एक प्रदेश के युवा नेता के नेतृत्व में पूरे प्रदेश की जनता ने उसके
प्रति विश्वास व्यक्त किया था, उस नेता ने अपनी कार्यशैली से प्रदेश की
जनता को धोखा दिया है। जनता ने सुशासन के लिए वोट दिये थे। प्रदेश के विकास
और खुशहाली के लिए वोट दिये थे। मात्र वोट बैंक राजनीति को सशक्त करने के
लिए नहीं। एक समुदाय विशेष को प्रसन्न करने के लिए नहीं।
इस समय जो प्रशासनिक ताकत एक धार्मिक यात्रा को रोकने में झोंक रहे हैं, उसका क्षणांश भी यदि वे प्रदेश में उत्पात मचा रहे अपराधियों को रोकने में लगाते तो विवादास्पद और असहिष्णु मुख्यमंत्री की जगह यशस्वी मुख्यमंत्री कहलाते। परन्तु जो आकाश से सीधे शिखर पर उतरते है, उन्हें शिखर की ऊंचाई का अहसास नहीं होता, किन्तु जो ज़मीन से शिखर पर विभिन्न बाधाओं को पार करते हुए चढ़ते हैं, उन्हें शिखर की ऊंचाई का अहसास होता है। वे लुढ़क भी जाते हैं, तो फिर चढ़ने का अनुभव रखते हैं। किन्तु जो सीधे शिखर पर उतरते हैं, वे यदि धकेले जाते हैं, तो फिर कभी चढ़ने का साहस नहीं कर पाते।
अखिलेश यादव अभी भी पिता की अंगुलि पकड़ कर चल रहे हैं। निश्चय ही वे बिना सहारे के चल ही नहीं सकते। पराश्रित व्यक्ति सही समय पर उपयुक्त निर्णय लेने में असमर्थ रहते हैं। इसीलिए उन्होंने एक आत्मघाती निर्णय लिया, जिससे उन्हें लाभ की जगह हानि अधिक होगी। उन्हें शायद नहीं मालूम कि एक समुदाय को प्रसन्न करने से यदि दूसरा समुदाय नाराज हो जायेगा, तब भारी राजनीतिक हानि होगी। क्योंकि अखिलेश यादव को प्रदेश के अधिकांश नवयुवकों ने वोट दिये हैं, जो सभी जातियों और धर्मों को मानने वाले हैं। अब उन्हें यह अहसास हो गया कि अखिलेश भी अपने पिता की तरह विशुद्ध सियासी व्यक्तित्व है, जो तुष्टिकरण को ही ज्यादा महत्व देते हैं। भारी बहुमत होने के उपरान्त भी प्रदेश की दुर्दशा को सुधारने का आत्मबल उनके पास नहीं है। अखिलेश अब जन विश्वास खो चुके हैं। एक युवा राजनेता जो लम्बी सियासी पारी खेल सकता था, अविवेक से अपनी राजनीतिक उम्र को घटा दिया है।
उत्तर प्रदेश अपराधियों का अभयारण्य बना हुआ है। नागरिक भयभीत है। अपराधी बैखोप है। उनके होंसले बुलंद है। राजनीतिक संरक्षण से प्रदेश भर में अपराध बढ़ रहे हैं। किन्तु अपराधों को रोकने में सरकार पूरी तरह असफल रही है। क्योंकि सरकार के पास नैतिक बल नहीं है। दिन दहाड़े एक जाबांज पुलिस अफसर की गांव में हत्या कर दी जाती है। बाहुबलि मंत्री को सरकार बचा लेती है। पुलिस कर्मियों पर ऐसिड़ से अपराधियों द्वारा हमला किया जाता है। रेतमाफिया पर शिकंजा कसने वाली एक महिला अधिकारी को निलम्बित कर दिया जाता है। इस प्रकरण का देश भर में बदनाम होने पर सकरकार द्वारा लच्चर बयानों से अपना पक्ष रखा जाता है। यह सब इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य है कि एक सरकार अपनी विश्व स्नीयता खो चुकी है। जनता उसे पसंद नहीं कर रही है।
लोकसभा चुनावों में चालिस सीटे जीतने का समाजवादी पार्टी का सपना अधुरा ही रह जायेगा, क्योंकि निर्जीव पड़े रामजन्मभूमि आंदोलन को पुर्नजीवित करके पार्टी ने अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मारने का प्रयास किया है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने एक धार्मिक पद यात्रा की अनुमति इस आधार पर नहीं दी की इससे साम्प्रदायिक सदभाव बिगड़ने की सम्भावना रहती है। परन्तु सरकार का यह तर्क गले नहीं उतरता