हैरान करने वाला हलफनामा
अगर पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन, पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई और गृह मंत्रालय में उनके सहयोगी रहे आरवीएस मणि इशरत जहां मामले में सच्चाई बयान कर रहे हैं तो फिर इस बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता कि पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री के तौर पर पी चिदंबरम ने क्षुद्रता की सारी सीमाएं पार कर दी थीं। देश ने तमाम भ्रष्ट और आपराधिक प्रवृत्ति के नेता देखे हैं, लेकिन चिदंबरम का कृत्य तो हिंदी फिल्मों के शातिर खलनायकोंं के देश विरोधी काल्पनिक कृत्यों को भी मात देने वाला दिखता है। उन्होंने एक तरह से लश्कर के स्वार्थों की पूर्ति की और इस पर हैरत नहीं कि इन दिनों पाकिस्तान में सोशल मीडिया में उनके प्रति सहानुभूति उमड़ रही है। इशरत मामले में डेविड हेडली की गवाही का भी उल्लेख किया जा सकता है, लेकिन यदि उसके बयान को संदिग्ध भी मान लिया जाए तो भी कोई नारायणन, पिल्लई और मणि के बयानों की अनदेखी कैसे कर सकता है? चिदंबरम के बचाव में आगे आए कांग्रेसी नेता पिल्लई और मणि के बयानों पर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन क्या वे एमके नारायणन को भी झूठा करार दे सकते हैं, जिन्होंने हेडली की गवाही के बाद हाल ही में अपने एक लेख में कहा है कि खुफिया एजेंसियों को अच्छी तरह पता था कि इशरत लश्कर की सदस्य थी और दुबई में रची गई उस साजिश का हिस्सा थी जिसे गुजरात में अंजाम दिया जाना था।
इशरत जहां अपने तीन साथियों के साथ 15 जून 2004 को अहमदाबाद में मारी गई थी। उसके साथ प्राणेश पिल्लई उर्फ जावेद गुलाम शेख, अमजद अली और जीशान जौहर भी मारे गए थे। इनमें अमजद और जीशान पाकिस्तानी थे। इस मुठभेड़ के कुछ दिनों बाद लश्कर के मुखपत्र समझे जाने वाले गजवा टाइम्स में 14 जुलाई 2004 को इशरत को शहीद करार देते हुए उसे शाबासी दी जाती है। तब तक इशरत का परिवार मुठभेड़ को फर्जी बताने के साथ यह साबित करने की कोशिश में जुट चुका था कि उनकी बेटी तो कॉलेज जाने वाली एक आम सी घरेलू लड़की थी, लेकिन वह यह नहीं बताता कि 12 जून को कथित तौर पर इंटरव्यू देने गई उनकी लड़की जब तीन दिन तक घर नहीं लौटी तो उन्होंने उसकी चिंता क्यों नहीं की? इशरत की मां ने पहले कहा कि उनकी बेटी जावेद को नहीं जानती थी, लेकिन बाद में कहा कि वह उसके यहां सेल्स गर्ल के तौर पर काम करती थी। जावेद के पिता का कहना था कि वह तो ट्रैवल एंजेंसी में काम करता था। कोई न तो इस सवाल का जवाब तलाशता है कि इशरत थाणे से अहमदाबाद कैसे पहुंची और न ही यह कि उसके साथ पाकिस्तानी नागरिक क्या कर रहे थे?
