पाकिस्तान हर बाजी जीत जाता है। हम हार कर उसे कोसने के अलावा कुछ नहीं
कर पाते। यह पीड़ादायक स्थिति है। अफजल-कसाब की फांसी के बाद एक साधारण
भारतीय नागरिक के मन में भी यह आशंका थी कि पाकिस्तान जरुर कोई न कोई
खुरापत करेगा, किन्तु राजनीतिक हानि लाभ का आंकलन कर उन्हें फांसी दे दी और
परिणामों की परवाह किये बिना सरकार सो गयी। हैदराबाद ब्लास्ट ने जगाया।
थोडी देर के लिए जागी, फिर सो गयी। इसके बाद भारतीय जवानों के सिर
पाकिस्तानी सेना काट कर ले गयी। बीएसएफ के केंप में घुस कर आतंकवादियों ने
जवानो को मार दिया। बैंगलोर में फिर ब्लास्ट किया और एक सोची-समझी रणनीति
के तहत सरबजीत की हत्या कर दी।बोद्धगया और फिर पटना में मोदी की रैली में
किया गया ब्लास्ट। सिलसिलेबार घटित हो रही घटना पर रटा रटाया वक्तव्य देने
के अलावा सरकार कुछ नहीं कर पायी। उसके पास न तो कुछ करने की सोच है और न
ही इच्छा शक्ति। एक अकर्मण्य और निकम्मी सरकार से इसके अलावा कोई अपेक्षा
भी नहीं की जा सकती।
दरअसल वर्तमान सरकार हर क्षेत्र में अक्षमता साबित कर चुकी है। गृह, अर्थ, विदेश, रक्षा, संचार और ऊर्जा मंत्रालय के कार्य निष्पादन के ऐसे कई उदाहरण है, जिसमें उसकी रीति-नीति की झलक दिखाई देती है। भारी भरकम घोटालों से देश की अर्थव्यवस्था को चोपट कर दिया। औद्योगित प्रगति अवरुद्ध हो गयी, किन्तु जो लोग सरकार चला रहे है, उनमें मन में अपराधबोध नहीं है। शर्मिदगी नहीं है। देश की जनता से कोई भय नहीं है। क्योंकि वे भारतीय जनता को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं और जानते हैं, हम कुछ भी करें, जनता हमे ही चुनेगी। हम झूठ, फरेब, छल, कपट को आधार बना कर चुनाव जीतेंगे। इस देश पर शासन हम ही करेंगे।
वस्तुत: वर्तमान सरकार जिस व्यक्तित्व के नियंत्रण में हैं, उनके मन में इस देश के प्रति आदर भाव नहीं है। निष्ठा नहीं है। देश प्रेम नहीं है। भारतीय संस्कृति में आस्था नहीं है। भारतीय जीवन मूल्यों की चिंता नहीं है। भारत के स्वाभिमान की परवाह नहीं है। भारत के उत्कर्ष की कामना नहीं है। भारत को समृद्धिशाली और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की उत्कंठा नहीं है। भारतीय नागरिकों के प्रति अनुराग नहीं है। उनके जीवन के प्रति संवेदनशीलता नहीं है।
प्रश्न उठता है, एक ऐसी शख्सियत जिसे भारत की संवैधानिक परम्पराओं में विश्वास नहीं हैं। जो इसकी पवित्रता को अपने स्वार्थ के लिए जानबूझ कर नष्ट करने पर तुली हुई है। जिसके पास अपना कोई व्यावहारिक निज सोच नहीं हों। जन समस्याओं को सुलझाने के लिए तीक्ष्ण विश्लेषणात्मक मस्तिष्क नहीं हों। जिनके राजनीतिक विचार अस्पष्ट, बहुत संकुचित व संकीर्ण हों। जिनका व्यक्तित्व रहस्यमय और न समझ में आने वाली पहेली बन गया हों, ऐसी शख्सियत के हाथों में हमने देश क्यों सौंपा? क्यों उन्हें हमने सता का शक्ति केन्द्र बना दिया? क्यों प्रतिभाशाली , समर्थ व कर्मठ राजनेताओं को मंत्री बनाने के बजाय चाटुकारिता में प्रवीण, स्चामी की आज्ञा को शिरोधार्य कहने वाली चाटुकार टोली को देश के महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंप दिये गये और देश की जनता मूक दर्शक बन कर देखती रह गयी ?
