जो मुश्किलों का सामना कर मंजिल तक पहुंचते हैं, वे उपलब्धि को सहेज कर
रखते हैं। किन्तु जो अंगुलि पकड़ कर मंजिल तक पहुंचते हैं, उन्हें
उपलब्धियों की कीमत का अंदाज़ा नहीं होता, इसलिए वे लापरवाह हो जाते हैं।
गैर जिम्मेदार बन जाते हैं।
एक पिता ने अपनी विकृत महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिए अपने अनुभवहीन पुत्र को सियासी चोरस का मोहरा बनाया। क्योंकि वें देश का सबसे बड़ा प्रदेश हथियाने के बाद भारत का प्रधानमंत्री बनने की हसरते पाले हुए हैं। उत्तर प्रदेश को वे एक सिढ़ि की तरह उपयोग करना चाहते हैं। क्योंकि प्रदेश की सर्वाधिक लोकसभा सीटें जीत कर वे दिल्ली की सियासत में अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं।
सर्वाधिक सीटे जीतने का लक्ष्य पूरा करने का उनके पास एक ही रास्ता है- मुस्लिम तुष्टिकरण। अर्थात मुस्लिम समुदाय का मसीहा बनने के लिए सारे उलटे-सीधे काम करने में कोर्इ हिचक नहीं दिखार्इ जाय। मुलायम सिंह यादव एक सोची समझी रण नीति के तहत आगे बढ़ रहे हैं। अपनी सियासी हसरते पूरी करने के लिए यदि लोग आपस में कट मरे, इसकी उन्हें परवाह नही है। भारतीय सियासत का यह सबसे विकृत व विभत्स चेहरा है, जिसे देख कर घिन्न आती है।
उत्तर प्रदेश की जनता विशेषकर युवा मतदाताओं ने अखिलेश में अपना पूरा विश्वास व्यक्त किया था। उन्हे ऐसा भरोसा था कि युवा मुख्यमंत्री पिछडे़ प्रदेश को जाति और धर्म की संकीर्ण राजनीति के दलदल से बाहर निकाल कर विकास के पथ पर आगे ले जायेगा। यदि उनके पास प्रशासनिक अनुभव होता और कुछ कर गुजरने का जज़्बा होता, तो उनके लिए यह कार्य कठिन नहीं था, क्योंकि प्रदेश की जनता उनके साथ थी और विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त था। परन्तु वे ऐसा कर नहीं पाये। दरअसल अपने पिता के सियासी दांव पेंच के बीच वे अपनी कोर्इ अलग प्रशासनिक रणनीति नहीं बना पाये। प्रदेश के विकास की कोर्इ नयी राजनीतिक शैली नहीं विकसित कर पायें। उनमें त्वरित प्रशासनिक निर्णय लेने का और सूझबूझ का पूर्णतया अभाव दिखार्इ दिया। यही कारण है कि वे अपराध व अपराधियों पर नियंत्रण नहीं कर पाये।
अखिलेश पूर्णतया नौसिखिये ही साबित हुए। प्रदेश की जनता फिर ठगी गयी। पांच वर्ष तक एक अभिमानी महिला ने प्रदेश को जम कर लूटा और अब एक युवा मुख्यमंत्री ने भारत के इस महत्वपूर्ण प्रदेश को साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने के लिए छोड़ दिया है। लोकसभा चुनावों के सम्पन्न होने तक यह प्रदेश सियासी दंगल का अखाड़ा ही बना रहने वाला है। उत्तर प्रदेश की अभागी जनता को घृणित राजनीति के भंवर से बाहर निकलना फिलहाल कठिन ही लग रहा है।
बहरहाल मुजफ्फर नगर की त्रासदी ने आसाराम प्रकरण की खबरों को नेपेथ्य में धकेल कर शीर्ष स्थान बना लिया है। पीड़ितों के आंसुओं से अपनी सियासत को हरा-भरा करने की कोशिश जारी रहेगी। राजनेता पीड़ितों के रिसते घावों पर मरहम लगाने के बजाय, उन्हें अधिक कुरेदने की कोशिश करेंगे, किन्तु इस दुखद घटना क्रम से भारत की जनता को यह नसीहत लेनी चाहिये कि :-
