भारत के वीर सपूत
भारत की स्वतंत्रता में तीन ऐसे वीर
सपूत हैं, जिनकी शहादत ने देश के नौजवानों में आजादी के लिए अभूतपूर्व जागृति
का शंखनाद किया। देशभक्त सुखदेव,
भगतसिंह और राजगुरू को अंग्रेज सरकार
ने 23 मार्च को लाहौर षडयंत्र केस में फाँसी पर चढा दिया था। इन वीरों को
फाँसी की सजा देकर अंग्रेज सरकार समझती थी कि भारत की जनता डर जाएगी और स्वतंत्रता
की भावना को भूलकर विद्रोह नही करेगी। लेकिन वास्तविकता में ऐसा नही हुआ बल्की
शहादत के बाद भारत की जनता पर स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का
रंग इस तरह चढा कि भारत माता के हजारों सपूतों ने सर पर कफन बाँध कर अंग्रेजों के
खिलाफ जंग छेङ दी।
1928 के प्रारंभ में ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित साइमन कमिशन भारत आया
था। जिसमें एक भी भारतीय नही थे,
अतः उसके विरोध में भारत के उन सभी
शहरों में उसका बहिष्कार किया गया, जहाँ-जहाँ साइमन कमिशन गया था। उसे
काले झंडे दिखाए गये। साइमन कमिशन को व्यापक जन विरोधी आन्दोलन का सामना करना पङा।
इसी क्रम में जब साइमन कमिशन लाहौर पहुँचा तो वहाँ पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के
नेतृत्व में इस कमिशन का व्यापक रूप से बहिष्कार किया किया गया। अंग्रेज सैनिकों
ने इस बहिष्कार को रोकने के लिए जनता पर लाठी चार्ज किया, जिसमें लाला लाजपत
राय गम्भीर रूप से घायल हो गये और कुछ दिनो बाद उनकी चोट के कारण मृत्यु हो गई। इस
हादसे से पंजाब के नौजवान बैचेन हो गये। क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान
सोशलिष्ट रिपब्लिक आर्मी’ जिसके सर्वोच्च कमांडर चन्द्रशेखर आजाद थे, उन्होने इस
राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने का निर्णय लिया। जिस अंग्रेज अफसर (सांडर्स) की मार
से लाला जी की मृत्यु हुई उसे मारने की योजना बनाई गयी। इस योजना को कार्यान्वित
करने के लिए क्रान्तिकारियों एक दल गठित किया गया।
यह एक बङे पुलिस अधिकारी की हत्या
करने की योजना थी, इसलिए इस योजना के हर पहलु पर बारिकी से अध्ययन किया गया एवं किसको
क्या कार्य करना है, इसके लिए उनका कार्यक्षेत्र निर्धारित किया गया। लाला जी की मृत्यु
के एक महीने पश्चात अर्थात 17
दिसम्बर को इस योजना को व्यवहारिक रूप
से अंजाम देने का दिन निश्चित किया गया। पुलिस सुपरिटेंडन सांडर्स का ऑफिस
डी.ए.वी. कॉलेज के सामने था,
अतः वहाँ योजना से जुङे क्रान्तिकारी
तैनात कर दिये गये। राजगुरू को सांडर्स पर गोली चलाने का संकेत देने का कार्य
सौंपा गया। जैसे ही सांडर्स ऑफिस से बाहर निकला तभी राजगुरू से संकेत मिलते ही भगत
सिंह ने उसपर गोलियाँ चला दी जिससे वह वहीं ढेर हो गया। भगत सिंह को पकङने के लिए
हेड कांस्टेबल चानन सिंह ने उनका पीछा करने की कोशिश की किन्तु तभी चन्द्रशेखर
आजाद ने उसपर गोली चला दी, जिससे सभी क्रान्तिकारी भागने में कामयाब हुए। इस हत्या काण्ड से
पूरे देश में सनसनी फैल गई। सभी अखबारों ने इस खबर को प्रभुता से प्रकाशित किया।
अंग्रेज सरकार की तरफ से इन क्रान्तिकारियों को पकङने की व्यापक कोशिश की गई। कुछ
समय पश्चात लाहौर केस के लगभग सभी क्रान्तिकारी पकङे गये। तीन न्यायाधिशों की
अदालत में देशभक्त क्रान्तिकारियों पर केस चला।
जेल से अदालत आते समय ये देशभक्त
इंनकलाब जिन्दाबाद और अंग्रेज मुरदाबाद के नारे लगाते। सुखदेव और भगत सिंह की
योजना थी कि इसतरह से वे अपनी कार्यशैली का प्रचार करेंगे और लोगों को स्वतंत्रता
के प्रति जागृत करेगें। अदालती कार्यवाही को जनता तक पहुँचाने का कार्य सामाचार
पत्र करते थे, जिससे पूरे देश की जनता सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरू एवं अन्य
क्रान्तिकारियों के पक्ष में थी। अदालती कार्यवाही के दौरान अपार जन समूह इक्कठा
हो जाता था। अदालती कार्यवाही को बाधित देखकर भारत सरकार ने एक आर्डिनेंस जारी
किया जिसके अनुसार उन लोगों की अनुपस्थिती में भी कारवाही जारी करते हुए मुकदमा
समाप्त कर दिया गया। देशभक्तों ने काफी दिनों तक भूख हङताल भी की। 63 दिनों की भूख हङताल
के दौरान जितेंद्र नाथ का निधन भी हो गया। जन आक्रोश के डर से अदालत की सजा जेल
