.अपराध और दंड... सबके अपने-अपने विचार. लेकिन कसाब, अफजल की फांसी की सजा
और दिल्ली रेप केस के बाद इन पर बुध्दिजीवी तबके के साथ-साथ समाज भी अचानक
ही कुछ ज्यादा जागरुक होता नज़र आया . कोई इनके आरोपीयों को सीधे फांसी पर
चढाने की मांग कर रहा था तो कोई सीधे विरोध...
अपराध और दंड के इस
मुद्दे पर एक लेख.. मुझे लगता है पढना चाहिए एक
बार इसे... गर सच में आप इस मुद्दे को लेकर आंदोलित हैं तो...आज लगभग नौ साल बाद भी मामला ज्यों का त्यों है। 16 दिसंबर 2012 की खौफनाक
घटना के बाद जब पूरा देश सड़कों पर उतर कर बलात्कार व हत्या के लिए कठोरतम
सजा की मांग कर रहा था, तब यह बात फिर से चर्चा में आयी कि देश की भूतपूर्व
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने गृह विभाग की संस्तुति पर तीस लोगों की फांसी
की सजा माफ कर दी थी, जिनमें 22 ऐसे लोगों की सजा माफ की गयी, जिन्होंने
बच्चियों का बलात्कार किया था, सामूहिक हत्याकांडों को अंजाम दिया था और
छोटे बच्चों को बर्बरतापूर्वक मार डाला था। इंडिया टुडे (22 दिसंबर 2012)
में छपी सूचना के अनुसार मोतीराम तथा संतोष यादव बलात्कार के जुर्म में जेल
में रह रहे थे, उन्हें सुधारने के लिए उन्हें जेलर के बगीचे का बागवान
नियुक्त किया गया। उन्होंने जेलर की दस वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार करके
उसे मार डाला। प्रतिभा पाटिल ने उसे क्षमादान दिया। सुशील मुर्मू ने एक नौ
वर्षीय बच्चे का गला काट डाला, इससे पहले वह अपने छोटे भाई की बलि चढ़ा
चुका था, वह भी पाटिल की दया का पात्र बना। धर्मेंद्र और नरेंद्र यादव ने
नाबालिग बच्ची का बलात्कार का प्रयास किया था और उनका प्रतिरोध करने पर
उसके परिवार के पांच लोगों की हत्या कर दी थी और एक दस साल के लड़के की
गरदन काट कर उसका शरीर आग में झोंक दिया था। मोहन और गोपी ने एक पांच वर्ष
के बच्चे का अपहरण करके उसे यातनाएं देकर मार डाला और पांच लाख की फिरौती
मांगी।
हम सब जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय रेयरेस्ट ऑफ द रेयर
केसेज में ही मृत्युदंड सुनाता है। हमारे देश में खास कर हमारे उत्तर
प्रदेश में पिछले एक वर्ष से सामूहिक बलात्कार के बाद छोटी बच्चियों की
हत्या अखबार में प्रतिदिन छपने वाली खबर है। यह रेयर नहीं रह गयी है, पर
सजा रेयरली ही सुनायी जाती है।
भेरूसिंह बनाम राजस्थान सरकार के
मामले में, जिसमें अपराधी ने अपनी पत्नी तथा पांच बच्चों की नृशंस हत्या की
थी, न्यायालय ने कहा “सजा देने का उद्देश्य है कि अपराध बिना सजा के न छूट
जाए, पीड़ित तथा समाज को यह संतोष हो कि इंसाफ किया गया है। हमारी राय में
सजा का परिमाण अपराध की क्रूरता पर निर्भर होना चाहिए, अपराधी के आचरण पर
भी और असहाय तथा असुरक्षित पीड़ित की अवस्था पर भी। न्याय की मांग है कि
सजा अपराध के अनुरूप हो और न्यायालय के न्याय में समाज की उस अपराध के
