Tuesday 27 August 2013

सोच समझ कर उन्हें चुनना है, जो देश और जन हित में सही नीतियां बना सके

सोच समझ कर उन्हें चुनना है, जो देश  और जन हित में सही नीतियां बना सके
यह हमारी लोकतात्रिक शासन व्यवस्था की दुर्बलता ही है कि जिन शासकों ने अपनी नीतियों और कार्यशैली से देश को भारी क्षति पहुंचायी, वे जनता के बीच सिर उठा कर चलने का साहस कर रहे हैं। जिनके वृहद आकार के घपलों-घोटालों से देश आर्थिक दृष्टि से तबाह हो गया, उनके मन में अपने करमों के प्रति न तो पश्चाताप  है और न ही झेंप। दस वर्षों से जिन्होंने अपनी अर्कमण्यता और भ्रष्ट आचरण से देश को विकास में बीस वर्ष पीछे धेकेल दिया, वे फिर शासन करने के लिए पांच वर्ष का अधिकार मांग रहे हैं। इसके लिए वे ढ़ोल पीट कर अपनी उपलब्धियों का बखान कर रहे हैं।
जो हक़ीकत से दूर भागते हैं, उन्हें ढ़ोल पीट कर नौटंकी करनी पड़ती है। देश के प्रत्येक नागरिक को उनके दिये हुए कष्टों की यातना भोगनी पड़ रही है। अपनी गाढी कमाई की जब बाज़ार में कोई कीमत नहीं रहती, तब सरकार की अकर्मण्यता याद आती है। पांच सौ रुपये के नोट से अब सौ रुपये का ही सामान आता है। मन मसोस कर आवश्यक चीज़ो की कटौती करनी पड़ रही है। बच्चों को तरसाना पड़ रहा है। अब उनके गाये गीत सुने या आंसू बहाये, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
पिछले चुनाव के समय किये गये वादे को अगला चुनाव आने के पर्वू निभाने का आखिर क्या औचित्य है? यदि भारतीय नागरिकों को भूख और कुपोषण से निज़ात दिलानी थी, तो यह कवायद चार वर्ष पूर्व क्यों नही की गयी ? प्रत्येक नीति को वोट राजनीति से जोड़ने से शासकों की नीयत पर शक होता है। निश्चय ही उनके लिए सत्ता महत्वपूर्ण है, जन कल्याण नहीं। चुनावी वैतरणी पार करने के लिए खाद्य सुरक्षा बिल की पूंछ पकड़ने से क्या सारे पाप धुल जायेंगे? उनकी नीतियों से उपजे अभूतपूर्व आर्थिक संकट को नज़र अंदाज कर क्या जनता उनकी परोपकारी छवि को मान्यता दे देगी ?
दोनो प्रश्न  भविष्य  के गर्भ में हैं। इन प्रश्नो का उत्तर जनता चुनावों के समय दे देगी। आर्थिक संकट की भयावता को भांप कर सम्भवतः खाद्य सुरक्षा बिल के पास होते ही सरकार चुनाव का बिगुल बजा देगी। क्योंकि सरकार को मालूम है कि उनकी नीतियों से उपजे आर्थिक संकट की भयावता दिन प्रति दिन बढ़ती जायेगी और अगले वर्ष चुनाव कराने पर उनकी रही सही साख खत्म हो जायेगी। वस्तुतः उन्हें किसी भी तरह सत्ता पर से अपना नियंत्रण छोड़ना नहीं है। वे इसके लिए कुछ भी कर सकते हैं। खाली हुए खजाने से भी करोड़ो रुपये निकाल कर विज्ञापन बाजी पर खर्च कर रहे हैं, उन्हें देश  की आर्थिक हालत की कोई चिंता नहीं है। चुनाव जीतने के लिए अरबों रुपये बहा देंगे। गरीब देश के मालामाल राजनेता अपने धन की चकाचैंध से जनता को भ्रमित कर, उसके वोट पाने के सभी उचित अनुचित प्रयास करने में पीछे नहीं हटेंगे।
अगले लोकसभा चुनाव भारत के संसदीय लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा साबित होंगे। भारत की जनता को अगली सरकार चुनने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय लेने होंगें। उसके निर्णय से या तो उनके कष्टों से थोड़ी राहत मिलेगी या उनके कष्ट और अधिक बढ़ जायेंगे।
वर्तमान सताधारी दल ने अक्षम्य आर्थिक अपराध किये हैं और सरकारी जांच एंजेसियों के सहारे इन्हें भरसक दबाने की कोशिश  की हैं। इन्हें क्षमादान दे कर फिर शासन सौंपना, भ्रष्टाचार  को मान्यता देना है। इस दल को इतने कठोर दंड से दंडित करना चाहिये ताकि यह राजनीतिक दल सता से इतने दूर रह जाय कि न तो सरकार बना सकें और न ही इनके समर्थन से कोई सरकार बन सकें।
