Thursday 24 October 2013

सत्ता का जहर पीने की लिए अकुलाहट है, तो मृत्यु से भय क्यों ?

सत्ता जहर है और इस जहर की पीने की अकुलाहट भी है, फिर मृत्यु से इतने भयभीत क्यों हो रहे हैं, राहुल ? स्टेरिंग हाथ में पकड़ने से दुर्घटना की जोखिम तो रहती है। यदि डर लगता है, तो पैदल चलो। किसने स्टेरिंग पकड़ने की कसम दिलायी है। सेना और पुलिस में भर्ती होने वालें जवानों को मालूम है कि कभी भी गोली  लग सकती है, फिर भी वे इस कर्म को चुनते हैं, क्योंकि उनके मन में कर्म की प्रधानता होती है, मृत्यु से भय नहीं। दुनियां में आये हैं, तो जाने की तैयारी भी करनी  ही है। क्योंकि जन्म के साथ मृत्यु भी नत्थी हो कर आती है। अब यह किस रुप में आयेगी, यह कोर्इ नहीं जानता।
राजनीति की ज़मीन बहुत रपटीली होती है। फिसल कर जख्मी होने की सम्भावना बनी रहती है। जो कर्मयोगी होते हैं, वे अपनी धुन के पक्के होते हैं। उनमें आगे बढ़ने का जज़्बा होता है। उन्हें कभी मृत्यु का भय नहीं सताता। वे इसे अवरोध भी नहीं मानते। जिन के मन में फिसल कर जख्मी होने का डर रहता है, वे इस मार्ग को नहीं चुनते। वे सीधे सपाट मार्ग पर ही चलते हैं। परन्तु कोर्इ अपने लिए रपटीला मार्ग ही चुनता है। फिसलन का भय दूसरों को दिखा कर अपने लिए सहानुभूति बटोरना चाहता है, तो यह निरा पागलपन है। यह कहना कि मेरी दादी और पापा भी इसी मार्ग पर चलते हुए शहीद हो गये और  मेरे साथ भी ऐसा ही हो सकता है, अपरिपक्क मन:स्थिति को दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति के हाथों मे यदि करोड़ो भारतीय अपना भाग्य और भविष्य सौंप देंगे, तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल होगी।
सत्ता के शीर्ष पर बैठ कर लिया जाने वाला प्रत्येक निर्णय करोड़ो देशवासियों को प्रभावित करता है। किसी निर्णय से  करोड़ो लोग आहत हो सकते हैं। उनके मन में अपने नेता के प्रति क्रोध का भाव उत्पन्न हो सकता है। क्रोध   विवेक को मंद कर देता और जुनून जागृत करता है। जुनून अंधा होता है, उसे उचित अनुचित का भान नहीं रहता। ब्लयू स्टार ऑपरेशन का निर्णय इंदिरा जी के जीवन के लिए घातक बन गया। उनका सुरक्षाकर्मी भी आहत सिख था, वह अपने अंधे जुनून में वह सब कुछ कर बैठा जो उसे नहीं करना था।
इंदिरा जी यदि अपने  सियासी लाभ के लिये एक जोखिम भरी राह नहीं पकड़ती, तो उन्हें ब्लयू स्टार ऑपरेशन का निर्णय नहीं लेना पड़ता। ब्लयू-स्टार ऑपरेशन नहीं होता, तो उनकी हत्या नहीं होती।  उन्होंने पंजाब के 48 प्रतिशत हिन्दुओं के थोक वोट पाने और अकालियों की शक्ति क्षीण करने के लिए भिंडरवाला का भूत तैयार किया था, जो अंतत: नियंत्रण से बाहर हो गया और उसे समाप्त करने के लिए एक अप्रिय निर्णय लेना पड़ा।
यदि राजीव गांधी तमिलों का संहार करने के लिए भारतीय सेना को नहीं भेजते, तो उन्हें तमिल नागरिकों का क्रोध नही झेलना पड़ता। इतिहास ने उनके इस निर्णय को बचकाना व नासमझी भरा निर्णय माना है। उनके इस निर्णय और परिणाम से तमिल टाइगर का क्रोध भड़क गया था, जिसकी एक दुखद परिणति हुर्इ। अपनी इस राजनीतिक भूल के कारण ही राजीव गांधी को अपना जीवन खोना पड़ा।
