क्या संसार में कहीं ऐसा लोकतंत्र है, जहां सत्तातंत्र के विरुद्ध एक
शब्द भी बोलना गुनाह माना जाता है ? दरबारियों, जी हुजूरियों और बिना
पेंदें के नेताओं से गिरा अभिमानी सत्तातंत्र, लोकतांत्रिक गणराज्य को
राजतंत्र में तब्दील करने को आतुर दिखार्इ देता है। सम्भवत: इसीलिए दरबारी
अपने नौसिखिये नेता को भगवान मान कर उनका स्तुतिगान कर रहे हैं। उनकी झूठी
प्रंशसा में कसीदे पढ़ रहे हैं। अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों पर
योजनाबद्ध तरीके से चापलुस नेता एक के बाद एक आगे बढ़ कर वाक्य बाणों से
आक्रमण कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे आक्रमण करने की भी प्रतिस्पर्धा हो
रही है, जिसमें सभी अपने आपको मालिक के समक्ष प्रबल योद्धा साबित करना चाह
रहे हैं। सभी इस प्रयास में लगे हुए हैं कि छल-कपट, प्रपंच और कानूनी दांव
पेंचों में उलझा कर अपने विरोधियों की शक्ति को क्षीण कर दिया जाय।
क्या लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में विपक्ष को सत्ता में आने का संवैधानिक अधिकार नहीं होता है ? क्या संविधान ने उन्हें यह अधिकार भी नहीं दिया है कि सत्ता पक्ष की दुर्बलताओं को जनता के समक्ष उजागर किया जाय ? जिन्हें लोकतंत्र में आस्था नही होती है, वे अपने विरोधियों के तर्कों का जवाब शालिनता और वजनी तर्कों से नहीं दे कर उनके प्रति जहर उगल कर देते हैं। उनके विरुद्ध अपमानजनक शब्दावली का प्रयोग करते हैं। क्या इसे लोकतंत्र की स्वस्थ परम्परा माना जा सकता है ? कौन सही है और कौन गलत ? किसे शासन करने का जनादेश दिया जाय, यह अधिकार लोकतांत्रिक देश की जनता के पास होता है, किसी व्यक्ति विशेष के पास नहीं। कोर्इ व्यक्ति विशेष भारत का नागरिक ही है, एक लोकतांत्रिक देश का मालिक नहीं। यदि उनके चाटुकार उन्हें मालिक बनाना चाहते हैं, तो यह उनका व्यक्तिगत सोच है, पूरा देश उनके विचारों से सहमत नही है। अत: उन्हें चाटुकारी की भी एक सीमा तय कर देनी चाहिये। क्योंकि यदि जनता ने उन्हें ठुकरा दिया, तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। उनके पाप उन्हें चेन से जीने नहीं देंगे। तब चाटुकार मंडली के पास उनके स्तुति गान के बजाय, उन्हें बचाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने के अलावा कोर्इ चारा नहीं बचेगा। इसमें कोर्इ अतिश्योक्ति नहीं है। ठुकराये जाने के बाद पापों का भार ले कर चल नहीं पायेंगे, क्योंकि तब सरकारी जांच एजेंसिया उनका साथ नहीं दे पायेगी, जिनके सहारे वे अब तक अपने आपको बचाते रहे हैं।
सत्ता सुख भोगने के बाद पुन: सत्ता में आने के लिए जनता के पास जाना पड़ता है। जनता आपके कार्यों और नीतियों से यदि प्रसन्न होगी, तो नि:संदेह पुन: जनादेश दे कर सत्ता सौंप देंगी। परन्तु यदि रुष्ट होगी, तो ठुकरा देगी। परन्तु जनता के समक्ष अपनी प्रशंसनीय नीतियों और उपलब्धियों का बखान करने बजाय किसी व्यक्तित्व से भयभीत क्यों किया जाता है ? क्या लोकतांत्रिक देश में कोर्इ व्यक्ति सवंिधान के दायरे के बाहर जा कर देश की जनता पर अत्याचार करने का अधिकार रखता है ? परन्तु जिन्हें अपनी छाया से डर लगता है, वे दुनियां को भी डराने का उपक्रम करते रहते हैं।
धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता आदि शब्दों का निरन्तर प्रयोग करने से क्या अपनी दुर्बलताओं को सदैव छुपाया जा सकता है ? धर्म और सम्प्रदाय का संबंध मनुष्य की आस्था से जुड़ा होता है, इसे राजनीति से जोड़ने के दुष्परिणाम भोग चुके हैं। उन दुष्परिणामों को दु:स्वपन समझ कर भुलाया भी जा सकता है। आखिर उन्हें बार-बार याद दिलाने का क्या मकसद है ? जो अतीत था, वह भविष्य भी बनेगा, ऐसा सम्भव नहीं है। अतीत की दुखद स्मृतियों को भुला कर भविष्य की नयी राह भी खोजी जा सकती है। समाज को बांट कर चुनाव जीतने के बजाय समाज को जोड़ कर भी चुनाव जीता जा सकता है। हम सब मिल कर एक खुशहाल भारत के निर्माण का स्वपन देख सकते हैं। करोड़ो नागरिकों को भूख, अभाव, गरीबी और बैरोजगारी से कैसे छुटकारा दिलाया जा सके, इस पर गम्भीरता से मंथन कर सकते हैं। पर यह तभी सम्भव है जब एक दूसरे के ऊपर कीचड़ उछालने के पहले जनता की भलार्इ और देश की प्रतिष्ठा बढ़ाने के प्रति भी संवेदनशील बन जाय।
मोदी की रैलियों में उमड़ रही भीड़ राजनीतिक समीक्षकों और राजनेताओं के बीच कौतुहल का विषय बनती जा रही है। इसके पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा रहा है। किन्तु यह सच है कि सत्ता और धन के प्रभाव से इतना अधिक जनसमूह एकत्रित नहीं किया जा सकता। क्योंकि राहुल गांधी की रैलियां में भी भीड़ का जुगाड़ करने के लिए सत्ता के साधनों और धन का भरपूर उपयोग किया जा रहा है, परन्तु मोदी की अपेक्षा इनकी रैलियां फिकी रहती है। न चाहते हुए भी टीवी चेनल मोदी के भाषणों को ज्यादा कवरेज दे रहे हैं, जिसका मूल कारण मोदी के प्रति जनता का रुझान ही प्रकट होता है।
यदि रैलियों की भीड़ वोटों में तब्दील हो जायेगी, तो इससे असंभावित और अप्रत्यासित चुनाव परिणामों की आशा की जा सकती है। सम्भवत: इसी भय से निरंकुश सत्तातंत्र दुबला हो रहा है। उनके पांवों के नीचे से धरती खिसक रही है। दरबारियों को यह भय सता रहा है कि उनके भगवान सत्ता से दूर हो जायेंगे, तो उनका क्या होगा ? परन्तु उन्हें इस हक़ीकत को मान लेना चाहिये कि मोदी इस देश की पीड़ित जनता के अब प्रतीक बन गये हैं। अत्यधिक महंगार्इ से कुपित भारतीय जनता कुशासन से मुक्ति के लिए छटपटा रही है। वह व्यवस्था परिवर्तन चाहती है। यदि मोदी में वह विश्वास व्यक्त कर रही है, तो इसमें गलत क्या है ? जिन पर भरोसा कर के देश सौंपा, उन्होंने यदि धोखा दिया, तो क्या आवश्यक है कि उन पर फिर विश्वास जताया जाय। आखिर मोदी में ऐसे क्या अवगुण है, जिसके आधार पर उन्हें नेतृत्व के लिए अनुपयुक्त माना जा सकता है ? यह सही है कि मोदी कुलिन राज परिवार से जुड़े नहीं है। अंग्रेजी शिक्षा में दक्ष नहीं है। उनका सामाजिक परिवेश साधरण रहा है । क्या भारतीय संविधान में कहीं लिखा हुआ है कि भारत को नेतृत्व वही व्यक्ति दे सकता है, जिसने किसी विशेष कुल में जन्म लिया हो और अंग्रजी बोलने में प्रवीणता रखता हो।
यदि उच्च शिक्षित व सभ्रान्त कुल में जन्म लेने वाले व्यक्ति अपने स्वाभिमान को बेच कर आगे बढ़ने के लिए चाटुकारिता को ही सहारा बनाते है, तो यह उनके क्षीण आत्मबल का ध्योतक है। उन्हें उस व्यक्ति की आलोचना करने का कोर्इ नैतिक अधिकार नहीं है, जो अल्प शिक्षित और साधारण कुल में जन्म लेने के बाद भी अपने आत्मबल के सहारे शिखर पर पहुंचा हो। अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान और धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलने की दक्षता को ही कुशल नेतृत्व का पैमाना नहीं माना जा सकता।
जिस व्यक्तित्व के करोड़ो समर्थक है, उसके विरुद्ध कुछ भी बोलने के पहले दस बार सोच लेना चाहिये। समय परिवर्तनशील है। जो आज प्रभावशाली है, वे कल धराशायी भी हो सकते है। भारत का नेतृत्व करने के लिए कौन अधिक उपयुक्त है और कौन अनुपयुक्त है, इसका निर्णय देश की जनता पर ही छोड़ दीजिये। यदि अपने आपको ज्यादा समझदार मानते हुए इसी तरह अभद्र टिप्पणियों का दौर चलता रहा, तो मोदी लहर प्रबल वेग भी बन जायेगी और स्थापित तम्बुओं को उखाड़ फैंकेगी । हमारे स्वामी ही श्रेष्ठ है दूसरे निकृष्ठ। हमारे स्वामी की राह में जो अवरोध बनेगा, उसको हम अपमानित करते रहेंगे, यह प्रवृति अब त्याग देनी चाहिये। लोकतंत्र में ऐसी प्रवृति घातक होती है, क्योंकि स्वामी को प्रसन्न करने के लिए करोड़ो जनता को कुपित करने के क्या परिणाम हो सकते हैं, इस बात का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
