Thursday, 12 December 2013

भारत की राजनीति में विष घोल कर पुन: सत्ता पाने की अभद्र कोशिश

राजनीति में अत्यधिक विष घोल कर वातावरण को विषाक्त बनाने से उन्हें आखिर क्या हांसिल हो जायेगा ? क्या ऐसा करने से उनके सारे पाप छुप जायेंगे ? क्या वातावरण के प्रभाव से जनता मूर्छित हो कर उनके पक्ष में मतदान कर देगी ? नहीं ऐसा सम्भव नहीं होगा। हवा के रुख को बदला नहीं जा सकता। सवेरा निश्चित रुप से होगा, क्योंकि आकाश पर चढ़ कर सूर्य को उदय होने से नहीं रोका जा सकता। समय को अपनी मुट्ठी में बंद नहीं किया जा सकता।
मनुष्य हांड़-मांस का पुतला ही है, उसकी शक्तियां अजेय नहीं होती। वह कभी अजातशत्रु नहीं बन सकता। युद्ध में विजय मिल जायेगी, किन्तु पराजित भी होना पड़ सकता है, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी भी विजयी होने के लिए ही रण में उतरा है। किन्तु कोर्इ यह समझ बैठे कि हमे पराजित करने का किसी के पास अधिकार नहीं है, तो यह उसका अहंकार है। अहंकार व्यक्ति को हिरणाकस्यप, रावण, कंस और दुर्योधन बना देता है, जिसका अंतत: विनाश निश्चित है।
लोकतंत्र में रक्तपात से सत्ता का हस्तांतरण नहीं होता, क्योंकि किसी को स्थायी रुप से शासन करने का अधिकार नहीं दिया जाता। जो योग्य है, उपयुक्त है, कसौटी पर खरा उतरता है, उसे सेवा का अवसर दिया जाता है। उसे राष्ट्र का मालिकाना हक नहीं सौंपा जा सकता। परन्तु कोर्इ सेवा को ही मालिकाना हक मान बैठता है, इसका मतलब यह हुआ कि वह देश की जनता का मालिकाना हक छीनना चाहता है। क्योंकि लोकतांत्रिक गणराज्य में जनता ही उस गणराज्य की मालिक होती है। जो राजनीतिक दल ऐसा करने की चेष्टा करता है, उसे लोकतंत्र में आस्था नहीं हैं। वह जनता को सत्ता प्राप्ति का माध्यम समझता है, साध्य नहीं मानता । वह जनता की शक्ति को स्वीकार नहीं करता। उसे इस बात का गरुर हो जाता है कि देश पर शासन करने का अधिकार हमारा ही है। यह अधिकार हमसे छीना नहीं जा सकता।
सम्भवत: इसीलिए भारत के एक राजनीतिक दल के नेता देश की जनता को यह समझा रहे हैं कि अमूक व्यक्ति हमे नापसंद है, हम इससे घृणा करते हैं, अत: जनता इसे स्वीकार नहीं करें। शायद ऐसा कहते हुए वे यह भूल जाते हैं कि लोकतंत्र में जनता से आदेश लिया जाता है, जनता को निर्देश नहीं दिया जाता। कौन सही है और कौन गलत, इसका निर्णय लेने का अधिकार जनता के पास है। आप जनता के अधिकार और उसके विवेक को चुनौती नहीं दे सकते।
एक प्रदेश की यदि करोड़ो जनता किसी व्यक्ति के प्रति विश्वास जताते हुए, उसे अपना नेता स्वीकार करती है, तब स्वत: ही उस व्यक्ति का कद विराट हो जाता है। वह सम्मान पाने का अधिकारी है। उसका तिरस्कार व अपमान करना उस प्रदेश की करोड़ो जनता का अपमान करना है, जिसने उसे अपना नेता स्वीकार किया है। किन्तु इस हकीकत को स्वीकार करने में काफी कष्ट होता है। वे यह मानना ही नहीं चाहते कि अमूक व्यक्ति एक प्रदेश का नेता है और उसे यह पद प्रदेश की जनता ने संवैधानिक परम्परा के आधार पर सौंपा है। इस पद को उन्होंने हथियाया नहीं है।
और क्या एक राजनीतिक दल, जिसके पक्ष में देश के करोड़ो मतदाता, मतदान करते हैं, यह अधिकार नहीं है कि देश के प्रधानमंत्री पद के लिए अपना एक उम्मीदवार घोषित करें ? करोड़ो मतदाता वाला राजनीतिक दल यदि किसी व्यक्ति विशेष को अपने दल की  ओर से अधिकृत प्रत्यासी मानता है, उसे जनता से निर्देश लेने की अनुमति देता है, तो इसमें गलत क्या है ? क्या ऐसा करना उस राजनीतिक दल का संवैधानिक अधिकार नहीं है ? क्या एक स्वर में उस व्यक्तित्व को अशोभनयी शब्दावली से संबोधित करना करोड़ो जनता का अपमान करना नहीं है, जो उस पार्टी के साथ जुड़ी हुर्इ है और उसके पक्ष में मतदान करती है ? क्या  एक राजनीतिक दल के नेताओं की ओछी मनोवृति अप्रत्यक्षरुप से देश की जनता को यह समझाने की कोशिश नहीं करती कि देश पर शासन करने का अधिकार हमारा ही है। हम यह अधिकार किसी ओर को नहीं लेने देंगे।
यदि आप सत्ता में हैं,  तो आपके कार्यों की आलोचना करने के आधार पर ही विपक्ष जनता से वोट मांगेगा और जनता से निवेदन करें कि आप एक बार हमें भी सेवा का अवसर दें, हम आपकी कसौटी पर खरे उतरेंगें। क्या ऐसा करना राजनीतिक अपराध की श्रेणी में आता है ? क्या  विपक्ष की आलोचना का सारगर्भित शब्दावली में जवाब देने के बजाय, उस पर कटाक्ष करना उचित है ? क्या उसके नेता को तरह-तरह के अशोभनीय अलंकारों से अलंकृत कर उनकी छवि को जानबूझ कर विद्रूप  करना सही है ? सिद्धान्त: यदि सत्ता पक्ष पुन: सत्ता में आना चाहता है, तो किये गये कार्यों का प्रमाणित विवरण जनता को  दे, अपनी उपलब्धियों के आधार पर जनता से पुन: सेवा का अवसर मांगे । विपक्ष के नेता के विरुद्ध अर्नगल व नींदनीय शब्दावली का प्रयोग करना, उनकी कुत्सिक मन:स्थिति को दर्शाता है, जो यह साबित करता है कि भारत की राजनीति को इन्होंने अपने स्वार्थ के लिए कितनी विषैली बना दिया है।
एक पार्टी के अधिकांश नेता, एक घृणित रणनीति के तहत एक व्यक्ति विशेष की आलोचना करना और उनके द्वारा कहे गये एक -एक शब्द का पोस्टमार्टम कर उन्हें नीचा दिखाने की धूर्त कोशिश करना, क्या यह नहीं दर्शाता कि उनका लोकतंत्र, भारत के सवं​िधान और संवैधानिक संस्थाओं में कोर्इ विश्वास नहीं हैं। वे किसी भी तरह सत्ता पर नियंत्रण चाहते हैं और इसके लिए वे एक हद तक गिर सकते हैं।
मनुष्य सर्वगुण सम्पन्न नहीं होता। जनता के समक्ष बोलते समय कुछ त्रुटियां होना स्वाभिक ही है। इतिहास के बारें में कोर्इ गलत  तथ्य प्रस्तुत करने का मतलब यह नहीं होता कि यह व्यक्ति निकृष्ट है। उसके सारे संवैधानिक अधिकार समाप्त हो गये हैं। पहाड़ सी गलती वह कहलाती है, जब व्यक्ति संवैधानिक पद का दुरुपयोग करते हुए देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटता है। अपने अपराध को स्वीकार नहीं करता हैं। अपराध को छुपाने और दबाने के लिए जांच एंजेसियों का सहयोग लेता है। ऐसे क्षुद्रतम अपराध करने वाले व्यक्ति या उस राजनीतिक दल को पुन: जनता से सत्ता का अधिकार मांगना, किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता।
किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं रहने के उपरांत भी किसी व्यक्ति विशेष या एक परिवार के प्रति एक लोकतांत्रिक पार्टी के नेताओं द्वारा अत्यधिक स्वामीभक्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन, यह दर्शाता है कि इस पार्टी का लोकतंत्र के बजाय राजतंत्र में ज्यादा आस्था है। ऐसे परिवार के एक सदस्य के लिए शहजादा संबोधन गाली नही कहा जा सकता। इसे लोकतंत्र में राजतंत्र की परम्परा निभाने पर कटाक्ष ही समझा जा सकता है। किन्तु प्रतिकार में  बोले गये रावण, दैत्य, भष्मासुर आदि अनेक अलंकारों को क्या उपयुक्त और शोभनीय कहा जा सकता है ?
यदि कोर्इ राजनेता अपने व्यक्तित्व के बल पर जनता में भरोसा जगाने में समर्थ लगने लगता है, तो उसे रोकने एक ही उपाय है- उसके समक्ष अपने किसी प्रभावशाली व्यक्तित्व को मैदान में उतारना। किन्तु आपके पास ऐसा कोर्इ व्यक्तित्व है ही नहीं और यदि है तो वह बहुत बौना है, अत: एक अन्वेषण टीम बना कर प्रतिद्वंद्वी व्यक्तित्व की छोटी सी गलती को पहाड़ बता कर मीडिया के माध्यम से खूब प्रचार करना, एक तरह से युद्ध आरम्भ होने के पहले ही हार स्वीकार करना ही है, जिसे खीझ और बौखलाहट कहा जा सकता है।

Thursday, 5 December 2013

धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता पर नयी बहस छेड़ने की आवश्यकता है

