छोटी सी चिंगारी भयानक आग बन गयी। इस आग ने कर्इ घरों को जला कर खाक कर
दिया। हंसते-खेलते परिवारों की दुनियां उजाड़ दी। जिनका कोर्इ कसूर नहीं
था, उन्हें सियासी दंड़ भोगने के लिए विवश कर दिया। नफरत के व्यापार से
अपने दिल को ठंड़क पहुंचाने वाले खलनायक जब सियासी समीकरणों का लाभ उठाते
रहेंगे, तब तक छोटी-छोटी चिंनगारियां लपटों में तब्दील होती रहेगी। लोग
अनजाने में मजहबी जुनून की भेंट चढ़ते रहेंगे।
मुजफ्फरनगर त्रासदी एक छोटी अपराधिक घटना से शुरु हुर्इ थी। इस घटना का दो सम्प्रदायों से यदि जोड़ कर नहीं देखा जाता, तो अपराधी तुरन्त पकड़े जा सकते थे, क्योंकि उन्होंने अपराध किया था और कानून में ऐसा कोर्इ प्रावधान नहीं है कि ऐसे अपराधी को मजहबी आधार पर रियायत दी जाय। यदि वे अपराधी पकड़े जाते तो कोर्इ विरोध नहीं होता। एक छोटी सी चिंगारी, लपटे नहीं बनती। विवाद एक आध घर और व्यक्तियों तक सीमित बन कर रह जाता।
किन्तु एक शख्स ने इस चिंगारी को हवा दी और प्रचंड़ साम्प्रदायिक आग में तब्दील कर दिया। ऐसे समय अफवाहें फैलती ही है। लोगों का गुस्सा बे काबू हो जाता है। वे आवेश में सब कुछ भूल जाते है। प्रशासनिक मशीनरी का काम होता है कि अफवाहों को रोकने की कोशिश करें। लोगो का जुनून शांत करने के लिए कठोर कार्यवाही करें, ताकि आग का सीमित प्रभाव ही रहे और वह ज्यादा जगह तक नहीं फैले। परन्तु यदि प्रशासन को यह निर्देश दिया जाय कि निष्क्रिय रह कर तमाशा देखते रहें, क्योंकि इससे सतारुढ़ दल को सियासी लाभ होने की आशा है। ऐसे प्रयास को बहुत ही घिनौना सियासी हथकंड़ा कहा जा सकता है। यदि कोर्इ राजनीतिक दल इसे ही अपना राजधर्म मानता है कि लोगो के कटने-मरने से उसे सियासी लाभ होगा, तो ऐसी मानसिकता वाले दल और उससे जुड़े हुए राजनेताओ को एक क्षण भी सत्ता पर रहने का अधिकार नहीं हैं, क्योंकि जो लोगो के रक्त से अपना राजनीतिक भविष्य संवारना चाहते हैं, वे लोकतंत्रीय शासन प्रणाली के लिए एक कलंक है।
सबसे पहले उसी शख्स को पकड़ा जाना चाहिये, जिसने चिंगारी को हवा दी और इसे साम्प्रदायिक दंगे में तब्दील कर दिया। वह व्यक्ति गुनहगार है। उसका अपराध अक्षम्य है। किन्तु उत्तर प्रदेश सरकार उन लोगों को अपराधी घोषित करने का प्रयास कर रही है, जो आग बुझाने गये थे। लोगों को समझाने गये थे। स्पष्ट है, इतना होने के बाद भी सरकार सुधरना नहीं चाहती। अब भी घटना को साम्प्रदायिक रंग दे कर एक राजनीतिक पार्टी और उसके नेताओं पर सारा दोष मंढने के बाद स्वयं बचना चाहती है।
परन्तु यह कैसे सम्भव है, जब सरकार आपकी है ? प्रशासन आपका है। आपकी आंखों के सामने सब कुछ घटित हुआ है। आप यह भी जानते हैं कि एक छोटी सी घटना ने भयानक साम्प्रदायिक रुप क्यों ले लिया, फिर इस मसले को और ज्यादा उलझाने में दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं ? आप यह भी जानते हैं कि जिन्हें पकड़ा जा रहा है, उनका दोष साबित नहीं कर पायेंगे, फिर उन्हें पकड़ा क्यों जा रहा है ? क्या यह इसलिए नहीं किया जा रहा है कि कुछ लोगों को इससे राहत मिलेंगी और वे उन्हें खलनायक मान लेंगे ? असली गुनहगारों को अपने सियासी लाभ के लिए बचा लिया जायेगा। सरकार अपने पापों से मुक्त हो जायेगी।
