Thursday, 31 March 2016

उतार-चढ़ाव

जिंदगी के उतार-चढ़ाव उस दिमागी खेल की तरह हैं जिसमें कभी हार होती है तो कभी जीत। यदि हम खेल को कुशलतापूर्वक और ध्यान से खेलते हैं तो विजय मिलती है और ध्यान चूकने पर हार का सामना करना पड़ता है। जिंदगी में परेशानियों व विपत्तियों का आगमन व्यक्ति को हताश कर देता है और उसके जीवन में अंधकार भर देता है। पाश्चात्य विद्वान एन. लैंडर्स का कहना है कि मुश्किलों को जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानकर चलें और जब कोई मुश्किल आए, तब अपना सिर ऊंचा उठाकर, उसकी आंख से आंख मिलाकर कहें-'मैं तुमसे ज्यादा ताकतवर हूं, तुम मुझे नहीं हरा सकतीं।Ó जिंदगी में हमेशा अच्छा ही अच्छा होता रहे, तो वह भी व्यक्ति को बोर कर देता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जिंदगी के उतार-चढ़ाव भी इस परिवर्तन का एक हिस्सा हैं । जिंदगी के उतार-चढ़ाव ही जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई हैं। जिंदगी के चढ़ाव व जीत को तो हर व्यक्ति प्रसन्नता से स्वीकार करता है, लेकिन उतार या हार को हर व्यक्ति सहन नहीं कर पाता। हार व जिंदगी में आने वाली तकलीफों को जीवन का एक अनिवार्य अंग मानकर जिया जाए, तो जीवन बेहद खूबसूरत लगने लगता है। यदि जिंदगी के उतार को धैर्य से सहन किया जाए तो समस्याओं को सुलझाने में भी एक आनंद प्राप्त होता है।
जब हम अपनी सफलता का जश्न यह सोचकर मनाते हैं कि हमें हमारे संघर्ष और मेहनत का फल मिला है तो असफलता को भी यह सोचकर स्वीकार करना चाहिए कि हमारी मेहनत में कहीं कुछ कमी थी, जो हम सफल नहीं हो पाए और हो सकता है कि जीवन का उतार या हार हमारे लिए इससे बड़ी सफलता रचने की तैयारी कर रहा हो। समय जल की भांति सदैव बहता रहता है। इस बहाव में जब बाधाएं आती हैं तो एक पल को जल रुक जाता है, लेकिन तभी तेज धारा से वह बाधा हट जाती है और जल अपने मार्ग पर चल पड़ता है। इसी तरह हर व्यक्ति के जीवन में भी उतार-चढ़ाव आते हैं। जीवन में बड़ी सफलताएं उसी व्यक्ति को प्राप्त होती हैं जो बड़ी से बड़ी असफलता में भी अपना धैर्य और संतुलन नहीं खोते। यदि बाधाओं और परेशानियों को मन और मस्तिष्क से स्वीकार कर लिया जाए तो जीवन के उतार-चढ़ाव व दुख भी एक अद्भुत आनंद प्रदान करते हैं।

मोदी विरोध की जिद

इन दिनों जेएनयू से लेकर जाधवपुर विश्वविद्यालय तक पूरे देश में आजादी के नारे ऐसे लग रहे है कि ब्रिटिश राज से लोहा लेने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को अपना संघर्ष गौण लगने लगे। मोदी विरोधी तत्व लगातार देश के हर नागरिक की जाति, धर्म, क्षेत्र, आर्थिक इत्यादि पहचानों को उकसा कर देश को बांटने का काम कर रहे है। आम आदमी के मन में यह थोपने की कोशिश हो रही है कि यदि आप मोदी के साथ हैं तो आप हिंदूवाद, मनुवाद, पूंजीवाद और सामंतवाद के साथ हैं। आखिर विपक्ष, मीडिया और बुद्धिजीवियों का यह वर्ग मोदी से इतना नाराज क्यों है? दरअसल मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा का जिस तरह से विस्तार हो रहा है उसे देखते हुए विपक्षी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। बचकाना जुमलों की राजनीति करने वाले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी इसी राजनीतिक असुरक्षा की भावना के शिकार हैं। आज वह फिल्मी और किताबी अंदाज में दिशाहीन 'छापेमारीÓ की राजनीति कर रहे हैं। अन्यथा देश को बांटने के नारे लगाने वालों के समर्थन में क्या कोई परिपक्व और संवेदनशील नेता जेएनयू जाता? संसद में लगातार गतिरोध पैदा करके देश के विकास के प्रति असंवेदनशीलता भी कांग्रेस की हताशा का परिचायक है।
असुरक्षा की इसी भावना के चलते विपक्ष ने मोदी सरकार को अमीरों और उद्योगपतियों की सरकार बता कर आमजनता को भ्रमित करने का पूरा प्रयास किया। परंतु फसल बीमा योजना, मुद्रा बैंक, जनधन योजना, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन योजना इत्यादि जैसी गरीबों के हित की योजनाएं लाकर मोदी ने विपक्ष के इस षड्यंत्र को जब मजबूत चुनौती दी तो उसके पास असहिष्णुता और भगवाकरण जैसे अप्रसांगिक मुद्दों को छोड़ कर शायद मोदी को घेरने का कोई और रास्ता नहीं बचा। बिहार चुनावों से ऐन पहले असहिष्णुता के मुद्दे पर अवार्ड वापसी का ढोंग रचा गया, जबकि माल्दा में जिस तरह मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों ने सिर उठाया उस पर किसी ने मुंह तक नहीं खोला। वाम दलों से प्रेरित छात्र संगठनों का पहले भी जेएनयू में दबदबा था, पर पहले न कभी वहां मनुस्मृति जली और न ही कश्मीर की आजादी के नारे लगे। राहुल गांधी द्वारा जेएनयू के देशद्रोही प्रकरण को हवा देने पर भाजपा अध्यक्ष ने जब उनसे कुछ सवाल पूछे तो अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देकर न सिर्फ राहुल गांधी का बचाव किया गया, बल्कि जेएनयू की घटना को उचित ठहराया गया। यहां तक कि आतंकी अफजल की फांसी की सजा को न्यायिक हत्या बताकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को भी शंकाओं के घेरे में ला दिया गया। जेएनयू प्रकरण के दोषी कन्हैया को चेतावनी के साथ जब अदालत ने सशर्त जमानत दी तो इन लोगों ने एक बार फिर से अदालत को आड़े हाथ लिया। हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस गांगुली स्वयं इस देश और न्यायपालिका विरोधी जमात के साथ खड़े हो गए। कन्हैया को जिस तरह से मीडिया के एक वर्ग ने हीरो बनाने की कोशिश की वह न सिर्फ मीडिया के दीवालियेपन को दर्शाता है, बल्कि यह विपक्ष का अपने नेतृत्व में घटते विश्वास का भी द्योतक है। इसमें कोई शक नहीं कि यह सब सिर्फ मोदी को कमजोर करने और उनकी सरकार के अच्छे कामों से देश का ध्यान बंटाने की साजिश है।
विपक्ष को कहीं न कहीं यह लग रहा है कि देश का एक बड़ा वर्ग मोदी और शाह के नेतृत्व में भाजपा के साथ तेजी से जुड़ रहा है। अत: विपक्र्ष ंहदू समुदाय को जाति के नाम पर बांटने की कोशिश कर रहा है। शायद यही कारण है कि बिहार चुनावों में लालू यादव ने मंडल राज-2 का नारा दिया। इसी चुनाव के दौरान एक केंद्रीय मंत्री के बयान को तोड़-मरोड़ कर दलित विरोधी के रूप में पेश किया गया। जाति के नाम पर समाज को जातियों में बांटने का काम अभी भी अनवरत जारी है। हरियाणा में जाट आंदोलन और आंध्र में कापू समुदाय की आरक्षण की मांग इसी विभाजन की राजनीति का हिस्सा लगती है, परंतु मोदी सरकार जिस तरह से दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के हित में काम कर रहे है, विपक्ष की जातिगत विभाजन की राजनीति शायद ज्यादा दिनों तक न चल सके।
मोदी के सत्ता में आने के पूर्व केंद्र में किसी भी पार्टी की सरकार हो, कुछ नेता, उद्योगपति, पत्रकार और बुद्धिजीवी ही मिलकर देश चलाते थे। कहा तो यहां तक जाता है कि पेट्रोलियम और संचार जैसे आर्थिक मंत्रालयों के मंत्रियों के चुनाव में कुछ उद्योगपतियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। परंतु सत्ता में आते ही मोदी ने नई दिल्ली के इस अभिजात वर्ग पर लगाम लगाई और वह इस वर्ग की आंख की किरकिरी बन गए। इतिहासकार रामचंद्र गुहा का कथन कि राइट-विंग विचारधारा से बुद्धिजीवी नहीं आते, दर्शाता है कि भाजपा की विचारधारा से सहमति रखने वाले विचारकों को इस देश में हीनभावना से देखा जाता रहा है। देश के शिक्षण संस्थानों में वाम विचारधारा का लंबे समय तक दबदबा रहा है। मोदी सरकार में जब विचारधारा को दरकिनार कर योग्यता के आधार पर कुछ संस्थानों में नियुक्तियां की गईं तो इसे शिक्षा के भगवाकरण की संज्ञा दे दी गई। आज दिल्ली में सरकार और पत्रकार वर्ग के संबंध पुन: परिभाषित हो रहे हैं। मोदी की कार्यपद्धति कहीं न कहीं मीडिया के एक वर्ग को नहीं भाई और मोदी-शाह पर अक्खड़पन का इल्जाम लगा दिया गया। मोदी और शाह द्वारा कई बार अलग-अलग मंचों से मीडिया से संपर्क साधने के बावजूद विशेषाधिकारों का आदी मीडिया का यह वर्ग मोदी सरकार और भाजपा में कमियां खोजने में दिन-रात एक कर रहा है। वैसे तीस वर्षों के बाद यदि देश ने किसी व्यक्ति को पूर्ण बहुमत दिया है तो सवाल पूछना भी लाजमी है, परंतु क्या देश की समस्त समस्याओं के लिए दो साल से भी कम पुरानी मोदी सरकार सिर्फ जिम्मेदार है? देश ने 65 वर्षों तक धीरज रखा है तो क्या हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को किनारे रख कर देशहित में मोदी को पांच वर्षों का भी समय नहीं दे सकते?

