लीजिये। भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) का 17 साल चला लिव इन रिलेशनशिप अब ब्रेक अप हो गया है और 2002 के गुजरत दंगों के दौरान नरेन्द्र मोदी को आँख बन्द कर समर्थन दे रहे नीतीश कुमार भी सेक्युलर हो गये हैं।
जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश
कुमार के साथ प्रेस वार्ता में गठबन्धन तोड़ने के फैसले का एलान किया और
भाजपा के सदन वाकआउट की मेहरबानी से ही नीतीश ने विधानसभा में अपना बहुमत
भी साबित कर दिया।
बहरहाल जद(यू) के ताजा रुख पर जितना मुँह उतनी बातें हैं। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार जुगनू शारदेय
ने बड़ी सटीक टिप्पणी की है- “जदयू और भाजपा को ले कर लोग, ख़ास कर अनपढ़
अख़बार, खूब लिख रहे हैं तलाक – तलाक -तलाक, शायद कुत्ता घसीटी फोंफा
पार्टी ने भी अपने बकर बकर कचर कचर में बोला हो। दोस्तो यह लिव इन
रिलेशनशिप था। बहुत साथ रह लिए अब अलग अलग रहने जा रहे हैं। तो काहे का
तलाक …”
यानी यह ब्रेक अप है तलाक नहीं। तलाक में पुनर्मिलन की कोई सम्भावना नहीं होती है और ब्रेक अप में जब जी चाहो तब लिव इन रिलेशनशिप। इसीलिये राजग की सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के नरेश गुजराल ने अपनी भलमनसाहत में कह दिया है, ‘यह अस्थायी टूट है, स्थायी नहीं।’
दरअसल जद(यू) के नेता जो तर्क दे रहे हैं वह निरपेक्ष विश्लेषकों के गले
भी उतर नहीं रहे हैं। हालाँकि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ बहुत मासूमियत से पूछ
रहे हैं कि, “क्या कारण हो गया कि आज भारतीय जनता पार्टी से जनता दल (यू)
ने रिश्ते तोड़ लिये। भारतीय जनता पार्टी ने ऐसा क्या अपराध कर दिया कि 17
वर्षों के रिश्ते को जद (यू) ने तार-तार कर दिया।” लेकिन असल सवाल यह है कि
नीतीश एण्ड कम्पनी जिस पटकथा पर काम कर रही है वह साफ तौर पर दिख रहा है
कि नागपुर से लिखी गयी है। वरना नीतीश की दलीलों पर कुछ अहम तर्क हैं।
मसलन-
जो सवाल भाजपा के सुशील मोदी ने पूछा कि – ‘जो व्यक्ति 2002 में साम्प्रदायिक हो नहीं था, आज वो व्यक्ति कैसे साम्प्रदायिक हो गया।’
सारा देश जानता है कि जब गुजरात दंगे हुये उस समय स्वयं नीतीश कुमार
राजग और भारतीय जनता पार्टी के अहम सहयोगी थे। वह समय ऐसा था जब सारा देश
मोदी की सरकार को बर्खास्त करने की माँग कर रहा था। अपने स्वयं सेवक होने पर गर्व करने वाले तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी भी कह रहे थे कि मोदी ने राजधर्म का पालन नहीं किया।
उस समय नीतीश कुमार, शरद यादव और उनके तत्कालीन नेता जॉर्ज फर्नान्डीज़ न
केवल मोदी के साथ तनकर खड़े थे बल्कि जॉर्ज तो चार हाथ आगे जाकर कह रहे थे
कि बलात्कार होते ही रहते हैं।
इतना ही नहीं जब गोधरा काण्ड हुआ नीतीश उस समय रेलमन्त्री थे। लेकिन
इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी उन्होंने एक बार भी गोधरा का न तो दौरा करना
उचित समझा न इस्तीफा दिया और न इस हादसे की कोई जाँच कराई। आखिर इसका कोई
जवाब है उनके पास।
सुशील मोदी ने तो अपनी पार्टी लाइन पर जाकर पूछा है कि जो 2002 में
साम्प्रदायिक नहीं था वह आज कैसे साम्प्रदायिक हो गया। लेकिन देश और खासकर
बिहार की जनता भी तो जानना चाहती है कि नरेन्द्र मोदी के जिस अपराध की बिना पर नीतीश आज भाजपा के साथ 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ रहे हैं वह अपराध आखिर है क्या? अगर वह अपराध 2002 के गुजरात दंगे हैं तो सवाल उठना लाजिमी है कि 2002 से लेकर आज तक नीतीश भारतीय जनता पार्टी के साथ गलबहियाँ क्यों कर रहे थे?
मुख्तार अब्बास नकवी ने जद (यू) के इस फैसले के बाद कहा जो है कि
नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार समिति का चेयरमैन बनाना पार्टी का अन्दरूनी
फैसला था, वह गलत नहीं है। सवाल यह है कि मोदी हों या अडवाणी यह तय करना
भाजपा का अन्दरूनी मसला है ठीक उसी तरह जैसे एक समय में जॉर्ज को धता बताकर
नीतीश ने शरद यादव को चुना था।
क्या नीतीश अपने इस कदम के जरिये भारतीय जनता पार्टी को पाक-साफ होने का प्रमाणपत्र देना चाहते हैं?