साम्प्रदायिकता हिंसा निरोधक बिल - बाजी जीतने की घृणित कोशिश
हम भारतीय नागरिक है, किसी जानवारों की मंड़ी के जानवर नहीं, जिनका नस्ल के आधार पर भेदभाव किया जाय। धर्म के आधार पर हमारी पहचान नहीं होती। हमारी पहचान भारतीयता के आधार पर होती है। संविधान ने भारतीय नागरिकता की परिभाषा दी है, उसे किसी भी तरह से खंड़ित नहीं किया जा सकता। धर्म के आधार पर नागरिकों का संविधान ने विभाजन नहीं किया है। धर्म के आधार पर नागरिकों को विशेष अधिकार नहीं दिये गये है, इसीलिए भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट् कहा जाता है।
धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा बदलने के लिए युपीए सरकार -साम्प्रदायिक हिंसा रोकने  के लिये ए क बिल  communalलाना चाहती है। यह न केवल हमारे संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है, वरन हमारे संघीय लोकतंत्र की पवित्रता पर अकारण किया जा रहा कुठाराघात है। जो सरकार देश को जवाबदेय सुशासन नही दे पायी। महंगाई और भ्रष्टाचार के भयावह प्रकोप से त्राहि-त्राहि कर रही जनता को राहत नहीं दे पायी।  ऐसी सरकार की नीतियों और अर्कमण्यता से  जनता नाराज है। सरकार चलाने वालो नेताओं को यह अहसास हो गया है कि जनता अब उन्हें पूरी तरह तिरस्कृत कर देगी, इसलिए देश में आग लगा कर ही यदि पुन: सत्ता सुख मिल सकता है, तो ऐसा करने में कहां एतराज है। सम्भवत: इसी कारण एक नये कानून को लाने की आवश्यकता आ पड़ी है।
इस समय पूरा देश शांत हैं। असम और उत्तर प्रदेश को छोड़ कर कहीं साम्प्रदायिक दंगे नहीं हो रहे हैं। उन प्रदेशों में भी नहीं, जहां दस पंद्रह वर्षों से वे सरकारे काम कर रही है, जिनकी धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है। नागरिकों के मन में एक दूसरे सम्प्रदाय के प्रति नफरत और घृणा का  भाव नहीं है। सभी नागरिकों की समस्याएं एक जैसी है। उनकी तकलीफे एक जैसी है। वे कुशासन से मुक्ति पाने के लिए एक हो रहे हैं और एक हो कर नयी सरकार का विकल्प ढूंढ रहे हैं। यही कारण है कि भ्रष्ट कारनामों के उजागर होने से भयभीत सरकार, नागरिकों के जीवन को संकट में डालने का घृणित खेल, खेलने के लिए विचलित दिखाई दे रही है।
प्रश्न उठता है कि धर्मनिरपेक्षता की विकृत परिभाषा प्रस्तुत कर देश के नागरिकों के मध्य विभ्रम की स्थिति निर्मित करने का आखिर क्या औचित्य है ? दुनियां में कही ऐसा कानून हैं, जहां दो व्यक्तियों के झगड़े में यह नियम बना लिया जाय कि झगड़ा चाहे कोई भी प्रारम्भ करें, दोषी एक विशेष व्यक्ति को ही माना जायेगा। उसी पर मुकदमा चलाया जायेगा और दूसरे को दोष मुक्त माना जायेगा। प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त क्या ऐसे नियम को सही ठहराता है ? क्या यह वोट पाने के लिए कुटिल नीति नहीं है। आखिर सत्ता पाने के लिए ऐसा कानून बनाने की कहां आवश्यकता आ पड़ी कि दंगा होने पर एक समुदाय को ही दोषी मान कर उस पर मुकदमा चलाया जायेगा और दूसरे को दोष मुक्त समझा जायेगा। क्या ऐसा कानून बनाने वालों की घृणित सोच को साम्प्रदायिकता नहीं कहा जा सकता ? निश्चय ही ये लोग साम्प्रदायिक हैं और धर्मनिरपेक्षता का उपहास उड़ा रहे हैं।
साम्प्रदायिक दंगों में असामाजिक तत्वों की मुख्य भूमिका होती है, जो सभी समाज में पाये जाते हैं। दंगा भड़काने वाली सरकारे इन असमाजिक तत्वों का उपयोग करती हैं। अत: वे सरकारे साम्प्रादियक कही जा सकती है, जिनके मन में कुटिलता होती है, जो धर्म को आधार मान कर अपना घृणित राजनीतिक उद्धेश्य पूरा करती है। वे सरकारे नहीं, जो जनता को सुशासन देने के लिए वचनबद्ध होती है। दंगे सरकार की प्रशासनिक विफलता से फैलते हैं। दक्ष सरकारों के प्रशासन में कभी दंगे नहीं होते। “
कोई भी झगड़ा या विवाद दो व्यक्तियों या व्यक्ति समूह के बीच किसी निजी स्वार्थ को ले कर होता है। उसे अकारण ही राजनीतिक लाभ उठाने के लिए साम्प्रदायिक रंग दे दिया जाता है, ताकि झगड़ा साम्प्रदायिक रंग पा कर फैलें और राजनेताओं का अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने का बहाना मिल जाय। दंगे बहुधा प्रायोजित होते हैं, जिन्हें एक निश्चित उद्धेश्य की पूर्ति के लिए भड़काया जाता है। उत्तर प्रदेश का मुजफ्फर नगर दंगा इसका ज्वलन्त उदाहरण है। ऐसा कार्य वे ही सरकारे करती हैं, जिनके कुशासन और भ्रष्ट शासन से जनता रुष्ट हो जाती है। तब वे अपनी अर्कमण्यता और निकम्मेपन पर पर्दा डालने के लिए किसी आपसी विवाद को साम्प्रदायिक रंग दे कर उसमें आग लगाती हैं और निर्दोष नागरिकां को उसमें झुलसने के लिए छोड़ देते हैं।
अंग्रेज शासक तो भारत पर शासन करने के लिए ऐसे विकृत कानून बनाते थे, ताकि भारतीय जनता में आपस फूट डाल कर राज किया जा सके। सम्भवत: इसी नीति के कारण अंग्रेज इस देश पर वर्षों तक राज करते रहें। क्या ऐसी ही कुटिल नीति को आधार बना कर कांग्रेस पार्टी भारत पर शासन करने का अधिकार पाना चाहती है ? क्या यह उसकी साम्प्रदायिक सोच नहीं है , क्या इस आधार पर उसे एक साम्प्रदायिक पार्टी नहीं ठहराया जासकता ?
फूट डाल कर यदि ऐसे तत्व सरकार बनाने में पुन: समर्थ हो जाते हैं, इससे सभी को नुकसान होगा।  उन नागरिकों का भी  होगा, जिनको उपकृत कर एक अक्षम सरकार पुन: सत्ता सुख भोगना चाहती है, क्योंकि भ्रष्ट और अकर्मण्य सरकारों का भार सभी नागरिकों  को उठाना पड़ेगा। ऐसी सरकारों का सीधा भार नागरिकों की जेब पड़ता है। उनके घर के  चुल्हें पर पड़ता है। उनके बच्चों के भविष्य पर पड़ता है। साम्प्रदायिकता की आग कभी कभार कहीं ही लगती है, उसे आम नागरिक नहीं लगाते, राजनेता लगाते हैं। यह आग तो क्षणिक होती है, जो बुझ जाती है। किन्तु पेट की आग तो रोज लगती है। बच्चों के भविष्य और उनकी पढाई की चिंता रोज सताती है। महंगाई रोज पीड़ा देती है। अत: नागरिकों को स्थायी समस्याओं के समाधान का हल खोजना चाहिये। ऐसी सरकारे चुननी चाहिये, जिनके मन में सुशासन देने की इच्छा हों। सम्प्रदाय या धर्म के आधार पर नागरिकों को आपस में लड़ाने की कुटिलता नहीं हो।
सदियों से भारत के गांवों और शहरों में दोनो समुदाय के लोग शांति से रह रहे हैं। वे एक दूसरे की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हैं। कोई इसमें व्यवधान उपस्थित नहीं करता। मुसलमान मज्जिद में जाते हैं, उन्हें हिन्दू नहीं टोकते हैं। हिन्दू मंदिर में जा कर पूजा अर्चना करते हैं, उससे मुसलमानों को कभी  एतराज नहीं होता। अन्य इस्लामी देशों की तरह हिन्दू किसी मज्जिद को अपवित्र नही करते । भारत की किसी म​िज्ज़द में गोलीबारी और हत्याकांड़ नहीं होता। यह हमारी आपसी समझ और सहिष्णुता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
अत: भारत के नागरिकों को अब यह आपसी समझ विकसित करनी चाहिये कि हम एक हैं हमारे बीच किसी तरह का कोई मतभेद नहीं है। धर्म या सम्प्रदायिकता के आधार पर जो हमारे बीच खाई खोदने का प्रयास करेगा, उसे हम मिल कर रोकेंगं। हम उसी पार्टी के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करेंगे, जो हमे सुशासन देने का वादा करेगी। यदि हम एक हो जायेंगे, तो फूट डालों और राज करों के स्थान पर राजनीतिक पार्टियां सुशासन दों और राज करों, सिद्धान्त को आत्मसात करेगी। यदि ऐसा हो जाता है तो देश में एक नयी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण होगा। देश को अपनी समस्याओं से निजात दिलाने के लिए देश की जनता सहायक बनेगी।

