Sunday, 31 August 2014

अतिशय आत्ममुग्धता के रोग ने भाजपा को 2004 में सत्ता से बाहर किया और इसी बीमारी ने 2009 में पुनः सत्तारुढ होने की आशा पर तुषारापात कर दिया। नरेन्द्र मोदी ने कठोर परिश्रम के बलबूते भाजपा को अपने बल पर सत्ता में आने का ऐहिहासिक मौका दिया है, जिसका पूरा श्रेय उन्हें ही जाता है। यदि इतना ही परिश्रम भाजपा के दर्जन भर शीर्ष नेता 2004 और 2009 में करते, तो भारत की जनता को दस वर्षों तक एक अकर्मण्य और भ्रष्ट सरकार का भार नहीं ढोना पड़ता। देश की प्रगति अवरुद्ध नहीं होतीं। कांग्रेस ने देश को जिस दयनीय स्थिति में छोड़ा है, उसकी जिम्मेदारी भाजपा नेताओं की आत्ममुग्धता और बैठे बिठाये ही सफलता हांसिल करने का गरुर है।
यदि भाजपा ऐतिहासिक जीत की खुमारी में नहीं डूबी होती, तो उतराखंड में उसकी सरकार बन जाती। नीतीश-लालू की अवसरवादी जोड़ी बनते ही टूट जाती। कर्नाटक के मुख्यमंत्री को जीवनदान नहीं मिलता। मीडिया को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि मोदी की लोकप्रियता को अब ग्रहण लग गया है। मोदी के अच्छे दिन एक दुःस्वपन बन कर रह गये हैं। जिन राजनीतिक दलों को लोकसभा चुनावों में अपमानजनक पराजय झेलनी पड़ी है, उनके चेहरे पर नूर नहीं लौटता। महा गठबंधन बना कर भाजपा को रोकने की रणनीति पर मंथन नहीं करते।
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश को वर्षों बाद एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जिसके मन में देश के लिए कुछ कर गुजरने की तड़फ है। वे अथक परिश्रम से देश की दुर्दशा को सुधारने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं। उनके पास अपना एक विशिष्ट विज़न है। नयी नीतियां और योजनाओं को लागू करने की दृढ़ इच्छा शक्ति है। मोदी का व्यक्तित्व इतना विराट हो गया है कि उनके द्वारा उठाये गये हर नये कदम और उनके निर्णय को अब गम्भीरता से लिया जाता है। बुद्धिजीवी उसकी गहन समीक्षा करते हैं।
देश अव्यवहारिक और बोझिल कानूनों और नीतियों की त्रासदी भोग रहा है। प्रशासनिक व्यवस्था लच्चर, अकर्मण्य और भ्रश्टाचार में आकंठ डूबी है। राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपतियों और सरकारी कर्मचारियों के लिए यह देश स्वर्ग बना हुआ है, वहीं अस्सीं प्रतिशत जनता नारकीय जीवन जी रही है। हर घर की अपनी समस्याएं हैं। अपनी दुखभरी व्यथा है। गरीबी और अभावों की पीड़ा हैं। सतसठ वर्ष की बर्बादी को दुरुस्त करना है, किन्तु समय बहुत कम हैं। पांच वर्ष की अवधि भी एक सरकार के लिए कम हैं, किन्तु मोदी ने जनता के मन में इतनी आशाएं जगा दी है कि उसे आज अच्छें दिन चाहियें, जबकि ऐसा कुछ दिनों और कुछ महीनों में नामुमकिन है।
यह सही है कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वे देश की जनता के लिए ही कर रहे हैं, किन्तु जनता को उनके कार्यों को समझने की क्षमता नहीं है। पीडि़त जनमानस कष्ट सहता हुआ भीतर से इतना टूट चुका हैं कि यदि उसे तुरन्त सुखद परिणाम नहीं मिलें तो वह सरकार विरोधियों की इन बातों में आ जायेगा कि उन्हें छला गया है। मजबूरी का फायदा उठा कर उन्हें झूठे सपने दिखायें गये हैं। अच्छे दिन लाने का वादा मात्र नारा हैं, जिसे राजनीतिक ठगी कहा जा सकता है।
मोदी सरकार का अब तक का काम संतोषप्रद माना जा रहा है, किन्तु महंगाई और भ्रष्टाचार दोनों ही मार्चों पर अपेक्षित सफलता नहीं मिलने पर सरकार विरोधी राजनीतिक दल सरकार को कठघरें में खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। यदि नयी सरकार स्तारुढ़ होते हीे देशभर में फैली हुई काले धन की अथाह सम्पति के साम्राज्य पर वज्रपात करती, तो उसकी विश्वसनीयता और लोकप्रियता बढ़ जाती। उसे सिर्फ पिछले दस वर्षों में शहरी जमीन या प्रोपर्टी की खरीद फरोख्त में लगे हुए लोगों की जानकारी जुटानी थी, जो सरकारी रिकार्ड खंगालने पर आसानी से उपलबध हो जाती। अब तक अरबो रुपयों की अघोषित सम्पति का पत्ता लग जाता। यदि सरकार ज्यादा गहराई में उतरती तो केई चेहरे बेनकाब हो जाते। पूरे देश में हड़कम्प मच जाता। अच्छे दिन लाने के वादे का जो इन दिनों मज़ाक उड़ा रहे हैं, उनकेे मुहं पर ताले जड़ जाते, क्योंकि जो लपेटे में आते उनमे से कई एक उनके अपने ही होते।
जेटलीे जी ने चिदम्बर की नौकरशाही से जो बजट बनवाया, उसमें पिछली सरकार की अलोकप्रिय नीतियों की छाप थी। डिजल पर सब्सिड़ी घटा रहे हैं, तो उस पर केन्द्र और राज्य सरकारों के टेक्स लगे हुए हैं, वे भी तो कम किये जा सकते थे। यदि डिजल सस्ता होता, तो महंगाई घट जाती और आम जन को लगता कि वास्तव में मोदी जी के आते ही अच्छे दिन आने की शुरुआत हो गयी है। इसी तरह चिदम्बर की स्वर्ण आयात की नीति भी दोषपूर्ण है, जिसकी समीक्षा किये बिना ही उसे ज्यों का त्यों लागू रहने देना एक गलत निर्णय था।
मनरेगा और खाद्यसुरक्षा योजनाएं भ्रष्टाचार की खाने हैं। इन योजनाओं से वंचित समाज से ज्यादा बिचोलिये मालामाल हुए हैं। इन दोनों योजनाओं की पुनः समीक्षा करने तक रोक लगायी जा सकती थी। ऐसा होने पर सरकारी खजाने का घाटा कम हो जाता और महंगाई पर यकायक विराम लग जाता। केरोसिन पर सब्सिडी का लाभ मात्र दस प्रतिशत परिवारों को मिलता है, नब्बे प्रतिशत केरोसिन ब्लेक में बिकता है, जिसका पूरे देश में डिजल में मिलावट के लिए उपयोग किया जा रहा है। वंचित परिवारों को न्यूनतम दरों पर कैरोसिन दिलाने की नीति में बदलाव लाना चाहिये।
भाजपा के लिए अपने बलबूते सरकार बनाना संतोष और गर्व की बात हो सकती है, किन्तु जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरना और अपने कार्यों से जनता का दिल जीतना भी आवश्यक है। मोदी दिन रात देश के लिए काम कर रहे हैं, किन्तु पार्टी यदि आत्ममुग्धता की खुमारी में डूबी रहेगी और जनता से जुड़ कर उसकी नब्ज टटोलने का प्रयास नहीं करेगी, तो सरकार द्वारा किये जा रहे कार्यों का अपेक्षित परिणाम दिखाई नहीं देंगे। यदि पार्टी कायकर्ताओं से फिड बेक ले कर भाजपा नेता सरकार को समय पर सही परामर्श देते, तो महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार ठोस कदम उठा सकती थी।
खैर, अभी पानी सिर से ऊपर से नहीं निकला है। उपचुनाव में विधानसभा की कुछ सीटे हारने से केन्द्र सरकार की नाकायाबी नहीं माना जसकता, किन्तु इसे खतरे की घंटी अवश्य कहा जा सकत है। यह तो समझ आ रहा है कि भाजपा नेता उपचुनावों के दौरान जनता को सही ढंग से अपनी बात नहीं समझा सकें या उन्होंने चुनाव जीतने के लिए परिश्रम ही नही किया। वे यह मान कर बैठ गये कि विपक्ष की हालत बहुत खराब हैं। हम मोदी लोकप्रियता की लहर पर बैंठे हैं, जिसके सहारे आसानी से वैतरणी पार कर लेंगे।
भाजपा नेताओं को इस हकीकत को स्वीकार कर लेना चाहिये कि विपक्ष कमज़ोर हुआ है, समाप्त नहीं हुआ है। पार्टी यदि आत्ममुग्धता को छोड़ कर जनता के साथ खड़ी होगी और उसकी तकलीफो से सरकार को अवगत कराती रहेगी, तो मोदी सरकार के लिए अगले पांच साल और बढ़ा देगी, अन्यथा पांच साल के बाद ही पार्टी को फिर सता बनवास भोगना पड़ेगा, जो भारत की जनता के लिए एक दुर्भाग्यजनक स्थिति होगी, क्योंकि वर्तमान सरकार यदि दस वर्षो तक पूर्ण मनायोग और प्रतिबद्धता से काम करती रहेगी, तभी एक समृद्ध, खुशहाल और विकसित भारत का सपना साकार हो पायेगा, अन्यथा फिर उन्ही ठगों और लुटेरों को देश सौंपा जा सकता हैं, जो देश को बदहाल स्थिति में छोड़ कर गये हैं।

Tuesday, 12 August 2014

जख्मी कांग्रेस पार्टी पर तरस खा कर पहले इसका इलाज करवाईये, राहुल जी !

2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस गम्भीर रुप से दुर्घटनाग्रस्त हुई है। वह घायल अवस्था में सड़क पर पड़ी है। उसके शरीर से खून रिस रहा है। वह कराह रही है, किन्तु आप उसे अस्पताल में ले जा कर इलाज कराने के बजाय बदहवाश हो, चीख-चीख कर अपने प्रतिद्वंद्वी को कोस रहे हैं। उनकी गलतियां ढंूढ़ रहे हैं। आपकी मनःस्थिति उस मानसिक रोगी की तरह हो गयी है, जो समझ नहीं पा रहा है कि आपात स्थिति में क्या किया जाता है ? यदि आपका यही रवैया रहा, तो आपकी पार्टी तड़फ-तड़फ कर दम तोड़ देगी। जब पार्टी ही नहीं रहेगी, तोे आप किसके सहारे राजनीति करेंगे ? तब आपके प्रतिद्वंद्वी का  कांग्रेस  मुक्त भारत का सपना साकार हो जायेगा। अतः सब से पहले अपनी मरणासन्न पार्टी का जीवन बचाने के उपाय सोचिये। उसे गहन चिकित्सा के लिए चिकित्सालय भर्ती कराईये। उसके जख्म इतने गहरे हैं कि चार-पांच वर्ष तक वह अपने पावों पर खड़ी हो कर चलने की शक्ति ही नहीं जुटा पायेगीं। किन्तु इस सच्चाई से बेखबर हो, आप इन दिनों ऊलजुलूल हरकते रहें हैं। इससे तो यही समझा जायेगा कि आप राजनीति के नौसिखिये खिलाड़ी है और प्रतिकूल परिस्थितियों में संधर्ष करने की क्षमता आपके पास नहीं हैं। आखिर कब तक एक राजनीतिक परिवार का वंशज होने के कारण पार्टी आपका भार ढोती रहेगी।
राहुल जी ! सच को सच कहने और झूठ को झूठ कहने की आदत डालिये। इस भ्रम में मत रहिये कि बार-बार किसी झूठ को दोहराने से वह सच बन जायेगा। प्रतिकूल परिस्थितियों में आपको केजरीवाल शैली में राजनीति करने की क्या जरुरत आ पड़ी है ? क्या कांग्रेस के इतिहास में कोई ऐसा नेता नहीं हुआ, जिसे आप आदर्श मान सके ? राजनीति में नये-नये पैदा हुए मौसमी नेताओं का न तो कोई भूत था, न कोई भविष्य दिखाई दे रहा है। केजरीवाल ने झूठ और प्रपोगंड़ा के सहारे अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश की उसका जो हश्र हुआ, यह किसी से छुपा हुआ नही है। क्या आप भी कांग्रेस को केजरीवाल की तरह बिल्कुल ही मिटाने पर आमदा है ?
उत्तरप्रदेश के घटनाक्रम के सच को आप क्यों नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं ? क्या यह सच नहीं है कि वहां गुंड़ो की दबंगई बढ़ गयी है ? क्या यह सच नहीं है कि प्रदेश सरकार और पुलिस उन गुंड़ो पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है ? बलात्कार और स्त्री प्रताड़ना के न थमने वाले सिलसिले के आखिर कौन गुनहगार है, इस सच को क्या आप नहीं जानते हैं ? क्या आपको मालूम नहीं है कि मुजफ्फरनगर में आग किसने लगायी ? किसने सहारनपुर के सिखों कीे दुकाने जलायी ? पूरा का पूरा बाजार जला कर खाक कर दिया। सिख परिवारों के जीवन भर की कमाई को सुनियोजित तरीके उजाड़ दिया। उन सिखों के आंसू पौंछने आप नहीं जा सके, किन्तु प्रशासन के निरंकुश और पक्षपात पूर्ण रवैये के संबंध में निंदा के दो शब्द बोलने के लिए आपकी जबान क्यों लड़खड़ा रही है ? राहुल जी, सहारनपुर में जो कुछ हुआ वह साम्प्रदायिक दंगा नहीं था, एक समुदाय पर आक्रमण था, जिसे प्रदेश सरकार रोकने में अक्षम रहीं। एक राज्य सरकार यदि इस तरह की हरकतों को नहीं रोक पाती है, उसे शासन करने का कोई नैतिक और संवैधानिक अधिकार नहीं है ? क्या ऐसी सरकार की बर्खास्तगी की मांग करने का साहस आप जुटा सकते हैं ?
किस अज्ञानी सलाहकार ने आपको सलाह दी है कि देश भर में साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं, इसलिए इस पर लोकसभा में चर्चा कराईये। उत्तरप्रदेश के अलावा पूरा देश शांत है। विशेषरुप से वे प्रदेश जहां भाजपा का शासन है। दोनों सम्प्रदायों में भाईचार बढ़ा है। आपसी विश्वास बढ़ा है। आप चाहे जितना झूठ बोलिये और लोकसभा में साम्प्रदायिकता पर चर्चा कराईये, भारतीय मुसलमान आपके झांसे में आने वाले नहीं हैं, क्योंकि वे अब आपकी पार्टी की नीयत को समझ गये हैं। वे यह भी जानते हैं कि साठ वर्ष के शासन काल में कांग्रेस ने उनसे वोट लिए पर बदले में गरीबी और बदहाली बांटी। गरीबी के कारण मुसलमान अपने बच्चों को सही तामिल नहीं दे पाते, जिससे वे रोजगार पाने में पिछड़ जाते हैं। यदि आप वास्तव में मुस्लिम समुदाय के शुभचिंतक है, तो साम्प्रदायिक दंगो जैसे विषय पर चर्चा के बजाय उनकी बदहाली ओर पिछड़ेपन दूर करने के उपाय करने जैसी सार्थक बहस को तवज्जों दें। अब एक प्रगतिशील और जागरुक समाज का निमार्ण की वकालात कीजिये। वैसे भी यदि भारत में मुलायमसिंह जैसे नेताओं की घृणित राजनीति समाप्त हो गयी, तो मान लीजिये कि कहीं दंगे नहीं होंगे।
इस सच को भी स्वीकार कर लीजिये कि उत्तरप्रदेश में दंगे नहीं हो रहे है, एक राजनीतिक दल द्वारा दंगे करवाये जा रहे हैं। इन दंगों में न हिन्दू शामिल है, न मुसलमान । इन दंगों में देशद्रोही तत्व व एक समुदाय और जाति विशेष के वे गुंड़े शामिल हैं, जिन्हें एक राजनीतिक दल ने पाल रखा है। इस राजनीतिक दल को प्रदेश की जनता ने लोकसभा चुनावों में पूरी तरह ठुकरा दिया है, फिर भी वे अपनी हरकतों पर बाज नहीं आ रहे हैं। अतः आप वास्तव में बीस करोड़ जनसंखया वाले प्रदेश की दुर्दशा को देख दुबले हो रहे हैं, तो सबसे पहले अखिलेश यादव की निकम्मी सरकार की कारगुजारियों के बारें में लोकसभा में चर्चा कराईये।
वर्तमान सरकार को जनता ने पांच साल काम करने के लिए दिये हैं। आपको न तो जनता ने सरकार बनाने और न ही उसे गिराने के लायक छोड़ा है। यदि सरकार अक्षम रहती है, तो जनता उसे सत्ता छीन लेगी, किन्तु आप यह खुशफहमी क्यों पाल रहे हैं कि सरकार के प्रत्येक काम और निर्णय का विरोध करने से सरकार गिर जायेगीं ? बिना किसी ठोस आधार के बेतुके और निरर्थक मुद्धों को तवज्जों दे कर लोकसभा में हुड़दंग करा कर आप पाना क्या चाहते हैं ? ऐसा करने से प्रशंसा के नहीं अपयश के पात्र होंगे। अतः इस हक़ीकत को स्वीकार कर लीजिये कि लोकसभा में आपके सेक्युलर सहयोगियों की संख्या नगन्य हो गयी है। अतः सेक्युलिरिजम और कम्युनिलिजम का राग अलापना छोड़ दीजिये। इस कर्कश राग को गाते रहने के कारण ही जनता ने आपकी ऐसी दयनीय हालत की है। भविष्य में चुनाव जनता की भलाई के काम करके ही जीते जायेंगे। वोट बैंक और तुष्टीकरण के सारे फार्मुले इस बार फैल हो गये हैं, अतः इन व्यर्थ हो गये फार्मुलों को छोड़ कर कोई अन्य उपाय सोचिये।
आपके परिवार ने इस देश की जनता के साथ बहुत दगाबाजी की है। देश की दुर्दषा का शतप्रतिशत दोषी आपका परिवार ही है। इस परिवार की पहाड़ जैसी गलतियों को क्षमा कर जनता ने बार-बार भरोसा किया, पर हर बार धोखा खाया। इसकी वजह यह थी कि भारतीय जनता के पास कोई विकल्प नहीं था। परन्तु अब जनता को विकल्प मिल गया है। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में कांग्रेस के अलावा पहली बार किसी पार्टी ने अपने बलबूते पर सरकार बनायी है। आपके परिवार और कांग्रेस पार्टी को साठ वर्ष दिये, अब दूसरी पार्टी को साठ महीने काम करने दीजियें। तब तक आप अपना पूरा ध्यान पार्टी की सेहत सुधारने में लगाईये। इसके लिए आपको भारत के गांवों और शहरों की खाक छाननी होगी। लोगो से जनसम्पर्क बढ़ाना होगा। जनता के दुख-सुख में साझीदार होना होगा। साठ महीने तक यदि आप कठोर तपस्या करेंगे, तभी आपकी पार्टी को जीवनदान मिलेगा, अन्यथा पार्टी दम तोड़ देगी। क्या आप चाहते हैं कि एक एतिहासिक पार्टी भारत की राजनीति में अप्रासंगिक हो कर हांसियें पर धकेल दी जाय ? यदि नहीं चाहते हैं, तो अपना रवैया सुधारिये। आप इन दिनों जो कुछ कर रहे हैं, वह ना समझी है, बचकाना पागलपन है, जो देश और पार्टी दोेनों के हित में नहीं है।

