अतिशय आत्ममुग्धता के रोग ने भाजपा को 2004 में सत्ता से बाहर किया और
इसी बीमारी ने 2009 में पुनः सत्तारुढ होने की आशा पर तुषारापात कर दिया।
नरेन्द्र मोदी ने कठोर परिश्रम के बलबूते भाजपा को अपने बल पर सत्ता में
आने का ऐहिहासिक मौका दिया है, जिसका पूरा श्रेय उन्हें ही जाता है। यदि
इतना ही परिश्रम भाजपा के दर्जन भर शीर्ष नेता 2004 और 2009 में करते, तो
भारत की जनता को दस वर्षों तक एक अकर्मण्य और भ्रष्ट सरकार का भार नहीं
ढोना पड़ता। देश की प्रगति अवरुद्ध नहीं होतीं। कांग्रेस ने देश को जिस
दयनीय स्थिति में छोड़ा है, उसकी जिम्मेदारी भाजपा नेताओं की आत्ममुग्धता
और बैठे बिठाये ही सफलता हांसिल करने का गरुर है।
यदि भाजपा ऐतिहासिक जीत की खुमारी में नहीं डूबी होती, तो उतराखंड में उसकी सरकार बन जाती। नीतीश-लालू की अवसरवादी जोड़ी बनते ही टूट जाती। कर्नाटक के मुख्यमंत्री को जीवनदान नहीं मिलता। मीडिया को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि मोदी की लोकप्रियता को अब ग्रहण लग गया है। मोदी के अच्छे दिन एक दुःस्वपन बन कर रह गये हैं। जिन राजनीतिक दलों को लोकसभा चुनावों में अपमानजनक पराजय झेलनी पड़ी है, उनके चेहरे पर नूर नहीं लौटता। महा गठबंधन बना कर भाजपा को रोकने की रणनीति पर मंथन नहीं करते।
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश को वर्षों बाद एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जिसके मन में देश के लिए कुछ कर गुजरने की तड़फ है। वे अथक परिश्रम से देश की दुर्दशा को सुधारने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं। उनके पास अपना एक विशिष्ट विज़न है। नयी नीतियां और योजनाओं को लागू करने की दृढ़ इच्छा शक्ति है। मोदी का व्यक्तित्व इतना विराट हो गया है कि उनके द्वारा उठाये गये हर नये कदम और उनके निर्णय को अब गम्भीरता से लिया जाता है। बुद्धिजीवी उसकी गहन समीक्षा करते हैं।
देश अव्यवहारिक और बोझिल कानूनों और नीतियों की त्रासदी भोग रहा है। प्रशासनिक व्यवस्था लच्चर, अकर्मण्य और भ्रश्टाचार में आकंठ डूबी है। राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपतियों और सरकारी कर्मचारियों के लिए यह देश स्वर्ग बना हुआ है, वहीं अस्सीं प्रतिशत जनता नारकीय जीवन जी रही है। हर घर की अपनी समस्याएं हैं। अपनी दुखभरी व्यथा है। गरीबी और अभावों की पीड़ा हैं। सतसठ वर्ष की बर्बादी को दुरुस्त करना है, किन्तु समय बहुत कम हैं। पांच वर्ष की अवधि भी एक सरकार के लिए कम हैं, किन्तु मोदी ने जनता के मन में इतनी आशाएं जगा दी है कि उसे आज अच्छें दिन चाहियें, जबकि ऐसा कुछ दिनों और कुछ महीनों में नामुमकिन है।
यह सही है कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वे देश की जनता के लिए ही कर रहे हैं, किन्तु जनता को उनके कार्यों को समझने की क्षमता नहीं है। पीडि़त जनमानस कष्ट सहता हुआ भीतर से इतना टूट चुका हैं कि यदि उसे तुरन्त सुखद परिणाम नहीं मिलें तो वह सरकार विरोधियों की इन बातों में आ जायेगा कि उन्हें छला गया है। मजबूरी का फायदा उठा कर उन्हें झूठे सपने दिखायें गये हैं। अच्छे दिन लाने का वादा मात्र नारा हैं, जिसे राजनीतिक ठगी कहा जा सकता है।