परन्तु जब आग बुझ जाती है, तब बुझी हुर्इ आग दम घोटू धुंआ आंखों में आंसू ला देता है। उस धुंए में उन लोगों की आहें होती है, जिनका बिना किसी कारण के सब कुछ जला दिया गया। ऐसे समय जो मलबे के नज़दीक खड़े अपनी संपति को डबडबायी आंखों से देखते हैं, उन्हें ढाढ़स बंधाया जाता है। उनके आंसूं पौंछे जाते हैं। राज्य उनके नुकसान की भरपायी के लिए आश्वस्त करता है, ताकि उस त्रासदी को भूल कर नया जीवन आरम्भ करें। किन्तु राज्य यह काम कभी नहीं करता कि उस बुझी हुर्इ आग में और लकड़िया डाले ताकि आग पुन: भभक उठे।
उत्तर प्रदेश में इन दिनों नेताओं की गिरफतारी का जो नाटक हो रहा है, उससे यही आभास हो रहा है कि सरकार अपनी गलती को मानने को तैयार नहीं हैं। वह आग को बुझाना नहीं, उसे भभकाना चाहती है, ताकि उसकी आंच पर सियासी स्वार्थ की रोटियां सेकी जा सकें। सियासत का ऐसा गंदा खेल खेलने वाले राजनेताओं के विरुद्ध सभी नागरिकों को एक जुट हो कर इनका राजनीतिक भविष्य संवारने के बजाय, समाप्त कर देना चाहिये। जनता जब तक ऐसे लोगों को सबक नहीं सिखायेगी, ये अपनी हरकतों से बाझ नहीं आयेंगे।
गुजरात के 2002 के दंगों के बाद गुजरात सभी के लिए खोल दिया गया था। दुनिया भर के पत्रकार आ कर पीड़ितों के बारें में जानकारी जुटा रहे थे। टीवी चेनल लगातार गुजरात के समाचारों का राग अलाप रहे थे। मानवाधिकार अपना डेरा वहां डाले हुए था। वहां किसी को जाने के लिए प्रतिबंधित नहीं किया गया था। एक सरकार और उसके मुख्यमंत्री को बदनाम करने की जितनी कोशिश की जानी थी, उतनी की जा रही थी। आज भी गुजरात दंगों को बार-बार याद किया जाता है। ग्यारह बरस गुजरने के बाद और साम्प्रदायिक दंगों से मुक्त गुजरात बन जाने के बाद भी गुजरात दंगो की याद ताजा करने का कोर्इ भी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल और उससे जुडे़ नेता मौका नहीं गंवाते है। केन्द्रीय सरकार, सीबीआर्इ तथा मानवाधिकार आज भी मरे मुर्दे उखाड़ने में लगे हुए है।
किन्तु जब कांग्रेस के ही एक बड़े नेता मुजफ्फर नगर त्रासदी को 2002 के गुजरात दंगो से भी ज्यादा भयावह बता रहे हैं, फिर उत्तर प्रदेश सरकार को क्यों कटघरे में नहीं खड़ा किया जा रहा है ? क्यों सारे के सारे राजनीतिक दल और मीडिया वास्तविक घटनाओं की जानकारी जुटा कर जनता के समक्ष नहीं ला रहे है ? क्यों एक पार्टी विशेष के नेताओं को ही जाने से रोका जा रहा है ? और मानवाधिकार से जुड़े लोग कहां छुपे हुए हैं ? क्या उत्तर प्रदेश के पीड़ितो को न्याय दिलाने के लिए मानवाधिकार को कोर्इ दिलच्स्पी नहीं है ?