2 मई 2007 को गजवा टाइम्स के इंटरनेट संस्करण में यह एक भूल सुधार नजर आती है कि 2004 को इशरत के बारे में छपी खबर एक रिपोर्टर की गलती थी। तीन साल बाद 'भूल सुधारÓ का यह दुर्लभ मामला था। इस दुर्लभ मामले के कुछ ही दिनों बाद जावेद के पिता सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अहमदाबाद मुठभेड़ की सीबीआइ जांच की मांग करते हैं। 2009 में संप्रग फिर सत्ता में आती है और 2008 में मुंबई में लश्कर के भीषण आतंकी हमले के बाद गृहमंत्री बनाए गए चिंदबरम पुन: गृहमंत्रालय संभालते हैं। इशरत मुठभेड़ मामले में गृह मंत्रालय 6 अगस्त 2009 को गुजरात उच्च न्यायालय में 14 पेज का एक हलफनामा दायर करता है। हलफनामे में विस्तार से बताया जाता है कि इशरत लश्कर की आतंकी थी। यह हलफनामा आरवीएस मणि ने ही दाखिल किया था। इसके बाद 30 सितंबर 2009 को पहले वाला हलफनामा वापस लेकर दूसरा दाखिल किया जाता है और वह पहले वाले के बिल्कुल उलट होता है। जीके पिल्लई की मानें तो दूसरा हलफनामा चिदंबरम ने लिखवाया था और चूंकि यह काम खुद मंत्री महोदय ने किया इसलिए शेष अफसर कोई विरोध-प्रतिरोध नहीं कर सके। अगर यह आरोप सही है तो चिदंबरम ने वही काम किया जो गजवा टाइम्स ने किया। जिस तरह लश्कर नहीं चाहता था कि इशरत को उसके सदस्य के तौर पर जाना जाए उसी तरह सितंबर 2009 में हमारे तत्कालीन गृहमंत्री भी नहीं चाह रहे थे कि इशरत लश्कर की आतंकी के रूप में जानी जाए। चिदंबरम ने किसके मन की मुराद पूरी की? उसी लश्कर के मन की जिसने जैशे मोहम्मद के साथ मिलकर संसद पर हमला कराया और जिसने आइएसआइ की सहायता से मुंबई में हमला किया। चिदंबरम के हलफनामा बदलने से कौन खुश हुआ होगा? जाहिर है हाफिज सईद एंड कंपनी।
चिदंबरम पर जैसे आरोप लगे हैं वे यह भी कहते हैं कि उन्होंने केवल ऐसा हलफनामा ही तैयार नहीं किया जिससे लश्कर खुश हुआ होगा, बल्कि अहमदाबाद मुठभेड़ की जांच में गुजरात पुलिस के अफसरों और उनके जरिये अमित शाह और नरेंद्र मोदी को फंसाने के लिए सीबीआइ के विशेष जांच दल को इंटेलीजेंस ब्यूरो के उन अधिकारियों के पीछे भी लगा दिया जिन्होंने इशरत और उसके साथियों की खुफिया सूचना गुजरात पुलिस को दी थी। आइबी के ऐसे ही एक अफसर राजेंद्र कुमार की मानें तो चिदंबरम ने यह काम गुजरात के एक बड़े कांगे्रसी नेता के साथ मिलकर किया। यह अहमद पटेल के अलावा और कोई नहीं हो सकते। अहमद पटेल कांगे्रस के बड़े नेता इसलिए माने जाते हैं, क्योंकि वह सोनिया गांधी के करीबी हैं। अच्छा होता कि जीके पिल्लई 2009 में ही थोड़ा साहस दिखाते और उसी वक्त चिदंबरम के देश विरोधी कृत्य का भंडाफोड़ करते। अगर उन्होंने उस समय साहस नहीं दिखाया तो इसका यह मतलब नहीं कि उनकी बातों पर भरोसा न किया जाए। पता नहीं चिदंबरम का क्या होगा, लेकिन इससे ज्यादा लज्जाजनक और कुछ नहीं कि उनके रूप में हमारे पास एक ऐसा गृहमंत्री था जो राजनीतिक प्रतिशोधवश देश के शत्रुओं के हित साध रहा था। चिदंबरम एक बड़े वकील भी हैं। वह अच्छे से जानते होंगे कि इशरत मामले में उनका खुद का कृत्य राजद्रोह की श्रेणी में आता है नहीं?
