Tuesday, 27 August 2013

रामलला का आगमन से लेकर कारसेवकों की निर्मम हत्या तक :

रामलला का आगमन से लेकर कारसेवकों की निर्मम हत्या तक : १९४९ के पश्चात जब भारत ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र हुआ मुस्लिमों ने इस्लाम के नाम पर जिन्ना के नेतृत्व मे भारत भू को विभाजित किया, जन्मस्थान के पास हिन्दुओं की संख्या उमडने लगी, दिसंबर २२, १९४९ की मध्य रात्रि श्री राम वहां प्रकट हुए, जिसकी सहमति उस रात वहां ड्यूटी पर तैनात एक मुस्लिम कांस्टेबल ने दी। इस पर कुछ हिंदू वहाँ एकत्र हुए और रामलला की मूर्ति की स्थापना की। दिसंबर २३ की सुबह होने तक रामलला के प्रकट होने का समाचार प्रत्येक घर और सहस्त्रों (हजारों) श्रद्धालुओं को प्राप्त हो चुका था और सभी लोग वहाँ पहुँचने लगे और रामचरितमानस मे लिखी चौपाईयां पढने लगे और उस स्थान को पुनः रामजन्म स्थल बना दिया। उस समय से आज तक वहाँ श्री राम की पूजा अर्चना निर्बाध एवं सतत रूप से चल रही है।

गुजरात का सोमनाथ मंदिर गृहमंत्री सरदार पटेल के प्रयासों और हिंदुओं के दान के द्वारा निर्मित हुआ, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा १९३४ मे आंशिक रूप से टूटी मस्जिद के स्थान पर पूर्ण मस्जिद बनाने का विचार किया, जिसका लौह पुरुष सरदार पटेल द्वारा विरोध हुआ। रामलला की मूर्ति को हटाने के आदेशों को अधिकारियों ने पालन करने से मना किया और कहा कि हिंदू भावनाओं को देखते हुए इस प्रकार के आदेशों का पालन करना संभव नही है। तत्पश्चात एक न्यायालय मे विवादित भूमि का नया केस डाला गया।

९७५ और ८० के बीच अर्कियोलोजी सर्वे ऑफ़ इंडिया के डायरेक्टर जनरल बी बी लाल के मार्गदर्शन में अयोध्या में पुरातत्व संशोधन अभियान चलाया गया। इतिहासविद  एस पी गुप्ता भी इस अभियान के सदस्य थे। बी.बी. लाल के शब्दों में "हमने बाबरी मस्जिद के पास तीन जगह पर खुदाई की, इसमें दो जगह मस्जिद के पश्चिमी और दक्षिणी ओर है, यह खुदाई मस्जिद से सिर्फ दो मीटर के दूरी पर की गयी। मस्जिद की बाहरी दीवार के नीचे की ओर यह पाया की वहाँ अलग अलग स्तर दिखाई देते हैं, १. गुप्त कालीन, २. कुषाण काल, ३.शुंग काल और ४. ईसा पूर्व तीसरी और चौथी शताब्दी काल का स्तर। हम उसके भी नीचे गए और वहाँ कुछ चीजे मिली जिसका सम्बन्ध ईसा पूर्व सातवीं और आठवीं शताब्दी (ई.पू. ७०० या ८०० वर्ष) से हो सकता है। ऐसा संभव है कि सबसे निचले स्तर पर मिले अवशेष प्रभु राम के समय के हों,  क्यों की ऐसे अवशेष हमें अन्य जगहों से भी मिले हैं जो कि भगवान राम से जुडी जगह हैं जैसे शृंगवरपुर भारद्वाज आश्रम और चित्रकूट। जब खुदाई मस्जिद के दक्षिण हिस्से में की गयी और वहाँ भी ईसा पूर्व सातवीं और आठवीं शताब्दी स्तर तक गए, वहाँ भी हमें वहीँ मिला जैसा कि पश्चिमी खुदाई में मिला था। हमने अयोध्या में १४ अन्य स्थान खुदाई की ताकि हमारा अनुमान ठोस हो और हमें सभी जगह से एक जैसे ही प्रमाण मिले। मस्जिद के दक्षिण दिशा में हुई खुदाई में जैसे जैसे हम नीचे गए वहाँ हमें खम्बों की बुनियाद की कतार दिखाई दी। जैसे की मस्जिद के अन्दर वाले खम्बों की है। यह खंबे उत्तर दक्षिण और पूर्व पश्चिम दिशा मे बनाये गये थे। इन खम्बों पर विशिष्ट शैली के चित्रों और मूर्तियों की दस्तकारी हैं, आम तौर पर ऐसी दस्तकारी मंदिर के खम्बों पर पाई जाती है। यह खम्बे पहली शताब्दी के हैं, और मस्जिद के खम्बों और बाहर मिले खम्बों की बुनियाद यह प्रमाणित करती है कि यह एक ही काम है, इसके आगे भी जब काम किया तो मस्जिद के अन्दर अधिक प्रमाण मिले। इन खम्बों और बुनियादों को देखने से पता चलता है की इनके बीच का अंतर एक जैसा है। खम्बे बुनियाद से थोडा छोटे हैं। आम तौर पर खम्बों से बुनियाद थोडा  बड़ी रखी जाती है ताकि मजबूती बढ़ सके। यह प्रश्न करने पर कि "यदि हिन्दू ढांचे पर मस्जिद बनाई गयी है तो इन खाम्बों को खुला क्यों छोड़ दिया गया?"

