Thursday 12 September 2013

मुज़फ्फरनगर और 'धर्मनिरपेक्षता' का ताज...

महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने ऐसी नाक का ज़िक्र किया था, जो हर बार कट जाने पर उसमे कई-कई शाखाएं उग आती हैं. ऐसी नाकों के बेशर्म मालिक गर्व से जहाँ तहां अपनी नाक कटाते फिरते हैं. लगता है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी अपने चेहरे पर कोई ऐसी ही नाक लगवा लाये हैं जो साल भर में १०० से अधिक दंगे होने पर भी शान  से 'धर्मनिरपेक्षता' का ताज... (माफ़ कीजिये) धर्मनिरपेक्षता की टोपी धारण किये बैठे हैं.
दंगे... हाँ, मासूमों को जिंदा निगल जाने वाले दंगे ! घर... गाँव ... शहर जलाने वाले दंगे ! और मानवता को लजाने वाले ये वीभत्स दंगे वर्त्तमान उत्तरप्रदेश में रोज़ भड़क रहे हैं. हालिया वाकया मुज़फ्फर नगर का है जहाँ एक नाबालिग से हुई छेड़छाड़ व छेड़छाड़ का विरोध करने पर उसके भाइयों की नृशंस हत्या के पश्चात् प्रशासन की चुप्पी ने स्थानीय जनता के असंतोष को तीव्र कर दिया. इसी पृष्ठभूमि पर समुदाय विशेष के उपद्रवियों ने दंगों के दावानल को हवा दी और दंगे भड़क उठे. ज़ाहिर है इन दंगों के लिए उत्तर प्रदेश की सपा सरकार का 'अल्पसंख्यक वोट बटोर' रवैया ही पूर्णतः ज़िम्मेदार है. काश... लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया इन दंगों का सच दिखाता !  किन्तु यहाँ भी स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष भारतीय पत्रकार पूरे यत्न से दंगों का एक मनगढ़ंत झूठा चित्र रंगने में जुटे हैं. और ज़ाहिर है, इस चित्र में भगवा को सांप्रदायिक रंग की तरह पेश किया जा रहा है. हाँ इस बीच दंगों में मारे गए IBN7 के एक पत्रकार की बहादुरी व अत्यंत दुखद मौत को महज़ इसलिए केवल 'स्ट्रिंगर' का ख़िताब लगाकर भुला दिया गया है क्योंकि उसके हत्यारे भगवाधारी नहीं थे.
हमारा धर्मनिरपेक्ष मीडिया बहुसंख्यक समुदाय के प्रत्येक गरीब और निरीह गाँव वाले का गिरेबान पकड़कर उसे दंगाई साबित करने में जुटा है. पीड़ितों को ही आँखे तरेर कर पूछा जा रहा है कि उसने अपनी बहु-बेटियों की अस्मत और जान की रक्षा हेतु महापंचायत जुटाने की हिम्मत की ही कैसे? लेकिन कोई यह नहीं बताता कि अक्सर ऐसी महापंचायतें दोषियों पर जुर्माना या बहिष्कार जैसे विचित्र किन्तु अहिंसक उपायों के माध्यम से बिना खून बहाए समस्या का हल खोज निकालती हैं. ऐसी ही एक महापंचायत से लौटते निहत्थे लोगों पर हथियारों से लैस समुदाय विशेष के उपद्रवियों ने हमला कर उन्हें मार डाला. इसके बाद ही मनमुटाव ने दंगों का भयंकर रूप ले लिया. यदि राज्य सरकार द्वारा समय रहते कार्रवाई की जाती तो दंगे नहीं होते किन्तु जैसा कि हम जानते हैं, यूपी की सर्टिफाइड धर्मनिरपेक्ष सरकार संप्रदाय विशेष के गुंडों को रोकना भी उनके धार्मिक अधिकारों का हनन समझती है.
दंगों की रक्त सनी स्याह पृष्ठभूमि के सामने झक सफ़ेद कपड़ों में जालीदार टोपी लगाये मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पूरे ताम-झाम के साथ अवतरित हुए, और आते ही उन्होंने ज़िम्मेदारी का वह परिचय दिया कि ''ज़िम्मेदारी' शब्द आत्महत्या कर ले! इसपर भी हमारा महान मीडिया यह नहीं पूछ पाया कि एक धर्मनिरपेक्ष तंत्र के मुख्यमंत्री होते हुए भी अखिलेश साहब एक धर्म विशेष की टोपी पहनकर बयान देने क्यों आये हैं? जब उनका कर्त्तव्य तटस्थ होकर शांति कायम करना है तब क्या लाशों के ढेर पर खड़े होकर अपनी 'वफ़ादारी का ऐसा अश्लील प्रदर्शन जायज़ है?
इसके उलट तमाम चैनल्स तो समाजवादी पार्टी के स्वर में स्वर मिलाते हुए हिन्दुओं और भाजपा को ही दंगों के लिए दोषी ठहराने में इस कदर मग्न हो गए  हैं कि लगता है जैसे सपा ने तमाम पत्रकारों को अपना आधिकारिक प्रवक्ता नियुक्त कर दिया हो!