क्या नीतीश यह साबित करना चाहते हैं कि भारतीय जनता का साम्प्रदायिक और
उग्र हिन्दुत्व का एजेण्डा नहीं है बस नरेन्द्र मोदी ही साम्प्रदायिक और
उग्र हिन्दुत्व का एजेण्डा चला रहे हैं।
दरअसल नीतीश अपने पिछले 17 वर्षों के अपराध पर पर्दा डालने का काम कर रहे हैं। वरना जो
एजेण्डा मोदी का है वही एजेण्डा तो भारतीय जनता पार्टी का है जिसे वह
पिछले 17 वर्षों से नीतीश के जद(यू) और पूर्ववर्ती समता पार्टी के साथ चला
रही है।
सत्यता यह है कि ताजा नाटक भाजपा और जद(यू) की नूरा कुश्ती है और
इसकी पटकथा नागपुर से ही लिखी गयी है। जल्दबाजी में अपरोक्षतः नीतीश इस
बात को स्वीकार भी कर गये हैं। गठबन्धन टूटने के लिये कौन जिम्मेदार है, जब
यह सवाल नीतीश से पत्रकारों ने पूछा तो उन्होंने कहा, ‘हम जिम्मेदार नहीं
है। हमें गठबन्धन तोड़ने के लिये मजबूर किया गया है। प्रधानमन्त्री बनने के
लिये 272 सांसद चाहिये, जो कि राजग से भी नहीं होगा। ऐसी कोई आँधी नहीं
जिससे भाजपा अगले आम चुनाव में 272 सीटें जीत सके। हमें राजग से और लोगों
को जोड़ने की कोशिश करनी होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब ऐसी नौबत आ गयी थी
कि या तो आप समझौता करें या फिर बाहर जायें। ऐसे में हमने परिणाम की चिन्ता
किये बगैर बाहर होने में अपनी भलाई समझी।’
नीतीश के इस कथन में आधा सच और आधा झूठ है।
आधा सच तो यह है कि लोकसभा की 543 सीट्स में से 150 लोकसभा सीटों पर तो
भाजपा सिफर है और कुल मिलाकर उसके पास 272 सीटों पर चुनाव लड़ने योग्य
गम्भीर प्रत्याशी ही नहीं हैं। नीतीश की इस बात में दम है कि प्रधानमन्त्री बनने के लिये 272 सांसद चाहिये, जो कि राजग से भी नहीं होगा। ऐसी
कोई आँधी नहीं जिससे भाजपा अगले आम चुनाव में 272 सीटें जीत सके। बाबरी
मस्जिद/ राम जन्म भूमि विवाद से भाजपा को जितना फायदा लेना था वह ले चुकी
और उसका अधिकतम स्कोर 180 पहुँचा था। सनद् रहे तब भाजपा ने उत्तर प्रदेश
में अन्य दलों का सूपड़ा साफ कर दिया था। आज यूपी में वह दहाई का आँकड़ा भी छू जाये तो यह अद्भुत् आश्चर्य होगा।
… और नीतीश का आधा झूठ यह है कि ‘हमने परिणाम की चिन्ता किये बगैर बाहर होने में अपनी भलाई समझी।’
दरअसल परिणाम समझते हुये ही भाजपा और नीतीश ने यह नूरा कुश्ती की है और उन्हें गठबंधन तोड़ने के लिये किसी ने मजबूर नहीं किया है।
नीतीश को मालूम है कि उनके सुशासन का ढोल फट चुका है और अगर वह भाजपा के
साथ मैदान में उतरते तो उनके प्रतिद्वन्दी लालू प्रसाद यादव के राजद से
सीधा मुकाबला होता जिसमें राजद, भाजपा-जद(यू) का सफाया कर देता।
अब बहुत होशियारी के साथ दोनों ने रणनीति के तहत मुकाबले को त्रिकोणीय
बनाने का प्रयास किया है। जाहिर सी बात है कि त्रिकोणीय मुकाबले में नुकसान
राजद का होगा और अगर 2014
के बाद ऐसा मौका आया कि केन्द्र में एनडीए की सरकार जोड़-तोड़ से बन सके
तो नीतीश भाजपा और अडवाणी जी को सेक्युलर होने का प्रमाणपत्र जारी कर ही
चुके हैं। उनका भाजपा के साथ ब्रेक अप समाप्त हो जायेगा और सेक्युलर भाजपा,
साम्प्रदायिक मोदी को किनारे करके उदार अडवाणी जी को गद्दी सौंप देगी। नीतीश जी की महानता भी सिद्ध हो जायेगी कि उन्होंने साम्प्रदायिक मोदी को रोककर उदार-सेक्युलर भाजपा को बचा लिया।
…और अगर ऐसी नौबत नहीं आती है कि भाजपा सरकार बना पाये (जो कि नीतीश कह
ही चुके हैं कि ऐसी कोई आँधी नहीं है कि भाजपा+ 272 ले आये) तो भी नीतीश जी
महान सेक्युलर हैं हीं क्योंकि उन्होंने ही तो मोदी की आँधी रोकी! और अपनी
इस महानता के बल पर वह बिहार में अपना समय पूरा कर लेंगे और सेक्युलरिज्म
के आखाड़े के महान् योद्धा घोषित हो जायेंगे। यानी नीतीश के दोनों हाथों
में लड्डू हैं।
अब देखना यह है कि बिहार की जनता खासतौर पर अल्पसंख्यक नीतीश के इस दावँ
को कितना समझ पाते हैं। यह आने वाला समय तय करेगा। बहरहाल इतना तय है कि
संघ की पटकथा पर नीतीश इस समय सफल अभिनय कर रहे हैं।
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