गुजरात की आग तो बुझ गयी। फिर कभी प्रज्जवलित नहीं हुर्इ, किन्तु उत्तर प्रदेश की आग ठंड़ी नहीं होगी। यह रह रह कर जलेगी, क्योंकि वहां एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का शासन है, जो सियासी लाभ के लिए लोगों को बांटने में ही विश्वास करती है। इस धर्मनिरपेक्ष सरकार को अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का समर्थन प्राप्त हैं, अत: सभी चुप है। कोर्इ अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि पर बट्टा नहीं लगाना चाहता।
सभी जानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब होता है- मुस्लिम तुष्टिकरण। याने मुस्लिम समुदाय को मूर्ख बना कर थोक वोटों का जुगाड़ करना। परन्तु मुजफ्फर नगर त्रासदी के बाद मुस्लिम समुदाय को अपने रहनुमाओं की असली सूरत पहचानने में आ गयी है। कभी रामजन्म भूमि के ताले खुलवा कर बर्र के छज्जे में पत्थर फैंकने वाली राजनीतिक पार्टी पीड़ितो के आंसू पौंछने जरुर आयी थी, क्योंकि यह पार्टी भी धर्मनिरपेक्ष बिरादरी की है। इस पार्टी को जाने की अनुमति इसलिए दी गयी थी, क्योंकि केवल साम्प्रदायिक शक्तियों का प्रवेश वर्जित कर सरकार यह संदेश देना चाहती है कि हम सभी के लिए साम्प्रदायिक शक्तियां नम्बर एक दुश्मन है। हम सभी धर्मनिरपेक्ष ताकते पाप भी करें तो पुण्य कहलाता है और वे पूण्य करें तब भी हम उसे पाप साबित करना चाहते हैं।
मुजफ्फरनगर त्रासदी एक छोटी अपराधिक घटना से शुरु हुर्इ थी। इस घटना का दो सम्प्रदायों से यदि जोड़ कर नहीं देखा जाता, तो अपराधी तुरन्त पकड़े जा सकते थे, क्योंकि उन्होंने अपराध किया था और कानून में ऐसा कोर्इ प्रावधान नहीं है कि ऐसे अपराधी को मजहबी आधार पर रियायत दी जाय। यदि वे अपराधी पकड़े जाते तो कोर्इ विरोध नहीं होता। एक छोटी सी चिंगारी, लपटे नहीं बनती। विवाद एक आध घर और व्यक्तियों तक सीमित बन कर रह जाता।
किन्तु एक शख्स ने इस चिंगारी को हवा दी और प्रचंड़ साम्प्रदायिक आग में तब्दील कर दिया। ऐसे समय अफवाहें फैलती ही है। लोगों का गुस्सा बे काबू हो जाता है। वे आवेश में सब कुछ भूल जाते है। प्रशासनिक मशीनरी का काम होता है कि अफवाहों को रोकने की कोशिश करें। लोगो का जुनून शांत करने के लिए कठोर कार्यवाही करें, ताकि आग का सीमित प्रभाव ही रहे और वह ज्यादा जगह तक नहीं फैले। परन्तु यदि प्रशासन को यह निर्देश दिया जाय कि निष्क्रिय रह कर तमाशा देखते रहें, क्योंकि इससे सतारुढ़ दल को सियासी लाभ होने की आशा है। ऐसे प्रयास को बहुत ही घिनौना सियासी हथकंड़ा कहा जा सकता है। यदि कोर्इ राजनीतिक दल इसे ही अपना राजधर्म मानता है कि लोगो के कटने-मरने से उसे सियासी लाभ होगा, तो ऐसी मानसिकता वाले दल और उससे जुड़े हुए राजनेताओ को एक क्षण भी सत्ता पर रहने का अधिकार नहीं हैं, क्योंकि जो लोगो के रक्त से अपना राजनीतिक भविष्य संवारना चाहते हैं, वे लोकतंत्रीय शासन प्रणाली के लिए एक कलंक है।