Monday, 2 December 2013

तरुण तेजपाल की तरह भ्रष्टचारियों को जेल भेजने का अब हमे कठोर कानून चाहिये

दिसम्बर 2012 का स्वत:स्फूर्त व नेतृत्व विहीन युवा जन आंदोलन ने भारतीय राजनेताओं अचंभित कर दिया था।  कड़कती ठंड में उन पर डाली गयी पानी की बौछारों को सहते हुए वे रात में भी सड़कों पर डटे हुए थे। युवाओं ने सत्ता के अहंकार और निष्ठुरता को चूर-चूर कर रख दिया था। स्त्री प्रताड़ना को सहने का आदि भारतीय समाज भ्रष्ट पुलिस की निरंकुशता से परिचित था और जानता था कि पुलिस बिक जायेगी और निर्भया का ऐसा लच्चर केस बनायेगी कि कुछ ही दिनों  में अपराधी छूट जायेंगे। युवाओं को  संवेदनाविहीन पुलिस और राजननैतिक व्यवस्था से न्याय की आशा नहीं थी।
अन्ना ह्जारे  और बाबा रामदेव के जनआंदोलन को निष्ठुरता और निर्ममता से दबाने वाला सत्ताधारी राजनीतिक दल पूरे देश में यकायक फैले इस जन आंदोलन से घबरा गया। उसे लगा यदि अगले लोकसभा चुनावों में भारत का युवा वर्ग उसके विरुद्ध हो गया, तो सत्ता उसके हाथ से चली जायेगी। इसी भय से विवश हो कर स्त्री प्रताड़ना के विरुद्ध कड़ा कानून बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा। संसद की मंजूरी मिल गयी। भारत के किसी भी राजनीतिक दल ने इस कानून का विरोध नहीं किया।
संयोग से इस कठोर कानून की चपेट में सक ऐसा सख्श आ गया, जो उंचे रसूख वाला था। एक सत्ताधारी दल की राजनीतिक तिकड़म का सहयोगी था। धूर्तता को पत्रकारी पेशे के साथ घालमेल कर उसने अपार धन कमाया था। उसने अपराध किया। अहंकार के साथ इसे स्वीकार किया। इस गलतफहमी में निश्चिंत हो गया कि इस देश में उसका कोर्इ कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उससे जो कृत्य हो गया, सो हो गया, अत: जिन्हें उसने उपकृत किया था, वह नेताबिरादरी उसके पक्ष में खड़ी हो जायेगी और आगे आ कर उसे बचा लिया जायेगा। आखिर बड़े और रुतबे वाले लोग थोड़े ही किसी जेल में बंद हो सकते हैं।
इसी भरोसे और गरुर के साथ  भारत के भ्रद समाज का अभद्र जानवर -तरुण तेजपाल हैकड़ी और हैसियत का रंग दिखाता हुआ दिल्ली से गोवा गया था। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा, क्योंकि दिल्ली का एक ताकतवर मंत्री उसके बचाव में उतर आयेगा। उसके खिलाप की जा रही कार्यवाही को विरोधी दल का षड़यंत्र माना जायेगा और भारत के शीर्षस्थ राजघराने की ताकत उसे अंतत: बचा लेगी।
तरुण तेजपाल के अहंकार और उनके अजीब आत्मविश्वास को पूरा देश भांप गया। जनमानस उद्वेलित हो गया। चारों तरफ से आवाजे़ उठने लगी- क्या भारत के राजनेताओं के खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं ? सभी की जबान को लकवा क्यों मार गया है ? नये राजनीतिक दल के वे महाशय जो निर्भया आंदोलन का लाभ उठाने के लिए युवाओं के साथ सड़को पर उतर गये थे और बहुत जोर-शोर से स्त्री प्रताड़ना के पक्ष में दलिले दे रहे थे, वे भी क्यों चुप हो गये ? सभी की चुप्पी का एक ही कारण था- भाजपा तेजपाल के कृत्य का विरोध कर रही थी। भाजपा याने सांम्प्रदायिक पार्टी। याने हिन्दुत्व की समर्थक पार्टी। इसलिए जिस न्यायोचित प्रकरण का भाजपा समर्थन करेगी, वह मामला कैसा भी हो उसका हम समर्थन नहीं करेंगे, चाहे यह मामला किसी अबला नारी के सम्मान, उसकी आबरु और स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध उठायी गये उसके साहसिक निर्णय  से जुड़ा हो। चाहे वह मामल उस कानून से जुड़ा हो, जिसे भारतीय संसद ने पास किया था।
कानून की लाख बाजीगरी दिखाने के बाद भी तरुण तेजपाल की जमानत याचिका खारिज कर दी गयी। उन महाशय को हवालात में दिन गुजारने पड़ रहे हैं। पंच सितारा संस्कृति के जीव के चेहरे के रंग तब उडे़ हुए थे, जब उन्हें निर्णय सुनाया गया था। वे ऐसी जगह कैसे रह सकते हैं, जहां का जीवन स्तर उनके लिए नारकीय हो। शायद उस अभद्र पुरुष ने दुस्साहस करते हुए स्वपन में भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसे दिन भी देखने पड़ सकते हैं। उसे ऐसा अहसास था  कि वह अपने रुतबे और ताकत से एक प्रताड़ित अबला नारी की आवाज वह दबा देगा। सम्भवत: पूर्व में भी उसने ऐसा किया होगा और किसी युवती की दुर्बलता का लाभ उठा कर समर्पण के लिए बाध्य किया होगा। क्योंकि ऐसे दुष्कर्म वही व्यक्ति करता है, जो आदतन ऐसे कृत्य करने का  अनुभवी होता है।
तरुण तेजपाल प्रकरण से हमें एक नसीहत मिलती है- क्या स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध बनाये गये कानून की तरह भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए भारतीय संसद ऐसा कोर्इ कठोर कानून बना सकती है, जिससे बड़े-बड़े तीसमार खां अपराधियों को जेल की सलाखों के भीतर ठूंसा जा सके।  वर्तमान भारतीय संसद का जो स्वरुप है, उससे   तो ऐसी आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि इसमें एक से बढ़ कर एक भ्रष्टाचार में आंकठ डूबे व्यक्ति बैठे हुए हैं।
भारतीय संसद का स्वरुप बदला जा सकता है- यदि 2014 के लोकसभा चुनावों के पूर्व एक ऐसा युवा जनआंदोलन पूरे देश में फैले, जो यह मांग रखे कि हम उसी राजनीतिक दल और उसके नेता को समर्थन करेंगे, जो भारत में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कठोर कानून बनायेगा। हम ऐसा कानून चाहते हैं, जिसके अनुपालन से उन सफेदपोश राजनेता और नौकरशाह कानून के लपेटें में आ कर जेल भेजे जा सकें, जिन्होंने बेबाक हो कर देश के अरबों रुपये लूटे हैं।
भारतीय संसद ऐसा कानून बनाये जिससे विदेशों में जमा काला धन वापस लाया जा सके और जिन अपराधियों ने यह कृत्य किया है, उन्हें कठोर दंड़ से दंड़ित किया जाय। पूरे देश में फैली भ्रष्टाचारियों की  बैमानी संपति को जब्त किया जा सके।
भारत आर्थिक ताकत तभी बन सकता है, जब भ्रष्टाचार पर पूर्ण अंकुश लगाया जा सके, क्योंकि भ्रष्टाचार के उन्मूलन से ही निर्धनता का अंधकार मिटाया जा सकता है। देश का तीव्र औद्योगिक विकास कर उसे समृद्धिशाली राष्ट् बनाया जा सकता है। भारतीय युवा शक्ति अपनी ताकत भारत से सारे राजनीतिक समीकरण को बदल सकती है। जो राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों के सहारे चुनाव जीतते हैं और भ्रष्टाचार को सींचते हैं, उन सभी राजनीतिक दलों का राजनीति से अवसान हो जायेगा। इन राजनीतिक दलों से जुडे़ अपराधी वृति के व्यक्ति चुनाव हार जायेंगे। ऐसा सम्भव होने पर ही भारतीय संसद का स्वरुप बदला जा सकता है।
अत: निर्भया आंदोलन की तर्ज पर ही अब पूरे देश में भ्रष्टाचार उन्मूलन का आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। इस आंदोलन का नारा होगा – हम भारतीय हैं, भारतीयता ही हमारी जाति है। भारतीयता ही हमारा धर्म हैं। हर भारत की राजनीति का शुद्धिकरण करने के लिए सब एक हैं। हमें ऐसी संसद चाहिये जो भ्रष्टाचार उन्मूलन के कठोर कानून बना सकें। हमारा समर्थन उसी राजनीतिक दल को होगा, जो शपथ ले कर यह घोषणा करें कि यदि हमारा दल सत्ता में आया और उसे जनता ने पूर्ण बहुमत दिया, तो हम भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर कानून बनायेंगे और सभी अपराधियों को जेल भेजेंगें।
यदि ऐसा सम्भव हो पायेगा तो भारत की तकदीर बदल जायेगी। तरुण तेजपाल की तरह सारे अपराधी चाहे वो कितने ही ताकतवर क्यों न हो, अपनी बची हुर्इ जिंदगी जेलों में गुजारेंगे।

Thursday, 28 November 2013

अंधेरे युग की विदाई सम्भव है, यदि हम स्वामीभक्तों की पार्टी को पूरी तरह तिरस्कृत कर दें