वस्तुत: भारत की गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन, धार्मिक, जातीय व प्रादेशिक संकीर्णता, उस शख्सियत के लिए उपयोगी साबित हुई है। हमारी दुर्बलताऐं हमारे लिए अभिशाप बन गयी और उनके लिए वरदान बन गयी। क्योंकि हमारी दुर्बलताओं को आधार बना कर चुनाव जीते जाते हैं। तिकड़म से सरकार बनायी जाती है। घृणित उद्धेश्य ले कर सरकार चलायी जाती है। संवैधानिक संस्थाओं और प्रशासनिक व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद अपने छुपे हुए मिशन को पूरा करने में सफलता हांसिल की जा सकती है।
जिस पार्टी की वह शख्सियत सर्वेसर्वा है, उस पार्टी में अब जीवट ऊर्जा वाला नेता नहीं बचे है, जो उनके सामने चुनौती प्रस्तुत कर सके। पार्टी पूर्णतया अपंग हो गयी है। एक खानदान पर पूरी तरह अवलम्बित हो गयी है। पार्टी के पास स्वाभीमानी और देश भक्त नेताओं का अकाल पड़ गया है। पार्टी में ऐसे नेता बच गये, जिन्हें कहो उठो, तो वे उठ जाते हैं और बैठने के लिए कहो, तो बैठ जाते हैं। अपने नेता को स्वामी मानते हैं और उनकी हर आज्ञा को सिर झुका कर स्वीकार कर लेते हैं। स्वामी के बारें में कुछ भी कहो तो बिफर पड़ते हैं। कहने को तो इसे गांधी की पार्टी कहा जाता है, किन्तु गांधी की पार्टी में गांधी के सिद्धान्तों और आदर्शों के लिए किंचित भी जगह बचा कर नहीं रखी गयी है।
विपक्ष बिखरा-बिखरा है। प्रादेशिक क्षत्रप शक्तिशाली बन कर उभरे हैं, जो अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए स्वामीभक्तों की पार्टी के समक्ष समय-समय पर शरणागत हो जाते हैं। कभी समर्थन देते हैं। कभी समर्थन ले लेते हैं। कभी समर्थन वापस लेने की धमकी देते हैं। लुका-छुपी का गंदा राजनीति के खेल ने जनता के मन में वितृष्णा भर दी है। राजनीतिक अस्थिरता और अर्कमण्य सरकार के अस्तित्व में बने रहने से पड़ोसी देश प्रभावी हो रहे हैं। वे जो चाहे कर रहे हैं और हमारी सरकार उपहास का उड़ा रहे हैं। हम भारतीय नागरिक शर्मिंन्दगी महसूस कर रहे हैं। परन्तु इसके अलावा हम कर ही क्या सकते हैं।
एक अक्षम सरकार जिसे अपने उतरदायित्व की परवाह नहीं है, जैसे-तैसे अपने दिन पूरे कर रही है। देश के एक सौ बीस करोड़ नागरिकों को अंधेरे युग में धकेल दिया गया है। नागरिकों के मन में सरकार के कुकृत्यों को ले कर गहरा असंतोष है। आक्रोश है। उद्वेलन है। किन्तु इस अंधेरे युग से बाहर निकलने का कोई रास्ता भी नहीं दिखाई दे रहा है। अपने हाथों में जलती हुई मशाल ले कर कोई अलौकिक शक्ति नहीं आ रही है, जो कहे- मेरे पीछ-पीछे चलों। मैं तुम्हें रास्ता दिखाऊंगा। अंधेरे से निज़ात दिलाऊंगा।
यह भ्रम है हमारा। हमें अपना रास्त स्वयं ही खोजना होगा। यदि हम अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर लेंगे] तो निश्चय ही हमे प्रकाश किरणे दिखाई देगी। अंधेरे के छंटने के आसार बनेंगे। दुर्बलताओं पर विजय पाने के लिए हमे यह भूलना होगा कि हमारी जाति क्या है। हमारा मजहब क्या है। हम किस प्रान्त में रहते है। हमे सिर्फ यह याद रखना होगा कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था खतरे में हैं। हमे अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सजग हो कर