बी.बी. लाल कहते हैं "यह समझना होगा कि ऐसा जहाँ भी हुआ है यही देखने को मिला है की जगह और खम्बों को खुला छोड़ जाता है। उदाहरण के लिए दिल्ली में एक मस्जिद है कुव्वातुल इस्लाम जहाँ कई खंबे ऐसे ही खड़े हैं और उन पर गुम्बद रख दिया गया है। यह कोई विशिष्ट बात नहीं है। आक्रामकों की मानसिकता को समझने से पता चलता है की जब मुस्लिम आक्रमणकारी यहाँ आये तो उन्हें अपनी ताकत दिखानी थी। आर ऐसा एक शिला लेख भी कुवातुल मस्जिद में पाया गया है। कहा जाता है यह मस्जिद बनाने के लिए २७ मंदिरों को ध्वस्त किया गया।" 'कुव्वत उल इस्लाम' का अर्थ होता है 'इस्लाम की ताकत' धारणा यह होती है की आक्रामक जनता को यह बताना चाहते हैं वह कितना ताकतवर हैं और सामान्यता प्रत्येक आक्रामक यह करता ही है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि खम्बों के ध्वस्त स्तर से चीनी मिटटी के बर्तनों के टुकड़े मिले हैं। जमीन का वह स्तर जहाँ पर ध्वस्त करने के स्थितिजन्य प्रमाण मिले हैं उस स्तर से चीनी मिटटी के बर्तन के टुकड़ों का मिलना उस समय के मुस्लिम काल की ओर संकेत करता है। भारत में यह बर्तन १३वीं शताब्दी तक नहीं पाए जाते। अतः ध्वस्त स्तर १५ शताब्दी का हो सकता है। चीनी मिटटी के बर्तनों के टुकड़ों का ध्वस्त स्तर पर मिलना और उस खम्बों के ऊपर ही ध्वस्त ढांचे का होना एक सम्बन्ध को स्थापित करता है।

दूसरे इतिहास विद एस पी गुप्ता जी के शब्दों में "यहाँ हमें भू-गर्भ संशोधन की पूरी स्वतंत्रता दी गयी और कहा गया की चाहें तो मस्जिद के नीचे भी खोद सकते हैं किन्तु मस्जिद की उपस्थिति में यह संभव नहीं था। यदि मस्जिद के नीचे भी खुदाई संभव हो जाये तो हमें आशा है की सभी ८४ खम्बो की नींव हम ढूंढ सकेंगे जैसा कि ६ हमने मस्जिद के दक्षिणी हिस्से में ढूंढें"