‘धर्मनिरपेक्षता’ के शिखर पुरुष, पत्रकार (?) राजदीप सरदेसाई जी ने अपने सभी tweets हिन्दुओं को दंगाई साबित करने की कोशिशों में समर्पित कर दिए हैं. इनका कहना है कि हिन्दू सुबह गायत्री मन्त्र पढ़ते हैं और दिन में दंगे करते हैं. वही परम आदरणीय महाज्ञानी रविश कुमार जी  का कहना था- “ यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश का वह इलाका है जहाँ हत्याएं, छेड़खानी जैसी घटनाएँ आम बात हैं. वहां एक लड़की से कथित छेड़छाड़ को दंगे का रूप दे दिया गया” बहुत खूब! एक नाबालिग के साथ छेड़छाड़ और उसके दो भाइयों की हत्या आम बात , (क्योंकि इन अपराधों को समुदाय विशेष के गुंडों ने अंजाम दिया था )  इस कथन से आप कथित बुद्धिजीवियों के झुण्ड में और अधिक सम्माननीय बन गए होंगे?
साथ ही आपने पत्रिका में छपे लेख में यह भी फ़रमाया है कि हिंदुवादियों द्वारा अफवाहें फैलाये जाने से दंगे भड़के हैं, और सरकार इन्हें गिरफ्तार नहीं कर रही... हाँ, अफवाहें फैलाकर दंगे भड़काने वालों की गिरफ़्तारी होनी चाहिए किन्तु भारत में दंगों के बाद व्यापक स्तर पर अफवाहें फ़ैलाने की शुरुआत मीडिया और कथित मानवाधिकारवादियों ने ही की थी जब 2002 के दंगों में ऐसी-ऐसी वीभत्स अफवाहें फैलाई गयीं जैसे 'एक गर्भवती का पेट चीरकर भ्रूण को तलवार की नोंक पर उछाला गया' आदि आदि. जाँच में ये कहानियां झूठी निकली. तो क्यों ना मीडिया कर्मियों और मानवाधिकारवादियों को ही सबसे पहले अन्दर किया जाये?
अंत में महाशय दंगों के वक़्त मीडिया आचार संहिता का हवाला देते हैं. तो जनाब यह अचार संहिता उस वक़्त किस तालाबंद अलमारी में पटक दी गयी थी जब आप लोगों ने गुजरात दंगों पर २४ घंटे तमाम तरह की झूठी कहानियां दिखाकर देशभर में सांप्रदायिक अलगाव पैदा कर दिया था?
एक और (अति) बुद्धिवादी पत्रकार आशुतोष दंगों के पीछे भाजपा की साजिश मानते हैं.  मेरा तमाम बुद्धिजीवियों (?) से इतना सा प्रश्न है कि यदि शासन सपा का है तो भाजपा दंगों की दोषी कैसे? आपका आरोप है कि भाजपा 2014 के लोकसभा चुनावों में  जीतने के लिए दंगे करा रही है!! तो आप सभी बुद्धिजीवियों की यह गज़ब विश्लेषण शक्ति 2002 के गुजरात दंगों के वक़्त कहाँ चली गयी थी? याद कीजिये... 2002 में दंगे हुए और 2003 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस देश भर में अल्पसंख्यक  वोटों का ध्रुवीकरण कर चुनाव जीत गई. उस वक़्त आपकी उँगलियाँ कांग्रेस की और क्यों नहीं उठीं? ज़ाहिर सी बात है.. उठी हुई उँगलियाँ तोड़ दी जातीं!
इस बीच मौत का तांडव जारी है. हजारों की तादाद में हैण्ड ग्रेनेड्स व अन्य हथियारों की बरामदगी हो रही है.
काश बुद्धिजीवी का तमगा सीने से चिपकाये घूमने वाले लोग उत्तरप्रदेश में विदेशी धन के सहारे पोषित सांप्रदायिक उन्माद पर कुछ बोलने का साहस जुटा पायें ! यह तथ्य पूरी दुनिया जानती है कि भारत की एकता व अखंडता को अस्थिर करने के लिए अरब देशों से चंदा आता है और आजमगढ़ जैसे अंधकूपों का निर्माण होता है. खूंखार आतंकी यासीन भटकल ने इकबालिया बयान में कहा है कि 26/11 हमले के पश्चात् तमाम आतंकी संगठनों को भारत में अस्थिरता फ़ैलाने हेतु खूब पैसा मिला है. लेकिन कोई कुछ नहीं बोलेगा क्योंकि सब जानते हैं कि वर्त्तमान भारत में सच बोलना गुनाह है. तवलीन सिंह जैसी अत्यंत वरिष्ठ एवं झुझारू पत्रकार का तमाम मीडिया मंचों से केवल इसलिए अघोषित बहिष्कार हो जाता है कि वे देवबंदी मदरसों में पनपते कट्टरपंथ के खिलाफ कलम चलाने की हिम्मत करती हैं. यह सच लिखने की सजा है. यहाँ तक कि स्वयं राष्ट्रवादी मुस्लिमों की आवाज़ को मीडिया दबा देता है क्योंकि यह आवाज़ मज़हब के ठेकेदारों का विरोध करती है.
स्पष्ट है कि भारत में बुद्धिजीवियों - पत्रकारों की जमात ऐसे लिजलिजे जीवों में तब्दील हो चुकी है जो दंगों की गन्दगी में फलती-फूलती है.
इस विकृत धर्मनिरपेक्षता व तुष्टिकरण से जन्में दंगों में पिस कौन रहा है? ये लाखों रुपयें महीना और ढेरों पुरस्कार बटोरने वाले कथित बुद्धिजीवी पत्रकार नहीं, बल्कि आम नागरिक. वह नागरिक जो यदि हिन्दू है तो तुष्टिकरण की राजनीती में मारा जा रहा है और यदि मुस्लिम है तो मज़हबी धर्मान्धों के दुष्कृत्यों के कारण निरपराध होते हुए भी शक के दायरे में आकर प्रताड़ित हो रहा है.
संविधान की प्रस्तावना में अंकित 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द आज अपने दुरुपयोग पर जार-जार रो रहा होगा यकीनन!  आखिर कब रुकेगा बेशर्मी और हिंसा का यह नंगा नाच?
 

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