एक: किसी परिवार में जन्म लेने से यह प्रमाणित नहीं होता कि उस व्यक्ति के प्रति विश्वास अभिव्यक्त करने से वह अपनी प्रशासनिक क्षमता में दक्षता दिखायेगा। प्रशासनिक दक्षता जन्मजात बिरलों में होती है। दीर्घ अनुभव ही उसे प्रशासनिक क्षमता में मजबूत करता है। अत: अखिलेश के उदाहरण को देखते हुए किसी अनुभवहीन नौसिखिये व्यक्ति को पूरा भारत सौंपने की अंशमात्र भी जोखिम नहीं लेनी चाहियें।
दो: साम्प्रदायिक दंगो के मामले में गुजरात काफी संवेदनशील प्रदेश माना जाता था। अहमदाबाद के कालुपुर और बस्तापुर में रोज साम्प्रदायिक तनाव होना आम बात थी। गुजरात में कर्इ बार दंगों को नियंत्रण करने लिए सैना बुलानी पड़ी थी। किन्तु अब पिछले ग्यारह साल से गुजरात साम्प्रदायिक सदभाव की दृष्टि से देश का सबसे शांत प्रदेश बना हुआ है। पिछले ग्यारह वर्षों से गुजरात के किसी शहर में सैना तो क्या पुलिस भी नहीं बुलानी पड़ी। इसका कारण यह है कि प्रदेश की सरकार ने अपनी प्रशासनिक क्षमता के कारण जनता में अपना विश्वास बनाया है। वह सरकार दो बार सत्ता में वापस इसलिए नहीं आयी कि उसने वोटों का धु्रवीकरण कर दिया था, वरन इसलिए आयी कि उसने प्रदेश के विकास को प्राथमिकता दी थी।
तीन: भारी बहुमत से विजय मिलने के बाद भी जो राजनीतिक दल अपराधियों से अपने आपको मुक्त नहीं कर सकता और साम्प्रदायिक विष के सहारे ही चुनाव जीतने के मनसूबे बांधता है, उस राजनीतिक दल को जनता द्वारा पूर्णतया ठुकरा देना चाहिये। क्योंकि ऐसे राजनीतिक दल जितने ज्यादा शक्तिशाली होंगे, उतनी ही अपनी शक्ति का दुरुपयोग करेंगे। केन्द्र में भी ऐसे दलों ने हमेशा राष्ट्रहित में कोर्इ सार्थक नीति की पहल नहीं की है।
चार: हर समय तुष्टिकरण व धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने वाले सभी राजनीतिक दलों से जनता को दूरी बना लेनी चाहिये। दरअसल ये सभी राजनीतिक दल अल्पसंख्यक समुदाय के रहनुमा बनने की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए है और इनका मकसद एक ही है – किसी भी तरह अल्पसंख्यक समुदाय के थोक वोट मिल जायें, ताकि अपनी अक्षमता को छुपा कर चुनाव आसानी से जीते जा सकें। यदि मुस्लिम समुदाय यह विचार कर लें कि हम उन्हें ही अपना मत देंगे, जो प्रत्यासी योग्य होगा, तब अधिकांश राजनीतिक दलों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा, क्योंकि हिन्दू वोटों की तरह यदि मुस्लिम वोट बिखर जायेंगे तब राजनीतिक दलों को अपने पिछले कार्य की गुणवता के आधार पर जनता से वोट मांगने पड़ेंगे और यह उनके लिए मुश्किल होगा।
पांच: जिस राजनीतिक दल के पास अपराधियों की भरमार हैं और अपराधी प्रवृति के लोगों को हमेशा अपने राजनीतिक दल में शामिल रखना आवश्यक समझा जाता है, ऐसे दलों को तिरस्कृत कर देना चाहिये। क्योंकि ऐसे दलो से कभी सुशासन की अपेक्षा की ही नहीं जा सकती।