Thursday, 31 July 2014

भूखे को आज भोजन चाहिये, चार दिन बाद नहीं

उतराखंड़ की तीनों विधानसभा जीतने पर मृत कांग्रेस को संजीवनी मिल गयी। ऐसा लगा जैसे कृश्काय  कांगे्रस लड़खड़ाते हुए खड़ी हो गयी। कांग्रेसियों के मुरझाये चेहरे यकायक खिल उठे। वे क्षीण आवाज़ में चीख उठे -”मोदी जी के अच्छे दिन अब कभी नहीं आ सकते। हमारे अच्छे दिन आयेगे। हमारी मेड़म जल्दी ही देश की सर्वेसर्वा बनेगी।” वैसे यह उनका ख्याली पुलाव हैं। खैर, अभी न नौ मन तेल जलेगा और न राधा नाचेगी, किन्तु मोदी सरकार के चुनाव परिणामों को चुनौती मान कर अपने कार्यों, नीतियों और फैंसलों से जनता का विश्वास जीतने की कोशिश प्रारम्भ कर देनी चाहिये।
यह माना जा सकता है कि मोदी सरकार अच्छा काम कर रही है। देश के विकास और समृद्धि के जो वादे किये थे, उसे पूरा करने के लिए परिश्रम कर रही है। यह भी सच है कि मोदी सरकार को शांति से काम करने दिया गया, तो देश के अच्छे दिन भी आयेंगे, किन्तु जनता के सब्र का बांध फूट रहा है। उसे अपनी सरकार से बहुत अधिक अपेक्षाएं हैं। केन्द्र में सरकार बन गयी है, उसके परिणाम उसे आज चाहिये, एक वर्ष बाद नहीं, क्योंकि भूख आज लग रही है और आप चार दिन बाद अच्छे व्यंजन बना कर खिलाओंगे, तो व्यंजन थाली में आने के पहले ही भूखा व्यक्ति भूख से दम तोड़ देगा।
केन्द्र में सरकार बदलते ही दालों के भाव यकायक बीस प्रतिशत कम हो गये थे। दूसरे जींसों के भाव भी लुढ़कने लगे थे। व्यापारियों मे सरकार को ले कर अनचाहा भय व्याप्त हो गया था, किन्तु सरकार बनते ही ऐसी कोई कार्यवाही नहीं हुई, जिससे वह भय स्थायी रह पाता। जून माह में मानसून की बेरुखी और इराक संकट को मीडिया द्वारा बढ़ा चढ़ा कर दिखाने से महंगाई फिर बढ़ने लगी। प्रधानमत्री ने मंत्रियों के साथ महंगाई का ले कर कई मीटिंगे की और जमाखोरों को धमकाया, किन्तु परिणाम सिफर ही रहा। क्योंकि व्यपारिपयों ने भांप लिया कि यह सरकार भी नौकरशाही का सहारा ले कर ही चल रही है। नौकरशाही की अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार जगजाहिर हैं, जिसका व्यापारियों को कोई भय नहीं है।
बूलेट ट्रेन और स्मार्टसीटी जैसे सपने दिखाने के पहले महंगाई पर अंकुश लगाना आवश्यक था। देश भर के कालाबाजारियों की धड़ पकड़ के लिए अफसरों पर आश्रित रहने के बजाय स्थानीय जनता से सहयोग लेना था। जमाखारी रोकने का काम अपने सांसदों और विधायकों को सौंपा जा सकता था। प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह जंग खा चुकी है, जिससे बेहतर परिणामों की उम्मीद तब तक नहीं की जा सकती, जब तक इसके विरुद्ध सख्त कार्यवाही नहीं की जाय। उसे यह अहसास नहीं कराया जाय कि अब वह सब नहीं चलेगा, जो वर्षों से चल रहा है।
विदेशों से कालाधन लाने के लिए तो सरकार बनते ही कार्यवाही आरम्भ कर दी, परन्तु पूरे देश में काले धन का जो साम्राज्य दिखाई देखा रहा है, उस पर प्रहार करने के लिए अब तक कोई पहल नही की। भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों, राजनेताओं और व्यापारियों ने अपनी अधिकांश काली कमाई प्रोपर्टी में उलझा रखी है। सरकार कोशिश कर साठ दिन में भ्रष्ट- सरोवर के साठ मगरमच्छ ही पकड लेती, तो टीवी चेनलों को टीआरपी बढ़ाने के लिए मसाला मिल जाता और वे अपने सघन प्रचार प्रपोगंड़ा से टमाटर के भाव बढ़ाने में अप्रत्यक्ष सहयोग नहीं देते।
सरकार बदलने के बाद भी पूरे देश में भ्रष्टाचार बदश्तूर जारी है। वे प्रदेश भी अछूते नहीं हैं, जहां भाजपा की अपनी सरकारें हैं। महंगाई के साथ-साथ भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी सरकार के बनते ही पहल की जाती, तो जनता में अच्छा संदेश जाता। सरकार की संकल्प शक्ति से भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था सुधारी जा सकती है। यह कोई असम्भव कार्य नही है। केन्द्र व प्रदेशा की सरकारे ठान लें तो भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों का आचरण एक हद तक सुधारा जा सकता है।
जेटली जी ने चिदम्बर की नौकरशाही से ही बजट तैयार करवाया, जिसमें मोदी जी के सपनों को जोड़ दिया। अल्पअवधि में तैयार किये गये बजट से कुछ ज्यादा आशा नहीं की जा सकती, किन्तु बजट में महंगाई पर अंकुश लगाने की गम्भीर कोशिश नहीं की गयी। डिजल और पैट्रोल पर लगा हुआ टेक्स भार कम कर देते तो, महागाई स्वतः ही कम हो जाती । बार-बर सब्सिडी का रोना रोया जाता है, किन्तु इन पदार्थों पर लगाये गये टेक्स का विवरण जनता को नहीं दिया जाता।
पिछली सरकार की खैरात योजनाएं दरअसल खर्चिली योजनाएं हैं जिससे जनता को लाभ के बजाय हानि ज्यादा हो रही है। बजट के कई लाख करोड़ रुपये इन योजनाओं के भेंट चढ़ जाते है, जिसका आधा पैसा भ्रष्टाचारी चट कर जाते हैं। मनरेगा में क्या हो रहा है, इसकी यदि जांच करायी जाय, तो कई चैंकाने वाले तथ्य सामने आयेंगे। इस योजना से ग्रामिण परिवारों के पास जो पैसा गया, उससे अधिक पैसा भ्रश्टाचारियों ने लूट खाया। इसी तरह वोट बटोरने के लिए ताबड़तोड़ में लागू की गयी खा़द्य सुरक्षा योजना में कई खामियां है, जिसका लाभ भूखे लोगों से ज्यादा वे उठा रहे हैं, जिनका पेट भरा हुआ है। आधे से अधिक बीपीएल कार्ड फर्जी बने हुए हैं। हालत यह है कि एक किसान गेहूं पैदा कर बीस रुपया किलों बाजार में बेच रहा है वही किसान दो रुपये किलों में सरकार से गेहूं खरीद रहा है। कई लाख करोड़ की मीड डे मिल योजना को यदि बंद भी कर दिया जाय, तो सरकार के इस निर्णय की कोई आलोचना नहीं करेगा, क्योंकि अधिकांश स्कूलाी बच्चें सरकार द्वारा खिलाया जा रहा खाना नहीं खा रहे हैं।
मोदी जी का यह विचार सही है कि गरीबों का हक नहीं छीना जाना चाहिये, किन्तु गरीबों और वंचितो तक पहुचांयी जा रही सहायता को बीच में लुटा जा रहा है, उस लूट को तो रोका जाना चाहिये। पिछली सरकार ने जो गलतियां की उसे अक्षरशः लागू करना बुद्धिमानी नहीं है। महंगाई बढ़ाने में खैरात योजनाएं भी एक महत्वपूर्ण कारक है। अब भी इन सारी योजनाओं की समीक्षा की जा सकती है। जब तक इनमें सुधार नहीं लाया जाय तब तक इन्हें रोक कर भारी धन राशि बचायी जा सकती है।
ब्यूरौक्रेसी पर सारा काम छोड़ कर निश्चिंत हो जाना, एक लोकप्रिय सरकार के लिए शोभा नहीं देता, क्योंकि महंगाई का जो आज रौद्र रुप दिखाई दे रहा है, उसका मूल कारण पिछली सरकार के घपले-घोटालें और ब्यूरोक्रेसी की संदिग्ध भूमिका रही है। जिन लोगों ने जनता के धन को जम कर लूटा और राजकोषीय घाटा बढ़ा कर महंगाई बढ़ाई है, वे लोग सरकार से हट गये, किन्तु उनके सहयोगी नयी सरकार के साथ अब भी जुड़े हुए हैं, जिनकी नीति और नीयत को सुधारे बिना देश की ज्वलन्त समस्याओं को नहीं सुलझाा जा सकता।
कुशासन, महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन और महिला उत्पीड़न के विरुद्ध प्रभावी प्रचार अभियान से अभिभूत हो कर पूरे देश की जनता ने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में ऐतिहासिक मतदान किया है। अतः सरकार को शीध्रता से उन समस्याओं को सुलझाने में देरी नहीं करनी चाहिये, जिससे जनता आज प्रभावित हो रही है। जनता को वह नेतृत्व कभी नहीं चाहिये, जिसे उसने ठुकरा दिया है, किन्तु ऐसी परिस्थितियां नहीं पैदा होनी चाहिये, जिससे जनता को हताश हो कर फिर उन्हीं घोटालाबाजों और भ्रष्टाचारियों की की शरण में जाना पड़े।

Wednesday, 9 July 2014

सोनिया युग का पतन और मोदी युग का प्रारम्भ

अंधेरे सोनिया युग का अवसान हो गया है। नरेन्द्र मोदी भारत के राजनीतिक क्षितिज पर आशा की किरण बन कर उभरे हैं। यह हमारा दुर्भाग्य ही था कि हमने भोलेपन से अपना भाग्य दस वर्षों के लिए एक अभिमानी, रहस्यमय स्वभाव की विदेशी महिला को सौंप दिया। मोदी के प्रति उनकी खीझ जग जाहिर है। उन्हें कभी मौत का सौदागर कहा था, आज वे सत्ता के शीर्ष पर पूर्ण बहुमत के साथ बैठे हैं। शायद ही भारत का कोई ऐसा मुख्यमंत्री होगा, जिसके विरुद्ध इतने अनगिनित अपराधिक मुकदमें दर्ज किये हों । दस वर्षों में एक सरकार ने अपनी सारी शक्तियां, मानवाधिकार आयोग एवं जांच एंजेंसियों का दुरुपयोग कर उन्हें अपराधी घोषित करने की भरसक कोशिश की, किन्तु मोदी साहस के साथ मैदान में डटे रहें। अपने आत्मबल से उनके विरुद्ध किये गये षड़यंत्रों को निष्फल कर दिया।
सोनियां ने मोदी को सत्ता में आने से रोकने के लिए सारी उलटी सीधी चाले चलीं, सभी सेक्युलर राजनीतिक दलों को अपने पक्ष में लामबंद किया, ताकि मोदी को शिकस्त दी जा सके। ऐसा वे इसलिए कर रही थी, क्योंकि वे सत्ता खो कर अपने किये कृत्यों को उजागर नहीं होने देना चाहती थी। एक नंगे सत्य को उन्होंने अपनी प्रशासनिक शक्तियों से छुपा रखा था। अब उनके दस वर्षों के कार्यकाल के घोटालों की परते खुलेगी। जनता एक दिन जान जायेगी कि एक विदेशी के हाथों में सत्ता सौंप कर कितना बड़ा धोका खाया है।
सोनिया हमेशा कम बोलती है, दूसरे का लिखा हुआ पढ़ती है, कभी कभार मुस्कराती है। उन्हें चापलुसी और दरबारी संस्कृति पसंद है, उनका स्वभाव मुखर नहीं है, इसलिए उसके मन की थाह पाना असम्भव है। पर्दे की ओट में रह कर उन्होंने दस वर्षों तक प्रधानमंत्री और मंत्रियों को कठपुतली की तरह नचाया, किन्तु अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय देने कभी आगे नहीं आयी। भारतीय संस्कृति, सभ्यता और इतिहास के बारें में कभी उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की। भारत को वे कैसा बनाना चाहती है, इस संबंध में कोई विज़न जनता के सामने प्रकट नहीं किया। सोनियां ने भारत की संवैधानिक परम्पराओं को तोड़ने और संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन करने में कभी हिचक महसूस नहीं की। किसी भी अप्रिय घटना जैसे पाकिस्तानी सेना द्वारा भारतीय जवानों के सिर काट कर ले जाने वाले प्रकरण को ले कर पूरे देश के साथ वे व्यथीत नहीं दिखी। उनके चेहरे पर कभी देश भक्ति का किंचित भी भाव दिखाई नहीं दिया। निःसंदेह उन्हें भारत और भारतीयता से कोई लेना देना नहीं था। वे एक अघोषित मिशन को ले कर भारतीय लोकतंत्र का उपयोग अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए कर रही थी।
मोदी खुली किताब है, उनके मन में कुछ भी दबा नहीं रहता। जनता के समक्ष बेबाक बोलते हैं। उनकी भाषा सरल, स्पष्ट आम आदमी के दिल को छूने वाली होती है। किसी का लिखा हुआ भाषण वे नहीं पढ़ते, अतः उनके मुहं से निकले हुए शब्द भीतर से निःसृत होते हैं। उन्हें दरबारी संस्कृति से परहेज हैं। उन्हें हमेशा योग्य, कर्मठ और ईमानदार व्यक्ति पसंद आते हैं। मोदी नरम दिल के कठोर प्रशासक है, अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय वे दे चुके हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति श्री मोदी के मन में अटूट श्रद्धा है। नये भारत के बारें में उनका विज़न स्पष्ट है। वे भारत को कैसा बनाना चाहते हैं, इस संबंध में कई बार जनता के समक्ष अपने विचार प्रकट कर चुके हैं। देश के साथ षडयंत्र करने वाली ताकतों के साथ मोदी का कठोर रुख रहा है। वे किसी भी हालत में भारत की सम्प्रभुता के साथ खिलवाड़ पंसद नहीं करेंगे। उनकी देश भक्ति उनके भाषणों में स्पष्ट रुप से प्रकट होती है। मोदी की राष्ट्रभक्ति पर कभी प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता।
सोनिया युग में प्रधानमंत्री और उनके मंत्री बहुधा अपने कार्यालयों में नहीं आते। मंत्री या तो विदेश दौरे पर रहते थे, या घर में आराम फरमाते थे। इस युग में नौकरशाहों ने विदेश भ्रमण का रिकार्ड बनाया है। मंत्री के कार्यालयों में फाइलों के ढेर लगे रहते थे, इन्हें निपटाने की फुर्सत नहीं थी। सेक्रेटेरियेट में दलालों का स्वच्छन्द विचरण जारी था। दलाल फाइलों को आगे बढ़ाने के उपाय करते थे। सौदेबाजी पूरी होने पर सेक्रेटरी मंत्री के घर जाते। मंत्री महोदया सोनियां से पूछ कर फाइल पर अपनी टिप्पणी लिखते। फाईल ले कर सोनिया दरबार में जाते। पीएमओं आॅफिस के अधिकारी को बुलाया जाता और उन्हें निर्देष दिया जाता कि इस पर प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर करवा दें। आदेशानुसार वे फाइल ले कर प्रधानमंत्री के घर जाते और वे सुप्रीम प्रधानमंत्री के मौखिक आदेष के आधार पर उस पर हस्ताक्षर कर देते। फाइल के कान्टेट को पढ़ने, उस पर टिप्पणी करने या विचार-विमर्श के अधिकार उनके पास नहीं थे। वे डमी प्रधानमंत्री थे, जिन्हें सुप्रीम प्रधानमंत्री के मौखिक आदेशों की पालना करनी थी।
नरेन्द्र मोदी और उनके मंत्री प्रतिदिन समय से पहले अपने कार्यालय में आ कर बैठ जाते हैं। फलतः उनके अधीनस्त कर्मचारी दौड़ते भागते समय पर कार्यालय आने के अभ्यस्त हो गये हैं। मंत्रियों और नौकरशाहों के विदेश दौरों पर लगाम लग गया है। कारपोरेट आॅफिस की तरह भारत सरकार दिन रात काम कर रही है। प्रधानमंत्री स्वयं बारह से चैदह घंटे कार्यालय में बैठे रहते हैं। प्रत्येक ज्वलन्त मुद्धो पर प्रधानमंत्री मंत्रियों के साथ घंटो मीटिंग करते हैं। लम्बित पड़ी सारी फाईलों को त्वरित गति से निपटाया जा रहा है। देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए गहन मंथन हो रहा है।
दलालों का सेक्रेटरियेट में स्वच्छन्द भ्रमण बंद हो गया है। भारत सरकार पूरी प्रतिबद्धता और निष्ठा से काम कर रही है। सरकार के मन में जनता के प्रति सेवा की भावना है। सरकार पूर्ण ईमानदार है। जिस ढंग से सरकार काम कर रही है, उसे अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों के मन में देश के संसाधनों और सार्वजनिक धन को लुटने की नीयत नहीं है। एक दो महीने के कामकाज को किसी भी तरह से सरकार की क्षमता का पैमाना नहीं माना जा सकता। ईश्वर से यही प्राथना है कि इस सरकार को लम्बी उम्र दें, ताकि गरीब और पिछड़ा भारत खुशहाली के मार्ग पर आगे बढ़ता रहे।
सोनिया युग में बूरी नीयत सेें सार्वजनिक धन और प्राकृतिक संसाधनों की खुली और बेबाक लूट को अंजाम दिया गया। बिजली और इन्फ्रास्ट्रक्चर से संबंधित कई परियोजनाएं बंद हो गयी। बैंकों का अरबों रुपया इन परियोजनाओं में फंस गया। प्रधानमंत्री मूक दर्शक की तरह ऐतिहासिक घोटालों को देखते रहे। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था की बिगड़ी सेहत को सुधारने के लिए कुछ नहीं कर पाये। राजकोषीय घाटा बढ़ने से महंगाई बढ़ती गयी। जनता महंगाई की मार से तड़फती रही, परन्तु सरकार सोयी रही। अलबता अर्थव्यवस्था की हालत और खराब करने के लिए खैरात योजनाओं में सार्वजनिक धन लुटाया गया, ताकि जनता के वोट मिल सके।
सत्ता खोने के बाद सोनियां की हल्ला ब्रिगेड़, महंगाई को ले कर जिस तरह से संसद और सड़को पर उपद्रव कर रही है, उससे यही लगता है, कि खिंसियानी बिल्ली खम्भा नोच रही है। सोनिया को अपनी हार से कोई पछतावा नहीं है। कभी हार पर आत्ममंथन नहीं किया और न ही इसे गम्भीरता से लिया। 129 साल पुरानी पार्टी को दो वर्ष पुरानी विवादास्पद आपपार्टी की शैली से धरना प्रदर्शन करने की क्या आवश्यकता आ पड़ी, इस बात के औचित्य को सोनिया की हल्ला बिग्रेड नहीं समझा सकती है। दरअसल कांग्रेस की विचारधारा कितनी दिवालिया हो गयी है, इसका यह स्पष्ट प्रमाण है। जिन्होंने भारत की जनता को महंगाई की सौगात दी है, वे सत्ता जाने के बाद घडि़याली आंसू बहाते हुए अपने पाप का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ रहे हैं। इसे भारत के राजनीतिक इतिहास की विडम्बना ही कहा जा सकता है।