अगर पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन, पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई और गृह मंत्रालय में उनके सहयोगी रहे आरवीएस मणि इशरत जहां मामले में सच्चाई बयान कर रहे हैं तो फिर इस बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता कि पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री के तौर पर पी चिदंबरम ने क्षुद्रता की सारी सीमाएं पार कर दी थीं। देश ने तमाम भ्रष्ट और आपराधिक प्रवृत्ति के नेता देखे हैं, लेकिन चिदंबरम का कृत्य तो हिंदी फिल्मों के शातिर खलनायकोंं के देश विरोधी काल्पनिक कृत्यों को भी मात देने वाला दिखता है। उन्होंने एक तरह से लश्कर के स्वार्थों की पूर्ति की और इस पर हैरत नहीं कि इन दिनों पाकिस्तान में सोशल मीडिया में उनके प्रति सहानुभूति उमड़ रही है। इशरत मामले में डेविड हेडली की गवाही का भी उल्लेख किया जा सकता है, लेकिन यदि उसके बयान को संदिग्ध भी मान लिया जाए तो भी कोई नारायणन, पिल्लई और मणि के बयानों की अनदेखी कैसे कर सकता है? चिदंबरम के बचाव में आगे आए कांग्रेसी नेता पिल्लई और मणि के बयानों पर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन क्या वे एमके नारायणन को भी झूठा करार दे सकते हैं, जिन्होंने हेडली की गवाही के बाद हाल ही में अपने एक लेख में कहा है कि खुफिया एजेंसियों को अच्छी तरह पता था कि इशरत लश्कर की सदस्य थी और दुबई में रची गई उस साजिश का हिस्सा थी जिसे गुजरात में अंजाम दिया जाना था।
इशरत जहां अपने तीन साथियों के साथ 15 जून 2004 को अहमदाबाद में मारी गई थी। उसके साथ प्राणेश पिल्लई उर्फ जावेद गुलाम शेख, अमजद अली और जीशान जौहर भी मारे गए थे। इनमें अमजद और जीशान पाकिस्तानी थे। इस मुठभेड़ के कुछ दिनों बाद लश्कर के मुखपत्र समझे जाने वाले गजवा टाइम्स में 14 जुलाई 2004 को इशरत को शहीद करार देते हुए उसे शाबासी दी जाती है। तब तक इशरत का परिवार मुठभेड़ को फर्जी बताने के साथ यह साबित करने की कोशिश में जुट चुका था कि उनकी बेटी तो कॉलेज जाने वाली एक आम सी घरेलू लड़की थी, लेकिन वह यह नहीं बताता कि 12 जून को कथित तौर पर इंटरव्यू देने गई उनकी लड़की जब तीन दिन तक घर नहीं लौटी तो उन्होंने उसकी चिंता क्यों नहीं की? इशरत की मां ने पहले कहा कि उनकी बेटी जावेद को नहीं जानती थी, लेकिन बाद में कहा कि वह उसके यहां सेल्स गर्ल के तौर पर काम करती थी। जावेद के पिता का कहना था कि वह तो ट्रैवल एंजेंसी में काम करता था। कोई न तो इस सवाल का जवाब तलाशता है कि इशरत थाणे से अहमदाबाद कैसे पहुंची और न ही यह कि उसके साथ पाकिस्तानी नागरिक क्या कर रहे थे?
