एक ही आध्यात्मिक धुन में झूमने वाले हृदयों का समुच्चय होना चाहिए। वह मतांतरण को हिंदू आबादी में कमी आने की जगह हिंदुओं का शत्रु बढऩा मानते थे। महर्षि अरविंद का भी मानना था कि यह हिंदू राष्ट्र सनातन धर्म के साथ उत्पन्न हुआ है और उसी के साथ बढ़ा है। सनातन धर्म के पतन से राष्ट्रवाद का भी पतन होता है। हिंद स्वराज में गांधीजी ने हिंदुत्व को भारतीय राष्ट्रवाद का मूलाधार बताया है।

सन् 1977 में 5 न्यायाधीशों की एक खंडपीठ ने भी कहा था, ‘‘हिंदुत्व किसी भी पूजा-पद्धति को स्वीकारने या नकारने की बजाय सभी मान्यताओं व पूजा- पद्धतियों को अंगीकार करता है।’’ खंडपीठ ने यह भी कहा कि हिंदुत्व एक सभ्यता और विभिन्न मजहबों का समुच्चय है, जहां कोई एक संस्थापक या पैगम्बर नहीं है। अदालत के अनुसार हिंदू इस देश में रहने वालों के लिए प्रयुक्त होता है, चाहे वे किसी भी धर्म या संप्रदाय से जुड़े क्यों न हों। यह हमारी पहचान है। सैकुलरिस्ट वोट बैंक की राजनीति के कारण समाज के एक वर्ग को उस राष्ट्रीय पहचान से वंचित रख वस्तुत: उन्हें इस देश की मुख्यधारा में शामिल होने से रोकते हैं। स्वाभाविक है कि समाज के समग्र विकास की चिंता करने वाले राष्ट्रवादी ङ्क्षचतन में ऐसे विकृत सैकुलरवाद के लिए कोई जगह नहीं है।

एक भ्रष्ट पार्टी की रणनीति असफल होगी, देश को एक परिवार की परतंत्रता से मुक्ति मिलेगी।

सड़ांध मार रही भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था और इससे जुड़े हुए राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के भाग्य का फैंसला भारत की जनता अगले लोकसभा चुनावों में सुना देगी। या तो वह इन्हें स्वीकार कर भ्रष्टाचार को  मान्यता दे देगी या एक नयी राजनीतिक व्यवस्था के पक्ष में मतदान करेगी। यदि भ्रष्ट आचरण में आकंठ डूबी एक पार्टी और इसके गठबंधन को पुन: जनादेश मिल जाता है, तो यह इस तथ्य को पुष्ट कर देगा कि भ्रष्टाचार और महंगाई  भारतीय जनता के लिए कोई  मुख्य मुद्धा नहीं  है और वह धर्म और जाति की संकीर्णता से अपने आपको मुक्त नहीं कर पा रही है।  यदि ऐसा होता है तो वे राजनीतिक दल अपने मिशन में सफल माने जायेंगे, जो धर्म और जाति के मकड़जाल मे जनता को उलझाते हैं।  उसकी दुर्बलता का लाभ उठा कर चुनावी समीकरण बनाते हैं। चुनाव जीतते हैं और सरकारे बनाते हैं।
परन्तु पूरे देश में महंगाई को ले कर जनता का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। सरकार की भ्रष्ट नीतियों से वह क्रुध है। अत: अगले चुनावों में महंगाई और भ्रष्टाचार यदि मुख्य मुद्धा बन गया, तब सरकार की तुष्टिकरण और प्रलोभन दे कर जनता को भ्रमित करने वाली नीतियां काम नहीं आयेगी। ऐसा होने पर  एक भ्रष्ट राजनीतिक पार्टी और उसका कुनबा सारी कलाबाजियां भूल जायेगा। उसकी तिकड़म और धूर्त रणनीति निष्फल हो जायेगी। जनता उन्हें धूल चटा देगी।   अपने मतलब के लिए धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो पार्टियां  एक भ्रष्ट सरकार को बचा रही थी, उन राजनीतिक दलों और उनके नेताओं  का असली चेहरा जनता पहचान चुकी है। इन दोगले और अवसरवादी नेताओं को भी जनता सबक सिखा देगी। इन पार्टियों के आधा दर्जन नेता, जो प्रधानमंत्री बनने का सपना संजो रहें हैं, उनके सारे सपने हवा हो जायेंगे।
इस समय भारत के सभी राजनीतिक विश्लेषक यही अनुमान लगा रहे हैं कि यद्यपि कांग्रेस के सांसदों की संख्या अगले चुनावों में घट जायेगी, परन्तु यूपीए-3 सबसे बड़ा गठबंधन बन कर उभरेगा। सरकार बनाने के लिए इसे बाहर से भी अन्य दलों का समर्थन मिल जायेगा। वहीं भाजपा के सांसदों की सख्या बढ़ जायेगी, किन्तु राजग के सांसदों की संख्या कम होगी और सरकार बनाने के लिए किसी अन्य दल  का बाहर से समर्थन नही मिलेगा। सम्भवत: इसीलिए  कांग्रेसी नेता विचित्र  आत्माभिमान से गर्वित हो रहे हैं।  अपने करमों से न तो उन्हें पश्चाताप है और न ही दु:ख।  उन्हें पूरी आशा है कि उन्होंने देश की जनता के साथ चाहे जितना बड़ा छल किया हो, सरकार वे ही बनायेंगे। क्योंकि तुष्टिकरण नाम का ऐसा तुरुप का इक्का उनके हाथ में हैं, जिससे हर हारी हुई बाजी जीती जा सकती है। भारत की राजनीतिक परिस्थितियों और जनता के मिजाज का उन्हें पूर्वाभास है। इस समय उनका एक ही मिशन है-तुष्टिकरण के नाम पर सारे राजनीतिक दलों को अपने साथ जोड़ो और प्रतिद्वंद्वी को  राजनीतिक अछूत बना कर उसे सब से अलग-थलग कर दो।
शायद ही कोई राजनीतिक विश्लेषक इस बात को मानने के लिए तैयार होगा कि यूपीए-तीन के सांसदों की  संख्या इतनी अधिक कम जायेगी कि वह सरकार बनाने का दावा ही नहीं कर पायेगा। उसके संकट मोचक राजनीतिक दल सिकुड़ जायेंगे। उनके सांसदों की संख्या  अनुमान से आधि रह जायेगी। दूसरी ओर राजग में राजनीतिक दल कम होंगे,  उनके सांसदों की संख्या अधिक होगी। यद्यपि इनके पास सरकार बनाने का स्पष्ट बहुमत नहीं होगा, परन्तु तब वे अछूत नहीं कहलायेगें। कई राजनीतिक दल स्वत: ही उनसे जुड़ जायेंगे।
अगर ऐसी परिस्थितियां बनी, तो इसे एक राजनीतिक चमत्कार ही कहा जायेगा। परन्तु ऐसा चमत्कार होने की आशा बलवत हो जा रही है। परिस्थितियां दिन प्रति दिन एक राजनीतिक दल के विरुद्ध होती जा रही। जनता भ्रष्ट और अर्कमण्य राजनेताओं से निपटने का मूड बना बैठी है। भारतीय जनता महंगाई के भारी भरकम बोझ को सहते-सहते इतनी टूट गयी है कि वह अब एक पार्टी को अभयदान देने वाली नहीं है।
विश्व में जहां भी स्वस्थ लोकतंत्र है, जनादेश पाने के पहले राजनीतिक पार्र्टियां मुख्यत:- सुदृढ आर्थिक नीति, तीव्र औद्योगिकरण, बेरोजगारी उन्मूलन, विदेश नीति और आंतरिक सुरक्षा पर अपनी पार्टी की नीतियों को जनता के समक्ष स्पष्ट करती है। इसके समर्थन में तर्क प्रस्तुत करती है। प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल के साथ खुली बहस करती है। यदि वर्तमान समय में उस दल की सरकार है, तो वह अपनी उपलब्धियों को गिनाती है और जनता से आग्रह करती है कि यदि उन्हें पुन: जनादेश मिला, तो वह अपनी उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ायेगी।
परन्तु हमारे देश में ऐसी स्वस्थ परम्परा का अभाव है। जिन राजनेताओं के पास सता संचालन के पूरे अधिकार हैं और जिन्होंने अपने अधिकारों का भरपूर उपयोग किया है, अपनी उपल​िब्ध्यां गिनाने के लिए जनता के सामने नहीं आते। किसी सार्वजनिक बहस में भाग ले कर अपने पक्ष में कोर्इ तर्क नहीं प्रस्तुत करते। दरअसल उन्हें ऐसा आत्माभिमान है कि ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं।  उपल​िब्ध्यां शून्य और नाकामियों का अम्बार हों, किन्तु उनका ऐसा मानना है कि सता पाने का हक उनका ही है, क्योंकि भारत की जनता के पास उनका कोई विकल्प नहीं है। उनकी सोच में भारत की अधिकांश जनता अत्यधिक भोली है।  वह  अशिक्षित और मूर्ख हैं। प्रलोभन दे कर उनके वोटो को खरीदा जा सकता है या धर्म के नाम पर उन्हें उतेजित कर अपने पक्ष में किया जा सकता है।
सम्भवत: यही उद्धेश्य ले कर एक भ्रष्ट राजनीतिक दल अगला लोकसभा चुनाव  जीतने की रणनीति बना रहा है। जो रणनीति के सूत्रधार हैं, वे हमेशा पर्दे के पीछे रहते हैं और अपने अनुयायियों के माध्य से अपनी कुटिल नीतियों को अंजाम देते हैं। इस समय एक निश्चित उद्धेश्य पर अनुयायी काम कर रहे हैं। वह उद्धेश्य है- अपने प्रतिद्वंद्वी पर निरन्तर जहर बूझे शब्द तीरों से आक्रमण करों। वे जो भी कहें उसकी बात का  बतंगड़ बनाओं। ऐसा प्रपोगंड़ा करते रहो कि चुनाव आते-आते अल्पसंख्यक समुदाय के बीच प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल की  एक कट्टर छवि बन जाय और वह एकजुट हो कर उनके पक्ष में मतदान करने को विवश हो जाय। इन अनुयायियों ने भारत के टीवी चेनलो को अपने प्रपोगंड़ा का मंच बना रखा है और ये समाचार चेनल इन्हें अपेक्षित सहयोग कर रहे हैं।
रणनीति का दूसरा भाग है-भारत की निर्धन जनता के वोट पाने के लिए सरकारी खजाने से इतना धन बांटों कि वह अपने सारे दुखों और तक़लीफों को भूल कर पार्टी के पक्ष में मतदान करें। ऐसा करने पर खजाना खाली हो जाय, उसकी परवाह मत करों। देश आर्थिक दृष्टि से तबाह हो जाय और अर्थव्यवस्था एक भयानक आर्थिक संकट में फंस जाय, पर इसकी चिंता मत करों। दरअसल हमे देश से कोई मतलब नही है।  जनता के दु:ख-दर्द से हमें कोई लेना नही है। देश चाहे डूब जाय, चाहे जनता पर मुसिबतों के पहाड़ टूट पड़े,  हमे किसी भी कीमत पर सता चाहिये।
पार्टी के रणनीतिकार सम्भवत: यह मान बैठे हैं कि उनकी रणनीति सफल होगी। सता पर पुन: उनका अधिकार होगा। पांच साल यदि और मिल गये, तो इस देश को पूरी तरह से बरबाद करने में कोई कसर नहीं बाकी नहीं रखेंगे। देश बरबाद हो जायेंगा, किन्तु हम इतने धनवान हो जायेंगे कि बाकी बची जिंदगी दुनियां किसी कोने में बैठ कर आराम से गुजार लेंगे। वैसे भी हमे इस देश से और देश की जनता से कोई मतलब नहीं है। हमें तो मात्र इस देश की जनता के भोलेपन और मूर्खता का लाभ उठाना है।
जनता उनकी कुटिल नीति और नीयत भांप रही  है। वह उन्हें पूरी तरह ठुकरा देगी। भारतीय लोकतंत्र एक परिवार की परतंत्रता से मुक्त हो जायेगा। वह शुभ दिन अवश्य आयेगा, यदि जिन्हें यह जिम्मेदारी निभाने का अवसर मिला है वे अपने वैचारिक द्वंद्व और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को एक ओर रख, कठोर परिश्रम से देश को जगाने का उपक्रम करें।

Saturday, 20 July 2013

नीच कांग्रेस का हिन्दू-परिवारों पर एक घिनोना आधात ..

इसे पढ़े और समझे, अगर सही हे तो हर कांग्रेसी को जो हिन्दू है उसके साथ सूअर जैसा व्यवहार करना शुरू कर दे | आप कह सकते है कि ये मैं कैसी भाषा का प्रयोग कर रहा  हूँ, आप कुछ बोले उससे पहले यह पढ़े और जाने कि आपके साथ क्या हो रहा है, आपके परिवार के साथ क्या करने की साज़िश चल रही है | और यदि आपको अपनी माँ, बहनों की और परिवार की चिंता नहीं है, तो मुझे भी कोई सलाह देने की ध्रष्टता न करें |
मित्रो, कोई भी गंदगी को घर, मोहल्ले व आसपास में नहीं रखता है, कांग्रेस ने आपके घर में, आपके परिवार में, आपके धर्म और आस्था में, आपकी संस्कृति में घुस कर गन्दगी फ़ैलाने की एक ऐसी कोशिस की है जिसे कभी माफ़ नहीं किया जा सकता है | ये आपके घर पर हमला है, आपकी मान्यताओ, आपकी धर्म, आपके विश्वास पर सीधा हमला है | आपको इसका प्रत्युत्तर देना होगा ......
१७ जुले २०१३ को कांग्रेस ने “हिन्दू विवाह कानून/१९५५ में संसोधन किया कि ..
  1. यदि हिन्दू महिला पति से तलक लेना चाहे तो उसे तलाक मिलने में कोई समस्या नहीं होगी चाहे पति तलाक देने के लिए सहमत हो या नहीं.
  2. दूसरा यह की पति की अपनी कमाई हुई और पैत्रिक संपत्ति का आधा हिस्सा पत्नी को अनिवार्य रूप से पत्नी को मिलेगा ही.
  3.  इससे क्या होगा— (मुस्लिम और इसाई मित्र ध्यान दें, कि ये आम मुस्लिम और आम इसाई मित्रो का षड़यंत्र नहीं है और न ही आप इसमें शामिल है; लेकिन देश के दुश्मन और वहाबी मुसलमान देश को और हमारी संस्कृति को, हमारे भाईचारे को तोड़ना चाहते है | ये लेख ऐसे ही वहाबी और देशद्रोहियों के लिए है ! इसमें हमारी गुंगा सरकार तथा विदेशी कुतिया सोनी का हाथ है 
    लव जेहाद को बढ़ावा : कोई जेहादी सबसे “अल-तकिय्या” का सहारा लेकर पहले हिन्दू के पत्नी को उसके पति से अलग करके महिला को धनी बनाएगा फिर इस महिला को झूठ से अपने जाल में फंसाकर उसकी संपती को ले लेगा फिर मुस्लिम बनाकर उस महिला का क्या होगा सबको मालूम है लेकिन वह हिन्दू संपत्ति का अंततः मालिक बन ही जायेगा |
    ईसाई धर्म को बढ़ावा : क्योकि यह कानून सिर्फ हिन्दुओ के लिए ही बनाया गया है, इसाई और मुस्लिमो के लिए नहीं, लोग इस परिस्थिति से परेशां होकर में इसाई बन जायेंगे नहीं तो मुस्लिम बन जायेंगे | यानी “यह कानून धर्म परिवर्तन को बढ़ावा” देने के लिए बनाया गया है जिससे हिन्दुओ की संख्या में गिरावट आयेगी और हिन्दुओ की संपत्ति में जल्दी ही इसाई और मुस्लिमो की साझेदारी तलाकशुदा पत्नी के जरिये बढ़ती चली जायगी | यानी हिन्दू के घर में ईसाई और मुस्लिम का घर भी बन जायेगा |
    इससे हिन्दू परिवार टूटने शुरू हो जायेंगे और धर्म-परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा | कांग्रेस भारत के ताने बाने को तोड़ने के लिए ऐसे ऐसे कानून बनाती हैं की लगता है भारत की आज़ादी ९९ साल से पहले ही छीन जायगी | इटली की मैडम की ईसाई मंडली विदेशी ताकतों के बल पर अपने प्लान को बहुत ही गहन तरीके से अंजाम दे रही है | भारत को बचाने के लिए इसे “कांग्रेस मुक्त भारत” बनाना होगा |
    चुप रहने से काम नहीं चलेगा .. आपको आगे आना ही होगा, “कांग्रेस मुक्त भारत” बनाना होगा | साथ ही विदेशी कुतिया सोनी को देश से भगाना पड़ेगा