में ही सुनाई गयी, जिसके अनुसार भगत सिहं, राजगुरू और सुखदेव को 23 मार्च को फांसी की
सजा की सजा मुकर्र की गई। कुछ लोगों को आजीवन काले पानी की सजा दी गई। इस फैसले के
विरोध में देशभर में हङतालें हुई। इस केस के विरोध में पी.वी. कौंसिल में अपील की
गई परन्तु देशभक्तों ने वायसराय से माफी माँगने से इंकार कर दिया। अतः राजगुरू, सुखदेव तथा भगतसिंह
को 23 मार्च 1931 को सायंकाल 7
बजे लाहौर जेल में फांसी दे दी गई, अमूमन फांसी का
वक्त प्रातःकाल का होता है किन्तु लोगों में भयव्याप्त करने हेतु इन्हे शाम को
फांसी दी गई। उस दौरान जेल में हजारों कैदी थे, उन्होने भी डरने के बजाय पूरे जोश के
साथ इंकलाब जिनंदाबाद, भारत माता की जय का आगाज किया। इंकलाब की गूंज पूरे लाहौर शहर में
फैल गई। उनके शहादत की खबर से हजारो की संख्या में लोग जेल के बाहर इक्कठा होने
लगे तथा इंकलाब जिन्दाबाद के नारे लगाने लगे। उग्र प्रर्दशन से बचने के लिए पुलिस
ने शवों को रातो-रात फिरोजपुर शहर में सतुलज नदी के किनारे ले जाकर जला दिया। जब
लाहौर के निवासियों को ये पता चला तो अनगिनत लोग इन भारत माता के वीर शहीदों को
श्रद्धांजली देने वहाँ पहुँच गये और लौटते समय इस पवित्र स्थल से स्मृति स्वरूप
एक-एक मुठ्ठी मिट्टी अपने साथ ले गये। वहाँ पर शहीदों की याद में एक विशाल स्मारक
बनाया गया है। जहाँ प्रतिवर्ष 23
मार्च को लोग उन्हे श्रद्धांजली
अर्पित करते हैं। ऐसे वीर सपूत जिन्होने अपनी शहादत से स्वतंत्रता का आगाज किया
उनके परिचय को शाब्दिक रूप देकर उनकी वीरता को नमन करने का प्रयास कर रहे हैः-
भगत सिंह- भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को जिला लायल पुर
के बंगा गाँव में हुआ था। पिता सरदार किशन और चाचा भी महान क्रान्तिकारी थे।
अंग्रेज विरोधी गतिविधियों के कारण कई बार जेल गये थे। भगत सिहं के दादा भी
स्वतंत्रता के पक्षधर थे। सिख होने के बावजूद भी वे आर्यसमाज की विचारधारा से
प्रभावित थे। परिवार वाले भगत सिहं का विवाह करवाकर घर बसाना चाहते थे किन्तु भगत
सिहं का मुख्य उद्धेश्य भारत माता को गुलामी की जंजीर से मुक्त कराना था। भगत सिंह
ने बटुकेश्वर दत्त के साथ केंद्रीय असेम्बली में 2 बम फेंके थे, जिसके कारण उन्हे
लाहौर केस के पूर्व कालेपानी की सजा भी मिली थी। प्रताप अखबार के कार्यलय में काम
करते हुए वे सदा देश की स्वतंत्रता के लिए काम करते हुए हँसते-हँसते फाँसी पर चढ
गये।
सुखदेव- सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को लुधियाना में
हुआ था। पिता का नाम रामलाल और माता का नाम श्रीमति रल्ली देई था। तीन वर्ष की
अल्पआयु में ही पिता का साया सर से उठ गया था। ताया श्री चिन्तराम के संरक्षण में
आपका बचपन बीता। चिन्तराम और सुखदेव के विचारों में काफी अंतर था। चिन्तराम
राष्ट्रीय कांग्रेस से जुङे हुए थे जबकि सुखदेव क्रान्तिकारी विचारधारा के थे।
सुखदेव पंजाब में क्रान्तिकारी संघटन का संचालन करते थे। सुखदेव को बम बनाने की
कला में महारथ हासिल थी। वे सदैव अपनी जरूरतों को दरकिनार करते हुए अपने साथियों
की जरूरतों पर विशेष ध्यान देते थे। जब वे जेल में थे तब उन्होने गाँधी जी को एक
पत्र लिखा था, जिसमें उन्होने गाँधी इरविन पैक्ट का विरोध किया था। गाँधी जी के
उत्तर से पहले ही सुखदेव को फाँसी की सजा दे दी गई थी। गाँधी जी का पत्र नवजिवन
पत्रिका में प्रकाशित किया गया था।
राजगुरू- क्रान्तिकारियों के
गढ, बनारस में जन्में राजगुरू का पूरा नाम राजगुरू हरि था। चंद्रशेखर
के सबसे विश्वशनीय राजगुरू की परवरिश कट्टर हिन्दुओं के मध्य हुई थी किन्तु बाद
में उनका मन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो गया। राजगुरू निशानेबाजी में
भी सिद्धस्त थे। लाहौर केस में मुख्य अभियुक्त के रूप में उन्हे 30 सितंबर 1929 को पूना से
गिरफ्तार किया गया था।
सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह की शहादत ने आजदी
के लिए जन-जन में जो जागृति का संचार किया वो इतिहास में अविस्मरणिय है। जनमानस के
ह्रदय में इंकलाब की गूंज को पहुचाने वाले देश के इन अमर वीर सपूतों को उनकी शहादत
पर हम श्रद्धांजलि सुमन अर्पित करते हैं।
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