खेल शुरु नहीं हुआ, परन्तु भाजपा पहले ही जीत का जश्न मना रही है। इसे
राजनीतिक नासमझी ही कहा जा सकता है। माना कि वर्तमान सरकार की नीतियों से
असंतुष्ट जनता भाजपा के पक्ष में मत दे सकती है। यह भी सम्भव है कि भाजपा
के सर्वाधिक सांसद अगली संसद में बैठेंगे। किन्तु जब तक सता नहीं मिलेगी,
सारी सफलता निरर्थक ही मानी जायेगी। यदि अब भी भाजपा आत्ममुग्धता के रोग से
मुक्त नहीं हो पायी, तो उसे विपक्ष की कुर्सियों पर बैठ कर टुकर-टुकर सता
की ओर ललचायी नज़रो से देखना पडे़गा। सता पास आ कर भी दूर चली जायेगी। पांच
साल की प्रतीक्षा न केवल उसके लिए दर्दनाक होगी, वरन पीड़ित भारतीय जनता
का भाग्य फिर उन दानवों के हाथों में चला जायेगा, जिन्होंने इस देश को
बरबाद करने में कोर्इ कसर बाकी नहीं रखी है।
वोट पाने के लिए खजाना खाली करने पर तुले हुए हैं। फिर अपने पक्ष में हवा बहाने के लिए करोड़ो रुपया विज्ञापनबाजी पर फूंकेंगे। देश चाहे कंगाल हो जाये, उसकी उन्हें परवाह नहीं है। उन्हें सिर्फ पीड़ित जनता के वोट चाहिये। सता चाहिये। देश- सेवा नहीं, सता उनका मुख्य ध्येय है। सता ही उनकी आराध्य है, जनता नहीं । जनता उनके लिए सता तक पहुंचने की सीढ़ी मात्र है। सता पाने के बाद सीढ़ी को लात मार देते हैं। सता सुख भोगने में मस्त हो जाते हैं। उनकी खुमारी को देख कर जनता चिढ़ती है। अपने आपको कोसती है कि ऐसे लोगों को क्यों हमने चुना था। परन्तु अपनी बेबसी दिखाने के अलावा वह कुछ नहीं कर सकती।
क्या भाजपा के नेता इस मिथक को तोड़ने के लिए उत्कंठित है? क्या वे भारतीय जनता को आराध्य मान कर जनसेवा के लिए सत्ता पाने की मन:स्थिति रखते हैं ? यदि वास्तव में ऐसा है, तो उन्हें पूरे मनोयोग से जनता से जुड़ना होगा। जनता की पीड़ा को समझना होगा। उसका विश्वास जीतना होगा। उसे भरोसा दिलाना होगा कि सता मिलने के बाद जनता के बीच उनकी दूरियां बढ़ेगी नहीं। वे हमेशा जनता के पास रहेंगें। उनके बीच रहेंगे। उनकी समस्याओं को सुलझाने में अपनी क्षमता का पूरा उपयोग करेंगे। सता प्रेम नहीं, जन-सेवा उनका प्रमुख ध्येय हैं। इसी उद्धेश्य को ले कर वे राजनीति में आयें हैं। सता पा कर देश के संसाधनों को लूटना और राजनीति से अकूत धन कमाना उनका उद्धेश्य नहीं है।
भारतीय जनमानस में इस समय कांग्रेस सरकार की नीति और नीयत को ले कर गहरा असंतोष है। जनता ऐसी भ्रष्ट व अर्कमण्य सरकार को फिर सता में आने के लिए वोट नहीं देगी। किन्तु पार्टी को जो लोग संचालित कर रहे हैं, वे बहुत चतुर और चालाक है। खैरात के साथ-साथ धन बांटने में कसर बाकी नहीं रखेंगे। एक-एक सांसद पर करोड़ो रुपया दांव पर लगा देंगे। क्योंकि उन्हें यह भय है कि सता यदि उनके हाथ से चली जायेगी, तो उनका सारा खेल खत्म हो जायेगा। घोटालों के सारे रहस्यों पर से यदि पर्दा उठ जायेगा, तो उन्हें इस देश के किसी भी कोैने में सिर छुपाना भी मुश्किल हो जायेगा।