Friday, 19 July 2013

buddhijivi

लोग कहते है बीजेपी हिन्दुत्व वाली पार्टी है इसमें मीडिया तथा वर्तमान समाज में माने हुए बुद्धिजीवी वर्ग विशेष तौर पर बीजेपी को हिन्दुत्व की एजेंडा वाली पार्टी मानती है इन तुच्छ तथा विकृत मानसिकता वाले बुद्धिजीवियों तथा मीडिया वालो को बीजेपी की एजेंडा में कहा से हिन्दुत्व व् साम्प्रदायिकता दिखाई दे जाती है
बीजेपी की मूल एजेंडा है देश में सामान नागरिक संहिता , स्वाभाविक है हमारे सविधान में सभी धर्मो को एक सामान मानते हुए सेक्युलर घोषित किया गया है , स्पष्ट है देश के सभी धर्मो के लिए एक सामान कानून हो जो दुर्भाग्य वश नहीं है , बीजेपी की एजेंडा में इसे सामान लेन की बाते है , ये एजेंडा सेक्युलर सोच की है या साम्प्रदायिक सोच की , यदि देश सामान नागरिक  संहिता लागु नहीं तो सांप्रदायिक तो ये है सभी को सामान अधिकार हो इसी को तो सेक्युलर कहते है
दूसरी मूल एजेंडा ३७० धारा को हटाना है , एक तरफ हम कहते है कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है दूसरी तरफ हम स्वयं भारत की सामान्य सम्बिधानिक व्यवस्था से कश्मीर को ३७० धारा के तहत अलग करते है तो फिर ये देश का अभिन्न अंग कैसे हुवा यदि ये देश का अभिन्न अंग होता तो देश की सामान्य कानून व्यवस्था अन्य राज्यों की तरह यहाँ पर भी लागु होता बीजेपी कश्मीर को वास्तव में देश की अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार करने हेतु ३७० धारा को ख़त्म कर अन्य राज्यों की तरह कश्मीर को भी देश के साथ जोड़ना है , इसमें साम्प्रदायिकता कहा से आ गया
बचा मंदिर की मसला वैसे बीजेपी की ये एजेंडा नहीं है लेकिन जब हम ये जानते है की वहां राम मंदिर को ध्वस्त कर बाबर ने मस्जित का निर्माण किया और बाबर मेरे यानि देश के शत्रु रहे है तो शत्रु द्वारा किया गया उत्पात को यदि हम सूधार कर वहां मंदिर बनाते है तो इसमें साम्प्रदायिकता कहाँ से आया यदि इससे मुस्लिम वर्ग नाराज होता है इसका मतलब है की एसे लोग बाबर को देश का दुश्मन नहीं बल्कि देश भक्त मानता है और यदि एसा है तो सरासर एसे लोग राष्ट द्रोह का कम कर रहा है

हमें लगता है देश की सबसे बड़ी कमी मीडिया तथा विकृत मानसिकता के धनी तथाकथित बुद्धिजीवी है
आपको क्या लगता है ? कमेन्ट दें

Thursday, 18 July 2013

हमे खाद्य सुरक्षा के नाम पर भिक्षा नहीं, सम्मान से जीने का हक चाहिये

क्या हम अस्सीं करोड़ भारतीय इतनी भी हैसियत नहीं रखते कि पेट भरने के लिए अनाज खरीद सकें ? सरकार ने कैसे अनुमान लगाया कि भारत की एक तिहाई  आबादी को सरकार से भिक्षा चाहिये? जो लोग सरकार चला रहे हैं, उनकी नीयत में खोट हैं। वे वोट पाने के लिए भारतीय जनता की मन:स्थिति को समझ नहीं पा रहे है। हम भारतीय कर्म में विश्वास करते है।  हमारे मन में खैरात पाने की ललक नहीं रहती। हम संतोषी जीव है। हम सम्मानपूर्वक जीवन जीना पसंद करते  है। यदि हमारी आमदनी  कम हैं, तो हम रुखी सूखी ही खा लेंगे, परन्तु किसी के आगे हाथ नहीं फैलायेंगे।
प्रश्न उठता है कि सरकार के पास ऐसी क्या मजबूरी है, जो बिना सोचे समझे, संसद में व्यापक विचार-विमर्श किये, जल्दबाजी में एक आत्मघाती बिल लाने पर तुली हुई है। जानबूझ कर संसद का सामना करने से क्यों बचना चाहती है? यदि सरकार की नीयत साफ होती, तो संसद का विशेष अधिवेशन बुला सकती थी। मानसूत्र सत्र को समय से पूर्व आरम्भ कर इसकी अवधि बढ़ायी जा सकती थी। परन्तु वह बहस से बचना चाहती है। इस बिल को पास कराने के बाद इसका व्यापक प्रचार कर राजीतिक लाभ उठाना चाहती है। इसीलिए उसे संसदीय परम्पराओ पर विश्वास नहीं है। उसे नीतीश कुमार जैसे अवसरवादी और स्वार्थी राजनेता का साथ मिल गया है, जिससे वह आश्वस्त है। वह बहस से बच जायेगी, परन्तु बहुमत का जुगाड़ कर लेगी और बिल पास हो जायेगा।
इस बिल के पास होने पर पूरे देश में प्रशासनिक अफरा-तफर मच जायेगी। निकम्मी और भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था को एक ऐसा असम्भव कार्य करना होगा, जिसमें भ्रष्टाचार की पूरी सम्भावना होगी। यह कार्य जल्दबाजी में किया जायेगा, जिससे अनाज जनता में बंटेगा कम, गायब ज्यादा होगा, क्योंकि भारत की सार्वजनिक व्यवस्था इतनी ईमानदार व सक्षम नहीं है, जो इतने महत्वपूर्ण कार्य को कर पायेगी। दूसरा अनाज को एक दूसरे स्थान पर पहुंचाने के लिए जो परिवहन व्यवस्था की जायेगी, वह बेहद खर्चिली होगी। राजकोष पर इसका अतिरिक्त भार पडे़गा।
नाम कमाने के लिए सरकार जो कवायद कर रही है, उसका भार जनता को ढ़ोना पडे़गा। महंगाई पहले से ही नियंत्रण में नहीं है और राजकोष पर पड़ने वाले इस अतिरिक्त भार से उसका भयवाह रुप जनता के सामने आयेगा। पर सरकार को इसकी कोई चिंता नहीं है। उन्हें पुन: सता में आना है, इसलिए सरकार चलाने वाले लोग बावले हो रहे हैं। उनका एक ही मकसद है- किसी भी तरह प्रलोभन दे कर जनता को मूर्ख बनाओं और वोट लों।
परन्तु उन्हें शायद यह मालूम नहीं है कि जिंदा रहने के लिए केवल गेंहूं और चावल ही नहीं चाहिये और भी बहुत कुछ चाहिये। जीवन गुजारने के लिए एक आवश्यक वस्तु को सुलभ बना दिया जायेगा, किन्तु इसके परिणामस्वरुप यदि दस वस्तुऐं दुर्लभ हो जायेगी, तो इससे लाभ के अलावा हानि ज्यादा होगी। उदाहरण के लिए गेंहूं सस्ता दिया जायेगा, पर बिजली महंगी हो जायेगी, तो उसका भार कौन ओढ़ेगा? क्या वह अनाज को कच्चा चबायेगा?
निश्चय ही राजकोष का घाटा पूरा करने के लिए डिजल, पैट्रोल के भाव बढाये जायेंगे, जिससे प्रत्येक वस्तुएं महंगी हो जायेगी। अत: आपकी थाली में जो रोटी आयेगी, वह तो सस्ती होगी, परन्तु खाद्यतेल, मसाले, दालें और सब्जी महंगी हो जायेगी, जिससे थाली की कीमत पहले से ही बढ़ जायेगी। अर्थात आपको मूर्ख बना कर एक बार आपके चेहरे पर मुस्कान लायी जायेगी, परन्तु थोड़ी देर बाद ही मुस्कान गायब हो जायेगी। जब आप हक़ीकत से रुबरु होंगे, तब तक आप ठगे जा चुके होंगे। आपको ठग कर आपका बहुमूल्य वोट ले लिया जायेगा। उन्हे सता मिल जायेगी, परन्तु आपके कष्ट घटने के बजाय और बढ़ जायेंगे।
जो राजनेता जनता के हितो की चिंता के बजाय अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए ज्यादा संवेदनशील होते हैं, उनसे कभी सुफल की आशा नहीं की जा सकती। ऐसे कुटिल मनोवृति वाले राजनेताओं के भ्रम जाल में फंसने के पहले जनता को जागरुक होना पड़ेगा। जनता को भयावह दुष्परिणाम देनी वाली खाद्यसुरक्षा नीति का जम कर विरोध करना होगा। क्योंकि सरकार जोड़-तोड- कर के इसे पास भी करवा लेगी और पास होते ही सरकार का प्रचारतंत्र इस बिल को लागू करने के बाद इतने प्रभावशाली ढंग से प्रचार करेगा, ताकि जनता सरकार की दयालुता से गदगद हो जाये।
परन्तु जनता को जागरुक हो कर सरकार से सवाल पूछना होगा कि आखिर अपने कार्यकाल के अंत में ताबड़तोड तरीके से ऐसा महत्वपूर्ण बिल लाने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? क्या यह कार्य चार वर्ष पूर्व नहीं किया जा सकता था? क्या सरकार इस बात की गारन्टी देगी कि इस बिल के प्रभावी होने के बाद महंगाई नहीं बढ़ेगी? यदि महंगाई बढ़ जायेगी, तो फिर इससे लाभ कहां होगा? एक जेब में पैसे रखने और दूसरी जेब से निकालने को चालाकी या धूर्तता नहीं कहेंगे?
देश को एक कठिन आर्थिक स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। रुपये के अवमूल्यन ने अर्थव्वयस्था को भयावह आर्थिक संकट में डाल दिया है। ऐसी परिस्थतियों में अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए देश की अर्थव्वस्था को बरबाद करने की कीमत पर खाद्यसुरक्षा जैसा आत्मघाती कानून बनाना, किसी भी तरह देश में हित में नहीं होगा। इससे देश की गरीब जनता का हित होने के बजाय अहित ज्यादा होगा। अत: सरकार यदि संसद में बहस नहीं करेगी, तो जनता सड़को पर उससे सवाल पूछेगी। इस देश की जनता को सिर्फ खाद्य सुरक्षा ही नहीं, जीवन सुरक्षा की गारन्टी चाहिये। शीघ्र और सस्ता न्याय चाहिये। बेहतर जीवन स्तर भी चाहिये। सम्मान से जिने का हक चाहिये। शिक्षा, स्वास्थय और रोजगार की गारन्टी चाहिये। भ्रष्ट व्यवस्था और महंगाई से निज़ात चाहिये। अत: जो चालाक और धूर्त राजनेता भारत की जनता को मूर्ख बना कर खाली अनाज बांट कर ही जनता को वोट पाना चाहते हैं, वे इस भ्रम में नहीं रहें कि भारत की जनता इतनी ही मूर्ख और भोली है, जो आपकी नाकामियों को माफ कर वोट दे देगी। जनता को आपने बहुत छला है, अब और अधिक छलने के नाटक बंद कीजिये। सता चाहिये तो पहले अपनी नाकामियों और आप पर लगे भ्रष्टाचार का जवाब दीजिये, फिर हमारे वोट लीजिये।
जब देश में अनाज का पर्याप्त उत्पादन हो रहा हो। सरकारी कुप्रबन्ध के कारण भंड़ारो मे अनाज सड़ रहा हो, तब यदि लोग भूख से मरते हैं, तो इसकी दोषी वह सड़ी हुर्इ व्यवस्था है, जो भारत के नागरिकों के जीवन की रक्षा करने में अक्षम है। परन्तु इसी बहाने एक तिहाई आबादी को अनाज बांटने की क्या आवश्यकता आ पड़ी, यह तर्क समझ से परे हैं। वैसे भी उन्हें शायद मालूम नहीं है- भारत में लोग भूख से नहीं मरते, कुपोषण और बीमारी से मरते हैं। गरीबी ने उनका जीना मुश्किल कर दिया है, क्योंकि महंगार्इ ने हर आवश्यक वस्तु को उनकी पहुंच से बाहर कर दिया है। अत: जिन राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों को भारत पर शासन करने का अधिकार चाहिये, वे ऐसी नीतियों की घोषणा करें, जिससे जनता को लाभ मिले, हानि नहीं। खाद्य सुरक्षा योजना, एक छलावा है, इससे लाभ कम, हानि ज्यादा है।

राजनैतिक सत्ताओ के हितो से राष्ट्रहित महत्वपूर्ण है....

राष्ट्र साधारण नहीं होता, प्रलय एवं निर्माण उसकी गोद में खेलते है.....

आप एवं परिषद् तो गौरव घोषित तब होंगे, जब ये राष्ट्र गौरवशाली होगा और ये राष्ट्र गौरवशाली तब होगा जब ये राष्ट्र अपने जीवन मूल्यों एवं परम्पराओ का निर्वाह करने में सफल व सक्षम होगा. और ये राष्ट्र सफल व सक्षम तब होगा जब आप अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने सफल होंगे और आप  सफल तब कहा जायेगें जब प्रत्येक व्यक्ति अपने में रास्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने में सफल हो.

यदि व्यक्ति राष्ट्र भाव से शुन्य है राष्ट्र भाव से हीन है अपनी राष्ट्रयिता के प्रति सजग नहीं है तो यह उसकी की असफलता है, और इतिहास साक्षी है कि चरित्र के अभाव में हमने अपने राष्ट्र को अपमानित होते देखा है. इतिहास बताता है कि शस्त्र के पहेले हम शास्त्र के अभाव में पराजित हुए है. हम शस्त्र और शास्त्र धारण करने वालो को राष्ट्रीयता का बोध नहीं कर पाए और व्यक्ति से पहेले खंड खंड हमारी राष्ट्रीयता हुई. हम इस राष्ट्र की राष्ट्रीयता व् सामर्थ को जाग्रत करने में असफल रहें.

