जीवन का सूक्ष्म रूप स्वप्न है और स्थूल रूप यथार्थ। जीवन की धारा सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ती है। बिना स्वप्न के यथार्थ की सत्ता नहीं हो सकती। इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि विचार करने के बाद उसे कार्य रूप में तब्दील करना स्वप्न से यथार्थ बनने जैसा है। जो जितना बड़ा स्वप्नदर्शी होता है उसके जीवन का उद्देश्य उतना ही बड़ा होता है, लेकिन यह उद्देश्य तब पूरा होता है जब वह यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है। स्वप्न और यथार्थ के मध्य जो सेतु का कार्य करता है, वह है साधना। ज्ञान-विज्ञान, गणित, व्यवहार, दर्शन और साहित्य जितने भी विषय हैं सभी स्वप्न और यथार्थ के साथ आगे बढ़ते हैं, लेकिन ये तब पूरा होते हैं जब कठोर श्रम साथ में किया जाए। समझना यह भी है कि बेहतर जिंदगी, बेहतर समाज और उच्च मानव मूल्यों के लिए किस तरह के स्वप्न देखे जाएं और इन्हें किस तरह यथार्थ में परिवर्तित करें। अच्छे शब्दों, अच्छे विचारों वाले वाक्यों और भावों को मन में बार-बार दोहराते रहिए। देखिएगा किस तरह शुभत्व का प्रवाह होने लगता है। कहा गया है जो व्यक्ति जैसा स्वप्न देखता है, फिर उस स्वप्न को साकार करने के लिए जैसा प्रयास करता है वैसा वह यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है। यानी स्वप्न और यथार्थ दोनों का बराबर महत्व है।
ब्रह्मा के दो लाड़ले पुत्र हैं। एक स्वप्न और दूसरा यथार्थ। दोनों में लड़ाई हुई। दोनों ब्रह्मा के पास पहुंचे और बोले-भगवन! आज आप निर्णय कर दीजिए कि हम दोनों में से किसकी महिमा अधिक है? ब्रह्मा को बेटों की नादानी पर हंसी आ गई। वह बोले-दोनों जमीन पर खड़े हो जाओ, जमीन पर खड़े-खड़े ही जो आकाश छू लेगा उसकी महिमा सबसे बड़ी है। दोनों परीक्षा देने को तैयार हो गए। स्वप्न ने आकाश तो छू लिया, लेकिन उसके पैर जमीन तक नहीं पहुंच सके। अब यथार्थ की बारी थी। जमीन पर तो वह स्थिर हो गया, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद भी आकाश नहीं छू सका। दोनों को परीक्षा में फेल देख ब्रह्मा हंसे और बोले, 'देख लिया न, तुम दोनों की महिमा एक दूसरे के पूरक होने में है अकेले में नहीं। ' यह कथानक यह संदेश देता है कि हमारे जीवन में स्वप्न और यथार्थ में पूरकता होनी चाहिए। किसी एक से जीवन की सफलता नहीं है।
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