यह संकल्प लेना होगा कि हम उन्हें अपना जन प्रतिनिधि चुनेगें जो जनता के प्रति उतरदायित्व का भाव रखें, न कि अपने स्वामी के प्रति। हम उस राजनीतिक दल को अपना भरपूर समर्थन देंगे, जो देश को एक जवाबदेय, सक्षम सरकार दे सकें। जिस पार्टी के पास देश भक्त नेताओं का बाहुल्य हों। जो अपनी प्रशासनिक क्षमता को प्रमाणित कर सकें। जो पार्टी उपयुक्त लगे और हमारी कसौटी पर खरी उतरे, उसे भरपूर समर्थन देना होगा, ताकि उसको अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने का मौका मिले। यह तभी सम्भव है, जब हम स्वामीभक्त पार्टी को पूरी तरह तिरस्कृत कर दें। उन क्षत्रपों का प्रभाव सीमित कर दें, जो चुनाव तो एक दूसरे के विरुद्ध लड़ते हैं और सरकार बनाने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी के सहयोगी बन जाते हैं। यदि ऐसा हो जायेगा तो अंधेरा छंट जायेगा। नया सवेरा होगा। नयी सरकार जनता की अपनी होगी। जो जनता लिए कार्य करेगी। मात्र स्वामी की आज्ञा का पालन ही नहीं करेगी।
दरअसल वर्तमान सरकार हर क्षेत्र में अक्षमता साबित कर चुकी है। गृह, अर्थ, विदेश, रक्षा, संचार और ऊर्जा मंत्रालय के कार्य निष्पादन के ऐसे कई उदाहरण है, जिसमें उसकी रीति-नीति की झलक दिखाई देती है। भारी भरकम घोटालों से देश की अर्थव्यवस्था को चोपट कर दिया। औद्योगित प्रगति अवरुद्ध हो गयी, किन्तु जो लोग सरकार चला रहे है, उनमें मन में अपराधबोध नहीं है। शर्मिदगी नहीं है। देश की जनता से कोई भय नहीं है। क्योंकि वे भारतीय जनता को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं और जानते हैं, हम कुछ भी करें, जनता हमे ही चुनेगी। हम झूठ, फरेब, छल, कपट को आधार बना कर चुनाव जीतेंगे। इस देश पर शासन हम ही करेंगे।
वस्तुत: वर्तमान सरकार जिस व्यक्तित्व के नियंत्रण में हैं, उनके मन में इस देश के प्रति आदर भाव नहीं है। निष्ठा नहीं है। देश प्रेम नहीं है। भारतीय संस्कृति में आस्था नहीं है। भारतीय जीवन मूल्यों की चिंता नहीं है। भारत के स्वाभिमान की परवाह नहीं है। भारत के उत्कर्ष की कामना नहीं है। भारत को समृद्धिशाली और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की उत्कंठा नहीं है। भारतीय नागरिकों के प्रति अनुराग नहीं है। उनके जीवन के प्रति संवेदनशीलता नहीं है।
प्रश्न उठता है, एक ऐसी शख्सियत जिसे भारत की संवैधानिक परम्पराओं में विश्वास नहीं हैं। जो इसकी पवित्रता को अपने स्वार्थ के लिए जानबूझ कर नष्ट करने पर तुली हुई है। जिसके पास अपना कोई व्यावहारिक निज सोच नहीं हों। जन समस्याओं को सुलझाने के लिए तीक्ष्ण विश्लेषणात्मक मस्तिष्क नहीं हों। जिनके राजनीतिक विचार अस्पष्ट, बहुत संकुचित व संकीर्ण हों। जिनका व्यक्तित्व रहस्यमय और न समझ में आने वाली पहेली बन गया हों, ऐसी शख्सियत के हाथों में हमने देश क्यों सौंपा? क्यों उन्हें हमने सता का शक्ति केन्द्र बना दिया? क्यों प्रतिभाशाली , समर्थ व कर्मठ राजनेताओं को मंत्री बनाने के बजाय चाटुकारिता में प्रवीण, स्चामी की आज्ञा को शिरोधार्य कहने वाली चाटुकार टोली को देश के महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंप दिये गये और देश की जनता मूक दर्शक बन कर देखती रह गयी ?