भारत का लोकतांत्रिक इतिहास भाजपा की कड़ी परीक्षा लेना चाहता है। यदि वह इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो गयी, तो भविष्य उसका होगा। भारत की जनता का दिल जीतने का एक अवसर उसके हाथ में आ जायेगा। उसके नेता भारत की तकदीर बदल सकते हैं। परन्तु यह परीक्षा बहुत कठिन होगी। इस परीक्षा को पास करने के लिए भाजपा को कड़ा परिश्रम करना होगा। उन्हें सुख-सुविधा वाली दिल्ली छोड़ कर सुदूर गांवों में और शहरों की गलियों में खाक छाननी पडे़गी। क्योंकि भारत बड़े शहरों की पॉश कॉलोनियों में नहीं, साढ़े छ: लाख गांवों और छोटे-मोटे हज़ारो शहरों में बसता है। जिस भारत में राजनेता रहते हैं, उस भारत के भरोसे वे सता तक नहीं पहुंच सकते।
खेत में काम करने वाले किसान की तक़लीफ समझने के लिए उसके पास जाना होगा। क्योंकि वह राजनेताओं द्वारा की गयी ट्वीट को नहीं पढ़ता। टीवी चेनलों पर होने वाली बहस को वह नहीं सुनता। वह अखबारों की सुर्खिया नहीं पढ़ता। उसकी अपनी दुनियां है। अपने सुख-दु:ख हैं। उसका दिल जीतने के लिए उसका अपना बनना पड़ता है।
इसी तरह शहरों में रहने वाले वे भारतीय नागरिक, जो रोज कुआ खोद कर पानी पीते हैं। उनके पास नौकरियां नहीं है। स्थायी आमदनी नहीं है। महंगार्इ बढ़ने पर भत्ता नहीं बढ़ता। सालाना वेतनवृद्धि नहीं होती। पदोन्नति नहीं मिलती। वे सेवानिवृति तब लेते हैं, जब शरीर से अशक्त हो जाते हैं या दुनियां से कूच कर जाते हैं। उनकी ज़िदगी जहां से शुरु होती है, वहीं जा कर खत्म हो जाती है। ये सभी खैरात पाने के अधिकारी हो सकते हैं, किन्तु ये खैरात से कभी खुश नहीं होंगे। वे उसे ही अपना समझेंगे, जो उनसे जुड़ कर उनकी समस्याओं को समझना चाहेगा। उन्हें जिंदा रहने का होंसला बढ़ायेगा।
यह अस्सीं-नब्बे करोड़ भारतीयों का भारत है। ये सभी भारतीय अलग-अलग जातियों और धर्मों को मानते हैं। इनके वोट भी धर्म और जातियों के आधार पर बंट जाते हैं। सारे राजनीतिक दलों की धमाचौकड़ी इन्हीं लोगों के बीच से आरम्भ होती है। किन्तु वोट लेने के लिए ये इनके बीच तरह-तरह की भंगिमा बना कर जाते हैं। उन्हें प्रभावित करते हैं और मतलब निकलने के बाद इन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं।
इन सभी भारतीयों के दु:ख एक जैसे हैं। इनकी समस्याएं समान है। महंगार्इ से ये बूरी तरह त्रसत है। भ्रष्ट राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था से ये चिढ़े हुए हैं। इनकी शक्ति का समुचित उपयोग इसलिए नहीं हो पाता है, क्योंकि राजनीतिक दलों ने इन्हें धर्म, जाति और भाषा के आधार पर बांट रखा है। किन्तु क्या भाजपा नेताओ के पास इन नब्बे करोड़ भारतीयों को आपस में जोड़ने की सोशल इंजीनियरिंग है? यदि नहीं है, तो आज से इन्हें जोड़ने की विधा की खोज प्रारम्भ कर देनी चाहिये। यह बहुत ही श्रम साध्य कार्य है। इसके लिए एक दो नहीं, हज़ारों नेताओं को सुख सुविधा छोड़ कर घरों से बाहर निकलना पड़ेगा। भाषणों और रैलियों से नहीं, छोटी-छोटी रथ यात्राओं के जरियें घरों की चोखट पर जा कर जनता से संबंध बनाने होगें। उनके हाल-चाल पूछने होंगे। उनके मन में विश्वास और भरोसा जगाना होगा।