अपनी दादी और पापा  की हत्या का प्रसंग छेड़ कर राहुल देश की जनता की सहानुभूति बटोरने का प्रयास कर रहे हैं,  किन्तु उन्हें भारत के इतिहास में घटित हुर्इ घटनाओं का एकाग्रता से अध्ययन करना चाहिये और उन घटनाओं से यह प्रेरणा लेनी चाहिये कि यदि सत्ता मिलती है, तो जो भी निर्णय लेंगे, बहुत सोच समझ कर लेंगे। वे ऐसा कोर्इ निर्णय नहीं लेंगे, जिससे जनता आहत होती है।
इंदिरा जी और राजीव जी की हत्याओं से पूरा देश संतप्त हुआ था। अपने प्रिय नेताओं को खोने से कराड़ो भारतवासियों के दिलें पर चोट पहुंची थी। दोनेा दुखद घटनाएं थी। वे राष्ट्रीय नेता थे। राष्ट्र की निधि थे। पूरे राष्ट्र का उन पर अधिकार था। उन्हे एक परिवार की निजी सम्पति मान कर राजनीति करना, क्षुद्र कोशिश है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद उनका कोर्इ भी परिजन सहानुभूति पाने के लिए जनता के बीच नहीं आया। किसी के मन में राजनेता बनने की महत्वाकांक्षा नहीं जगी। यह उस परिवार द्वारा देश के लिए किया गया सबसे बड़ा त्याग है। राहुल को महात्मागांधी के परिवार से नसीहत लेनी चाहिये।
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में कर्म और सेवा भाव की प्रधानता होती है। इसके द्वारा ही जनता का दिल जीता जाता है। शासन करने के लिए उससे आदेश मांगा जा सकता है। सत्ता मिलने के बाद यदि पुन: सत्ता में आना है तो अपनी उपलब्धियों की सविस्तार व्याख्या कर के जनता को समझाना पड़ता है और सिद्ध करना रहता है कि हम अपनी कसौटी पर खरे उतरे हैं। हमने पूरी निष्ठा से देश की सेवा की है। इसलिए पुन: सत्ता पाने का अधिकार मांगने आपके पास आये हैं।
राहुल के पास उपलब्धियां बताने के लिए शब्दों का अकाल है, इसलिए विवश हो कर अपनी दादी और पापा की हत्याओं की याद दिला कर जनता को अपने साथ भावनाओं में बहने का आग्रह कर रहे हैं। उन्हें शायद नही मालूम कि वह किसी नाटक का मंच नहीं राजनीतिक मंच हैं, जिस पर खड़े हो कर  विचार प्रकट किये जाते हैं, अभिनय नहीं किया जाता। जनता को अपनी और अपने परिवार की कहानियां नहीं सुनायी जाती।  अपनी भावी जन-प्रिय योजनाओं का वर्णन किया जाता है। जनता को आश्वस्त किया जाता है कि यदि हमें जनसेवा का अधिकार सौंपा जायेगा, तो पूरी प्रतिबद्धता से काम करेंगे। राजनीतिक मंच पर आ कर   भावुक अभिनय कर के जनता को रुलाने की कोशिश नहीं की जाती। जो बीत गया है, वह इतिहास बन गया है। हमे इतिहास से नसीहत ले कर भविष्य की योजनाएं बनानी चाहिये। बार-बार इतिहास की दुखद घटनाओं को याद नहीं किया जाता।
जो सार्वजनिक जीवन में आने का निर्णय लेते हैं, उनके लिए पूरा देश ही अपना परिवार बन जाता है। हर मां की आंसू पर उसके मन में पीड़ा जगती है। देशवासियों की बिमारी और कष्टों से उसका जुड़ाव हो जाता है। ऐसा कोर्इ व्यक्ति सिर्फ अपनी मां की बिमारी को ले कर आहत और दुखी नहीं होता। दुनियां में अब तक ऐसा कोर्इ परिवार नहीं हुआ जिसने कभी बिमारी की पीड़ा नहीं भोगी। शरीर में व्याधियों का होना कोर्इ अस्वाभिवक घटना नहीं है। कभी-कभी जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब रोगी हो कर अपने कार्य को अंजाम देने का प्रयास किया जाता है। हमारे दैनिक जीवन में ऐसी घटनाएं घटती रहती है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया हैं। राहुल अपनी मां की बिमारी की कहानी सुना कर आखिर देश को कहना क्या चाहते हैं ? जो राजनीति को सेवाभाव से नहीं लेते, उनके मन में ऐसे विचार आते हैं।

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