पाकिस्तान हर बाजी जीत जाता है। हम हार कर उसे कोसने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। यह पीड़ादायक स्थिति है। अफजल-कसाब की फांसी के बाद एक साधारण भारतीय नागरिक के मन में भी यह आशंका थी कि पाकिस्तान जरुर कोई न कोई खुरापत करेगा, किन्तु राजनीतिक हानि लाभ का आंकलन कर उन्हें फांसी दे दी और परिणामों की परवाह किये बिना सरकार सो गयी। हैदराबाद ब्लास्ट ने जगाया। थोडी देर के लिए जागी, फिर सो गयी। इसके बाद भारतीय जवानों के सिर पाकिस्तानी सेना काट कर ले गयी। बीएसएफ के केंप में घुस कर आतंकवादियों ने  जवानो को मार दिया। बैंगलोर में फिर ब्लास्ट किया  और एक सोची-समझी रणनीति के तहत सरबजीत की हत्या कर दी।बोद्धगया और फिर पटना में मोदी की रैली में किया गया ब्लास्ट। सिलसिलेबार घटित हो रही घटना पर रटा रटाया वक्तव्य देने के अलावा सरकार कुछ नहीं कर पायी। उसके पास न तो कुछ करने की सोच है और न ही इच्छा शक्ति। एक अकर्मण्य और निकम्मी सरकार से इसके अलावा कोई अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
दरअसल वर्तमान सरकार हर क्षेत्र में अक्षमता साबित कर चुकी है। गृह, अर्थ, विदेश, रक्षा, संचार और ऊर्जा मंत्रालय के कार्य निष्पादन के  ऐसे कई उदाहरण  है,  जिसमें उसकी रीति-नीति की झलक दिखाई देती है। भारी भरकम घोटालों से देश की अर्थव्यवस्था  को चोपट कर दिया। औद्योगित प्रगति अवरुद्ध हो गयी, किन्तु जो लोग सरकार चला रहे है, उनमें मन में अपराधबोध नहीं है। शर्मिदगी नहीं है। देश की जनता से कोई भय नहीं है। क्योंकि वे भारतीय जनता को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं और जानते हैं, हम कुछ भी करें, जनता हमे ही चुनेगी। हम झूठ, फरेब, छल, कपट को आधार बना कर चुनाव जीतेंगे।  इस देश पर शासन हम ही करेंगे।
वस्तुत: वर्तमान सरकार जिस व्यक्तित्व के नियंत्रण में हैं, उनके मन में इस देश के प्रति  आदर भाव नहीं है। निष्ठा नहीं है। देश प्रेम नहीं है। भारतीय संस्कृति में आस्था नहीं है। भारतीय जीवन मूल्यों की चिंता नहीं है। भारत के स्वाभिमान की परवाह नहीं है।  भारत के उत्कर्ष की कामना नहीं है। भारत को समृद्धिशाली और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की उत्कंठा नहीं है। भारतीय नागरिकों के प्रति अनुराग नहीं है। उनके जीवन के प्रति संवेदनशीलता नहीं है।
प्रश्न उठता है, एक ऐसी शख्सियत जिसे भारत की संवैधानिक परम्पराओं में विश्वास नहीं हैं। जो इसकी पवित्रता को अपने स्वार्थ के लिए जानबूझ कर नष्ट करने पर तुली हुई है। जिसके पास अपना कोई व्यावहारिक निज सोच नहीं हों। जन समस्याओं को सुलझाने के लिए तीक्ष्ण विश्लेषणात्मक मस्तिष्क नहीं हों। जिनके राजनीतिक विचार अस्पष्ट, बहुत संकुचित व संकीर्ण हों। जिनका व्यक्तित्व रहस्यमय और न समझ में आने वाली पहेली बन गया हों, ऐसी शख्सियत के हाथों में हमने देश क्यों सौंपा?  क्यों उन्हें  हमने सता का शक्ति केन्द्र बना दिया? क्यों  प्रतिभाशाली , समर्थ व कर्मठ राजनेताओं को मंत्री बनाने के बजाय चाटुकारिता में प्रवीण, स्चामी की आज्ञा को शिरोधार्य कहने वाली चाटुकार टोली को देश के महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंप दिये गये और देश की जनता मूक दर्शक बन कर देखती रह गयी ?
वस्तुत: भारत की गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन, धार्मिक, जातीय व प्रादेशिक संकीर्णता, उस शख्सियत के लिए  उपयोगी साबित हुई है।  हमारी दुर्बलताऐं हमारे लिए अभिशाप बन गयी और उनके लिए वरदान बन गयी। क्योंकि हमारी दुर्बलताओं को आधार बना कर चुनाव जीते जाते हैं। तिकड़म से सरकार बनायी जाती है।  घृणित उद्धेश्य ले कर सरकार चलायी जाती है। संवैधानिक संस्थाओं और प्रशासनिक व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद अपने छुपे हुए मिशन को पूरा करने में सफलता हांसिल की जा सकती है।
जिस पार्टी की वह शख्सियत सर्वेसर्वा है, उस पार्टी में अब जीवट ऊर्जा वाला नेता नहीं बचे है, जो उनके सामने चुनौती प्रस्तुत कर सके। पार्टी पूर्णतया अपंग हो गयी है। एक खानदान पर पूरी तरह अवलम्बित हो गयी है। पार्टी के पास स्वाभीमानी और देश भक्त नेताओं का अकाल पड़ गया है। पार्टी में ऐसे नेता बच गये, जिन्हें कहो उठो, तो वे उठ जाते हैं और बैठने के लिए कहो, तो बैठ जाते हैं।  अपने नेता को स्वामी मानते हैं और उनकी हर आज्ञा को सिर झुका कर स्वीकार कर लेते हैं। स्वामी के बारें में कुछ भी कहो तो बिफर पड़ते हैं।  कहने को तो इसे गांधी की पार्टी कहा जाता है, किन्तु  गांधी की पार्टी में गांधी के सिद्धान्तों और आदर्शों  के लिए  किंचित भी जगह बचा कर नहीं रखी गयी है।
विपक्ष बिखरा-बिखरा है। प्रादेशिक क्षत्रप शक्तिशाली बन कर उभरे हैं, जो अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए  स्वामीभक्तों की पार्टी के समक्ष समय-समय पर शरणागत हो जाते हैं। कभी समर्थन देते हैं। कभी समर्थन ले लेते हैं।  कभी समर्थन वापस लेने की धमकी देते हैं। लुका-छुपी का गंदा राजनीति के खेल ने जनता के मन में वितृष्णा भर दी है। राजनीतिक अस्थिरता और अर्कमण्य सरकार के अस्तित्व में बने रहने से पड़ोसी देश प्रभावी हो रहे हैं। वे जो चाहे कर रहे हैं और हमारी सरकार उपहास का उड़ा रहे हैं। हम भारतीय नागरिक शर्मिंन्दगी महसूस कर रहे हैं। परन्तु इसके अलावा हम कर ही क्या सकते हैं।
एक अक्षम सरकार जिसे अपने उतरदायित्व की परवाह नहीं है,  जैसे-तैसे अपने दिन पूरे कर रही है। देश के एक सौ बीस करोड़ नागरिकों को अंधेरे युग में धकेल दिया गया है। नागरिकों के मन में सरकार के कुकृत्यों को ले कर गहरा असंतोष है। आक्रोश है। उद्वेलन है। किन्तु इस अंधेरे युग से बाहर निकलने का कोई रास्ता भी नहीं दिखाई दे रहा है। अपने हाथों में जलती हुई मशाल ले कर कोई अलौकिक शक्ति नहीं आ रही है, जो कहे- मेरे पीछ-पीछे चलों। मैं तुम्हें रास्ता दिखाऊंगा। अंधेरे से निज़ात दिलाऊंगा।
यह भ्रम है हमारा। हमें अपना रास्त स्वयं ही खोजना होगा। यदि हम अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर लेंगे] तो निश्चय ही हमे प्रकाश किरणे दिखाई देगी। अंधेरे के छंटने के आसार बनेंगे। दुर्बलताओं पर विजय पाने के लिए हमे यह भूलना होगा कि हमारी जाति क्या है। हमारा मजहब क्या है। हम किस प्रान्त में रहते है। हमे सिर्फ यह याद रखना होगा कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था खतरे में हैं। हमे अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सजग हो कर यह संकल्प लेना होगा कि हम उन्हें अपना जन प्रतिनिधि चुनेगें जो जनता के प्रति उतरदायित्व का भाव रखें, न कि अपने स्वामी के प्रति। हम उस राजनीतिक दल को अपना भरपूर समर्थन देंगे, जो देश को एक जवाबदेय, सक्षम सरकार दे सकें। जिस पार्टी के पास देश भक्त नेताओं का बाहुल्य हों। जो अपनी प्रशासनिक क्षमता को प्रमाणित कर सकें। जो पार्टी उपयुक्त लगे और हमारी कसौटी पर खरी उतरे, उसे भरपूर समर्थन देना होगा, ताकि उसको अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने का मौका मिले। यह तभी सम्भव है, जब हम स्वामीभक्त पार्टी को पूरी तरह तिरस्कृत कर दें। उन क्षत्रपों का प्रभाव सीमित कर दें, जो चुनाव तो एक दूसरे के विरुद्ध लड़ते हैं और सरकार बनाने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी के सहयोगी बन जाते हैं। यदि ऐसा हो जायेगा तो अंधेरा छंट जायेगा। नया सवेरा होगा। नयी सरकार जनता की अपनी होगी। जो जनता लिए कार्य करेगी। मात्र स्वामी की आज्ञा का पालन ही नहीं करेगी।