क्या लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में विपक्ष को सत्ता में आने का संवैधानिक अधिकार नहीं होता है ? क्या संविधान ने उन्हें यह अधिकार भी नहीं दिया है कि सत्ता पक्ष की दुर्बलताओं को जनता के समक्ष उजागर किया जाय ? जिन्हें लोकतंत्र में आस्था नही होती है, वे अपने विरोधियों के तर्कों का जवाब शालिनता और वजनी तर्कों से नहीं दे कर उनके प्रति जहर उगल कर देते हैं। उनके विरुद्ध अपमानजनक शब्दावली का प्रयोग करते हैं। क्या इसे लोकतंत्र की स्वस्थ परम्परा माना जा सकता है ? कौन सही है और कौन गलत ? किसे शासन करने का जनादेश दिया जाय, यह अधिकार लोकतांत्रिक देश की जनता के पास होता है, किसी व्यक्ति विशेष के पास नहीं। कोर्इ व्यक्ति विशेष भारत का नागरिक ही है, एक लोकतांत्रिक देश का मालिक नहीं। यदि उनके चाटुकार उन्हें मालिक बनाना चाहते हैं, तो यह उनका व्यक्तिगत सोच है, पूरा देश उनके विचारों से सहमत नही है। अत: उन्हें चाटुकारी की भी एक सीमा तय कर देनी चाहिये। क्योंकि यदि जनता ने उन्हें ठुकरा दिया, तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। उनके पाप उन्हें चेन से जीने नहीं देंगे। तब चाटुकार मंडली के पास उनके स्तुति गान के बजाय, उन्हें बचाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने के अलावा कोर्इ चारा नहीं बचेगा। इसमें कोर्इ अतिश्योक्ति नहीं है। ठुकराये जाने के बाद पापों का भार ले कर चल नहीं पायेंगे, क्योंकि तब सरकारी जांच एजेंसिया उनका साथ नहीं दे पायेगी, जिनके सहारे वे अब तक अपने आपको बचाते रहे हैं।
सत्ता सुख भोगने के बाद पुन: सत्ता में आने के लिए जनता के पास जाना पड़ता है। जनता आपके कार्यों और नीतियों से यदि प्रसन्न होगी, तो नि:संदेह पुन: जनादेश दे कर सत्ता सौंप देंगी। परन्तु यदि रुष्ट होगी, तो ठुकरा देगी। परन्तु जनता के समक्ष अपनी प्रशंसनीय नीतियों और उपलब्धियों का बखान करने बजाय किसी व्यक्तित्व से भयभीत क्यों किया जाता है ? क्या लोकतांत्रिक देश में कोर्इ व्यक्ति सवंिधान के दायरे के बाहर जा कर देश की जनता पर अत्याचार करने का अधिकार रखता है ? परन्तु जिन्हें अपनी छाया से डर लगता है, वे दुनियां को भी डराने का उपक्रम करते रहते हैं।
धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता आदि शब्दों का निरन्तर प्रयोग करने से क्या अपनी दुर्बलताओं को सदैव छुपाया जा सकता है ? धर्म और सम्प्रदाय का संबंध मनुष्य की आस्था से जुड़ा होता है, इसे राजनीति से जोड़ने के दुष्परिणाम भोग चुके हैं। उन दुष्परिणामों को दु:स्वपन समझ कर भुलाया भी जा सकता है। आखिर उन्हें बार-बार याद दिलाने का क्या मकसद है ? जो अतीत था, वह भविष्य भी बनेगा, ऐसा सम्भव नहीं है। अतीत की दुखद स्मृतियों को भुला कर भविष्य की नयी राह भी खोजी जा सकती है। समाज को बांट कर चुनाव जीतने के बजाय समाज को जोड़ कर भी चुनाव जीता जा सकता है। हम सब मिल कर एक खुशहाल भारत के निर्माण का स्वपन देख सकते हैं। करोड़ो नागरिकों को भूख, अभाव, गरीबी और बैरोजगारी से कैसे छुटकारा दिलाया जा सके, इस पर गम्भीरता से मंथन कर सकते हैं। पर यह तभी सम्भव है जब एक दूसरे के ऊपर कीचड़ उछालने के पहले जनता की भलार्इ और देश की प्रतिष्ठा बढ़ाने के प्रति भी संवेदनशील बन जाय।