है। क्योंकि यदि यात्रा होती तो साम्प्रदायिक सदभाव बना रहता। अब नहीं हो रही है, इसलिए दो समुदाय के मन में अनावश्यक रुप से कटुता आ गयी है। कुछ सौ या हजार साधु-संत भजन-कीर्तिन कर के चैरासी कोसी यात्रा कर लेते तो इससे कौनसा आसमान फटने वाला था? यदि ऐसा हो जाता, तो न यह विवाद बनता और न ही देश भर में इसका प्रचार होता। न टीवी चेनल वाले यहां तक पहुंचते और न ही इस पर बहस होती। एक साधारण घटना को एक प्रदेश की सरकार ने अपने सियासी लाभ के लिए जानबूझ असाधारण बना दिया है।
चैरासी कोसी यात्रा करने वाले साधु-संत और किसी धार्मिक संगठन के व्यक्ति अपराधी प्रवृति के नहीं हैं। उनके हाथों में नंगी तलवारे, बंदूके, मशीनगने और बम नहीं थे, फिर कैसे सरकार को शांति भंग होने की आशंका थी। एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि यात्रा का समय अभी नहीं होता है। यह यात्रा जानबूझ कर सियासी लाभ के लिए की जा रही है। आपका तर्क ठीक हो सकता है। परन्तु क्या भगवान का नाम लेना, परिक्रमा करना और किसी धर्म की परम्पराओं में विश्वास और आस्था व्यक्त करना अपराध है? क्या भगवान का नाम लेने और धार्मिक अनुष्ठान से पूजा अर्चना करने के लिए भी अब सरकार से अब अनुमति लेनी होगी? सरकार को शांति बनाये रखने का दायित्व होता है, किसी धर्म में आस्था रखने वालों की मर्म पर चोट पहुंचाने का नहीं। सरकार और अन्य राजनीतिक पार्टियों को धार्मिक आस्था पर तर्क-वितर्क करने का अधिकार नहीं है । संविधान ने सभी धर्मों को मानने की और धार्मिक परम्पराओं को निभाने की भारतीय नागरिकों को छूट दे रखी है। राज्य सरकारों को संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के अधिकारों की अवमानना करने का अधिकार नहीं दिया है।
यह भी तर्क दिया जा रहा है कि यह धार्मिक यात्रा नहीं, सियासत है। एक राजनीतिक पार्टी को लाभ पहुंचाने का उपक्रम है। यदि ऐसा किया जा रहा है तो इसमे गलत क्या है? क्या कोई राजनीतिक पार्टी जुलूस नहीं निकाल सकती? पद यात्रा नहीं कर सकती? यदि धार्मिक यात्रा एक राजनीतिक पार्टी को लाभ पहुंचाने के लिए की जा रही है, तो उसे सियासी लाभ की पूर्ति लिए ही तो रोका जा रहा है। दूसरों पर कीचड़ फैंकने के पहले अपने दामन को भी बचाना जरुरी है, क्योंकि जो कीचड़ में खड़े हो कर दूसरों पर कीचड़ फैंकते हैं, उनके स्वयं के कपड़े भी कीचड से सने होते हैं।
जिनक मन में मेल नहीं होता। जो राजनेता अपने कार्यों से जनता का दिल जीत लेते हैं, जनता हमेशा उनके समर्थन में खड़ी होती है। किन्तु जो राजनेता इसमें असफल होते हैं उन्हें झूठ, तिकड़म और छल कपट की राजनीति करनी पड़ती हैं। एक प्रदेश सरकार जो एक धार्मिक आस्था पर चोट पहुंचा कर दूसरी आस्था पर फूल बरसा रही है, उसे क्षणिक सियासी लाभ मिल सकता है। स्थायी कभी नहीं। ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है कि अपने ही देश में अपने ही धर्म और धार्मिक परम्पराओं को निभाने के लिए सरकार अपने सियासी लाभ के लिए उस पर रोक लगा दें। भक्त प्रहलाद को हरि नाम लेने के लिए उसके पिता ने रोका था, उसका परिणाम क्या हुआ ? क्या हिरणाकश्यप की ताकत ने उसका हमेशा साथ दिया ? अतः सरकारों का काम नागरिक के अधिकारों की रक्षा करना है, उसे कुचना नहीं। रामलीला मैदान में एक सरकार ने ताकत के मद मे चूर हो कर सोये हुए निहत्थे स्त्री पुरुषो पर अत्याचार किया था, उस पार्टी की आज हालत क्या है? सता उसके हाथ से फिसलती हुई दिख रही है। अतः सता और ताकत हमेशा साथ नहीं रहती, इस पर जो अभिमान करता है, उसका अभिमान एक दिन चूर चूर हो कर रह जाता है।