यदि मन पराजय स्वीकार कर ले तो पराजय का वह भाव राष्ट्र के लिए घटक होता है अतः वेद वंदना के साथ राष्ट्र वंदना का स्वर भी दशो दिशाओ में गुंजना आवश्यक है. आवश्यक है व्यक्ति व्यवस्था को यह आभास करना कि यदि व्यक्ति की राष्ट्र की उपासना में आस्था नहीं रही तो वासना के अन्य मार्ग भी संघर्ष मुक्त नहीं रहे पाएंगे. अतः व्यक्ति से व्यक्ति , व्यक्ति से समाज व् समाज से राष्ट्र का एकीकरण आवश्यक है. अतः शीग्रही व्यक्ति समाज व् राष्ट्र को एक सूत्र में बांधना होगा और वह सूत्र राष्ट्रीयता ही हो सकती है.

आप इस चुनोती को स्वीकार करें व् शीग्रही राष्ट्र का नवनिर्माण करने के लिए सिद्ध हो. संभव है की मार्ग में बाधाये आएँगी पर आपको उनपर विजय पानी होगी और आवशकता पड़े तो आप शस्त्र उठाने में भी पीछे न हठे. यह सर्वविदित है की संस्कृति का समर्थ शास्त्र है पैर यदि मार्ग में शस्त्र बाधक हो और राष्ट्र मार्ग में कंटक सिर्फ शस्त्र की ही भाषा समझते हो तो आप उन्हें अपने सामर्थ का परिचय अवश्य दें. अन्यथा सामर्थहीन व्यक्ति अपनी स्वयं की भी रक्षा नहीं कर पायेगा.

संभव है की राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने की लिए आपको सत्ताओ से भी लड़ना पड़े पर इस्मरण रहे की सत्ताओ से राष्ट्र महत्वपूर्ण है. राजनैतिक सत्ताओ के हितो से राष्ट्रहित महत्वपूर्ण है अतः राष्ट्र की बेदी पर सत्ताओ की आहुति देनी पड़े तो भी आप संकोच न करें. इतिहास साक्षी है की सत्तावत स्वार्थ की राजनीती ने इस राष्ट्र का अहित किया है. हमें अब सिर्फ इस राष्ट्र का विचार करना है.

यदि शाशन सहयोग दे तो ठीक अन्यथा हमें अपने पूर्वजो के पुण्य व् कीर्ति का इस्मरण कर अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने में सिद्ध हो, विजय निश्चित है. सप्तसिन्धु की संस्कृति की विजय निश्चित है, विजय निश्चित है इस राष्ट्र के जीवन मूल्यों की, विजय निश्चित है इस राष्ट्र की, आव्यशकता मात्र आवाहन की है. 

आव्हान करें राष्ट्र निर्माण का, अगर आज भी इन लोभी विदेशी सत्ताओ के सामने आप झुक गए तो याद रहे पूर्वजो की कीर्ति को अपकीर्ति में बदलते देर न लगेगी. और यह सर्व सत्य है की उस वृक्ष का तना भी हरा नहीं रहता जिसकी जड़ में ही जीवन की छमता न बची हो. खंड खंड हो जाएगी ये सप्तसिंधु सभ्यता.

अब फैसला आपका है .....

क्या हम बालकों को शिक्षा के द्वारा मानव बना रहे हैं?

यह तो सभी मानते हैं कि हमें मनुष्य बनने के लिये शिक्षा अत्यंत आवश्यक है । प्रश्न है कि शिक्षा कैसी हो। इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि हमें कैसा मनुष्य या नागरिक बनाना है। क्या शिक्षा दी‌ जाए, क्यों दी जाए, कब दी जाए, कौन दे, और कैसे, यह आदि काल से निर्धारित किया जा रहा है, वह बदलता भी गया हैं, संवर्धित भी।
 
1. मनुष्य कैसा होना चाहिये, इसकी अनेक दृष्टियां हो सकती हैं। यह जानने के लिये, एक दृष्टि से, हम प्रकृति से सीखने का प्रयत्न कर सकते हैं, क्योंकि मनुष्य तो उसी‌ ने बनाया है। जानवर जैसे चीता अपने तेज वेग के लिये, हिरन अपनी चपलता, वेग और प्रबलता (स्टैमिना) के लिये, उल्लू अंधकार में देखने के लिये, गाय दूध देने के लिये, आदि आदि विशेषज्ञ हैं। निहत्था और अकेला मानव किसी भी बड़े वन्य जानवर से नहीं जीत सकता। मानव अपनी प्रकृति से, अन्य जानवरों की तुलना में, जन्मजात निर्विशेषता के लिये प्रसिद्ध है और यही हम सभी की अतिजीविता के मूलाधार हैं। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मनुष्य विशेषता प्राप्त नहीं कर सकते; मनुष्य आवश्यकतानुसार अनेकों विशेषताएं प्राप्त कर सकते हैं। प्रकृति से शिक्षा लेते हुए हमें भी अपनी शिक्षा ऐसी बनाना चाहिये कि शिक्षा का मूलाधार 'निर्विशेषता' हो और जिससे यथासमय यथोचित विशेषज्ञता प्राप्त की‌ जा सके।
 
2. निर्विशेषता कैसी हो, इसके लिये हम, प्रथमत:, देखें विश्व के पुरातनतम ग्रन्थ वेद। यजुर्वेद के तैत्तिरीय उपनिषद में शिक्षावल्ली 1अर्थात शिक्षा के विषय में उन ऋषियों के गहन विचार हैं। मैं उसमें से एक ही मंत्र का अनुवाद प्रस्तुत करना चाहता हूं। शिक्षावल्ली के ११ वें अनुवाक में दीक्षान्त समारोह के वर्णन में गुरु शिष्यों को अन्तिम उपदेश देते हैं - “सत्य बोलो, धर्म के अनुसार आचरण करो (अर्थात शास्त्रों के अनुसार कर्तव्य करो), अध्ययन से प्रमाद मत करो अर्थात उसे अकर्तव्य समझकर मत छोड़ो, . . . कौशल से प्रमाद नहीं करना चाहिये, भौतिक समृद्धि से प्रमाद नहीं करना चाहिये, अध्ययन और प्रवचन (व्याख्यान) देने से प्रमाद नहीं करना चाहिये, . . . हमारे जो अनिंदित कर्म हैं उऩ्हीं का अनुसरण करना, दूसरों का नहीं। जो हमारे सुचरित हैं उऩ्हीं का अनुसरण करना, अन्य का नहीं। " यद्यपि आज ऐसी निर्विशेष शिक्षा भारत में धर्म निरपेक्षता के नाम पर बन्द हो गई है, किन्तु यह तो मानव बनने के लिये हमेशा ही सत्य है।
 
3. मैं अथर्ववेद (५.७.४) से एक मंत्र का अनुवाद उद्धृत करना चाहती हूं, " हम ऐसी शिक्षा और ऐसा ज्ञान आत्मसात करें और उनका उत्सव मनाएं जो परस्पर सहयोग की‌ भावना बढ़ाएं तथा कल्याणकारी हों ।" यह शिक्षा भी निर्विवादरूप से मानव के लिये नितांत आवश्यक है ! किन्तु क्या ऐसी शिक्षा भी सच में दी जा रही है ? मैं ऋग्वेद के साँतवें‌ मण्डल से 'मण्डूक सूक्त की चर्चा करना चाहती हूं। इसमें मण्डूक को देवता मानकर उसकी स्तुति की गई है। इस तरह मेंढक को इंद्र, अग्नि, मित्र आदि देवताओं के साथ रखकर उसका सम्मान किया गया है। यह ऋषियों की दृष्टि ही थी कि उऩ्होंने मेंढक का पारिस्थितिकीय महत्व दर्शाया, जो आज के आधुनिक विज्ञान का विषय है, और जिसकी शिक्षा के बिना शिक्षा अधूरी ही कहलाई जाएगी।
 
4. हमारे यहां जीवन में चार पुरुषार्थ माने गए हैं - धर्म (शास्त्रोक्त नैतिकता तथा कर्तव्य), अर्थ, काम ( इच्छाएं) और मोक्ष ( सांसारिक दुखों से मुक्ति)। वैदिक काल में इन चारों को प्राप्त करने की शिक्षा दी जाती थी। आज धर्म निरपेक्षता के गलत प्रकाश में धर्म की शिक्षा का लोप कर दिया गया है। यहां धर्म का अर्थ 'रिलीजन' नहीं है, कर्तव्य है, कर्मों की नैतिकता है, तुलसी का "पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।" है। यहां धर्म का अर्थ मानवता धर्म है। मोक्ष का गहरा अर्थ सांसारिक दुखों से मुक्ति है, कर्म बन्धनों से मुक्त जो शान्ति प्राप्ति होती है वह मोक्ष है। (चूंकि कर्म सिद्धान्त के अनुसार पुनर्जन्म होता है तब उस परम शान्ति के लिये जन्मों के चक्र से मुक्त होना भी‌ मोक्ष है। यदि हम पुनर्जन्म नहीं मानते, तब तो मोक्ष का अर्थ सीधा इसी‌ जन्म में कर्मों के बन्धन अर्थात सांसारिक सुख -दुख से मुक्ति है।) आज मोक्ष की चर्चा भी‌ नहीं की‌ जाती। यहां तक कि 'कामनाएं कैसी हों', इसकी भी शिक्षा नहीं दी‌ जाती। अर्थात उन चार पुरुषार्थों में से एक ही पुरुषार्थ की शिक्षा दी‌ जा रही‌ है। कितनी असंतुलित है हमारी शिक्षा पद्धति ! इस विषय पर दलाई लामा जो कहते हैं वह शिक्षा के लिये कितना उपयुक्त है, देखें -
'एक अंतर्राष्ट्रीय सभा में ब्रज़ीलाई पादरी लेओनार्दो बाफ़ ने दलाई लामा से एक शरारती प्रश्न किया, “ हे महात्मन, विश्व में कौन सा धर्म सर्वश्रेष्ठ है?” लेओनार्दो तो निश्चित थे कि दलाई लामा बोलेंगे 'बौद्ध धर्म'।'
किन्तु दलाई लामा ने मुस्कराकर उत्तर दिया -
“धर्म महत्वपूर्ण नहीं है। जो आपको ईश्वर के निकटतम ले जाए और एक बेहतर मनुष्य बनाए ।"
अब तो लेओनार्दो झेंप गए और उऩ्होंने ने अपनी झेंप मिटाने के लिये पूछा,
“ महात्मन, वह क्या है जो मुझे बेहतर मनुष्य बनाएगा ?
दलाई लामा ने सरलता से उत्तर दिया,
“ जो भी आपको अधिक करुणामय बनाएगा, अधिक संवेदनशील, अधिक वियुक्त, अधिक स्नेही, अधिक मानवीय, अधिक जिम्मेदार तथा अधिक नैतिक बनाएगा।"
लेओनार्दो बाफ़ उनके अनमोल उत्तर से अभिभूत थे !
 
5. आज के इस पूँजीवादी तथा भोगवादी भारत में शिक्षा मनुष्य को धन कमाने की‌ मशीन बना रही है, और वास्तव में नैतिक शिक्षा की कमी उसे 'राक्षस' बना रही है, और अज्ञानवश वह खुशी‌ खुशी राक्षस बन रहा है - किसी भी कीमत पर, अपने सुख के लिये अपनी‌ इच्छाओं को पूरी‌ करना ही तो राक्षसत्व है । मानव बनने के लिये यथा समय चारों पुरुषार्थों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – अर्थात चारों कर्तव्यों की शिक्षा आवश्यक है। धर्म का अर्थ यहां किसी संप्रदाय के नियमों का कठोर पालन नहीं, वरन मानव बनने के लिये जो गुण आवश्यक हैं वह धर्म है, यथा धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य तथा अक्रोध आदि गुण हैं। अर्थों का अर्जन अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये करना भी हमारा कर्तव्य है, और मोक्ष अर्थात इस संसार में दुखों से निवृत्ति भी। इन चारों कर्तव्यों की शिक्षा के स्थान पर आज मात्र एक कर्तव्य की‌ शिक्षा ही दी जा रही है - अर्थार्जन की शिक्षा। यहां तक कि कामनाएं कैसी हॊं, इसकी‌ शिक्षा विज्ञापन, विशेषकर टीवी के रंगीन तथा निर्बाध विज्ञापन देते हैं। टीवी भोगवाद बढ़ाने के लिये स्वर्ण का वह पर्दा बन गया है जो मानवता को ढ़ँके रहता है।
 
6. विज्ञापन का ध्येय अपने लिये तथा विज्ञापनदाता के लिये धन कमाना होता है। उऩ्हें जनमानस की भलाई का ध्यान शायद ही होता है, यद्यपि उनकी‌ भाषा (दृष्टिक या शाब्दिक) ऐसा भ्रम देती‌ है कि वे तो मात्र जनमानस की भलाई ही कर रहे हैं। वास्तव में विज्ञापन में‌ भाषा का साज शृंगार कर उसे बहुत बहुत लुभावना बनाया जाता है, मानों कि आज का विज्ञापनकार ग्राहकों को. लुभाने के लिये भाषा को 'कोठे' पर ही बिठा देता है। और सामान्य जन मोहित होकर विज्ञापित वस्तुओं को खरीद लेते हैं, चाहे वे आवश्यक हों‌ या नहीं। 'मार्कैटिंग' वाले विज्ञापन का कार्य अनावश्यक को आवश्यक सिद्ध करना होता है जिसे वे बड़ी सफ़लता से कर रहे हैं। आज के प्रौद्योगिकी के समय में पुराना मुहावरा ' आवश्यकता आविष्कार की‌ जननी है' सिर के बल खड़ा कर दिया गया है - ' आविष्कार आवश्यकता का जनक है '। आज का उद्योगपति, विज्ञापन के द्वारा, लुभावनी (सैक्सी) भाषा में कहता है, " मैने एक नई वस्तु जैसे नए मोबाइल या नए जूते का आविष्कार कर लिया है जिसकी आवश्यकता आपको है और उसे आप तुरंत ही‌ खरीदें, अन्यथा आप पिछड़ जाएंगे।' इसके फ़लस्वरूप बड़ी ही लुभावनी भाषा (शाब्दिक तथा दृष्टिक) के द्वारा निर्बाध भोग की शिक्षा ही मिल रही है जो मनुष्य को राक्षस बनाती है। अपने भोग अर्थात सुख के लिये ही अर्जन करना है, न तो नैतिकता का बन्धन है और न इसकी‌ चिन्ता कि यह तो अन्तत: सभी को दुख ही देगा, और अन्तत: प्रकृति का विनाश करेगा ।
 
