देश का राजनीितक घटनाक्रम हमें नसीहत दे रहा है– भविष्य में उन्हें ही
अपना जन प्रतिनिधि चुने, जो आपके अपने हों। जिन्हें जनता के प्रति
उतरदायित्व का बोध हों। जन भावनाओं के प्रति सदैव संवेदनशील रहें। जो जनता
की आवाज से जुड़े न कि आवाज को दबाने का उपक्रम करें। जो विचार अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता का हनन नहीं करें। विपक्ष की आलोचना को शालीनता से लें,
क्योंकि यह संवैधानिक परम्परा है। अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियो को दबाने
के लिए सत्ता का दुरुपयोग नहीं करें। संवैधानिक संस्थाओं का उपयोग लोकतंत्र
को मजबूत बनाने के लिए करें न कि इनका उपयोग अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए
करें। जिसका शासन पारदर्शी हो। अपने ऊपर लगाये गये किसी भी आरोप की शीघ्र
और निष्पक्ष जांच के लिए सदैव तैयार रहें।
हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक है। हम किसी साम्राज्य या राजा की प्रजा नहीं है। हमारे संवैधानिक आधिकारों के तहत हम किसी राजनीतिक दल या गठबंधन को सरकार बनाने का अधिकार देते हैं और यदि वे हमारी कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, तो हम उनसे सरकार चलाने का अधिकार लें भी सकते हैं। दरअसल, जिन्हें लोकतंत्र में सरकार बनाने का अधिकार मिलता है, वे शासक नहीं कहलाते, वरन वे जनसेवक होते हैं। किन्तु यदि वे अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए अपने आपको शासक होने का अभिमान पाल लेते हैं और जनता और अपने बीच दूरियां बना लेते हैं, तब जनता द्वारा उनके गरुर को तोड़ना आवश्यक हो जाता है।
एक प्रश्न मन मो अनायास कुरेदता है- क्या यह देश किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष की निजी मिल्कियत है ? यदि संवैधानिक प्रावधानों के तहत जनता किसी पार्टी को शासन चलाने का अधिकारी सौंपती है, इसका मतलब है- अपने दायित्व को निष्ठापूर्वक निभाना, न कि उसका दुरुपयोग करते हुए देश के संसाधनों को लूटना। यदि कोर्इ संवैधानिक संस्था सरकार की कार्य प्रणाली में दोष ढूंढती है, इसका मतलब यह नहीं होता कि आप उस संवैधानिक संस्था की जांच कार्यवाही के साथ-साथ उसके औचित्य को भी नकार दों।
मंत्रीमंड़ल पूरे देश की शासन व्यवस्था संभालता है। उसके मंत्री को संजीदा होना चाहिये। आखिर वे इतने बड़े लोकतांत्रिक देश को सम्भाल रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कोयला मंत्रलाय का अतिरिकत भार सम्भला। जांच में गम्भीर अनयिमितता पायी गयी, जिसे देश को कर्इ लाख करोड़ का नुकसान हो गया। विपक्ष यदि उनसे स्तीफा मांगता है, तो इसमें गलत क्या है? क्या यह विपक्ष का संवैधानिक अधिकार नहीं है? विशेषरुप से देश का गृहमंत्रालय तो सबसे संवेदनशील मंत्रालय होता है, उसको सम्भालने वाला व्यक्ति किसी भी गम्भीर घटना से अपना पल्ला यह कह कर कैसे झाड़ देता है कि यह मेरा काम नहीं है? ऐसा कथन एक जिम्मेदार मंत्री की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। इसी तरह आप विधि मंत्री है, इसका मतलब यह नहीं है कि न्यायालय द्वारा किसी संस्था को सौंपी गयी जांच कार्यवाही की गोपनीय रिपोर्ट को देखें। कोयलामंत्री यह कह कर कैसे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं कि घोटोलों का दोष हमारे मंत्रालय का नहीं है, इसका दोषी ऊर्जा मंत्रलाय है। हैलिकोप्टर घोटाले से रक्षा मंत्री यह कह कर कैसे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं कि सब कुछ मेरी जानकारी में नहीं हुआ है ।
कुल मिला कर सरकार का एक बेहद भद्दा व कुरुप चेहरा सामने आ गया है। जो कुछ घटित हो रहा है, वह यह दर्शाता है कि जो लोग सरकार चला रहे हैं, उनकी मानसिकता इस देश की जनता को ठगने की है। संवैधानिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली की जानबूझ करना उनकी अभिमानी और कुटिल प्रवृति को दर्शाता है। यदि साम्प्रदायिक शक्तियों को सता से दूर रहने का नारा लगा कर अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास कर रहे हैं तो यह देश की जनता को दिया जाने वाला एक अशिष्ट धोखा है। आखिर कब तक आप धर्म निरेपक्षता और साम्प्रदायिकता की रट लगा कर देश को लूटते रहेंगे।