फार्मुले इज़ाद कर के और सताधारी दल की विफलताओं से कुपित जनता के असंतोष का लाभ उठा कर चुनाव तो जीते जा सकते हैं, किन्तु एतिहासिक और शानदार जीत नहीं हांसिल की जा सकती। नरेन्द्र मोदी अपनी क्षमता और ताकत से पार्टी को सता के द्वार पर पहुंचा सकते है, किन्तु विरोधी एक जुट हो कर और अपनी पूरी शक्ति लगा कर द्वारा बंद कर देंगे, तब क्या किया जा सकता है? हॉं, यदि हज़ारों नेता नरेन्द्र मोदी बन जाय, तो सता के द्वारा स्वत: ही खुल जायेंगे। राहों में फूल बिछ जायेंगे। कांटे की टक्कर से जीतना अलग बात है, किन्तु मेच को एक तरफा जीतने का सुख ही अलग होता है। यदि एक ही नरेन्द्र मोदी के भरोसे मेच खेला जायेगा, तो विरोधी टीम अपनी पूरी शक्ति उस खिलाड़ी को घेरने में ही लगा देगी। किन्तु यदि टीम के सारे खिलाड़ी नरेन्द्र मोदी बन जायेंगे, तब वे किस किस को घेरेंगे ?
ऐसा नहीं है कि भाजपा के पास केवल एक ही नरेन्द्र मोदी है। निश्चय ही पार्टी इतनी निर्धन नहीं है, उसके पास हज़ारों नरेन्द्र मोदी है। ये हज़ारों नरेन्द्र मोदी सोशल इंजीनियरिंग से नब्बे करोड़ भारतीयों को जोड़ कर भजपा को एतिहासिक जीत दिलाने की क्षमता रखते हैं। परन्तु यह तभी सम्भव है, जब भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी को एक प्रतीक ही माने, उनकी सख्शियत को न तो तिरष्कृत करें और न ही उनके प्रति अगाध प्रेम का प्रदर्शन करें।
वोट पाने के लिए खजाना खाली करने पर तुले हुए हैं। फिर अपने पक्ष में हवा बहाने के लिए करोड़ो रुपया विज्ञापनबाजी पर फूंकेंगे। देश चाहे कंगाल हो जाये, उसकी उन्हें परवाह नहीं है। उन्हें सिर्फ पीड़ित जनता के वोट चाहिये। सता चाहिये। देश- सेवा नहीं, सता उनका मुख्य ध्येय है। सता ही उनकी आराध्य है, जनता नहीं । जनता उनके लिए सता तक पहुंचने की सीढ़ी मात्र है। सता पाने के बाद सीढ़ी को लात मार देते हैं। सता सुख भोगने में मस्त हो जाते हैं। उनकी खुमारी को देख कर जनता चिढ़ती है। अपने आपको कोसती है कि ऐसे लोगों को क्यों हमने चुना था। परन्तु अपनी बेबसी दिखाने के अलावा वह कुछ नहीं कर सकती।