7. निर्विशेषता की शिक्षा के लिये क्या क्या विषय होना चाहिये :--
१. भाषा, क्योंकि 'भाषा और विचार करना' मनुष्य तथा अन्य जानवरों में उसकी श्रेष्ठता के लिये सबसे बड़ा अन्तर है।
२. गणित, क्योंकि अमूर्त की कल्पना और उसका उपयोग मनुष्य को भाषा की सीमा के पार ले जाता है और गणित मूर्त तथा अमूर्त के बीच संबन्ध भी स्थापित करती है।
३. वैज्ञानिक समझ, इसका अर्थ उतना विज्ञान के सिद्धान्त नहीं जितना तर्क संगत तथा प्रमाणों पर आधारित जानकारी को जाँच परखकर स्वीकार करना है, इस अवधारणा के निकट एक और शब्द है 'स्कैप्टिसिज़म' अर्थात 'संशयवाद', जिसका मूल उद्देश्य है अंधविश्वास न करना, बिना प्रमाण न मानना तथा प्रमाण न मिलने तक मस्तिष्क को खुला रखना।
४. स्वस्थ शरीर तथा श्रम का महत्व ।
५. प्रकृति प्रेम, कला प्रेम, मानव प्रेम।
६. खेल अर्थात मन और शरीर की क्रियाओं में मेल, संयम तथा नियोजन।
७. कर्तव्य परायणता, अविलंबता, शिल्प कर्म तथा कौशल।
८. ऊर्जा, पारिस्थितिकी तथा पर्यावरण का महत्व ।
९. जिज्ञासा, प्रश्नाकुलता तथा ज्ञानप्रेम, सौहार्द, मैत्री, सहयोग, समानता, साहसिकता, सहानुभूति, स्वाभिमान, सकारात्मक संवेदनाएं यथा प्रेम, करुणा, उदारता आदि 'हृदय के गुणों की शिक्षा, ।
१०. सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षा है 'स्वयं सीख सकने' की शिक्षा।
 
8. भाषा की शिक्षा के भी पहले शिशु माता पिता, परिवार आदि से उनके हावभाव, बोलचाल तथा व्यवहार से बहुत कुछ सीख लेता है। पहले ८ – १० वर्ष की आयु तक की समस्त प्रकार की शिक्षा उसके व्यवहार की नींव का निर्माण करती है। अत: शिक्षा की नींव के लिये परिवार तथा समाज का उत्तरदायित्व बनता है कि वे अपने व्यवहार से उसे प्रेम, सहयोग, करुणा, संवेदनशीलता, जिज्ञासा, प्रश्नाकुलता, सत्य, निश्छलता, कार्य निष्ठा, स्वस्थ तथा जिम्मेदार बनने आदि की शिक्षा दें। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम के जन्म तथा विकास के समय में अयोध्या के समस्त निवासी‌ बहुत ही मानवीय गुणों से युक्त थे तभी राम राम बन सके । एक अफ़्रीकी कहावत भी है कि 'बालक के विकास के लिये पूरे गाँव का योगदान चाहिये। एक महान समाज महान पुरुष पैदा कर सकता है; वैसे यह भी सच है कि कमल पंक में‌ हो सकता है। यह भी सच है कि एक चना भाड़ नहीं फ़ोड़ सकता और यह भी सच है कि मात्र एक महान पुरुष समाज को बदल सकता है।
 
9. शिक्षा का अर्थ मात्र स्कूली शिक्षा ही नहीं है, परिवार तथा समाज का भी बहुत बड़ा हाथ है, और यह शिक्षा सारा जीवन चलती है। किसी भी 'गलत' समाज के बच्चों को 'सही' शिक्षा देना अत्यंत कठिन कार्य है। इसके प्रमाण अनेक हैं, उदाहरणार्थ, (यह जानकार लोगों को समाचार पत्रों, इंटरनैट, बीबीसी आदि द्वारा विदित है कि) ब्रिटैन2 के स्कूलों में यह कठिनाई इतनी हो रही है कि शिक्षक, माता पिता तथा पुलिस सभी अपने को निस्सहाय पा रहे हैं। ब्रिटैन के युवाओं की दो बहुत बड़ी समस्याएं हैं - युवाओं का, यहां तक कि किशोरों का, 'शराबी' होना, तथा दूसरी दयनीय समस्या है, स्कूलों में मुफ़्त कंडोम बाँटने तथा यौन शिक्षा देने के बाद भी 'अविवाहित निस्सहाय माताओं' की बढ़ती संख़्या' । यूएसए में अनेक स्कूलों में युवाओं को हथियारों के लिये 'स्कैन' किया जाता है। वहां के स्कूली विद्यार्थियों द्वारा की गई निर्मम हत्याएं विश्वकुख्यात हैं। वहां स्कूलों में विद्यार्थियों को और घरों में बालकों को शारीरिक दण्ड देना अपराध है। वहां के युवा विद्यार्थियों की उपरोक्त जो समस्याएं हैं उनके लिये यह दण्ड का निषेध एक महत्वपूर्ण कारण है। यह देखते हुए हमें पश्चिम से इस नियम की नकल नहीं करना चाहिये। मेरी समझ में बालकों को केवल वे ही‌ दण्ड दे सकते हैं जो उनसे प्रेम करते हैं, और जिनका उद्देश्य बालकों को मानव बनाना है। इस प्रक्रिया में‌ कुछ गलतियां‌ होंगी, किन्तु गलती करने वालों को दण्ड दिया जा सकता है। उद्दण्ड बालकों और विद्यार्थियों को कितना और कौन सा दण्ड देना उचित है, इस पर गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। यदि हम बच्चों को मानव बनाना चाहते हैं तब हमें मानवोचित शिक्षा देते हुए स्वयं मानव सा व्यवहार तो करना ही चाहिये।
 
10. बच्चों को प्राथमिक शालाओं में कैसी निर्विशेष शिक्षा देना चाहिये?‌ उसे भाषा, गणित, संगीत, शिल्प तथा कला और कौशल की विशेष शिक्षा आदि के साथ उपरोक्त दस शिक्षाएं देना चाहिये। और इन समस्त विषयों की शिक्षा में हमें मानवता की शिक्षा को मूल में अवश्य ही रखना चाहिये । गणित उऩ्हें गिनने की तथा मूर्त से 'अमूर्त' को समझने की शिक्षा देती है। भाषा अन्य सभी ज्ञानों के लिये माध्यम के रूप में आवश्यक है; दूसरे, यह उसके सोचने का प्रमुख माध्यम भी है। सोचने के अर्थ में विश्लेषणात्मक, संश्लेषणात्मक, सृजनशील तथा नवाचारी सोच सम्मिलित हैं। और तीसरा कारण है भाषा का संस्कृति की वाहिनी‌ होना, जो कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । भाषाओं में श्रव्य तथा दृष्य भाषाएं सम्मिलित हैं, जो प्रश्न करने की शक्ति तथा सोचने की शक्ति देती है जो समस्याओं को हल करने की योग्यता देती हैं जो मनुष्य को जानवरों से श्रेष्ठ बनाती हैं तथा जीवन को नरक के स्थान पर शांति तथा समृद्धि का सागर बनाती हैं।
 
11. एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि कौन सी‌ भाषा में बालकों को शिक्षा देना चाहिये? भाषा का महत्व जानने के लिये जर्गैन हेबरमैस3 द्वारा दी गई परिभाषा सहायता करती है - 'भाषा जीवनतंत्र का माध्यम है, उसी तरह जिस तरह पैसा आर्थिक तंत्र का और 'शक्ति' राजनैतिक तंत्र का, इसीलिये भाषा समाज को बदल सकती‌ है -अच्छे के लिये या बुरे के लिये। राबर्ट बैल्लाह4 के अनुसार भाषा विश्व को जीवन्त बनाती है। भाषा की अपनी संस्कृति होती है, जान सर्ल5 के अनुसार भाषा एक सामाजिक संस्था है। जिस तरह व्यापार तथा विपणन का वैश्वीकरण हो रहा है, उसी तरह भाषा के अंग्रेज़ीकरण के रूप में वैश्वीकरण करने का पूरा प्रयास यूएसए तथा ब्रिटैन कर रहे हैं। किन्तु जिस तरह व्यापार के 'समतलीकरण' में, जो कि समता का छद्म है, शक्तिशाली ही‌ जीतता है, उसी तरह भाषा के वैश्वीकरण में अंग्रेज़ी तंत्र ही‌ जीतेगा, उनके जीवन मूल्य अर्थात भोगवाद छा जाएंगे जिसमें मानव एक हिंस्र पशु बन जाता है। भारतीय भाषाएं मानवीय मूल्य लाती हैं, वसुधैव कुटुम्बकम स्थापित करती हैं। (इतिहास साक्षी है कि भारत ने कभी भी तलवार के बल पर अपनी संस्कृति किसी‌ पर भी‌ कभी‌ भी‌ नहीं लादी, यद्यपि चीन यह स्वीकार करता है कि भारतीय संस्कृति ने उनके ऊपर २००० वर्ष राज्य किया।) अतएव शिक्षा का माध्यम विकसित राष्ट्रभाषाएं‌ या मातृभाषाएं ही होना चाहिये। इसलिये भी कि शिक्षा, विशेषकर संस्कृति की शिक्षा, तथा सृजन शिक्षा के लिये सर्वोत्तम भाषा मातृभाषा ही होती है, और संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार यह बालकों का मानवाधिकार भी‌ है।
 
12. चाहे जितने करोड़ व्यक्ति काम चलाऊ अंग्रेज़ी में गिटपिट कर लें, किन्तु उसमें गंभीर कार्य कर सकने वाले तो कुछ हजार ही‌ हैं। ' एजुकेशन फ़र्स्ट' (ईएफ़) एक विश्वव्यापी संस्था है जिसका प्रमुख ध्येय वैश्विक स्तर पर अंग्रेज़ी‌ भाषा का शिक्षण देना है, और यह विदेशों में अंग्रेज़ी‌ भाषा में नौकरी दिलाने का कार्य भी‌ करती है जिसके लिये यह निवेदकों की अंग्रेज़ी जानकारी का परीक्षण भी‌ करती है जिसे यह 'ईएफ़ इंग्लिश प्रौफ़िशियैंसी सूची' के नाम से प्रकाशित करती है। इसकी वैश्विक अर्थात कुल ४५ देशों की सूची में‌ भारत का स्थान ३१ वां है जो 'लो प्रौफ़िशिएन्सी' (निम्न निपुणता) में आता है, और इसके बाद ब्राज़ील और रूस हैं, जिनके बाद 'वेरी लो प्रौफ़िशिएन्सी' श्रेणी के देश हैं ! केवल 'आन लाइन' परीक्षण होने से इसकी महत्ता कुछ कम आँकी जाती है; किन्तु जो विदेशों में‌ कार्य करना चाहते हैं आज उऩ्हें कम्प्यूटर पर कार्य की जानकारी तो आवश्यक ही मानी‌ जाएगी। इससे कुछ निष्कर्ष निकलते हैं, कि बचपन से ही अंग्रेज़ी पढ़ाने से कोई आवश्यक नहीं है कि वयस्क समय में‌ अंग्रेज़ी में‌ निपुणता बढ़ जाएगी, हां उनकी अपनी‌ ही‌ भाषा में निपुणता अवश्य कम हो जाएगी। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण है कि भारतीयों में १५० बरसों के शिक्षण के बाद भी अंग्रेज़ी में निपुणता कितनी कम है। वास्तव में यूरोपीय देशों में ही अंग्रेजी‌ में‌ अच्छी निपुणता मिलती है। अर्थात भारत में कुछ हजार व्यक्ति ही अंग्रेज़ी के बल पर मलाई खा रहे हैं, और खाते रहेंगे।
 
13.  अनेक ब्राउन साहब दावा करते हैं कि भारत को 'साफ़्ट वेअर में विदेशों में जो उच्च स्थान प्राप्त है उसका कारण साफ़्टवेअर के साथ उनका अंग्रेज़ी ज्ञान है। यह अन्य देशों से तुलना करने पर सही नहीं निकलता। पाकिस्तान में ४९% (भारत में लगभग १०%) व्यक्ति अंग्रेज़ी में‌ बातचीत कर सकते है ( जो भारत में अंग्रेज़ी में‌ बातचीत कर सकने वालों की संख्या की तुलना में ७० % है।) किन्तु साफ़्टवेअर में उनका  कहीं विशेष नाम नहीं है। भारतीय गणित और इसलिये तर्कशास्त्र में निपुण होते हैं, चीनी‌ भी इसी‌ श्रेणी में आते हैं। इसलिये साफ़्टवेअर में‌ हमारा मुकाबला चीनियों से होता है यद्यपि चीनियों की अंग्रेज़ी हमारी तुलना में‌ निश्चित ही कमज़ोर मानी‌ जाती है। अंग्रेज़ी के वैश्विक तथा देशी कुप्रचार के कारण अंग्रेज़ी की आवश्यकता सिद्ध करने के लिये तरह तरह के भ्रम फ़ैलाए गए हैं। इस विषय में ब्रिटैन से प्रकाशित 'गार्जियन वीकली' के १३ मार्च १२ के अंक में राबर्ट फ़िलिप्सन का लेख ' लिन्ग्विस्टिक इंपीरियलिज़म एलाइव एन्ड किकिंग' ( भाषाई उपनिवेशवाद जीवित और कर्मठ है) पठनीय है जो प्रामाणिक जानकारी देता हुआ अपने कथन सिद्ध करता है -
(१) नमीबिया में इंग्लिश थोपे जाने के बाद भी भयंकर असफ़ल रही है, और वह बालकों के मस्तिष्क को विषैला कर रही है।
(२) भाषाई मिथ पाकिस्तान में (जहां ५०% व्यक्ति अंग्रेज़ी बोल सकते हैं) स्कूली शिक्षा को अपंग बना रही है, यह मिथ है कि 'अंग्रेज़ी पढ़ो और जीवन में सफ़लता पाओ' ! (दृष्टव्य है कि यही‌ मिथ भारत में भी व्याप्त है। इस समय अंग्रेज़ी में पढ़े एक इंजीनियर स्नातक को प्रारंभिक वेतन १०००० रु. प्रति माह मिलता है जो कि एक अपढ़ चपरासी के वेतन के लगभग बराबर है। कुछ समय बाद अंग्रेज़ी वाले भी जेब काटते, लोगों को लूटते, उऩ्हें‌ ठगते नज़र आएंगे, वरन आ रहे हैं।)
(३) यूएस ए तथा ब्रिटिश शासन अंग्रेज़ी के प्रसार में तेज़ी से कार्य कर रहे हैं।
(४) अंग्रेज़ी 'एक भाषावाद' को बढ़ाती है, अर्थात मात्र अंग्रेज़ी का उपनिवेश।
(५.) ब्रिटिश काउन्सिल विश्व की अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली विशालतम संस्था है। और प्रचार करते करते यह बहुत धन का अर्जन भी करती‌ है - प्रत्येक १.६ डालर के खर्च पर यह ४ डालर कमा रही‌ है !
(६) ब्रिटिश के जो लक्ष्य उपनिवेश काल में थे , वही‌ लक्ष्य आज भी‌ हैं; वह आज भी अंग्रेज़ी के पक्ष में वही तर्क दे रही‌ है जो लार्ड मैकाले8 ने १८३५ में दिये थे ।
(७) अंग्रेज़ी‌ की‌ (षड़यंत्रकारी ) माँग पश्चिमी सरकारों, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं तथा उनके मित्र देशों ने मिलकर अपने 'एजैंडे' के लिये बनाई है। (क्या ब्राउन साहब अब भी चेतेंगे ?)
 
