Friday 4 April 2014

तुष्टीकरण नहीं, हमे बेहतर कल की गारन्टी चाहिये

गुजरात के घाव अब सूख गये हैं, किन्तु वोटों के लिए अब भी उन्हें कुरेदने से बाज नहीं आ रहे हैं। जबकि मुजफ्फरनगर के ताजा घाव तो रिस रहें हैं, उन पर मरहम लगाने के लिए परहेज कर रहे हैं ? सरेआम बोटी-बोटी काटने वाले को क्षमादान और न्यायालय द्वारा नरेन्द्र मोदी को निर्दोष साबित करने पर भी अपराधी ठहराने की हठधर्मिता, यह किस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता है ? कब तक तुष्टीकरण के बहाने सच को सच और झूठ को झूठ कहने से परहेज किया जाता रहेगा ? क्या धर्मनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ वोटों की सियासत ही है ? यदि इसका उत्तर ‘हां’ है, तो निश्चित रुप से सियासी लाभ के लिए एक समुदाय विशेष को देश की समस्याओं से अलग किया जा रहा हैं। क्या महंगाई की पीड़ा सभी नागरिकों को नहीं झेलनी पड़ रही है ? क्या सरकारी भ्रष्टाचार से सभी को मुक्ति नहीं चाहिये ? क्या सभी को देश का विकास नहीं चाहिये ? बेहतर भविष्य की गारन्टी नहीं चाहिये। कब तक नागरिकों की अहमियत को केवल वोट बैंक से ज्यादा नहीं समझा जायेगा ? क्या भारतीय अल्मपंसख्यक थोक वोटों की मंड़ी है, जिन्हें जनावरों की तरह अपने पक्ष में वोट देने के लिए हमेशा हांका जाता रहेगा ? जब पूरा देश व्यवस्था परिवर्तन के लिए उत्कंठित है, तब ऐसा क्यों माना जा रहा है कि कुशासन व भ्रष्ट शासन से पीडि़त होने के बाद भी वह विकास और बेहतर भविष्य के नाम पर भारत का अल्पसंख्यक समुदाय अन्य पार्टी को वोट नहीं देगा ? यह क्यों माना जा रहा है कि अलपसंख्यक समुदाय हमारी जागीरी हैं और ये हमेशा हमे ही वोट देते रहेंगे ?
दुर्भाग्य से आज़ादी के छियांसठ वर्ष बाद भी अपने क्षुद्र सियासी लाभ के लिये अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक विशेषण लगा कर भारतीय नागरिकों की नागरिकता के विभाजन को अक्षुण्ण रखा जा रहा है। क्यों धर्म के आधार पर नागरिकों की पहचान को विभाजित रखा जा रहा है ? जबकि भारतीय संस्कृति तो विश्व को ही अपना कुटुम्ब मानती है, फिर उपासना पद्धति के आधार पर नागरिकों का कैसे विभाजन किया जा सकता है ? लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जब तक देश के नागरिकों की नागरिकता विभाजित की जाती रहेगी, उसके सुफल नहीं मिल पायेंगे। अयोग्य और निकृष्ट लोग वोट बैंक के आधार पर राजनेता बनते रहेंगे, क्योंकि बेहतर कार्यों से नहीं, जवाबदहेही निभाने से नहीं, वरन तुष्टीकरण के बहाने उन्हें राजनीतिक शक्ति मिलती रहेगी।
हम इस मिथक को तोड़ सकते हैं। हमे उन्हें कह सकते हैं, ‘तुष्टीकरण नहीं, बेहतर भविष्य की गारन्टी दीजिये । हमें अपनी समस्याओं से निज़ात दिलाने का वचन दीजिये। सुशासन का वादा कीजिये। अतः सियासत भले ही हमे अपने मतलब के लिए अलग करती रहे, परन्तु अब हमारे बीच खड़ी की गयी नफरत और अविश्वास की दीवारों को तोड़ कर राष्ट्रहित में एक होना होगा। क्योंकि सामुहिक निर्णय से ही भ्रष्ट शासन व्यवस्था बदली जा सकती है। अपने सियासी लाभ के लिए कोई राजनीतिक दल सुरक्षा के नाम पर जानबूझ कर भ्रमित कर भयभीत करने का प्रयास करेगा, हम एकजुट हो कर उसके घृणित प्रयास को निष्फल कर देंगे।