सबसे पहले उसी शख्स को पकड़ा जाना चाहिये, जिसने चिंगारी को हवा दी और इसे साम्प्रदायिक दंगे में तब्दील कर दिया। वह व्यक्ति गुनहगार है। उसका अपराध अक्षम्य है। किन्तु उत्तर प्रदेश सरकार उन लोगों को अपराधी घोषित करने का प्रयास कर रही है, जो आग बुझाने गये थे। लोगों को समझाने गये थे। स्पष्ट है, इतना होने के बाद भी सरकार सुधरना नहीं चाहती। अब भी घटना को साम्प्रदायिक रंग दे कर एक राजनीतिक पार्टी और उसके नेताओं पर सारा दोष मंढने के बाद स्वयं बचना चाहती है।
परन्तु यह कैसे सम्भव है, जब सरकार आपकी है ? प्रशासन आपका है। आपकी आंखों के सामने सब कुछ घटित हुआ है। आप यह भी जानते हैं कि एक छोटी सी घटना ने भयानक साम्प्रदायिक रुप क्यों ले लिया, फिर इस मसले को और ज्यादा उलझाने में दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं ? आप यह भी जानते हैं कि जिन्हें पकड़ा जा रहा है, उनका दोष साबित नहीं कर पायेंगे, फिर उन्हें पकड़ा क्यों जा रहा है ? क्या यह इसलिए नहीं किया जा रहा है कि कुछ लोगों को इससे राहत मिलेंगी और वे उन्हें खलनायक मान लेंगे ? असली गुनहगारों को अपने सियासी लाभ के लिए बचा लिया जायेगा। सरकार अपने पापों से मुक्त हो जायेगी।
परन्तु जब आग बुझ जाती है, तब बुझी हुर्इ आग दम घोटू धुंआ आंखों में आंसू ला देता है। उस धुंए में उन लोगों की आहें होती है, जिनका बिना किसी कारण के सब कुछ जला दिया गया। ऐसे समय जो मलबे के नज़दीक खड़े अपनी संपति को डबडबायी आंखों से देखते हैं, उन्हें ढाढ़स बंधाया जाता है। उनके आंसूं पौंछे जाते हैं। राज्य उनके नुकसान की भरपायी के लिए आश्वस्त करता है, ताकि उस त्रासदी को भूल कर नया जीवन आरम्भ करें। किन्तु राज्य यह काम कभी नहीं करता कि उस बुझी हुर्इ आग में और लकड़िया डाले ताकि आग पुन: भभक उठे।
उत्तर प्रदेश में इन दिनों नेताओं की गिरफतारी का जो नाटक हो रहा है, उससे यही आभास हो रहा है कि सरकार अपनी गलती को मानने को तैयार नहीं हैं। वह आग को बुझाना नहीं, उसे भभकाना चाहती है, ताकि उसकी आंच पर सियासी स्वार्थ की रोटियां सेकी जा सकें। सियासत का ऐसा गंदा खेल खेलने वाले राजनेताओं के विरुद्ध सभी नागरिकों को एक जुट हो कर इनका राजनीतिक भविष्य संवारने के बजाय, समाप्त कर देना चाहिये। जनता जब तक ऐसे लोगों को सबक नहीं सिखायेगी, ये अपनी हरकतों से बाझ नहीं आयेंगे।