मोदी सरकार का अब तक का काम संतोषप्रद माना जा रहा है, किन्तु महंगाई और भ्रष्टाचार दोनों ही मार्चों पर अपेक्षित सफलता नहीं मिलने पर सरकार विरोधी राजनीतिक दल सरकार को कठघरें में खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। यदि नयी सरकार स्तारुढ़ होते हीे देशभर में फैली हुई काले धन की अथाह सम्पति के साम्राज्य पर वज्रपात करती, तो उसकी विश्वसनीयता और लोकप्रियता बढ़ जाती। उसे सिर्फ पिछले दस वर्षों में शहरी जमीन या प्रोपर्टी की खरीद फरोख्त में लगे हुए लोगों की जानकारी जुटानी थी, जो सरकारी रिकार्ड खंगालने पर आसानी से उपलबध हो जाती। अब तक अरबो रुपयों की अघोषित सम्पति का पत्ता लग जाता। यदि सरकार ज्यादा गहराई में उतरती तो केई चेहरे बेनकाब हो जाते। पूरे देश में हड़कम्प मच जाता। अच्छे दिन लाने के वादे का जो इन दिनों मज़ाक उड़ा रहे हैं, उनकेे मुहं पर ताले जड़ जाते, क्योंकि जो लपेटे में आते उनमे से कई एक उनके अपने ही होते।
जेटलीे जी ने चिदम्बर की नौकरशाही से जो बजट बनवाया, उसमें पिछली सरकार की अलोकप्रिय नीतियों की छाप थी। डिजल पर सब्सिड़ी घटा रहे हैं, तो उस पर केन्द्र और राज्य सरकारों के टेक्स लगे हुए हैं, वे भी तो कम किये जा सकते थे। यदि डिजल सस्ता होता, तो महंगाई घट जाती और आम जन को लगता कि वास्तव में मोदी जी के आते ही अच्छे दिन आने की शुरुआत हो गयी है। इसी तरह चिदम्बर की स्वर्ण आयात की नीति भी दोषपूर्ण है, जिसकी समीक्षा किये बिना ही उसे ज्यों का त्यों लागू रहने देना एक गलत निर्णय था।
मनरेगा और खाद्यसुरक्षा योजनाएं भ्रष्टाचार की खाने हैं। इन योजनाओं से वंचित समाज से ज्यादा बिचोलिये मालामाल हुए हैं। इन दोनों योजनाओं की पुनः समीक्षा करने तक रोक लगायी जा सकती थी। ऐसा होने पर सरकारी खजाने का घाटा कम हो जाता और महंगाई पर यकायक विराम लग जाता। केरोसिन पर सब्सिडी का लाभ मात्र दस प्रतिशत परिवारों को मिलता है, नब्बे प्रतिशत केरोसिन ब्लेक में बिकता है, जिसका पूरे देश में डिजल में मिलावट के लिए उपयोग किया जा रहा है। वंचित परिवारों को न्यूनतम दरों पर कैरोसिन दिलाने की नीति में बदलाव लाना चाहिये।
भाजपा के लिए अपने बलबूते सरकार बनाना संतोष और गर्व की बात हो सकती है, किन्तु जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरना और अपने कार्यों से जनता का दिल जीतना भी आवश्यक है। मोदी दिन रात देश के लिए काम कर रहे हैं, किन्तु पार्टी यदि आत्ममुग्धता की खुमारी में डूबी रहेगी और जनता से जुड़ कर उसकी नब्ज टटोलने का प्रयास नहीं करेगी, तो सरकार द्वारा किये जा रहे कार्यों का अपेक्षित परिणाम दिखाई नहीं देंगे। यदि पार्टी कायकर्ताओं से फिड बेक ले कर भाजपा नेता सरकार को समय पर सही परामर्श देते, तो महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार ठोस कदम उठा सकती थी।
खैर, अभी पानी सिर से ऊपर से नहीं निकला है। उपचुनाव में विधानसभा की कुछ सीटे हारने से केन्द्र सरकार की नाकायाबी नहीं माना जसकता, किन्तु इसे खतरे की घंटी अवश्य कहा जा सकत है। यह तो समझ आ रहा है कि भाजपा नेता उपचुनावों के दौरान जनता को सही ढंग से अपनी बात नहीं समझा सकें या उन्होंने चुनाव जीतने के लिए परिश्रम ही नही किया। वे यह मान कर बैठ गये कि विपक्ष की हालत बहुत खराब हैं। हम मोदी लोकप्रियता की लहर पर बैंठे हैं, जिसके सहारे आसानी से वैतरणी पार कर लेंगे।
भाजपा नेताओं को इस हकीकत को स्वीकार कर लेना चाहिये कि विपक्ष कमज़ोर हुआ है, समाप्त नहीं हुआ है। पार्टी यदि आत्ममुग्धता को छोड़ कर जनता के साथ खड़ी होगी और उसकी तकलीफो से सरकार को अवगत कराती रहेगी, तो मोदी सरकार के लिए अगले पांच साल और बढ़ा देगी, अन्यथा पांच साल के बाद ही पार्टी को फिर सता बनवास भोगना पड़ेगा, जो भारत की जनता के लिए एक दुर्भाग्यजनक स्थिति होगी, क्योंकि वर्तमान सरकार यदि दस वर्षो तक पूर्ण मनायोग और प्रतिबद्धता से काम करती रहेगी, तभी एक समृद्ध, खुशहाल और विकसित भारत का सपना साकार हो पायेगा, अन्यथा फिर उन्ही ठगों और लुटेरों को देश सौंपा जा सकता हैं, जो देश को बदहाल स्थिति में छोड़ कर गये हैं।