Friday, 27 June 2014

सरकार पूर्ण प्रतिबद्धता से काम कर रही है और विरोधी अपनी खीझ छिपा नहीं पा रहे हैं

केन्द्र सरकार भारत की जनता की अपनी सरकार है। जनता ने बहुत सोच समझ कर राजनीतिक अराजकता मिटाने के लिए एक ऐसी शख्सियत पर विश्वास किया है, जिसे उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मौत का सौदागर, राक्षस, कसाई, रावण आदि अलंकारों से अलंकृत करते थे। सभी इस जननेता की राह में अवरोध खड़े करने के लिए एक हो गये थे, किन्तु उस समय उनके दिलों पर सांप लौट गया, जब संसद में उन्होंने सुना था, ‘ मैं नरेन्द्र दामोदर मोदी, ईश्वर की शपथ लेता हूं कि प्रधानमंत्री के रुप में, मै………………’ वे यह सुन कर तिलमिला गये थे। कई दिनों तक ये शब्द उनके कानों में गर्म शीशे की तरह उतरते रहे। उन्हें किसी भी तरह यह स्वीकार्य नहीं था कि नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन जाय। राजनीतिक नफरत की यह पराकाष्ठा थी। लोकतंत्र में किसी की व्यक्तिगत उपेक्षा, तिरस्कार और घृणा का कोई स्थान नहीं होता। सता पर किसी पार्टी और व्यक्ति का विशेषाधिकार नहीं रहता। जनता जिसे चाहेगी सता सौंपेंगे। जनता के निर्णय को शिरोधार्य करने के अलावा कोई विकल्प ही शेष नही रहता।
जो शासक बन कर भारत पर राज कर रहे थे और भविष्य में किसी की भी चुनौती जिन्हें स्वीकार नहीं थी, उनके अभिमान को जनता ने चूर-चूर कर दिया। तुष्टीकरण, धर्मनिरपेक्षता और जातीय संकीर्णता का सहारा ले, जो राजनीतिक रोटियां सेक रहे थे, उनकी रोटियां जल गयी। जनता ने उन्हें आकाश से उठा कर जमीन पर पटक दिया। जनादेश ने स्पष्ट संकेत दे दिया- हमे शासक नहीं, सेवक चाहिये। धर्म और जाति की राजनीति नहीं, सुशासन चाहिये। सरकार कुछ नेताओं और अफशरों की निजी धरोहर नहीं होती, लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार जनता की होती है, जनता ही मालिक होती है, जनता के लिए कार्य करना ही सरकार का दायित्व रहता हे।
बहरहाल अजगर की तरह अपनी कुडली में सारी फाईलें दबा निश्चेष्ट पड़़ी सरकार के स्थान पर कठोर परिश्रम करने वाली सरकार काम कर रही है। भारत को पहला ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जो अठारह घंटे काम करता है। उनके पास अपना निजी कुछ नहीं है। उन्होंने अपना सारा समय और शक्ति देश को समर्पित कर दी है। सारे मंत्रालय के कार्यालय प्रातः जल्दी खुलते हैं और देर रात तक काम होता है। एक कारपोरेट आॅफिस की तरह सिर्फ काम को ही अब पूजा जाता है। जो कार्यालय पहले भ्रष्टाचार के अड्डे थे, जहां बड़े-बड़े घोटाले करने की रणनीति बनायी जाती थी, वहां अब देश की जनता की भलाई के लिए नीतियां बनायी जा रही है। पहले मंत्री और नौकरशाह इस बात का चिंतन करते थे कि कैसे अपने लिए अकूत धन का जुगाड़ किया जा सके, किन्तु अब यह चिंतन किया जा रहा है कि कैसे देश की खस्ता हालत को सुधारा कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला, विकास के पथ पर आगे बढ़ाया जा सके।
जब वे सत्ता में थे या सत्ता से जुडे़ हुए थे, नरेन्द्र मोदी की बातों की खिल्ली उड़या करते थे, किन्तु अब वे सत्ता से बाहर हैं, तो मोदी सरकार के देश हित में लिये गये निर्णयों के विरुद्ध जनता को आक्रोशित करने का प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए दस सालों में पिछली सरकार यदि प्रतिवर्ष दो प्रतिशत रेल किराया बढ़ाती, तो बीस प्रतिशत रेल किराया वैसे भी बढ़ जाता। अब यदि नयी सरकार ने एक साथ चैदह प्रतिशत किराया बढ़ा दिया, तो इसमें इतना हाय तौबा करने की कहां आवश्यकता है ? क्या उन्हें यह मालूम नहीं है रेलवे को यदि छब्बीस हजार करोड़ का घाटा हो रहा है, उसका भार भी तो भारत की जनता को ही उठाना पड़ रहा है, जबकि सिद्धान्तः सारा भार रेल में यात्रा करने वाले यात्रियों पर ही डाला जाना चाहिये, पूरे देश के नागरिकों पर नहीं, जो रेल में यात्रा ही नहीं करते हैं।  जो सिर्फ अपने राजनीतिक स्वार्थ को ही ज्यादा महत्व देते हैं, उनकी कोई नीति नहीं होती। वे देशहित के बजाय अपने हित पर ज्यादा ध्यान देते हैं। सरकार के विरुद्ध बौखलाहट और खीझ जताने के लिए वे जनता को जानबूझ कर भ्रमित करते हैं।
जबकि पिछली सरकार ने रण छोड़ कर भाग रही सेना की तरह सब कुछ तबाह कर दिया है। सड़ी हुई व्यवस्था नयी सरकार को विरासत में मिली है। इस पूरी व्यवस्था को सुधारना और उसे चुस्त-दुरुस्त करना काफी चुनौतीपूर्ण काम है। पूर्व प्रधानमंत्री का कार्यालय भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन गया था, तब कैसे उस सरकार से आशा कर सकते थे कि पूरे देश में फैले भ्रष्टचार को समाप्त करने के लिए सरकार गम्भीर नीतियां बनायेगी ?
एक भ्रष्ट सरकार की जो सूत्रधार थी, उनकी बौखलाहट इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि सरकार बदल जाने से उनके हाथ में कुछ नहीं रहा है। अब उनके पापों को छुपाने के लिए सीबीआई जैसी संस्था पर उनका नियंत्रण नहीं रहा है। गंदगी साफ करते-करते नयी सरकार को ऐसे तथ्य हाथ लग सकते हैं, जिससे देश को चलाने का अधिकार लें, जो उसे गर्त में गिराने का उपक्रम कर रहे थे, उनकी असली सूरत जनता के सामने आ जायेगी।
जिस सरकार को बने जुम्मे-जुम्मे चार दिन हुए हैं, उस सरकार के निर्णयों पर जनता को उकसाना, टीवी के चेनलों पर आ कर दरबारियों द्वारा एक जवाबदेय और ईमानदार सरकार पर व्यंगात्मक लहजे से बयान देना, दरअसल पिछली सरकार के संचालकों की खीझ और हताशा को प्रकट कर रहा है। देशहित जिनके लिए सर्वोपरी नहीं है, वे किसी बहाने अपनी खाल बचाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि अल्पमत सरकार बनती तो उस पर वे आसानी से अंकुश लगा सकते थे, किन्तु पूर्ण बहुमत वाली सरकार का वे कुछ बिगाड़ भी तो नहीं सकते।
नयी सरकार को टीवी चेनलों की संदिग्ध भूमिका की भी जांच करनी चाहिये। देश के वातावरण को दूषित करने में टीवी चेनल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। केजरीवाल को हीरो इन्हीं चेनलों ने बनाया था, जिससे उन्हें देश विदेश की भारत विरोधी ताकतों से भारी भरकम चंदा मिला था। कुछ टीवी चेनल नरेन्द्र मोदी को सत्ता में नहीं आने देने के दुष्प्रचार में पूर्व सत्ताधारी पार्टी के सहयोगी बने हुए थे। ये टीवी चेनल अब भी नही सुधरें हैं। सरकार को अलोकप्रिय बनाने की नीति अपनाये हुए हैं। रेल किराये में बढ़ात्तरी पर जनता के समक्ष स्वस्थ चिंतन प्रस्तुत करने के बजाय बात का बतंगड़ करने और सरकार को बदनाम करने के लिए उन पिटे हुए राजनेताओं के बयान बार-बार टीवी पर दोहरा रहे हैं, जिन्हें जनता ने पूर्णतया तिरस्कृत कर दिया है। सरकार देशद्रोही टीवी चेनलों के मालिकों के विरुद्ध शिकंजा कसे, उसके पहले जनता को भी इन्हें बहिस्कृत करना चाहिये, ताकि ये अपने मन की इस भ्रांति को निकाल दें कि भारत मूर्खों का देश है, जनता को झूठे प्रचारतंत्र के सहारे आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है।

कठोर और कडवे फैंसले का चाबुक जनता पर क्यों ? अपराधियों पर क्यों नहीं ?

मानसून कमजोर रहने की सिर्फ भविष्यवाणी की गयी है। मानसून आ कर गया नहीं है। फसल कितनी कमजोर होगी, इसका भी अनुमान नहीं है, फिर यकायक महंगाई क्यों बढ़ गयी ? क्योंकि ज्यादा मुनाफाखोरी के चक्कर में जमाखारी होने लगी। जिन लोगों के लिए सामाजिक हितों के बजाय अपना स्व हित सर्वोपरी होता है, जो अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए समाज का शोषण करते हैं, वे सामाजिक न्याय के अनुसार अपराधी होते हैं, चाहे उन्हें कानून की धाराएं अपराधी घोषित नहीं करती हों।
स्वयं हलवा खाना चाहते है, इसलिए दूसरों के मुहं में जा रहा निवाला छिनेंगे, क्योंकि हम सक्षम है और ऐसा दुस्साहस कर सकते हैं। भारत की सामाजिक व्यवस्था की इस खतरनाक प्रवृति पर जब तक सरकार का अंकुश नहीं लगेगा, तब तक भारतीय समाज के लिए अच्छे दिन आने वाले नहीं है। जमाखारी पर महज बयानबाजी से जमाखोरों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इन अपराधियों पर सरकारी चाबुक की मार चाहिये, ताकि वे यह समझ पाये कि जनता की सरकार क्या होती है और उसके पास क्या अधिकार होते हैं।
वित्तमंत्री ने राज्य सरकारों को निर्देश दे दिया कि जमाखोरी पर अंकुश लगावें। राज्य सरकारों ने इंस्पेक्टरों को भेज दिया। इंस्पेक्टर जमाखाोरों से रिश्वत खा कर घर आ गये। जमाखोरी होती रही। व्यापारी मुनाफा कमाते रहें। वे अमीर होते रहें और जनता गरीब। आज तक ऐसा होता आया है। पिछली सरकारें ऐसा ही करती आयी थी। क्या मोदी जी की सरकार भी इसी औपचारिकता की पुनरावृति करेगी ? बेहतर होता वित्तमंत्री नौकरशाहों द्वारा सुझाये गये सुझावों को जनता के समक्ष परोसने के बजाय स्थिति का अध्ययन करते और फिर बयान बाजी करते।
मोदी सरकार को राज्य सरकारों और उनके इंस्पेक्टर राज पर भरोसा नहीं करना चाहिये। जमाखोरी को गम्भीर समस्या मानते हुए इस समस्या का समाधान खोजने के लिए सरकारी जांच एजेंसियों और सांसदों का सहयोग लेना चाहिये। केन्द्र सरकार जमाखारों की सम्पति भी कुर्क कर सकती है। सरकार के ऐसे फैंसलों को ही कडवे और कठोर फैंसले करहते हैं, जिसकी मार अपराधियों पर पड़े, न कि जनता पर। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने महंगाई के संबंध में जो बयान दिया, वह नौकरशाही द्वारा तैयार किया गया बयान ही था। ऐसे बयानों से वर्तमान सरकार के मंत्रियों को परहेज करना चाहिये। सतारुढ होते ही यदि सरकार जमाखोरों पर चाबुक बरसाती, तो सभी के मन में भय बैठ जाता, जो परिस्थतियां आज बनी है वह नहीं बनती। जमाखोरी कठोर कार्यवाही से रोकी जा सकती है, शाब्दिक बयानों से नहीं।
भारत की सुविधाभोगी और भ्रष्ट बिरादरी वातानुकूलित कमरों में बैठ कर ही जनता की समस्याओं के बारें में सोचती है और उसका निराकरण सरकार को सुझाती है। सरकार के मंत्री यदि बिना समस्याओं का गहन अध्ययन किये ज्यों का त्यों जनता को उसी भाषा में समझाने का उपक्रम करेंगें, तब पिछली सरकार और इस सरकार में अंतर ही क्या रहेगा ? कांग्रेस सरकार से जनता को चिढ़ इसलिए हो गयी, क्योंकि अपराधी मौज मस्ती से जिंदगी गुजार रहे थे और जनता कष्ट भोग रही थी।
पिछली सरकार से मोदी सरकार को दिवालियां अर्थ व्यवस्था उपहार में मिली है। अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने का काम चुनौतीपूर्ण है। सरकार अर्थव्यवस्था को तभी सुधार सकती है, जब आर्थिक अपराधियों की धड़पकड़ तेज हो। सरकारी खजाने में आने वाले धन को रोकने और सरकारी खजाने से जाने वाले धन को लुटने पर जब तक प्रतिबंध नहीं लगेगा, तब तक सरकार की काई भी नीति सफल नहीं होगी। जो लोग सरकारी खजाने से वेतन लेते हैं, किन्तु हानि सरकार को ही पहुंचाते हैं, ऐसे अपराधियों को चुन चुन कर जेल सिंकजों के पीछे नहीं भेजा जायेगा, तब तक पूरे देश में वित्तीय अनुशासन नहीं आयेगा।
नराजनेता, नौकरशाह और उद्योगपतियों के शक्तिशाली त्रिगुट के अवैध संबंधों की प्रगाढ़ता ही भारत की सारी समस्याओं की जड़ है। विश्व में भारत को दरिद्रतम और भ्रष्टतम देश होने का तमगा भी इसी त्रिगुट ने दिलाया है। इस त्रिगुट की प्रगाढ़ता को समाप्त करने के लिए मोदी सरकार ने अब तक कोई पहल नहीं की है, जबकि सरकार बनते ही उसकी पहली प्राथमिकता यही होनी चाहिये। यदि वाजपैयी सरकार त्रिगुट के अवैध संबंधों को समाप्त करने का किंचित भी प्रयास करती, तो उसकी लोकप्रियता बहुत अधिक बढ़ जाती। कांग्रेस संस्कृति से परहेज करने के बजाय आत्मसात करने के परिणामस्वरुप ही वाजपैयी सरकार फिर सत्ता में नहीं लौटी। आशा है मोदी सरकार इतिहास की पुनरावृति नहीं करेगी।
काले धन के उत्पादन और बाजार में इसके उत्पात पर सरकार को कडी नजर रखनी होगी, अन्यथा काले धन का भारतीय अर्थव्यवस्था में समानान्तर प्रवाह उसके सारे दावों और वादों को खारिज कर देगा। देश भर में बेईमानों की बैमानी सम्पति को चिंहित करने का कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिये। यह कार्य ज्यादा जटिल नहीं है। सारी काली कमाई जमीनों और मकानों में फंसी हुई है, इस कमाई का आंकलन सरकार अपनी इच्छा शक्ति से कर सकती है। एक साथ पूरे देश में छापे मारे जा सकते हैं। सरकार का यह संकल्प देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर ले आयेगा। देश में एक ऐसा वातावरण बन जायेगा, जिससे बेइ्र्रमान खोप खायेगें। भ्रष्ट आचरण पर अंकुश लग जायेगा। ऐसा होना ही अच्छे दिन की शुरुआत माना जायेगा।
यदि वास्तव में सरकार के मन में देश भर में फैली काली कमाई का आंकलन करने की इच्छा है, तो वह दिल्ली को ही प्रयोग के रुप में ले सकती है। सरकार को अल्प समय में ही अरबो रुपये की काली सम्पति का पत्ता लग जायेगा। यदि इसी प्रयोग को देश भर में दोहराया जाय, तो जनता को चकित कर देने वाली सम्पति का विवरण मिल जायेगा। आज़ादी के बाद जो राजनीतिक व्यवस्था बनी है, उसने देश को सेवा देने के बजाय काले धन के उत्पान और उपयोग में ज्यादा रुचि दिखाई है। गरीब जनता की गाढ़ी कमाई को लूट कर पैदा किया गया काला धन विदेशी बैंकों में तो जमा ही है, देश के अधिकांश बड़े और छोटे शहरों में इसका जलवा दिखाई दे रहा है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर रहा आर्थिक आतंकवाद है, जो गोलियों से जनता की जान नहीं लेता, अपितु छुप कर उसके पेट पर लात मारता है, जिससे वह जीवित तो रहता है, किन्तु तड़फ-तडफ कर दम तोडता है। मोदी सरकार ने इन आर्थिक अपराधियों के विरुद्ध यदि नरमी का व्यवहार किया तो देश की जनता कभी माफ नहीं करेगी।
पिछली सरकार सीबीआई का उपयोग अपने घोटालों पर लिपापोती करने और विपक्ष को धमकाने के लिए प्रयोग करती थी। मोदी सरकार सीबीआई का उपयोग काले धन का पत्ता लगाने और बड़े-बड़े आर्थिक अपराधियों को पकड़ने में कर सकती है। यह सुझाव बुरा नहीं है। पूरे देश की जनता इसकी समर्थक है। यदि ऐसा किया जाता है तो अच्छे दिन आने वाले हैं, महज एक नारा या भविष्य का मजाक बन कर नहीं रह जायेगा।