शास्त्र-ज्ञान

शास्त्रों के अनुसार विद्या चार प्रकार से फल देने वाली होती है। आगमकाल में यानी वेदादि शास्त्रों से और आप्त पुरुषों के वाक्यों से प्राप्त होने वाला ज्ञान। अध्ययन-मनन करने के उपरांत प्राप्त होने वाला ज्ञान। इसी तरह व्यवहारकाल में यानी जीवन के अनुभवों से प्राप्त होने वाला ज्ञान। प्रवचनकाल में यानी गुरुमुख से प्राप्त होने वाला ज्ञान। शास्त्र, वे प्राचीन ग्रन्थ हैं जिनसे हमें सत्य को जानने और विद्वान लोगों के विचारों का अनुभव मिलता है। सृष्टि के आरंभ से ही इस धरती पर अनेक महर्षियों ने जन्म लिया। अपने गहन चिंतन के अनुभवों को उनके द्वारा अनेक ग्रन्थों के रूप में संग्रहीत किया गया है।
गीता के सोलहवें अध्याय में कहा गया है कि कोई कार्य करने योग्य है या नहीं है, इसका निर्णय शास्त्रविधि पर विचार करने के बाद लेना हमारे लिए लाभकारी होता है। जगत का व्यवहार भी आत्म-ज्ञान को प्राप्त पुरुषों पर विश्वास रखे बिना नहीं चल सकता। शास्त्रवचन न मानते हुए अपने अहंकार या मनमर्जी से कर्म करने वाले लोग आप्त पुरुषों के अनुभव का लाभ न मिलने के कारण इधर-उधर भटकते हैं और उन्हें अनेक दुख भी भोगने पड़ सकते हैं। दुखों को दूर करने का एक ही मार्ग है, शास्त्रवचनों का मानना और उन पर विश्वास करते हुए अपना मार्ग तय करना। शास्त्रों में वर्णित आज्ञाओं का पालन करने से ही शांति और सिद्धि की प्राप्ति संभव है। मनुस्मृति में कहा गया है कि मनुष्य जैसे-जैसे शास्त्र का विचार कर उनके विषयों को समझता जाता है, वैसे-वैसे उसका ज्ञान भंडार समृद्ध होता जाता है और फिर उसको सूक्ष्म ज्ञान की बातें समझ में आने लगती हैं और उसकी रुचि उनमें बढऩे लगती है।
मानव जीवन की सफलता के लिए ऊपर कही गई चारों विधियों से विद्या की प्राप्ति आवश्यक है, परंतु आगमकाल में अर्थात वेद, उपवेद, वेदांग, दर्शन आदि शास्त्रों का ज्ञान इनमें सर्वोपरि है। यह प्रेयमार्ग अर्थात जीवन की भौतिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति में ही सहायक नहीं है, अपितु हमें श्रेयमार्ग अर्थात मोक्षमार्ग की ओर भी अग्रसर करता है। इसलिए शास्त्रज्ञान हम मनुष्यों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। शास्त्रों में कुछ बातें ऐसी हैं, जिनकी प्रबुद्ध लोग भी अनदेखी नहीं करते। वस्तुत: शास्त्र नैतिक नियमों पर चलने की प्रेरणा देते हैं और नैतिक नियमों से ही हमारा समाज संचालित होता है।

Monday, 28 March 2016

Nathuram Godse’s last speech in court.


Born in a devotional Brahmin family, I instinctively came to revere Hindu religion, Hindu history and Hindu culture. I had, therefore, been intensely proud of Hinduism as a whole. As I grew up I developed a tendency to free thinking unfettered by any superstitious allegiance to any isms, political or religious. That is why I worked actively for the eradication of untouchability and the caste system based on birth alone. I openly joined anti-caste movements and maintained that all Hindus were of equal status as to rights, social and religious and should be considered high or low on merit alone and not through the accident of birth in a particular caste or profession. I used publicly to take part in organized anti-caste dinners in which thousands of Hindus, Brahmins, Kshatriyas, Vaisyas, Chamars and Bhangis participated. We broke the caste rules and dined in the company of each other.I have read the speeches and writings of Dadabhai Nairoji, Vivekanand, Gokhale, Tilak, along with the books of ancient and modern history of India and some prominent countries like England, France, America and’ Russia. Moreover I studied the tenets of Socialism and Marxism. But above all I studied very closely whatever Veer Savarkar and Gandhiji had written and spoken, as to my mind these two ideologies have contributed more to the moulding of the thought and action of the Indian people during the last thirty years or so, than any other single factor has done.

All this reading and thinking led me to believe it was my first duty to serve Hindudom and Hindus both as a patriot and as a world citizen. To secure the freedom and to safeguard the just interests of some thirty crores (300 million) of Hindus would automatically constitute the freedom and the well being of all India, one fifth of human race. This conviction led me naturally to devote myself to the Hindu Sanghtanist ideology and programme, which alone, I came to believe, could win and preserve the national independence of Hindustan, my Motherland, and enable her to render true service to humanity as well.


Since the year 1920, that is, after the demise of Lokamanya Tilak, Gandhiji’s influence in the Congress first increased and then became supreme. His activities for public awakening were phenomenal in their intensity and were reinforced by the slogan of truth and non-violence, which he paraded ostentatiously before the country. No sensible or enlightened person could object to those slogans. In fact there is nothing new or original in them. They are implicit in every constitutional public movement. But it is nothing but a mere dream if you imagine that the bulk of mankind is, or can ever become, capable of scrupulous adherence to these lofty principles in its normal life from day to day. In fact, honour, duty and love of one’s own kith and kin and country might often compel us to disregard non-violence and to use force. I could never conceive that an armed resistance to an aggression is unjust. I would consider it a religious and moral duty to resist and, if possible, to overpower such an enemy by use of force. [In the Ramayana] Rama killed Ravana in a tumultuous fight and relieved Sita. [In the Mahabharata], Krishna killed Kansa to end his wickedness; and Arjuna had to fight and slay quite a number of his friends and relations including the revered Bhishma because the latter was on the side of the aggressor. It is my firm belief that in dubbing Rama, Krishna and Arjuna as guilty of violence, the Mahatma betrayed a total ignorance of the springs of human action.

In more recent history, it was the heroic fight put up by Chhatrapati Shivaji that first checked and eventually destroyed the Muslim tyranny in India. It was absolutely essentially for Shivaji to overpower and kill an aggressive Afzal Khan, failing which he would have lost his own life. In condemning history’s towering warriors like Shivaji, Rana Pratap and Guru Gobind Singh as misguided patriots, Gandhiji has merely exposed his self-conceit. He was, paradoxical, as it may appear, a violent pacifist who brought untold calamities on the country in the name of truth and non-violence, while Rana Pratap, Shivaji and the Guru will remain enshrined in the hearts of their countrymen forever for the freedom they brought to them.

The accumulating provocation of thirty-two years, culminating in his last pro-Muslim fast, at last goaded me to the conclusion that the existence of Gandhi should be brought to an end immediately. Gandhi had done very well in South Africa to uphold the rights and well being of the Indian community there. But when he finally returned to India he developed a subjective mentality under which he alone was to be the final judge of what was right or wrong. If the country wanted his leadership, it had to accept his infallibility; if it did not, he would stand aloof from the Congress and carry on his own way. Against such an attitude there can be no halfway house. Either Congress had to surrender its will to his and had to be content with playing second fiddle to all his eccentricity, whimsicality, metaphysics and primitive vision, or it had to carry on without him. He alone was the Judge of everyone and everything; he was the master brain guiding the civil disobedience movement; no other could know the technique of that movement. He alone knew when to begin and when to withdraw it. The movement might succeed or fail, it might bring untold disaster and political reverses but that could make no difference to the Mahatma’s infallibility. ‘A Satyagrahi can never fail’ was his formula for declaring his own infallibility and nobody except himself knew what a Satyagrahi is.

Thus, the Mahatma became the judge and jury in his own cause. These childish insanities and obstinacies, coupled with a most severe austerity of life, ceaseless work and lofty character made Gandhi formidable and irresistible. Many people thought that his politics were irrational but they had either to withdraw from the Congress or place their intelligence at his feet to do with, as he liked. In a position of such absolute irresponsibility Gandhi was guilty of blunder after blunder, failure after failure, disaster after disaster.

Gandhi’s pro-Muslim policy is blatantly in his perverse attitude on the question of the national language of India. It is quite obvious that Hindi has the most prior claim to be accepted as the premier language. In the beginning of his career in India, Gandhi gave a great impetus to Hindi but as he found that the Muslims did not like it, he became a champion of what is called Hindustani. Everybody in India knows that there is no language called Hindustani; it has no grammar; it has no vocabulary. It is a mere dialect; it is spoken, but not written. It is a bastard tongue and crossbreed between Hindi and Urdu, and not even the Mahatma’s sophistry could make it popular. But in his desire to please the Muslims he insisted that Hindustani alone should be the national language of India. His blind followers, of course, supported him and the so-called hybrid language began to be used. The charm and purity of the Hindi language was to be prostituted to please the Muslims. All his experiments were at the expense of the Hindus.

From August 1946 onwards the private armies of the Muslim League began a massacre of the Hindus. The then Viceroy, Lord Wavell, though distressed at what was happening, would not use his powers under the Government of India Act of 1935 to prevent the rape, murder and arson. The Hindu blood began to flow from Bengal to Karachi with some retaliation by the Hindus. The Interim Government formed in September was sabotaged by its Muslim League members right from its inception, but the more they became disloyal and treasonable to the government of which they were a part, the greater was Gandhi’s infatuation for them. Lord Wavell had to resign as he could not bring about a settlement and he was succeeded by Lord Mountbatten. King Log was followed by King Stork.

The Congress, which had boasted of its nationalism and socialism, secretly accepted Pakistan literally at the point of the bayonet and abjectly surrendered to Jinnah. India was vivisected and one-third of the Indian territory became foreign land to us from August 15, 1947. Lord Mountbatten came to be described in Congress circles as the greatest Viceroy and Governor-General this country ever had. The official date for handing over power was fixed for June 30, 1948, but Mountbatten with his ruthless surgery gave us a gift of vivisected India ten months in advance. This is what Gandhi had achieved after thirty years of undisputed dictatorship and this is what Congress party calls ‘freedom’ and ‘peaceful transfer of power’. The Hindu-Muslim unity bubble was finally burst and a theocratic state was established with the consent of Nehru and his crowd and they have called ‘freedom won by them with sacrifice’ – whose sacrifice? When top leaders of Congress, with the consent of Gandhi, divided and tore the country – which we consider a deity of worship – my mind was filled with direful anger.

One of the conditions imposed by Gandhi for his breaking of the fast unto death related to the mosques in Delhi occupied by the Hindu refugees. But when Hindus in Pakistan were subjected to violent attacks he did not so much as utter a single word to protest and censure the Pakistan Government or the Muslims concerned. Gandhi was shrewd enough to know that while undertaking a fast unto death, had he imposed for its break some condition on the Muslims in Pakistan, there would have been found hardly any Muslims who could have shown some grief if the fast had ended in his death. It was for this reason that he purposely avoided imposing any condition on the Muslims. He was fully aware of from the experience that Jinnah was not at all perturbed or influenced by his fast and the Muslim League hardly attached any value to the inner voice of Gandhi.

Gandhi is being referred to as the Father of the Nation. But if that is so, he had failed his paternal duty inasmuch as he has acted very treacherously to the nation by his consenting to the partitioning of it. I stoutly maintain that Gandhi has failed in his duty. He has proved to be the Father of Pakistan. His inner-voice, his spiritual power and his doctrine of non-violence of which so much is made of, all crumbled before Jinnah’s iron will and proved to be powerless.

Briefly speaking, I thought to myself and foresaw I shall be totally ruined, and the only thing I could expect from the people would be nothing but hatred and that I shall have lost all my honour, even more valuable than my life, if I were to kill Gandhiji. But at the same time I felt that the Indian politics in the absence of Gandhiji would surely be proved practical, able to retaliate, and would be powerful with armed forces. No doubt, my own future would be totally ruined, but the nation would be saved from the inroads of Pakistan. People may even call me and dub me as devoid of any sense or foolish, but the nation would be free to follow the course founded on the reason which I consider to be necessary for sound nation-building. After having fully considered the question, I took the final decision in the matter, but I did not speak about it to anyone whatsoever. I took courage in both my hands and I did fire the shots at Gandhiji on 30th January 1948, on the prayer-grounds of Birla House.

