जुबान वही बोलती है, जो मस्तिष्क सोचता है। मस्तिष्क में सोचने की
क्षमता ही नही है तो वह विचार कहां से लायेगा और उन्हें शब्दों के माध्यम
से अभिव्यक्त कैसे करेगा ? सम्भवत: पार्टी राजकुमार को समझाया कुछ और था,
वे बोल कुछ और गये। अब समझ है ही नहीं कि क्या बोले और कैसे बोले, अत: बोल
गये- हम गरीबों के लिए सपने लायें हैं। हम उन्हें सपने दिखाने का हक दिला
रहे हैं, पर विपक्ष सपने देखने का हक छीन रहा है। सपने कभी छीने नहीं जाते,
न ही उन्हें बुलाया जाता है। वे तो बरबसर आ जाते हैं। किस को मालूम
पड़ता है कि अमूक व्यक्ति सपने देख रहा है, इसलिए उसे जगा दो और कह दो कि
तुम गरीब हो, इसलिए तुम्हें सपने देखने का अधिकार नहीं है। परन्तु शायद
उन्हें नहीं मालूम कि गरीबों को डरावने सपने आते हैं। क्योंकि दिन भर जो
घुटन होती है, वह सपनो में ज्यादा भयभीत करती है।
दस वर्ष तक गरीबों को रुलाते रहे। अब उन्हें कह रहे हैं- आपको रोने की जरुरत नहीं है। आप हमसे सपने खरीद लों और मुस्कराओ। अब तक आपको भूखा रखते रहे, अब आपको पेट भर खाना खिलायेंगे। अब तक आपको मुफ्त दवार्इयां नहीं मिलती थी, अब दिला रहे हैं। परन्तु विपक्ष ऐसा चाहता ही नहीं कि हम आपकी सेवा करें। अब उन्हें कैसे समझाएं कि जब कर्ता-धर्ता ही आप हैं, तो आपको रोकने की हिम्मत भला कौन कर सकता है ? विपक्ष तो जुम्मा-जुम्म आठ नो साल शासन कर पाया। बाकी बचे छप्पन -सतावन साल तो आपके खाते में ही गये हैं।
दस वर्ष से आप ही इस देश पर हुकूमत कर रहे हैं। आपके अलावा आपके पुरखे इस देश पर शासन करते रहे थे। गरीबी हटाओं का नारा भी आपके पुरखो ने ही देश को दिया था। गरीबी तो हटी नहीं, गरीब जरुर हट गये। गरीबों के नाम की माला जपने से गरीब खुश हो कर वोट देते हैं। सम्भवत: इसीलिए आपने गरीबी ! गरीबी !! की रट लगा रखी है। क्योंकि आपको मालूम है इस देश की गरीबी और गरीब ही आपको चुनावों की वैतरणी पार कराने में सहायक होंगे।
कभी आपने कहा था-’ गरीबी’ तो एक मानसिक अवस्था है। गरीबी होती नहीं, वह महसूस होती है। दरअसल आपको मालूम ही नहीं है कि गरीबी आखिर होती क्या है? क्योंकि न आपने गरीबी देखी है और न ही उसे महसूस किया है। आप कभी बाज़ार गये ही नहीं, तो दाल आटे का भाव आपको कैसे मालूम होगा ? आपको सिर्फ यह मालूम है कि गरीब को दो रुपये में गेहूं दिलाने से वह भुखा नहीं मरेगा। परन्तु आपको यह नहीं मालूम कि गेहूं को सुखा चबाने से भूख नहीं मिटती है। गेहूं को पीसाना पड़ता है और दो रुपये किलों में खरीदे गये गेहूं को पिसाने के लिए तीन रुपये खर्च करने पड़ते हैं। रोटी पकाने के लिए र्इंधन भी महंगा हो गया है। सब्जी पचास रुपये किलो मिलती है और दाले अस्सीं रुपये किलो। खाद्य तेल सौ रुपये लीटर। सब्जी पकाने के लिए मसालों की भी जरुरत होती है, उसमें नमक दस रुपये किलो है, बाकी पचास रुपये किलो से कोर्इ कम नहीं मिलता।