Tuesday, 20 May 2014

129 साल पुरानी कांग्रेस की मृत्यु हो गयी है- अधिकृत घोषणा सुनने का इंतजार है

129 साल पुरानी कांग्रेस की मृत्यु हो गयी है। बंदरिया के मरे हुए बच्चे की तरह कांग्रेसी अपनी पार्टी को छाती से चिपकाये रो रहे हैं। उसकी विधिवत अन्तयेश्टि भी नहीं करने दे रहे हैं। वे इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि जो पार्टी कांग्रेस होने का दावा कर रही है, वह दरअसल एक मां और उनके पुत्र की पार्टी है, जिसके पास अपने दरबारियों का हुजूम हैं। इस पार्टी का नामकरण मदर एण्ड सन पार्टी कर दिया जाना चाहिये, पर जानबूझ कर किया नहीं जा रहा है। सामंती विचारधारा वाली पार्टी को कांग्रेसी विचारधारा से कोई मतलब नहीं है। पार्टी में न तो लोकतंत्र है और न ही इस पार्टी के मुखिया को लोकतंत्र में कोई आस्था है। दस वर्ष तक एक परिवार ने सारी शक्तियों को केन्द्रीत कर लोकतंत्र को भारी आघात पहुंचाया है। विडम्बना यह है कि देश को जिस हालत में आज पहुंचाया है, उसकी पूरी जिम्मेदारी इस परिवार की ही है। किन्तु न तो इस बात को यह परिवार स्वीकार करता है और न ही अपनी करतूतों के कारण लोकसभा में पार्टी की भारी पराजय के लिए अपने आपको जिम्मेदार मानता है।
19 मई 2014 को सायं चार बजे हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक के बाद कांग्रेस की मृत्यु की पुष्टि हो गयी, किन्तु इसकी घोषणा से परहेज किया जा रहा है। मीटिंग समाप्त होने पर बाहर निकले सभी दरबारियो के मायूस चेहरे लटके हुए थे । उनके होंठ सिये हुए थे। ऐसा लग रहा था, जैसे ये सभी किसी का दाहसंस्कार करने के बाद लौट कर आ रहे हों। किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि उन्हें कांग्रेस की मृत्यु का कोई शाोक नहीं है। उन्हें इस बात का मलाल है कि उनके राजघराने के हाथों से सत्ता चली गयी। शक्तिहीन पार्टी महारानी और राजकुमार के आश्रितों के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था, क्योंकि वे इस राज परिवार के आश्रय के बिना राजनीति कर ही नहीं सकते। इन चाटुकारों के लिए परिवार की परिक्रमा से ही राजनीति का सफर प्रारम्भ होता है और यहीं आ कर समाप्त होता है।
किन्तु देश भर में फैले कांग्रेसी कार्यकर्ता और मतदाता अपनी प्रिय पार्टी की मृत्यु से शोक संतप्त हैं। उनके मन में गहरा विक्षाभ हें। उन्हें आशा थी कि लोकसभा में भारी पराजय के बाद मरणाशन्न कांग्रेस को जीवनदान देने का अंतिम प्रयास किया जायेगा। एक परिवार, जो पार्टी की इस दुर्दशा का जिम्मेदार है, उससे पार्टी को मुक्त किया जायेगा। मां-बेटे से पराजय के संबंध में तीखे सवाल पूछे जायेंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। दरबारियों ने एक सोची समझी रणनीति के तहत मां-बेटे को उनके पाप से मुक्त कर दिया और सारा पाप पूरी पार्टी पर डाल दिया, जब कि दुनियां देख रही है कि कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है, उसकी शतप्रतिशत जिम्मेदारी मां-पुत्र की जोडी ही हैं ।
कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं और जमीन से जुड़े नेताओं के समक्ष धर्मसंकट आ गया है कि वे अब क्या करें ? वे न तो उन दरबारियों को बदल सकते हैं न ही उनसे सवाल कर सकते हैं, क्योंकि दरबारियों को राजपरिवार ने ही वर्षों पहले कांग्रेस वर्किंग कमेटी में चुन कर बिठाया है और उसमें वे कोई तब्दीली नहीं कर रहे हैं। ये सारे दरबारी राजपपरिवार से पूरी तरह जुड़े हुए हैं किन्तु आम कांग्रेस जन से कटे हुए हैं। उन्हें मालूम है, कांग्रेस का नेतृत्व नहीं बदला गया तो अगले चुनावों में 44 का आंकड़ा शून्य तक पहुंच सकता है। हां यदि अपने अपने राज्यों का कोई प्रभावी नेता नेतृत्व के प्रति आंध्रा की तर्ज पर विद्रोह कर दें, तो कई प्रान्तीय कांग्रेस का जन्म हो सकता है। प्रान्तीय कांग्रेस एम एण्ड एस पार्टी को चुनौती दे सकती हैं। उनके नेतृत्व को अस्वीकार कर सकती है। दरबारिययों के आदेश को मानने से इंकार कर सकती है।
पार्टी महारानी और राजकुमार तो अपने दंभ में इतने डूबे हुए हैं कि उन्हें यह आभास ही नहीं हो रहा है कि लोकतंत्र में पार्टियां जनता बनाती है और नेतृत्व का भार उन्हें ही सौंपा जाता है, जो जननेता होता है। जो जमीन से जुड़ा होता है और जनता के लिए संघर्ष करता है। राजनीतिक पार्टियां आकाश में नहीं बनती और न ही उनका नेता आकाश से टपकता है। मोदी जन नेता हैं। मोदी सुनामी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा सार्थक कर दिया है। एम एण्ड एस पार्टी के संचालक और उनके दरबारी जन समर्थन खो चुके हैं, क्योंकि जनता का उन पर भरोसा और विश्वास उठ चुका है। यदि मोदी जन आंकाक्षाओं पर खरे उतरते हैं और सुशासन से जनता को दिल जीत लेते हैं, तो एम एण्ड एस पार्टी का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।
एम एण्ड एस पार्टी की हालत उस वस्त्रविहिन राजा की तरह है, जिसे देख कर राह से गुजरता हुआ हर व्यक्ति हंसता है, किन्तु जब राजा दरबारियों से हंसने कारण पूछता है तो वे सिर झुकाये बड़े अदब के साथ कहते हैं- हुजूर आप बहुत सुन्दर लग रहे हैं। ये जो लोग आपको देख कर हंस रहे हैं, सब पागल हैं। किन्तु देश भर में फैले हुए कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता और जमीन से जुड़े हुए नेता चिल्ला कर कह सकते हैं- आप पूर्णतया नंगे हो। आप को देख कर धिन्न आ रही है। हमारे सामने से हट जाओं, अन्यथा हम धक्के मार कर आपको हटा देंगे।
जिस दिन देश भर में कांग्रेस के कार्यकताओं और नेताओं की जबान से यह स्वर फूटेगा तब नयी कांग्रेस का पुर्नजन्म होगा। किन्तु पूरे देश में कांग्रेस को पुर्नजीवन देने वाला कोई नेता दिखाई नहीं दे रहा है। सभी नेताओं की हालत उस सरोवर की मछलियों की तरह हो गयी है, जिसका पानी सुख जाने के बाद उसी में पड़े-पड़े तड़फ-तडफ कर मरने के अलावा उनके पास कोई चारा ही नहीं है। राजपरिवार ही उनका सरोवर है, इसके आगे की दुनियां से वे पूरी तरह अनजान है।
यद्यपि कांग्रेस पार्टी की मृत्यु की अधिकृत घोषणा नहीं की गयी है, किन्तु राष्ट्र ने उसकी मुत्यु को स्वीकार कर लिया है। पूरा राष्ट्र शोक संतप्त है। एक महान पार्टी, जिसका भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसने देश को कई प्रभावशाली नेता दिये हैं, उस पार्टी के प्रति पूरी सहानुभूति हैं। इस दुख की घड़ी में ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि अपना स्वाभिमान और आत्माभिमान खो चुके कांग्रेसी नेताओं को सम्बल दें। उन्हें इतनी शक्ति दें कि वे अपनी आंखों के पर्दे के आगे छायी हुई एक राजपरिवार की छवि को ओजल कर दें। उनकी परतंत्रता और अधिनता अस्वीकार कर दें। एक पारिवारिक पार्टी को तिरस्कृत कर दें और जनता से जुड़ी, जनता के लिए सदैव संघर्ष करने वाली एक नयी पार्टी को जन्म दें। दरबारी संस्कृति से मुक्त कांग्रेस पार्टी को एक नयी ऊर्जा और क्षमता दें। यदि वे ऐसा कर पायेंगे, तो भारतीय लोकतंत्र पर उनका बहुत बड़ा उपकार होगा, किन्तु दुर्भाय से ऐसा होने के आसार कम ही दिखाई दे रहे हैं।

Saturday, 17 May 2014

क्या मरणासन्न कांग्रेस को फिर जीवनदान मिलेगा ?

लेकतंत्र को राजतंत्र में तब्दील करने का स्वपन भंग हुआ। सारी संवैधानिक शक्तियों का दुरुपयोग करने के बाद भी अपने पुत्र का औपचारिक राज्याभिषेक करने में कांग्रेस की महारानी असफल रही। अब निश्चित रुप से पांच वर्ष इंतज़ार करना होगा, क्योंकि अब किसी चमत्कार के होने की आशा नहीं बची है। महारानी को इस बात का अहंकार था कि कोई पार्टी अपने बल पर सरकार नहीं बना पायेगी और थक हार कर सत्ता की चाबी उनके पास ही आयेगी। विधानसभाओं के चुनाव जीतने के मतदाताओं को लुभाने के लिए खैरात योजनाएं ले आयी, पर कामयाबी नहीं मिली। मोदी का रथ रोकने के लिए शिखंड़ी केजरीवाल को आगे किया। मुसलमानों को मोदी से भयभीत करने के लिए सेक्युलिरिजम के नाम पर मुस्लिम कार्ड़ खेला, पर पास उलटा पड़ गया। इन नादानियों से कांग्रेस का सफाया हो गया।
मोदी के विरुद्ध जी भर कर जहर उगलने, उन्हें तरह -तरह के अशोभनयी और अभ्रद अलंकारों से अलंकृत करने के लिए उकसाने वाली महारानी भारतीय जनता को समझ नहीं पायी। उसका यह भ्रम टूट गया कि भारतीय मूर्ख और अज्ञानी होते हैं, उन्हें आसानी से अपने वश में किया जा सकता है। लोकसभा चुनावों में पराजय भी इतनी जबरदस्त मिली कि सारे के सारे चापुलस दरबारी चुनाव हार गये। थोड़े बहुत शूरमा ही अपनी इज्जत बचा पायें। मां तो चुनाव जीत गयी, पर पु़त्र को लोहे के चने चबाने पड़े। परन्तु मुस्लिम बहुल उत्तर प्रदेश को जीतने की सारी तिकडम निष्फल हो गयी। शिखंड़ी भी उतरा मुहं ले कर दिल्ली कूच कर गया है।
कांग्रेस की शह पर दिल्ली की जिम्मेदारी से भागे भगोड़ो की वाराणसी जीतने की ख्वाहिश पूरी नहीं हो पायी, अलबता टोपी पहन की कई बार नमाज पढ़ी, मोदी को हराने के लिए विदेशों से भारी भरकम चंदा ले आया, पर वोटों का जुगाड़ नहीं कर पाया। अब जनाब को खोयी इज्जत बचाने और दिल्ली विधानसभा में पार्टी के विधायाकों को सम्भालना मुश्किल हो रहा है। कांग्रेसी नेताओं को केजरीवाल दुखान्तिका से यह सबक लेना चाहिये कि युद्ध सार्थक रणनीति और अपनी क्षमता को बढ़ाने से जीता जाता है, शिखंडियों को आगे कर के नहीं जीता जाता।
दो दिन पहले अच्छे दिन आने वाले हैं, नारे को व्यंगात्मक शैली में लेने वाले प्रमुख दरबारी जो आजकल चरित्रहीनता के सिरमौर बन कर कांग्रेस की नाक कटवा रहे हैं, कह रहे थे- अच्छे दिन तो निर्मल बाबा भी लाते हैं। दो दिन बाद देख लेना किस के अच्छे दिन आने वाले हैं। अब ये व्यभिचारी नेता, जो बिना शादी रचाये एक ब्याहता स्त्री, जिसका तलाक नहीं हुआ है, पता नहीं इस समय किस कन्द्रा में जा कर अय्यासी कर रहे हैं ? पूरा देश इनकी जबान से दो कडवे शब्द सुनने की प्रतीक्षा कर रहा है। दरअसल वो मीडिया, जो मोदी को ले कर बात का बतंगड़ बनाता था, इन महाशय का जलवा ही नहीं दिखा रहा है। टीवी के कई समाचार चेनल, जो शिखंडी केजरीवाल, दराबारी कांग्रेसियों के पेरोकार थे, वक्त बदलने पर अपने आप इनसे दूरियां बना कर अपनी खैर मना रहे हैं।
दुर्भाग्य से महात्मा गांधी और पटेल की कांग्रेस को व्यभिचारी प्रवक्ता ही मिलें। मनु सींघवी भी व्यभिचार के आरोप से बरी नहीं हो पायें अब दिग्विजय सिंह बेशर्मी से व्यभिचार को निजी मामला बता रहे हैं। कांग्रेस की आज हालत हुई है, उसका कारण भी बिना पैंदें के ऐसे नेता ही है, जो बराबर अर्नगल बोल कर पार्टी की इमेज बिगाड़ रहे हैं। पार्टी को मरणासन्न अवस्था में पहुंचाने का पूरा श्रेय पार्टी राजमाता, उनके पुत्र और दरबारियों की जमात को जाता है। कांग्रेस पार्टी को यदि पुनः जीवनदान देना है, तो जमीन से जुड़े राजनेताओं को राजवंशीय परम्परा के विरुद्ध विद्रोह करना होगा। भाजपा 2009 में पाये 18 प्रतिशत वोटों को 48 प्रतिशत तक पहुंचा सकती है, तो कांग्रेस भी पांच सालों में अपनी स्थिति सुधार सकती है।
परन्तु यदि अब भी कांग्रेसी नेता एक परिवार की पूंछ पकड़ कर नैया पार करना चाहते हैं, तो अब नये भारत में यह सम्भव नहीं होगा। क्योंकि अब भारतीय जनता एक परिवार की दासता को अस्वीकृत कर चुकी है। कांग्रेसी नेताओं को भी साहस कर हार की जिम्मेदारी का ठीकरा मां-पुत्र पर फोड़ना पडे़ेगा। जो हकीकत है, उसे स्वीकार करना होगा। कांग्रेस की जो गत इसी परिवार की कृपा से बनी है। अब राजवंशीय परम्परा से चुनाव जीतना सम्भव नहीं होगा। अब चुनाव सेक्युलिरिजम का राग गाने से भी नहीं जीते जा सकेंगे। जातीय समीकरण बिठाने और मुस्लिम वोटों के भरोसे भी चुनाव जीतना सम्भव नहीं होगा। चनाव जीतने के लिए जनता का दिल जीतना होगा। जनता के मन में अपने कार्य और क्षमता के प्रति विश्वास बिठाना होगा।
कांग्रेसी नेता अब भी यदि एक परिवार की परिक्रमा करने के बजाय अपने-अपने क्षेत्र में जा कर बिना सांसद और विधायक बने ही जनता के दुख-दर्द में भागिदारी निभायेंगे और उनकी आवाज उठायेंगे, तो वे मरणासन्न अवस्था में पहुंची कांग्रेस को जीवन दान दे सकते हैं। किन्तु एक परिवार की स्तुति गान करने में ही लगे रहे, तो कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को सार्थक बना देंगे। तीन बार मर कर वापस जीवित हुई पार्टी की हमेशा के लिए मौत हो जायेगी। वे सारे कांग्रेसी अनाथ हो जायेंगे, जिनकी अब भी अपनी पार्टी के प्रति आस्था जुड़ी हुई है।

Tuesday, 22 April 2014

भाजपा और मोदी को देश सौंपने के अलावा आज हमारे पास कोई विकल्प नहीं है

क्या दस वर्ष तक प्रधानमंत्री पद और संवैधानिक संसधाओं की अवमानना करने वाले एक निरंकुश, अभिमानी सत्ता केन्द्र को फिर राष्ट्र सौंप दे, जिनकी निष्ठा अब संदेहास्पद बन गयी है ? दस वर्ष पूर्व सत्ता सौंपते समय जो आशंका जाहिर की गयी थी, वह सच साबित हुई है। भारत राष्ट्र की सम्प्रभुता को आघात पहुंचाया गया है। देश की निर्धन जनता के साथ दगाबाजी हुई है। इस्ट इंडिया कम्पनी का ही एक प्रतिरुप धीमे कदमों से चलता हुआ, हमें आपस में बांट, चापलुस दरबारियों की शह से सत्तासीन हो गया। पुतले को प्रधानमंत्री बना कर शासन की सभी शक्तियों को छीन लिया। देश के संसाधनों को जम कर लूटा। विरोध को ताकत से और स्वाभ्मिानी, राष्ट्रभक्तों जन सेवकों की आवाज को सत्ता के दम्भ से कुचलने की अनेको बार कोशिश की गयी। न्यायाल की अवमानना को कई बार दोहराया गया। एक लोकतांत्रिक पार्टी को पूरी तरह प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में तब्दील कर दिया गया और पार्टी नेता आज्ञाकारी अनुचर की तरह मालिक की हर आज्ञा को शिरोधार्य करते रहे।
क्या साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर करने के बहाने फिर उसी संदेहास्पद व्यक्तित्व को भारत सौंप दें, जिसने भारत को दुनियां का भ्रष्टतम और दरिद्रतम राष्ट्र बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी ? जिसने भारत की गरीब जनता को मात्र भिखारी समझा, जिन्हें सरकारी कृपा की खैरात बांट कर लुभाया जा सकता है। लालच दे कर उनके वोट खरीदे जा सकते हैं। उन्हें नहीं, तो क्या उन राजनीतिक पार्टी के क्षत्रपो को शासन सौंप दे, जिसके पास तीस से अधिक सांसद नहीं होंगे और जो प्राइवेट लिमिटेड पार्टी की कृपा से ही सरकार चला सकेंगे ? क्या एक पुतले को हटा कर दूसरे पुतले को शासन सौंपना आज की परिस्थितियों में उपयुक्त होगा ? क्या ऐसी सरकार स्वतंत्र और निष्पक्ष हो कर देश की समस्याओं का समाधान खोज सकती है ?
जनता द्वारा किसी पार्टी या व्यक्ति के पक्ष में दिये गये एक-एक वोट का महत्व होता है। इसी वोट से देश की सेवा का अधिकार मिलता है, जिसे राजनीतिक पार्टियां सत्ता के उपभोग करने का अधिकार समझती है। इसी वोट के आधार पर देश की बाह्य और आंतरिक सुरक्षा, प्राकृतिक संसाधान, खजाना, उद्याोग, व्यापार, न्याय व्यवस्था, शिक्षा और स्वास्थय की जिम्मेदारियों को सही ढं़ग से निष्पादन करने का अधिकार दिया जाता है। क्या अपने बहुमूल्य वोट की कीमत समझे बिना भावुक या भ्रमित हो कर फिर उन्हीं लुटेरो के पक्ष में वोट दें दे, जो जिम्मेदारियों को ओढ़ने में पूर्णतया अक्षम साबित हुए हैं। जिनके भ्रष्ट आचरण के कारण पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी है। जिनके माथे पर देश की अर्थव्यवस्था को बरबाद करने का कलंक लगा हुआ है। जिन लोगों का मकसद शासन की शक्तियां प्राप्त कर अपने लिए मात्र धन कमाना हैं और उन देशी और विेदेशी कम्पनियों को उपकृत करना हैं, जिनका मकसद प्रदत्त कानूनों का उल्लघंन कर अत्यधिक मुनाफा बटोरना है।
छल-कपट, धनबल, तिकड़म और जनता को भ्रमित करने के सारे उपक्रम कर पुनः सत्ता में आने के लिए लुटेरे व्यग्र दिखाई दे रहे हैं। अपने कुचक्र को सफल होने में उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी है। भारत की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां उनके कुचक्र में सहयोगी बनी हुई। समाचार मीडिया ने राजनीति से जुड़े सारे समाचारों का व्यावसायिकरण कर दिया है। गम्भीर मुद्धो से कन्नी काटना और छिछली, बेतुकी और भद्दी बातों को उछालना ही उन्होंने अपना मकसद बना लिया है। मीडिया चेनल बातो का बतंगड़ बना कर टीआरपी बढाने में लगे हैं। कुछ चेनल तो राजनीतिक पार्टियों के अघोषित प्रचारक बन गये हैं।
राजनेता मोदी विरोध के नाम पर नैतिकता और शिष्टाचार की सारी सीमाएं लांघ गये हैं। तरह-तरह की शब्दावली से एक व्यक्तित्व को भयावह वह घृणास्पद बनाना ही अनेको राजनेताओं का मूल उद्धेश्य  रह गया है। बारह वर्ष पूर्व हुए गुजरात दंगो के नाम अपने राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेकने वाले यह भूल जाते हैं कि न्यायालय ने मोदी को तो दोष मुक्त कर दिया है, किन्तु जिन्होंने एक सौ पच्चीस करोड़ जनता के साथ छल कर देश के संसाधनों और सरकारी खजाने को लूटा हैं, उन्हें न्यायालय ने निर्दोष साबित नहीं किया हैं। गुजरात मामले में सरकारी जांच एंजेसिंयों की पूरी ताकत झोंकने के बाद भी मोदी को अपराधी घोषित नहीं कर पाये, किन्तु प्रशासनिक शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए उन्हीं सरकारी एजंसियों से आर्थिक अपराधों को लाख छुपाने की कोशिश करने पर भी छुपा नहीं पाये। यदि सत्ता पर नियंत्रण हट गया, तो इन्हें डर है कि सारे रहस्यों पर से पर्दा उठ जायेगा। जनता के सामने नंगे हो जायेंगे। फिर कभी जनता के सामने जा कर वोट नहीं मांग पायेंगे।
यूपीए गठबंधन ने अपने दस वर्षों की उपलब्धियों को गिना कर, जनहित में भावी नीतियों की घोषणा कर जनता को लुभाने का उपक्रम छोड़ दिया है। बस एक ही नीति रह गयी है- मोदी को रोको। बताया यह जा रहा है कि इस व्यक्ति के सत्ता में आने से अनर्थ हो जायेगा, किन्तु वास्तविकता यह है कि ये भीतर ही भीतर डरे हुए हैं, क्योकि इन्होंने जो अरबों रुपयों का गबन किया है, उससे इनकी रातों की नींद उड़ गयी हैं। वे जानते हैं कि सत्ता नहीं रही, तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। और जो राजनेता मोदी को रोकने के लिए सुर में सुर मिला रहे हैं, वे भी मोदी को इसलिए रोकना चाहते हैं, क्योंकि वे यदि सत्ता में आ गये, तो प्रान्तों में उनका सारा खैल चौपट हो जायेगा। सत्ता पर उनका नियंत्रण ढि़ला पड़ जायेगा। उनकी सरकारों पर संकट मंड़राने लगेगा। अधिकांश राजनेता और राजनीतिक दल देश हित के बजाय अपना स्व हित ज्यादा देख रहे हैं और मोदी के नाम से जनता को डराने की भरसक कोशिश में लगे हुए हैं।
इस समय भारत की अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब है। उ़द्याोगों पर मंदी की काली छाया मंडरा रहीं है। सरकार की घपलों-घोटालों की नीति के कारण कई महत्वपूर्ण बिजली और सड़क परियोजनाएं अधुरी पड़ी हुई है। महंगाई विस्फोटक रुप से बढ़ी है और इस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहा है। देश के करोड़ो नौजवान बैरोजगार हो कर घर बैठे हैं। पूरे देश में देशी-विदेशी आतंकवादियों ने अपना सुदृढ़ नेटवर्क बिछा दिया है। वोट बैंक और तुष्टीकरण की राजनीति के कारण प्रान्तीय सरकारें व केन्द्र इनकी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगा पा रहा है। पाकित्सतान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। अफगानिस्तान से अमरीकी सेना हटने के बाद भारत आतंकवादियों का बहुत बड़ा हब बन जायेगा।
मोदी को रोकने के लिए राजनेता चाहे जो उपक्रम करें, जनता यदि ठान लें तो उन्हें कोई नहीं रोक पायेगा। क्योंकि आज की दुरुह परिस्थितियों में देश के सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं है। हमे आसन्न चुनौतियों से निपटने के लिए केन्द्र में सुदृढ़, जवाबदेय और भरोसे वाली सरकार चाहिये, जो सुशासन दे सके। जो पूर्ण प्रतिबद्धता से देश के विकास का संकल्प ले सकें। जिसकी ईमानदारी, कर्मठता और प्रशासनिक क्षमता पर कोई प्रश्न चिन्हें नहीं लगे हों। लोकतंत्र में किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल को सत्ता में आने से रोकने का अधिकार सिर्फ जनता को हैं,  किन्तु किसी को रोकने का नारा देने वाले राजनेता यह भूल जाते हैं कि भारत की जनता अब परिपक्क हो गयी है, उसे भ्रमित करने के दिन  अब लद रहे हैं। जनता का दिल जनता की समस्याओं को हल करने और सुशासन दे कर ही जीता जा सकता है।

Thursday, 17 April 2014

जाते जाते वह कड़वा सच राष्ट्र को बता दीजिये मनमोहन सिंह जी !