Tuesday, 26 November 2013

हम चाहें कैसे भी हों, इस देश पर शासन करने का अधिकार हमारा ही है

भाईयों और बहनों ! हमारी पार्टी गरीबो, पिछड़ो, दलितों और मुसिलमों की पार्टी है। हम इन दबे हुए समाज की सेवा में लगे हुए हैं। हमने यह भरसक प्रयास किया है कि इनकी जैसी सिथति है वैसी ही बनी रहें, ताकि इन बेबस लोगों के वोट हमें हमेशा मिलते रहें। साठ वर्षों तक हमने इनके वोटों के सहारे ही भारत पर शासन किया है। माया मुलायम, लालू, नीतीश जैसे नये उभरे नेता हमारी राह में अवरोध बने हैं, परन्तु सत्ता सुख भोगने में ये हमारे सहायक बन जाते हैं, अत: इनसे हमारा कोई विशेष विरोध नहीं हैं। क्योंकि हम धर्मनिरपेक्षता की डोर से बंध कर सारा विरोध भूल जाते हैं। जहां ये नहीं हैं, वहां हम ही हम है। साम्प्रदायिक ताकतों से हम सभी साझा विरोध रखते हैं। ये ही हमारे विपक्षी हैं। इन्हें हम कभी शासन करने का अधिकार लेने नहीं देंगे।
हमारे भ्रष्ट कुशासन की वजह से गरीब इतने गरीब बनते गये कि वे कभी अपनी गरीबी से छुटकारा पाने की सोच ही नहीं सकते। पिछले दस सालों के हमारे शासन में महंगाई ने अपना रौद्र रुप दिखाया, जिससे गरीबों की संख्या में काफी वृद्धि हो गयी है। हम चाहते भी यही थे, क्योंकि ज्यादा से ज्यादा गरीबों के आंसू पौंछ कर उन्हें दिलासा दे, उनके वोट प्राप्त करना चाहते हैं।
यह हमारे कुशासन और दोषपूर्ण नीतियों का ही कमाल हैं कि आज़ादी के छियांसठ वर्ष बाद भी भारत की अधिकांश आबादी -दलित, आदिवासी और पिछड़ी कही जाती है। हम कभी इस समाज के नाम के आगे से विशेषण हटाना ही नहीं चाहते, क्योंकि ऐसा होने पर यह समाज हमारी बातों में नहीं आयेंगा। अधिकांश आबादी यदि शिक्षित हो गयी, तो हमे कौन पूछेगा ? इसलिए देश के 90 प्रतिशत आदिवासी आज भी झोंपड़ो में ही रहते हैं। इनके पास पक्के मकान नहीं है। दलितों और पिछड़ो के भी यही हाल है। इनके बच्चे स्कूलों में नहीं जाते। यदि मुशिकल से जाते भी हैं, तो प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते। हम मानते हैं कि इनकी ऐसी हालत के जिम्मेदार हम ही है। परन्तु इनकी सिथति बेहतर बना कर हम अपना शासन खोने की जोखिम नहीं लेना चाहते। अत: इनकी यथा सिथति बनाये रखने के ही पक्षधर हैं।
मुसिलम समुदाय को हम गरीब, पिछड़ा और अपनी मान्यताओं से झकड़ा हुआ ही देखना चाहते हैं। हम छियांसठ वर्षों से इनके रहनुमा बने हुए हैं। परन्तु शिक्षा और रोजगार पाने में इस पूरे समुदाय को फिसडडी ही बना रखा है। हमारे द्वारा बनाये गये सच्चर आयोग ने इस समुदाय की सिथति दलितों से भी बदतर बतायी थी। यह समुदाय जब तक दबा हुआ रहेगा, हमारा थोक वोटर बना रहेगा। इनके थोक वोटो के सहारे ही तो हम साम्प्रदायिक शकितयों से बाजी जीत जाते हैं।
विपक्ष सत्ता का भूखा है। हम सत्ता के प्यासे हैं। सत्ता के बिना हमारी सिथति उस मछली की तरह हो जाती है, जो पानी से बाहर निकाले जाने के बाद तड़फती है। हम सत्ता के बिना रह नहीं सकते। इसीलिए जनता से वोट मांगते है। वोट पाने का हमारा अधिकार हैं, क्योंकि हमने देश को आज़ादी दिलायी। परन्तु देश की बरबादी की त्रासदी दी, परन्तु हम विपक्ष को सत्ता में नहीं आने देंगे। यह देश हमारा है। हम ही इस पर राज करेंगे। विपक्ष को हम यह अधिकार कभी नहीं लेने देंगे।
विपक्ष वोटों के लिए भाई से भाई को लड़ाता है। समाज में जहर घोलता है। किन्तु हम लड़ाते नहीं, बांटते हैं, जहर घोलते नहीं, पिलाते हैं। हमारे नेताओं की सहमति से हिन्दुस्तान को ही बांट कर पाकिस्तान बनाया गया। हमारे नेता यदि राज सुख भोगने की जल्दबाजी नहीं करते, तो हिन्दुस्तान पाकिस्तान नहीं बनता। पाकिस्तान बना कर आवाम को ऐसा जहर पिलाया, जिसका असर आजादी के बाद की चार पीढियों भोग रही है। हमारी यह विशेषता है कि हम हर बिमारी को स्थायी बनाते हैं, ताकि हम इसी बहाने राजसुख भोगते रहें।
समाज को बांटने में कोई हमारा मुकाबला नहीं कर सकता। हमने धर्म, जाति और समुदाय के आधार पर समाज को बांटा। हमने वोट पाने के लिए भारतीय नागरिक के आगे कभी भारतीय पहचान को महत्व नहीं दिया, वरन उसे सदैव हिन्दु-मुसलमान, स्वर्ण-दलित, अगड़ा-पिछड़ा कह कर संबोधित किया।
राजनीति में विचार, आदर्श, सिद्धान्त आदि बेमतलब के शब्दों से हमे परहेज है। झूठ, फरेब, छल, कपट और साम, दाम, दंड, भेद याने सारे उचित और अनुचित तरीके अपना कर किसी भी तरह सत्ता पर कब्जा करों, यही हमारी विचारधारा रही है। हमारी पार्टी और नेता इस विधा में प्रवीण है। अब सिद्धान्तवादी, आदर्शवादी और गांधीवादी नेताओं का हमारी पार्टी में कोई स्थान नहीं है। जो ज्यादा झूठ बोल सकता है। बात का बतंगड़ बना सकता है। धन का जुगाड़ कर सकता है। हमारे नेता के पीछे ढाल कर बन कर खड़ा रहता है। उन पर किये गये प्रहारों का कड़ जवाब देने की क्षमता रखता है, वही नेता कसौटी पर ज्यादा खरा उतरता है।
हम देश की न तो चिंता करते हैं और न ही चिंतन करते हैं। हमारे अपने कोई विचार ही नहीं है। क्योंकि आज की राजनीतिक परिसिथतियों में इसकी आवश्यकता भी नहीं है। भाषण लिखने वाले भाषण लिख देते हैं और हम पढ़ लेते हैं। कभी हमारा चेहरा सपाट रहता था, शब्दों के जबान से निकलने पर चेहरे पर भाव नहीं उभरते थे, परन्तु आजकल विपक्ष का नाम ले कर क्रोध और तिरस्कार का भाव चेहरे पर अवश्य उभरता है। हमारे मन में यह भाव है कि भारत की जनता मूर्ख और भोली है, उन्हें जो कुछ, जिस तरह कहा जायेगा, मान लेगी।
हमने देश का विकास किया है। विकास कर रहे हैं। विपक्ष देश का विकास नहीं चाहता। विकास की राह में रोड़े अटकाता है। हमारी विकास की नीतियों का ही परिणाम है कि भारत, संसार का निर्धनतम देश माना जाता है। दुनियां में सर्वाधिक गरीब भारत में रहते हैं। हमने भ्रष्ट आचरण को आत्मसात किया। भ्रष्टाचार को पल्लवित व पोषित किया, जिससे वह आज दुनिया का भष्टतम राष्ट्र कहलाता है। ऐसी मान्यता मिलने पर हमे कभी शर्म महसूस नहीं होती, वरन गर्व होता है।
यह हमारी ढुलमुल गृहनीति का ही परिणाम हैं कि भारत आतंकवादियों का अभयारण्य बना हुआ है। भारत में दहशदगर्दियों को जब चाहे बम विस्फोट करने की छूट हैं। दुनियां में सर्वाधिक निर्दोष और बेकसूर नागरिक भारत में ही मारे गये हैं। जब तक हम सत्ता में रहेंगे यह सिलसिला रुकेगा नहीं।
अंत में हमारी भारतीय नागरिकों से यही गुजारिश है कि चाहे हमने देश को गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी, दहशदगर्दी और भ्रष्ट कुशासन दिया हों। इस देश को बरबाद और तबाह करने की कोई कसर बाकी नहीं रखी हों। किन्तु फिर भी आप हमे ही वोट देतें रहें, क्योंकि सत्ता पाने का अधिकार हमे ही है, हम यह अधिकार विपक्ष को नहीं लेने देंगे। चाहें हम कैसे भी हो, इस देष पर षासन हम ही करेंगे।

Sunday, 24 November 2013

भद्रलोक का जानवर- तरुण तेजपाल

सौम्यता और विद्वता का नकाब ओढ़े भद्रलोक में कई जानवर विचरण करते हैं, किन्तु उनकी पहचान हो नहीं पाती है, क्योंकि सत्ता की समीपता उनकी दुस्साहस बढ़ा देता है। उन पर काली लक्ष्मी की विषेश अनुकम्पा होती है। गरुर बढ़ जाता है। मन में यह बात बैठ जाती है- सत्ता जब साथ है, तो हम कुछ भी कर सकते हैं। हमारा कोर्इ कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
भद्रलोक के जानवर शराब के शोकिन होते हैं। सित्रयां को वे अपने उपभोग की वस्तुएं समझते हैं। बहुधा वे पकड़े नहीं जाते, क्योंकि अबलाएं उनके रुतबे से भयभीत रहती है। रोजगार पाने, खोने और बदनामी का भय उन्हें रोक देता है। विवश हो कर या तो वे समर्पण कर देती है या व्यवासाय छोड़ देने का निर्णय ले लेती है। सित्रयों की दुर्बलता का लाभ उठा कर ये शिकारी नये शिकार की तलाश करते रहते हैं। उनका अहंकार उन्हें निर्भय हो कर अपने शिकार पर झपटने के लिए प्रेरित करता है।
जिस क्षेत्र में महिलाओं की बहुलता रहती है और जहां उन्हें पुरुष सहकर्मियों को साथ काम करना पड़ता है, उन्हें प्रताड़ना का दंश झेलना पड़ता है। वे विद्राही नहीं हो पाती, क्योंकि उनकी महिला समकर्मी भी उनकी अपनी नहीं हो पाती। तहलका से जुड़ी श्रीमती चौधरी का प्रत्यक्ष उदाहरण सामने है। वे बेबाक और दबंग हो कर एक महिला के पक्ष में बोलने के बजाय पुरुष का बचाव कर रही है। उनके द्वारा दिये गये तर्कों से यही साबित हो रहा है कि वे उसे महिला और प्रश्न पूछने वालों से खपा है। वे अपने हाव-भाव से यह जता रही थी कि आप लोग हमारी ताकत से वाकिब नहीं है। हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। भारत का कोई कानून हम पर लागू नहीं हो पाता।
पुत्री की सहेली याने पुत्री की उम्र की युवती के साथ तेजपाल ने जो दुश्कर्म किया, उससे लगता है कि वे दुस्साहसी व्यकित हैं और वह युवती उनकी पहली शिकार नहीं थी। उनके भीतर के जानवर ने अन्य महिलाओं को भी अपना शिकार बनाया होगा। कुछ भी बोलने के पहले उनकी जबान कंपकंपा गयी होगी। बोली भी होगी, तो उनकी आवाज़ दबा दी होगी। सब कुछ खो जाने के भय से आंसू पी कर चुप रह गयी होगी। यह मामला प्रकाश में आने के बाद वे मन ही मन बुदबदायी रही होगी। परन्तु क्या करें-आंसू बहा कर पीड़ा सहने के अलावा उसके पास चारा ही क्या है?
तेजपाल प्रकरण इस बात की पुष्टि करता है कि प्रभावशाली व्यकित कुछ भी कर सकते हैं। उन्हें कानून का भय नहीं है। वे ऐसा मानते हैं कि यदि सत्ता का साथ है, तो कठोर कानून भी किसी व्यकित पर प्रभावी नहीं होते।  घटना यदि गोवा में नहीं घट कर दिल्ली या राजस्थान में घटित होती, तो उनके विरुद्ध एफ आर्इ आर दर्ज नहीं होती। तरह-तरह के कानून की धाराओं को उल्लेख कर अपराधी को बचा लिया जाता। मीडिया थोड़ा बहुत शोर मचाने के बाद चुप हो जाता और बात आयी गयी हो जाती। तेजपाल अपने स्वघोषित अज्ञातवास में बैठे-बैठे सत्ता के इशारों पर उनके विरोधियों को फंसाने के नये प्लान पर काम करते रहते।
यह तेजपाल का दुर्भाग्य ही था उस युवती द्वारा अपने कार्यालय में भेजा गया र्इ-मेल न जाने से कहां से उड़ता हुआ हवा में आ गया और तूफान बन गया। अन्यथा वह किसी कम्पयुटर के डेसटाप पर ही डिलिट कर दिया जाता। महिला की पीड़ा बाहर नहीं आ पाती। उस पर कर्इ तरह के दबाव डाल कर उसकी आवाज़ को दबा दिया जाता। वह युवती भीतर ही भीतर घुटती हुर्इ तड़फती रहती। तेजपाल के चेहरे पर विद्वता और सौम्यता का नकाब पड़ा रहता। वह और ज्यादा आक्रामक और निर्भय हो कर चालाकी से नये शिकार की तलाश करता और अपनी पहले की गलती को नहीं दोहराता।
भारत का भद्रलोक सत्ता और सम्पति के नशे में डूबा हुआ है। यह लोक संस्कार विहिन हो गया है। इस लोक में रहने वाले लोगों को भारत के कानून भयभीत नहीं करते। कानून तभी प्रभावी होते हैं, जब सत्ता का साथ नहीं रहता हैं। सत्ता से जुड़े लोग अपने सहयोगियों को हमेशा बचाते हैं। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से हो जाती है कि 2009 में घटित हुर्इ महिला के साथ जासूस की घटना, जिसे दुश्कर्म नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पीडि़त ने इस बारें में कोर्इ लिखित बयान नहीं दिया था। अलबत उसके पिता ने अकारण इस बात को नहीं उछालने का अनुरोध किया था। परन्तु जानबूझ कर उस निरर्थक प्रकरण पर आकाश-पाताल एक करने वाले नेता तेजपाल के जघन्य प्रकरण पर चुप्पी साधे हुए हैं। उन्हें बचाने की भरसक कोशिश  कर रहे हैं। न सोनिया गांधी की जबान से एक अबला नारी के समर्थन में कोर्इ शब्द फूट रहा है और न ही उनके पुत्र राहुल गांधी कुछ बोल पा रहे हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि अपने प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल के नेता की किसी भी बात पर तिल का ताड़ बना कर अपने नेता की नज़रों में चढ़ने वाले तिवारी और सिब्बल पता नहीं किन कन्द्रओं में छुपे बैठे हैं।
तेजपाल प्रकरण से इस बात की पुष्टि होती है कि सत्ता के दलाल अबला नारी की सुरक्षा के बजाय अपने साथियों के अपराध को बचाने के लिए ज्यादा सहयोगी बन जाते हैं। यदि भद्रलोक के जानवरों का सत्ता का सहयोग मिलता रहेगा, तो उनका दुस्साहस बढ़ता रहेगा। नारी पर अत्याचार होते रहेंगे। घर की दहलीज के बाहर कदम रखने के पहले वह हमेशा भयभीत होती रहेगी। एक निर्भया नहीं, कर्इ निर्भया पुरुशों के दुश्कर्म की शिकार होती रहेगी और हमारे कानून किताबों में बंद हो कर रह जायेंगे।
सत्ता से जुड़े लोगों ने ही भंवरी देवी का देह शोषण किया। उसका कत्ल करवाया। उसकी हडिडयों और राख को भी रेत के धोरों में दबा दिया और नहर के पानी में बहा दिया। अपराधी सत्ता से जुड़े हुए नहीं थे, वरन सत्ता में थे। सत्ता का नशा था। सत्ता का अहंकार था। राज्य सरकार ने उन्हें बचाने की भरसक कोशिश की, परन्तु घटनाक्रम इस तरह घटित हुआ कि उनका विभत्स चेहरा जनता के सामने आ गया। अन्यथा भंवर देवी घटना एक किंवदंती बन जाती। वे महाशय मंत्री और विधायक बने रहते। फिर चुनाव लड़ते, चुनाव जीतते और मंत्री बनते। हमेश चेहरे पर शराफत का नकाब ओढ़े रहते।
अपराधियों और सत्ता का जब तक घालमेल चलता रहेगा। भारत की अबलाएं असुरक्षित रहेगी। कानून निष्प्रभावी रहेंगे। पूरे देश में दुश्कर्म की घटनाएं घटती रहेगी। तरुण तेजपाल जैस भद्रलोक के जानवर अबलाओं को अपनी हवश का शिकार बनाते रहेंगे। यह सिलसिला चलता रहेगा। कभी कभार कोर्इ घटना बाहर आयेगी, अन्यथा सभी दबा दी जायेगी। अबलाएं अपने हिस्से में आये दर्द को सहती रहेगी।