इस समय जो प्रशासनिक ताकत एक धार्मिक यात्रा को रोकने में झोंक रहे हैं, उसका क्षणांश भी यदि वे प्रदेश में उत्पात मचा रहे अपराधियों को रोकने में लगाते तो विवादास्पद और असहिष्णु मुख्यमंत्री की जगह यशस्वी मुख्यमंत्री कहलाते। परन्तु जो आकाश से सीधे शिखर पर उतरते है, उन्हें शिखर की ऊंचाई का अहसास नहीं होता, किन्तु जो ज़मीन से शिखर पर विभिन्न बाधाओं को पार करते हुए चढ़ते हैं, उन्हें शिखर की ऊंचाई का अहसास होता है। वे लुढ़क भी जाते हैं, तो फिर चढ़ने का अनुभव रखते हैं। किन्तु जो सीधे शिखर पर उतरते हैं, वे यदि धकेले जाते हैं, तो फिर कभी चढ़ने का साहस नहीं कर पाते।
अखिलेश यादव अभी भी पिता की अंगुलि पकड़ कर चल रहे हैं। निश्चय ही वे बिना सहारे के चल ही नहीं सकते। पराश्रित व्यक्ति सही समय पर उपयुक्त निर्णय लेने में असमर्थ रहते हैं। इसीलिए उन्होंने एक आत्मघाती निर्णय लिया, जिससे उन्हें लाभ की जगह हानि अधिक होगी। उन्हें शायद नहीं मालूम कि एक समुदाय को प्रसन्न करने से यदि दूसरा समुदाय नाराज हो जायेगा, तब भारी राजनीतिक हानि होगी। क्योंकि अखिलेश यादव को प्रदेश के अधिकांश नवयुवकों ने वोट दिये हैं, जो सभी जातियों और धर्मों को मानने वाले हैं। अब उन्हें यह अहसास हो गया कि अखिलेश भी अपने पिता की तरह विशुद्ध सियासी व्यक्तित्व है, जो तुष्टिकरण को ही ज्यादा महत्व देते हैं। भारी बहुमत होने के उपरान्त भी प्रदेश की दुर्दशा को सुधारने का आत्मबल उनके पास नहीं है। अखिलेश अब जन विश्वास खो चुके हैं। एक युवा राजनेता जो लम्बी सियासी पारी खेल सकता था, अविवेक से अपनी राजनीतिक उम्र को घटा दिया है।
उत्तर प्रदेश अपराधियों का अभयारण्य बना हुआ है। नागरिक भयभीत है। अपराधी बैखोप है। उनके होंसले बुलंद है। राजनीतिक संरक्षण से प्रदेश भर में अपराध बढ़ रहे हैं। किन्तु अपराधों को रोकने में सरकार पूरी तरह असफल रही है। क्योंकि सरकार के पास नैतिक बल नहीं है। दिन दहाड़े एक जाबांज पुलिस अफसर की गांव में हत्या कर दी जाती है। बाहुबलि मंत्री को सरकार बचा लेती है। पुलिस कर्मियों पर ऐसिड़ से अपराधियों द्वारा हमला किया जाता है। रेतमाफिया पर शिकंजा कसने वाली एक महिला अधिकारी को निलम्बित कर दिया जाता है। इस प्रकरण का देश भर में बदनाम होने पर सकरकार द्वारा लच्चर बयानों से अपना पक्ष रखा जाता है। यह सब इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य है कि एक सरकार अपनी विश्व स्नीयता खो चुकी है। जनता उसे पसंद नहीं कर रही है।
लोकसभा चुनावों में चालिस सीटे जीतने का समाजवादी पार्टी का सपना अधुरा ही रह जायेगा, क्योंकि निर्जीव पड़े रामजन्मभूमि आंदोलन को पुर्नजीवित करके पार्टी ने अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मारने का प्रयास किया है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने एक धार्मिक पद यात्रा की अनुमति इस आधार पर नहीं दी की इससे साम्प्रदायिक सदभाव बिगड़ने की सम्भावना रहती है। परन्तु सरकार का यह तर्क गले नहीं उतरता है। क्योंकि यदि यात्रा होती तो साम्प्रदायिक सदभाव बना रहता। अब नहीं हो रही है, इसलिए दो समुदाय के मन में अनावश्यक रुप से कटुता आ गयी है। कुछ सौ या हजार साधु-संत भजन-कीर्तिन कर के चैरासी कोसी यात्रा कर लेते तो इससे कौनसा आसमान फटने वाला था? यदि ऐसा हो जाता, तो न यह विवाद बनता और न ही देश भर में इसका प्रचार होता। न टीवी चेनल वाले यहां तक पहुंचते और न ही इस पर बहस होती। एक साधारण घटना को एक प्रदेश की सरकार ने अपने सियासी लाभ के लिए जानबूझ असाधारण बना दिया है।