क्योंकि हम सब एक हैं। न अल्पसंख्यक हैं, न बहुसंख्यक हैं, हम एकसंख्यक भारतीय हैं। हमारे पुुरखे यहीं जनमे। इसी माटी में उन्हें दफनाया या जलाया गया। हमारा जन्म भी यहीं हुआ। हमे एक साथ यहीं जीना और मरना है। यह देश हमारा है। हम सभी भारतीय नागरिक हैं। हमारे दुख-सुख एक से हैं। हमारी समस्याएं साझा हैं। हम मिल कर ही अपनी समस्याओं का समाधान खोज सकते हैं। यदि हम एक हो कर अपने बेहतर भविष्य के लिए निर्णय लेंगे, तो भारत की राजनीतिक व्यवस्था बदल जायेगी। अपनी काबलियत के बाजय वोट बैंक के सहारे चुनाव जीतने की निकृष्ट कोशिश समाप्त हो जायेगी। भारत की राजनीति की फिज़ा बदल जायेगी।
आज़ादी के बाद कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों की रहनुमा बन कर पांच तोहफे दिये- ‘ असुरक्षा, अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ापन और मजहबी जुनून। ये तोहफे कांग्रेस के लिए वरदान साबित हुए, जिससे वर्षों तक उसे मुसलममानों के थोक वोट मिलते रहें और वह सत्ता सुख भोगती रही। अपनी अर्कमण्यता को छुपा कर चुनाव जीतने का आसान नुस्खा हाथ लग गया था। परन्तु जब उन्हें अहसास हुआ कि जो तोहफे उन्हें दिये गये थे, वे दरअसल श्राप थे, जिसके कारण उनकी हालत बद से बदत्तर हो गयी है। कांग्रेस से जब तक मोहभंग हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कुछ प्रदेशों में उनके आंसू पौंछने के लिए नये रहनुमा आ गये, परन्तु पूरे देश में मजबूरन उन्हें कांग्रेस पर ही भरोसा करना पड़ा।
पिछले बीस वर्षों से नये रहनुमाओं को भी परखा जा चुका है। उन्हें अपने श्रापों से मुक्ति नहीं मिली है। अलबता श्राप भी नये रहनुमाओं की सियासत के लिए आवश्यक हो गये। उनकी निगाहों में भी मुसमानों की अहमितयत वोट बैंक से ज्यदा नहीं हैं। पूरे देश में जब शांति हैं और कहीं पर साम्प्रदायिक तनाव नहीं हैं, तब अपनी अकर्मण्यता को छुपाने के लिए जानबूझ कर अखिलेश सरकार ने मुजफ्फर नगर के घाव दिये, ताकि अगले चुनावों में मुस्लिम समुदाय के मन में असुरक्षा के भाव जगा गर उनके थोक वोट लिये जा सकें। मुजफ्फर नगर त्रासदी यह नसहीहत देती है कि सियासत किसी की सगी नहीं होती। नागरिक तो सियासी  चौसर के बेजान मोहरे हैं, जिनका उपयोग बाजियां जीतने के लिए किया जाता है।
साम्प्रदायिक विद्वेस की आग जलाना, भड़काना और नागरिकों को आग में झुलसने के लिए छोड़ देन कीे कोशिश भारतीय सियासत की सबसे गंदी तस्वीर है। अखिलेश सरकार ने जो पाप किया है, वह अक्षम्य है, किन्तु फिर भी बड़ी बेशर्मी से अपने गुनाहों को कबूल करने के बजाय अपने आपको अब भी मुसलमानों का सबसे बड़ा रहनुमा घोषित करने की अभद्र कोशिश की जा रही है। परन्तु अखिलेश सरकार अपना असली रुप उजागर कर चुकी है, जो राजनैताओं से सावधान रहने की चेतावनी देते हुए कहती हैं, उन्हें चुनों जो योग्य हो, सक्षम हो, जिम्मेदारी निभाने की क्षमता रखते हों, उन्हें नहीं, जो वोट बैंक के सहारे ही सता सुख का लुत्फ उठाने के लिए प्रतिबद्ध हों।
अब समय आ गया है, जब मुस्लिम समुदाय को सियासी चैसर का मात्र मोहरा नहीं बने रहना है, अपितु सभी के साथ कदम से कदम मिला कर चलना है। एक नये भारत के निमार्ण में सहयोगी बनना है। उन्हें एक ही स्वर में कहना है, हमें तुष्टीकरण नहीं, कांग्रेस द्वारा दिये गये श्राप – असुरक्षा, अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ापन और मजहबी जुनून से मुक्ति चाहिये। हमारे बच्चों को अच्छी तामिल, रोजगार और सनहरा भविष्य चाहियें। अतः हम उसी राजनीति पार्टी को वोट देंगे, जो सुशासन का वादा करेगी। समस्याओं से निज़ात दिलाने का भरोसा जगायेगी। आज की परिस्थितियों में यही मनःस्थिति देश के हित के लिए उपयुक्त होगी।

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