छ: राजनीतिक पार्टियां बनती और मिटती रहती है। राजनीति मे हार और जीत भी होती रहती है। किन्तु धर्म और जाति कभी मिटती नहीं। किसी राजनीतिक पार्टी की अनुकम्पा से धर्म और जाति की सुरक्षा नहीं होती। धर्म का संबंध आस्था से जुड़ा हुआ है। आस्था कभी टूटती नहीं है और न ही इसे कोर्इ तोड़ पाता है। जाति हमारे जन्म और कुल की पहचान बताती है। इन दोनों को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहियें। अत: किसी भी राजनीतिक पार्टी का शासन आने से न तो किसी धर्म पर कोर्इ आंच आयेगी और न ही जातियां मिट जायेगी।
सात: आज की परिस्थितियों में देश भयानक आर्थिक संकट में फंसा हुआ है। एक अकर्मण्य और भ्रष्ट सरकार ने भारतीय जनता को महंगार्इ और अभावों की विषम परिस्थितियों में उलझा दिया है। अत: हम सब मिल कर उस राजनीतिक दल के पक्ष में खड़े हो जाय, जो देश को इस दुष्चक्र से बाहर निकालने की किसी सार्थक नीति की पहल करें। राजनीति का शुद्धिकरण तब होगा जब हम अपने भविष्य के लिए संवेदनशील बन कर अपने मतदान का प्रयोग सही प्रयोग करेंगे। जाति और धर्म को पैमाना मान कर वोट देने के दुष्परिणाम भुगत रहें हैं। हमे अब इनसे निज़ात पाने की कोशिश करनी चाहिये।
आठ: भारत के शहरों में पाकिस्तान आतंकवादियों को भेज कर या देशी आतंकवादियों को उकसा कर विस्फोट इसलिए करवाता है ताकि भारत में साम्प्रदायिक सदभाव बिगड़ जाय और साम्प्रदायिक दंगे हो जाय। किन्तु पिछले बीस वर्षों में कर्इ विभत्स बम विस्फोटों के बाद एक भी दंगा नहीं हुआ। यह इस बात की पुष्टि करता हैं भारतीय समाज अब अमन चैन से रहना चाहता है। सियासत यदि भारतीय समाज में विभ्रम की स्थिति बनाना चाहता है, तो ऐसी सियासत से दूरी बना लेनी चाहिये।
एक पिता ने अपनी विकृत महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिए अपने अनुभवहीन पुत्र को सियासी चोरस का मोहरा बनाया। क्योंकि वें देश का सबसे बड़ा प्रदेश हथियाने के बाद भारत का प्रधानमंत्री बनने की हसरते पाले हुए हैं। उत्तर प्रदेश को वे एक सिढ़ि की तरह उपयोग करना चाहते हैं। क्योंकि प्रदेश की सर्वाधिक लोकसभा सीटें जीत कर वे दिल्ली की सियासत में अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं।
सर्वाधिक सीटे जीतने का लक्ष्य पूरा करने का उनके पास एक ही रास्ता है- मुस्लिम तुष्टिकरण। अर्थात मुस्लिम समुदाय का मसीहा बनने के लिए सारे उलटे-सीधे काम करने में कोर्इ हिचक नहीं दिखार्इ जाय। मुलायम सिंह यादव एक सोची समझी रण नीति के तहत आगे बढ़ रहे हैं। अपनी सियासी हसरते पूरी करने के लिए यदि लोग आपस में कट मरे, इसकी उन्हें परवाह नही है। भारतीय सियासत का यह सबसे विकृत व विभत्स चेहरा है, जिसे देख कर घिन्न आती है।