श्रद्धेय मनमोहन सिंह जी,
एक संवैधानिक पद से विदाई या एक परिवार की सेवा से सेवानिवृति के पूर्व संजय बारु और पीसी पारेख ने आपको दो गुलदस्तें भेंट किये हैं। इस भेंट को पा कर निश्चय ही आप आहत हुए होंगे, क्योंकि दुनियां अब तक जो कहती थी, उसका जवाब तो आपके पास था, पर आपके अपनो ने ही जो चोट पहुंचाई है, उसकी पीड़ा आप सहन नहीं कर पाये होंगे। इसलिए उनकी बातों का कोई जवाब आप नहीं दे पाये हैं। यह जरुर है कि कभी अकेले में बैठे होंगे, तब आपकी आंखें भर आयी होगी। आपसे जो पहाड़ जैसा पाप हो गया है, उसे ले कर आपके अन्तःकरण ने अवश्य ही धिक्कारा होगा। कठोर कर्म और तप से जीवन में जो कमाया, उसे इन दस वर्षों में गवां दिया। अपने स्वाभिमान को गिरवी रख कर प्रधानमंत्री पद की गरिमा को गिराने से आपका उज्जवल जीवन कलंकित हुआ है। जीवन के जो बचे खुचे पल है, वे हमेशा आपको अपनी गलतियों की याद दिलाते रहेंगे, परन्तु पूरा राष्ट्र  एक सवाल पूछना चाहता है- यदि आपमें उस पद की पात्रता नहीं थी, तो डमी प्रधानमंत्री बनने की क्या आवश्यकता थी ? कहा जाता है कि सत्ता के दो शक्ति केंन्द्र थे, पर वास्तव में एक ही शक्ति केन्द्र था, जो राह में निर्विकार प्रतिमा बैठी थी, वही शक्ति केन्द्र नहीं हो कर मात्र एक मूर्ति थी। सभी उसकी अवमानना करते हुए वास्तविक शक्ति केन्द्र से जुड़े हुए थे। राष्ट्र आपसे दूसरा प्रश्न पूछना चाहता है- आपको ऐसी भूमिका अभिनित करने की क्या आवश्यकता थी ?
भारत के संविधान ने प्रधानमंत्री पद को असिमित शक्तियां दी है। आप उस पद पर आरुढ़ जरुर थे, पर शक्तिविहिन थे। आपके पास निर्णय करने का अधिकार नहीं था। आप सिर्फ एक परिवार को सेवाएं दे रहे थे। आप उस परिवार की कृपा से गदगद थे। क्योंकि आपको मालूम था कि आप अपने बलबूते लोकसभा का चुनाव नहीं जीत सकते। अपनी साम्मर्थय से दो सांसदों को जीतवा कर लोकसभा में नहीं बिठा सकते। प्रभावशाली भाषण से आप जनता को नहीं बांध सकते। अपने तार्किक व सारगर्भित भाषण से आप संसद को मंत्रमुग्ध नहीं कर सकते, परन्तु भाग्य की विडम्बना देखिये कि आप दस वर्ष तक प्रधानमंत्री पद पर आरुढ़ रहें। एक डमी प्रधानमंत्री का इतना लम्बा कार्यकाल भारत के संसदीय लोकतांत्रिक इतिहास का रिकार्ड है। हम सभी भारतीय नागरिक आपकी सेवानिवृति पर भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि भविष्य में देश को कभी डमी प्रधानमंत्री नहीं दें। हमे शक्तिशाली प्रधानमंत्री चाहिये, जो भारत की तकदीर बदलने की क्षमता रखता हों।
राजनेता बनने के लिए आपने अपने भीतर बैठे हुए अर्थशास्त्री का कत्ल कर दिया, जिसकी भारी कीमत इस देश की जनता को चुकानी पड़ी है, क्योंकि भारत की जनता ने 2009 में ईमानदार अर्थशास्त्री के पक्ष में इस आशा के साथ वोट दिया था कि वे आर्थिक सुधारों के जरिये देश को प्रगति और खुशहाली की डगर पर ले जायेंगे, किन्तु आपने देश की जनता के साथ दगाबाजी की है। जिस व्यक्ति को अर्थिक सुधारों का जनक कहा जाता है, वह व्यक्ति ने राजनेता बन अर्थव्यवस्था की बरबादी का कारक बन गया। यदि आपके भीतर का अर्थशास्त्री जिंदा होता, तो आपकी नाक के नीचे हुए कई लाख करोड़ के घोटालों को आप चुपचाप नहीं देखते। भारत की गरीब जनता के हित के लिए प्रधानमंत्री पद को ठोकर मार कर सत्ता से बाहर आ जाते।
यदि आपके भीतर का अर्थशास्त्री जिंदा होता, तो बरबादी के मंजर को चुपचाप नहीं देखता। वह आठ दस लाख करोड रुपयों को घटलों-घोटालों में नहीं उड़ने देता। बैंको के करोड़ो रुपये कोयले के अभाव में अधुरी पड़ी बिजली परियोजनाओं में नहीं फंसते। सरकारी खजाने के कई लाख करोड़ रुपये उन खैरात योजनाओं में नहीं लुटाये जाते, जिससे वोट मिलते हैं, किन्तु जनता का पैसा जनता को राहत कम देता हैं और अधिकांश पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। औद्योगिक विकास अवरुद्ध नहीं होता। युवाओं के मुहं से रोजगार का निवाला नहीं छीना जाता। यह देश का दुर्भाग्य ही था कि वह अर्थ विशेषज्ञ, जिसे 1991 की बीमार अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का श्रेय जाता है, बेबस हो, आंखे बंद किये लाचारी सब कुछ नहीं देखता रहा।
घोटालों, खैरात योजनाओं, बैंको की उधारी डूबने और औद्योगिक उत्पादन घटने और टेक्स वसूली कम होने से जो राजस्व घाटा हुआ, उसका सारा भार जनता पर डाल दिया गया। जनता की जेब से टेक्स के रुप में पैसा निकाल कर सरकारी खर्चा तो चल गया, परन्तु इस सारे गड़बडजाल से भारत की गरीब जनता को महंगाई की असहनीय पीड़ा झेलनी पड़ रही है। दस वर्षों में एक सत्ता शक्तिकेन्द्र ने अनियंत्रित, बेबाक और खुली लूट से देश की गरीब जनता को बीस लाख करोड़ की चपत लगाई है। भारत की जनता को अपनी बरबादी का कारण समझ में आ गया है। जनता खून के आंसू रो रही है। लुटेरे सत्ता में आने के लिए चाहे जितने हाथ पांव मारे। चाहे जितने सत्ता षड़यंत्र करें। धर्म के आधार बना लोगो को भयभीत करें, किन्तु जनता के पेट पर जो महंगाई की लात मारी है, उसकी पीड़ा इतनी अधिक है कि भारत की जनता सब कुछ भूल कर लुटेरों को ठुकराने का पूरा मानस बना चुकी है।
आपको डमी प्रधानमंत्री बना जिन्होंने इस देश की जनता के साथ छल किया है, उसका दंड उन्हें भुगतना पड़ेगा। सत्ता से हटने के बाद आप डमी प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे। आपके आगे भूतपूर्व विशेषण लग जायेगा। घोटालों की जब भी जांच होंगी, न्यायिक पक्रिया आपको ही बुलायेगी। एक परिवार के प्रति वफादारी निभाने और उन्हें सेवा देने के कारण आपको अपमानित होना पड़ सकता है। वे क्षण आपके लिए बहुत तक़लीफदायक होंगे। मात्र प्रधानमंत्री के वस्त्र पहनने और कुर्सी पर बैठने की ललक के कारण आपको जीवन के संध्याकाल में भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। चाहे आर्थिक अपराधियों ने कई लाख करोड़ डकारे हैं और आपकी तरफ एक ढ़ेला भी नहीं फैंका हो, किन्तु जो कुछ किया है, आपकी आड़ ले कर ही किया है।
आपका रोल डमी प्रधानमंत्री का ही रहा हों, किन्तु उस सरकार का नाम तो मनमोहन सिंह सरकार ही होगा। अभी तो दो किताबें ही आयी है, सम्भव है सत्ता जाने के बाद और कई किताबे सामने आयें। कोई भूतपूर्व सीबीाआई अधिकारी भी प्रामणिक पुस्तक बजार में फैंक सकता है। निश्चय ही आपकी बहुत किरकिरी होने वाली है। रहस्यों पर से जब पर्दे उठने लगेंगे तो यह सिलसिला थमेगा नहीं।
प्रधानमंत्री जी, एकांत के क्षणों में जब आपको सारा घटनाक्रम याद आता होगा और वे खलपात्र भी आपके सामने आते होंगे, जो अपराधी हैं और जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था का जानबूझ कर कबाड़ा किया है। निश्चय ही आपका अंतःकरण आपको झकझोरता होगा। आप तिलमिला जाते होंगे। हो सकता हैं सार्वजनिक रुप से सबकुछ प्रकट नहीं करना चाहते हों। अतः मेरे साथ पूरा देश आपसे एक छोटी सी अर्ज कर रहा है-जाते-जाते या जाने के बाद वह सच बता दीजिये, जो देश जानना चाहता है। आप जानते हैं कि किसने जनता का कितना धन लूटा है और लूटा हुआ धन कहां है ? आपने एक परिवार को जो सेवाएं दी है, उसका भरपूर लाभ तो उन्हें मिल गया, पर अब देश को भी उपकृत कर वह सच उगल दीजिये जिसे देश जानना चाहता है। निश्चय ही यदि ऐसा करने का आप साहस कर पायेंगे, तो आपका सारा बोझ हल्का हो जायेगा। जनता आपको क्षमा कर देगी। संजय बारु और पीसी पारेख की कीताबों की कड़ी में आप भी एक किताब लिख दीजिये। इस किताब का शीर्षक रख सकते हैं- एक कडवा सच, जिसके लिए मैं प्रायश्चित कर रहा हूं।

Monday, 14 April 2014

जो हमदर्द बनने का ढोंग कर रहे हैं, वे ही दर्द की सौगात दे रहे हैं

आंखों पर मजहबी जुनून की पट्टी बांध कर जिन्हें अंधेरे में ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया है, वे तब तक अपनी तक़लीफों के बारें में उन्हें ही दोषी समझते रहेंगे, जिनके बारें में उनके कानों में जहर भरा जाता है। कान तो महज सुन सकते हैं, देख नहीं सकते, इसलिए कहने वालें की नीयत भांप नहीं पाते। काश ! वे आंखों पर बंधी पट्टी खोल पाते और आपने आस-पास के चेहरों को समझ पाते, तो अपनी बद से बदत्तर हुई हालत का रहस्य जान पाते। उन्हें समझ आ जाता कि उनकी गरीबी, बदहाली, पिछड़ापन के जिम्मेदार कौन है। वे ही लोग हैं, जो दर्द की सौगात दे रहें हैं, किन्तु हमदर्द बनने का ढ़ोग कर रहे हैं।
सियासी चौसर के बेजान मोहरों की तरह मुसलमानों का उपयोग मात्र बाजिया जीतने के लिए किया जाता रहा है। जो बाजियां जीतते रहें, वे तो मालामाल होते रहें, परन्तु उन्हें बदलें में कुछ नहीं दे पायें। वे देना भी नहीं चाहते, क्योंकि उनकी नज़़रों में उनकी औकात थोक वोटों के अलावा कुछ नहीं हैं। यदि आंखों की पर बंधी पट्टी खोल पाते, तो वे सही और गलत की पहचान कर पाते। जीवन खुशहाल बनाने के लिए बच्चों को अच्छी तामिल दे पातें। अच्छी ज़िदगी जीने के लिए बेहतर नौकरियां तलाशते। उनके जीवन में उजाला हो जाता, तो वे महज वोट बैंक नहीं रह पाते। दरअसल मुस्लिम समुदाय के मन में उजाले की ललक तो हैं, परन्तु वे आंखों पर बंधी पट्टी हटाने का साहस नहीं कर पा रहे हैं।
आंखों की पट्टी खुल जाती तो इतिहास की इबारत पढ़ी जा सकती है। इतिहास के पन्नों पर उन खलनायकों के कारनामें दर्ज हैं, जिन्हें अब भी रहनुमा बताया जाता है। मसलन पंड़ित जी जिन्ना के कंधे पर हाथ रख कर और उनकी आंखों में आंखें डाल कर इतना भर बोल देते – ‘’ मैं पंड़ित जवाहर लाल नेहरु, मोहम्मद अलि जिन्ना को आज़ाद भारत का पहला मुस्लिम प्रधानमंत्री घोषित करता हूं। यदि ऐसा होता तो आकाश में घुमड़ रही अविश्वास की घटाएं बरस जाती। पाकिस्तान नहीं बनता। लाखों जीवन बरबाद नहीं होते। करोड़ो तबाह नहीं होते। किन्तु नेहरु ऐसा नहीं कह पाये। उनका गरुर, उनकी अतृप्त महत्वाकांक्षा करोड़ो जीवन से बड़ी थी। उन्होंने जिन्ना को जानबूझ कर अपमानित किया था, उसकी भारी कीमत भारत राष्ट्र को चुकानी पड़ी।
कश्मीर समस्या शतप्रतिशत पंड़ित जी की देन है। पाकिस्तान का जीवन ही कश्मीर के तोते में कैद है। कश्मीर समस्या नहीं पैदा होती, तो चार-पांच युद्ध नहीं होते। नफरत की दीवार मजबूत होने के बजाय ढ़ह जाती। रावी और चिनाब का पानी दोनो देशों को एक कर देता। पंड़ित जी की गम्भीर भूल से आज़ादी के बाद की पांच पीढ़िया को अनचाहे कष्ट नहीं भोगने पड़ते।
राजीव गांधी ने रामजन्म भूमि के ताले खुलवा कर बर्र के छज्जे पर जानबूझ कर पत्थर फैंका था। बाईस बरस बाद आज एक कोबरें में जहर भर कर स्टिंग आपरेशन करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि राम मंदिर का शिलान्यास कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री ने किया था। उन्होंने पूजा कर वहां राम मंदिर बनाने का संकल्प लिया था। यह क्यो भूल जाते हैं कि विवादित ढ़ांचा ढहाये जाने के समय प्रधानमंत्री कांग्रेस सरकार का था, जो यदि चाहते तो इस दुखद घटना को रोक सकते थे। परन्तु सियासी नाटक का मंचन प्रारम्भ करने वाले अंत में हट जाते हैं और सार दोष उन पर डाल देते हैं, जिन्होंने नाटक का अंत एक क्लाइमेक्स के साथ किया था। अपने सियासी लाभ के लिए अपनी भूमिका को भूल कर जनता के जेहन में उन कलाकारों की याद दिलाते हैं, जिन्होंने उस नाटंक का अंत किया था। यह कपट नीति हैं। जनता का मूर्ख बनाने का कुत्सित प्रयास है।
गोधरा में रेल की बोगियां में लोगों को ज़िदा नहीं जलाया जाता, तो गोधरा की लपटे पूरे गुजरात को नहीं झुलसाती। दस वर्ष से गुजरात की बुझी हुई आग पर सियासी रोटियां सेकने की कोशिश की जा रही है। गुजरात तो गोधरा की लपटों से झुलसा था, किन्तु मुजफ्फर नगर में तो कोई आग ही नहीं लगी थीं। मामलूी घटना थी। इस घटना को जानबूझ कर थोक वोटों पर अनुकम्पा दर्शाने के लिए बड़ा किया गया। सुनियाजित तरीके से दंगा भड़काया गया। प्रशासन कई दिनों तक तमाशबीन बना रहा, इसलिए दंगाईयों के हौंसले बढ़ते गये। दंगा करवाया। लोगों को रुलाया। उनके घरों को उजाडने में मदद की। अब पीड़ितों पर पंद्रह हजार करोड़ खर्च कर उनसे वोट मांगे जा रहे हैं। पर अनुकम्पा भी दोनो समुदाय के पीड़ितो के प्रति नहीं, एक समुदाय पर ही, ताकि नफरत अधिक बढ़े। गुस्सा बढ़े। लोग अकारण ही पुनः आवेशित हो जाय, जिसका सियासी लाभ बटोरा जाय। क्या यह सियासत का सबसे घटिया और निकृष्ट रुप नहीं है ? पहले नागरिकों को धर जलने दों। लोगों को मरने दों। थोड़े दिन बाद उन रोते हुए लोगों के पास जाओं और कहो- ये रुपये लों, अपना घर बना लों और जो मर गये उनको भूल जाओ। पर याद रखों वोट हमे ही देना। यदि नहीं दोगे तो भविष्य में न तो कोई बचायेगा और न ही सरकारी सहायता मिलेगी।
गुजरात त्रासदी एक दुखद घटना के प्रतिकार में यकायक भड़की आग थी, जिसे काबू पाने में देर लगी थी, तब तक यह बहुत कुछ जला चुकी थी, किन्तु मुजफ्फरनगर में तो आग एक सुनियोजित षड़यंत्र के तहत लगायी गयी थी। प्रश्न उठता है कि केन्द्र की एक सरकार और उसकी सारी मशीनरी, मानवाधिकार पिछले दस वर्ष से गुजरात सरकार के मुखियां को अपराधी घोषित करने में अपनी सारी शक्ति खर्च कर रहे हैं, वे मुजफ्फरनगर त्रासदी पर क्यों मौन है ? जांच एंजेसियों को हकीकत जानने के लिए और उन षडयंत्रंत्रकारियों के काले कारनामें उजागर करने के लिए जानबूझ क्यों नहीं लगाया जा रहा है ? क्योंकि वे जानते हैं यदि नंगा सच सामने आ जायेगा, तो सभी पार्टियों की धर्मनिरपेक्षता संकट में पड़ जायेगी। समझ में नहीं आता गुजरात दंगो की रट लगाते हुए नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध बराबर कुछ न कुछ बोलने वाली सियासी पार्टियां मुजफ्फर नगर त्रासदी और अखिलेश सरकार की दंगो में संलिल्पतता की याद दिलाने में क्यों हिचक महसूस होती हैं ? क्या वहां दंगे नहीं हुए थे ? क्या वहां बेकसूर लोगों की हत्या सियासी षड़यंत्र के तहत नहीं हुई थी ?
बोटी बोटी काटने जैसे दुर्भावना वाले बयान देने वाले शख्स की पीठ थपथपाना और प्रत्युत्तर में दी गयी प्रतिक्रिया पर बवंडर करने के उपक्रम को किस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता कहा जा सकता है ? बर्र के छज्जे पर पत्थर फैंको और जब मधु मक्खियां काटने दौड़े तब सारा दोष अपनी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल पर डाल कर भाग जाओ, यही छल नीति है। थोक वोट पाने की धूर्त कोशिश है।
आप गरीब, पिछडे़ हैं, अभावों में बहुत तक़लीफ दायक ज़िंदगी जी रहे हैं, तो जियों। आपकी हालात हम नहीं बदलेंगे, क्योंकि यह हमारे लिए लाभ का सौदा नहीं है। हम तो यही चाहते हैं कि आपकी हालत इससे भी ज्यादा खराब हों, ताकि आपकी आंखों पर बंधी पट्टी खोलने का प्रयास नहीं करें। आपके हाथों में धर्मनिरपेक्षता का तंबुरा थमा रखा है, इसे बजाते रहों, साम्प्रदायिक शक्तियों के भय से बचने के लिए कव्वाली गाते रहो। हम सदा आपके साथ रहेंगे जब तक आपके थोक वोट हमें मिलते रहेंगे। क्योंकि हमारी नीति यह है कि हिंदुओं को जातियों के आधार पर बांटों, पिछड़े और दलित हिदुंओं के साथ मुस्लिम वोटों का समीकरण बिठा, चुनाव जीतों। यह सत्ता तक पहुंचने का शार्ट कट है। खुदा न करें आपकी आंखों पर पट्टी खुल जाय और आप नग्न आंखों से सारी हकीकत समझ जायें। जब ऐसी होगा, हमारी सियासत खत्म हो जायेगी। हमारा अस्तित्व मिट जायेगा। परन्तु हम ऐसा होने नहीं देंगे। हमे भारत की जनता की तकलींफो से कोई मतलब नहीं हैं। देश के विकास से कोई मतलब नहीं हैं। हमें सिर्फ सत्ता चाहिये। अधिकार चाहिये, ताकि जनता को मूर्ख बना कर लूटते रहें।

हमे भारत को बरबाद करने का हक है, क्योंकि हम सेक्युलर हैं !