वस्तुत: भारत की गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन, धार्मिक, जातीय व प्रादेशिक संकीर्णता, उस शख्सियत के लिए उपयोगी साबित हुई है। हमारी दुर्बलताऐं हमारे लिए अभिशाप बन गयी और उनके लिए वरदान बन गयी। क्योंकि हमारी दुर्बलताओं को आधार बना कर चुनाव जीते जाते हैं। तिकड़म से सरकार बनायी जाती है। घृणित उद्धेश्य ले कर सरकार चलायी जाती है। संवैधानिक संस्थाओं और प्रशासनिक व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद अपने छुपे हुए मिशन को पूरा करने में सफलता हांसिल की जा सकती है।
जिस पार्टी की वह शख्सियत सर्वेसर्वा है, उस पार्टी में अब जीवट ऊर्जा वाला नेता नहीं बचे है, जो उनके सामने चुनौती प्रस्तुत कर सके। पार्टी पूर्णतया अपंग हो गयी है। एक खानदान पर पूरी तरह अवलम्बित हो गयी है। पार्टी के पास स्वाभीमानी और देश भक्त नेताओं का अकाल पड़ गया है। पार्टी में ऐसे नेता बच गये, जिन्हें कहो उठो, तो वे उठ जाते हैं और बैठने के लिए कहो, तो बैठ जाते हैं। अपने नेता को स्वामी मानते हैं और उनकी हर आज्ञा को सिर झुका कर स्वीकार कर लेते हैं। स्वामी के बारें में कुछ भी कहो तो बिफर पड़ते हैं। कहने को तो इसे गांधी की पार्टी कहा जाता है, किन्तु गांधी की पार्टी में गांधी के सिद्धान्तों और आदर्शों के लिए किंचित भी जगह बचा कर नहीं रखी गयी है।
विपक्ष बिखरा-बिखरा है। प्रादेशिक क्षत्रप शक्तिशाली बन कर उभरे हैं, जो अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए स्वामीभक्तों की पार्टी के समक्ष समय-समय पर शरणागत हो जाते हैं। कभी समर्थन देते हैं। कभी समर्थन ले लेते हैं। कभी समर्थन वापस लेने की धमकी देते हैं। लुका-छुपी का गंदा राजनीति के खेल ने जनता के मन में वितृष्णा भर दी है। राजनीतिक अस्थिरता और अर्कमण्य सरकार के अस्तित्व में बने रहने से पड़ोसी देश प्रभावी हो रहे हैं। वे जो चाहे कर रहे हैं और हमारी सरकार उपहास का उड़ा रहे हैं। हम भारतीय नागरिक शर्मिंन्दगी महसूस कर रहे हैं। परन्तु इसके अलावा हम कर ही क्या सकते हैं।
एक अक्षम सरकार जिसे अपने उतरदायित्व की परवाह नहीं है, जैसे-तैसे अपने दिन पूरे कर रही है। देश के एक सौ बीस करोड़ नागरिकों को अंधेरे युग में धकेल दिया गया है। नागरिकों के मन में सरकार के कुकृत्यों को ले कर गहरा असंतोष है। आक्रोश है। उद्वेलन है। किन्तु इस अंधेरे युग से बाहर निकलने का कोई रास्ता भी नहीं दिखाई दे रहा है। अपने हाथों में जलती हुई मशाल ले कर कोई अलौकिक शक्ति नहीं आ रही है, जो कहे- मेरे पीछ-पीछे चलों। मैं तुम्हें रास्ता दिखाऊंगा। अंधेरे से निज़ात दिलाऊंगा।
यह भ्रम है हमारा। हमें अपना रास्त स्वयं ही खोजना होगा। यदि हम अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर लेंगे] तो निश्चय ही हमे प्रकाश किरणे दिखाई देगी। अंधेरे के छंटने के आसार बनेंगे। दुर्बलताओं पर विजय पाने के लिए हमे यह भूलना होगा कि हमारी जाति क्या है। हमारा मजहब क्या है। हम किस प्रान्त में रहते है। हमे सिर्फ यह याद रखना होगा कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था खतरे में हैं। हमे अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सजग हो कर यह संकल्प लेना होगा कि हम उन्हें अपना जन प्रतिनिधि चुनेगें जो जनता के प्रति उतरदायित्व का भाव रखें, न कि अपने स्वामी के प्रति। हम उस राजनीतिक दल को अपना भरपूर समर्थन देंगे, जो देश को एक जवाबदेय, सक्षम सरकार दे सकें। जिस पार्टी के पास देश भक्त नेताओं का बाहुल्य हों। जो अपनी प्रशासनिक क्षमता को प्रमाणित कर सकें। जो पार्टी उपयुक्त लगे और हमारी कसौटी पर खरी उतरे, उसे भरपूर समर्थन देना होगा, ताकि उसको अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने का मौका मिले। यह तभी सम्भव है, जब हम स्वामीभक्त पार्टी को पूरी तरह तिरस्कृत कर दें। उन क्षत्रपों का प्रभाव सीमित कर दें, जो चुनाव तो एक दूसरे के विरुद्ध लड़ते हैं और सरकार बनाने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी के सहयोगी बन जाते हैं। यदि ऐसा हो जायेगा तो अंधेरा छंट जायेगा। नया सवेरा होगा। नयी सरकार जनता की अपनी होगी। जो जनता लिए कार्य करेगी। मात्र स्वामी की आज्ञा का पालन ही नहीं करेगी।