क्या भाजपा के नेता इस मिथक को तोड़ने के लिए उत्कंठित है? क्या वे भारतीय जनता को आराध्य मान कर जनसेवा के लिए सत्ता पाने की मन:स्थिति रखते हैं ? यदि वास्तव में ऐसा है, तो उन्हें पूरे मनोयोग से जनता से जुड़ना होगा। जनता की पीड़ा को समझना होगा। उसका विश्वास जीतना होगा। उसे भरोसा दिलाना होगा कि सता मिलने के बाद जनता के बीच उनकी दूरियां बढ़ेगी नहीं। वे हमेशा जनता के पास रहेंगें। उनके बीच रहेंगे। उनकी समस्याओं को सुलझाने में अपनी क्षमता का पूरा उपयोग करेंगे। सता प्रेम नहीं, जन-सेवा उनका प्रमुख ध्येय हैं। इसी उद्धेश्य को ले कर वे राजनीति में आयें हैं। सता पा कर देश के संसाधनों को लूटना और राजनीति से अकूत धन कमाना उनका उद्धेश्य नहीं है।
भारतीय जनमानस में इस समय कांग्रेस सरकार की नीति और नीयत को ले कर गहरा असंतोष है। जनता ऐसी भ्रष्ट व अर्कमण्य सरकार को फिर सता में आने के लिए वोट नहीं देगी। किन्तु पार्टी को जो लोग संचालित कर रहे हैं, वे बहुत चतुर और चालाक है। खैरात के साथ-साथ धन बांटने में कसर बाकी नहीं रखेंगे। एक-एक सांसद पर करोड़ो रुपया दांव पर लगा देंगे। क्योंकि उन्हें यह भय है कि सता यदि उनके हाथ से चली जायेगी, तो उनका सारा खेल खत्म हो जायेगा। घोटालों के सारे रहस्यों पर से यदि पर्दा उठ जायेगा, तो उन्हें इस देश के किसी भी कोैने में सिर छुपाना भी मुश्किल हो जायेगा।
भारत का लोकतांत्रिक इतिहास भाजपा की कड़ी परीक्षा लेना चाहता है। यदि वह इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो गयी, तो भविष्य उसका होगा। भारत की जनता का दिल जीतने का एक अवसर उसके हाथ में आ जायेगा। उसके नेता भारत की तकदीर बदल सकते हैं। परन्तु यह परीक्षा बहुत कठिन होगी। इस परीक्षा को पास करने के लिए भाजपा को कड़ा परिश्रम करना होगा। उन्हें सुख-सुविधा वाली दिल्ली छोड़ कर सुदूर गांवों में और शहरों की गलियों में खाक छाननी पडे़गी। क्योंकि भारत बड़े शहरों की पॉश कॉलोनियों में नहीं, साढ़े छ: लाख गांवों और छोटे-मोटे हज़ारो शहरों में बसता है। जिस भारत में राजनेता रहते हैं, उस भारत के भरोसे वे सता तक नहीं पहुंच सकते।
खेत में काम करने वाले किसान की तक़लीफ समझने के लिए उसके पास जाना होगा। क्योंकि वह राजनेताओं द्वारा की गयी ट्वीट को नहीं पढ़ता। टीवी चेनलों पर होने वाली बहस को वह नहीं सुनता। वह अखबारों की सुर्खिया नहीं पढ़ता। उसकी अपनी दुनियां है। अपने सुख-दु:ख हैं। उसका दिल जीतने के लिए उसका अपना बनना पड़ता है।
इसी तरह शहरों में रहने वाले वे भारतीय नागरिक, जो रोज कुआ खोद कर पानी पीते हैं। उनके पास नौकरियां नहीं है। स्थायी आमदनी नहीं है। महंगार्इ बढ़ने पर भत्ता नहीं बढ़ता। सालाना वेतनवृद्धि नहीं होती। पदोन्नति नहीं मिलती। वे सेवानिवृति तब लेते हैं, जब शरीर से अशक्त हो जाते हैं या दुनियां से कूच कर जाते हैं। उनकी ज़िदगी जहां से शुरु होती है, वहीं जा कर खत्म हो जाती है। ये सभी खैरात पाने के अधिकारी हो सकते हैं, किन्तु ये खैरात से कभी खुश नहीं होंगे। वे उसे ही अपना समझेंगे, जो उनसे जुड़ कर उनकी समस्याओं को समझना चाहेगा। उन्हें जिंदा रहने का होंसला बढ़ायेगा।