यदि भाजपा ऐतिहासिक जीत की खुमारी में नहीं डूबी होती, तो उतराखंड में उसकी सरकार बन जाती। नीतीश-लालू की अवसरवादी जोड़ी बनते ही टूट जाती। कर्नाटक के मुख्यमंत्री को जीवनदान नहीं मिलता। मीडिया को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि मोदी की लोकप्रियता को अब ग्रहण लग गया है। मोदी के अच्छे दिन एक दुःस्वपन बन कर रह गये हैं। जिन राजनीतिक दलों को लोकसभा चुनावों में अपमानजनक पराजय झेलनी पड़ी है, उनके चेहरे पर नूर नहीं लौटता। महा गठबंधन बना कर भाजपा को रोकने की रणनीति पर मंथन नहीं करते।
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश को वर्षों बाद एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जिसके मन में देश के लिए कुछ कर गुजरने की तड़फ है। वे अथक परिश्रम से देश की दुर्दशा को सुधारने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं। उनके पास अपना एक विशिष्ट विज़न है। नयी नीतियां और योजनाओं को लागू करने की दृढ़ इच्छा शक्ति है। मोदी का व्यक्तित्व इतना विराट हो गया है कि उनके द्वारा उठाये गये हर नये कदम और उनके निर्णय को अब गम्भीरता से लिया जाता है। बुद्धिजीवी उसकी गहन समीक्षा करते हैं।
देश अव्यवहारिक और बोझिल कानूनों और नीतियों की त्रासदी भोग रहा है। प्रशासनिक व्यवस्था लच्चर, अकर्मण्य और भ्रश्टाचार में आकंठ डूबी है। राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपतियों और सरकारी कर्मचारियों के लिए यह देश स्वर्ग बना हुआ है, वहीं अस्सीं प्रतिशत जनता नारकीय जीवन जी रही है। हर घर की अपनी समस्याएं हैं। अपनी दुखभरी व्यथा है। गरीबी और अभावों की पीड़ा हैं। सतसठ वर्ष की बर्बादी को दुरुस्त करना है, किन्तु समय बहुत कम हैं। पांच वर्ष की अवधि भी एक सरकार के लिए कम हैं, किन्तु मोदी ने जनता के मन में इतनी आशाएं जगा दी है कि उसे आज अच्छें दिन चाहियें, जबकि ऐसा कुछ दिनों और कुछ महीनों में नामुमकिन है।
यह सही है कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वे देश की जनता के लिए ही कर रहे हैं, किन्तु जनता को उनके कार्यों को समझने की क्षमता नहीं है। पीडि़त जनमानस कष्ट सहता हुआ भीतर से इतना टूट चुका हैं कि यदि उसे तुरन्त सुखद परिणाम नहीं मिलें तो वह सरकार विरोधियों की इन बातों में आ जायेगा कि उन्हें छला गया है। मजबूरी का फायदा उठा कर उन्हें झूठे सपने दिखायें गये हैं। अच्छे दिन लाने का वादा मात्र नारा हैं, जिसे राजनीतिक ठगी कहा जा सकता है।
मोदी सरकार का अब तक का काम संतोषप्रद माना जा रहा है, किन्तु महंगाई और भ्रष्टाचार दोनों ही मार्चों पर अपेक्षित सफलता नहीं मिलने पर सरकार विरोधी राजनीतिक दल सरकार को कठघरें में खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। यदि नयी सरकार स्तारुढ़ होते हीे देशभर में फैली हुई काले धन की अथाह सम्पति के साम्राज्य पर वज्रपात करती, तो उसकी विश्वसनीयता और लोकप्रियता बढ़ जाती। उसे सिर्फ पिछले दस वर्षों में शहरी जमीन या प्रोपर्टी की खरीद फरोख्त में लगे हुए लोगों की जानकारी जुटानी थी, जो सरकारी रिकार्ड खंगालने पर आसानी से उपलबध हो जाती। अब तक अरबो रुपयों की अघोषित सम्पति का पत्ता लग जाता। यदि सरकार ज्यादा गहराई में उतरती तो केई चेहरे बेनकाब हो जाते। पूरे देश में हड़कम्प मच जाता। अच्छे दिन लाने के वादे का जो इन दिनों मज़ाक उड़ा रहे हैं, उनकेे मुहं पर ताले जड़ जाते, क्योंकि जो लपेटे में आते उनमे से कई एक उनके अपने ही होते।