I do say that my shots were fired at the person whose policy and action had brought rack and ruin and destruction to millions of Hindus. There was no legal machinery by which such an offender could be brought to book and for this reason I fired those fatal shots.

I bear no ill will towards anyone individually but I do say that I had no respect for the present government owing to their policy, which was unfairly favourable towards the Muslims. But at the same time I could clearly see that the policy was entirely due to the presence of Gandhi. I have to say with great regret that Prime Minister Nehru quite forgets that his preachings and deeds are at times at variances with each other when he talks about India as a secular state in season and out of season, because it is significant to note that Nehru has played a leading role in the establishment of the theocratic state of Pakistan, and his job was made easier by Gandhi’s persistent policy of appeasement towards the Muslims.

I now stand before the court to accept the full share of my responsibility for what I have done and the judge would, of course, pass against me such orders of sentence as may be considered proper. But I would like to add that I do not desire any mercy to be shown to me, nor do I wish that anyone else should beg for mercy on my behalf. My confidence about the moral side of my action has not been shaken even by the criticism levelled against it on all sides. I have no doubt that honest writers of history will weigh my act and find the true value thereof some day in future.

-NATHURAM GODSE

सत्य का आश्रय

सच-झूठ का खेल निराला है। जो है, जिसका अस्तित्व है, उसे सच कहते हैं और जो नहीं है, पर जिसके अस्तित्व को गढ़ा जाता है वह झूठ है। सच एक घटना है और झूठ विचारों का प्रवाह। घटना प्रकृति के अंत:स्थल में गहराई से अपना निशान छोड़ जाती है, जिसे कभी भी उकेरकर, उभारकर देखा-परखा और सत्यापित किया जा सकता है, परंतु झूठ मात्र विचारों का उमड़ता-घुमड़ता एक संजाल है। झूठ को प्रमाणित करना कठिन है, क्योंकि आज जिस विचार को घटना का रूप दिया गया, उसे उसी रूप में सत्यापित करना आसान नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि विचारों के प्रवाह क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। इसलिए झूठ पकड़ा जाता हैै। सच प्रकृति में घटता है तो प्रकृति-सच कहलाता है, परंतु यह जीवन में घटता है तो समूचे अस्तित्व में आंदोलन-उद्वेलना होने लगती है। पर झूठ से जीवन का अस्तित्व प्रभावित नहीं होता है, क्योंकि यह विचारों का प्रायोजित प्रवाह मात्र होता है। झूठ कृत्रिम है, प्राकृतिक नहीं। कृत्रिम है, इसलिए विनिर्मित किया जाता है। इंसान के द्वारा बनाई चीजें और प्रकृतिप्रदत्त प्राकृतिक उपहार में ऐसा अंतर होता है। जैसे कागज का पुष्प और गुलाब का पुष्प। सच जैसा घटता है वैसा ही होता है, उसे कोई और कहीं भी, वैसा ही बताएगा जैसा होता है, पर झूठ के लिए ऐसी कोई शर्तें नहीं हैं, वह समय और परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तित हो जाता है।
झूठ द्वंद्व है, झूठ मुखौटा है। इस आवरण को ओढ़े रखने में बड़ी समस्या है, पर जब आदत हो जाती है तो यह आवरण बड़ा ही डरावना, किंतु आकर्षक दिखता है। आकर्षक इसलिए कि झूठ बोलने वाला व्यक्ति बड़ी चालाकी से अपनी बातों को प्रस्तुत करता है और डरावना, इसलिए कि कहीं असलियत का पता न चल जाए। झूठा व्यक्ति स्वयं को और औरों को धोखा देता है। अपने को धोखा देने का तात्पर्य है अपने अस्तित्व को नकारना और दूसरों को ठगने का मतलब है अपनी मनगढ़ंत बातों के लिए समाज में वैसी ही भूमिका का निर्वाह करना। अंतर का उहापोह और अपनों के अविश्वास से झूठे व्यक्ति की सभी सृजनशील सामथ्र्य चुक जाती है, ऊर्जा नष्ट हो जाती है। परिस्थितिवश किसी का भला करने के लिए बोला गया झूठ भी सच के समान होता है, परंतु किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए बोला गया झूठ सच से भी बड़ा नुकसानदेह माना जाता है।

Saturday, 26 March 2016

देश की कीमत पर राजनीति

राजनीतिक दलों का यह नैसर्गिक अधिकार माना जाता है कि वे सत्ता में आने का सतत प्रयास करते रहें, आ जाने पर वहां डटे रहें और यदि जनता उन्हें सत्ताच्युत कर दे तो साम, दाम, दंड, भेद के सूत्रों को अपनाते, तोड़ते-मरोड़ते वे फिर कुर्सी हथियाने का प्रयास करें। इस प्रकार से आज की राजनीति में यह महाभारत चलता ही रहता है। इसमें सबसे अधिक प्रहार सत्य तथा नैतिकता पर ही होता है और हर ऐसे प्रयास में व्यक्तिगत और दलगत स्वार्थ लगातार उभरते रहते हैं। परिणामस्वरूप ऐसी स्थिति में देश की प्रगति तथा सामान्य जन के हित पिछड़ते जाते हैं। जिस प्रकार मई 2014 में चुनी गई सरकार के हर जनहितकारी प्रयास में मुख्य विपक्षी दल अड़ंगे लगाता रहा है वह भारत की राजनीति में गहराती जा रही व्यक्तिगत और पारिवारिक स्वार्थपरकता को पूर्णरूपेण से उजागर करता है। कांग्रेस के समक्ष दो चित्र उभरते हैं। उसे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का निर्देश है, उसका पालन करना है। दूसरा, नरेंद्र मोदी जिस लगन और निष्ठा से समाज के सबसे वंचित वर्ग की ओर ध्यान दे रहे हैं, उसका संदेश उनकी लोकप्रियता को स्थायी रूप से बढ़ा रहा है। इसका सीधा अर्थ है कि कम से कम 2024 के पहले कांग्रेस के लिए यानी राहुल गांधी का कोई भविष्य बचता ही नहीं है। यही स्थिति विपक्ष में बैठे उन सभी महत्वाकांक्षी नेताओं की हो गई है जो प्रधानमंत्री पद सुशोभित करने के लिए व्याकुल थे और तदनुसार जोड़-तोड़ की गणित में प्रवीणता हासिल कर रहे थे। आज विपक्ष तिनके का सहारा ढूंढ़ रहा है।
जिस फुर्ती से राहुल गांधी दो बार रोहित वेमुला के दर्दनाक प्रकरण में राजनीति की रोटी सेंकने हैदराबाद पहुंचे, जैसे वह तथा उनके स्वाभाविक सहयोगी जेएनयू में बिना सोचे समझे पहुंच गए उससे सारे देश के सामान्य जन में संदेश उनके विपरीत ही गया। जेएनयू में राष्ट्रविरोधी नारे खुलेआम लगे, यह तो सभी मानते हैं। कांग्रेस राष्ट्र तथा तथ्यों से कितनी दूर हो गई है, इसका उदाहरण दिग्विजय सिंह जैसे नेता तो प्रतिदिन देते ही रहते है, उसका सबसे बड़ा प्रमाण शशि थरूर ने प्रस्तुत कर दिया। उन्हें भगत सिंह तथा कन्हैया कुमार में कोई अंतर दिखाई नहीं दिया। यह मान पाना मुश्किल है कि जेएनयू में भारत की बर्बादी तक के नारे केवल बाहरी तत्वों ने ही लगाए थे और वह भी अपना चेहरा ढक कर। विपक्ष ने यह मान लिया कि जेएनयू के युवा वास्तव में भुखमरी, शोषण तथा अन्याय से आजादी मांग रहे थे, वे वंचितों तथा दलितों के लिए संघर्ष कर रहे थे और वे अंबेडकर के सपनों को पूरा करने की कसमें खा रहे थे।
आज जब गुलाम नबी आजाद या ओवैसी 'जेएनयू-जनित-आजादीÓ का अपने ढंग से विवेचन और उपयोग करते हैं तब वे भारत की आजादी पर प्रहार कर रहे होते हैं, उसके सामाजिक ताने-बाने के धागों को कमजोर कर रहे होते हैं और पारस्परिक साव की जड़ें खोद रहे होते हैं। ऐसे लोग जब बाबा साहब का नाम लेते है तब उन पर तरस ही खाया जा सकता है। जो स्थिति बनी है वह अपेक्षित ही है। इसे डॉ. अंबेडकर का संविधान सभा में दिया गया समापन भाषण सहज मगर अत्यंत गहराई से स्पष्ट कर देता है। यह भाषण ऐतिहासिक है और भारत की आज की राजनीति को समझने के लिए इसके निहितार्थ को जानना आवश्यक है। उन्होंने कहा था, 'इस संविधान की निंदा अधिकतर दो क्षेत्रों से की जाती है। साम्यवादी पक्ष द्वारा और समाजवादी पक्ष द्वारा। वे क्यों इस संविधान की निंदा करते हैं? क्या इसलिए कि यह संविधान वास्तव में खराब है? मैं यह कहने का साहस करता हूं कि नहीं है। साम्यवादी श्रमिकों की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहते हैं। वे संविधान की इस कारण निंदा करते हैं कि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। समाजवादी दो बातें चाहते हैं। पहली बात यह कि यदि उनके हाथ में शक्ति आ जाएगी तो बिना प्रतिकर दिए सारी निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण करने या समाजीकरण करने की स्वतंत्रता संविधान द्वारा उन्हें मिलनी चाहिए। दूसरी बात समाजवादी यह चाहते हैं कि संविधान में वर्णित मूलाधिकार बिना किसी परिसीमा के होने चाहिए जिससे कि यदि उनके पक्ष के हाथ में शक्ति आ जाए तो उन्हें आलोचना करने के लिए ही नहीं वरन राज्य को उलटने तक के लिए पूरी-पूरी आजादी मिल जाए।' आज आजादी के नारे लगाने वालों के साथ खड़े वामपंथी तथा समाजवादी केवल चुनावी गणित तक सीमित होकर रह गए है। वे न तो संविधान का सम्मान करते हैं न ही इन्हें दलितों तथा वंचितों के हित की कोई चिंता है। यह लोग जब डॉ. अंबेडकर का नाम लेते हैं तब यह याद करना आवश्यक है कि बाबा साहब स्वयं इन्हें कितनी गहराई से समझते थे। जब यह वर्ग अफजल या कसाब का महिमामंडन करता है तब उनका अंतर्निहित उद्देश्य तो संविधान को तहस-नहस करने का ही होता है। संविधान निर्माण के समय जो कुछ इन लोगों ने किया था उसे बाबा साहब ने झेला था। वह तो उनका अप्रतिम व्यक्तित्व था जिसके प्रभाव में इनकी दाल नहीं गली।
अंबेडकर के मर्मस्पर्शी शब्द बहुत कुछ कहते हैं, 'भारत एक स्वतंत्र देश होगा। उसकी स्वाधीनता का क्या परिणाम होगा? क्या वह अपनी स्वाधीनता की रक्षा कर सकेगा या उसको फिर खो देगा?' इसी भाषण में आगे डॉ. अंबेडकर अपनी इस आशंका के पैदा होने के ऐतिहासिक कारणों का विश्लेषण करते हैं। यह विश्लेषण आज के अनेक नेताओं का मार्गदर्शन कर सकता है बशर्ते वे ईमानदारी से इसमें निहित मंतव्य को समझने और आत्मसात करने का प्रयत्न करें। डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि लोकतंत्र को यथार्थ रूप देने के लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हम संविधानिक रीतियों को दृढ़तापूर्वक अपनाएं। भारत में इस समय यही सर्वोत्तम तथा सर्वमान्य मार्ग है।

Friday, 25 March 2016

देशद्रोहियों के प्रति सहानुभूति और देशभक्तों के प्रति नफरत क्यों ?

