देशी शासकों की परितंत्रता से मुक्त होना अभी बाकी है
स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस सरकारी त्यौहार बन कर रह गया है। सरकारी तंत्र और सरकारी संस्थान रस्म अदायगी करते हैं और आज के दिन कर्मचारी छुट्टी मनाते हैं। आम भारतीय नागरिकों के लिए इन त्यौहारों का विशेष महत्व नहीं रहा है। भारत ने छियांसठ वर्ष पूर्व विदेशी उपनिवेश शासन से मुक्ति पायी थी, किन्तु भारतीय जनता आज भी अपने देशी शासकों की परतंत्र है।
अंग्रेज चले गये, परन्तु अंग्रेजियत नहीं गयी। देश का प्रशासन आज भी देशी हाकम सम्भाल रहे हैं। उनके रुतबे वैसे ही हैं, जैसे अंग्रेजी हाकमों के थे। जनता को अब भी ये गुलाम ही मानते है। अंग्रेज हाकम जनता के काम करने के लिए पैसे नहीं लेते थे, परन्तु देशी हाकम रिश्वत लेने में शर्म महसूस नहीं करते हैं। पुलिस की खाकी वर्दी नहीं बदली और न ही अंग्रेजों द्वारा पुलिस को दिये गये अधिकार बदले। कानून वहीं रहें। कानून की धाराएं वहीं रहीं, जिन्हें अंग्रेजों ने अपना शासन स्थापित करने के लिए बनायी थी। जजो का चोगा वैसा ही रहा, जैसा अंग्रेज उन्हें पहनाया करते थे। वे अंग्रेजी जजो की तरह ही टेबल पर हथोड़ा पटक कर आर्डर-आर्डर बोलते हैं। आज भी अंग्रेजी जमाने की तरह वकील जेठ की भरी दोपहरी में काला कोट पहन कर अदालतों में बैठते हैं।
निश्चय ही भारतीय लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को हम वह रुप नहीं दे पाये, जो हमें गुलामी की यादे ताजा नहीं करायें। दरअसल भारतीय शासक भी अपने आपको मानसिक रुप से जनसेवक नहीं बना पाये, इसीलिए उन्हें अंग्रेजी राज्य व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाये रखना पड़ा। फलत: भारतीय लोकतंत्र का आज जो स्वरुप है, उससे भारत की जनता रुष्ट है। जनता के मन में भारत की राजनीति और राजनेताओं के भ्रष्ट व संदिग्ध चरित्र को ले कर आक्रोश का भाव है। राजनीतिक व्यवस्था से वह बहुत अधिक आहत है।
किसी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में यदि जनता अपने शासकों के अलोकतंत्री को कार्यो को असहाय हो कर देखती है, वह स्थिति बहुत कष्टप्रद होती है और अनायास ही लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगा देती है। हमे यह सोचने के लिए विवश कर देती है कि हम एक स्वतंत्र देश के नागरिक हैं या परतंत्र देश के?
दरअसल, लोकतंत्र के मीठे फल कुछ भाग्यशाली नागरिकों को ही खाने को मिल रहे है और भारत की अधिकांश जनता अब भी इन मीठे फलों का स्वाद चखने से वंचित है। भारत में ही एक समृद्ध और खुशहाल भारत और एक निर्धन व अभावग्रस्त भारत का निमार्ण हुआ है। मात्र बीस प्रतिशत भारतीय नागरिक जिनमें राजनेता, सरकारी कर्मचारी, उद्योगपति, व्यावसायी और वे व्यक्ति सम्मिलित हैं, जो सरकार या सरकारीतंत्र से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़े हुए हैं और व्यवस्था का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। जबकि अस्सीं प्रतिशत भारतीय याने लगभग सौ करोड़ नागरिक बेहद कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे है। दरअसल, समृद्ध भारत निर्धन भारत के नागरिकों के शोषण से ही जगमगा रहा है। ज्यों -ज्यों समृद्ध भारत की समृद्धि बढ़ती है, त्यों-त्यों निर्धन भारत की दरिद्रता बढ़ती है। यह क्रम निर्बाध रुप से पिछले छियांसठ वर्ष से जारी है।
यह दुखद स्थिति है। हमारा आज का भारत शहीदों के सपनों का भारत नहीं है। यदि देश की अस्सीं प्रतिशत आबादी निधर्न और अभावग्रस्त है, तो इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि हम अब भी परतंत्र है। छियांसठ वर्ष बाद भी हमे स्वतंत्र होने के लिए एक और लड़ाई लड़नी है।
विदेशी भारतीयों को परतंत्र बना कर शोषण करते थे। अब देशी शासक भारतीयों को लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था के जरिये मूर्ख बना कर शोषण का क्रम जारी रखे हुए हैं। विदेशी भारत का धन लूट कर विदेशों में ले जाते थे। देशी शासक लूट का धन अपने समृद्ध भारत में निवेश करते हैं या विदेशी बैंकों में जमा कराते हैं।