मोदी की रैलियों में उमड़ रही भीड़ राजनीतिक समीक्षकों और राजनेताओं के बीच कौतुहल का विषय बनती जा रही है। इसके पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा रहा है। किन्तु यह सच है कि सत्ता और धन के प्रभाव से इतना अधिक जनसमूह एकत्रित नहीं किया जा सकता। क्योंकि राहुल गांधी की रैलियां में भी भीड़ का जुगाड़ करने के लिए सत्ता के साधनों और धन का भरपूर उपयोग किया जा रहा है, परन्तु मोदी की अपेक्षा इनकी रैलियां फिकी रहती है। न चाहते हुए भी टीवी चेनल मोदी के भाषणों को ज्यादा कवरेज दे रहे हैं, जिसका मूल कारण मोदी के प्रति जनता का रुझान ही प्रकट होता है।
यदि रैलियों की भीड़ वोटों में तब्दील हो जायेगी, तो इससे असंभावित और अप्रत्यासित चुनाव परिणामों की आशा की जा सकती है। सम्भवत: इसी भय से निरंकुश सत्तातंत्र दुबला हो रहा है। उनके पांवों के नीचे से धरती खिसक रही है। दरबारियों को यह भय सता रहा है कि उनके भगवान सत्ता से दूर हो जायेंगे, तो उनका क्या होगा ? परन्तु उन्हें इस हक़ीकत को मान लेना चाहिये कि मोदी इस देश की पीड़ित जनता के अब प्रतीक बन गये हैं। अत्यधिक महंगार्इ से कुपित भारतीय जनता कुशासन से मुक्ति के लिए छटपटा रही है। वह व्यवस्था परिवर्तन चाहती है। यदि मोदी में वह विश्वास व्यक्त कर रही है, तो इसमें गलत क्या है ? जिन पर भरोसा कर के देश सौंपा, उन्होंने यदि धोखा दिया, तो क्या आवश्यक है कि उन पर फिर विश्वास जताया जाय। आखिर मोदी में ऐसे क्या अवगुण है, जिसके आधार पर उन्हें नेतृत्व के लिए अनुपयुक्त माना जा सकता है ? यह सही है कि मोदी कुलिन राज परिवार से जुड़े नहीं है। अंग्रेजी शिक्षा में दक्ष नहीं है। उनका सामाजिक परिवेश साधरण रहा है । क्या भारतीय संविधान में कहीं लिखा हुआ है कि भारत को नेतृत्व वही व्यक्ति दे सकता है, जिसने किसी विशेष कुल में जन्म लिया हो और अंग्रजी बोलने में प्रवीणता रखता हो।
यदि उच्च शिक्षित व सभ्रान्त कुल में जन्म लेने वाले व्यक्ति अपने स्वाभिमान को बेच कर आगे बढ़ने के लिए चाटुकारिता को ही सहारा बनाते है, तो यह उनके क्षीण आत्मबल का ध्योतक है। उन्हें उस व्यक्ति की आलोचना करने का कोर्इ नैतिक अधिकार नहीं है, जो अल्प शिक्षित और साधारण कुल में जन्म लेने के बाद भी अपने आत्मबल के सहारे शिखर पर पहुंचा हो। अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान और धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलने की दक्षता को ही कुशल नेतृत्व का पैमाना नहीं माना जा सकता।
जिस व्यक्तित्व के करोड़ो समर्थक है, उसके विरुद्ध कुछ भी बोलने के पहले दस बार सोच लेना चाहिये। समय परिवर्तनशील है। जो आज प्रभावशाली है, वे कल धराशायी भी हो सकते है। भारत का नेतृत्व करने के लिए कौन अधिक उपयुक्त है और कौन अनुपयुक्त है, इसका निर्णय देश की जनता पर ही छोड़ दीजिये। यदि अपने आपको ज्यादा समझदार मानते हुए इसी तरह अभद्र टिप्पणियों का दौर चलता रहा, तो मोदी लहर प्रबल वेग भी बन जायेगी और स्थापित तम्बुओं को उखाड़ फैंकेगी । हमारे स्वामी ही श्रेष्ठ है दूसरे निकृष्ठ। हमारे स्वामी की राह में जो अवरोध बनेगा, उसको हम अपमानित करते रहेंगे, यह प्रवृति अब त्याग देनी चाहिये। लोकतंत्र में ऐसी प्रवृति घातक होती है, क्योंकि स्वामी को प्रसन्न करने के लिए करोड़ो जनता को कुपित करने के क्या परिणाम हो सकते हैं, इस बात का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
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