यह अस्सीं-नब्बे करोड़ भारतीयों का भारत है। ये सभी भारतीय अलग-अलग जातियों और धर्मों को मानते हैं। इनके वोट भी धर्म और जातियों के आधार पर बंट जाते हैं। सारे राजनीतिक दलों की धमाचौकड़ी इन्हीं लोगों के बीच से आरम्भ होती है। किन्तु वोट लेने के लिए ये इनके बीच तरह-तरह की भंगिमा बना कर जाते हैं। उन्हें प्रभावित करते हैं और मतलब निकलने के बाद इन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं।
इन सभी भारतीयों के दु:ख एक जैसे हैं। इनकी समस्याएं समान है। महंगार्इ से ये बूरी तरह त्रसत है। भ्रष्ट राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था से ये चिढ़े हुए हैं। इनकी शक्ति का समुचित उपयोग इसलिए नहीं हो पाता है, क्योंकि राजनीतिक दलों ने इन्हें धर्म, जाति और भाषा के आधार पर बांट रखा है। किन्तु क्या भाजपा नेताओ के पास इन नब्बे करोड़ भारतीयों को आपस में जोड़ने की सोशल इंजीनियरिंग है? यदि नहीं है, तो आज से इन्हें जोड़ने की विधा की खोज प्रारम्भ कर देनी चाहिये। यह बहुत ही श्रम साध्य कार्य है। इसके लिए एक दो नहीं, हज़ारों नेताओं को सुख सुविधा छोड़ कर घरों से बाहर निकलना पड़ेगा। भाषणों और रैलियों से नहीं, छोटी-छोटी रथ यात्राओं के जरियें घरों की चोखट पर जा कर जनता से संबंध बनाने होगें। उनके हाल-चाल पूछने होंगे। उनके मन में विश्वास और भरोसा जगाना होगा।
फार्मुले इज़ाद कर के और सताधारी दल की विफलताओं से कुपित जनता के असंतोष का लाभ उठा कर चुनाव तो जीते जा सकते हैं, किन्तु एतिहासिक और शानदार जीत नहीं हांसिल की जा सकती। नरेन्द्र मोदी अपनी क्षमता और ताकत से पार्टी को सता के द्वार पर पहुंचा सकते है, किन्तु विरोधी एक जुट हो कर और अपनी पूरी शक्ति लगा कर द्वारा बंद कर देंगे, तब क्या किया जा सकता है? हॉं, यदि हज़ारों नेता नरेन्द्र मोदी बन जाय, तो सता के द्वारा स्वत: ही खुल जायेंगे। राहों में फूल बिछ जायेंगे। कांटे की टक्कर से जीतना अलग बात है, किन्तु मेच को एक तरफा जीतने का सुख ही अलग होता है। यदि एक ही नरेन्द्र मोदी के भरोसे मेच खेला जायेगा, तो विरोधी टीम अपनी पूरी शक्ति उस खिलाड़ी को घेरने में ही लगा देगी। किन्तु यदि टीम के सारे खिलाड़ी नरेन्द्र मोदी बन जायेंगे, तब वे किस किस को घेरेंगे ?
ऐसा नहीं है कि भाजपा के पास केवल एक ही नरेन्द्र मोदी है। निश्चय ही पार्टी इतनी निर्धन नहीं है, उसके पास हज़ारों नरेन्द्र मोदी है। ये हज़ारों नरेन्द्र मोदी सोशल इंजीनियरिंग से नब्बे करोड़ भारतीयों को जोड़ कर भजपा को एतिहासिक जीत दिलाने की क्षमता रखते हैं। परन्तु यह तभी सम्भव है, जब भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी को एक प्रतीक ही माने, उनकी सख्शियत को न तो तिरष्कृत करें और न ही उनके प्रति अगाध प्रेम का प्रदर्शन करें।
सुविचारित आलेख !
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