चैरासी कोसी यात्रा करने वाले साधु-संत और किसी धार्मिक संगठन के व्यक्ति अपराधी प्रवृति के नहीं हैं। उनके हाथों में नंगी तलवारे, बंदूके, मशीनगने और बम नहीं थे, फिर कैसे सरकार को शांति भंग होने की आशंका थी। एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि यात्रा का समय अभी नहीं होता है। यह यात्रा जानबूझ कर सियासी लाभ के लिए की जा रही है। आपका तर्क ठीक हो सकता है। परन्तु क्या भगवान का नाम लेना, परिक्रमा करना और किसी धर्म की परम्पराओं में विश्वास और आस्था व्यक्त करना अपराध है? क्या भगवान का नाम लेने और धार्मिक अनुष्ठान से पूजा अर्चना करने के लिए भी अब सरकार से अब अनुमति लेनी होगी? सरकार को शांति बनाये रखने का दायित्व होता है, किसी धर्म में आस्था रखने वालों की मर्म पर चोट पहुंचाने का नहीं। सरकार और अन्य राजनीतिक पार्टियों को धार्मिक आस्था पर तर्क-वितर्क करने का अधिकार नहीं है । संविधान ने सभी धर्मों को मानने की और धार्मिक परम्पराओं को निभाने की भारतीय नागरिकों को छूट दे रखी है। राज्य सरकारों को संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के अधिकारों की अवमानना करने का अधिकार नहीं दिया है।
यह भी तर्क दिया जा रहा है कि यह धार्मिक यात्रा नहीं, सियासत है। एक राजनीतिक पार्टी को लाभ पहुंचाने का उपक्रम है। यदि ऐसा किया जा रहा है तो इसमे गलत क्या है? क्या कोई राजनीतिक पार्टी जुलूस नहीं निकाल सकती? पद यात्रा नहीं कर सकती? यदि धार्मिक यात्रा एक राजनीतिक पार्टी को लाभ पहुंचाने के लिए की जा रही है, तो उसे सियासी लाभ की पूर्ति लिए ही तो रोका जा रहा है। दूसरों पर कीचड़ फैंकने के पहले अपने दामन को भी बचाना जरुरी है, क्योंकि जो कीचड़ में खड़े हो कर दूसरों पर कीचड़ फैंकते हैं, उनके स्वयं के कपड़े भी कीचड से सने होते हैं।
जिनक मन में मेल नहीं होता। जो राजनेता अपने कार्यों से जनता का दिल जीत लेते हैं, जनता हमेशा उनके समर्थन में खड़ी होती है। किन्तु जो राजनेता इसमें असफल होते हैं उन्हें झूठ, तिकड़म और छल कपट की राजनीति करनी पड़ती हैं। एक प्रदेश सरकार जो एक धार्मिक आस्था पर चोट पहुंचा कर दूसरी आस्था पर फूल बरसा रही है, उसे क्षणिक सियासी लाभ मिल सकता है। स्थायी कभी नहीं। ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है कि अपने ही देश में अपने ही धर्म और धार्मिक परम्पराओं को निभाने के लिए सरकार अपने सियासी लाभ के लिए उस पर रोक लगा दें। भक्त प्रहलाद को हरि नाम लेने के लिए उसके पिता ने रोका था, उसका परिणाम क्या हुआ ? क्या हिरणाकश्यप की ताकत ने उसका हमेशा साथ दिया ? अतः सरकारों का काम नागरिक के अधिकारों की रक्षा करना है, उसे कुचना नहीं। रामलीला मैदान में एक सरकार ने ताकत के मद मे चूर हो कर सोये हुए निहत्थे स्त्री पुरुषो पर अत्याचार किया था, उस पार्टी की आज हालत क्या है? सता उसके हाथ से फिसलती हुई दिख रही है। अतः सता और ताकत हमेशा साथ नहीं रहती, इस पर जो अभिमान करता है, उसका अभिमान एक दिन चूर चूर हो कर रह जाता है।
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