केदारनाथ की तबाही के बाद लोगों के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे
हैं। आखिर केदारनाथ में पहले भी बारिश होती थी, नदियां उफनती थी और पहाड़
भी गिरते थे।
लेकिन कभी भी केदारनाथ जी कभी भी इस तरह के विनाश का
शिकार नहीं बने। प्रकृति की इस विनाश लीला को देखकर कुछ लोगों की आस्था की
नींव हिल गई है। जबकि कुछ आस्थावान ऐसे भी हैं जिनकी आस्था की नींव और
मजबूत हो गयी है।
ऐसे ही आस्थावान श्रद्धालुओं की नजर में केदारनाथ पर आई आपदा के पीछे कई धार्मिक कारण हैं।
धारी माता की नाराजगी
सोशल
मीडिया में इसके कारणों पर जो चर्चा चल रही है उसके अनुसार इस विनाश का
सबसे पहला और बड़ा कारण धारी माता का विस्थापन माना जा रहा है।
भारतीय
जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता उमा भरती ने भी एक सम्मेलन में इस बात को
स्वीकार किया कि अगर धारी माता का मंदिर विस्थापित नहीं किया जाता तो
केदारनाथ में प्रलय नहीं आती। धारी देवी का मंदिर उत्तराखंड के श्रीनगर से
15 किलोमीटर दूर कालियासुर नामक स्थान में विराजमान था।
धारी देवी
को काली का रूप माना जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार उत्तराखंड के 26
शक्तिपीठों में धारी माता भी एक हैं। बांध निर्माण के लिए 16 जून की शाम
में 6 बजे शाम में धारी देवी की मूर्ति को यहां से विस्थापित कर दिया गया।
इसके ठीक दो घंटे के बाद केदारघाटी में तबाही की शुरूआत हो गयी।
अशुभ मूहुर्त
आमतौर पर चार धार की यात्रा की शुरूआत अक्षय तृतीया के दिन गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट खुलने से होती है।
इस
वर्ष 12 मई को दोपहर बाद अक्षय तृतीया शुरू हो चुकी थी और 13 तारीख को 12
बजकर 24 मिनट तक अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त था। लेकिन गंगोत्री और
यमुनोत्री के कपाट को इस शुभ मुहूर्त के बीत जाने के बाद खोला गया।
खास
बात ये हुई कि जिस मुहूर्त में यात्रा शुरू हुई वह पितृ पूजन मुहूर्त था।
इस मुहूर्त में देवी-देवता की पूजा एवं कोई भी शुभ काम वर्जित माना जाता
है। इसलिए अशुभ मुहूर्त को भी विनाश का कारण माना जा रहा है।
तीर्थों का अपमान
बहुत
से श्रद्घालु ऐसा मानते हैं कि लोगों में तीर्थों के प्रति आस्था की कमी
के चलते विनाश हुआ। यहां लोग तीर्थ करने के साथ साथ धुट्टियां बिताने और
पिकनिक मनाने के लिए आने लगे थे। ऐसे लोगों में भक्ति कम दिखावा ज्यादा
होता है।
धनवान और रसूखदार व्यक्तियों के लिए तीर्थस्थानों पर विशेष
पूजा और दर्शन की व्यवस्था है, जबकि सामन्य लोग लंबी कतार में खड़े होकर
अपनी बारी आने का इंतजार करते रहते हैं। तीर्थों में हो रहे इस भेद-भाव से
केदारनाथ धाम भी वंचित नहीं रहा।
मैली होती गंगा का गुस्सा
मंदाकिनी,
अलकनंदा और भागीरथी मिलकर गंगा बनती है। कई श्रद्धालुओं का विश्वास है कि
गंगा अपने मैले होते स्वरूप और अपमान के चलते इतने रौद्र रूप में आ गई। कहा
जाता है कि गंगा धरती पर आना ही नहीं चाहती थी लेकिन भगवान शिव के दबाव
में आकर उन्हें धरती पर उतरना पड़ा।
भगवान शिव ने गंगा की मर्यादा
और पवित्रता को बनाए रखने का विश्वास दिलाया था। लेकिन बांध बनाकर और गंदला
करके हो रहा लगातार अपमान गंगा को सहन नहीं हो पाया।
अपने साथ हो
रहे अपमान से नाराज गंगा 2010 में भी रौद्र रूप दिखा चुकी हैं जब ऋषिकेश के
परमार्थ आश्रम में विराजमान शिव की विशाल मूर्ति को गंगा की तेज लहरें
अपने प्रवाह में बहा ले गई थी।
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