2 मई 2007 को गजवा टाइम्स के इंटरनेट संस्करण में यह एक भूल सुधार नजर आती है कि 2004 को इशरत के बारे में छपी खबर एक रिपोर्टर की गलती थी। तीन साल बाद 'भूल सुधारÓ का यह दुर्लभ मामला था। इस दुर्लभ मामले के कुछ ही दिनों बाद जावेद के पिता सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अहमदाबाद मुठभेड़ की सीबीआइ जांच की मांग करते हैं। 2009 में संप्रग फिर सत्ता में आती है और 2008 में मुंबई में लश्कर के भीषण आतंकी हमले के बाद गृहमंत्री बनाए गए चिंदबरम पुन: गृहमंत्रालय संभालते हैं। इशरत मुठभेड़ मामले में गृह मंत्रालय 6 अगस्त 2009 को गुजरात उच्च न्यायालय में 14 पेज का एक हलफनामा दायर करता है। हलफनामे में विस्तार से बताया जाता है कि इशरत लश्कर की आतंकी थी। यह हलफनामा आरवीएस मणि ने ही दाखिल किया था। इसके बाद 30 सितंबर 2009 को पहले वाला हलफनामा वापस लेकर दूसरा दाखिल किया जाता है और वह पहले वाले के बिल्कुल उलट होता है। जीके पिल्लई की मानें तो दूसरा हलफनामा चिदंबरम ने लिखवाया था और चूंकि यह काम खुद मंत्री महोदय ने किया इसलिए शेष अफसर कोई विरोध-प्रतिरोध नहीं कर सके। अगर यह आरोप सही है तो चिदंबरम ने वही काम किया जो गजवा टाइम्स ने किया। जिस तरह लश्कर नहीं चाहता था कि इशरत को उसके सदस्य के तौर पर जाना जाए उसी तरह सितंबर 2009 में हमारे तत्कालीन गृहमंत्री भी नहीं चाह रहे थे कि इशरत लश्कर की आतंकी के रूप में जानी जाए। चिदंबरम ने किसके मन की मुराद पूरी की? उसी लश्कर के मन की जिसने जैशे मोहम्मद के साथ मिलकर संसद पर हमला कराया और जिसने आइएसआइ की सहायता से मुंबई में हमला किया। चिदंबरम के हलफनामा बदलने से कौन खुश हुआ होगा? जाहिर है हाफिज सईद एंड कंपनी।
चिदंबरम पर जैसे आरोप लगे हैं वे यह भी कहते हैं कि उन्होंने केवल ऐसा हलफनामा ही तैयार नहीं किया जिससे लश्कर खुश हुआ होगा, बल्कि अहमदाबाद मुठभेड़ की जांच में गुजरात पुलिस के अफसरों और उनके जरिये अमित शाह और नरेंद्र मोदी को फंसाने के लिए सीबीआइ के विशेष जांच दल को इंटेलीजेंस ब्यूरो के उन अधिकारियों के पीछे भी लगा दिया जिन्होंने इशरत और उसके साथियों की खुफिया सूचना गुजरात पुलिस को दी थी। आइबी के ऐसे ही एक अफसर राजेंद्र कुमार की मानें तो चिदंबरम ने यह काम गुजरात के एक बड़े कांगे्रसी नेता के साथ मिलकर किया। यह अहमद पटेल के अलावा और कोई नहीं हो सकते। अहमद पटेल कांगे्रस के बड़े नेता इसलिए माने जाते हैं, क्योंकि वह सोनिया गांधी के करीबी हैं। अच्छा होता कि जीके पिल्लई 2009 में ही थोड़ा साहस दिखाते और उसी वक्त चिदंबरम के देश विरोधी कृत्य का भंडाफोड़ करते। अगर उन्होंने उस समय साहस नहीं दिखाया तो इसका यह मतलब नहीं कि उनकी बातों पर भरोसा न किया जाए। पता नहीं चिदंबरम का क्या होगा, लेकिन इससे ज्यादा लज्जाजनक और कुछ नहीं कि उनके रूप में हमारे पास एक ऐसा गृहमंत्री था जो राजनीतिक प्रतिशोधवश देश के शत्रुओं के हित साध रहा था। चिदंबरम एक बड़े वकील भी हैं। वह अच्छे से जानते होंगे कि इशरत मामले में उनका खुद का कृत्य राजद्रोह की श्रेणी में आता है नहीं?
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