एक देशद्रोही के जमानत पर छूटने पर उसका हीरो की तरह स्वागत करने वाले लोगों की आखिर मंशा क्या थी ? उस लड़के से लम्बा चौड़ा भाषण क्यों दिलाया ? उसे राष्ट्रीय नायक बनाने की हिमाकत क्यों की ? परन्तु जब उसने भारतीय सेना के जवानों को बलात्कारी कहा, तब उनकी जबान से उस लड़के को चुप्प रहने की नसीहते क्यों नहीं निकली ? जब यह समझ आ गया कि यह लड़का किसी प्रलोभन से ऐसा कर रहा है, तब संसद में यह प्रश्न क्यों नहीं उठाया कि इसकी जांच की जाय कि कहीं यह देश का गद्दार तो नहीं है ? कहीं इसे धन दे कर देश के दुश्मनों ने खरीद तो नहीं लिया है ? आखिर कब तक राहुल, केजरीवाल, वामपंथी और पूरी सेकुलर बिरादरी मोदी विरोध के नाम पर देश को गर्त में डूबोने का सपना देखने वालों का समर्थन करते रहेंगे ?
देशद्रोहियों के बारें में कुछ भी बोलने से सेकुलर बिरादरी की जबान क्यों कांपती है ? उन्हें देशभक्तों से चिढ़ क्यों है ? उनके विचारों में भारत में रह कर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाना, अभिव्यक्ति की आज़ादी हैं, किन्तु इसका विरोध करना विकृत देशभक्ति है। फासिस्टवाद है। इसीलिए दुनियां में शांति, भर्इचारा और मानव समाज को प्रेम और संगीत से बांधने के लिए कोर्इ संत सांस्कृतिक कार्यक्रम करता है तब वे संसद में चीख उठते हैं- ‘उस आदमी को रोको ! वह कानून तोड़ रहा है, उसे जेल भेजो !!” दुनिया के एक सौ पचपन देश जिस सांस्कृतिक आयोजन में भाग ले रहें हैं, उसे रोकने के लिए और संत को बदनाम करने के लिए सारे सेकुलर दल एक क्यों हो गये ? भारतीय संस्कृति और आध्यात्म के प्रति तिरस्कार और नफरत, वोटबैंक को तुष्ट करने की विवशता है या भारतीयों को अपमानित करने की धृष्टता ? हर बात पर संतो को कटघरें में खड़े करने की एक परम्परा बन गर्इ है, जो वैचारिक दिवालियापन और कलुषित मानसिकता की द्योतक है।
ओासामा जी और अफजल जी कह कर संबोधित करने वालों को एक संत के नाम के आगे श्री लगाने से शर्म आती है। क्योंकि संत संसार को कुटम्ब मान कर पूरी मानव जाति को शांति और प्रेम से बांधने का संदेश दे रहा हैं। परन्तु ऐसा करने के लिए उन्होंने भारतीय संस्कृति और आध्यात्म को चुना है। यही उनका सब से बड़ा अपराध है। इस देश में ऐसा कोर्इ काम करना और कार्यक्रम करना उनकी नज़र में अपराध माना जाता है, जिससे उनकी धर्मनिरपेक्षता पर आघात पहुंचता है। अपने वोटबैंक के नाराज होने का अंदेशा नज़र आता है। सम्भवत: इसीलिए भारतीय सेना को बलात्कारी बताने वाले के विरुद्व वे संसद में कोर्इ प्रश्न नहीं उठाते, परन्तु श्री श्री के सांस्कृतिक आयोजन पर शोर मचाते हैं। यह भारतीयों की महानता है कि ऐसे निकृष्टतम चरित्र के राजनेताओं और पत्रकारों को बर्दाश्त किया जा रहा है। यह हमारी सहिष्णुता की पराकाष्ठा है, जिसे सेकुलर बिरादरी हमारी दुर्बलता समझ रही है।
धर्मनिरपेक्ष बिरादरी को लग रहा है कि वेद मंत्रों के उच्चारण से जमुना का पानी प्रदुषित हो जायेगा। संगीत वाद्यों की स्वर लहरी से हवा में जहर भर जायेगा। भारतीय संस्कृति के गुणगाण से चारों और गंदगी छितरा जायेगी। उन्हें ऐसी आशंका है कि विश्व को प्रेम और भार्इचारे से जोड़ने की मुहिम से भारत टूट जायेगा। जो भारत में घटित हो रही हर घटना को मजहबी चश्मे से देखते हैं और रात दिन अपने वोट बैंक को तुष्ट करने में लगे रहते हैं, ऐसे दोगले चरित्र के राजनेताओं को हम कब तक राजनीति में स्थापित करते रहेंगे ? आखिर कब तक हम उन्हें संसद की गरिमामय सीट पर बिठाते रहेंगे ? कब तक इस देश में दुश्मनों की घृणित योजनाओं से जुड़े पत्रकारों को सम्मान मिलता रहेगा ? कब तक भारत में भारत विरोधी टीवी चेनल दुष्प्रपचार करते रहेंगे और हम उन्हें बर्दाश्त करते रहेंगे ?
भारतीय समाज की सहिष्णुता की बहुत परीक्षा हो चुकी। अब और ज्यादा सहने की क्षमता हमारी नहीं है। हम उन्हें सुनते-सुनते थक चुके हैं। अब हमारी सब्र का बांध टूट रहा है। हम भारतीय गरीब हैं, पिछड़े हैं, पर इतने मूर्ख नहीं, जितना हमे समझा जा रहा है। हम जानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का नारा लगा कर भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति नफरत क्यों फैलार्इ जाती है ? हम जानते हैं कि भारत के टूकड़े-टूकड़े करने वालों को हीरो क्यों बनाया जा रहा है ? भारतीय संसद को बमों से उड़ा कर भारतीय लोकतंत्र को ध्वस्त करने का षड़यंत्र रचने वाले अपराधी की बरसी क्यों मनार्इ जाती है ? हम जानते हैं कि देशद्रोह के अपराध में जेल गया अपराधी जब सशर्त जमानता पर छोड़ा जाता है, तब उसका सम्मान क्यों किया जाता है ?
सत्ता खोने के बाद पुन: सत्तासीन होने के लिए जो लोग देश के दुश्मनों के साथ मिल कर अपराधिक षड़यंत्र रच रहे हैं, उनकी नीति और नीयत हम भारतीय समझ चुके हैं। जिन्हें देश के जवानों की शहादत में खोट दिखार्इ दे रही है, ऐसे देशद्रोहियों की हमे पहचान हो गर्इ है। ऐसे लोग किसी भी दल से जुड़े राजनेता हों, टीवी चेनलों के मालिक हों या पत्रकार हों, उनसे भारत की जनता सवाल-तलब करेगी। हम इन सभी लोगों का सामुहिक तिरस्कार करेंगे। जो घृणा के पात्र हैं, वे सम्मान के अधिकारी नहीं है। अत: हमारे लिए यह जरुरी है कि देशद्रोहियों की मदद करने वाले और उनके समर्थन में बोलने वाले राजनेताओं और राजनीतिक दलों का कभी समथ्रर्न नहीं करें। उन टीवी चेनलों को नहीं देखें, पत्रकारों की बात को नहीं सुने और पढ़े जो देशद्रोहियों को हीरो बना कर उनके पक्ष में प्रचार करते हैं और भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध दुष्प्रचार करते हैं। इस देश के करोड़ो नागरिक चंद लोगों को भारत में रह कर भारतीयों के विरुद्ध घृणा फैलाने की अनुमति नहीं देंगे। भारतीय संस्कृति और उसके मूल्यों का अपमान पूरे देश का अपमान हैं, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
देशद्रोहियों के प्रति सहानुभूति और देशभक्तों के प्रति नफरत क्यों ?