अत: मात्र गेहूं दिलाने से भुखों की भूख नहीं मिटती, क्योंकि रोटी आप उपलब्ध करा रहे हैं, परन्तु दाल सब्जी की व्यवस्था कौन करेगा ? क्योंकि आप सस्ता गेहूं दिलायेंगे, तो महंगार्इ बढ़ेगी। गेहूं के अलावा अन्य खाद्य पदार्थ महंगे हो जायेंगे। बात वहीं की वहीं रही। सूखी रोटी खाने से भूख मिटेगी नहीं। अलबता कुपोषण बढ़ जायेगा। कमजोर शरीर जल्दी बिमार हो जायेगा। परन्तु आपने मुफ्त दवा की व्यवस्था कर रखी हैं। गरीब को दवा मिल जायेगी, वह खा लेगा और जिंदा रह जायेगा।
दस वर्ष के शासन के परिणाम जनता के सामने हैं। औद्योगिक उत्पादन घटने से बैरोजगारी बढ़ी। नये रोजगार का सृजन नहीं हुआ, किन्तु जो है, उन पर छीनने की तलवार लटकी हुर्इ है। रही सही कसर मनरेगा जैसी अस्थायी रोजगार गारंटी ने पूरी कर दी है। क्योंकि अस्थायी रोजगार गारंटी ने स्थायी रोजगार छीन लिए और नये रोजगार का सृजन बंद हो गया। यदि सरकार की नीतियां विनाशकारी नहीं होती तो दस वर्षों में कम से कम एक करोड़ बैरोजगार युवकों को स्थायी रोजगार दिलाया जा सकता था।
हालात इस समय यह बन रहे है कि पिता की नौकर फैक्ट्री में तालाबंदी होने से चली गयी और बैरोजगार पुत्र के पास नौकरी नहीं है। घर में खाने वाले पांच हैं और कमाने वाला कोर्इ नहीं। ऐसे असंख्य परिवार तकलीफें भोग रहे हैं। सरकार के पास युवकों को देने के लिए काम है ही नहीं और प्राइवेट सेक्टर नौकरियां देने में सक्षम नहीं है। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में परिवार ज्यों-त्यों रोते हुए गुजर बसर कर रहा है। ऐसे पीड़ित परिवार को सपने नहीं, रोजगार चाहिये। आमदनी का जरिया चाहिये। थोथी बातों से उनका पेट भरने वाला नहीं है।
बैरोजगार युवकों को झूठे सपने दिखा कर उन्हें भ्रमित क्यों किया जा रहा है? देश के इस समय जो आर्थिक हालात है, उसमें नये रोजगार पैदा करने की सम्भावना बहुत कम है। किन्तु हालात से बेखबर महाशय विपक्ष को कोसने के लिए बैरोजगार युवकों रोजगार मुहैया करने के सपने दिखा रहे हैं। अर्थात हम से गलत काम हो गये, उसके जिम्मेदार हम नहीं हैं, क्योंकि विपक्ष हमारे मार्ग में अवरोध खड़ा करता है। अब हम कुछ करना चाहते हैं, किन्तु विपक्ष हमे रोकता है। अर्थात भारत के मतदाताओं से हमारा निवेदन है कि विपक्ष को मिटा दो और हमे भरपूर ताकत दों, ताकि हम भारतीय जनता को मूर्ख समझते हुए लूटने का काम जारी रख सकें।
गरीबी, भूख, बैरोजगारी वस्तुत: अक्षम प्रशासन, अयोग्य, अनुभवहीन व असंवेदनशी नेतृत्व की उपज होती है। परन्तु इन शब्दों का मात्र उपयोग यदि चुनावी लाभ के लिए किया जाता है, तो निश्चय ही ऐसे राजनेता इस देश की जनता को मूर्ख समझते हैं। क्योंकि जो दर्द देते हैं, वे ही दवा लाने का स्वांग करते हैं और इसके लिए ढिंढ़ोरा पीटते हैं, तो स्पष्ट हैं उनके मन में दगा है। दवा के बहाने अपना मतलब साधना चाहते हैं।