14. शिक्षा के माध्यम की समस्या केवल कुछ पूर्व गुलाम देशों की ही है, अन्य सभी देश, यहां तक कि छोटा सा नवजात देश इज़राएल भी, अपनी ही भाषा में शिक्षा देते हैं। सभी साम्राज्यवादी देशों ने अपने उपनिवेशों में अपनी भाषाएं बल तथा छलपूर्वक स्थापित की थीं। अब उनके चले जाने के बाद भी, भारत में लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति के अनुसार सभी 'ब्राउन साहिब' वही औपनिवेशिक भाषा ही चाहते हैं। गुलामी का एक सर्वमान्य लक्षण है 'स्टाकहोम सिंड्रोम' जिसके अनुसार सबसे पक्का गुलाम वह है जो गुलाम होते हुए भी अपने को गुलाम नहीं मानता, इसीलिये हमारे ब्राउन साहब (१००% गुलाम) अपनी सोच में गुलाम होते हुए भी अपने को पूर्ण स्वतंत्र मानते हैं । और इसीलिये हमारे देश में अंग्रेज़ी का राज्य है, जिसके परिणामस्वरूप हमारी सोच भी गुलाम है।
 
15. हमारी राष्ट्रभाषाएं, एक अपवाद के साथ, संस्कृत की पुत्रियां हैं, और उनमें अपनी‌ माता के गुण सहज ही विद्यमान हैं। विश्व के अनेक सुप्रसिद्ध विद्वान संस्कृत भाषा को विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा मानते हैं। नासा के वैज्ञानिक रिक ब्रिग्ज़ : “कम्पूटर के लिये सर्वोत्तम भाषा संस्कृत है, स्वाभाविक भाषा (संस्कृत) कृत्रिम भाषा की तरह भी कार्य कर सकती है।" प्रसिद्ध भाषाविद तथा संस्कृत पंडित विलियम जोन्स :- “संस्कृत भाषा की संरचना अद्भुत है; ग्रीक भाषा से अधिक निर्दोष तथा संपूर्ण; लातिनी‌ भाषा से अधिक प्रचुर; तथा इन दोनों से अधिक परिष्कृत। इसी तरह भाषाविद तथा विद्वान विलियम कुक टेलर, जार्ज इफ़्राह, मौनियेर विलियम्स, सर विलियम विल्सन हंटर, अल्ब्रेख्ट वैबर, लैनर्ड ब्लूमफ़ील्ड, वाल्टर यूजीन क्लार्क, फ़्रैडरिख वान श्लेगल, और आज के (सेंट जेम्स इंडिपैन्डैन्ट स्कूल, कैन्सिन्गटन, लंदन के संस्कृत विभागाध्यक्ष) वारिक ज़ैसप, ब्रिटैन के शिक्षा विशेषज्ञ पाल मास आदि ने खुले हृदय से संस्कृत की‌ प्रशस्ति में‌ गीत गाए हैं।
 
16. उपरोक्त गुलामी मानसिकता के कारण शिक्षा का पहला ही नियम कि ज्ञान का प्रसार ज्ञात से अज्ञात की ओर किया जाना चाहिये, निर्ममता पूर्वक तोड़ा गया है। आज शिक्षा का माध्यम सारे भारत में अंग्रेज़ी किया गया है, जिसके कारण बालकों ने पहले पाँच वर्षों में जो अमूल्य सीखा है, (और जो वे आजीवन सीखते रहेंगे,) उसका बहुत कम उपयोग होता है, और उऩ्हें 'नर्सरी राइम' तथा 'अर्थहीन' अंग्रेज़ी शब्द रटाए जाते हैं। उसकी बुद्धि के विकास में बचपन से ही यह बेड़ी डाली जा रही है, और गुलाम लोग मस्त हैं क्योंकि रोटी तो अंग्रेज़ी से ही मिलेगी। हम लोग इतने गुलाम या मजबूर हैं कि हम यह नहीं जानते कि अंग्रेज़ी की रोटी‌ में ज़हर है। आज अंग्रेज़ी को हमने अत्यावश्यक मान लिया है, यद्यपि जो सही‌ नहीं है, तब भी हम अंग्रेज़ी अवश्य सीखें किन्तु प्राथमिक विद्यालय में‌ नहीं। प्राथमिक शाला में मातृभाषा तथा राष्ट्र्भाषा (राज भाषा) के प्रति प्रेम का विकास होना चाहिये, जो अंग्रेज़ी के आने से बधित होता है। प्राथमिक स्तर से ही न केवल अंग्रेज़ी की शिक्षा, वरन शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी किये जाने के कारण बालक के रट्टू तोता बनने की आशंका बहुत अधिक बढ़ जाती है। जब कि लगभग पाँचवीं कक्षा तक मातृभाषा (या क्षेत्रीय भाषा) में पढ़ने से उनके मन मस्तिष्क में एक भाषा ठीक से बैठ सकती है। वरना वे उसी‌ कच्ची आयु से खिचड़ी‌ भाषा का प्रयोग करने लगते हैं जिससे हिंग्लिश, बंगिंग्लिश, टमिंग्लिश आदि वर्णसंकर भाषाएं जिऩ्हें अंग्रेज़ी‌ में‌ 'क्रियोल' कहते हैं, उत्पन्न हो रही‌ हैं। मारीशस तथा वैस्ट इंडीज़ आदि में पहले गिरमिटियों की भोजपुरी आदि का क्रियोलीकरण हुआ और अब वे लुप्त प्राय हैं।। अत: यदि बहुत जल्दी करना ही है तब छठवीं कक्षा से अंग्रेज़ी भाषा की शिक्षा प्रारंभ की‌ जा सकती है। और अंग्रेज़ी‌ माध्यम में शिक्षा महाविद्यालयों से ही प्रारंभ करना चाहिये क्योंकि तब तक विद्यार्थियों के मन में भिन्न अवधारणाओं के गूढ़ अर्थ ठीक से बैठ सकते हैं जो विदेशी भाषा में रटने से नहीं हो सकते। मैं और ऐसे असंख्य व्यक्ति हैं जिऩ्होंने इसी तरह ही अंग्रेज़ी शिक्षा पाई थी, और हमें कहीं भी, यहां तक कि मुझे और अन्य अनेक साथियों को इंग्लैण्ड में एम टैक करने में भी‌ कोई कठिनाई नहीं हुई।
 
17. चौथे पैरा में उद्धृत अथर्ववेद के रत्न के कथन पर आश्चर्य होता है कि उस पुरातन काल (लगभग ५००० वर्ष पूर्व) में‌ भी‌ उनके विचार इतने अनोखे और सार्वकालिक थे कि आज भी सत्य हैं। और हमारे पास यह ज्ञान - जो परस्पर सहयोग की‌ भावना बढ़ाएं तथा कल्याणकारी हों - होते हुए भी हमारी आज की शिक्षा मात्र अर्थार्जनी‌ रोबाट पैदा कर रही‌ है, जो स्वभावतया रोबाट न रहकर राक्षस बन रहे हैं जिसका दुष्परिणाम यह देश हिंसा, आतंक, अनाचार, व्यभिचार आदि के रूप में‌ भुगत रहा है।
 
18. अंग्रेज़ी शिक्षा इसी तरह जहां भेद न हों वहां भी अन्य भेद डालती है, यथा पुरुष – स्त्री भेद, धार्मिक भेद, भाषा भेद, आर्य – द्रविड़ भेद आदि।
 
19. दिखाने के लिये कि 'निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करना 'बालकों का अधिकार है' विधेयक २००८ में पारित किया गया। और तब इसका बड़ा गाना गया। तात्कालीन मानव संसाधन मंत्री ने घोषणा की कि "यह एक ऐतिहासिक विधेयक है, जैसा कि पिछले ६२ वर्षों में पारित नहीं हुआ, और जिसके द्वारा बालकों का भविष्य समुन्नत होगा। हम यह कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं कि हमारे बालक शिक्षा न पाएं।" और यह स्पष्ट दिख रहा है कि यह कागज़ पर ही जीवित है, और यथार्थ कुछ और है। शासकीय विद्यालयों में शिक्षकों कि भारी कमी, उन कम शिक्षकों को भी शिक्षा से इतर कार्यों, जैसे चुनाव, जनगणना आदि, में हमेशा ही लगाना। जब से इस विधेयक के अनुकूल शिक्षा दी जा रही है, तब से या शिक्षा ही खतम हो गई है या बालकों की शिक्षा का उद्द्देश्य ही गड़बड़ा गया है । शिक्षकों का अधिकांश समय मध्याऩ्ह भोजन बनाने तथा खिलाने और सफ़ाई करने में निकल जाता है। सरकारी स्कूलों में मध्याऩ्ह तक बच्चों को शरीर के लिये भोजन' तो, चाहे जैसी गुणवत्ता वाला हो, मिलता है; किन्तु मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिये शायद ही कुछ मिलता हो । इसका दोष शिक्षकों के सिर और जातिभेद पर मढ़ा जाता है। इस तरह द्वेष देखने का कारण भी अंग्रेज़ी शिक्षा द्वारा जाति भेद डालना है। अंग्रेज़ी शिक्षा इसी तरह जहां भेद न हों वहां भी अन्य भेद डालती है। क्योंकि अंग्रेज़ी शिक्षा या संस्कृति भोगवाद अर्थात स्वकेन्द्रित तथा स्वार्थी संस्कृति के बीज डालती है। यदि अंग्रेज़ी‌ भारत में पूरी तरह आ गई तब भारत के टुकड़े होने की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाएगी, जब कि लोगों को भ्रम है कि भारत को आज अंग्रेज़ी जोड़ रही‌ है, यह नितांत गलत है। हम लोग, चाहे हमारी‌ भाषा हिन्दी‌ हो या बांग्ला, या तमिल हो या उड़िया या तेलुगु हो या कन्नड़ हो या मलयालम हो या पंजाबी, असमी हो या कश्मीरी, कोई भी‌ हो पर हो भारतीय, भारतीय संस्कृति के प्रेम के कच्चे धागे से बँधे हैं।
 
20. बच्चों को यदि शासकीय विद्यालयों में न सही किन्तु निजी विद्यालयों में शिक्षा,चाहे वह कितनी‌ भी‌ मँहगी क्यों न हो, मिल तो रही है, । किन्तु क्या यह मँहगी शिक्षा भी संतोषप्रद है? नहीं, क्योंकि पाठ्यक्रम तो अर्थार्जनी रोबाट या राक्षस ही पैदा कर रहा है । तब प्रश्न उठता है कि हम इस तानाशाही जनतंत्र शासन के समय क्या करें। इतनी गड़बड़ी होने पर भी‌ इसे ठीक करने के लिये हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। इस शासन के कार्यकाल में तो पाठ्यक्रम को बदलना एक बहुत बड़े आन्दोलन की‌ माँग करता है। तब भी‌ वह यक्ष प्रश्न खड़ा रहता है कि हम इस विचित्र जनतंत्र में क्या करें। इसके हल ढ़ूँढ़ने का हल भी तो शिक्षा का एक लक्ष्य होना चाहिये । किन्तु इस 'एक पुरुषार्थी' शिक्षा के फ़लस्वरूप तो हर व्यक्ति धन कमाने में लगा है, शासन मनमानी कर (लूट्) रहा है। यदि हम अपने को इस जनतंत्र में निस्सहाय तथा निराश पाते हैं, तब विचित्र बात तो नहीं। इसके हल की दिशा में जाने के लिये मुझे एक पगडंडी नज़र आती है, जो आशा है कि भविष्य में हमें राजमार्ग से जोड़ देगी।
 
21. आज शिक्षा पद्धति का उद्देश्य बालकों को साक्षर - चिट्ठी पत्री पढ़ने के लिये , नौकरी आदि करने के लिये साक्षर - बनाना हो गया है। यह शिक्षा उऩ्हें रोटी कमाने का कौशल अवश्य देती है, किन्तु उऩ्हें सोचने की शिक्षा शायद ही देती है। अनेक उद्योगपति तो मांग करते हैं कि उऩ्हें जिस कौशल से युक्त युवक अपने माल का उत्पादन और विपणन करने के लिये चाहिये, वैसी शिक्षा युवकों को दी‌ जाना चाहिये । क्या हम मात्र आर्थिक जानवर हैं ! यदि हम गहराई से सोचें तब हमें मनुष्य बनने के लिये चारों पुरुषार्थों के हेतु शिक्षा मिलना चाहिये, शैशव अवस्था से वृद्धावस्था तक, और यह कर्तव्य मातापिता, गुरु, समाज तथा शिक्षा संस्थानों का है। कौशल के लिये शिक्षा अवश्य दी जाए किन्तु पहले मानव बनने की शिक्षा दी जाना चाहिये। यदि हम इस तथा कथित सैकुलर जनतंत्र में आत्महंता शिक्षा पद्धति को सुधारने के लिये अपने को असहाय पा रहे हैं, तब स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा बालकों में मानवीय मूल्यों के बीज डालने के लिये कहानियां सुनाना तथा योग्य पुस्तकालय चलाना एक अत्यंत उपयोगी कार्य हो सकता है। आधुनिक 'एक पुरुषार्थी' शिक्षा पद्धति में यह अतिरिक्त कार्य नैतिक शिक्षा की कमी को पूरा कर सकता है, तथा कहानियां सुनाने के समय उचित, अनुचित कामनाओं पर भी प्रकाश बखूबी डाला जा सकता है। सामान्यत: शिक्षाविद यह मानते हैं कि प्राथमिक शालाओं की शिक्षा की गुणवत्ता विद्यार्थी के भविष्य की‌ नींव डालती है। मेरा अनुभव कहता है कि प्राथमिक शालाओं के साथ तथा इससे भी पहले विकास की जो नींव पड़ती है वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस नींव के लिये दो घटक महत्वपूर्ण हैं - उसके परिवार का व्यवहार तथा उसके द्वारा सुनी गई कहानियां।