Thursday, 24 March 2016

मोदी विरोधी के नाम पर देशद्रोह स्वीकार्य नहीं

नरेन्द्र मोदी बुलेट से नहीं, बैलेट की ताकत से भारत के प्रधानमंत्री बने हैं। लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री का विरोध जायज है, किन्तु उनके विरोध के बहाने देशद्रोह स्वीकार्य नहीं है। एक सौ पच्चीस करोड़ की आबादी में पांच -दस सिरफिरे कुछ बक दें, वह पूरे राष्ट्र की आवाज़ नहीं होती। टीवी चेनलों के प्रचार से कोर्इ व्यक्ति राष्ट्र का हीरो नहीं बन सकता। हीरो बनने के लिए उसे जनता के दिलो में उतरना पड़ता है। राहुल और केजरीवाल यदि मोदी के विरोध के नाम पर देश के दुश्मनों से मिल कर सियासी षड़यंत्र रचते रहेंगे और ऐसा करने पर भारत की जनता उन्हें सत्ता सौंप देगी, यह सम्भव नहीं हैं। वामपंथी लुप्त होने के कगार पर है, परन्तु कन्हैया को हीरो बनने से उनका अस्तित्व बच जायेगा, यह भी सम्भव नहीं है।
गैर मुस्लिम और गैर कश्मीरी छात्रों से कश्मीर की आज़ादी का नारा लगाना, पाकिस्तानी सेना और आर्इएसआर्इ द्वारा रची गर्इ गहरी साजिश का एक भाग था। दुश्मनों ने अब धनबल से भारतीयों की बुद्धि भ्रष्ट करने की एक नर्इ रणनीति पर काम करना आरम्भ कर दिया है। परन्तु दुखद तथ्य यह है कि भारत की बर्बादी और टुकड़े- टुकड़े करने वाली जमात के साथ राहुल और केजरीवाल क्यों खड़े हुए ? आर्इएसआर्इ की शह से छेड़े गये देशद्रोह के सुर के साथ अपना सुर क्यों जोड़ा ? क्या राहुल गांधी मोदी विरोध के नाम पर देश की अस्मत के साथ सौदा करना चाहते हैं ? क्या अरविंद केजरीवाल पाकिस्तानी घोड़े पर बैठ कर भारत फतह का ख्वाब देख रहे हैं ?
राजनेताओं, पत्रकारों और नकली साहित्यकारों की एक गैंग भारत की सियासत में जहर घोल रही है। इस गैंग की सरगना पाकिस्तानी सेना और आर्इ एस आर्इ है। यह वही गैंग है, जिसने बम्बर्इ बम विस्फोट के गुनहगार की फांसी रुकवाने के लिए राष्ट्रपति से गुहार की थी। आधी रात को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। जिन लोगों ने फांसी रुकवाने की दया याचिका पर हस्ताक्षर किये थे, वे सभी इस गैंग के सक्रिय सदस्य है। इसी गैंग ने आज देशभक्ति और देशद्रोह पर अनावश्यक बहस छेड़ रखी है। इसी गैंग ने दादरी प्रकरण को अतिरंजित रुप से देश के सामने रखा था। असहिष्णुता का नारा उछाला था। अभिव्यक्ति की आज़ादी मांगी थी। नकली साहित्यकारों ने पुरुष्कार लौटाने का ड्रामा किया था। मकसद था- मुस्लिम समुदाय के समक्ष मोदी सरकार को कट्टर हिन्दुओं की सरकार बताना, ताकि भाजपा बिहार चुनाव हार जाय। पाकिस्तानी सेना और आर्इएसआर्इ के साथ मिल कर रचे सियासी षड़यंत्र के सफल रहने पर गैंग गदगद हो गर्इ। भविष्य में नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय खलनायक बनाने की रणनीति पर काम प्रारम्भ हो गया।
अब जब कि उस नालायक लड़के की जबान पर बैठ कर आर्इएसआर्इ ने भारतीय सेना को बलात्कारी बताया है, तब उसकी जबान से निकली बात पर पूरी गैंग खामोश क्यों हैं ? भारतीय सेना का अपमान, राष्ट्र का अपमान है। यह सौ प्रतिशत देशद्रोह है। यह अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं, पैसे ले कर बिके एक गद्दार की आवाज़ है। ऐसे गिरे हुए शख्स को जो राष्ट्रीय हीरो बनाने का प्रयास कर रहे हैं, वे जानबूझ कर अक्षम्य अपराध कर रहे है, जिसे क्षमा नहीं किया जा सकता। इस समय हमे देशद्रोह और देशभक्ति पर निरर्थक बहस की जरुरत नहीं है। विकास की ऐसी योजनाओं पर बहस करने की आवश्यकता है, जिससे देश में रह रहे करोड़ो लोगों का जीवन स्तर सुध सके। उन्हें अपनी समस्याओं से निज़ात मिले। अनावश्यक बहस और विवाद खड़े कर जो राष्ट्र का ध्यान भटकाना चाहते हैं, वे दरअसल सरकार के कामों में रोड़े अटका रहे हैं, ताकि देश का विकास अवरुद्ध हो जाय।
एक शक्तिशाली नेतृत्व के प्रभाव से भारत जुड़ रहा है, टूट नहीं रहा है। भारत बर्बाद नहीं हो रहा है, खुशहाली की डगर पर आगे बढ़ रहा है। परन्तु जो इसके टुटने और बर्बादी के नारे लगा रहे हैं, उन्हें पहले पाकिस्तान की हालत देख लेनी चाहिये। पाकिस्तान के अनेक भागों में सेना के विरुद्ध विद्रोह की आग भभक रही है। सेना नागरिकों को प्रताड़ित कर रही है। उनकी आवाज दबा रही है। पाकिस्तानी जनता के मन में यह बात बैठ रही है कि हमारे देश को भी नरेन्द्र मोदी जैसा शक्तिशाली प्रधानमंत्री चाहिये। हमे सेना के नियंत्रण से मुक्त लोकतंत्र चाहिये। बमों के धमाकों से क्षतविक्षत इंसानों को देख कर उनकी रुह कांप रही है। वे भी ऐसे गुनहगारों से मुक्त खुला और आज़ाद पाकिस्तान चाहते हैं, जिसमें सुकून से रहने का अहसास हो। भारतीयों के प्रति नफरत का राग सुनते-सुनते पाकिस्तानी जनता वह थक गर्इ है। अब इस गौरखधंधे से वह तौबा चाहती हैं।
पाकिस्तानी सेना नरेन्द्र मोदी को पसंद नहीं करती, क्योंकि मोदी की ताकत से पाकिस्तान के टुटने और बिखरे की आशंका गहरी होती जा रही है। वह जानती है कि नागरिकों का दमन कर उसकी आवाज़ को अधिक दिनों तक दबा नहीं सकती। इसीलिए सेना भारत में ऐसी हरकते कर रही है और करवा रही है, ताकि पाकिस्तानी आवाम का ध्यान बांटा जा सके और उसे यह समझाया जा सके कि भारत में भी हालात ज्यादा ठीक नहीं है। नरेन्द्र मोदी की सरकार कट्टर हिंदूवादी सोच की सरकार है, जिसे भारत की जनता पसंद नहीं करती। भारत की जनता भी कश्मीर की आज़ादी चाहती है और सारे सेकुलर दल नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद से हटाना चाहते हैं। पाकिस्तान में बैठे अतिवादी तत्व भयभीत हैं, क्योंकि मोदी ज्यादा दिनों तक भारत के प्रधानमंत्री बने रहे, तो कभी भी उनके गले में फांसी का फंदा पड़ सकता है। यही कारण है कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पाकिस्तानी सेना ने दहशतगर्दी तेज कर दी है। पाकिस्तानी सेना, अतिवादी तत्व और भारत की सेकुलर गैंग मिल कर भारत में सियासी षड़यंत्र रच रही है। सभी नरेन्द्र मोदी की बढ़ती ताकत से अपने अस्तित्व को बचाना चाहते हैं, इसीलिए मिल कर काम कर रहे हैं।
आर्इएसआर्इ की परोक्ष सहायता से ही अरविंद केजरीवाल की ऐतिहासिक जीत हुर्इ। दिल्ली में आर्इएसआर्इ के भ्रामक प्रचार के कारण लगभग शतप्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने भाजपा के विरोध में वोट डाले। यही इतिहास बिहार में दोहराया गया, जिसे अगले विधानसभा के चुनावों में दोहराये जाने की सम्भावना है। मोदी विरोध के नाम पर सेकुर गैंग दुश्मनों के साथ मिल कर षड़यंत्र रचने को देशद्रोह नहीं मानती। इनके विचारों से नरेन्द्र मोदी और आरएसएस का विरोध करना देशभक्ति है। निश्चय ही लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी गर्इ सरकार की नीतियों की आलोचना करने का अधिकार जनता को है, किन्तु इसी बहाने देशद्रोही ताकतों को अपने मकसद में कामयाब होने की छूट नहीं दी जा सकती।
मोदी विरोधी के नाम पर देशद्रोह स्वीकार्य नहीं

Tuesday, 22 March 2016

मानव-धर्म

आज का मानव जीवन में आनंद की खोज में है, लेकिन वह आनंद भी क्षणिक होता है। कारण साफ है कि वह ज्योतिर्मय नहीं है। विवेक है, परंतु आत्ममय नहीं है। बुद्धिजीवी है, परंतु बोधितत्व को प्राप्त नहीं। आज मानवता कहां जा रही है, किसी को पता नहीं। इस संसार को देखकर स्वयं परमात्मा हंसता होगा, क्योंकि इस सुंदर संसार और मनुष्य को बनाते समय शायद उसने कभी नहीं सोचा होगा कि मेरी कृति इतनी भयावह हो जाएगी। उसने तो हमारे मूल स्वभाव में प्रेम करुणा, दया और सेवा जैसे सद्गुणों का बीज आरोपित किया था, लेकिन हमने अपने आपको कहीं और लाकर खड़ा कर दिया है।
राम, कृष्ण, वशिष्ठ, बुद्ध, महावीर, नानक, शंकराचार्य, मूसा, पैगंबर ने मानवता का संदेश दिया था। विश्व बंधुत्व को जगाया था, परंतु अफसोस आज उन्हीं के कुछ अनुयायियों ने धर्म को सांप्रदायिक रूप देकर मानव को मानव से संघर्ष करना सिखा दिया है। धर्म भी एक व्यवस्था बन गया है। धर्म संस्थागत नियमों में बंध गया है। धर्म के नाम पर कुछ लोगों ने शोषण प्रारंभ कर दिया है। इस अवस्था में आज का मानव शांतिप्रिय होकर जीवन को आनंदपूर्ण बनाकर कैसे गुजार सकता है? आज समाज के रूढि़वादी परंपराओं और भिन्न-भिन्न धर्मों के सांप्रदायिक प्रचारकों के बीच मानवता को संरक्षण दे पाना बड़ा ही कठिन नजर आ रहा है। मानवता ही मानव का धर्म है। इसे आज जानने और समझने की नितांत आवश्यकता है। बहती नदियां, लहराता पवन और पेड़-पौधे, ये प्रकृति का संदेश देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। परमात्मा की यह अनुपम कृति मानव के लिए ही तो है। क्या आज का मानव इसे भुलाकर, मिटाकर अपना अस्तित्व कायम रख सकता है? कदापि नहीं। हममें हर एक को आज संकल्प लेने की जरूरत है कि मानवता रूपी सागर में मनुष्य रूपी पथिक को प्रेरणा का स्रोत बनकर बहते जाना है। तभी समाज का कल्याण संभव होगा। तभी मानवता का पोषण हो सकता है।
हमें अपने आपको सीमित दायरे से बाहर निकालकर एक दूसरे के मनोभाव को समझते हुए सम्मान देना होगा। परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का बोध करना होगा। मानव को केवल मानवता के साथ जीवित रहना होगा।

Monday, 14 March 2016

हिन्दुत्व का लक्ष्य पुरुषार्थ है

हिन्दू धर्म में पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ अर्थात मानव को क्या प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। प्रायः मनुष्य के लिये वेदों में चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। 


पुरुषार्थ का अर्थ 
धर्म का मतलब सदाचरण है। अर्थ का मतलब धनोपार्जन। काम का मतलब विवाह, काम, प्रेम आदि। और मोक्ष का मतलब होता है मुक्ति पाना व आत्म दर्शन। धर्म का ज्ञान होना जरूरी है तभी कार्य में कुशलता आती है कार्य कुशलता से ही व्यक्ति जीवन में अर्थ या जीवन जीने के लिए धन अर्जित कर पाता है। काम और अर्थ से इस संसार को भोगते हुए इन्सान को मोक्ष की कामना करनी चाहिए। 

मध्य मार्ग का अर्थ 
इसी प्रकार हिन्दू धर्म की दृष्टि में मध्य मार्ग ही सर्वोत्तम है। हिन्दुत्व धर्म में गृहस्थ जीवन ही परम आदर्श है और संन्यासी का अर्थ है सांसारिक कार्यों व सम्पत्ति की देखभाल एक दासी के रूप में करना। अकर्मण्यता, गृह-त्याग या पलायनवाद का संन्यास से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है। आजीवन ब्रह्मचर्य भी हिन्दुत्व का आदर्श नहीं है क्योंकि हिंदुत्व धर्म में काम पुरुषार्थ का एक अंग है। मनुष्य को गृहस्थ रहते हुए भी अपने आचरण व व्यवहार में ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