जेटलीे जी ने चिदम्बर की नौकरशाही से जो बजट बनवाया, उसमें पिछली सरकार की अलोकप्रिय नीतियों की छाप थी। डिजल पर सब्सिड़ी घटा रहे हैं, तो उस पर केन्द्र और राज्य सरकारों के टेक्स लगे हुए हैं, वे भी तो कम किये जा सकते थे। यदि डिजल सस्ता होता, तो महंगाई घट जाती और आम जन को लगता कि वास्तव में मोदी जी के आते ही अच्छे दिन आने की शुरुआत हो गयी है। इसी तरह चिदम्बर की स्वर्ण आयात की नीति भी दोषपूर्ण है, जिसकी समीक्षा किये बिना ही उसे ज्यों का त्यों लागू रहने देना एक गलत निर्णय था।
मनरेगा और खाद्यसुरक्षा योजनाएं भ्रष्टाचार की खाने हैं। इन योजनाओं से वंचित समाज से ज्यादा बिचोलिये मालामाल हुए हैं। इन दोनों योजनाओं की पुनः समीक्षा करने तक रोक लगायी जा सकती थी। ऐसा होने पर सरकारी खजाने का घाटा कम हो जाता और महंगाई पर यकायक विराम लग जाता। केरोसिन पर सब्सिडी का लाभ मात्र दस प्रतिशत परिवारों को मिलता है, नब्बे प्रतिशत केरोसिन ब्लेक में बिकता है, जिसका पूरे देश में डिजल में मिलावट के लिए उपयोग किया जा रहा है। वंचित परिवारों को न्यूनतम दरों पर कैरोसिन दिलाने की नीति में बदलाव लाना चाहिये।
भाजपा के लिए अपने बलबूते सरकार बनाना संतोष और गर्व की बात हो सकती है, किन्तु जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरना और अपने कार्यों से जनता का दिल जीतना भी आवश्यक है। मोदी दिन रात देश के लिए काम कर रहे हैं, किन्तु पार्टी यदि आत्ममुग्धता की खुमारी में डूबी रहेगी और जनता से जुड़ कर उसकी नब्ज टटोलने का प्रयास नहीं करेगी, तो सरकार द्वारा किये जा रहे कार्यों का अपेक्षित परिणाम दिखाई नहीं देंगे। यदि पार्टी कायकर्ताओं से फिड बेक ले कर भाजपा नेता सरकार को समय पर सही परामर्श देते, तो महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार ठोस कदम उठा सकती थी।
खैर, अभी पानी सिर से ऊपर से नहीं निकला है। उपचुनाव में विधानसभा की कुछ सीटे हारने से केन्द्र सरकार की नाकायाबी नहीं माना जसकता, किन्तु इसे खतरे की घंटी अवश्य कहा जा सकत है। यह तो समझ आ रहा है कि भाजपा नेता उपचुनावों के दौरान जनता को सही ढंग से अपनी बात नहीं समझा सकें या उन्होंने चुनाव जीतने के लिए परिश्रम ही नही किया। वे यह मान कर बैठ गये कि विपक्ष की हालत बहुत खराब हैं। हम मोदी लोकप्रियता की लहर पर बैंठे हैं, जिसके सहारे आसानी से वैतरणी पार कर लेंगे।
भाजपा नेताओं को इस हकीकत को स्वीकार कर लेना चाहिये कि विपक्ष कमज़ोर हुआ है, समाप्त नहीं हुआ है। पार्टी यदि आत्ममुग्धता को छोड़ कर जनता के साथ खड़ी होगी और उसकी तकलीफो से सरकार को अवगत कराती रहेगी, तो मोदी सरकार के लिए अगले पांच साल और बढ़ा देगी, अन्यथा पांच साल के बाद ही पार्टी को फिर सता बनवास भोगना पड़ेगा, जो भारत की जनता के लिए एक दुर्भाग्यजनक स्थिति होगी, क्योंकि वर्तमान सरकार यदि दस वर्षो तक पूर्ण मनायोग और प्रतिबद्धता से काम करती रहेगी, तभी एक समृद्ध, खुशहाल और विकसित भारत का सपना साकार हो पायेगा, अन्यथा फिर उन्ही ठगों और लुटेरों को देश सौंपा जा सकता हैं, जो देश को बदहाल स्थिति में छोड़ कर गये हैं।