अत: भारतीय जनता को अब ठगो से सावधान रहना चाहिये। ये आपके अपने नहीं है। चुनावों का मौसम आने पर ये महलों से बाहर निकलते हैं। गरीबी, भूख, बैरोजगारी आदि शब्दों का अपने भाषणों में प्रयोग करते हुए जनता को लुभाने की कोशिश करते हैं। चुनाव का मौसम जाते ही ये पुन: अपनी शान शौकत वाली रंगीन दुनियां में खा ेजाते हैं। तब उन्हें गरीब, गरीबी, भूख, बैरोजगारी जैसे शब्द याद नहीं रहते। ये शब्द उन्हें विचलित नहीं करते। भाषणों के दौरान इन शब्दों का प्रयोग करते हुए जो गुस्सा दिखाते हैं, वह काफूर हो जाता है। जनता को दिखाये गये हसीन सपने याद नहीं रहते। दरअसल वे अपनी रंगीन दुनियां में वापिस आते ही राजसुख भोगने में इतने मस्त हो जाते हैं कि उनकी सारी स्मृतियां विलुप्त हो जाती है।
दस वर्ष तक गरीबों को रुलाते रहे। अब उन्हें कह रहे हैं- आपको रोने की जरुरत नहीं है। आप हमसे सपने खरीद लों और मुस्कराओ। अब तक आपको भूखा रखते रहे, अब आपको पेट भर खाना खिलायेंगे। अब तक आपको मुफ्त दवार्इयां नहीं मिलती थी, अब दिला रहे हैं। परन्तु विपक्ष ऐसा चाहता ही नहीं कि हम आपकी सेवा करें। अब उन्हें कैसे समझाएं कि जब कर्ता-धर्ता ही आप हैं, तो आपको रोकने की हिम्मत भला कौन कर सकता है ? विपक्ष तो जुम्मा-जुम्म आठ नो साल शासन कर पाया। बाकी बचे छप्पन -सतावन साल तो आपके खाते में ही गये हैं।
दस वर्ष से आप ही इस देश पर हुकूमत कर रहे हैं। आपके अलावा आपके पुरखे इस देश पर शासन करते रहे थे। गरीबी हटाओं का नारा भी आपके पुरखो ने ही देश को दिया था। गरीबी तो हटी नहीं, गरीब जरुर हट गये। गरीबों के नाम की माला जपने से गरीब खुश हो कर वोट देते हैं। सम्भवत: इसीलिए आपने गरीबी ! गरीबी !! की रट लगा रखी है। क्योंकि आपको मालूम है इस देश की गरीबी और गरीब ही आपको चुनावों की वैतरणी पार कराने में सहायक होंगे।
कभी आपने कहा था-’ गरीबी’ तो एक मानसिक अवस्था है। गरीबी होती नहीं, वह महसूस होती है। दरअसल आपको मालूम ही नहीं है कि गरीबी आखिर होती क्या है? क्योंकि न आपने गरीबी देखी है और न ही उसे महसूस किया है। आप कभी बाज़ार गये ही नहीं, तो दाल आटे का भाव आपको कैसे मालूम होगा ? आपको सिर्फ यह मालूम है कि गरीब को दो रुपये में गेहूं दिलाने से वह भुखा नहीं मरेगा। परन्तु आपको यह नहीं मालूम कि गेहूं को सुखा चबाने से भूख नहीं मिटती है। गेहूं को पीसाना पड़ता है और दो रुपये किलों में खरीदे गये गेहूं को पिसाने के लिए तीन रुपये खर्च करने पड़ते हैं। रोटी पकाने के लिए र्इंधन भी महंगा हो गया है। सब्जी पचास रुपये किलो मिलती है और दाले अस्सीं रुपये किलो। खाद्य तेल सौ रुपये लीटर। सब्जी पकाने के लिए मसालों की भी जरुरत होती है, उसमें नमक दस रुपये किलो है, बाकी पचास रुपये किलो से कोर्इ कम नहीं मिलता।
अत: मात्र गेहूं दिलाने से भुखों की भूख नहीं मिटती, क्योंकि रोटी आप उपलब्ध करा रहे हैं, परन्तु दाल सब्जी की व्यवस्था कौन करेगा ? क्योंकि आप सस्ता गेहूं दिलायेंगे, तो महंगार्इ बढ़ेगी। गेहूं के अलावा अन्य खाद्य पदार्थ महंगे हो जायेंगे। बात वहीं की वहीं रही। सूखी रोटी खाने से भूख मिटेगी नहीं। अलबता कुपोषण बढ़ जायेगा। कमजोर शरीर जल्दी बिमार हो जायेगा। परन्तु आपने मुफ्त दवा की व्यवस्था कर रखी हैं। गरीब को दवा मिल जायेगी, वह खा लेगा और जिंदा रह जायेगा।