Friday, 11 March 2016

विरोधियों के षड़यंत्रों से घिरी मोदी सरकार


मोदी सरकार भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की पहली ऐसी सरकार है, जिसके पास पूर्ण बहुमत है, किन्तु संवैधानिक कार्य करने के लिए बेबस है। सरकार बनने के पहले ही दिन से सरकार के विरुद्ध षड़यंत्रो का दौर आरम्भ हो गया, जो अब दिन प्रति दिन आक्रामक होता जा रहा है। सत्ता षड़यंत्रों के नित नये नाटकों का मंचन हो रहा है। जो सत्ता सुख भोग रहे थे और भारत की सत्ता से भरपूर सुविधाएं जुटा रहे थे, वे मोदी सरकार बनते ही बैचेन हो गये, क्योंकि उन्हें केन्द्र में बहुमत वाली गैर कांग्रेसी सरकार नहीं चाहिये, जिसे ब्लैकमेल नहीं किया जा सके, गिराया नहीं जा सके।
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाभ मुट्ठी भर लोग भरपूर लाभ उठाते रहे हैं। कांग्रेसी सरकारे उनके लिए सुविधाजनक थी, क्योंकि स्वयं भी खाती थी और उन्हें भी खाने की छूट देती थी। इन सभी लोगों की हसरतों पर नरेन्द्र मोदी की आंधी ने तुषारापात कर दिया। कांग्रेस लोकसभा में सिमट गर्इ, और कर्इ राज्यों में लुप्त हो गर्इ। कांग्रेस के साथ सहयोग और विरोध का खेल खेल कर सत्ता का भरपूर लुत्प उठा रहे क्षत्रप आंधी के प्रबल वेग से उड़ गये। नि:संदेह भारत की राजनीति में उभरे नरेन्द्र मोदी उनके प्रबल शत्रु बन गये थे। वे इस आंशका से भयग्रस्त हो गये थे कि यदि इस व्यक्ति का प्रभाव बढ़ता ही गया तो हमारे राजनीतिक भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग जायेगा।
भारत की राजनीति में मोदी के बढ़ते प्रभाव से कांग्रेसी और प्रादेशिक क्षत्रप तो सदमें मे थे ही पर पर्दे के पीछे बैठ कर सत्ता का लाभ उठा रहे कर्इ ऐसे तत्व भी बैचेन हो गये, जिनके लिए मोदी सुविधाजनक नहीं थे और उन्हें लग रहा था कि यह व्यक्ति यदि भारत की राजनीति में छाया रहा तो निश्चित रुप से उनके हितो पर चोट करेगा। यही कारण है कि मोदी विरोधियों की संख्या में निरन्तर इजाफा होता रहा और आज ऐसा लग रहा है कि सभी एक हो कर मोदी सरकार के विरुद्ध मोर्चाबंदी कर ली है।
नरेन्द्र मोदी के प्रबल विरोधी राहुल और केजरीवाल है, जो फ्रंट पर खड़े हैं। इनके पीछे वामपंथी और प्रादेशिक क्षत्रप खड़े हैं, किन्तु इनका वित्तीय मदद दे कर हौंसला बढ़ाने वाले अनजान लोग हैं, जो सामने नहीं आते, किन्तु नरेन्द्र मोदी सरकार को हटाने के लिए पूरी तरह कमर कसे हुए हैं। एक रणनीति के तहत कांग्रे्रस केजरीवाल षड़यंत्र का शुभारम्भ करते हैं और अन्य शक्तियां उसमें अपनी भागीदार निभाने के लिए सक्रिय हो जाती है।
पर्दे के पीछे खड़े हो कर राहुल, केजरीवाल, वामपंथियों और प्रादेशिक क्षत्रपों को मदद करने वाले लोग हैं- भारत में नशे और आतंक से अरबो कमाने वाली पाकिस्तानी सेना और उनकी सहायक संस्था आर्इएसआर्इ, क्रॉनी केपिटलिस्ट, भारत में व्यापार कर भरपूर मुनाफा बटोरने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, रक्षा सौदों के दलाल, विदेशी मालिकों के टीवी चेनल, बिके हुए पत्रकार, सरकारी कृपा से गदगद बुद्धिजीवी सब्सिडी की बंदरबाट में लगा सरकारी तंत्र प्रमुख है। मोदी विरोधी शक्तियों का एक ही लक्ष्य है-2019 के लोकसभा चुनावों में नरेद्र मोदी को सत्ता से बाहर करना, ताकि भारत को लूटने का क्रम फिर जारी हो जाय। अपनी रणनीति के तहत मोदी सरकार को मुस्लिम और दलित विरोधी, किसान,मजदूर और छात्र विरोधी साबित करने में लगे हैं, ताकि भारत के मतदाताओं से नरेन्द्र मोदी का मोहभंग किया जा सके। ये सारे मिल कर किस तरह षड़यंत्र खेलते है, उसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है:-
भारत में एक प्रतिशत से कम आर्इएसआर्इ के लिए काम कर रहे लोग हैं, जिनके पास हवाला के तहत धन पहुंचता है, जो जानबूझ कर ऐसे कृत्य करते हैं, जिससे हिन्दू संगठन उतेजित हो जाते हैं और उनके नेता विवादास्पद बयान दे देते हैं। जैसे ही बयान आते हैं विदेशी मीड़िया बात का बतंगड़ बनाना प्रारम्भ कर देता है। चेनल अल्पसंख्यक समुदाय को भयभीत करने के लिए कर्इ तरह के प्रपोगंड़ा करने लग जाते हैं। इसके साथ ही धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों की आक्रामक बयानबाजी आने लगती है। तिल का ताड़ बन जाता है। नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार को दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है। संसद में हंगामा किया जाता है, जिससे पूरे देश का मुस्लिम समाज यह समझे कि मोदी सरकार के शासन में वे असुरक्षित है।
दादरी में अनजान व्यक्तियों ने अफवाह उड़ा कर लोगो को उतेजित किया। उतेजित भीड़ अलताफ के घर तक पहुंच गर्इ, इसकी जानकारी प्रशासन को थी, किन्तु पुलिस जानबूझ कर मूक दर्शक बन खड़ी रही। दुखद घटना के घटित होने के तुरन्त बाद केजरीवाल और राहुल पहुंच गये और मीडिया के साथ मिल कर घटना का अन्तरराष्ट्रीयकरण कर दिया। मोदी सरकार को दोषी बताने के लिए मीडिया ने हिन्दू संगठन के नेताओं से बयान दिलाये, जिसका खूब बतंगड़ किया गया। आज तक इस बात की जानकारी राष्ट्र को नहीं मिली कि अफवाहें किसने उड़ार्इ और प्रशासन क्यों निष्क्रिय रहा ?
हरियाणा के एक दलित परिवार के बच्चों को जिंदा जलाने के प्रकरण को भी खूब उछाला ताकि मोदी सरकार को दलित विरोधी बताया जा सके। परन्तु जब जांच से यह तथ्य सामने आया कि दुर्घटना घरेलु हिंसा का परिणाम थी, तब सभी मौन हो गये। इसी तरह हैदराबाद के छात्र रोहित वेलुला ने आत्महत्या क्यों कि इसकी जांच रिपोर्ट आने के पहले ही इतना तूफान खड़ा कर दिया कि आत्महत्या का कारण दलित उत्पीड़न है। जबकि उत्तरप्रदेश के कस्बे में एक परिवार के सदस्यों को दबंगों ने नंगा कर घुमाया, जिसका प्रसारण टीवी चेनलों ने दिखाया था। सोशल मीडिया में दलितो की नंगी तस्वीरें वायरल हुर्इ थी, परन्तु राहुल और केजरीवाल ने इस घटना पर एक शब्द नहीं कहा। ये सारे मिल कर उसी घटना पर अधिक शोर मचाते हैं, जिससे नरेन्द्र मोदी को बदनाम किया जा सके।
इन दिनों जेएनयू घटनाक्रम को सभी मोदी विरोधी मिल कर खूब उछाल रहे हैं ताकि मोदी सरकार को दलितों के साथ-साथ छात्र विरोधी भी साबित किया जा सके। मोदी विरोधियों के षड़यंत्र निरन्तर सफल हो रहे हैं। एक नाटक के समाप्त होते ही दूसरा प्रारम्भ हो जाता है। लगता है 2019 के आने तक ऐसे कर्इ नाटकों का मंचन होता रहेगा। इन नाटकों को मंचन करने वाले राहुल केजरीवाल और उनके पीछे खड़ी ताकते इसी तरह अपने घृणित षड़यंत्रों में सफल होती रही तो राष्ट्र एक दुष्चक्र में फंस जायेगा।
प्रत्येक नाटकीय घटना के घटित होने के बाद भाजपा समर्थक उतेजित बयानबाजी करने लग जाते हैं, जिससे विरोधियों के नाटक सफल हो जाते है। जब तक मोदी सरकार अपने विरोधियों की कमजोर नब्ज को नहीं दबायेगी, तब तक इनकी उच्छखृलता बढ़ती जायेगी। सरकार पूर्ण प्रतिबद्धता, र्इमानदारी और निष्ठा से काम कर रही है, किन्तु राहुल केजरीवाल और उनके पीछे खड़े षड़यंत्रकारियों से निपटने के लिए सार्थक नीति नही अपनायेगी- दिल्ली और बिहार विधानसभा के चुनावों की तरह अन्य चुनाव भी हारती रहेगी।

Wednesday, 9 March 2016

अश्वगंधा:बलवर्धक एवं वात रोगों की विशेष औषधि

अश्वगंधा, कहने को तो एक जंगली पौधा है किंतु औषधीय गुणों से भरपूर है। इसे आयुर्वेद में विशेष महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है अश्व अर्थात् घोड़ा, गंध अर्थात् बू अर्थात् घोड़े जैसी गंध।
अश्व गंधा के कच्चे मूल से अश्व के समान गंध आती है इसलिए इसका नाम अश्वगंधा रखा गया। इसे असगंध बराहकर्णी, आसंघ आदि नामों से भी जाना जाता है। अंग्रेजी में इसे बिटर चेरी कहते हैं। यह सारे भारत में पाया जाता है, पर पश्चिम मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले तथा नागौर (राजस्थान) की अश्वगंधा प्रसिद्ध व गुणकारी है। इसका झाड़ीदार क्षुप लगभग 2 से 4 फुट बहुशाखा युक्त होता है। पत्ते सफेद रोमयुक्त अखंडित अंडाकार होते हैं। फूल पीला हरापन लिए चिलम के आकार के होते हैं एवं शरद ऋतु में निकलते हैं। फल गोलाकार रसभरी के फलों के समान होेते हैं। फल के अंदर कटेरी के बीजों के समान पीत-श्वेत असंख्य बीज होते हैं। इसका मूल ही प्रयुक्त होता है, जिसे जाड़े में निकालकर छाया में सूखाकर सूखे स्थान पर रखा जाता है। बरसात में इसके बीज बोए जाते हैं।
जड़ी-बूटियों की दुकान या पंसारी की दुकान से मिलने वाले शुष्क जड़ छोटे-बड़े टुकड़ों के रूप में मिलती है। यह प्रायः खेती किए हुए पौधे की जड़ होती है। जंगली पौधे की अपेक्षा इनमें स्टार्च आदि अधिक होता है। आंतरिक प्रयोग के लिए खेती वाले पौधे की जड़ तथा लेप आदि जंगली पौधे की जड़ से ठीक रहती है।
अश्वगंधा एक बलवर्धक रसायन है। इसके इस सामथ्र्य के चिर पुरातन से लेकर अब तक सभी चिकित्सकों ने सराहना की है। आचार्य चरक ने असगंध को उत्कृष्ट बल्य माना है।
सुश्रुत के अनुसार यह औषधि किसी भी प्रकार की दुर्बलता कृशता में गुणकारी है। पुष्टि-बलवर्धन की इससे श्रेष्ठ औषधि आयुर्वेद के विद्व ान कोई और नहीं मानते। चक्रदत्त के अनुसार अश्वगंधा का चूर्ण 15 दिन दूध, घृत अथवा तेल या जल से लेने पर बालक का शरीर पुष्ट होता है। अश्वगंधा की प्रशंसा में विद्वानों का मत है कि जिस तरह वर्षा होने पर सुखी जमीन भी हरी हो जाती है और फसलों की पुष्टि होती है वैसे ही इसके सेवन से कमजोर, मुरझाये शरीर भी पुष्ट हो जाते हैं। यही नहीं सर्द ऋतु में कोई वृद्ध इसका एक माह भी सेवन करता है, तो इसके लिए बहुत फायदेमंद होता है।
यह औषधि मूलतः कफ-वात शामक, बलवर्धक रसायन है। अश्वगंधा को सभी प्रकार के जीर्ण रोगों, क्षय शोथ आदि के लिए श्रेष्ठ द्रव्य माना गया है। यह शरीर धातुओं की वृद्धि करती है एवं मांस मज्जा का शोधन करती है। मेधावर्द्धक तथा मस्तिष्क के लिए तनाव शामक भी। मूर्छा, अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, शोध विकार, श्वास रोग, शुक्र दौर्बल्य, कुष्ठ सभी में समान रूप से लाभकारी है। यह एक प्रकार के कामोत्तेजक की भूमिका निभाती है परंतु इसका कोई अवांछनीय प्रभाव शरीर पर नहीं देखा गया है। यह ज़रा नाशक है। एजिंग को यह रोकती है व आयु बढ़ाती है।
एक शोध से पता चला है कि अश्वगंधा की जड़ में कुछ ऐसे तत्व भी हैं जिसमें कैंसर के ट्यूमर की वृद्धि को रोकने की पर्याप्त क्षमता होती है। इस जड के जलीय एवं अल्कोहलिक फाॅर्मूला का शरीर पर कम विषैला प्रभाव पड़ता है एवं उसमंे ट्यूमर विरोधी गुण प्रबल रूप से पाए जाते हैं। ऐसी प्रबल संभावना है कि अश्वगंधा कैंसर से छुटकारा दिलाने में बहुत सहायक है।
यदि अश्वगंधा का सेवन लगातार एक वर्ष तक नियमित रूप से किया जाए तो शरीर से सारे विकार बाहर निकल जाते हैं। समग्र शोधन होकर दुर्बलता दूर हो जाती है व जीवन शक्ति बढ़ती है। सर्दी में इसका सेवन विशेष लाभकारी है।
यूनानी में अश्वगंधा को वहमनेवरों के नाम से लाना जाता है। हब्ब असगंध इसका प्रसिद्ध योग है। इसका गुण बाजीकरण, बलवर्धन, शुक्र, वीर्य पुष्टिकर है। महिलाओं को प्रसवोपरांत देने से बल प्रदान करता है।
अश्वगंधा शरीर में सात्मीकरन लाकर जीवनी शक्ति बढ़ाने तथा शक्ति देेने वाले कायाकल्प के लिए चिर प्रचलित रसायन है। यह शरीर के सारे संस्थानों पर क्रियाशील माना गया है।