यदि जनता अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति सजग नहीं रहेगी और ऐसे राजनीतिक दल और गठबंधन को पुन: सता सौंप देगी, तब उसका अभिमान निरंकुशता में तब्दील हो जायेगा। निरंकुश शासक कभी जनसेवक नहीं बन सकता। वह जन भावना के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकता। वह लोकतंत्र का उपयोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए करता है। जनता को वह अपनी प्रजा समझता है और उस पर शासन करना अपना अधिकार मानता है।
भारत में चुनाव जीतने के लिए धन चाहिये, जिसकी उनके पास कोई कमी नहीं है। पूरे देश में उनका वोट बैंक है, जो उन्हें छोड़ कर कहीं जायेगा नहीं। उनके नियंत्रण में सरकारी जांच एजेंसियां है, जिसके माध्यम से वे अपने विरोधियों को दबा सकते हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय माध्यम से अपने पक्ष में वातावरण बना सकते हैं। अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट सकते हैं। यदि ऐसी स्थिति बन जाये कि सरकार बनाने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं मिल पाये, तब औदयोगिक घरानों के सपोर्ट और धन से सांसदों को खरीद कर सरकार बना सकते हैं। अर्थात भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को इतना विकृत कर दिया है कि सता पर नियंत्रण ही मुख्य लक्ष्य रह गया है। सता में आ कर देश की सेवा के भाव को पूर्णतया भुला दिया गया है।
किसी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए ये अशुभ संकेत है। अत: भारतीय जनता को यह संकल्प लेना चाहिये कि हम अब उन्हें कभी नहीं चुनेंगे जिनकी नीयत में खोट हो। जो देश की जनता के लिए नहीं अपने लिए जीते हों। हम भारतीय नागरिक धर्म, जाति और प्रादेशिक भाव को भुला कर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को जीवंत बनाने के लिए आपस में जुड़ जायेंगे। राजनीतिक दलों के उन नुस्खों को असफल कर देंगे, जिसकों आधार बना कर वे चुनाव जीत जाते हैं। हम पूरे देश में छोटी-छोटी नागरिक समीतियां बनायेंगे। इनको आपस में जोंडेंगे और इन्हें इतना सशक्त बनायेंगे कि कोई भी व्यक्ति इनके समर्थन के बिना पूरे देश में कहीं भी चुनाव नहीं जीत सके। हम अब संसद और विधानसभाओं में उन व्यक्तियों को भेजेंगे जिनके मन में जन सेवा का भाव हो। उन्हें नहीं जो धूर्तता, चाटुकारिता और छल-कपट करने में निष्णात हों। अब सता से कुछ मांगने के लिए याचक बन कर सड़को पर इकट्ठा नहीं होंगे, वरन उन्हें सता से सड़क पर ले आयेंगे, जो जनता के सेवक बनने के बजाय अपने आपको जनता का शासक समझेंगे।
सब कुछ संभव है, यदि अब भी जनता जागरुक हो कर व्यवस्था परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध हो जाय। एक सड़ी हुई राजनीतक व्यवस्था को बदलने का संकल्प लें।
हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक है। हम किसी साम्राज्य या राजा की प्रजा नहीं है। हमारे संवैधानिक आधिकारों के तहत हम किसी राजनीतिक दल या गठबंधन को सरकार बनाने का अधिकार देते हैं और यदि वे हमारी कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, तो हम उनसे सरकार चलाने का अधिकार लें भी सकते हैं। दरअसल, जिन्हें लोकतंत्र में सरकार बनाने का अधिकार मिलता है, वे शासक नहीं कहलाते, वरन वे जनसेवक होते हैं। किन्तु यदि वे अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए अपने आपको शासक होने का अभिमान पाल लेते हैं और जनता और अपने बीच दूरियां बना लेते हैं, तब जनता द्वारा उनके गरुर को तोड़ना आवश्यक हो जाता है।
एक प्रश्न मन मो अनायास कुरेदता है- क्या यह देश किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष की निजी मिल्कियत है ? यदि संवैधानिक प्रावधानों के तहत जनता किसी पार्टी को शासन चलाने का अधिकारी सौंपती है, इसका मतलब है- अपने दायित्व को निष्ठापूर्वक निभाना, न कि उसका दुरुपयोग करते हुए देश के संसाधनों को लूटना। यदि कोर्इ संवैधानिक संस्था सरकार की कार्य प्रणाली में दोष ढूंढती है, इसका मतलब यह नहीं होता कि आप उस संवैधानिक संस्था की जांच कार्यवाही के साथ-साथ उसके औचित्य को भी नकार दों।