उत्तर प्रदेश की जनता विशेषकर युवा मतदाताओं ने अखिलेश में अपना पूरा विश्वास व्यक्त किया था। उन्हे ऐसा भरोसा था कि युवा मुख्यमंत्री पिछडे़ प्रदेश को जाति और धर्म की संकीर्ण राजनीति के दलदल से बाहर निकाल कर विकास के पथ पर आगे ले जायेगा। यदि उनके पास प्रशासनिक अनुभव होता और कुछ कर गुजरने का जज़्बा होता, तो उनके लिए यह कार्य कठिन नहीं था, क्योंकि प्रदेश की जनता उनके साथ थी और विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त था। परन्तु वे ऐसा कर नहीं पाये। दरअसल अपने पिता के सियासी दांव पेंच के बीच वे अपनी कोर्इ अलग प्रशासनिक रणनीति नहीं बना पाये। प्रदेश के विकास की कोर्इ नयी राजनीतिक शैली नहीं विकसित कर पायें। उनमें त्वरित प्रशासनिक निर्णय लेने का और सूझबूझ का पूर्णतया अभाव दिखार्इ दिया। यही कारण है कि वे अपराध व अपराधियों पर नियंत्रण नहीं कर पाये।
अखिलेश पूर्णतया नौसिखिये ही साबित हुए। प्रदेश की जनता फिर ठगी गयी। पांच वर्ष तक एक अभिमानी महिला ने प्रदेश को जम कर लूटा और अब एक युवा मुख्यमंत्री ने भारत के इस महत्वपूर्ण प्रदेश को साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने के लिए छोड़ दिया है। लोकसभा चुनावों के सम्पन्न होने तक यह प्रदेश सियासी दंगल का अखाड़ा ही बना रहने वाला है। उत्तर प्रदेश की अभागी जनता को घृणित राजनीति के भंवर से बाहर निकलना फिलहाल कठिन ही लग रहा है।
बहरहाल मुजफ्फर नगर की त्रासदी ने आसाराम प्रकरण की खबरों को नेपेथ्य में धकेल कर शीर्ष स्थान बना लिया है। पीड़ितों के आंसुओं से अपनी सियासत को हरा-भरा करने की कोशिश जारी रहेगी। राजनेता पीड़ितों के रिसते घावों पर मरहम लगाने के बजाय, उन्हें अधिक कुरेदने की कोशिश करेंगे, किन्तु इस दुखद घटना क्रम से भारत की जनता को यह नसीहत लेनी चाहिये कि :-
एक: किसी परिवार में जन्म लेने से यह प्रमाणित नहीं होता कि उस व्यक्ति के प्रति विश्वास अभिव्यक्त करने से वह अपनी प्रशासनिक क्षमता में दक्षता दिखायेगा। प्रशासनिक दक्षता जन्मजात बिरलों में होती है। दीर्घ अनुभव ही उसे प्रशासनिक क्षमता में मजबूत करता है। अत: अखिलेश के उदाहरण को देखते हुए किसी अनुभवहीन नौसिखिये व्यक्ति को पूरा भारत सौंपने की अंशमात्र भी जोखिम नहीं लेनी चाहियें।
दो: साम्प्रदायिक दंगो के मामले में गुजरात काफी संवेदनशील प्रदेश माना जाता था। अहमदाबाद के कालुपुर और बस्तापुर में रोज साम्प्रदायिक तनाव होना आम बात थी। गुजरात में कर्इ बार दंगों को नियंत्रण करने लिए सैना बुलानी पड़ी थी। किन्तु अब पिछले ग्यारह साल से गुजरात साम्प्रदायिक सदभाव की दृष्टि से देश का सबसे शांत प्रदेश बना हुआ है। पिछले ग्यारह वर्षों से गुजरात के किसी शहर में सैना तो क्या पुलिस भी नहीं बुलानी पड़ी। इसका कारण यह है कि प्रदेश की सरकार ने अपनी प्रशासनिक क्षमता के कारण जनता में अपना विश्वास बनाया है। वह सरकार दो बार सत्ता में वापस इसलिए नहीं आयी कि उसने वोटों का धु्रवीकरण कर दिया था, वरन इसलिए आयी कि उसने प्रदेश के विकास को प्राथमिकता दी थी।
तीन: भारी बहुमत से विजय मिलने के बाद भी जो राजनीतिक दल अपराधियों से अपने आपको मुक्त नहीं कर सकता और साम्प्रदायिक विष के सहारे ही चुनाव जीतने के मनसूबे बांधता है, उस राजनीतिक दल को जनता द्वारा पूर्णतया ठुकरा देना चाहिये। क्योंकि ऐसे राजनीतिक दल जितने ज्यादा शक्तिशाली होंगे, उतनी ही अपनी शक्ति का दुरुपयोग करेंगे। केन्द्र में भी ऐसे दलों ने हमेशा राष्ट्रहित में कोर्इ सार्थक नीति की पहल नहीं की है।