Thursday, 21 November 2013

भारत की राजनीति में विष घोल कर पुन: सत्ता पाने की अभद्र कोशिश

राजनीति में अत्यधिक विष घोल कर वातावरण को विषाक्त बनाने से उन्हें आखिर क्या हांसिल हो जायेगा ? क्या ऐसा करने से उनके सारे पाप छुप जायेंगे ? क्या वातावरण के प्रभाव से जनता मूर्छित हो कर उनके पक्ष में मतदान कर देगी ? नहीं ऐसा सम्भव नहीं होगा। हवा के रुख को बदला नहीं जा सकता। सवेरा निश्चित रुप से होगा, क्योंकि आकाश पर चढ़ कर सूर्य को उदय होने से नहीं रोका जा सकता। समय को अपनी मुट्ठी में बंद नहीं किया जा सकता।
मनुष्य हांड़-मांस का पुतला ही है, उसकी शक्तियां अजेय नहीं होती। वह कभी अजातशत्रु नहीं बन सकता। युद्ध में विजय मिल जायेगी, किन्तु पराजित भी होना पड़ सकता है, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी भी विजयी होने के लिए ही रण में उतरा है। किन्तु कोर्इ यह समझ बैठे कि हमे पराजित करने का किसी के पास अधिकार नहीं है, तो यह उसका अहंकार है। अहंकार व्यक्ति को हिरणाकस्यप, रावण, कंस और दुर्योधन बना देता है, जिसका अंतत: विनाश निश्चित है।
लोकतंत्र में रक्तपात से सत्ता का हस्तांतरण नहीं होता, क्योंकि किसी को स्थायी रुप से शासन करने का अधिकार नहीं दिया जाता। जो योग्य है, उपयुक्त है, कसौटी पर खरा उतरता है, उसे सेवा का अवसर दिया जाता है। उसे राष्ट्र का मालिकाना हक नहीं सौंपा जा सकता। परन्तु कोर्इ सेवा को ही मालिकाना हक मान बैठता है, इसका मतलब यह हुआ कि वह देश की जनता का मालिकाना हक छीनना चाहता है। क्योंकि लोकतांत्रिक गणराज्य में जनता ही उस गणराज्य की मालिक होती है। जो राजनीतिक दल ऐसा करने की चेष्टा करता है, उसे लोकतंत्र में आस्था नहीं हैं। वह जनता को सत्ता प्राप्ति का माध्यम समझता है, साध्य नहीं मानता । वह जनता की शक्ति को स्वीकार नहीं करता। उसे इस बात का गरुर हो जाता है कि देश पर शासन करने का अधिकार हमारा ही है। यह अधिकार हमसे छीना नहीं जा सकता।
सम्भवत: इसीलिए भारत के एक राजनीतिक दल के नेता देश की जनता को यह समझा रहे हैं कि अमूक व्यक्ति हमे नापसंद है, हम इससे घृणा करते हैं, अत: जनता इसे स्वीकार नहीं करें। शायद ऐसा कहते हुए वे यह भूल जाते हैं कि लोकतंत्र में जनता से आदेश लिया जाता है, जनता को निर्देश नहीं दिया जाता। कौन सही है और कौन गलत, इसका निर्णय लेने का अधिकार जनता के पास है। आप जनता के अधिकार और उसके विवेक को चुनौती नहीं दे सकते।
एक प्रदेश की यदि करोड़ो जनता किसी व्यक्ति के प्रति विश्वास जताते हुए, उसे अपना नेता स्वीकार करती है, तब स्वत: ही उस व्यक्ति का कद विराट हो जाता है। वह सम्मान पाने का अधिकारी है। उसका तिरस्कार व अपमान करना उस प्रदेश की करोड़ो जनता का अपमान करना है, जिसने उसे अपना नेता स्वीकार किया है। किन्तु इस हकीकत को स्वीकार करने में काफी कष्ट होता है। वे यह मानना ही नहीं चाहते कि अमूक व्यक्ति एक प्रदेश का नेता है और उसे यह पद प्रदेश की जनता ने संवैधानिक परम्परा के आधार पर सौंपा है। इस पद को उन्होंने हथियाया नहीं है।
और क्या एक राजनीतिक दल, जिसके पक्ष में देश के करोड़ो मतदाता, मतदान करते हैं, यह अधिकार नहीं है कि देश के प्रधानमंत्री पद के लिए अपना एक उम्मीदवार घोषित करें ? करोड़ो मतदाता वाला राजनीतिक दल यदि किसी व्यक्ति विशेष को अपने दल की  ओर से अधिकृत प्रत्यासी मानता है, उसे जनता से निर्देश लेने की अनुमति देता है, तो इसमें गलत क्या है ? क्या ऐसा करना उस राजनीतिक दल का संवैधानिक अधिकार नहीं है ? क्या एक स्वर में उस व्यक्तित्व को अशोभनयी शब्दावली से संबोधित करना करोड़ो जनता का अपमान करना नहीं है, जो उस पार्टी के साथ जुड़ी हुर्इ है और उसके पक्ष में मतदान करती है ? क्या  एक राजनीतिक दल के नेताओं की ओछी मनोवृति अप्रत्यक्षरुप से देश की जनता को यह समझाने की कोशिश नहीं करती कि देश पर शासन करने का अधिकार हमारा ही है। हम यह अधिकार किसी ओर को नहीं लेने देंगे।
यदि आप सत्ता में हैं,  तो आपके कार्यों की आलोचना करने के आधार पर ही विपक्ष जनता से वोट मांगेगा और जनता से निवेदन करें कि आप एक बार हमें भी सेवा का अवसर दें, हम आपकी कसौटी पर खरे उतरेंगें। क्या ऐसा करना राजनीतिक अपराध की श्रेणी में आता है ? क्या  विपक्ष की आलोचना का सारगर्भित शब्दावली में जवाब देने के बजाय, उस पर कटाक्ष करना उचित है ? क्या उसके नेता को तरह-तरह के अशोभनीय अलंकारों से अलंकृत कर उनकी छवि को जानबूझ कर विद्रूप  करना सही है ? सिद्धान्त: यदि सत्ता पक्ष पुन: सत्ता में आना चाहता है, तो किये गये कार्यों का प्रमाणित विवरण जनता को  दे, अपनी उपलब्धियों के आधार पर जनता से पुन: सेवा का अवसर मांगे । विपक्ष के नेता के विरुद्ध अर्नगल व नींदनीय शब्दावली का प्रयोग करना, उनकी कुत्सिक मन:स्थिति को दर्शाता है, जो यह साबित करता है कि भारत की राजनीति को इन्होंने अपने स्वार्थ के लिए कितनी विषैली बना दिया है।
एक पार्टी के अधिकांश नेता, एक घृणित रणनीति के तहत एक व्यक्ति विशेष की आलोचना करना और उनके द्वारा कहे गये एक -एक शब्द का पोस्टमार्टम कर उन्हें नीचा दिखाने की धूर्त कोशिश करना, क्या यह नहीं दर्शाता कि उनका लोकतंत्र, भारत के सवं​िधान और संवैधानिक संस्थाओं में कोर्इ विश्वास नहीं हैं। वे किसी भी तरह सत्ता पर नियंत्रण चाहते हैं और इसके लिए वे एक हद तक गिर सकते हैं।
मनुष्य सर्वगुण सम्पन्न नहीं होता। जनता के समक्ष बोलते समय कुछ त्रुटियां होना स्वाभिक ही है। इतिहास के बारें में कोर्इ गलत  तथ्य प्रस्तुत करने का मतलब यह नहीं होता कि यह व्यक्ति निकृष्ट है। उसके सारे संवैधानिक अधिकार समाप्त हो गये हैं। पहाड़ सी गलती वह कहलाती है, जब व्यक्ति संवैधानिक पद का दुरुपयोग करते हुए देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटता है। अपने अपराध को स्वीकार नहीं करता हैं। अपराध को छुपाने और दबाने के लिए जांच एंजेसियों का सहयोग लेता है। ऐसे क्षुद्रतम अपराध करने वाले व्यक्ति या उस राजनीतिक दल को पुन: जनता से सत्ता का अधिकार मांगना, किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता।
किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं रहने के उपरांत भी किसी व्यक्ति विशेष या एक परिवार के प्रति एक लोकतांत्रिक पार्टी के नेताओं द्वारा अत्यधिक स्वामीभक्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन, यह दर्शाता है कि इस पार्टी का लोकतंत्र के बजाय राजतंत्र में ज्यादा आस्था है। ऐसे परिवार के एक सदस्य के लिए शहजादा संबोधन गाली नही कहा जा सकता। इसे लोकतंत्र में राजतंत्र की परम्परा निभाने पर कटाक्ष ही समझा जा सकता है। किन्तु प्रतिकार में  बोले गये रावण, दैत्य, भष्मासुर आदि अनेक अलंकारों को क्या उपयुक्त और शोभनीय कहा जा सकता है ?
यदि कोर्इ राजनेता अपने व्यक्तित्व के बल पर जनता में भरोसा जगाने में समर्थ लगने लगता है, तो उसे रोकने एक ही उपाय है- उसके समक्ष अपने किसी प्रभावशाली व्यक्तित्व को मैदान में उतारना। किन्तु आपके पास ऐसा कोर्इ व्यक्तित्व है ही नहीं और यदि है तो वह बहुत बौना है, अत: एक अन्वेषण टीम बना कर प्रतिद्वंद्वी व्यक्तित्व की छोटी सी गलती को पहाड़ बता कर मीडिया के माध्यम से खूब प्रचार करना, एक तरह से युद्ध आरम्भ होने के पहले ही हार स्वीकार करना ही है, जिसे खीझ और बौखलाहट कहा जा सकता है।