हमने देश के संसाधनों का लूटा। रिकार्ड घोटाले-घपले किये। जम कर भ्रष्टाचार किया। गरीब जनता के पैसे को लूट कर काला धन बनाया। इसे विदेशी बैंकों में जमा कराया। हम मालामाल हुए, देश कंगाल हुआ, पर ऐसा करने का हमें हक है, क्योंकि हम सेक्युलर हैं। भारत में सेक्युलरिजम का नकाब पहन कर आप कुछ भी कर सकते हैं। आपको गलत काम करने के लिए हमारी तरह घबराना नहीं चाहिये, क्योंकि सेक्युलिरिजम वह कवच है, जिसमें सारे पाप छुपाये जा सकते हैं।
सेक्युलिरिजम के नाम पर हम जनता से कुशासन देने के लिए पुनः पांच वर्ष का अधिकार मांग रहे हैं। माना कि हमने जनता को दस वर्षों तक महंगाई के दर्द की तकलीफ के कारण रुलाया। माना कि हमने जनता की ऐसी हालत कर दी कि भर पेट भोजन करने की उसकी आदत ही नहीं रही। परन्तु उसको सेक्युलिरिजम के नाम पर इतना त्याग तो करना ही होगा। आप गरीब ही तो होंगे। भूखे ही तो रहेंगे, पर दुनियां में जिंदा तो रहेंगे। अभावों की पीड़ा सहते-सहते सांसे टूट जाय, तो कोई बात नहीं, पर हमेशा सेक्युलरिजम के भजन करते रहेंगे, तो आपका अगला जनम सुधर जायेगा।
एक शख्स कहता है कि मैं प्रधानमंत्री बनुंगा। क्यों बनेगा वह ? क्यों जमीन से उठ कर पर आकाश में उड़ने की कोशिश कर रहा है ? प्रधानमंत्री बनने का उसको क्या हक है ? जबकि हमारे परिवार का वजूद मौजूद हैं। हम कैसे भी हैं, चाहे नौसिखियें हैं, अयोग्य है, भ्रष्ट हैं, पर इस देश पर राज करने का हमारा ही हक हैं, क्योंकि हमारा परिवार लोकतांत्रिक देश में राजतंत्रीय शासन को स्थापित करने का अधिकार ले कर आया है। हमारा परिवार सेक्युलर है। हमारे परिवार के मुखिया ने देश का विभाजन करवाया। लाखों को दुनियां से कूच करवाया। करोड़ो को तबाह किया। हमने पैंसठ वर्षों में सैंकड़ों दंगे करवाये। 1984 में सिखों का कत्लेआम करवाया। हमे यह सब करवाना जरुरी था, क्योंकि हमे कम्युनल ताकतों को रोकना था।
हम जानते हैं, इस देश की जनता हमसे खफा है। हमसे छुटकारा चाहती है। पर हम ऐसा होने नहीं देंगे। हमने भारत की गरीब जनता को खूब रुलाया, अब खून के आंसू रुलायेंगे। देश को आर्थिक रुप से तबाह किया, पर तबाही अभी पूरी नहीं हुई है। देश के संसाधनों को जम कर लूटा, पर अभी और लूटना बाकी है। देश को पूरी तरह बरबाद करने के लिए दस वर्ष की अवधि कम होती है, इसलिए पांच वर्ष और मांग रहे हैं। भारत पर शासन करने का हमे हक है। कोई हमारा अधिकार छीनने की कितनी ही कोशिश क्यों न करें, हम उसे कामयाब होने नहीं देंगे, क्योंकि हम सेक्युलर हैं और वे कम्युनल है। हम कम्युनल ताकतों को रोकने के लिए सेक्युलरिजम का झंड़ा उठा कर दौड़ेंगे और सभी से कहेंगे- हमारे मिशन में शामिल हो जाओ। यदि वे कम्युनल आ गये, तो हम सब बरबाद हो जायेंगे। हमारी सियासी हसरते अधुरी रह जायेगी।
अंग्रेज़ो से मिल कर हमने मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाया। हम जानते थें बंटवारा अव्यवहारिक और बेतुका था। मुसलमान भारत के हर गांव और शहर में हिन्दुओं के साथ रहता है, वह भाग कर पाकिस्तान जा नहीं सकता था, इसलिए हमने उसे अपने सियासी फायदे के लिए मोहरा बना दिया। उसे कहा हमारे साथ रहो, हमे वोट देते रहों, क्योंकि हम सेक्युलर हैं याने कि मुसलमानों के हितैषी और जो इस देश में हिन्दुओं के हितैशी है, वे कम्युनल हैं। अपने सियासी लाभ के लिए मुसलमानो की गरीबी को बढ़ाया। उसे पिछड़ा बनाया। उसकी समस्याओं के समाधान के बजाय उसे और अधिक बढ़ाया, ताकि मुसलमान अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने की हैसियत नहीं जुटा पाये। उनके बच्चे पढ़ कर अच्छी नौकरी नहीं पा सके। उनकी आमदनी नहीं बढ़े और वे हमेशा तंगहाली में गुजर-बसर करें। पैसठ वर्षों तक यही सब करते रहने से हमे लाभ यह हुआ कि मुसलमानों के मन में जो असुरक्षा और गलतफहमिलयां हमने बिठा दी थी, वह आसानी बाहर नहीं निकल सकी। क्योंकि हम जानते हैं कि मुसलमान युवक यदि पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी पा लेगा और हिन्दुओं के साथ रहेगा, तो उसकी सारी गलतफहमियां दूर हो जायेगी। उसे यह मालूम हो जायेगा कि हमे अपने सियासी लाभ के लिए अब तक मूर्ख बनाया जाता रहा है।
2014 के लोकसभा चुनावों के पूर्व पूरे देश में हमे एकजुटता दिखी। जनता मजहब और जाति की संकीर्णता को तोड़ कर हमे हराने के प्रतिबद्ध दिखाई दी। गुजरात के नरेन्द्र मोदी, जो भारत का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है पूरे पूरे देश में घूम-घूम कर हमारी कमजोरियों और कारगुजारियों को उजागर कर रहे है। समचमुच हमारे लिए यह खतरे की घंटी थी। हमे अपने शाशन पर खतरा मंडराता हुआ दिखाई दिया। हमने एक स्वार्थी और चालाक शख्स -अरविन्द केजरीवाल, जिसे नौटंकी करने और झूठ बोलने में महारथ हांसिल है, को उनके पीछे लगा दिया। वह और उसकी मंड़ली हाथ धो कर नरेन्द्र मोदी के पीछे पड़ गयी। हमे लग रहा है अरविन्द केजरीवाल अपना कुछ असर दिखायेगा। हम तो हारेंगे ही, किन्तु मोदी को आगे बढ़ने से रोक देंगे।
परन्तु हमे लग रहा है कि दस वर्ष के कुशासन की पीड़ा को जनता भूल नहीं पा रही है। वह हमारे विरुद्ध लामबंद हो रही है। हमने नरेन्द्र मोदी को गालियां देने और उनके विरुद्ध जहर उगलने के लिए कई मोर्चे खोल रखे हैं, किन्तु उसका कोई खास असर दिखाई नहीं दे रहा है। अतः हार कर हमे मुसलमानों का हितैषी बनने का प्रमण पत्र लेने के लिए इमाम बुखारी के पास जाना पड़ा। इमाम बुखारी ने देश के मुसलमानों को समझ दिया है कि कम्युनल ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए हमारी कांग्रेस को वोट दें। जबकि इतिहास गवाह है कि मुसलमानों को हमने बरबाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। उनकी गरीबी और तंगहाली के हम ही जिम्मेदार है। हम कम्युनल ताकतों का कृत्रिम भय दिखा कर उन्हें डराते रहें हैं, किन्तु यह करना हमारे लिए आवश्यक है, क्योंकि भारत के मुसलमान ही तो हमारी सियासी ताकत हैं। जब यह ताकत चली जायेगी, हम कहीं के नहीं रहेंगे। हम सात जनम तक हिन्दुस्ताान पर शासन करने का अधिकार नहीं पा सकेंगे।
हम जानते है कि हिन्दुओं को तो वैसे ही जातियों के आधार पर बांट रखा हैं। अतः यदि हमे मुसलमानों के थोक वोट मिल जाये, तो नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोका जा सकता है। यह सही है कि हम सरकार बनाने की औकात नहीं रखेंगे, किन्तु किसी महत्वाकांक्षी नेता, जिसने सेक्युलर का नकाब ओढ़ रखा हो, कुछ दिनों या महीनों के लिए शाशन करने का अधिकार दें देगें, पर उसकी नकेल अपने हाथ में रखेंगे। जब देश की जनता कुशासन से त्राहि-त्राहि करने लगेगी हम नकेल खींच लेंगे। फिर चुनाव करायेंगे। चुनाव जीतेंगे और भारत को लूटने का पुनः अधिकार पा लेंगे।
हम भारत को न समझ पाये हैं और न ही इसको समझने की कोशिश कर रहे हैं। हमारे अपने कोई विचार ही नहीं है। दूसरे का लिखा हुआ भाषण पढ़ कर ही जनता को मूर्ख बना सकते हैं। पूरी दुनियां हमारे साथ है, क्योंकि दुनियां के अधिकांष देश नहीं चाहते कि हिन्दुस्तान के शासन की कमान किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ आ जाये, जिसके विचार शुद्ध रुप से भारतीय हों। जो हिन्दी बोलता हो। जो प्रगति और खुशहाली की कामना मन में रखता हो। जो देश को सुशासन देने का दृढ़ निश्चय रखता हो। जो काला अंग्रेज बन कर विदेशी शासकों की स्वार्थी नीतियों में उलझ कर देश की जनता के हितों को दांव पर नहीं लगाता हो। विदेशी सरकारें भारत में स्थायी और जवाबदेय सरकारे नहीं चाहती, क्योंकि इससे उनके व्यापारिक हित प्रभावित होते हैं। हम मन से उन विदेशियों के शुभ चिंतक हैं। क्योंकि हमारा शरीर इस देश में हैं, परन्तु आत्मा विदेशी है।
हम भारतीय लोकतंत्र की दुर्बलताओं को समझते हैं। यही हमारी सफलता का राज है। इस देश की जनता चाहें शासक के अत्याचारों से दुखी होगी, परन्तु जाति और धर्म की संकीर्णता के आधार पर बांट कर हम भारत पर शासन करते रहेंगे। जब तक सम्भव होगा, लुटने का क्रम जारी रखेंगे।

चुनावी समंदर में लुटेरों को डूबोने का यह सही मौका हैं

संजय बारु ने अपनी पुस्तक- एक्सीडेंटल प्राइमिनिस्टर मे एक दुखद सच के दस्तावेजी प्रमाण दिये हैं। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे भद्दा मजाक- “पुतले को प्रधानमंत्री बना, देश के संसाधनों को जम कर लूटा गया।” इस तथ्य की साक्षी की अगली कड़ी- पीसी पारेख की एक और पुस्तक- “क्रूसेडर ओर कांस्पिटेटर काॅलगेट एंड अदर ट्रूथ “में यह दर्शाया है कि काॅलगेट जैसे बड़े घोटाले के समय प्रधानमंत्री ने अपनी भूमिका महज एक पुतले के रुप में ही निभायी थी। इन दोनो किताबों ने भारत की राजनीति मेे भूचाल ला दिया है।
एक खुली, बेबाक और बेशर्म लूट को पूरा सरकारी तंत्र, सत्ताधारी गठबंधन के सभी नेता, सरकार को बाहर से समर्थन देने वाले राजनीतिक दल एक गम्भीर और देशद्रोही अपराध को खामोशी से देखते रहें। यह आत्मा को झकझोर देने वाला प्रसंग है। क्या इसे ही लोकतंत्र कहते हैं, जिसमें एक शख्सियत सारी प्रशासनिक शक्तियों का अधिग्रहण कर लेती है। योजनाबद्ध तरीके से शक्तियों का उपयोग कर खुली और निर्बाध लूट को अंजाम देती है। पूरा देश मूक दर्शक बन कर सबकुछ देखता रहता है। वह विदेशी शख्यिसयत, जिसके मन में किंचित मात्र भी देश प्रेम नहीं, गरबी जनता के प्रति कोई सहानुभूति नहीं, सवा सौ करोड़ हिन्दुस्तानियों के साथ दगा करती है, फिर भी उसकी राजनीतिक हैसियत और हैकड़ी बरकार है। भरकसक कोशिश करने के बाद भी सच न छुपाया जा सका और न ही दबाया जा सका, परन्तु मन में काई अपराध बोध नहीं। अपने कृत्य पर कोई पछतावा नहीं। सौ रुपये की चोरी करने पर पकड़े जाना वाला चोर अपना सिर शर्म से झुका देता है। चेहरा ढंक देता है। किन्तु अरबो रुपये की हेराफेरी करने वाले अपराधी का सिर अभी भी उठा हुआ है, क्योंकि वे जानती है, ये मूर्ख हिन्दुस्तानी फिर राजनीतिक ताकत दे देंगे, जिससे सारे अपराध आसानी से छुपाये जा सकेंगे।
संजय बारु ने अपनी पुस्तक एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर मे वस्तुतः भारत के संसदीय लोकतंत्र को दुर्घटनाग्रस्त किया है। आज भारतीय लोकतंत्र लहूलुहान है। उपचार के लिए किसी सशक्त, सुदृढ़ व देशभक्त सरकार की ओर आशापूर्ण दृष्टि देख रहा है। किन्तु एक लुटेरी पार्टी और उसके तथा कथित सहायोगी सेक्युलर राजनीतिक दल इस विपदा घड़ी में तुष्टीकरण का जाप करते हुए ऐसी सरकार की सम्भावनाओं के मार्ग में अवरोध खड़े कर रहे हैं। जबकि सभी राजनीतिक दलों को भ्रष्ट सरकार को पुनः सत्ता में नहीं आने देने के लिए एक होना चाहिये, वे नरेन्द्र मोदी को सत्ता में नहीं आने के लिए एक हो रहे है। यह भारतीय संसदीय लोकतंत्र की दुर्भाग्यजनक स्थिति है। एक दुर्घटनाग्रस्त लोकतंत्र का उपचार के लिए संवेदनशील होने के बजाय अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए सेक्युलिरिजम के नाम पर जनता को एक काल्पनिक भय से भयभीत कर रहे हैं। यह सब वे इसलिए कर रहे हैं ताकि एक समुदाय विशेष के थोक वोट उनकी झोली में गिर जाये।
नरेन्द्र मोदी के वैवाहिक जीवन को ले कर बवाल मचाने वाला समाचार और प्रिन्ट मीडिया संजय बारु  की पुस्तक पर महज औपचारिक खानापूर्ति कर रहे हैं। कुछ अखबार व समाचार चेनलों ने तो आश्चर्यजनक रुप से चुप्पी साध रखी है। जबकि कुछ समाचार चेनल दरबारियों को ला कर हल्ला मचा रहे हैं, जो अपने मालिक के विरुद्ध कुछ भी लिखना और बोलना पसंद नहीं करते। परन्तु इस गम्भीर विषय पर सार्थक और सारगर्भित बहस से सभी कतरा रहे हैं। ऐसा लग रहा जैसे कांग्रेसियों के अलावा इन्हें भी सांप सूंघ गया है। यह भारतीय लोकतंत्र को राजतंत्र में तब्दील करने का प्रयास है, जो यह आभास दिला रहा है कि यदि हम जागरुक नहीं रहें और ऐसे देशद्रोही तत्वों को जाने अनजाने समर्थन देते रहें तो एक दिन धीमी गति से चल कर आ रहा अधिनायकतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को कुचल कर रख देगा।
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जनता किसी पार्टी पर विश्वास  कर शासन के साथ-साथ देश के खजाने की चाबी और प्राकृतिक संसाधन सौंपती है। परन्तु यदि कोई सरकार जनता के विश्वास के साथ छल करते हुए खजाने में रखे हुए जनता के धन की चोरी करती है और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग देश हित में करने के बजाय इसकी बंदरबाट करती है, तो इसका सीधा मतलब हैं, शासको की नीयत में खोट हैं। उन्होने शासन का अधिकार मांग कर जनता के साथ विश्वासघात किया है। वे राजनेता नहीं, बल्कि राजनेता के वेश में लुटरे हैं। वे राजधर्म निभाने नहीं, अपितु एक संगठित गिरोह बना कर सार्वजनिक धन को लूटने आये हैं। खुली और बेशर्म लूट ने दस वर्षों में देश को कंगाली के कगार पर पहुंचा दिया। देशवासियों को महंगाई की ऐसी दुखद पीड़ा झेलनी पड़ रही है, जिसकी कभी किसी ने कल्पना ही नहीं की थी।
देश के नागरिकों के साथ भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे भ्रष्ट सरकार इसलिए दगा करती रही, क्योंकि यह सरकार उन तथाकथित सेक्युलर और तुष्टीकरण की राजनीति को महत्व देने वाले राजनीतिक दलों की बैसाखी के सहारे टिकी हुई थी, जिनके लिए राजनीति और सत्ता देश से बढ़ कर है। तुष्टीकरण और सेक्युलिरिजम केें नकाब के नीचे लुटेरे अपने सारे पापों को छुपा कर फिर सत्ता में आने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं। उन्हें अपने भावी सहयोगियों से भी पूरा समर्थन मिल रहा है। देश के दुश्मन राष्ट्र भी ढुलमुल और कमज़ोर भारत सरकार चाहते हैं, ताकि उनके घृणित मकसद पूरे होते रहें। वहीं योरोपियन देश व अमेरिका भी सक्षम भारत सरकार के पक्षधर नहीं है, क्योंकि इससे उनके व्यापारिक हित प्रभावित होते हैं। देश के अधिकांश मीडिया समूह पर विदेशी व्यापारियों का नियंत्रण है और वे भी एक लुटेरी सरकार का मौन समर्थक बने हुए हैं। भारत की जनता को जागरुक हो कर अपने मत का सही प्रयोग करना चाहिये और उस पार्टी को आंशिक ही नहीं पूरी तरह ठुकरा देना चाहिये, जिसने देश की गरीब जनता का अरबों रुपया लूटा है और भविष्य में सता में आ कर अपने इसी उपक्रम को जारी रखना चाहती है।
भारत की जनता हक़ीकत को समझ गयी है। वह अपने साथ छल करने वाले अपराधियों को पहचान गयी है। लोकसभा के चुनावों के दौरान जो भारी मतदान हो रहा है, उससे लगता है, आक्रोश से भरा हुआ गुब्बारा फूट रहा है। अब तक हुए मतदान में जन आक्रोश की आंधी की झलक दिखाई दे रही है। इसे सुनामी कहें या लहर, पर यह जरुर है कि जनपवन के तीव्र वेग से सत्ता तम्बु उखड़ जायेंगे। अपने आपको बचाने की लाख कोशिश करें, प्रतिद्वंद्वियों पर चाहे जितने झूठे, अर्नगल वे बेहुदे आरोप लगायें, उनके सारे हथकंड़े बेअसर हो रहे हैं। जो तिकड़म से सेक्युरिजम के नाम पर एकजुट हो कर नरेन्द्र मोदी को रोकने का प्रयास कर रहे हैं, वे सभी एक ही थेल्ली के चट्टे बट्टे हैं और सभी लुटेरों को बचाने में लगे हैं। इनकी कोशिश निष्फल करने के लिए यह जरुरी है कि अब चुनावों के अगले चरण में इन्हें इतने जोर का धक्का दिया जाय कि ये गहरे समंदर में डूब जाय और फिर कभी भारत को लुटने के लिए राजनीति के तंबू गाड़ने की कोशिश नहीं करें। साथ ही, उनके उन सहयोगियों को भी सबक सिखाना चाहिये, ताकि वे समझ जायें कि वे कितनी भी चालाकी क्यों न करें, देश के संसाधनों को लूटने वालें लुटेरों का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से सहयोग दे कर उन्होंने अपनी भी साख गवांई है। और जो भ्रष्टव्यवस्था को बदलने का नारा लगाते हुए राजनीति करने आयें थे, लुटेरों के सहयोगी बन कर उन्होंने देश की जनता को धोखा दिया है, उनकी नयी खुली राजनीति की दुकान को उनके विरुद्ध मतदान कर बंद करवानी चाहिये।