मंत्रीमंड़ल पूरे देश की शासन व्यवस्था संभालता है। उसके मंत्री को संजीदा होना चाहिये। आखिर वे इतने बड़े लोकतांत्रिक देश को सम्भाल रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कोयला मंत्रलाय का अतिरिकत भार सम्भला। जांच में गम्भीर अनयिमितता पायी गयी, जिसे देश को कर्इ लाख करोड़ का नुकसान हो गया। विपक्ष यदि उनसे स्तीफा मांगता है, तो इसमें गलत क्या है? क्या यह विपक्ष का संवैधानिक अधिकार नहीं है? विशेषरुप से देश का गृहमंत्रालय तो सबसे संवेदनशील मंत्रालय होता है, उसको सम्भालने वाला व्यक्ति किसी भी गम्भीर घटना से अपना पल्ला यह कह कर कैसे झाड़ देता है कि यह मेरा काम नहीं है? ऐसा कथन एक जिम्मेदार मंत्री की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। इसी तरह आप विधि मंत्री है, इसका मतलब यह नहीं है कि न्यायालय द्वारा किसी संस्था को सौंपी गयी जांच कार्यवाही की गोपनीय रिपोर्ट को देखें। कोयलामंत्री यह कह कर कैसे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं कि घोटोलों का दोष हमारे मंत्रालय का नहीं है, इसका दोषी ऊर्जा मंत्रलाय है। हैलिकोप्टर घोटाले से रक्षा मंत्री यह कह कर कैसे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं कि सब कुछ मेरी जानकारी में नहीं हुआ है ।
कुल मिला कर सरकार का एक बेहद भद्दा व कुरुप चेहरा सामने आ गया है। जो कुछ घटित हो रहा है, वह यह दर्शाता है कि जो लोग सरकार चला रहे हैं, उनकी मानसिकता इस देश की जनता को ठगने की है। संवैधानिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली की जानबूझ करना उनकी अभिमानी और कुटिल प्रवृति को दर्शाता है। यदि साम्प्रदायिक शक्तियों को सता से दूर रहने का नारा लगा कर अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास कर रहे हैं तो यह देश की जनता को दिया जाने वाला एक अशिष्ट धोखा है। आखिर कब तक आप धर्म निरेपक्षता और साम्प्रदायिकता की रट लगा कर देश को लूटते रहेंगे।
यदि जनता अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति सजग नहीं रहेगी और ऐसे राजनीतिक दल और गठबंधन को पुन: सता सौंप देगी, तब उसका अभिमान निरंकुशता में तब्दील हो जायेगा। निरंकुश शासक कभी जनसेवक नहीं बन सकता। वह जन भावना के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकता। वह लोकतंत्र का उपयोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए करता है। जनता को वह अपनी प्रजा समझता है और उस पर शासन करना अपना अधिकार मानता है।
भारत में चुनाव जीतने के लिए धन चाहिये, जिसकी उनके पास कोई कमी नहीं है। पूरे देश में उनका वोट बैंक है, जो उन्हें छोड़ कर कहीं जायेगा नहीं। उनके नियंत्रण में सरकारी जांच एजेंसियां है, जिसके माध्यम से वे अपने विरोधियों को दबा सकते हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय माध्यम से अपने पक्ष में वातावरण बना सकते हैं। अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट सकते हैं। यदि ऐसी स्थिति बन जाये कि सरकार बनाने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं मिल पाये, तब औदयोगिक घरानों के सपोर्ट और धन से सांसदों को खरीद कर सरकार बना सकते हैं। अर्थात भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को इतना विकृत कर दिया है कि सता पर नियंत्रण ही मुख्य लक्ष्य रह गया है। सता में आ कर देश की सेवा के भाव को पूर्णतया भुला दिया गया है।
किसी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए ये अशुभ संकेत है। अत: भारतीय जनता को यह संकल्प लेना चाहिये कि हम अब उन्हें कभी नहीं चुनेंगे जिनकी नीयत में खोट हो। जो देश की जनता के लिए नहीं अपने लिए जीते हों। हम भारतीय नागरिक धर्म, जाति और प्रादेशिक भाव को भुला कर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को जीवंत बनाने के लिए आपस में जुड़ जायेंगे। राजनीतिक दलों के उन नुस्खों को असफल कर देंगे, जिसकों आधार बना कर वे चुनाव जीत जाते हैं। हम पूरे देश में छोटी-छोटी नागरिक समीतियां बनायेंगे। इनको आपस में जोंडेंगे और इन्हें इतना सशक्त बनायेंगे कि कोई भी व्यक्ति इनके समर्थन के बिना पूरे देश में कहीं भी चुनाव नहीं जीत सके। हम अब संसद और विधानसभाओं में उन व्यक्तियों को भेजेंगे जिनके मन में जन सेवा का भाव हो। उन्हें नहीं जो धूर्तता, चाटुकारिता और छल-कपट करने में निष्णात हों। अब सता से कुछ मांगने के लिए याचक बन कर सड़को पर इकट्ठा नहीं होंगे, वरन उन्हें सता से सड़क पर ले आयेंगे, जो जनता के सेवक बनने के बजाय अपने आपको जनता का शासक समझेंगे।
सब कुछ संभव है, यदि अब भी जनता जागरुक हो कर व्यवस्था परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध हो जाय। एक सड़ी हुई राजनीतक व्यवस्था को बदलने का संकल्प लें।
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