Monday, 18 November 2013

धन के मकड़जाल ने भारतीय लोकतंत्र को अपाहिज बना दिया है

भाजपा, वामपंथी दलों और किसी एक आध राजनीतिक दल को छोड़ कर भारत की सभी राजनीतिक पार्टिंयां किसी एक परिवार या व्यक्ति की निजी मिल्कियत है। भारतीय लोकतंत्र को संचालित करने में प्रभावी भूमिका निभाने वाली सारी पार्टिंया पूर्णतया अलोकतंत्री है। पार्टी में मालिक की इच्छा सर्वोपरी होती है। इनके किसी निर्णय को चुनौती नहीं दी जा सकती। इन्हें पार्टी के सर्वोच्च पद से हटाने का अधिकार किसी को नहीं होता। अर्थात भारतीय लोकतंत्र, अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टियों की पराश्रयता भोग रहा है।
अलोकतांत्रिक पार्टियों के मठाधीश कुबेरपति है। जिन पार्टियों ने केन्द्र या प्रदेश की सत्ता हाथ में ले ली, उनकी आने वाली सात पीढ़ियों की तकदीर संवर जाती है। भारत की गरीब जनता को मूर्ख बना कर चुनाव कैसे जीता जाता है, इस कला में ये सिद्धहस्त है। अनेक स्त्रोतों से धन का जुगाड़ करने में इने महारथ हांसिल है। दरअसल भारत की जनता उनके लिए साधन हैं, धन साध्य है और राजनीति उनके लिए व्यवसाय है। राजनीति के व्यवसाय में धन लगाया जाता है और धन कमाया जाता है।  प्रजातांत्रिक मूल्यों, आदर्शों और सिद्धान्तों से उन्हें कोर्इ मतलब नहीं है। इनका एक ही मकसद रहता है-सारे गलत-सही साधनों का प्रयोग करते हुए किसी भी तरह चुनाव जीतो। सत्ता पर नियंत्रण स्थापित करों और खुल कर धन कमाओं।
भारत के शीर्षस्थ राज परिवार ने अब तक अपनी सम्पति के बारें में देश को जानकारी नहीं दी है। अपने प्रभाव से सम्पति का विवरण देने में सदैव बचता रहता है। अलबता अन्य धनी राजनीतिक व्यक्तियां और परिवार की सम्पति की जांच करवा चुका है और उनका सरकार चलाने में समर्थन लेने के बाद उन्हें बचा भी लिया जाता है। ऐसा अनुमान है कि इस परिवार के पास अकूत धन सम्पदा है। यह परिवार भारत का सबसे धनी राजनीतिक परिवार है। इस परिवार ने अपनी खरबों की रुपये की सम्पति का निवेश विदेशी बैंकों में कर रखा है। अकूत धन सम्पदा के बारें में यदा-कदा प्रश्न उठाये जाते रहे हैं, किन्तु प्रभावी अनुचर मंडली जवाब देने में आगे आ जाती है। ऐसे प्रश्न जो उठाता है, उसका मुहं बंद करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी जाती है।
भारत के राजनीतिक दलों को धन उद्योगपति देते हैं। विदेशी कम्पनियां अनेकों सौदों में दलाली के रुप में धन देती है। अर्थात जनता का ज्यादा पैसा विदेशी कम्पनियों को चुकाया जाता है, जिसका अंतत: भार जनता को ही ओढ़ना पड़ता है।  उद्योगपति राजनेताओं को उपकृत कर टेक्स बचाते हैं। दश प्रतिशत धन राजनेताओं और नौकरशाहों को दे कर नब्बे प्रतिशत धन  को काले धन में तब्दील कर लेते हैं। निश्चय ही उनके ऐसे आचरण से राजकोष में आने वाले धन की आवक रुक जायेगी और उसकी पूर्ति के लिए जनता पर टेक्स लगाया जायेगा। उद्योगपति, नौकरशाह और राजनेताओं के संबंध जितने अधिक प्रगाढ़ होते हैं, कालेधन का निर्माण बढ़ जाता है। राजकोषीय घाटा बढ़ता रहता है। इसके परिणामस्वरुप महंगार्इ बढ़ती है। अभाव बढ़ते हैं। गरीबी बढ़ती है। त्रिगुट मालामाल होता है। देश गरीब होता है। दरअसल त्रिगुट के अवैध संबंधों की प्रगाढ़ता ही सारी समस्याओं की जड़ है। ये अवैध संबंध भारत की प्रगति में अवरोध बने हुए हैं, क्योंकि धन की कमी के कारण विकास हो नहीं पाता। समृद्धि नहीं बढ़ती। गरीबी नहीं घटती।
नि:संदेह जनता के कष्ट बढ़ेंगे तो वह नाराज हो कर वोट नहीं देगी। वोट पाने के लिए जनता को प्रसन्न करने के लिए कर्इ टोटके किये जाते हैं। लोकलुभावन योजनाएं ला कर जनता को उपकृत किया जाता है। मनरेगा, खाद्यसुरक्षा आदि कर्इ लाख करोड़ो की योजनाएं वस्तुत: वोटों के जुगाड़ के लिए ही बनायी गयी है। ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन से गरीब जनता के थोक वोट मिल जाते हैं और अपने आपको गरीबों के मसीहा के रुप में प्रचारित किया जाता है। परन्तु ये योजनाएं देश को स्थायी गरीबी और अभावग्रस्त बना रही है, क्योंकि सारा पैसा जनता का ही होता है, जिसे जनता में ही लुटाया जाता है। जितना ज्यादा धन लुटाया जायेगा, राजकोषीय घाटा बढ़ेगा, जिससे महंगार्इ बेलगाम हो जायेगी।
उद्योगपतियों और मतदाताओं को प्रसन्न करने के लिए सरकारी बैंकों को चेरिटीबल ट्रस्ट बना दिया गया है। उद्योगपति राजनेताओं का सहारा ले कर बैकों का कर्ज लौटाते नहीं है। और जनता को बांटा गया ऋण भी डूब रहा है। बैंकों का एनपीए बढ़ रहा है। यदि केन्द्र में ऐसी ही सरकारे बनती रही, जिन्हें जनता के धन को लुटाने में कोर्इ परहेज नहीं होगा, तो अधिकांश सरकारी बैंक एक दिन दिवालिया हो जायेंगे।
किन्तु जिनके मन में छल कपट हो, वे कभी दूसरों की तकलीफों के बारें में नहीं सोचते। उनका अपना स्वार्थ ही सर्वोपरि होता है। देश हित और देश की प्रगति का उनके लिए कोर्इ महत्व नहीं होता है। भारत दुनिया का निर्धनतम राष्ट्र है। दुनियां की सर्वाधिक दरिद्र और अभावग्रस्त जनता भारत में रहती है। देश के अस्सीं नब्बे करोड़ जनता गरीबी और अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए मजबूर हैं, किन्तु जिन राजनेताओं के लिए गरीबी और पिछडापन ही चुनाव जीतने के लिए वरदान साबित हो रहा हो, वे इसे दूर करने का क्यों संकल्प लेंगे ?
विदेशी सरकारें और भारत के धूर्त उद्योगपति नहीं चाहते कि भारत में कभी ऐसी सरकार अस्तित्व में आये, जिसके नेताओं को खरीदा नहीं जा सके। ये अस्थिर और भ्रष्ट सरकारों का अस्तित्व बनाये रखना चाहते हैं, ताकि भारत कभी विकास नहीं कर पाये। वह हमेशा विदेशियों पर अवलम्बित रहें। भारत यदि विकसित राष्ट्र बन गया तो उनका मुनाफा कम हो जायेगा। शोषण का अबाध क्रम रुक जायेगा। इसी तरह भारतीय उद्योगपति ऐसी सरकार चाहते हैं, जिसके मंत्री और अफसर उनके लिए अधिकाधिक लाभकारी बनें। वे धन कमाना चाहते हैं, चाहें अपने जुनून के लिए भारत की जनता को और अधिक गरीब ही क्यों न बनना पड़े।
भारत के अधिकांश टीवी चेनल विदेशियों के नियंत्रण में हैं और इनका भरपूर प्रयोग प्रपोगंडा करने के लिए किया जाता है। भारत की शीर्षस्थ राजनीतिक पार्टी के लिए ये प्रचार के भोंपू बन गये हैं। टीवी चेनलों के मालिकों का मुख्य ध्येय भारत से धन बटोरना है। वे भी ऐसी सुविधाजनक सरकार चाहते हैं, जो उनकी करतूतों को अनदेखा करती रहें। इस समय सत्ताधारी दल अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी को दबाने के लिए टीवी चेनलों का भरपूर उपयोग कर रहा है। इन दिनों एक स्टींग आपरेशन का खूब प्रचार किया जा रहा है। दरअसल जनता का ध्यान मुख्य मुद्धे से हटाने का एक षडयंत्र मात्र है। ऐसे उदाहरणों से टीवी चेनलों की संदिग्ध भूमिका प्रमाणित होती है।
भारतीय प्रेस भी राजनेताओं और उद्योगपतियों के प्रभाव को खंड़ित नहीं करना चाहती। सरकार से पंगा लेने के लिए कतराती है। क्योंकि अखबार बिना विज्ञापनों के सहारे जीवित नहीं रह सकते और इसके लिए सरकार और उद्योगपति मुख्य सहायक होते हैं।
चुनाव जीतने, सरकार बनाने, सरकार चलाने या प्रतिद्वंद्वी की सरकार गिराने में धन की प्रमुख भूमिका रहती है। भारतीय राजनीति में धन के घालमेंल को समाप्त करने के लिए केन्द्र में एक लोकतांत्रिक पार्टी की सरकार चाहिये, जो किसी एक परिवार या व्यक्ति की निजी धरोहर नहीं हो। धन के मकड़जाल ने भारतीय लोकतंत्र को अपाहिज बना दिया है। भारतीय जनता अब सजग और संगठित हो कर उन तत्वों को ठुकरा सकती है, जिन्हें भारतीय लोकतंत्र, देश के विकास और समृद्धि से कोर्इ मतलब नहीं है।