Friday, 4 April 2014

तुष्टीकरण नहीं, हमे बेहतर कल की गारन्टी चाहिये

गुजरात के घाव अब सूख गये हैं, किन्तु वोटों के लिए अब भी उन्हें कुरेदने से बाज नहीं आ रहे हैं। जबकि मुजफ्फरनगर के ताजा घाव तो रिस रहें हैं, उन पर मरहम लगाने के लिए परहेज कर रहे हैं ? सरेआम बोटी-बोटी काटने वाले को क्षमादान और न्यायालय द्वारा नरेन्द्र मोदी को निर्दोष साबित करने पर भी अपराधी ठहराने की हठधर्मिता, यह किस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता है ? कब तक तुष्टीकरण के बहाने सच को सच और झूठ को झूठ कहने से परहेज किया जाता रहेगा ? क्या धर्मनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ वोटों की सियासत ही है ? यदि इसका उत्तर ‘हां’ है, तो निश्चित रुप से सियासी लाभ के लिए एक समुदाय विशेष को देश की समस्याओं से अलग किया जा रहा हैं। क्या महंगाई की पीड़ा सभी नागरिकों को नहीं झेलनी पड़ रही है ? क्या सरकारी भ्रष्टाचार से सभी को मुक्ति नहीं चाहिये ? क्या सभी को देश का विकास नहीं चाहिये ? बेहतर भविष्य की गारन्टी नहीं चाहिये। कब तक नागरिकों की अहमियत को केवल वोट बैंक से ज्यादा नहीं समझा जायेगा ? क्या भारतीय अल्मपंसख्यक थोक वोटों की मंड़ी है, जिन्हें जनावरों की तरह अपने पक्ष में वोट देने के लिए हमेशा हांका जाता रहेगा ? जब पूरा देश व्यवस्था परिवर्तन के लिए उत्कंठित है, तब ऐसा क्यों माना जा रहा है कि कुशासन व भ्रष्ट शासन से पीडि़त होने के बाद भी वह विकास और बेहतर भविष्य के नाम पर भारत का अल्पसंख्यक समुदाय अन्य पार्टी को वोट नहीं देगा ? यह क्यों माना जा रहा है कि अलपसंख्यक समुदाय हमारी जागीरी हैं और ये हमेशा हमे ही वोट देते रहेंगे ?
दुर्भाग्य से आज़ादी के छियांसठ वर्ष बाद भी अपने क्षुद्र सियासी लाभ के लिये अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक विशेषण लगा कर भारतीय नागरिकों की नागरिकता के विभाजन को अक्षुण्ण रखा जा रहा है। क्यों धर्म के आधार पर नागरिकों की पहचान को विभाजित रखा जा रहा है ? जबकि भारतीय संस्कृति तो विश्व को ही अपना कुटुम्ब मानती है, फिर उपासना पद्धति के आधार पर नागरिकों का कैसे विभाजन किया जा सकता है ? लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जब तक देश के नागरिकों की नागरिकता विभाजित की जाती रहेगी, उसके सुफल नहीं मिल पायेंगे। अयोग्य और निकृष्ट लोग वोट बैंक के आधार पर राजनेता बनते रहेंगे, क्योंकि बेहतर कार्यों से नहीं, जवाबदहेही निभाने से नहीं, वरन तुष्टीकरण के बहाने उन्हें राजनीतिक शक्ति मिलती रहेगी।
हम इस मिथक को तोड़ सकते हैं। हमे उन्हें कह सकते हैं, ‘तुष्टीकरण नहीं, बेहतर भविष्य की गारन्टी दीजिये । हमें अपनी समस्याओं से निज़ात दिलाने का वचन दीजिये। सुशासन का वादा कीजिये। अतः सियासत भले ही हमे अपने मतलब के लिए अलग करती रहे, परन्तु अब हमारे बीच खड़ी की गयी नफरत और अविश्वास की दीवारों को तोड़ कर राष्ट्रहित में एक होना होगा। क्योंकि सामुहिक निर्णय से ही भ्रष्ट शासन व्यवस्था बदली जा सकती है। अपने सियासी लाभ के लिए कोई राजनीतिक दल सुरक्षा के नाम पर जानबूझ कर भ्रमित कर भयभीत करने का प्रयास करेगा, हम एकजुट हो कर उसके घृणित प्रयास को निष्फल कर देंगे।
क्योंकि हम सब एक हैं। न अल्पसंख्यक हैं, न बहुसंख्यक हैं, हम एकसंख्यक भारतीय हैं। हमारे पुुरखे यहीं जनमे। इसी माटी में उन्हें दफनाया या जलाया गया। हमारा जन्म भी यहीं हुआ। हमे एक साथ यहीं जीना और मरना है। यह देश हमारा है। हम सभी भारतीय नागरिक हैं। हमारे दुख-सुख एक से हैं। हमारी समस्याएं साझा हैं। हम मिल कर ही अपनी समस्याओं का समाधान खोज सकते हैं। यदि हम एक हो कर अपने बेहतर भविष्य के लिए निर्णय लेंगे, तो भारत की राजनीतिक व्यवस्था बदल जायेगी। अपनी काबलियत के बाजय वोट बैंक के सहारे चुनाव जीतने की निकृष्ट कोशिश समाप्त हो जायेगी। भारत की राजनीति की फिज़ा बदल जायेगी।
आज़ादी के बाद कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों की रहनुमा बन कर पांच तोहफे दिये- ‘ असुरक्षा, अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ापन और मजहबी जुनून। ये तोहफे कांग्रेस के लिए वरदान साबित हुए, जिससे वर्षों तक उसे मुसलममानों के थोक वोट मिलते रहें और वह सत्ता सुख भोगती रही। अपनी अर्कमण्यता को छुपा कर चुनाव जीतने का आसान नुस्खा हाथ लग गया था। परन्तु जब उन्हें अहसास हुआ कि जो तोहफे उन्हें दिये गये थे, वे दरअसल श्राप थे, जिसके कारण उनकी हालत बद से बदत्तर हो गयी है। कांग्रेस से जब तक मोहभंग हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कुछ प्रदेशों में उनके आंसू पौंछने के लिए नये रहनुमा आ गये, परन्तु पूरे देश में मजबूरन उन्हें कांग्रेस पर ही भरोसा करना पड़ा।
पिछले बीस वर्षों से नये रहनुमाओं को भी परखा जा चुका है। उन्हें अपने श्रापों से मुक्ति नहीं मिली है। अलबता श्राप भी नये रहनुमाओं की सियासत के लिए आवश्यक हो गये। उनकी निगाहों में भी मुसमानों की अहमितयत वोट बैंक से ज्यदा नहीं हैं। पूरे देश में जब शांति हैं और कहीं पर साम्प्रदायिक तनाव नहीं हैं, तब अपनी अकर्मण्यता को छुपाने के लिए जानबूझ कर अखिलेश सरकार ने मुजफ्फर नगर के घाव दिये, ताकि अगले चुनावों में मुस्लिम समुदाय के मन में असुरक्षा के भाव जगा गर उनके थोक वोट लिये जा सकें। मुजफ्फर नगर त्रासदी यह नसहीहत देती है कि सियासत किसी की सगी नहीं होती। नागरिक तो सियासी  चौसर के बेजान मोहरे हैं, जिनका उपयोग बाजियां जीतने के लिए किया जाता है।
साम्प्रदायिक विद्वेस की आग जलाना, भड़काना और नागरिकों को आग में झुलसने के लिए छोड़ देन कीे कोशिश भारतीय सियासत की सबसे गंदी तस्वीर है। अखिलेश सरकार ने जो पाप किया है, वह अक्षम्य है, किन्तु फिर भी बड़ी बेशर्मी से अपने गुनाहों को कबूल करने के बजाय अपने आपको अब भी मुसलमानों का सबसे बड़ा रहनुमा घोषित करने की अभद्र कोशिश की जा रही है। परन्तु अखिलेश सरकार अपना असली रुप उजागर कर चुकी है, जो राजनैताओं से सावधान रहने की चेतावनी देते हुए कहती हैं, उन्हें चुनों जो योग्य हो, सक्षम हो, जिम्मेदारी निभाने की क्षमता रखते हों, उन्हें नहीं, जो वोट बैंक के सहारे ही सता सुख का लुत्फ उठाने के लिए प्रतिबद्ध हों।
अब समय आ गया है, जब मुस्लिम समुदाय को सियासी चैसर का मात्र मोहरा नहीं बने रहना है, अपितु सभी के साथ कदम से कदम मिला कर चलना है। एक नये भारत के निमार्ण में सहयोगी बनना है। उन्हें एक ही स्वर में कहना है, हमें तुष्टीकरण नहीं, कांग्रेस द्वारा दिये गये श्राप – असुरक्षा, अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ापन और मजहबी जुनून से मुक्ति चाहिये। हमारे बच्चों को अच्छी तामिल, रोजगार और सनहरा भविष्य चाहियें। अतः हम उसी राजनीति पार्टी को वोट देंगे, जो सुशासन का वादा करेगी। समस्याओं से निज़ात दिलाने का भरोसा जगायेगी। आज की परिस्थितियों में यही मनःस्थिति देश के हित के लिए उपयुक्त होगी।

Friday, 28 March 2014

केजरीवाल का बेलगाम झूठ और भाजपा की चुभती चुप्पी

कांग्रेस ने अपनी आसन्न पराजय स्वीकार कर ली है। उसके बड़े-बड़े योद्धा चुनाव लड़ने से कतरा रहे हैं। पार्टी छोड़ कर भागने का हडकम्प मचा है। राहुल को प्रधानमंत्री बनना नहीं है। वे हारी हुई बाजी को जीतने की तैयारी में लगे हुए है। उन्हें खेल जीतना नहीं, बिगाड़ना है। वे मध्यवावदी चुनावों की आशाएं संजो बैठे हैं, जिसमें वे हीरो बनने के सपने देख रहे हैं। राजनीति के इस गंदे खेल में केजरीवाल उनके प्रमुख सहयोगी बने हुए हैं। अपनी दो वर्ष पुरानी पार्टी को अखिल भारतीय स्वरुप देने के लिए वे बेताब है। राजनीति के गंदे खेल में रम गये हैं। खेल मे उन्हें मजा आ रहा है। भारत की राजनीति की सारी गंदगी अपने ऊपर उडेल कर वे मुस्करा रहे हैं। राजनीति के व्यवसाय में उन्होने इतना धन कमाया है, जिसकी उन्हें कभी आशा नहीं थी।
झूठ और प्रपंच की नौटंकियों से राजनीति की दुकान सफलता से जमाई जा सकती है, यह उनके मिशन का एक भाग है। इसी मिशन के तहत वे भाजपा का खेल बिगाड़ने में लगे हैं। उन्हें भरोसा है कि जिस तरह दिल्ली में उन्होंने भाजपा को सत्ता की दहलीज पर आ कर रोक दिया था, ऐसे ही वे केन्द्र की सत्ता में आने से भी रोक देंगे। मोदी का प्रधानमंत्री बनने का सपना चूर-चूर कर देंगे। एक हद तक वे अपने मिशन में सफल हो रहे हैं, क्योंकि भाजपा उनके झूठ और प्रपोगंड़ा का प्रभावी जवाब देने के तरीके नहीं ढूंढ पा रही है।
केजरीवाल को झूठ बोलने में न शर्म है, न झेंप हैं और न ही झूठ के पकड़े जाने पर वे शर्मिंदगी महसूस करते हैं। एक के बाद एक वे नये नये झूठ सुनियोजित तरीके से हवा में उछालते जा रहे हैं और भाजपा नेता उनका प्रभावी जवाब नहीं दे पा रहे हैं। जबकि उनकी हर झूठ बात का आसान व तथ्यों के अनरुप ठोस जवाब उपलब्ध है। यह जरुरी नहीं कि मोदी के विरुद्ध उगले गये जहर का जवाब पलट कर मोदी ही दें। भाजपा के पास ढे़रो प्रवक्ता है और देश के हर कोने में प्रभावशाली नेता हैं। मात्र सोशल मीडिया में ही सारे झूठ को उजागर करने से काम बनने वाला नहीं है। उनके झूठ का जवाब उन्हीं की तर्ज पर सार्वजनिक रुप से जनता के सामने देना होगा। यह काम देश भर में फैले हुए भाजपा नेताओं को प्रभावी ढंग से करना होगा, अन्यथा उनके बेलगाम झूठ पर अंकुश नहीं लगेगा और झूठ बोलने में उनका साहस बढ़ता जायेगा।
रिलायंस गैस प्रकरण पर निरन्तर वे मोदी पर आरोपों की झड़ी लगा रहे हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में तीन पीआईएल पहले से लगी हुई है, जिसका निर्णय लंबित है। दूसरा गैस का यह मामला केन्द्र के पैट्रोलियम मंत्रालय के अधीन है, जिसमें गुजरात सरकार का कोई रोल नहीं है। इस मामले को संसद में भाजपा नेता यशवंत सिन्हा जोर-शोर से उठा चुके हैं। परन्तु केजरीवाल आजकल हर मंच पर यह कह रहें है कि मोदी इस बारें में कुछ नहीं बोल रहे हैं, इसका मतलब वे अम्बानी के एजेंट है। क्या भाजपा नेता उनके इस आरोप का प्रभावी ढंग से जवाब नहीं दे सकते कि जो मामला सुप्रीम कोर्ट के पास विचाराधीन है, उस पर क्यों टिप्पणी की जाय ? जबकि इस विषय में वे जो भी तर्क और दलीले दे रहें है, वे सब झूठी और तथ्यहीन है। क्या जनता को निरन्तर हर जगह जा कर भ्रमित करने के उनके इस प्रयास को विफल करने की कोशिश नहीं की जा सकती ?
एक उनका बहुप्रचारित झूठ है- ‘गुजरात में कोई विकास नहीं हुआ।’ क्या इस सफेद झूठ का भी भाजपा के पास जवाब नहीं है। इस झूठ का जवाब दिया भी जा रहा है, किन्तु जिस ढंग से केजरीवाल और उनके अनुयायी बोले जा रहे हैं, उससे साफ लग रहा है कि केजरीवाल मंड़ली की तुलना में भाजपा काफी शिथिल है।
केजरीवाल की बेहुदा नौटंकी पर तरस आता है जब वे महाराष्ट्र में जा कर गुजरात में हुई किसानों की आत्महत्या के आंकड़े दे रहे हैं। जबकि महराष्ट्र में किसानों के आत्महत्या करने की घटनाएं अब भी रोज हो रही है। यही झूठ उन्होंने बैंगलोर में दोहराया और महराष्ट्र पर चुप्पी साधे रहें। गुजरात में हुई किसानों की आत्महत्या के झूठे आंकड़े बैंगलोर में दिये, उसका भाजपा ने जवाब नहीं दिया, जिससे उनका साहस बढ़ गया और उन्होंने बनारस में गुजरात में किसानों की आत्महत्या की संख्या दुगुनी कर दी। बहुत दिनों बाद गुजरात सरकार ने अब विज्ञप्ति जारी कर कहा है कि गुजरात में मात्र एक किसान ने फसल खराब होने पर आत्महत्या की है।
एक और झूठ वे प्रत्येक जन सभा में जा कर बोल रहे हैं- गुजरात की मोदी सरकार किसानों की जमीन से सस्तें में ले कर अम्बानी अडानी को दे रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि रिलायंस की जामनगर परियोजना 1990 में प्रारम्भ हुई थी, जब मोदी सरकार नहीं थी और रिलायंस ने सारी जमीन किसानों से सीधी खरीदी थी। गुजरात सरका ने उद्योगपतियो के लिए जो भी जमीन अधिगृहण की थी, उसका तरीका बहुत ही पारदर्शी है और उसकी मिशाल पूरे देश में दी जाती है। फिर प्रश्न उठता है कि क्यों केजरीवाल गुजरात सरकार पर झूठे, तथ्यहीन और अर्नगल आरोप लगा रहे हैं और भाजपा नेता उनके झूठ को चुनौती क्यों नहीं दे रहे हैं ?
बनारस की जन सभा में केजरीवाल ने अम्बानी बंधुओं के स्वीस अकाउंट के नम्बर दिये। अब ये नम्बर सही थे या गलत और सही है तो इसकी वास्तविकता क्या है, इसका पूर्ण विवरण जनता को दिया जा सकता था, किन्तु इस पर भी भाजपा नेता चुप्पी साधे हुए हैं, जबकि स्वीस बैंक में काला धन सरकारी अफसरों और कांग्रेसी नेताओं का है, जिसमें सर्वाधिक मेडम सोनिया का है। यदि केजरीवाल अम्बानी बंधुओ के स्वीस अकाउंट के नम्बर ला सकते हैं, तो दूसरे लोगों के क्यों नहीं ला पा आये ? क्या उनके अलावा और किसी का पैसा स्वीस बैंक में नहीं है ? अन्य के बारें में केजरवाल चुप्प क्यों है ? भाजपा नेताओं को चाहिये कि सार्वजनिक रुप से केजरीवाल के इस झूठ को उजागर करें।
आश्चर्य इस बात पर होता है कि केजरीवाल के झूठे प्रायोजित शो पर भी भाजपा कठोर टिप्पणी नहीं करती, जबकि वे भाजपा की टिप्पणी पर तुरन्त पलट वार करते हैं। मसलन एके 49 पर उन्होंने तुरन्त टिप्पणी कर दी, परन्तु चतुराई से अपनी वेबसाईट पर से कश्मीर को हटाये जाने पर कुछ नहीं बोला। इसी तरह बम्बई प्लेन से गये और एयरपोर्ट पर पूना से लाये गये आॅटो रिक्शा में बैठ कर केजरीवाल और उनके अनुयायियों ने जानबूझ कर ट्राफिक नियमों की धज्जियां उड़ाई। महाराष्ट्र सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की। बनारस में गंगा में डूबकी लगाने का प्रायोजित नाटक किया। अपने लोगों से रोड़ शो में अंडे़ व स्याही फिंकवाई। रोड़ शो गंगा के घाट और मंदिरों से प्रारम्भ किया और समापन मुस्लिम मोहल्लों में जा कर किया। वहां टोपी भी पहनी और अजान के समय अपना भाषण भी रोक दिया । याने लोकप्रियता पाने के वे सारे टोटके किये, जो राजनीति में जमने के लिए किये जाते हैं।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध राजनीति में उतरने वाले केजरीवाल भारत की राजनीति में पैर जमाने के लिए तड़फ रहे हैं और वे सभी उपाय कर रहे हैं, जो स्वच्छ राजनीति की श्रेणी में नहीं आता। उनका सिर्फ सिर्फ भाजपा और मोदी विरोध और अन्य के बारे में चुप्पी यह दर्शाता है कि वे एक षड़यंत्र के तहत काम कर रहे हैं। जानबूझ कर कश्मीर को भारत के नक्शे से हटाना भी मुस्लिम राष्ट्रो से धन प्राप्त करने का एक षडयंत्र है। अतः देश हित में भाजपा नेताओं को केजरीवाल के झूठ को गम्भीरता से लेना होगा और उनकी गंदी राजनीति पर अंकुश लगाने के लिए ठोस व प्रभावी उपाय करने होंगे, अन्यथा उनका साहस बढ़ता जायेगा और वे भाजपा को भारी नुकसान पहुंचाने में सफल होंगे।

Wednesday, 12 March 2014

महान नौटंकीबाज अरविन्द केजरीवाल का सम्मान नहीं, तिरस्कार कीजिये

महान नौटंकीबाज अरविन्द केजरीवाल का सम्मान नहीं, तिरस्कार कीजिये !