यदि भारतीय जनता इनके छल-कपट के चक्रव्यूह में फंस कर उन्हें सता के नज़दीक ले जायेगी। या ऐसी स्थिति परिस्थतियां उत्पन्न हो जायेगी, कि उन दोगले राजनेताओं के समर्थन से सरकार बना लें, जिनकी कथनी और करनी में बहुत फर्क है, जो चुनाव में एक पार्टी के प्रत्यासी का हराते हैं, किन्तु सरकार बनाने और सरकार चलाने में उसका सहयोग करते हैं। दोनो ही स्थितियां भारतीय लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यजक होगी। और यदि कांग्रेस पार्टी के समर्थन से किसी क्षत्रप को प्रधानमंत्री बना दिया गया तो देश एक भयानक दुश्चक्र में फंस जायेगा। देश को विकट स्थिति का सामना करना पडे़गा। आर्थिक  संकट बढ़ जायेगा। प्रगति अवरुद्ध हो जायेगी और एक वर्ष में ही अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी करनी पड़ेगी।
अतः भारत की जनता को देश के समक्ष उत्पन्न होने वाली दुरुह परिस्थितियों को ध्यान में रख कर बहुत ही सोच समझ कर मतदान करना चाहिये। देश को आर्थिक दृष्टि से सक्षम बनाना या उसे दुर्बल बनाना -दोनों ही उसके हाथ में है। जनता को उन राजनीतिक दलों और उनके प्रत्यासियों के पक्ष में मतदान करना चाहिये, जिन पर विश्वास  जा सके। जिनका चरित्र दाग़दार नहीं हो। जिनका भूत संदीग्ध रहा हो और जो अपने अपराधों को स्वीकार नहीं करते हों, ऐसे राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की मान्यता जनता चाहें तो खत्म कर सकती है।
जो देश के हालात बने हैं उसे देखते हुए देश को विकट आर्थिक हालात से उबारना बहुत दुष्कर कार्य होगा। आने वाली सरकार को कड़े आर्थिक फैंसले लेने के लिए विवश होना पड़ेगा। इसमें कोई आश्र्चर्य नहीं कि इसका सारा भार जनता पर डाला जायेगा। क्योंकि जनता ही वह दुधारु गाय है, जिससे हर समय दुहना जरुरी है, चाहे उसकी हालत कृश्काय हो गयी। चाहे खुराक नहीं मिलने से उसके थन में दूध सुख गया हो, किन्तु उसकी चमड़ी को भी खींचों और दूध निकालो। यदि वह दर्द से छटपटाये तो भी उसे यही कहो- हमारे पास इसके अलावा चारा ही क्या है?
दरअसल देश को विकट आर्थिक हालात से बाहर निकालने का ही एक ही उपाय बचा है- विदेशों में जमा भारतीयों के काले धन को देश में लाने के लिए सार्थक नीति बनाना। यदि कोई राजनीतिक दल चुनावों से पूर्व इस संबंध में जनता से वादा करता है, तो सब कुछ भूल कर उस राजनीतिक दल के पक्ष में मतदान करना चाहिये। विदेशों में जमा धन यदि भारत में आ गया तो जनता पर सरकारी करों का भार कम हो जायेगा। महंगाई घट जायेगी। उद्योगो को राहत पैकेज दे कर उनकी उत्पादन क्षमता बढ़ायी जा सकेगी। भारत विदेशी कर्ज  के जंजाल से मुक्त हो जायेगा। यह बहुत ही सुखद स्थिति होगी।
काले धन को स्वदेश लाना कोई जटिल व असंभव प्रक्रिया नहीं है। यह धन भ्रष्ट राजनेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों का है, जिसे कोई भी सरकार ला सकती है, यदि उसके पास  नैतिक बल हों। भारत की जनता यदि धर्म, जाति और प्रान्तीयता के बंधनों से मुक्त हो कर उस राजनीति दल के पक्ष में एकजुट हो कर मतदान करेगी तो इस देश की तकदीर बदल जायेगी। आने वाली कई पीढियां खुशहाल हो जायेगी। जनता को एक बाद याद रखनी चाहिये- राजनीतिक दलों के आचरण और नीतियों से जाति और धर्म पर कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि जाति और धर्म कभी नष्ट नहीं होते। किन्तु राजनेताओं की नीतियों से देश बर्बाद हो जाता है। जनता को महंगाई और अभाव के अनावश्यक कष्ट झेलने पड़ते हैं। अतः सोच समझ कर उन्हें चुनों जो देशऔर जन हित में सही नीतियां बना सके, उन्हें नहीं जो अपनी थोथी उपलब्धियों का ढ़ोल पीट कर जनता को भ्रमित करने का प्रयास करें।

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