प्रति वितृष्णा परिलक्षित हो। न्यायालय को केवल अपराधी के अधिकारों को ही
नहीं, पीड़ित के अधिकारों को भी ध्यान में रखना चाहिए और समाज को भी।’’
(एससीसी पृ 481 पृ 28)
आज हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तथाकथित
बुद्धिजीवियों के उपहास व निंदा के पात्र हैं कि उन्होंने प्रतिभा पाटिल की
राह नहीं अपनायी। अखबार में कार्टून है कि कहीं फांसी के फंदे चीन से आयात
न करने पड़ें। पत्रकार भूल रहे हैं कि यह सजाएं 20-30 वर्ष पहले दी गयी
थीं, यदि तभी तामील हो जातीं तो शायद सजा का डिमान्स्ट्रेटिव तथा डिटेरेंट
होने का लक्ष्य पूरा कर कर पातीं।
प्रणव मुखर्जी ने जिन्हें दया के
योग्य नहीं समझा, उनमें धरमपाल था, जो बलात्कार के अपराध में जेल गया था।
बीमारी के नाम पर पैरोल पर छूटा और बलात्कार की शिकार के परिवार के पांच
लोगों को मार डाला। प्रवीन कुमार ने चार लोगों की हत्या की, रामजी और सुरेश
जी चौहान ने बड़े भाई की पत्नी की चार बच्चों समेत कुल्हाड़ी से काट कर
हत्या की, गुरमीत ने तीन सगे भाइयों की, उनकी पत्नियों बच्चों समेत तेरह
लोगों को तलवार से काट डाला, जाफर अली ने अपनी पत्नी व पांच बच्चियों को
मार डाला। (हिंदुस्तान 5 अप्रैल 2013)
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने
जिनको क्षमादान नहीं दिया, उनमें वीरप्पन के चार साथी भी शामिल हैं। पाठकों
को शायद स्मरण हो कि जब सैकड़ों हाथियों और पुलिसकर्मियों की हत्या करने
वाले तस्कर वीरप्पन को पूर्ण क्षमादान का आश्वासन देकर उससे आत्मसर्मपण
करवाने की बात सरकार चला रही थी, तब एक शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी ने
याचिका दी थी कि यदि अपराधी से समझौता ही करना या तो क्यों जंगलों की रक्षा
करते हुए उसके पति को, वीरप्पन के हाथों मारे जाने दिया गया। उच्चतम
न्यायालय ने शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी की याचिका पर सरकार द्वारा
वीरप्पन से समझौते पर रोक लगा दी थी।
जेल में रहकर अपराधी को अनेक
अधिकार हैं। पैरोल पर छूटकर बाहर आकर अपराधों को अंजाम देने और पीड़ित के
परिवार को नेस्तनाबूत करने और गवाहों को धमकाने के उदाहरण असंख्य हैं।
हमारे प्रयासों से जो कर्नल वाही पिता पुत्र जेल गये थे, वे भी अक्सर लखनऊ
की जेल रोड पर घूमते और फल सब्जी खरीदते देखे जाते थे। हम सबने नीतीश कटारा
के हत्यारे विकास यादव, कार से लोगों को कुचलने वाले नंदा और अपराधी मनु
शर्मा को पैरोल पर छूट कर मयखानों में डिस्को डांस करते हुए दिखाई देने के
समाचार पढ़े हैं। अपराधी स्वयं अपनी सुविधा के अनुसार समर्पण करते हैं। हम
लोग यह सब संजय दत्त के मामले में देख ही रहे हैं, कि वे जेल में जाने के
लिए छह महीने की मोहलत मांग रहे हैं, और उनके साथ के अन्य अपराधी भी। मोहलत
मांगने का हक मुल्जिम को है, क्या अपराधी अपने शिकार को कोई मोहलत देते
हैं?