चार: हर समय तुष्टिकरण व धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने वाले सभी राजनीतिक दलों से जनता को दूरी बना लेनी चाहिये। दरअसल ये सभी राजनीतिक दल अल्पसंख्यक समुदाय के रहनुमा बनने की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए है और इनका मकसद एक ही है – किसी भी तरह अल्पसंख्यक समुदाय के थोक वोट मिल जायें, ताकि अपनी अक्षमता को छुपा कर चुनाव आसानी से जीते जा सकें। यदि मुस्लिम समुदाय यह विचार कर लें कि हम उन्हें ही अपना मत देंगे, जो प्रत्यासी योग्य होगा, तब अधिकांश राजनीतिक दलों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा, क्योंकि हिन्दू वोटों की तरह यदि मुस्लिम वोट बिखर जायेंगे तब राजनीतिक दलों को अपने पिछले कार्य की गुणवता के आधार पर जनता से वोट मांगने पड़ेंगे और यह उनके लिए मुश्किल होगा।
पांच: जिस राजनीतिक दल के पास अपराधियों की भरमार हैं और अपराधी प्रवृति के लोगों को हमेशा अपने राजनीतिक दल में शामिल रखना आवश्यक समझा जाता है, ऐसे दलों को तिरस्कृत कर देना चाहिये। क्योंकि ऐसे दलो से कभी सुशासन की अपेक्षा की ही नहीं जा सकती।
छ: राजनीतिक पार्टियां बनती और मिटती रहती है। राजनीति मे हार और जीत भी होती रहती है। किन्तु धर्म और जाति कभी मिटती नहीं। किसी राजनीतिक पार्टी की अनुकम्पा से धर्म और जाति की सुरक्षा नहीं होती। धर्म का संबंध आस्था से जुड़ा हुआ है। आस्था कभी टूटती नहीं है और न ही इसे कोर्इ तोड़ पाता है। जाति हमारे जन्म और कुल की पहचान बताती है। इन दोनों को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहियें। अत: किसी भी राजनीतिक पार्टी का शासन आने से न तो किसी धर्म पर कोर्इ आंच आयेगी और न ही जातियां मिट जायेगी।
सात: आज की परिस्थितियों में देश भयानक आर्थिक संकट में फंसा हुआ है। एक अकर्मण्य और भ्रष्ट सरकार ने भारतीय जनता को महंगार्इ और अभावों की विषम परिस्थितियों में उलझा दिया है। अत: हम सब मिल कर उस राजनीतिक दल के पक्ष में खड़े हो जाय, जो देश को इस दुष्चक्र से बाहर निकालने की किसी सार्थक नीति की पहल करें। राजनीति का शुद्धिकरण तब होगा जब हम अपने भविष्य के लिए संवेदनशील बन कर अपने मतदान का प्रयोग सही प्रयोग करेंगे। जाति और धर्म को पैमाना मान कर वोट देने के दुष्परिणाम भुगत रहें हैं। हमे अब इनसे निज़ात पाने की कोशिश करनी चाहिये।
आठ: भारत के शहरों में पाकिस्तान आतंकवादियों को भेज कर या देशी आतंकवादियों को उकसा कर विस्फोट इसलिए करवाता है ताकि भारत में साम्प्रदायिक सदभाव बिगड़ जाय और साम्प्रदायिक दंगे हो जाय। किन्तु पिछले बीस वर्षों में कर्इ विभत्स बम विस्फोटों के बाद एक भी दंगा नहीं हुआ। यह इस बात की पुष्टि करता हैं भारतीय समाज अब अमन चैन से रहना चाहता है। सियासत यदि भारतीय समाज में विभ्रम की स्थिति बनाना चाहता है, तो ऐसी सियासत से दूरी बना लेनी चाहिये।
बहुत बढिया प्रस्तुति
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