७ अक्टूबर १९८४ को बड़ी संख्या में लोगो ने आ कर उसी जगह मंदिर पुन निर्माण का संकल्प लिया। यह आन्दोलन स्वाधीनता आन्दोलन जैसा बड़ा आन्दोलन होने की दिशा में चलने लगा था। फिर एतिहासिक दिन आया, १ फ़रवरी १९८६ को मस्जिद के दरवाजे पर लगाया ताला निकाल दिया गया। जिला सत्र न्यायलय ने १९४९ में दिए गए प्रशासनिक आदेशों को ख़ारिज कर दिया और ३६ वर्षो से हिन्दूओ के वहां जाने के बात को मानते हुए ताले को खोलने के आदेश दिए। २३ मार्च १९५१ फ़ैजाबाद के  एकल न्यायाधीश के निरिक्षण के अनुसार उस स्थान का प्रयोग १९३६ के बाद कभी भी मस्जिद की भांति नहीं हुआ और ना ही वहां कभी नमाज पढ़ी गयी।

धर्मनिरपेक्षों के झूठ एवं विवादित ढांचें का गिरना : १९ नवम्बर १९८९ को मंदिर पुन निर्माण की नींव का पत्थर रखा गया जो की एक हरिजन द्वारा रखा गया। यह संकेत था कि यह सिर्फ मंदिर ही नहीं वरन एक नए समाज के निर्माण की शुरुआत भी होगी। इसके बाद १९९० में विभिन्न गुटों के बीच बात आगे बढ़ी किन्तु विभिन गुटों और राजनैतिक दलों की महत्वाकांक्षाओ और इच्छाओं के  कारण बात फंसती चली गयी। इन्ही हालातों में ३० अक्टूबर १९९० को कार सेवा की घोषणा की गयी। लाखों लोग अयोध्या में एकत्रित होने लगे। मुलायम सिंह की उत्तर प्रदेश सरकार ने सुरक्षा के प्रबंध किये और लोगों को अयोध्या में घुसने से रोकने की कोशिश की गयी। उस दिन अयोध्या ने ४६० वर्ष पूर्व के बाबर के आदेशों जैसा अनुभव किया। किन्तु कारसेवा नहीं रोकी जा सकी। नवंबर २, १९९० को अपनी राजनैतिक जमीन और मुस्लिम वोटों के खिसकने के डर से मुलायम सिंह यादव ने साधुओं और कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया। बिना चेतावनी के गोली चलाने के कारण लगभग १०० कारसेवकों की मृत्यु हुई, किंतु आधिकारिक रूप से उत्तर प्रदेश सरकार ने मात्र ६ लोगो की मृत्यु बताई। अयोध्या के नगरवासियों ने पुलिस दमन को प्रत्यक्ष देखा, कारसेवकों के शवों को रेत के बोरों से बांध कर सरयू नदी मे बहाया गया और उस दिन अयोध्या ने फिर औरंगजेब के अत्याचारों की पुनरावृति देखी।

इसी बीच मे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के वामपंथी मार्क्सवादी आदर्शों को मानने वाले और हिंदू विरोधी इतिहासकारों ने एक नयी चर्चा चलानी आरंभ की। १९८९ तक इस बारे मे कोई विवाद नही था कि रामजन्म भूमि पर बाबर ने १५२८ मे जहां मस्जिद बनाई थी, वहां पर एक मंदिर था (एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका "अयोध्या", १९८९ एडिशन)। किंतु १९८९ मे सभी प्रमाणों को एक ओर रख कर तथाकथित २५ विद्वानों ने "The Political Abuse of History" मे कहा कि अयोध्या मे मुस्लिमों द्वारा किये गये अत्याचार एक मिथक हैं लेकिन उसके पक्ष मे वह कुछ भी प्रमाण नही दे सके। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने कथित धर्मनिरपेक्षता को दिखाने के लिये इसको हाथों हाथ लिया। १९९० मे चंद्रशेखर सरकार ने विश्व हिंदू परिषद और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी को समस्या के ऐतिहासिक सत्य को जानने के लिये बुलाया। मीडिया द्वारा किया गये प्रचार कि हिंदुओं द्वारा किया गया रामजन्म भूमि का दावा मात्र एक मिथक है से भ्रमित किये हुए बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के सदस्य बिना किसी पूर्व तैयारी के आये किंतु जब परिषद के लोगों ने अपने पक्ष को प्रमाणित करने के लिये प्रमाण दिखाये तो वो कुछ न कह सके। जब १९९२ मे मंदिर के और अवशेष मिले तो मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने शोर मचाया कि यह प्रमाण म्यूजियम से उठा कर वहाँ रख दिये गये हैं। १९९०-९१ मे विद्वानों की बहस मे विहिप की टीम ने ४ अन्य प्रमाण प्रस्तुत किये, जिनमे राम मंदिर के के हटाये जाने का उल्लेख था। तत्कालीन मंत्री अर्जुन सिंह उन प्रमाणों को अंतर्राष्ट्रीय एक्स्पर्ट से जांच करवाना चाहते थे। किंतु ऐसा नही किया गया।