गुजरात के 2002 के दंगों के बाद गुजरात सभी के लिए खोल दिया गया था। दुनिया भर के पत्रकार आ कर पीड़ितों के बारें में जानकारी जुटा रहे थे। टीवी चेनल लगातार गुजरात के समाचारों का राग अलाप रहे थे। मानवाधिकार अपना डेरा वहां डाले हुए था। वहां किसी को जाने के लिए प्रतिबंधित नहीं किया गया था। एक सरकार और उसके मुख्यमंत्री को बदनाम करने की जितनी कोशिश की जानी थी, उतनी की जा रही थी। आज भी गुजरात दंगों को बार-बार याद किया जाता है। ग्यारह बरस गुजरने के बाद और साम्प्रदायिक दंगों से मुक्त गुजरात बन जाने के बाद भी गुजरात दंगो की याद ताजा करने का कोर्इ भी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल और उससे जुडे़ नेता मौका नहीं गंवाते है। केन्द्रीय सरकार, सीबीआर्इ तथा मानवाधिकार आज भी मरे मुर्दे उखाड़ने में लगे हुए है।
किन्तु जब कांग्रेस के ही एक बड़े नेता मुजफ्फर नगर त्रासदी को 2002 के गुजरात दंगो से भी ज्यादा भयावह बता रहे हैं, फिर उत्तर प्रदेश सरकार को क्यों कटघरे में नहीं खड़ा किया जा रहा है ? क्यों सारे के सारे राजनीतिक दल और मीडिया वास्तविक घटनाओं की जानकारी जुटा कर जनता के समक्ष नहीं ला रहे है ? क्यों एक पार्टी विशेष के नेताओं को ही जाने से रोका जा रहा है ? और मानवाधिकार से जुड़े लोग कहां छुपे हुए हैं ? क्या उत्तर प्रदेश के पीड़ितो को न्याय दिलाने के लिए मानवाधिकार को कोर्इ दिलच्स्पी नहीं है ?
गुजरात की आग तो बुझ गयी। फिर कभी प्रज्जवलित नहीं हुर्इ, किन्तु उत्तर प्रदेश की आग ठंड़ी नहीं होगी। यह रह रह कर जलेगी, क्योंकि वहां एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का शासन है, जो सियासी लाभ के लिए लोगों को बांटने में ही विश्वास करती है। इस धर्मनिरपेक्ष सरकार को अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का समर्थन प्राप्त हैं, अत: सभी चुप है। कोर्इ अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि पर बट्टा नहीं लगाना चाहता।
सभी जानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब होता है- मुस्लिम तुष्टिकरण। याने मुस्लिम समुदाय को मूर्ख बना कर थोक वोटों का जुगाड़ करना। परन्तु मुजफ्फर नगर त्रासदी के बाद मुस्लिम समुदाय को अपने रहनुमाओं की असली सूरत पहचानने में आ गयी है। कभी रामजन्म भूमि के ताले खुलवा कर बर्र के छज्जे में पत्थर फैंकने वाली राजनीतिक पार्टी पीड़ितो के आंसू पौंछने जरुर आयी थी, क्योंकि यह पार्टी भी धर्मनिरपेक्ष बिरादरी की है। इस पार्टी को जाने की अनुमति इसलिए दी गयी थी, क्योंकि केवल साम्प्रदायिक शक्तियों का प्रवेश वर्जित कर सरकार यह संदेश देना चाहती है कि हम सभी के लिए साम्प्रदायिक शक्तियां नम्बर एक दुश्मन है। हम सभी धर्मनिरपेक्ष ताकते पाप भी करें तो पुण्य कहलाता है और वे पूण्य करें तब भी हम उसे पाप साबित करना चाहते हैं।
साम्प्रदायिक सद्भाव को जितना नुकशान इन छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी पार्टियों नें पहुंचाया है उतना तो आज तक घोर साम्प्रदायिक पार्टियां भी नहीं पहुंचा पाई है !!
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