आज का मानव जीवन में आनंद की खोज में है, लेकिन वह आनंद भी क्षणिक होता है। कारण साफ है कि वह ज्योतिर्मय नहीं है। विवेक है, परंतु आत्ममय नहीं है। बुद्धिजीवी है, परंतु बोधितत्व को प्राप्त नहीं। आज मानवता कहां जा रही है, किसी को पता नहीं। इस संसार को देखकर स्वयं परमात्मा हंसता होगा, क्योंकि इस सुंदर संसार और मनुष्य को बनाते समय शायद उसने कभी नहीं सोचा होगा कि मेरी कृति इतनी भयावह हो जाएगी। उसने तो हमारे मूल स्वभाव में प्रेम करुणा, दया और सेवा जैसे सद्गुणों का बीज आरोपित किया था, लेकिन हमने अपने आपको कहीं और लाकर खड़ा कर दिया है।
राम, कृष्ण, वशिष्ठ, बुद्ध, महावीर, नानक, शंकराचार्य, मूसा, पैगंबर ने मानवता का संदेश दिया था। विश्व बंधुत्व को जगाया था, परंतु अफसोस आज उन्हीं के कुछ अनुयायियों ने धर्म को सांप्रदायिक रूप देकर मानव को मानव से संघर्ष करना सिखा दिया है। धर्म भी एक व्यवस्था बन गया है। धर्म संस्थागत नियमों में बंध गया है। धर्म के नाम पर कुछ लोगों ने शोषण प्रारंभ कर दिया है। इस अवस्था में आज का मानव शांतिप्रिय होकर जीवन को आनंदपूर्ण बनाकर कैसे गुजार सकता है? आज समाज के रूढि़वादी परंपराओं और भिन्न-भिन्न धर्मों के सांप्रदायिक प्रचारकों के बीच मानवता को संरक्षण दे पाना बड़ा ही कठिन नजर आ रहा है। मानवता ही मानव का धर्म है। इसे आज जानने और समझने की नितांत आवश्यकता है। बहती नदियां, लहराता पवन और पेड़-पौधे, ये प्रकृति का संदेश देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। परमात्मा की यह अनुपम कृति मानव के लिए ही तो है। क्या आज का मानव इसे भुलाकर, मिटाकर अपना अस्तित्व कायम रख सकता है? कदापि नहीं। हममें हर एक को आज संकल्प लेने की जरूरत है कि मानवता रूपी सागर में मनुष्य रूपी पथिक को प्रेरणा का स्रोत बनकर बहते जाना है। तभी समाज का कल्याण संभव होगा। तभी मानवता का पोषण हो सकता है।
हमें अपने आपको सीमित दायरे से बाहर निकालकर एक दूसरे के मनोभाव को समझते हुए सम्मान देना होगा। परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का बोध करना होगा। मानव को केवल मानवता के साथ जीवित रहना होगा।
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