शिकार के हक की रक्षा तो कानून भी नहीं करता। शिकार और उनके
दोस्त अहबाब सिर्फ इंतजार करते हैं। अभी गोंडा में 31 वर्ष पहले हुई पुलिस
के एसओ केपी सिंह तथा 12 अन्य निर्दोषों की हत्या के अपराधियों को निचली
अदालत ने फांसी की सजा सुनायी। अखबार में किंजल सिंह की रोते हुए तस्वीर
छपी है, पिता की हत्या के समय वे चार माह की थीं, आज वे एक आइएएस अधिकारी
हैं। इन 31 वर्षों के बीच उनकी मां भी गुजर गयीं। (दैनिक जागरण 6 अप्रैल
2013) ऐसे अपराधियों के पास सर्वोच्च न्यायालय तक जाने और वहां भी अपराधी
पाये जाने के बाद भी दया पाने का हक है। पीड़ितों के पास शीघ्र इंसाफ पाने
का कोई मौलिक अधिकार नहीं।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डॉ एएस
आनंद ने ’विक्टिम ऑफ क्राइम – अनसीन साइड’ में लिखा है, ’’विक्टिम (मजलूम)
दुर्भाग्य से दंड प्रक्रिया का सर्वाधिक विस्मृत और तिरस्कृत प्राणी है।
एंग्लो सेक्शन प्रणाली पर आधारित अन्य प्रणालियों की भांति हमारी दंड
प्रक्रिया भी अपराधी पर केंद्रित है – उसके कृत्य, उसके अधिकार और उसका
सुधार। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकसित देशों जैसे ब्रिटेन,
आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड अमरीका आदि ने अभागे पीड़ितों पर भी ध्यान देना
शुरू किया है, जो दरअसल अपराध के सबसे बड़े शिकार होते हैं और जिनकी क्षति
पूर्ति किया ही जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा (1985) के बाद
अमरीका ने भी विक्टिम ऑफ क्राइम एक्ट बनाया। मुजरिम को जमानत का अधिकार एक
अधिकार स्वरूप मिला है, पर पीड़ित को जमानत का विरोध करने का यह अधिकार
नहीं। राज्य की इच्छा पर निर्भर है कि वह चाहे तो विरोध करे चाहे न करे।
पूरी दंड प्रक्रिया में पीड़ित की भूमिका सिवा एक गवाह के कुछ नहीं, वह भी
तब, यदि सरकारी वकील चाहे।’’
मेरा यह आलेख फांसी की सजा के पक्ष में
लिखा गया आलेख नहीं है। यह मजलूम के हकों के पक्ष में लिखा गया लेख है। यह
आवाज पीड़ित के अधिकार के पक्ष में उठी आवाज है। हमारी दंड प्रक्रिया
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम कहलाती है, जो क्रिमिनल को केंद्र में रखती है –
उसके अधिकार, उसकी सुविधा, उसकी सुरक्षा, उसकी खुराक, उसका परिवार, उसके
परिवार का दुख, दंड का विरोध करने का उसका हक, उसका सुधार। निर्भया कांड के
अभियुक्त विनय शर्मा ने अदालत के माध्यम से अपने लिए तिहाड़ जेल में फलों
अंडे और दूध से युक्त बेहतर खुराक की मांग की है कि वह परीक्षा में बैठेगा।
जिन्होंने बेटी खोयी है वे क्या खा रहे होंगे, क्या उन्हें भी ऐसी मांगें
रखने का कानूनी हक है? जो अपराध का शिकार हुए, उस पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा न
हमारे कानून की जिज्ञासा का विषय है, न हमारी।
आज जब मैं अपने इस
पुराने आलेख को पुन: आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं, हमारे आदरणीय बाबा
साहेब भीमराव अंबेडकर का जन्मदिन चौदह अप्रैल है। अखबार में उनके
संविधानसभा में दिये गये भाषण का मुख्य अंश छपा है, ’’संविधान सभा के कार्य
पर नजर डालते हुए नौ दिसंबर 1946 को हुई उसकी पहली बैठक के बाद अब दो वर्ष
ग्यारह महीने और सात दिन हो जाएंगे। संविधान सभा में मेरे आने के पीछे
मेरा उद्देश्य अनुसूचित जातियों की रक्षा करने से अधिक कुछ नहीं था। जब
प्रारूप समिति ने मुझे उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया, तो मेरे लिए यह
आश्चर्य से भी परे था। इतना विश्वास करने और सेवा का अवसर देने के लिए मैं
अनुग्रहीत हूं। मैं मानता हूं कि कोई संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा
साबित हो सकता है, यदि अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे
कितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग
अच्छे हों। ’’(दैनिक हिंदुस्तान, रविवार, 14 अप्रैल 2013, पृ 16)
हमारे
संविधान निर्माता डॉ अंबेडकर की कही हुई उक्त अंतिम पंक्ति कितनी सरल और
कितनी साधारण है, पर कितनी सारगर्भित। अच्छे लोग पीड़ित की पीड़ा को देखकर
पीड़ित के अधिकार की रक्षा के लिए संविधान का इस्तेमाल करेंगे या संविधान
में दी गयी भांति भांति की न्यायिक प्रक्रियाओं का आश्रय लेकर अभियुक्त के
अधिकारों की रक्षा करते हुए अपराधियों के पक्ष में जुलूस निकालते रहेंगे।
हमारा समाज और संविधान भोले बेकसूर हंस की रक्षा करेगा या कुसूरवार बेरहम
शिकारी की?
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