Wednesday, 17 July 2013

गरीबी बड़ी भयानक चीज है

गरीबी बड़ी भयानक चीज है। कुछ ही चीजें हैं जो मानवता को इतना नीचा देखने पर मजबूर करें और जीवन की बुनियादी जरूरतें भी पूरी न कर पाना उनमें से एक है।
भारत उन देशों में शामिल है जिन्हें गरीबी का स्वर्ग कहा जा सकता है। हम चाहे तो 1947 के पहले की हमारी सारी गलतियों के लिए अंग्रेजों को दोष दे सकते हैं, लेकिन उन्हें गए भी 67 साल गुजर चुके हैं। हम अब भी दुनिया के सबसे गरीब देशों में से हैं। एशिया में चालीस के दशक में हमारे बराबर गरीबी के साथ शुरुआत करने वाले देशों ने कितनी तरक्की कर ली है।
उनमें से कुछ ने तो नाटकीय प्रगति की है। गरीबी का बरकरार रहना खासतौर पर इसलिए आश्चर्यजनक है, क्योंकि गरीबों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले बहुत सारे स्मार्ट और ताकतवर लोग हैं। राजनेता, बुद्धिजीवी, गरीबी विशेषज्ञ अर्थशास्त्री, एनजीओ आदि गरीबों की सहायता की कोशिश में लगे इतने लोग हैं कि यह सोचकर ही सिर चकरा जाता है कि आखिर हम गरीबी से पिंड क्यों नहीं छुड़ा पा रहे हैं। सार्वजनिक बहसों में वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाले बुद्धिजीवी ही हावी रहते हैं। ये बुद्धिजीवी धरती पर गरीबों के सबसे हिमायती लोगों में से हैं। और फिर भी ऐसा लगता नहीं कि वे कोई समाधान निकाल पा रहे हैं।
और वे निकाल पाएंगे भी नहीं। क्योंकि वे भले ही गरीब और उनकी समस्याओं के विशेषज्ञ हों, वे एक ऐसी चीज के बारे में ज्यादा नहीं जानते जिससे अंतत: गरीबी खत्म की जा सकती है। वह चीज है पैसा। हो सकता है आप को लगे कि यहां समस्या को बहुत सरल बनाकर पेश किया जा रहा है। यह हैरानी की ही बात है कि हमारे शीर्ष विचारक और बहसों में हावी रहने वाले संपत्ति को बढ़ाने, वास्तविक आर्थिक अधिकारिता और उत्पादकता के बारे में कितना कम जानते हैं। यदि जानते होते तो वे सबसे बेहूदा योजनाओं से एक- खाद्य सुरक्षा बिल को हमारे जादूगर राजनेताओं की टोपी से बाहर नहीं आने देते।
बिल ऐसा है कि इसके विरोध में लिखना कठिन है। रंग-ढंग से वामपंथी लगभग कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी माफिया आपको मार ही डालेगा। विषय संवेदनशील है। आप तर्क दे सकते हैं कि यदि योजना पर अमल हुआ तो हम पहले से कमजोर अर्थव्यवस्था को और बर्बाद कर देंगे। जरा ऐसे तर्क देकर देखिए। जवाब मिलेगा- 'कम से कम एक गरीब माता अपने बच्चे को भरपेट भोजन के बाद रात को शांति से सोते हुए तो देखेगी। जरा इस मुद्दे पर बहस करके तो देखिए! आपको चाहे देश की आर्थिक बर्बादी नजर आ रही हो, लेकिन आकड़ों से युक्त आपका प्रजेंटेशन, गांव में कुपोषित भूखे बच्चे के फोटो से कैसे मुकाबला कर सकता है। मुझे लगता है कि जब मुकाबले में कोई यह सवाल उछाल देता है, 'आप गरीबों की मदद नहीं करना चाहते न! तो सारा अर्थशास्त्र, बुनियादी गणित, कॉमनसेन्स, तार्किकता और व्यावहारिकता धरी रह जाती है।
कहा जाएगा कोई गरीबों की मदद नहीं करना चाहता। इससे बदतर यह होगा कि आपको गरीब विरोधी करार देने के बाद आपको बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हिमायती घोषित कर दिया जाए। आप अपने मुद्दे पर और डटे रहें तो आपको दक्षिणपंथी करार दे दिया जाएगा। ऐसा पूंजीवादी जिस पर एफडीआई का भूत सवार है। हो सकता है सांप्रदायिक होने का दाग भी लगा दिया जाए। तो ऐसे भारत में आपका स्वागत है जहां कोई तर्क के आधार पर बहस नहीं करता। हम भावनाओं और नैतिक श्रेष्ठता के आधार पर बहस करते हैं। तर्क रखने की बजाय हम विरोधी पर हमला बोल देते हैं। तो साहब, किसी भी समझदार व्यक्ति की तरह इस बिल पर मेरा अधिकृत बयान यही है: लाओ भाई, खाद्य सुरक्षा बिल लाओ।
सिर्फ दो-तिहाई आबादी को ही क्यों पूरे भारत को ही मुफ्त अनाज की इस योजना के दायरे में लाया जाए। फिर सब्जियां और फल भी क्यों नहीं दिए जाएं? और क्या गरीब बच्चे ताजा दूध के हकदार नहीं हैं? हमें वह भी मुहैया कराना चाहिए। प्रत्येक भारतीय परिवार को अनाज, फल, सब्जियां, दूध और स्वाथ्यवद्र्धक संतुलित भोजन के लिए जो भी लगता है वह मिलना चाहिए। यह मुफ्त होना चाहिए। यदि बहस में सबसे भला इरादा रखने वाले की ही जीत होने वाली हो तो मैं यह सुनिश्चित करना चाहूंगा कि मैं ही वह आदमी माना जाऊं। क्या अब मैं भला आदमी नहीं हूं?
जब मेरे दिमाग में उत्तेजित करने वाले ऐेसे सवाल उठते हैं कि कौन इसका भुगतान करेगा या इतना अनाज कैसे मुहैया कराया जाएगा या पहले से ही कर्ज में डूबी सरकार की हालत इसके बाद क्या होगी तो मैं अपने दिमाग को चुप रहने के लिए कहता हूं। मैं अगले कुछ वर्षों में ही लगने वाले लाखों करोड़ों रुपए के लंबे-चौड़े आकड़ों को भी नजरअंदाज कर देता हूं। इस पैसे का उपयोग ग्रामीण शिक्षा, सिंचाई या सड़कों के जाल के रूपांतरण में किया जा सकता है। इससे गरीबों को रोजगार मिलेगा और वे समृद्ध होंगे। ऐसे विचार जब मुझे आएंगे तो मैं दिल से नहीं दिमाग से सोचने के लिए खुद को कोसने लगूंगा।
गरीबी हटाना जरूरी नहीं है। महत्वपूर्ण है यह जताना कि कौन गरीबों की परवाह ज्यादा करता है। वित्तीय घाटा बढ़ जाए, रेटिंग एजेंसियां बाजार में हमारी साख कम कर दें, विदेशी निवेशक हमारे यहां निवेश करना बंद कर दें तो क्या? हमें उनकी जरूरत नहीं है। वे सब तो वैसे भी हमारे दुश्मन हैं। सरकार कभी भी उत्पादक चीजों पर खर्च नहीं करेगी। हम विदेशियों को डराकर भगा देंगे। हमारे यहां कभी बेहतर आधारभूत ढांचा, स्कूल व अस्पताल नहीं होंगे। तो क्या हुआ? हम गरीबों की परवाह तो करते हैं।
हम तब तक गरीबों की परवाह करते रहेंगे जब तक कि पूरा पैसा खत्म नहीं हो जाता। देश दिवालिया हो जाएगा। रोजगार नहीं होगा और अधिक लोग गरीब हो जाएंगे। पर क्या यह अच्छी बात नहीं होगी? इससे हमें और अधिक गरीबों का ख्याल रखने का मौका मिलेगा। तो मेरा खाद्य, सब्जी, और दूध सुरक्षा बिल लाइए। क्या कुछ छूट रहा है? अरे हां, सूखे मेवे। तो कुछ सूखे मेवे सारे भारतीयों के लिए प्लीज! आप समझ रहें हैं ना मैं किस मेवे की बात कर रहा हूं।

Tuesday, 16 July 2013

पुन: सता पाने के लिए समाज में विष घोलने के बजाय अपनी नाकामियों का जवाब दीजिये !

जनता को विष पिला कर स्वयं सता का अमृत पीने का लालच अब छोड़ दीजिये। आखिर कब तक विष बांट कर अपने लिए अमृत का जुगाड़ करते रहेंगे। प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल के नेताओं द्वारा कही जा रही बातों का  बतंगड बनाने और उनके द्वारा दिये गये भाषणों की तरह-तरह से व्याख्या करने के बजाय आप यह बताएं कि आपकी उपलब्धियां क्या हैं?  उन्होंने जो कुछ कहा है, जनता के समक्ष कहा है और जनता को केन्द्र बिन्दु बना कर अपनी बात कही है। अत: यह जनता पर ही छोड़ दीजिये कि वे सही है या गलत। आप तो अपने बारें में बताईये कि आप क्या हैं? आप यह भी बताएं  कि आपने इन चार वर्षों में देश को क्या दिया है, जिससे आप पुन: सता पाने का हक मांग रहें हें?
जिनकी झोली में उपलब्धियों के नाम पर कंकर भरे हों, वे उन्हें मोती बना कर जनता को दिखा नहीं सकते, इसलिए कंकरों को छुपा रहे हैं और अपने प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल के नेताओं के चरित्र की विद्रुपता के बारें में जनता को समझा रहे हैं। उन्हें भयभीत कर रहे हैं। कह रहे हैं- इनसे दूर ही रहो, ये बहुत ही खतरनाक लोग हैं। जबकि ये स्वयं विषैले हैं, विष बांट रहे हैं और कह यह रहें है कि इनसे दूर रहो, ये विषैले हैं।
निरन्तर साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने से सारे पाप नहीं धुल जाते। भारत की युवा पीढ़ी आपकी नीयत और चरित्र को समझ रही है। इस पीढ़ी के निर्णायक वोट आपके सारे चुनावी स्टंट को निष्फल कर देंगे। आपको यह भी समझा देगी कि शासन करने का अधिकार चाहिये तो आपके पिछले कार्यकाल का हिसाब दों। यदि आपके हिसाब में गड़बड़ी पायी जायेगी, तो वह स्पष्ट रुप से कह देगी- ‘ अब क्षमा करें, आप उपयुक्त नहीं हैं, दूसरों को मौका देंगे।
परन्तु आपका हिसाब तो पूरा गड़बड़ है। इसे दिखा कर तो आप जनता का विश्वास नहीं जीत सकते। सुशासन के मानक होते हैं-जवाबदेय और पारदर्शी प्रशासन। कुशल वितप्रबन्धन, राजकोष के कार्यनिष्पादन में पूर्ण ईमानदारी और निष्ठा। मुद्रास्फिति पर नियंत्रण, ताकि जनता को महंगाई के कष्ट से बचाया जा सके। सुदृढ़ आंतरिक सुरक्षा, ताकि नागरिकों के जीवन की रक्षा की जा सके। विवेकपूर्ण विदेशनीति, जिसे विश्व में देश की प्रतिष्ठा बढ़े।
इन सारे मानक में आप खरे नहीं उतरे हैं। देश का शीर्षस्थ नेतृत्व यदि भ्रष्ट आचारण में लिप्त पाया जाता है, तो वह देश को स्वच्छ प्रशासन क्या दे पायेगा? वित्त प्रबन्धन आपका सही नहीं रहा है। देश की अर्थव्यवस्था कंगाली के कगार पर है। भारतीय मुद्रा का निरन्तर अवमूल्यन हो रहा है। औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है। प्रति व्यक्ति आय घट रही है। बजट घाटा बढ़ने से महंगाई निरन्तर बढ़ रही है, जिससे जनता के कष्ट बढ़ रहे हैं। देश का विकास अवरुद्ध हो गया है।
आपके कार्यकाल में कई घपले चर्चित हुए हैं, जिनसे राजकोष को कई लाख करोड़ का चूना लगा है। यदि आप पर लगे हुए आरोप सही है, तो आपने राजकोष के धन को चुराने का अक्षम्य अपराध किया है। आप अपराधी साबित नहीं किये जा सकते और आपको सजा नहीं हो सकती, क्योंकि सभी जांच एजेंसिया आपके नियंत्रण में है। अत: जब तक सता की कमान आपके हाथ में हैं, पूरा सच जनता के सामने नहीं आ सकता। किन्तु आपके संदिग्ध चरित्र को देखते हुए आखिर किस आधार पर जनता आप पर विश्वास करें? यदि बैंक के कर्मचारी बैक में रखे जनता के धन को चुराने लगे, तो बैंक तो दिवालिया हो जायेंगे। परन्तु बैंक कर्मचारी ऐसा नहीं करते। यदि करते हैं, तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है। उन्हें सजा होती है। राजकोष भी जनता का बैंक ही है। यदि इसमें रखे गये पैसे की चोरी होती हैं, तो चोरों को माफ कर उन्हें पुन: सरकार बनाने का क्यों मौका दें दें? क्यों इस तथ्य को नज़र अंदाज कर दें कि राजकोष के धन की लूट से ही राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका। इसी कारण जनता पर महंगाई का बोझ पड़ा है। अभाव बढ़े हैं। जीवन गुजारना दिन प्रति दिन कठिन होता जा रहा है?
देश की कानून व्यवस्था लच्चर है और आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था बेहद कमज़ोर। भ्रष्ट, बर्बर व निकम्मी पुलिस के विरुद्ध पूरे देश में आक्रोश है। उसके हैवानियत के किस्से जग जाहिर है। आतंकवादी देश में खुले घूम रहे हैं। उन्हे जानबूझ कर पकड़ा नहीं जा रहा है। देश के कई शहरों में बम विस्फोट हुए हैं, किन्तु आतंकी पकड़े नहीं जाते। क्या आतंकवादियों के प्रति नरम रुख रखने वाली सरकार का पुन: सता में आना, देश की जनता के जीवन को असुरक्षित नहीं बना देंगा?
विदेश नीति इतनी कमजोर है कि पड़ोसी देश चीन हमारी सीमाओं पर दादागिरि से अतिक्रमण कर रहा है, किन्तु सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। पाकिस्तान तो अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है किन्तु छोटे-छोटे पड़ोसी देश भी भारत को आंखें दिखा रहे हैं। निश्चय ही हमे ऐसी सरकार पुन: सता में नहीं लानी है, जो देश के हित के बारें में किंचित भी संवेदशीलता नहीं दिखायें।
आप पहले पांच वर्ष कुछ भी नहीं कर पाये, फिर भी जनता ने आपको पांच वर्ष और दिये, ताकि आप इस देश की तस्वीर बदल सकें। परन्तु आपने इन पांच वर्षों में देश की जनता के साथ दग़ाबाजी की है। उसके साथ विश्वासाघात किया है। अब अपनी दुर्बलताओं को छुपाने के लिए तरह-तरह के स्वांग कर रहे हैं, ताकि किसी भी तरह सता पर पुन: नियंत्रण स्थापित किया जा सके। निश्चय ही, सता का आपके लिए विशेष महत्व है। सता के बिना आप रह नहीं सकते। जनता के हितों का और समस्यओं से आपका कोई लेना देना नहीं है। आप मात्र जनता के वोट पाने के लिए नीतियां बनाते हैं। कानून बनाते हैं। परन्तु यह छल है। कपट है। आपकी कलुषित मानिसकता को दर्शाता है।
देश की जनता को मालूम हैं आप पुन: सत्ता पर नियंत्रण क्यों चाहते हैं। यदि सता आपके हाथ से चली जायेगी, तो आपके ढंके हुए पाप उजागर हो जायेंगे। वह सच्चाई जनता के सामने आ जायेगी, जिसे छुपाने की कोशिश की जा रही है। सीबीआई पर आपका अंकुश हटते ही सही जांच रिपोर्ट न्यायालय में जायेगी। आपके अपराध इतने गम्भीर है कि आप सजा से बच नहीं सकते। सम्भवत: आप इसीलिए  बहुत भयभीत हैं। आप जनता को मूर्ख बना कर पुन: सत्ता पाने के लिए आत्मविश्वास से लबालब हैं, क्योंकि साम्प्रदायिकता के बहाने आपको उन चोरों का समर्थन भी मिल जायेंगा, जिन के मामले न्यायालय में सीबीआई की शिथिल जांच के कारण लंबित है।
पर अब देश की जनता जाग गयी है। आपकी तिकड़मों को सफल नहीं होने नहीं देगी। पुन: सता सुख भोगने का आपका ख्बाब अधुरा ही रह जायेगा। देश की जनता को सुशासन चाहिये। खुशहाली चाहिये। महंगाई से निज़ात चाहिये। युवाओं को रोजगार चाहिये। मात्र साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की मीठी गोलियां खिला कर ज्यादा समय तक मूर्ख नही बनाया जा सकता।

Monday, 15 July 2013

भारतीय लोकतंत्र: सागर एक, विडंबना का........