विभिन्न रोगों में अश्वगंधा का उपयोग

आयुर्वेद में विस्तृत उल्लेख प्राप्त है। उष्ण वीर्य एवं मधुर विपाक वाला यह पौधा वात, कफ शामक तथा नाड़ी बल्य, दीपन, बृहण एवं श्रेष्ठ वाजीकरण होता है। विभिन्न रोगों में इसका अन्य सहयोगी औषधियों के साथ प्रयोग:

वात विकार

अश्वगंधा चूर्ण दो भाग, सोंठ एक भाग तथा मिश्री तीन भाग अनुपात में मिलाकर सुबह-शाम भोजनोपरांत गर्म जल से सेवन करें। यह अनुप्रयोग आमवात संधिवात, निबंध, गैस तथा उदर के अन्यान्य विकारों में लाभप्रद पाया जाता है।

सूखा रोग

सूखा रोग से ग्रस्त बालक को इसका क्षीर पाक सेवन कराएं। स्वाद की वजह से बच्चा अरूचि दिखाए, तो अश्वगंधा चूर्ण 250 मि. ग्राम भीेगे हुए बादाम की एक गिरी को पीसकर दूध के साथ पिलाने से कुछ समय में ही बालक का शरीर हृष्ट-पुष्ट हो जाता है तथा वजन बढ़कर शरीर कांतिमय बन जाता है।

क्षीर पाक बनाने की विधि

अश्वगंधा का बारीक चूर्ण 10 ग्राम, दूध 250 मिली, पानी 250 मिली. मिलाकर किसी कांच के बर्तन में मंद अग्नि पर उबालें, जब जल उड़ जाए और आधा रह जाए तो मानो क्षीर तैयार है।

अनिद्रा रोग में

अश्वगंधा स्वाभाविक नींद लाने के लिए एक अच्छी दवा है, जिन्हें गहरी नींद नहीं आती या फिर जो नींद नहीं आने के रोग से परेशान हैं उन्हें इसका क्षीर पाक बनाकर सेवन करना चाहिए।

स्त्री रोगों में

श्वेत प्रदर में इसका चूर्ण 2 ग्राम के साथ, 1/2 ग्राम वंशलोचन मिलाकर सेवन करें। अल्प विकसित स्तनों के विकास के लिए शतावरी चूर्ण के साथ सेवन करना चाहिए।

वजन वृद्धि के लिए

नागौरी असगंध, ईसबगोल, छोटी हरड़, शतावरी प्रत्येक 2 तोला तथा श्वेत लोध्र एक तोला, मिश्री 8 तोला लेकर चूर्ण बनाकर 12 ग्राम की मात्रा में चांदी के वर्क के साथ या चांदी की भस्म के साथ सेवन करने से लाभ होता है।

दुर्बलता

कमजोर एवं दुर्बल शरीर वाले व्यक्तियों को इसका 5 से 10 ग्राम की मात्रा में मिश्री मिलाकर दूध के साथ या शहद में मिलाकर दूध के साथ सेवन करना चाहिए।
अश्वगंधा चूर्ण 100 ग्राम को 20 ग्राम घी में मिलाकर कांच के बर्तन में जमा दें। प्रतिदिन 3 ग्राम की मात्रा में दूध से सेवन करें, कुछ ही दिनों में असर नजर आयेगा।
दुर्बलता निवारण के लिए इसका सेवन निरंतर 6 माह तक करें। खटाई एवं अधिक तली-भुनी वस्तुओं का सेवन न करें तथा इसके सेवन के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करें।

नेत्र ज्योति वर्धक

यदि अश्वगंधा, मुलहठी और आंवला तीनों को समान मात्रा लेकर चूर्ण बनाकर एक चम्मच नियमित रूप से सेवन किया जाये तो नेत्र ज्योति में वृद्धि होती है।

नासूर

यदि नासूर हो जाए तो अश्वगंधा चूर्ण को तेल या छाछ में मिलाकर लगाने से लाभ होता है। अश्वगंधा चूर्ण का सेवन भी करें ताकि नासूर को मिटाने की प्रक्रिया अंदर से भी शुरू हो।

घाव

घावों में अश्वगंधा चूर्ण लगाने से घावों में मवाद आदि नहीं होते और घाव जल्द ठीक हो जाता है।

सावधानी

उपर्युक्त सभी प्रयोग किसी वैद्य या विशेषज्ञ के परामर्श से करें। गलत तरीके से किए उपयेाग हानि भी पहुंचा सकते हैं।

ज्योतिषीय दृष्टि में अंगों का फड़कना

अंगों के फड़कने के विषय में सामुद्रिक शास्त्र में विस्तार से बताया गया है। विभिन्न अंगों के अलग-अलग हिस्से फड़कने पर क्या शुभाशुभ फल प्राप्त होते हैं, इसका विवरण पढ़िए इस लेख में
  • संपूर्ण मस्तक का फड़कना दूर स्थान की यात्रा का संकेत समझना चाहिए तथा मार्ग में परशोनियां भी आती है।
  • सिर का मध्य भाग फड़के तो धन की पा्रप्ति होती है तथा परेशानियों से मुक्ति मिलती है।
  • यदि ललाट मध्य से फडक़ ने लगे तो लाभदायक यात्रायें होती हैं।
  • यदि पूरा ललाट फड़के तो राज्य से सम्मान तथा नौकरी में प्रमोशन होता है।
  • यदि दोनों भौंह के बीच का स्थान फड़के तो प्रेम मिलता है।
  • दोनों भौहें फड़कें तो व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।
  • दाहिनी आंख का मध्य भाग फड़के तो व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर धन अर्जित कर लेता है।
  • दाहिनी आंख चारो तरफ से फड़के तो व्यक्ति के रागी होने की संभावना रहती है।
  • बाँयीं आखां का फड़कना स्त्री से दुख का, वियोग का लक्षण है।
  • बांयी आंख चारो ओर से फड़कने लगे तो विवाह के योग बनते हैं।
  • किसी व्यक्ति की नाक फड़फड़ाती हो तो उसके व्यवसाय में बढ़ोत्तरी हातेी है।
  • नाक की नाकें फड़फडा़ ती हो तो किसी आने वाले सकंट की सचूना दतेी है अथवा व्यक्ति शीघ्र ही रोगी होकर शैय्या पकड़ लेता है।
  • किसी व्यक्ति के नाक के नथुने के अंदर फड़फड़ाहट महसूस हो तो उसे सुख मिलता है।
  • यदि नाक की जड़ फड़के तो लडा़ई झगड़ा होने की संभावना रहती है।
  • यदि दाहिने कान का छेद फड़फडा़ ता है तो मित्र से मुलाकात होती है।
  • यदि दाहिना कान फड़फड़ाता है तो पद बढ़े, अच्छे समाचार की प्राप्ति हो, विजय मिले।
  • यदि बांये कान का पिछला भाग फडक़ ता है तो मित्र से बुलावा आता ह अथवा कोई खुश खबरी भरा पत्र मिलता है।
  • यदि बांया कान बजे तो बुरी खबर सुनने को मिलती है।
  • किसी स्वस्थ व्यक्ति का दाहिना गाल फड़के तो उसे लाभ होता है। सुंदर स्त्री से लाभ मिलता है।
  • किसी व्यक्ति के संतान उत्पन्न होने वाली हो और उसके बायें गाल के मध्य में फड़फड़ाहट हो तो उसके घर कन्या का जन्म होता है और जन्म होने की संभावना न हो तो पुत्री से कोई शुभ समाचार मिलता है।
  • किसी व्यक्ति के दोनो आरे के गाल समान रूप से फडफ़ डाएं तो उसे अतलु धन की प्राप्ति होती है।
  • किसी व्यक्ति का ऊपरी होठ फडफ़ डायें तो शत्रुओं से हो रहे झगडे़ में समझौता हो जाता है।
  • दोनों होठ फडफडा़ यें तो कहीं से सुखद समाचार मिलता है।
  • मुंह का फड़फड़ाना पुत्र की ओर से किसी शुभ समाचार को सुनवाता है।
  • यदि पूरा मुंह फड़के तो व्यक्ति की मनोकामनापूर्ण होती है।
  • किसी व्यक्ति की ठाडेी़ में फडफ़डा़हट का अनुभव हो तो मित्र के आगमन की सूचना देता है।
  • यदि तालु फड़के तो धन की प्राप्ति होती है।
  • यदि बांया तालु फड़के तो व्यक्ति को जेल यात्रा करनी पड़ सकती है।
  • यदि दांत का ऊपरी भाग फडफ़ ड़ाहट करता है तो व्यक्ति को प्रसन्नता प्राप्त होती है।
  • यदि जीभ फड़के तो लड़ाई झगड़ा होता है, विजय मिलती है।
  • यदि किसी व्यक्ति की गर्दन बांयी तरफ से फड़कती हो तो धन हानि होने की आशंका तथा गर्दन दांयी तरफ से फडके तो स्वर्ण आभूषणों की प्राप्ति होती है।
  • जब किसी व्यक्ति का दाहिना कंधा फड़फड़ाहट करता है तो उसे धन संपदा मिलती है। भाई से मिलन हातो है तथा बायां कधां फड़फड़ाता है तो व्यक्ति बीमार पड़ता है, नाना प्रकार की चिंता सताती है।
  • बाजू फडफ़डा़ ती है तो धन और यश की प्राप्ति होती है तथा बांई ओर की बाहं फड़फड़ाए तो नष्ट अथवा खोई हुई वस्तु की प्राप्ति हो जाती है।
  • किसी व्यक्ति के दाहिने हाथ का अंगूठा फड़फड़ाये तो उसकी अभिलाषा पूर्ति में विलबं होता है और हाथ की अंगुलियां फडफ़ डा़ यें तो अभिलाषा की पूर्ति के साथ-साथ किसी मित्र से मिलन होता है।
  • किसी व्यक्ति के दाहिने हाथ की कोहनी फड़फड़ाती है, तो किसी से झगडा़ तो होता है परतुं विजय उसे ही मिलती है आरै बायें हाथ की काहे नी फड़फडा़ यें तो धन की प्राप्ति होती है।
  • किसी व्यक्ति के हाथ की हथेली में फड़फड़ाहट हो तो ये शुभ शकुन है। उसे आने वाले समय में शुभ सपंदा की प्राप्ति होती है।
  • हथेली के किसी काने में फडफ़डा़हट हो तो निकट भविष्य में व्यक्ति किसी विपदा में फंस जाता है।
  • बायें हाथ की हथलेी में फड़फड़ाहट हो और वह व्यक्ति रोगी हो तो उसे शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ हो जाता है।
  • जहां कमर की दाहिनी ओर की फड़फड़ाहट किसी विपदा का संकेत देती है, वहीं बांई आरे की फड़फड़ाहट किसी शुभ समावार का संकेत देती है।
  • छाती में फड़फडाहट होना मित्र से मिलने की सूचना, छाती के दाहिनी आरे फडफ़ डा़ हट हो तो विपदा का संकेत, बांयी ओर फड़फड़ाहट हो तो जीवन में सघंर्ष और मध्य में फडफ़ डाहट हो तो लाके प्रियता मिलती है।