शोषण का यह क्रम अवरुद्ध हो सकता है यदि सौ करोड़ भारतीय एक हो जाय और एक भ्रष्ट शासन व्यवस्था को बदलने का संकल्प लें। वे उन राजनेताओं को पूरी तरह तिरष्कृत कर दें, जो धन कमाने के लिए ही राजनीति में आते हैं। जिन्होंने राजनीति का पूर्णतया व्यावसायीकरण कर दिया है। वे राजनीतिक पार्टियां, जो किसी व्यक्ति या परिवार की निजी मिल्कियत है, उन राजनेताओं का राजनीतिक जीवन समाप्त कर दें।
जो पेशेवर राजनेता सार्वजनिक जीवन में स्थापित हो चुके हैं, उनका कोई धर्म और जाति नहीं है। स्वार्थ ही उनका धर्म है और छल और कपट ही उनकी जाति है। अपना मतलब पूरा करने के लिए वे समाज को जाति और धर्म के आधार पर बांटते हैं। समाज में जानबूझ कर विभ्रम की स्थिति पैदा करते हैं। यह सारी कवायद वे जनता के वोट प्राप्त करने और सता पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए करते हैं। दरअसल उनके मन में भारत की निर्धन और अभावग्रस्त जनता के प्रति किसी भी तरह की कोई सहानुभूति नहीं है।
भारत की जनता जब तक राजनेताओं द्वारा बुने गये मकड़जाल से अपने आपको मुक्त नहीं कर पायेगी, तब तक शोषण का क्रम जारी रहेगा। भारत विश्व का निर्धनतम और भ्रष्टतम राष्ट्र बना रहेगा। राजनेताओं के वेश में जो ठग और लूटेरे सार्वजनिक जीवन में छाये हुए हैं, वे जनता को लूटते रहेंगे और देश को बरबाद करने की कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे।
प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी लाल किले पर झंड़ा फहरा कर हमारे प्रधानमंत्री औपचारिक भाषण देंगे। झूठे आंकड़ो के सहारे देश की सुनहरी और चमकदार तस्वीर पेश करेंगे, किन्तु नैराश्य के उस अंधकार के बारें में चुप्पी साधे रहेंगे, जिसमें पूरा देश डूबा हुआ है।
अब समय आ गया जब हमें राजनेताओं की बातों पर अधिक विश्वास नहीं करना चाहिये। हमारे भारत को नया भारत बनाने के लिए हम सौ करोड़ भारतीयों को आपस में जुड़ कर स्वतंत्रता दिवस पर एक संकल्प लेना होगा – ‘ हम अब उन्हें अपना शासक चुनेंगे, जो हमारे अपने होंगे, जो लोकतांत्रिक भारत को नया स्वरुप देने के लिए प्रतिबद्ध होंगे।’ अब हम राजनीतिक दलों द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले चुनावी घोषणा पत्र को नहीं स्वीकार करेंगे, वरन हम सब मिल कर राजनीतिक दलों के समक्ष कुछ शर्तें रखेंगे, यदि वे उन्हें स्वीकार करेंगे, तभी हम उन्हें मान्यता देंगे। संक्षेप में ये शर्ते निम्न होगी-
भारत के लोकतांत्रिक स्वरुप को बदलना होगा। हमे सार्वजनिक जीवन में वे व्यक्ति चाहिये, जो जनता से जुड़ें हों, वे नहीं जो जनता से कटे हुए हों। आप जिन्हें सार्वजनिक जीवन में लाना चाहते हैं, उन लोगों के व्यक्तित्व की विशेषताओं को पहले जनता को बताना होगा। क्योंकि भारत की जनता अब सार्वजनिक जीवन में कर्मठ, ईमानदार व जनसेवा के लिए प्रतिबद्ध व्यक्तियों को देखना चाहती हैं।
भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था का पूर्णतया भारतीयकरण करना होगा। जनता सरकारी कार्यालयों को सेवाकेन्द्र बनाना चाहती हैं, जबकि ये अर्कमण्यता व रिश्वतखोरों के अड्डे बने हुए हैं। भ्रष्टाचार मुक्त भारत के संबंध में आपकी क्या नीति होगी, उसे तार्किक ढंग से समझाएं। साथ ही, विदेशों में जमा काले धन को देश में लाने के लिए अपनी वचनबद्धता की घोषणा करें।
हमे ऐसी आर्थिक नीति चाहिये, जिसका लाभ भारत के सभी नागरिकों को हों, न कि इसका लाभ सीमित वर्ग को ही हो। स्वावलम्बी व प्रगतिशाली भारत निमार्ण के लिए किसी व्यावहारिक आर्थिकनीति की घोषणा करनी होगी।
जनता न्यायप्रणाली को सुधारना चाहती है। बोझिल, ऊबाऊ, शिथिल और खर्चिली न्यायव्यस्था के स्थान पर त्वरित न्याय दिलाने वाली व्यवस्था का परिचय दीजिये। ढ़।ई करोड मुकदमें के भार से दबी भारतीय न्यायप्रणाली पीड़ित जनता को न्याय दिलाने में पूरी तरह अक्षम साबित हो रही है।
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