दस वर्ष के शासन के परिणाम जनता के सामने हैं। औद्योगिक उत्पादन घटने से बैरोजगारी बढ़ी। नये रोजगार का सृजन नहीं हुआ, किन्तु जो है, उन पर छीनने की तलवार लटकी हुर्इ है। रही सही कसर मनरेगा जैसी अस्थायी रोजगार गारंटी ने पूरी कर दी है। क्योंकि अस्थायी रोजगार गारंटी ने स्थायी रोजगार छीन लिए और नये रोजगार का सृजन बंद हो गया। यदि सरकार की नीतियां विनाशकारी नहीं होती तो दस वर्षों में कम से कम एक करोड़ बैरोजगार युवकों को स्थायी रोजगार दिलाया जा सकता था।
हालात इस समय यह बन रहे है कि पिता की नौकर फैक्ट्री में तालाबंदी होने से चली गयी और बैरोजगार पुत्र के पास नौकरी नहीं है। घर में खाने वाले पांच हैं और कमाने वाला कोर्इ नहीं। ऐसे असंख्य परिवार तकलीफें भोग रहे हैं। सरकार के पास युवकों को देने के लिए काम है ही नहीं और प्राइवेट सेक्टर नौकरियां देने में सक्षम नहीं है। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में परिवार ज्यों-त्यों रोते हुए गुजर बसर कर रहा है। ऐसे पीड़ित परिवार को सपने नहीं, रोजगार चाहिये। आमदनी का जरिया चाहिये। थोथी बातों से उनका पेट भरने वाला नहीं है।
बैरोजगार युवकों को झूठे सपने दिखा कर उन्हें भ्रमित क्यों किया जा रहा है? देश के इस समय जो आर्थिक हालात है, उसमें नये रोजगार पैदा करने की सम्भावना बहुत कम है। किन्तु हालात से बेखबर महाशय विपक्ष को कोसने के लिए बैरोजगार युवकों रोजगार मुहैया करने के सपने दिखा रहे हैं। अर्थात हम से गलत काम हो गये, उसके जिम्मेदार हम नहीं हैं, क्योंकि विपक्ष हमारे मार्ग में अवरोध खड़ा करता है। अब हम कुछ करना चाहते हैं, किन्तु विपक्ष हमे रोकता है। अर्थात भारत के मतदाताओं से हमारा निवेदन है कि विपक्ष को मिटा दो और हमे भरपूर ताकत दों, ताकि हम भारतीय जनता को मूर्ख समझते हुए लूटने का काम जारी रख सकें।
गरीबी, भूख, बैरोजगारी वस्तुत: अक्षम प्रशासन, अयोग्य, अनुभवहीन व असंवेदनशी नेतृत्व की उपज होती है। परन्तु इन शब्दों का मात्र उपयोग यदि चुनावी लाभ के लिए किया जाता है, तो निश्चय ही ऐसे राजनेता इस देश की जनता को मूर्ख समझते हैं। क्योंकि जो दर्द देते हैं, वे ही दवा लाने का स्वांग करते हैं और इसके लिए ढिंढ़ोरा पीटते हैं, तो स्पष्ट हैं उनके मन में दगा है। दवा के बहाने अपना मतलब साधना चाहते हैं।
अत: भारतीय जनता को अब ठगो से सावधान रहना चाहिये। ये आपके अपने नहीं है। चुनावों का मौसम आने पर ये महलों से बाहर निकलते हैं। गरीबी, भूख, बैरोजगारी आदि शब्दों का अपने भाषणों में प्रयोग करते हुए जनता को लुभाने की कोशिश करते हैं। चुनाव का मौसम जाते ही ये पुन: अपनी शान शौकत वाली रंगीन दुनियां में खा ेजाते हैं। तब उन्हें गरीब, गरीबी, भूख, बैरोजगारी जैसे शब्द याद नहीं रहते। ये शब्द उन्हें विचलित नहीं करते। भाषणों के दौरान इन शब्दों का प्रयोग करते हुए जो गुस्सा दिखाते हैं, वह काफूर हो जाता है। जनता को दिखाये गये हसीन सपने याद नहीं रहते। दरअसल वे अपनी रंगीन दुनियां में वापिस आते ही राजसुख भोगने में इतने मस्त हो जाते हैं कि उनकी सारी स्मृतियां विलुप्त हो जाती है।
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