एक समाचार समूह द्वारा केजरीवाल को अहमदाबाद से दिल्ली लाने के लिए चार्टड़ प्लेन उपलब्ध कराना एक साथ कर्इ प्रश्न उपसिथत करता है-”क्या मीडिया समूह के पास एक व्यकित विशेष का व्यकितत्व चमकाने के लिए अतिरिक्त फंड है ? यदि है, तो यह पैसा कौन दे रहा है ? पूरे देश ने केजरीवाल को स्वीकार नहीं किया है। दिल्ली प्रदेष की अठार्इस विधानसभा सीटें जीतने का मतलब यह नहीं है कि वे पूरे भारत के सर्वमान्य नेता बन गये हैं। फिर किस आधार पर इस समाचार समूह ने केजरीवाल को इतना अधिक महत्व दिया ? भारत के राष्ट्रीय दलों के पास विधानसभाओं की हज़ारो सीटे हैं। कर्इ प्रादेशिक क्षत्रप भी सौ से अधिक सीटे जीतने की औकात रखते हैं। फिर क्यों नहीं भारत के किसी अन्य राजनेता को अपने टीवी स्टूडियों में बुलाने के लिए इस समाचार समूह ने विशेष सुविधा उपलब्ध करायी ?”
अरविन्द केजरीवाल को चार्टड़ प्लेन उपलब्ध कराने पर समाचार समूह मौन है, किन्तु केजरीवाल ने इस विषय पर जिस तरह शरारतपूर्ण जवाब दिया, वह हैरान करने वाला है। वे कहते हैं-ऐसे सवाल राहुल और मोदी से क्यों नहीं पूछते ? भारत की राजनीति को भ्रष्टाचार मुक्त और स्वच्छ बनाने का दावा करने वाले सख्श का ऐसा उद्धण्ड़ता पूर्वक उत्तर यह बताता है कि यह व्यक्ति भारत के सवा सौ करोड़ नागरिकों को मूर्ख समझता है। अपने अपराध को छुपाने के लिए आवश्यक है कि अन्य राजनेताओं के नाम उछाल दो या किन्हीं अन्य उधोगपतियों को गालियां दे दो, जनता उन्हें माफ कर देगी।
निश्चय ही, अरविन्द केजरीवाल र्इमानदार और स्वच्छ छवि के लिए मात्र ढ़ोग करते हैं। वे भी अन्य राजनेताओं की तरह भारतीय राजनीति को व्यावसाय मानते हैं और इसी प्रयोजन को पूरा करने के लिए वे भारतीय राजनीति में कूदे हैं। अन्य राजनेता वर्षों से राजनीति में रहने के बाद जितना धन नहीं कमा पाये, उससे कही अधिक केजरीवाल ने अपनी नौटंकी और स्टंट कला से कुछ महिनों में ही कमा लिये हैं। उनकी राजनीति की दुकान भविष्य में चल पाये या न चल पाये, उनका तिलस्म कायम रह पाये या न पाये, परन्तु उनके पास ज्ञात और अज्ञात स्त्रोंतों से अपार धन एकत्रित करने का मौका हाथ लग गया है। केजरीवाल क्रांतिकारी नहीं, विशु़द्ध व्यावसायिक मनोवृति के व्यक्ति  हैं, जिसे वे सिद्ध कर चुके हैं।
जिस मीडिया समूह ने केजरीवाल को अपने स्टूडियो तक बुलाने के लिए चार्टड़ प्लेन उपलब्ध कराया, उसी समूह ने अपने टीवी चेनल पर अरविन्द केजरीवाल का प्रायोजित इंटरव्यू प्रसारित किया। जानबूझ कर अपने पीछे शहीद भगत सिंह की तस्वीर लगा कर अपने आपको क्रांतिकारी घोषित करने का नया शगूफा छोड़ा। देश में नयी क्रांति लाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की। ऐसा व्यक्ति जो भारत के संविधान में आस्था नहीं रखता, जो झूठ, कपट व छल को राजनीति का एक भाग मानता है, जो अपननी कही बात पर तुरन्त पलटी मारनें में सिद्ध हस्त है, जो अपने थूंक को चाटने में संकोच नहीं करता, जो अपने बच्चों की झूठी कसमें खाता है, जिसके पास अपनी कोर्इ विचारधारा नहीं, कोर्इ सिद्धान्त नहीं, मात्र उद्धण्ड़ता और अशिष्ट्ता ही जिसके स्वभाव में हैं, वह व्यकित कैसे भगतसिंह के आदर्शों को मानने वाला हो सकता है ? जो  व्यक्ति देश का अहित चाहने वाले लोगों से साठगांठ रखता है, जिसकी पार्टी कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग नहीं मानती है, उसे कैसे हम महान देश भक्त का दर्जा दे सकते हैं ?
प्रश्न यह है कि उस टीवी चेनल और अरविन्द केजरीवाल को प्रायोजित इंटरव्यू प्रसारित करवाने की आवश्यक्ता क्यों आ पड़ी ? क्या यह देश की जनता को धोखा देने का प्रयोजन नहीं है ? क्या यह झूठ और फरेब की यह पराकाष्ठा नहीं है ? भाजपा के वोट काटने और मोदी की बढ़त को रोकने के लिए इतने नीचे स्तर तक उतर जायेंगे और इसके लिए मीडिया की विश्वसनीयता दावं पर लगा देंगे, ऐसी आशा किसी को नहीं थी। जो व्यकित मीडिया की लहरों पर बैठ कर घर-घर पहुंचा, आज उसे मीडिया ही लोगों के दिलों से बाहर निकाल रहा है। लोगों के मन में जिस व्यक्ति ने विश्वास जगाया, आज वहीं उन्हें विश्वासघाती लग रहा है। जनता को इस बात पर दुख है कि जिसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने वाला योद्धा माना, वह मात्र चमकते कागज का नकली पूतला निकला।
भारत की राजनीति में दोगले और धोखेबाज नेताओं की भरमार है, किन्तु उन सभी को पीछे छोड कर अरविन्द केजरीवाल सबसे आगे निकल गया है। कांग्रेस की खार्इ खोदी और अब उस खार्इ में कांग्रेस के सहयोग से भाजपा को धकेलने का प्रयास चल रहा है। कांग्रेस के भ्रष्टाचार और अर्कमण्यता का नारा लगा कर दिल्ली विधान सभा का चुनाव जीता और कांग्रेस के सहयोग से ही सरकार बना लीं । सरकार बना कर काम कम किये, नौटंकिया ज्यादा की। नौटंकी करते हुए सत्ता में आये और नौटंकी करते हुए सत्ता को छोड़ कर भाग खड़े हुए। 50 दिन तक एक प्रदेश की जिम्मेदारी ओढ़ने में अक्षम साबित हुए, किन्तु पंद्रह वर्ष से सरकार चला रहे गुजरात के मुख्यमंत्री के प्रशासन की कमजोरियां ढूंढने गुजरात चले गये।
मीडिया में बने रहने के लिए गुजरात की एक सामान्य घटना को अनावश्यक तुल दे कर दिल्ली के भाजपा कार्यालय के बाहर हिंसक भीड़ ले कर उनके नेता आक्रमण करने पहुंच गये। आचार संहित के उल्लंघन करने पर गुजरात पुलिस ने केजरीवाल को पूछताछ के लिए रोका था, उन्हें जेल में ठूंस कर प्रताडि़त नहीं किया था, जिससे आवेशित हो कर उनके नेताओं को ऐसा उद्धण्ड़ उपक्रम करना पड़ा। सबकुछ जान बूझ कर मीडिया में चर्चित होने के लिए किया गया था, किन्तु पास उल्टा पड़ गया। जनता के हीरो बनने चले थे, विलेन बन गये। फिर भी हार नहीं मानी। गुजरात के कांग्रेसी नेताओं को टोपियां पहना कर केजरीवाल हाय-हाय! के नारे लगवाये। उसी भीड़ से रोड़ शो किये। अपने ही लोगों से मनीष सीसोदिया की कार पर पत्थर फिंकवाये। फिर मोदी को गालियां देते हुए, उनसे मिलने की इच्छा जतार्इ। मिलने की अनुमति नहीं मिली, तो मीडिया में सुर्खियां बटोरने के लिए बवडंर किया।
पर इससे बात कुछ बनी नहीं। जनता पर अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रहें। मीडिया के पास चुनावों की घोषणा के बाद समाचार की भरमार हो गयी थी, इसलिए एक ही व्यक्ति को महत्व देना सम्भव नहीं था। फिर कैसे अपनी राजनीति चमकार्इ जाय। ऐसा क्या करें, जिससे मीडिया घास डालने लगे। सम्भवत: इसी प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए अपने चहेते टीवी चेनल के साथ मिल कर प्रायेजित इंटरव्यू प्रसारित करने का षडयंत्र रचा गया। परन्तु छल से तैयार किया गया इंटरव्यू के वे महत्वपूर्ण भाग लीक हो गये, जिन्हें छुपाया जाना था। सारे किये धरे पर पानी फिर गया। अब चारों ओर प्रशंसा के बजाय किरकिरी हो रही है। श्रीमान नौटंकीबाज अरविन्द केजरीवाल को सफार्इ देते नहीं बन रहा है। मोदी के रथ को रोकने के प्रयास में स्वयं घायल हो गये। पार्टी में खलबली मची हुर्इ है। अच्छे-अच्छे नेताओं का मोहभंग हाने लगा है। चार-पांच प्रबुद्ध व्यकित ही अब पार्टी में रह गये हैं, बाकि सब धीरे-धीरे किनारा कर रहे हैं।
परन्तु दुखद बात यह है कि भारत का एक प्रमुख समाचार समूह जिसने काफी प्रतिष्ठा अर्जित की है, केजरीवाल के साथ किसी राजनीतिक षडयंत्र में समिमलित हो जाय, यह व्यथीत करता है। मीडिया की विश्वसनीयता घटाता है। ऐसा आभास होता है कि कहीं देश के दुश्मन, जो भारत को निरन्तर असिथर करने में लगे हैं, अपने धन के प्रभाव से किसी मीडिया समूह और राजनेता को मोहरा बना कर अपने घृणित उद्धेश्यों की पूर्ति में तो नहीं लगे हैं ?
अरविंद केजरीवाल मात्र भाजपा के वोट काटने की ही राजनीति कर रहे हैं। उन्हें न तो चुनाव जीतना है और न ही सरकार बनानी है। वे किसी के मोहरे हैं। छल-प्रपंच की राजनीति करना ही उनका प्रमुख ध्येय है। भारत की जनता को ऐसे लोगों की बातों में आ कर भ्रमित नहीं होना चाहिये। इनका पूर्णतया तिरस्कार करने से ही भविष्य में ऐसाी घृणित और निकृष्ट राजनीति पर विराम लगाया जा सकता है।

Saturday, 1 February 2014

गुजरात दंगो का जिक्र करने के पहले अन्य प्रश्नों के जवाब दों

अपने कुशासन की विफलताओं के बोझ से चुनावी वैतरणी पार करने में यूपए- दो, असहाय नज़र आ रहा है। त्रसत जनता नाराज है। वोटों का गणित बिगड़ रहा है। अब जनता को लुभाने के दो ही उपाय है- झूठे विज्ञापन और गुजरात दंगों की याद। शासद डूबते को ये दो तिनके सहारा दे दें, इसी आशा में विज्ञापनों का सैलाब उमड़ रहा है। गुजरात दंगो की बार-बार याद दिलाई जा रही है। जबकि कर्इ आयोग की रिपोर्ट और न्यायालयों के निर्णय आ गये। मोदी की संदिग्ध भूमिका साबित नहीं हुई, जिससे उन्हें कठघरे में खड़ा किया जा सके। परन्तु गुजरात दंगों की याद दिलाये बिना  रह नहीं सकते। क्योंकि इसके अलावा पास कुछ है ही नहीं। सिर्फ विफलताओं का बोझ है, जिसे ढ़ो नहीं पा रहे हैं।
गुजरात बारह वर्ष से शांत है। एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं। दंगों से एक भी मौत नहीं। सर्वत्र शांति। भाई-चारा। विकास और समृद्धि। गुजरात दंगों की त्रासद गाथा भूल चुका है। परन्तु देश को बार-बार याद दिलाने की कवायद चल रही है। भले ही गुजरात में पावं जमाने में असफल रहे। चार प्रदेशों में गुजरात दंगों का कोई असर नहीं दिखा, परन्तु अगले चुनावों में अपनी साख बचाने के लिए यही मात्र एक सहारा दिखाई दे रहा है। देश को सुशासन और जवाबदेय शासन देना जरुरी नहीं है। इस समय जरुरी यही है कि किसी भी तरह मोदी को रोका जाय।
गुजरात अतीत है। उसे कुरेदने से अब वहां कुछ नहीं मिलेगा, किन्तु यूपी ओर असम तो वर्तमान है। इन दोनों प्रदेशों में साम्प्रदायिक वैमनस्य की आग बुझी नहीं है। इस आग को कुरेदोगे तो वहां जलते हुए अंगारे ही मिलेंगे। मुजफ्फरनगर कैंपों से अब भी करुण सिसकियों सुनाई दे रही है। असम में मौतों का सिलसिला थमा नहीं है। सियासत ने लोगों के दिलों में इतनी दूरियां बना दी है कि उन्हें जोड़ना असम्भव लग रहा है। फिर इन दोनो प्रदेशों के दंगों की याद दिला कर वोटो का जुगाड़ करने के लिए क्यों नहीं सोचा जा रहा है ? क्या यहां मौते नहीं हुई है ? क्या इन दोनो प्रदेशों में प्रशासन दंगों को रोकने में विफल नहीं रहा है ? क्या गोगोई और अखिलेश पर प्रशासनिक विफलता का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था ? क्या इन दोनों प्रदेश में हुए दंगों की न्यायिक जांच नहीं करायी जा सकती थी ? मानव आयोग जो गुजरात में इतना सक्रिय था, इन दोनों प्रदेशों के मामले वह निष्क्रिय क्यों रहा है ? क्या दोनो प्रदेशों के दंगे मानवीय त्रासदी नहीं है ? क्या यहां मानवता हैवानियत के समक्ष पराजित नहीं हुई है ? फिर मानव आयोग क्यों चुप है ?
यदि मौतो का हिसाब किताब करना  है, तो पहले 1984 में चार हज़ार सिखों का कत्ल करने वाले हत्यारों को फांसी पर चढ़ाओ। गुजरात दंगो पर अनगिनित जांच कार्यवाहियां और अन्य दंगों पर मात्र लिपा पोती। छल राजनीति की इंतिहा हो गयी है। यदि मानवीय त्रासदी पर सजा सुनानी है, तो पिछले दस वर्षों में आतंकी घटनाओं में मारे गये निर्दोष नागरिकों की मौत का कौन जिम्मेदार है ? क्या प्रशासनिक विफलता के लिए देश का गृहमंत्री दोषी नहीं है ? फिर क्यों नहीं गृहमंत्री को अपराधी ठहराते हुए उसके विरुद्ध मुकदमा चलाया जा रहा है ? देश में गेहूं सड़ता है, फिर भी लोग भूख से मरते हैं। क्या इसके लिए प्रशासन दोषी नहीं है ? देश का पेट भरने वाला किसान आत्महत्या करता है, क्योंकि शासकीय नीतियों ने उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया। क्या नीतियां बनाने वाले शासक देश भर में हुई किसानों की हत्याओं के दोषी नहीं है ? नागरिक यदि सरकार की प्रशासनिक नाकामियों के कारण मरते हैं, तो कोई भी सरकार अपने गुनाह से बच नहीं सकती। अत: केवल गुजरात दंगो में हुई मौतों का हिसाब लगाने के पहले अनेक कारणों से देश भर में हुई मौतों का भी हिसाब दों और अपराधियों को सजा सुनाओं।
सियासत सिर्फ वोटों का गुणा भाग करती हैं। सियासत उस वैश्या के समान है, जिसे मानवीय संवेदनाओं से कोई मतलब नहीं। उसे सिर्फ अपने शरीर को बेचने के लिए ग्राहक ढूंढने हैं। इसीलिए सियासत में मानवीय करुणा का कोई स्थान नहीं होता, उसे सिर्फ अपने वोटों की चिंता होती है। असम और यूपी के दंगों का जिक्र करने से वोटों का लाभ नहीं होता, वरन खोने का भय रहता है, इसीलिए इस पर चुप्पी साधे रहते हैं, परन्तु गुजरात के इतिहास को बार-बार याद दिलाने के लिए थकते नहीं, क्योंकि ऐसा करने से वोट पाने की आशा रहती है।  क्या हमारे राजनेताओं के लिए वोटों का जुगाड़ करना ही महत्वपूर्ण रह गया है ? देश की गरीबी, अभाव, भ्रष्टाचार, बैरोजगारी, महंगाई, आद्योगिक पिछड़ापन जैसे विषयों को उठा कर क्यों नहीं वोटो का जुगाड किया जाता है ? क्या ये सारे विषय देश की प्रगति और खुशहाली के लिए आवश्यक नहीं है ?
गुजरात त्रासदी को ले कर मन में इतनी ही पीड़ा है, फिर उन कश्मीरी पंड़ितो के दर्द से व्यथीत क्यों नहीं होते हैं, जो पच्चीस वर्ष से अपना घर बार छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं ? क्या उनकी पीड़ा मानवीय प्रश्न नहीं है ? गुजरात त्रासदी के पीड़ित, तो अब इस दुनियां में नहीं हैं, किन्तु कश्मीरी पंडित तो अभी दुनियां में हैं। उनके आंसू पौंछने के लिए राजनीतिक दल क्यों नहीं उनके पास जाते ? क्यों राजनीतिक दलों के नेताओं की जबान उनके प्रति सहानुभूति दर्शाने के लिए कांपती है ? क्यों मानव आयोग उनसे परहेज करता है ? क्या वे मानव नहीं है ? क्या उनकी समस्याएं मानवीय नहीं है ? दुनियां में ऐसा पहला कंलकित  उदाहरण है, जिसमें नागरिक अपने ही देश में शरणार्थी बन कर रह रहे हैं।  बारह वर्ष पूर्व गुजरात दंगों के दुख से दुबली हो रही सरकार इस समस्या का पच्चीस वर्ष से कोई हल नहीं खोज पायी है। वोटों के लिए राजनेता कितना नीचे गिर सकते हैं, इसे मात्र एक उदाहरण से समझा जा सकता है। देश में एक नयी राजनीतिक दुकान खुली है। उसके एक बड़े नेता कश्मीर से सेना हटाने और कश्मीर को पाकिस्तान को दे देना का विचार सार्वजनिक रुप से प्रकट करने में नहीं हिचकिचाते, परन्तु कश्मीरी पंड़ितों के बारे में कुछ भी बोलने के पहले उनकी जबान को लकवा मार जाता है।
वोटों के हानि- लाभ की सियासत ने महावीर और बुद्ध के देश में मानवीय करुणा के स्त्रोत को सुखा दिया है। जीव मात्र के प्रति दया दिखाने वाला देश बंगलादेश में हिन्दुओं के नरसंहार पर चुप है। योजनाबद्ध तरीके से पाकिस्तान में हिन्दु युवतियों के शील भंग के घटनाक्रमक को ले कर पूरा देश मौन है। जो विषय दुनियां भर के अखबारों की खबर बन रहा है, किन्तु हमारे अखबार ऐसी खबरों को छापने से परहेज करते हैं। केजरीवाल के बुखार और खांसी को खबर बनाने वाले न्यूज चेनल जानबूझ कर ऐसी मानवीय त्रासदी को छुपाते हैं। वजह साफ है, जिस काम में वोटों का लाभ नहीं होता, उसमें चुप रहना ज्यादा अच्छा रहता है। जहां वोटों के किंचित भी लाभ की सम्भावना रहती है, उस मामले को पूरे जोर-शोर से उठाया जाता है। हमारे राजनीतिक दलों ने गुजरात दंगों का जानबूझ कर अन्र्तराष्ट्रीयकरण करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, किन्तु पाकिस्तान और बंगलादेश के घटनाक्रम पर सारे राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं। सियासत का यह दोगलापन यह दर्शाता है कि राजनेताओं के लिए वोटों का ही ज्यादा महत्व है, मानवीय करुणा और दया का उनके मन में कोई स्थान नहीं। अत: गुजरात दंगो को बार-बार ज़िक्र करने के पीछे उनके मन में उस मानवीय त्रासदी के प्रति  करुणा और दया का भाव  नहीं है, वरन वोट पाने का लालच ही है। अपनी कुशासन की विफलताओं को छुपाने के लिए गुजरात दंगों के जिक्र के अलावा उनके पास कोई चारा ही नहीं बचा है।