भारत 1947 में आज़ाद हुआ, और आज़ादी के तुरंत बाद तत्कालीन भारतीय नेताओ ने एक जादूगर की तरह चमकीले चोगे में लोकतंत्र को पेश किया, हमारी सारी समस्याओ को छु-मंतर करने के लिए | आज आज़ादी के 65 साल बाद भी समस्याएं ऐसी है की मिटने का नाम नहीं लेती | मिटना तो दूर, अपितु उनमे वृद्धि ही हुई है |
 
कहा जाता है की भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद, जिसे हम संविधान कहते है, को तैयार करने में लगभग दो वर्ष लगे थे | न जाने कितने ही शिक्षित व विकसित देशों के संविधानों का अध्ययन कर बनाया गया था, हमारा संविधान | न जाने कितने ही जागरूक व अत्यधिक शिक्षित व्यक्तित्वों के मनो-मश्तिस्कों का सार है, हमारा संविधान | और हाल ही एक विश्व-विख्यात अंतरराष्ट्रीय संस्था ने भी भारतीय संविधान को विश्व का सर्वश्रेष्ठ संविधान घोषित किया है | तो फिर, कमी कहाँ पर रह गयी, क्यों हम आज भी त्रस्त और असहाय से , ताकते रहते है शुन्य में | क्यों हमे अपना ही देश, अपना होते हुए भी अपना सा नहीं लगता, और क्यों दिखाई देते है हम, एक हारे हुए सिपाही की तरह, हर मोर्चे पर प्रताड़ित होने के बाद भी |
 
लोकतंत्र एक बहुत ही आधुनिक और शिक्षित किस्म की व्यवस्था है | "जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा" शासन | मतलब वह व्यवस्था जिसके संचालन की जवाबदारी जनता की है | जनता वह, जो शिक्षित हो, समझती हो अपनी जिम्मेदारी को, अपने अधिकारों को और आगे आकर पहल करने को तैयार रहे | जनता वह, जो जागरूक रहे, और तैयार रहे अपना सर्वस्व बलिदान करने को देश की खातिर | यहाँ पर लाचार, बेकार जनता का कोई अस्तित्व नहीं है, इस व्यवस्था में |
 
भारतीय लोकतंत्र के साथ विडंबना यही है की एक अशिक्षित व पिछड़े समाज (1947 का भारत) पर एक शिक्षित व्यवस्था थोप दी गयी है | वह व्यवस्था, जिसका ज्ञान, न तो जनता को है, और न ही उनके चुने हुए नेताओ को | जनता आज भी अपने नेताओ द्वारा की जा रही मनमानी और अत्याचारों को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हुए, सह रही है | विडंबना यही है की हमने सर्वाधुनिक व सर्वश्रेष्ठ भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को राजशाही में परिवर्तित कर दिया और उससे भी बड़ी विडंबना यहाँ है की हम इसी राजसी-लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बड़ी शिद्दत के साथ सींच भी रहे है |
 
यह भारतीय जनमानस ही है, जो नेता पिता के बाद उसके पुत्र में भी नेता ढूंढता है, और चाहे जान ही क्यों न निकल जाये, मुह से आवाज़ तक नहीं निकलती, सहनशील भारतीय जनमानस की |
 
इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने का हथियार है - शिक्षा | भारतीय नेताओ के निजिगत स्वार्थो ने भारतीय शिक्षा पद्धति को भी विकलांग बना दिया है, जिससे शिक्षित व्यक्ति इस दोगली व्यवस्था पर निर्भर होता सा दिखाई देता है | शिक्षा में राष्ट्रवाद, स्वाभिमान, इमानदारी, दया समभाव, जिम्मेदारी आदि का स्थान भेदभाव, भ्रष्टाचार, घृणा, मक्कारी, लालच आदि बुरी बलाओं ने ले लिया है, जिसे हर बच्चे के मनो-मष्तिस्क में बचपन से ही घोला जा रहा है और एक ऐसी नस्ल तैयार की जा रही रही, जिसमे स्वयं की सोच नहीं, जागरूकता नहीं, बस निर्भरता है इस दोगली व्यवस्था पर, दोगले चरित्रों पर, व उधार लिए हुए मानसिकता और विचारों पर |
 
यह भारतीय शिक्षा व हमारे संस्कारों में व्याप्त खामी ही है, जो हमे राष्ट्र द्वारा भयंकर आपदाओं से घिरे होने के बाद भी खामोश रखती है, हमारे मनो-मष्तिस्क को कुंठित कर हमारे व्यक्तिगत व्यक्तित्व को समूल ही नष्ट कर देता है, और परिवर्तित कर देता है, हमे मशीन में, बिलकुल रोबोट की तरह | आप स्वयं सोचें, आपका पूरा व्यक्तित्व, पूरी विचारशैली, क्या आपकी स्वयं की है या उधार ली है, किसी से आपने |
 
एक ऐसी विकलांग पीढ़ी के सहारे, हम भारत की, भारतीय लोकतंत्र की सुखद तस्वीर देखते है, जिसे आलस्य व लापरवाही हेतु ही तैयार किया गया है | यह ठीक वैसा ही है जैसे उत्तराखंड आपदा के दौरान राहुल गाँधी का चमत्कारिक सहयोग |
 
ऐसा नहीं है की भारतीय व्यवस्था में परिवर्तन की गुंजाइश नहीं है, परिवर्तन होगा परन्तु उसकी शुरुआत हमसे होनी चाहिए | कर्मो से पहले हमे अपने विचारों में परिवर्तन लाना होगा, कब तक हम कांग्रेस की, भाजपा की, संघ की या अन्य किसी की विचारधारा को ढोकर अपने व पुरे समाज के स्वप्निल भविष्य के साथ खेल खेलते रहेंगे, और कब जहर घोलते रहेंगे अपनी ही आने वाली पीढ़ी के जीवन में | हमे ढूँढना होगा अपने स्वयं के व्यक्तित्व को, अपने अंतर्मन की आवाज़ को, सुनना होगा उसे, तराशना होगा उसे, और साथ ही मदद भी करनी होगी, दुसरो की इस कठिन पथ पर | याद रहें विकास एक प्रक्रिया है, यदि वर्तमान आपको सुरक्षित नहीं लगता, तो भविष्य कहाँ से सुरक्षित होगा, इस प्रक्रिया में हमे एक सच्चे व सही मार्ग की आवश्यकता है, जिस पर पूर्ण हिम्मत के साथ बढ़ा जा सकें, अन्यथा अगले 60 वर्ष तो क्या, अगले 600 वर्षों तक भी हम कही भी नहीं पहुँच पाएंगे |
 
जय भारती ! जय हिन्द !! जय श्री कृष्णा !!!
 

Friday, 12 July 2013

nathuram

"मैंने गाँधी को क्यों मारा " ? नाथूराम गोडसे का अंतिम बयान,,,, {इसे सुनकर अदालत में उपस्तित सभी लोगो की आँखे गीली हो गई थी और कई तो रोने लगे थे एक जज महोदय ने अपनी टिपणी में लिखा था की यदि उस समय अदालत में उपस्तित लोगो को जूरी बना जाता और उनसे फेसला देने को कहा जाता तो निसंदेह वे प्रचंड बहुमत से नाथूराम के निर्दोष होने का निर्देश देते } नाथूराम जी ने कोर्ट में कहा --सम्मान ,कर्तव्य और अपने देश वासियों के प्रति प्यार कभी कभी हमे अहिंसा के सिधांत से हटने के लिए बाध्य कर देता है .में कभी यह नहीं मान सकता की किसी आक्रामक का शसस्त्र प्रतिरोध करना कभी गलत या अन्याय पूर्ण भी हो सकता है .प्रतिरोध करने और यदि संभव हो तो एअसे शत्रु को बलपूर्वक वश में करना , में एक धार्मिक और नेतिक कर्तव्य मानता हु .मुसलमान अपनी मनमानी कर रहे थे .या तो कांग्रेस उनकी इच्छा के सामने आत्मसर्पण कर दे और उनकी सनक ,मनमानी और आदिम रवैये के स्वर में स्वर मिलाये अथवा उनके बिना काम चलाये .वे अकेले ही प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति के निर्णायक थे .महात्मा गाँधी अपने लिए जूरी और जज दोनों थे .गाँधी ने मुस्लिमो को खुश करने के लिए हिंदी भाषा के सोंदर्य और सुन्दरता के साथ बलात्कार किया .गाँधी के सारे प्रयोग केवल और केवल हिन्दुओ की कीमत पर किये जाते थे जो कांग्रेस अपनी देश भक्ति और समाज वाद का दंभ भरा करती थी .उसीने गुप्त रूप से बन्दुक की नोक पर पकिस्तान को स्वीकार कर लिया और जिन्ना के सामने नीचता से आत्मसमर्पण कर दिया .मुस्लिम तुस्टीकरण की निति के कारन भारत माता के टुकड़े कर दिए गय और 15 अगस्त 1947 के बाद देशका एक तिहाई भाग हमारे लिए ही विदेशी भूमि बन गई .नहरू तथा उनकी भीड़ की स्विकरती के साथ ही एक धर्म के आधार पर राज्य बना दिया गया .इसी को वे बलिदानों द्वारा जीती गई सवंत्रता कहते है किसका बलिदान ? जब कांग्रेस के शीर्ष नेताओ ने गाँधी के सहमती से इस देश को काट डाला ,जिसे हम पूजा की वस्तु मानते है तो मेरा मस्तिष्क भयंकर क्रोध से भर गया .में साहस पूर्वक कहता हु की गाँधी अपने कर्तव्य में असफल हो गय उन्होंने स्वय को पकिस्तान का पिता होना सिद्ध किया . में कहता हु की मेरी गोलिया एक ऐसे व्यक्ति पर चलाई गई थी ,जिसकी नित्तियो और कार्यो से करोडो हिन्दुओ को केवल बर्बादी और विनाश ही मिला ऐसे कोई क़ानूनी प्रक्रिया नहीं थी जिसके द्वारा उस अपराधी को सजा दिलाई जा सके इस्सलिये मेने इस घातक रस्ते का अनुसरण किया ..............में अपने लिए माफ़ी की गुजारिश नहीं करूँगा ,जो मेने किया उस पर मुझे गर्व है . मुझे कोई संदेह नहीं है की इतिहास के इमानदार लेखक मेरे कार्य का वजन तोल कर भविष्य में किसी दिन इसका सही मूल्या कन करेंगे जब तक सिन्धु नदी भारत के ध्वज के नीछे से ना बहे तब तक मेरी अस्थियो का विश्लन मत करना {यह जानकारी अधिक से अधिक लोगो तक पहुचने के लिए SHARE करे और अमर शहीद नाथूराम गोडसे जी को श्रधांजलि अर्पित करे }  less

Thursday, 11 July 2013

रस्म अदा करने से आतंकवाद पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता, गृहमंत्री जी !