अक्तूबर १९९२ मे नरसिम्हाराव की केंद्रीय सरकार ने पुनः दोनों पक्षों के बीच में बात कराने का प्रयास किया। किंतु बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने विरोध किया कि जब तक विहिप ६ दिसंबर के प्रस्तावित कार्यक्रम को बंद करने का निर्णय नही करेगी तब तक वह बातचीत मे हिस्सा नहीं लेगी। इस पर विहिप का उत्तर था हिंदू समाज के जन्मभूमि के अधिकार को न्यायालय के निर्णयों या इतिहासविदों के आपस के मतभेदों के कारण रोका नही जा सकता।

६ दिसंबर १९९२ को लाखों श्रद्धालु कारसेवा करने हेतु अयोध्या मे एकत्र हुए, आधिकारिक नेतृत्व कर रहे लाल कृष्ण आडवाणी कारसेवा को मात्र प्रतीकात्मक रूप से भजन कीर्तन के साथ करना चाहते थे, जिस से हिंदुओं का जन्मभूमि स्थान पर अधिकार बताया जा सके। किंतु भीड मे उपस्थित लोग किसी और ही मंशा मे थे, एक बार जब बाड टूट गयी तो उन्होंने ढांचे को नुकसान पहुंचाना शुरु कर दिया, जल्दी ही सभी लोगों ने उनके साथ हाथ बंटाना शुरु कर दिया। अधिकारियों ने उन्हे रोकने के प्रयास किया किंतु सफल नहीं हो सके। कुछ ही घंटो मे बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा जो कि गुलामी का प्रतीक था नीचे आ गिरा।

भाजपा की राज्य सरकार ने तुरंत त्याग पत्र दे दिया, किंतु केंद्र सरकार अगले दिन तक कुछ ना कर सकी और वहां श्रद्धालुओं ने एक टैंट लगा कर प्रतीकात्मक रूप से नया राम मंदिर का निर्माण कर दिया। अल्पसंख्यक वोटों के जाने के भय से तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण का वचन दिया और ढांचे को "शहीद" का शब्द प्रदान किया। इसके कारण पूरे देश मे हिंदू मुस्लिम दंगे होना शुरु हो गये।

ढाँचे के गिरने पर कुछ अन्य प्रमाण भी मिले। एक स्तंभ जो कि ११४० ई। के लगभग का है उस पर भगवान विष्णु द्वारा बलि के वध का चित्रण था, मिला। यह प्रमाण भी बंद कर दिया गया और २००३ तक छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों द्वारा झूठा बताया जाता रहा। २००३ मे People's Democracy, जो कि सीपीएम का था, ने कहा कि लखनऊ के म्यूजियम के कैटॉलाग मे विष्णु के बारे मे जो पंक्तियां लिखी गयी है वो ढांचे के स्थान पर मिले गये भगवान विष्णु के प्रकार से मेल खाती हैं किंतु वह १९८० से गायब है। इसका तात्पर्य यह था कि हिंदुओं द्वारा दिया गया प्रमाण कि ढांचे के गिरने पर विष्णु की मूर्ति प्राप्त हुई है, उसको म्यूजियम से गायब हुई मूर्ति बताया जा सके। किंतु म्यूजियम के डॉयरेक्टर श्री जितेंद्र कुमार ने कहा कि वह मूर्ति कभी भी म्यूजियम से गायब नही हुई है, अपितु उसे आम लोगों के लिये नही रखा गया है, और ऐसा उन्होने एक प्रेस कॉफ्रेंस मे कहा (हिंदुस्तान टाइम्स, ८ मई, २००३)।


अपराजेय अयोध्या, एक यात्रा . .

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