शास्त्रों के अनुसार विद्या चार प्रकार से फल देने वाली होती है। आगमकाल में यानी वेदादि शास्त्रों से और आप्त पुरुषों के वाक्यों से प्राप्त होने वाला ज्ञान। अध्ययन-मनन करने के उपरांत प्राप्त होने वाला ज्ञान। इसी तरह व्यवहारकाल में यानी जीवन के अनुभवों से प्राप्त होने वाला ज्ञान। प्रवचनकाल में यानी गुरुमुख से प्राप्त होने वाला ज्ञान। शास्त्र, वे प्राचीन ग्रन्थ हैं जिनसे हमें सत्य को जानने और विद्वान लोगों के विचारों का अनुभव मिलता है। सृष्टि के आरंभ से ही इस धरती पर अनेक महर्षियों ने जन्म लिया। अपने गहन चिंतन के अनुभवों को उनके द्वारा अनेक ग्रन्थों के रूप में संग्रहीत किया गया है।
गीता के सोलहवें अध्याय में कहा गया है कि कोई कार्य करने योग्य है या नहीं है, इसका निर्णय शास्त्रविधि पर विचार करने के बाद लेना हमारे लिए लाभकारी होता है। जगत का व्यवहार भी आत्म-ज्ञान को प्राप्त पुरुषों पर विश्वास रखे बिना नहीं चल सकता। शास्त्रवचन न मानते हुए अपने अहंकार या मनमर्जी से कर्म करने वाले लोग आप्त पुरुषों के अनुभव का लाभ न मिलने के कारण इधर-उधर भटकते हैं और उन्हें अनेक दुख भी भोगने पड़ सकते हैं। दुखों को दूर करने का एक ही मार्ग है, शास्त्रवचनों का मानना और उन पर विश्वास करते हुए अपना मार्ग तय करना। शास्त्रों में वर्णित आज्ञाओं का पालन करने से ही शांति और सिद्धि की प्राप्ति संभव है। मनुस्मृति में कहा गया है कि मनुष्य जैसे-जैसे शास्त्र का विचार कर उनके विषयों को समझता जाता है, वैसे-वैसे उसका ज्ञान भंडार समृद्ध होता जाता है और फिर उसको सूक्ष्म ज्ञान की बातें समझ में आने लगती हैं और उसकी रुचि उनमें बढऩे लगती है।
मानव जीवन की सफलता के लिए ऊपर कही गई चारों विधियों से विद्या की प्राप्ति आवश्यक है, परंतु आगमकाल में अर्थात वेद, उपवेद, वेदांग, दर्शन आदि शास्त्रों का ज्ञान इनमें सर्वोपरि है। यह प्रेयमार्ग अर्थात जीवन की भौतिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति में ही सहायक नहीं है, अपितु हमें श्रेयमार्ग अर्थात मोक्षमार्ग की ओर भी अग्रसर करता है। इसलिए शास्त्रज्ञान हम मनुष्यों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। शास्त्रों में कुछ बातें ऐसी हैं, जिनकी प्रबुद्ध लोग भी अनदेखी नहीं करते। वस्तुत: शास्त्र नैतिक नियमों पर चलने की प्रेरणा देते हैं और नैतिक नियमों से ही हमारा समाज संचालित होता है।
No comments:
Post a Comment