Thursday, 31 March 2016

मोदी विरोध की जिद

इन दिनों जेएनयू से लेकर जाधवपुर विश्वविद्यालय तक पूरे देश में आजादी के नारे ऐसे लग रहे है कि ब्रिटिश राज से लोहा लेने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को अपना संघर्ष गौण लगने लगे। मोदी विरोधी तत्व लगातार देश के हर नागरिक की जाति, धर्म, क्षेत्र, आर्थिक इत्यादि पहचानों को उकसा कर देश को बांटने का काम कर रहे है। आम आदमी के मन में यह थोपने की कोशिश हो रही है कि यदि आप मोदी के साथ हैं तो आप हिंदूवाद, मनुवाद, पूंजीवाद और सामंतवाद के साथ हैं। आखिर विपक्ष, मीडिया और बुद्धिजीवियों का यह वर्ग मोदी से इतना नाराज क्यों है? दरअसल मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा का जिस तरह से विस्तार हो रहा है उसे देखते हुए विपक्षी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। बचकाना जुमलों की राजनीति करने वाले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी इसी राजनीतिक असुरक्षा की भावना के शिकार हैं। आज वह फिल्मी और किताबी अंदाज में दिशाहीन 'छापेमारीÓ की राजनीति कर रहे हैं। अन्यथा देश को बांटने के नारे लगाने वालों के समर्थन में क्या कोई परिपक्व और संवेदनशील नेता जेएनयू जाता? संसद में लगातार गतिरोध पैदा करके देश के विकास के प्रति असंवेदनशीलता भी कांग्रेस की हताशा का परिचायक है।
असुरक्षा की इसी भावना के चलते विपक्ष ने मोदी सरकार को अमीरों और उद्योगपतियों की सरकार बता कर आमजनता को भ्रमित करने का पूरा प्रयास किया। परंतु फसल बीमा योजना, मुद्रा बैंक, जनधन योजना, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन योजना इत्यादि जैसी गरीबों के हित की योजनाएं लाकर मोदी ने विपक्ष के इस षड्यंत्र को जब मजबूत चुनौती दी तो उसके पास असहिष्णुता और भगवाकरण जैसे अप्रसांगिक मुद्दों को छोड़ कर शायद मोदी को घेरने का कोई और रास्ता नहीं बचा। बिहार चुनावों से ऐन पहले असहिष्णुता के मुद्दे पर अवार्ड वापसी का ढोंग रचा गया, जबकि माल्दा में जिस तरह मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों ने सिर उठाया उस पर किसी ने मुंह तक नहीं खोला। वाम दलों से प्रेरित छात्र संगठनों का पहले भी जेएनयू में दबदबा था, पर पहले न कभी वहां मनुस्मृति जली और न ही कश्मीर की आजादी के नारे लगे। राहुल गांधी द्वारा जेएनयू के देशद्रोही प्रकरण को हवा देने पर भाजपा अध्यक्ष ने जब उनसे कुछ सवाल पूछे तो अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देकर न सिर्फ राहुल गांधी का बचाव किया गया, बल्कि जेएनयू की घटना को उचित ठहराया गया। यहां तक कि आतंकी अफजल की फांसी की सजा को न्यायिक हत्या बताकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को भी शंकाओं के घेरे में ला दिया गया। जेएनयू प्रकरण के दोषी कन्हैया को चेतावनी के साथ जब अदालत ने सशर्त जमानत दी तो इन लोगों ने एक बार फिर से अदालत को आड़े हाथ लिया। हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस गांगुली स्वयं इस देश और न्यायपालिका विरोधी जमात के साथ खड़े हो गए। कन्हैया को जिस तरह से मीडिया के एक वर्ग ने हीरो बनाने की कोशिश की वह न सिर्फ मीडिया के दीवालियेपन को दर्शाता है, बल्कि यह विपक्ष का अपने नेतृत्व में घटते विश्वास का भी द्योतक है। इसमें कोई शक नहीं कि यह सब सिर्फ मोदी को कमजोर करने और उनकी सरकार के अच्छे कामों से देश का ध्यान बंटाने की साजिश है।
विपक्ष को कहीं न कहीं यह लग रहा है कि देश का एक बड़ा वर्ग मोदी और शाह के नेतृत्व में भाजपा के साथ तेजी से जुड़ रहा है। अत: विपक्र्ष ंहदू समुदाय को जाति के नाम पर बांटने की कोशिश कर रहा है। शायद यही कारण है कि बिहार चुनावों में लालू यादव ने मंडल राज-2 का नारा दिया। इसी चुनाव के दौरान एक केंद्रीय मंत्री के बयान को तोड़-मरोड़ कर दलित विरोधी के रूप में पेश किया गया। जाति के नाम पर समाज को जातियों में बांटने का काम अभी भी अनवरत जारी है। हरियाणा में जाट आंदोलन और आंध्र में कापू समुदाय की आरक्षण की मांग इसी विभाजन की राजनीति का हिस्सा लगती है, परंतु मोदी सरकार जिस तरह से दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के हित में काम कर रहे है, विपक्ष की जातिगत विभाजन की राजनीति शायद ज्यादा दिनों तक न चल सके।
मोदी के सत्ता में आने के पूर्व केंद्र में किसी भी पार्टी की सरकार हो, कुछ नेता, उद्योगपति, पत्रकार और बुद्धिजीवी ही मिलकर देश चलाते थे। कहा तो यहां तक जाता है कि पेट्रोलियम और संचार जैसे आर्थिक मंत्रालयों के मंत्रियों के चुनाव में कुछ उद्योगपतियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। परंतु सत्ता में आते ही मोदी ने नई दिल्ली के इस अभिजात वर्ग पर लगाम लगाई और वह इस वर्ग की आंख की किरकिरी बन गए। इतिहासकार रामचंद्र गुहा का कथन कि राइट-विंग विचारधारा से बुद्धिजीवी नहीं आते, दर्शाता है कि भाजपा की विचारधारा से सहमति रखने वाले विचारकों को इस देश में हीनभावना से देखा जाता रहा है। देश के शिक्षण संस्थानों में वाम विचारधारा का लंबे समय तक दबदबा रहा है। मोदी सरकार में जब विचारधारा को दरकिनार कर योग्यता के आधार पर कुछ संस्थानों में नियुक्तियां की गईं तो इसे शिक्षा के भगवाकरण की संज्ञा दे दी गई। आज दिल्ली में सरकार और पत्रकार वर्ग के संबंध पुन: परिभाषित हो रहे हैं। मोदी की कार्यपद्धति कहीं न कहीं मीडिया के एक वर्ग को नहीं भाई और मोदी-शाह पर अक्खड़पन का इल्जाम लगा दिया गया। मोदी और शाह द्वारा कई बार अलग-अलग मंचों से मीडिया से संपर्क साधने के बावजूद विशेषाधिकारों का आदी मीडिया का यह वर्ग मोदी सरकार और भाजपा में कमियां खोजने में दिन-रात एक कर रहा है। वैसे तीस वर्षों के बाद यदि देश ने किसी व्यक्ति को पूर्ण बहुमत दिया है तो सवाल पूछना भी लाजमी है, परंतु क्या देश की समस्त समस्याओं के लिए दो साल से भी कम पुरानी मोदी सरकार सिर्फ जिम्मेदार है? देश ने 65 वर्षों तक धीरज रखा है तो क्या हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को किनारे रख कर देशहित में मोदी को पांच वर्षों का भी समय नहीं दे सकते?

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