Tuesday, 8 March 2016

स्वप्न और यथार्थ




जीवन का सूक्ष्म रूप स्वप्न है और स्थूल रूप यथार्थ। जीवन की धारा सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ती है। बिना स्वप्न के यथार्थ की सत्ता नहीं हो सकती। इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि विचार करने के बाद उसे कार्य रूप में तब्दील करना स्वप्न से यथार्थ बनने जैसा है। जो जितना बड़ा स्वप्नदर्शी होता है उसके जीवन का उद्देश्य उतना ही बड़ा होता है, लेकिन यह उद्देश्य तब पूरा होता है जब वह यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है। स्वप्न और यथार्थ के मध्य जो सेतु का कार्य करता है, वह है साधना। ज्ञान-विज्ञान, गणित, व्यवहार, दर्शन और साहित्य जितने भी विषय हैं सभी स्वप्न और यथार्थ के साथ आगे बढ़ते हैं, लेकिन ये तब पूरा होते हैं जब कठोर श्रम साथ में किया जाए। समझना यह भी है कि बेहतर जिंदगी, बेहतर समाज और उच्च मानव मूल्यों के लिए किस तरह के स्वप्न देखे जाएं और इन्हें किस तरह यथार्थ में परिवर्तित करें। अच्छे शब्दों, अच्छे विचारों वाले वाक्यों और भावों को मन में बार-बार दोहराते रहिए। देखिएगा किस तरह शुभत्व का प्रवाह होने लगता है। कहा गया है जो व्यक्ति जैसा स्वप्न देखता है, फिर उस स्वप्न को साकार करने के लिए जैसा प्रयास करता है वैसा वह यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है। यानी स्वप्न और यथार्थ दोनों का बराबर महत्व है।
ब्रह्मा के दो लाड़ले पुत्र हैं। एक स्वप्न और दूसरा यथार्थ। दोनों में लड़ाई हुई। दोनों ब्रह्मा के पास पहुंचे और बोले-भगवन! आज आप निर्णय कर दीजिए कि हम दोनों में से किसकी महिमा अधिक है? ब्रह्मा को बेटों की नादानी पर हंसी आ गई। वह बोले-दोनों जमीन पर खड़े हो जाओ, जमीन पर खड़े-खड़े ही जो आकाश छू लेगा उसकी महिमा सबसे बड़ी है। दोनों परीक्षा देने को तैयार हो गए। स्वप्न ने आकाश तो छू लिया, लेकिन उसके पैर जमीन तक नहीं पहुंच सके। अब यथार्थ की बारी थी। जमीन पर तो वह स्थिर हो गया, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद भी आकाश नहीं छू सका। दोनों को परीक्षा में फेल देख ब्रह्मा हंसे और बोले, 'देख लिया न, तुम दोनों की महिमा एक दूसरे के पूरक होने में है अकेले में नहीं। ' यह कथानक यह संदेश देता है कि हमारे जीवन में स्वप्न और यथार्थ में पूरकता होनी चाहिए। किसी एक से जीवन की सफलता नहीं है।

प्रश्न और मन



मानव जीवन प्रश्नों से जुड़ा है। प्रश्न मन की लहरों के साथ उपजते हैं। मन की हर हिलोर-प्रत्येक लहर एक नया प्रश्न खड़ा करती है। जीवन की प्रत्येक घटना, जो मन को स्पंदित करती है, अनायास ही नए प्रश्न या प्रश्नों को जन्म दे देती है। इसी तरह परिस्थितियां व परिवेश (जो विचार व भावों में लहरें पैदा करने में समर्थ हैं) स्वाभाविक तौर पर अंतश्चेतना में प्रश्नों को जन्म देते हैं। यह क्रम न तो रुकता है, न थमता है, बस नित्य-निरंतर-अविराम चलता रहता है। वस्तुत: प्रश्न कई प्रकार के होते हैं। जिज्ञासावश मन में उठने वाला भाव प्रश्न है, प्रश्न के बाद पुन: पूछने का क्रम प्रतिप्रश्न है, तो कुछ लोग किसी विषय पर इतने प्रश्न पूछते हैं कि मूल विषय से ध्यान ही भटक जाए। ऐसा करना अतिप्रश्न है और अनावश्यक किसी दुर्भावनावश अप्रासंगिक प्रश्न पूछना कुप्रश्न कहलाता है। प्रश्नकर्ता का भाव विकसित करने के लिए सर्वप्रथम ‘इगो’ को त्यागकर विनम्रता और जिज्ञासु भाव को विकसित करना आवश्यक है। ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रत्येक प्रश्न मन के मौन को तोड़ता है। मन में अशांति, बेचैनी व तनाव को जन्म देता है। ये प्रश्न जितने अधिक, जितने गहरे व जितने व्यापक होते हैं, मन की अशांति, बैचेनी व तनाव भी उतना ही ज्यादा गहरा, घना और व्यापक होता जाता है।
इसी अशांति, बेचैनी व तनाव में अपनी ही कोख में उपजे प्रश्न या प्रश्नों के उत्तर खोजने की कोशिश करता है। उसे अपने इस प्रयास में सफलता मिलती है। उत्तर मिलते भी हैं, पर नए प्रश्नों के साथ कोई न कोई प्रश्न चिपक ही जाता है। साथ ही बढ़ जाती है बैचेनी व अशांति, क्योंकि जो भी घटना, फिर वह चाहे प्रश्न की हो या उत्तर की, मन में लहरें व हिलोरें पैदा करेगी, मन को तनाव, बैचेनी व अशांति से ही भरेगी। इस समस्या का समाधान तभी है, जब मन की लहरें मिटें, हिलोरें हटें। फिर न कोई प्रश्न उभरेंगे और न किसी उत्तर की खोज होगी। इसके लिए मन को मौन होना होगा। इसी को समाधि कहते हैं जहां सभी प्रश्न स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाते हैं, जहां अशांति अपने आप ही मिट जाती है। बस, बनी रहती है तो केवल प्रश्नविहीन अमिट शांति। आध्यात्मिक शक्ति के विकास से इस शांति की प्राप्ति की जा सकती है और जीवन के सभी प्रश्नों का उत्तर स्वत: प्राप्त या अनुभूत हो जाता है।

Monday, 7 March 2016

बुद्धि का बल


विश्व के महानतम दार्शनिकों में से एक सुकरात एक बार अपने शिष्यों के साथ बैठे कुछ चर्चा कर रहे थे। तभी वहां अजीबो-गरीब वस्त्र पहने एक ज्योतिषी आ पहुंचा।

वह सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए बोला ,” मैं ज्ञानी हूँ ,मैं किसी का चेहरा देखकर उसका चरित्र बता सकता हूँ। बताओ तुममें से कौन मेरी इस विद्या को परखना चाहेगा?”
शिष्य सुकरात की तरफ देखने लगे।
सुकरात ने उस ज्योतिषी से अपने बारे में बताने के लिए कहा।
अब वह ज्योतिषी उन्हें ध्यान से देखने लगा।
सुकरात बहुत बड़े ज्ञानी तो थे लेकिन देखने में बड़े सामान्य थे , बल्कि उन्हें कुरूप कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी।
ज्योतिषी उन्हें कुछ देर निहारने के बाद बोला, ” तुम्हारे चेहरे की बनावट बताती है कि तुम सत्ता के विरोधी हो , तुम्हारे अंदर द्रोह करने की भावना प्रबल है। तुम्हारी आँखों के बीच पड़ी सिकुड़न तुम्हारे अत्यंत क्रोधी होने का प्रमाण देती है ….”
ज्योतिषी ने अभी इतना ही कहा था कि वहां बैठे शिष्य अपने गुरु के बारे में ये बातें सुनकर गुस्से में आ गए और उस ज्योतिषी को तुरंत वहां से जाने के लिए कहा।
पर सुकरात ने उन्हें शांत करते हुए ज्योतिषी को अपनी बात पूर्ण करने के लिए कहा।
ज्योतिषी बोला , ” तुम्हारा बेडौल सिर और माथे से पता चलता है कि तुम एक लालची ज्योतिषी हो , और तुम्हारी ठुड्डी की बनावट तुम्हारे सनकी होने के तरफ इशारा करती है।
इतना सुनकर शिष्य और भी क्रोधित हो गए पर इसके उलट सुकरात प्रसन्न हो गए और ज्योतिषी को इनाम देकर विदा किया। शिष्य सुकरात के इस व्यवहार से आश्चर्य में पड़ गए और उनसे पूछा , ” गुरूजी , आपने उस ज्योतिषी को इनाम क्यों दिया, जबकि उसने जो कुछ भी कहाँ वो सब गलत है ?”
नहीं पुत्रों, ज्योतिषी ने जो कुछ भी कहा वो सब सच है , उसके बताये सारे दोष मुझमें हैं, मुझे लालच है , क्रोध है , और उसने जो कुछ भी कहा वो सब है , पर वह एक बहुत ज़रूरी बात बताना भूल गया , उसने सिर्फ बाहरी चीजें देखीं पर मेरे अंदर के विवेक को नही आंक पाया, जिसके बल पर मैं इन सारी बुराइयों को अपने वष में किये रहता हूँ , बस वह यहीं चूक गया, वह मेरे बुद्धि के बल को नहीं समझ पाया !” , सुकरात ने अपनी बात पूर्ण की।

मित्रों , यह प्रेरक प्रसंग बताता है कि बड़े से बड़े इंसान में भी कमियां हो सकती हैं, पर यदि हम अपनी बुद्धि का प्रयोग करें तो सुकरात की तरह ही उन कमियों से पार पा सकते हैं