मानव जीवन प्रश्नों से जुड़ा है। प्रश्न मन की लहरों के साथ उपजते हैं। मन की हर हिलोर-प्रत्येक लहर एक नया प्रश्न खड़ा करती है। जीवन की प्रत्येक घटना, जो मन को स्पंदित करती है, अनायास ही नए प्रश्न या प्रश्नों को जन्म दे देती है। इसी तरह परिस्थितियां व परिवेश (जो विचार व भावों में लहरें पैदा करने में समर्थ हैं) स्वाभाविक तौर पर अंतश्चेतना में प्रश्नों को जन्म देते हैं। यह क्रम न तो रुकता है, न थमता है, बस नित्य-निरंतर-अविराम चलता रहता है। वस्तुत: प्रश्न कई प्रकार के होते हैं। जिज्ञासावश मन में उठने वाला भाव प्रश्न है, प्रश्न के बाद पुन: पूछने का क्रम प्रतिप्रश्न है, तो कुछ लोग किसी विषय पर इतने प्रश्न पूछते हैं कि मूल विषय से ध्यान ही भटक जाए। ऐसा करना अतिप्रश्न है और अनावश्यक किसी दुर्भावनावश अप्रासंगिक प्रश्न पूछना कुप्रश्न कहलाता है। प्रश्नकर्ता का भाव विकसित करने के लिए सर्वप्रथम ‘इगो’ को त्यागकर विनम्रता और जिज्ञासु भाव को विकसित करना आवश्यक है। ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रत्येक प्रश्न मन के मौन को तोड़ता है। मन में अशांति, बेचैनी व तनाव को जन्म देता है। ये प्रश्न जितने अधिक, जितने गहरे व जितने व्यापक होते हैं, मन की अशांति, बैचेनी व तनाव भी उतना ही ज्यादा गहरा, घना और व्यापक होता जाता है।
इसी अशांति, बेचैनी व तनाव में अपनी ही कोख में उपजे प्रश्न या प्रश्नों के उत्तर खोजने की कोशिश करता है। उसे अपने इस प्रयास में सफलता मिलती है। उत्तर मिलते भी हैं, पर नए प्रश्नों के साथ कोई न कोई प्रश्न चिपक ही जाता है। साथ ही बढ़ जाती है बैचेनी व अशांति, क्योंकि जो भी घटना, फिर वह चाहे प्रश्न की हो या उत्तर की, मन में लहरें व हिलोरें पैदा करेगी, मन को तनाव, बैचेनी व अशांति से ही भरेगी। इस समस्या का समाधान तभी है, जब मन की लहरें मिटें, हिलोरें हटें। फिर न कोई प्रश्न उभरेंगे और न किसी उत्तर की खोज होगी। इसके लिए मन को मौन होना होगा। इसी को समाधि कहते हैं जहां सभी प्रश्न स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाते हैं, जहां अशांति अपने आप ही मिट जाती है। बस, बनी रहती है तो केवल प्रश्नविहीन अमिट शांति। आध्यात्मिक शक्ति के विकास से इस शांति की प्राप्ति की जा सकती है और जीवन के सभी प्रश्नों का उत्तर स्वत: प्राप्त या अनुभूत हो जाता है।
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