रस्म अदा करने से आतंकवाद पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता, गृहमंत्री जी !
आपके गृहमंत्री बनने के बाद यह तीसरी आतंकी घटना है। प्रत्येक आतंकी घटना के बाद आप रस्म अदायगी के लिए घटनास्थल पर जाते हैं और वही वाक्य दोहरा देते हैं, जो पहले बोले गये थे। मसलन हमारे हाथ महत्वपूर्ण सुराग लगे हैं। हम  शीघ्र उन्हें पकड़ लेंगें। परन्तु अभी मैं आपको डिटेल जानकारी नहीं दूंगा, क्योंकि इससे जांच प्रभावित होती है।
दरअसल, घटना के तुरन्त बाद आप देश को दिखाने के लिए जांच एजेंसियों को सक्रिय कर देते हैं, जो आते ही हवा में तीर चलाना आरम्भ कर देती है। परन्तु आज तक ये जांच एजेंसियां गुनहगारों तक पहुंच नहीं पायी है। इनके तीर ही वे सुराग होते हैं, जो बाद में निरर्थक साबित होते हैं। बोद्धिगया मंदिर के बाहर पर्ची मिली थी, उसमें फोन नम्बर लिखे थे, जिसमें एक किसी विनोद नाम के आदमी का था। बस विनोद नाम का नाम संदिग्ध होते ही। नेताओं की बांछियां खिल गयी। दिग्विजय सिंह जी तपाके से बयान दे दिया, जिसका आशय हिन्दू आतंकवाद से मामले को जोड़ना था। सारा पाप का ढिकरा नरेन्द्र मोदी और अमित शाह पर फोड़ना था। मामले को मोड़ दे दिया गया। मीडिया को चटपटी खबर हाथ लग गयी। अब विनोद को छोड़ दिया गया है। क्योंकि वह संदीग्ध नहीं था, उसे बनाया गया था। जनता का ध्यान बंटाने के लिए यह सब करना जरुरी था। अब दिग्विजय सिंह जी चुप हैं। असली गुनहगार पकड़े जाये, इस बात को ले कर उनके मन में कोई दिलचस्पी नही है। एक पार्टी की घृणित मंशा का यह एक ज्वलन्त उदाहरण है।
आप जानते हैं कि भारतीय नागरिक गरीब, मूर्ख अज्ञानी हैं, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं रहता कि कहां ब्लास्ट हुआ है और कितने लोग मरे हैं। कहीं वे पढ़ते और सुनते हैं, थोड़ी देर के लिए चर्चा करते हैं और फिर भूल जाते हैं। उनकी स्वयं की इतनी समस्याएं है कि वे बैचारे दुनियां के बारें में कहां सोच पाते हैं। बहरहाल आपकी मजबूरी यह है कि मीडिया घेर लेता है और सवालों की झड़ी लगा देता है, इसलिए कुछ न कुछ तो बोलना ही पड़ता है, ताकि अखबरों में आपके फोटो छप जाय और टीवी पर आपके जलवे दिखा दिये जाय।
परन्तु आपको शायद ध्यान नहीं रहता कि जब आप बोलते हैं तब आपके चेहरे पर मुस्काराहट बिखर जाती है, जो आपके आतंरिक भावों को प्रकट करती है। आपकी मुस्काराहट यह बता देती है कि आप किसी आतंकी घटना को ले कर गम्भीर नहीं हैं। हम भारतीय समझ जाते हैं कि कुछ नहीं होगा। कोई आतंकी पकड़ा नहीं जायेगा। यदि आतंकियों को पकड़ने की कोशिश की जायेगी, तब वे आत्मरक्षा के लिए पुलिस पर हमला कर देंगे। ऐसी परिस्थितियों में पुलिस को बचाव में उन पर गोली चलानी होगी। ऐसा पुलिस नहीं कर सकती। क्योंकि यदि वे मर गये, तो अनर्थ हो जायेगा। हमारे ऊपर कलंक लग जायेगा। हमारी धर्मनिरपेक्ष छवि दागदार हो जायेगी। वोटो के समीकरण घड़बड़ा जायेंगे।  हमारी मेडम की आंखों में आंसू आ जायेंगे। सलमान साहब को उनके घर जा कर माफी मांगनी होगी और कहना होगा-हमसे अनर्थ हो गया। अब ऐसा गुनाह कभी नहीं करेंगे।
दिल्ली में हुई बाटला हाऊस घटना के बाद जितनी भी  आतंकी घटनांए हुई हैं, उसके गनुहगार पकड़े नहीं गये। प्रत्येक घटना के बाद आतंकवादियों को हौंसले बढ़े हैं और पुलिस का मनोबल गिरा है। इशरत जहां केस का बतंगड़ बनाने के बाद आईबी भी अपने बचाव में सर्तक हो गयी है। वह गृहमंत्रालय को सूचना भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देती है। वास्तव में इस देश की बेबस जनता को भगवान पर ही भरोसा है। वह ही उसको बचा सकता है। सरकार से किसी भी तरह की आशा रखना उसने छोड़ दिया है। यह भगवान का ही चमत्कार है कि बुद्धिगया मंदिर में दस बम फटे,  किन्तु भगवान की कृपा से जनहानि नहीं हुई। आतंकवादियों के इरादे बहुत खतरनाक थे। प्रदेश और केन्द्र सरकार निष्क्रिय थी। भगवान ने ही लोगों को बचाया।
वर्तमान सरकार के पिछले नो वर्षों के कार्यकाल में हुई आतंकी घटनाओं में सैंकड़ो निर्दोष नागरिकों की जान गयी है, जिसकी पूरी जिम्मेदारी केन्द्र सरकार और भारत के गृहमंत्रालय की है, क्योंकि उन्होने राजधर्म नहीं निभाया। आतंकवाद पर नियंत्रण करने में हददर्जे की निष्क्रियता बरती। परन्तु सरकार को इससे कभी श​िर्मंदगी नहीं महसूस हुई। सरकार के सारे नेता जब भी कोई बात की जाती है, तब गुजरात के 2002 के दंगों की याद दिलाते हैं, ताकि अपने गुनाहों को छुपाने के लिए नरेन्द मोदी को कठघरे में खड़ा रखने का मौका हाथ से नहीं जा पाये। असम दंगों में हजारों नागरिक मारे गये हैं। उसके बारें में हमेशा सही जानकारी देश से छुपायी गयी। असम के समाचारों को अखबारों और टीवी चेनलों की सुर्खिया नहीं बनने दी। असम सरकार के मंत्रियों पर और मुख्यमंत्री पर कोई अपाधिक केस नहीं चल रहे हैं। मानवाधिकार मंव असम में सक्रिय नहीं रहा। वजह साफ है- देश के हिन्दू नागरिक यदि प्रताड़ित किये जाते हैं और हिंसा में मारे जाते हैं, उनके लिए कुछ नहीं बोला जाय, क्योंकि इससे साम्प्रदायिक सदभाव बिगड़ने का खतरा रहता है।
अब तो हालात यह हो गये हैं कि हिन्दुओं को अपने त्यौहार मनाने और धार्मिक परम्पराओं का निर्वाह करने के लिए भी सुरक्षा का सहारा लेना पड़ता है। हर बड़े त्यौहार पर आतंकवादी किसी बड़ी वारदात को अंजाम देने के लिए सक्रिय होते हैं और बहुधा वे अपने मकसद में सफल भी हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें इस देश में प्रवेश करने, ठहरने, स्थानीय नागरिकों को आतंकवादी गतिविधियों के लिए उकसाने, उन्हें आवश्यक प्रशिक्षण और आर्थिक मदद देने की छूट मिली हुई है। सरकारी मशीनरी जानबूझ कर आंखें बंद किये रहती है। निश्चय ही, देश भर मे हुई आतंकी घटनाओं में निर्दोष नागरिकों की हत्याएं हुई है, उसका दोषी भारत सकरार  का गृहमंत्राल और गृहमंत्री है, जिन पर गुनहगारों के प्रति नरम रुख अपनाने का प्रथमदृष्टया दोष बनता है। निश्चित रुप से उन पर अपराधिक मुकदमा चलाया जाना चाहिये। साथ ही, असम में नागरिकों की योजनाबद्धरुप से सामूहिक हत्याएं हुई है, उसके लिए असम सरकार के मुख्यमंत्री पर अपराधिक केस दर्ज होना चाहिये। क्योंकि जो नरेन्द्र मोदी ने किया था, वो पाप था, फिर आपने जो किया है, वह पुण्य कैसे हो सकता है?
अत: मेरा भारत के गृहमंत्री से विनम्र आग्रह है कि दूसरों को राजधर्म निभाने की नसीहत देने के पहले स्वयं भी राजधर्म निभायें। हत्यारें यदि निरन्तर अपने घृणित मकसद में कामयाब होते रहते हैं, तो इसका पूरा दोष प्रशासनिक व्यवस्था का होता है। ये घटनाएं इस तथ्य को पुष्ट करती है कि आतंकवादियों से निपटने के लिए सरकार के पास दृढ़ इच्छा शक्ति नहीं है। या वह जानबूझ कर निष्क्रिय बनी हुई है। यदि ऐसा है तो किसी सार्वभौमिक देश के लिए यह दुर्भाग्यजनक स्थिति है। क्योंकि जिस सरकार को अपने नागरिकों के जीवन की रक्षा करने की चिंता नहीं है, उसको शासन करने का नैतिक अधिकार भी नहीं है।
वोटों के लिए एक ही देश के नागरिकों के लिए दोहरामापदंड अपनाना छोड़ दीजिये, क्योंकि कभी पीड़ित जन आपकी नीयत को समझ जायेंगे और एक हो जायेंगे, तब आपके सारे राजनीतिक समीकरण असफल हो जायेंगे। रात-दिन सांम्प्रदायिक शक्तियां का राग अलापना भी बंद कर दीजिये, क्योंकि एक धर्म को मानने वाले नागरिकों के प्रति सहानुभूति रखने वाले साम्प्रदायिक कहलाते हैं, तो वे भी साम्प्रदायिक ही होते हैं, जो वोट पाने के लिए दूसरे धर्म को मानने वाले नागरिकों के रहनुमा बन जाते हैं।

Wednesday, 10 July 2013

खाद्य सुरक्षा अध्यादेश : जनता को ठगने की धूर्त कोशिश

ऐसे समय में जब देश दिवालिया बनने के कगार पर खड़ा है। भारतीय मुद्रा की निरन्तर बिगड़ती सेहत अर्थव्यवस्था की तबाही के संकेत दे रही है। ऐसे  कठिन समय में भ्रष्ट सरकार अपने निकम्मेपन को छुपाने के लिए देश की जनता को खाद्य सुरक्षा की गारंटी दे रही है। सरकार को लग रहा है कि घोटालों के जो पाप किये हैं, उससे जनता के कष्ट बहुत बढ़ गये है। महंगाई के असहनीय बोझ से वह त्राहि-त्राहि कर रही है। सरकार की नीति और नीयत से वह रुष्ट है। जनता का दिल जीतने के लिए सरकार खाद्य सुरक्षा का ब्रह्मास्त्र चलाने की तैयारी कर रही है। अब देश की अस्सीं करोड़ जनता को दो रुपया किलो गेंहूं दिया जायेगा। प्रति व्यक्ति, प्रति माह पांच किलो गेंहू मात्र- दस रुपये मे। जनता गद-गद हो जायेगी।  परोपकारी सरकार को वोट दे देगी।
बीस रुपये किलो भाव के गेंहूं दो रुपयें में। जनता की जेब से मात्र दो रुपये लिए जायेंगे और राजकोष से अठारह रुपये निकाले जायेंगे। अप्रत्यक्ष रुप से अठारह रुपये का भार जनता को ही ढोना पड़ेगा। क्योंकि जीवन गुज़ारने की अन्य आवश्यक चीजों के भाव बढ़ जायेंगे। डीजल, पेट्रोल, रसोईगेस, दाले, खाद्य तेल, चीनी, दूध, मसाले, कपड़ा, साबुन और अन्य आवश्यक उपभोग की वस्तुऐं मंहगी कर अठारह रुपये वसूल कर लिए जाएंगे। उद्धेश्य स्पष्ट है- मूर्ख बन कर हाथ के निशानपर बटन दबाओं और एक अन्य हाथ से महंगाई का थप्पड़ खाओ।
क्या यह जनता को ठगने की धूर्त और निर्लज्ज कोशिश नहीं है? देश को दिवालियां करने की कीमत पर चुनाव जीतना क्या सरकार की नीयत पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहा है? निश्चय ही, जो लोग एक पार्टी की कमान सम्भाले हुए हैं, वे बहुत चतुर और चालाक है। भारतीय जनता को कैसे मूर्ख बना कर चुनाव जीता जा सकता है, इस कला में वे माहिर है। वे भारतीय जनता को भेड़ो के झूंड़ के अलावा कुछ नहीं समझते। ऐसी भेड़े जिन्हें चुनाव के वक्त लालच दे कर अपनी ओर आकृषित किया जा सकता है।
यदि पार्टी की नीयत सही होती तो इस बिल को 2009-10 में ही लाया जा सकता था। ऐसा होने पर जो दुष्परिणाम प्राप्त होते, उससे जनता अवगत हो जाती और सराकर की पोल खुल जाती। 2013 में यह कानून इसलिए बनाया जा रहा है, ताकि 2014 के चुनावों को जीतने तक इसके दुष्परिणामों को जनता से छुपाया जा सके। जब पार्टी की सरकार बन जायेगी, फिर जनता भले ही रोये, इससे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
एक भ्रष्ट व निकम्मी प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा देश के अस्सीं करोड़ लोगों को अनाज कैसे बांटा जायेगा, इस संबंध मे सरकार कुछ भी नहीं बता पा रही है। देश के प्रत्येक गांवों और शहरों तक अनाज के परिवहन की व्यवस्था करना अत्यन्त खर्चिला काम है, इसका भार भी अंतत: जनता पर ही डाला जायेगा। पूरे देश में अनाज के भंडारन व वितरण के लिए स्टोर खोलने पड़ेंगे और कर्मचारियों को रखना पडे़गा। इसका अतिरिक्त भार भी जनता को उठाना पडे़गा। कुल मिला कर देखा जाय तो सरकार ने जितना प्रावधान रखा है, उसका दुगुना भार राजकोष पर पडे़गा। निश्चय ही यह कानून देश की अर्थव्यवस्था को बदहाल कर देगा।
अस्सीं करोड़ भारतीयों को यह लाभ मिलेगा और चालिस करोड़ इस लाभ से वंचित रह जायेंगे। नागरिकों को किस आधार पर विभाजित किया जायेगा? इस बारे में सरकार ने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है। दरअसलस, यह बहुत ही जटिल प्रक्रिया होगी और इसे सरकारी मशीनरी पूरी पारदर्शिता और र्इमानदारी से लागू नहीं कर पायेगी। चूंकि सरकार इस कानून को जल्दबाजी में जनता पर थोप रही है, अत: गड़बड़िया खूब होगी। घपले होंगे। अनाज लोगों के खाते में चढ़ जायेगा, परन्तु मिली-भगत से इसे बाजार में बेच दिया जायेगा। सरकारी गोदामों से निकल कर गेहूं बाजार में पहुंच जायेगा। गेंहू के भाव अचानक इतने गिर जायेंगे कि किसान हताश हो कर गेंहूं बोने ही बंद कर देगा। मान लीजिये गेहूं का उत्पादन कम हो गया और सरकार अगले साल तीस या चालिस रुपये में गेहूं खरीद कर दो रुपये में बांट  पायेगी ? यह एक नितांत अव्यवहारिक नीति है, जिसे गहन विचार-विमर्श से लागू करना आवश्यक है। चूंकि इसका अतिरिक्त भार राजकोष पर पड़ेगा, अत: देश जब भयानक आर्थिक संकट से गुजर रहा हो, जल्दबादी में ऐसा कानून बना कर देश की अर्थव्यवस्था को और कमजोर करने का प्रयास पूर्णतया गलत है। देश की जनता को इसे किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करना चाहिये। देश भर में इस कानून को लागू करने के पहले एक प्रबल जनआंदोलन छेड़ना चाहिये।
जानबूझ कर एक अध्यादेश के माध्यम से एक महत्वपूर्ण  बिल संसद में पेश करने का घृणित उद्धेश्य स्पष्ट है- इसके प्रावधानों  पर बहस से बचने की कोशिश। दो बैसाखियों के सहारे सरकार चला रही सरकार ने एक और मजबूत बैसाखी का जुगाड़ कर लिया है। अवसरवादी अतिमहत्वाकांक्षी नीतीश कुमार को अपने पाले में ला कर यह जता दिया है कि हमे राजनैतिक नैतिका और आदर्शो से परहेज हैं। न केवल हम पैसे और ताकत के बल पर सांसद खरीद सकते हैं, वरन गठबंधन तुड़वा कर पूरी की पूरी पार्टी भी खरीदने की साम्मर्थय रखते हैं। नीतीश कुमार के रुप में एक ऐसा तुरुप का इक्का हाथ लग गया है, जिसके सहारे माया और मुलायम की हैकड़ी को नियंत्रित किया जा सकता है। करुणानिधि ने भले ही गठबंधन से अलग होने का फैंसला किया हो, किन्तु उसकी बेटी को राज्यसभा सांसद बनवा कर यह सिद्ध कर दिया है कि हम भ्रष्ट राजनेता और भ्रष्टाचार से को मान्यता देने में कभी संकोच नहीं करते।
खाद्य सुरक्षा बिल में चाहे कई खामियां हो, परन्तु उसे पास कराने की तैयारी कर ली गयी है। वजह यह है कि राजनेता देश की जनता के हित के बजाये अपने राजनीतिक स्वार्थ को ज्यादा अहमियत देते हैं। ठीक उसी तरह जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी का साथ देने के लिए राजा-महाराजा अपने स्वार्थ के लिए जनता और देश के हित को भूल जाते थे। निश्चय ही भारतीय इतिहास की पुनरावृति हो रही है। जो राजनेता आज ईस्ट  सोनिया कम्पनी के साथ है, वे दरअसल उन सरकारी अफसरों की तरह है, जो अपनी देश भक्ति और स्वाभिमान को छोड़ कर अंग्रेजो का साथ दे रहे थे। और इस सरकार को बचाने और पुन: सता में लाने के लिए जो पार्टियां साथ दे रही है, वे सभी उन भारतीय राजाओं-महाराजाओं की तरह हैं, जो  अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए अंधे भिखारी बन गये हैं, जिन्हें सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा है,  किन्तु जानबूझ कर वे अंधे बनने का ढोंग कर रहे हैं।
एक राजनीतिक पार्टी, जिसने पिछले नो वर्षों में देश को आर्थिक दृष्टि से बरबाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। जिसके कुशासन में देश की आतंरिक सुरक्षा संकट में पड़ गयी है। पड़ोसी देश हमारी दुर्बलताओं का लाभ उठा कर आंखे दिखा रहे हैं। ऐसी पार्टी किसी भी तरह पुन: सता में आने के लिए लालायित हैं। खाद्य सुरक्षा को कानून बना कर वह एक ऐसा राजनीतिक खेल खेलने के लिए तैयार हो गयी है, जिसे जीतने की उसे पूरी आशा है। उसे इस कानून के दुष्परिणामों की चिंता नहीं है। वजह यह है कि देश चाहे बरबार हो जाये, देश की जनता को चाहे असहनीय कष्ट उठाने पड़े, उसे सता चाहिये। क्योंकि पुन: सता मिलने पर ही उन ऐतिहासिक घोटालों पर पर्दा डाल पायेंगी, जिसमें खरबों रुपये के सार्वजनिक धन की हेराफेरी हुई है। एक पार्टी को चला रहे, अति चालाक किस्म के लोग इस बात पर भी भयभीत हैं कि भारत में  कभी ऐसी सरकार बन जायेगी, जो विदेशों में जमा काले धन को देश में लाने का  र्इमानदार प्रयास करेगी, तब सारा खेल बिगड़ जायेगा। पोल खुल जायेगी। असली सूरत सामने आ जायेगी। तब देश की जनता से मुंह छुपा कर विदेश भागने की अलावा कोई चारा ही नहीं बचेगा।