Friday, 15 November 2013

आर्थिक विषमता एक अभिशापहै, क्या इससे मुक्ति के लिए हम गम्भीर हैं?

आर्थिक विषमता में कोई देश हमारा मुकाबला नहीं कर सकता।  हम शीर्ष पर खडे़ हैं। हमें इस अभिशाप से छुटकारा कैसे मिले, इस पर मंथन करना आवश्यक हैं।  जिस देश में अरबपतियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है, उस देश में गरीबी क्यों बढ़ रही है ? प्रतिवर्ष गरीबी रेखा के नीचे और अधिक आबादी क्यों आ जाती है ? देश खाद्यान का निर्यात करता है, फिर एक चौथाई आबादी भूखी क्यों सोती है ? जिस देश की सरकार राष्ट्रपति चुनाव के पहले, समर्थक पार्टियों के सांसदों को दिये गये भोज पर प्रति थाली आठ हजार रुपया खर्च कर सकती है, उसी देश की जनता, अपने भोजन की थाली पर पांच रुपये भी खर्च करने की हैसियत क्यों नहीं रखती ?
भारत में दो भारत है- एक विपन्न भारत और एक संपन्न भारत।  विपन्न भारत की स्थिति अब सोमालिया से भी बदतर हो गयी है। वहीं सम्पन्न भारत के नागरिकों का जीवन स्तर अमेरिका और योरोप के नागरिकों के समकक्ष रखा जा सकता है। इस देश में ऐसे नागरिक भी है, जिनके पास सैंकड़ो नहीं हज़ारो जोड़ी कपडे़ हैं, वहीं इस देश के करोड़ो नागरिकों को तन ढ़कने के लिए एक या दो जोड़ी कपडे़ भी नहीं है। देश में ऐसे लोग भी हैं, जो एक दिन में शराब पर हजारों रुपया खर्च कर देतें हैं, वहीं इस देश में एक से पांच वर्ष के सतर प्रतिशत बच्चों को पीने के लिए दूध भी नहीं मिलता।
विचित्र देश है यह। क्रिकेट खिलाड़ी और फिल्मी कलाकारों की वार्षिक आय अब हजारों करोड़ में जा रही है, क्योंकि विज्ञापन बाजी में कम्पनियां, इन पर करोड़ो रुपये लूटा रही है। ये आधुनिक भारत के भगवान बन गये हैं। परन्तु दुर्भाग्य से करोडो़ युवा, पांच हजार रुपया महीने की नौकरी पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इतनी असमनता होने पर भी सभी चुप-चाप बैठे हैं। कोई यह जानने के लिए गहरायी में नहीं उतरना चाहता कि आखिर यह क्यों हो रहा है ? क्यों भारत वर्ष की जनता को असमानता का अभिशाप भोगना पड़ रहा है ?
आर्थिक असमानता का मूल कारण है- विद्रुप राजनीतिक व्यवस्था। इस राजनीतिक व्यवस्था ने ही भारत में  सम्पन्न भारत का निर्माण किया है। यह सम्पन्न भारत, विपन्न भारत के निरन्तर शोषण से ही समृद्ध हुआ है। उदाहरण के लिए यदि भारत में प्रति वर्ष एक अरबपति की संख्या बढ़ती है, तो उसके अनुपात में लाखों नागरिकों को गरीबी रेखा के नीचे जाना पड़ता है। विपन्न भारत की समृ़िद्ध घट रही है और सम्पन्न भारत की बढ़ रही है, इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि विपन्न भारत का पैसा सम्पन्न भारत की ओर बह रहा है।  यदि कोई उद्योगपति करों की चोरी कर के पैसा बनाता है, इसका सीधा मतलब है वह राजकोष को चुना लगा रहा है। उसका पैसा जो करों के रुप में राजकोष में जाना था, वह वहां नहीं जा कर उसकी जेब में जाता है।  कई  उद्योगपति करों की चोरी करते हैं जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ जाता है, उसकी भरपायी के लिए सरकार को टेक्स लगाना पड़ता है, टेक्स से महंगाई बढ़ती है। महंगाई अंतत: अभावों में वृद्धि करती है।
इसी तरह एक नौकरशाह जिसे सरकारी खजाने में रुपया लाने की जिम्मेदारी होती है, जिसके एवज में वह सरकारी खजाने से  वेतन भी  पाता है।  यदि वह अधिकारी, उद्योगपति से मिल कर उसके कर चोरी के कार्य में सहायक बन जाता है, तब वह दो तरह से सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचाता है- एक: सरकारी खजाने से उसे वेतन दिया जाता है, वह व्यर्थ जाता है, क्योंकि वह अपना उतरदायित्व नहीं निभा रहा है। दो: उसके भ्रष्ट आचरण से राजकोष में पर्याप्त धन नहीं पहुंचता है, जिससे राजकोषीय  घाटा बढ़ जाता है, जिसका भार भी निर्धन भारत को ओढ़ना पड़ता है।
प्राकृतिक संसाधन, जो राष्ट्रीय निधि होते हैं, अर्थात उसकी मालिक देश की जनता होती है। इनका उपयोग इस तरह किया जा सकता है, जिससे देश की समृद्धि बढे़ और उसका लाभ देश के सभी नागरिकों को मिले।  परन्तु यदि उद्योगपति, राजनेता और नौकरशाह मिल कर प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबाट अपने निजी स्वार्थ के लिए कर लेते हैं, अर्थात उसे लूट लेते हैं।  प्राकृतिक संसाधनों की लूट एक तरह से देश के नागरिकों की संपति लूटना ही है। अभी जो घोटाले प्रकाश में आ रहे हैं, उसमें अधिकांश मामले प्राकृतिक संसाधनों की लूट के ही है। निश्चय ही, इस लूट से लुटेरों की समृ़िद्ध बढ़ी हैं और देश की जनता गरीब हई है।
एक सांसद चुनाव जीतने के लिए अनुमानत: दस से पचास करोड़ रुपया खर्च कर देता है।  इसी तरह एक विधायक को चुनाव जीतने के लिए एक से दस करोड़ तक खर्च करना रहता है। लोकसभा और विधानसभा की एक सीट पर एक ही प्रत्यासी जीतता है और दो से अधिक प्रत्यासी चुनाव हारते है। परन्तु धन सभी प्रत्यासियों को खर्च करना रहता है।  यदि देश की सभी लोकसभा और विधानसभाओं की सीटों को जोड़ा जाय, तो राजनेताओं द्वारा चुनाव जीतने के लिए जो धन खर्च किया जाता है, वह कई लाख करोड़ तक जाता है। ये लाखों करोड़ रुपये वे कहां से लाते हैं ? सम्भवत: कुछ पैसा ये अपने स्त्रोत से जुटाते हैं और कुछ उन्हें अपनी पार्टी देती हैं, किन्तु अप्रत्यक्ष रुप से सारा पैसा उन्हें उद्योगपति ही देते हैं। निश्चय ही उद्योगपति उन्हें दान नहीं देते,  धूर्तता से वे पैसे राजनेतओ और नौकरशाहों के साथ मिल कर जनता की जेब से ही निकालते हैं।  दान में यदि एक रुपया देते हैं] तो चोरी दस रुपये की करते हैं।
विद्रुप राजनीतिक व्यवस्था के भयावह परिणाम सामने हैं। करोडो़ रुपये की सुनियोजित लूट के सिलसिलेबार कई घोटालों के ऊपर से पर्दा उठ रहा है, जो इस बात का साक्षी है कि भारतीय जनता निरन्तर छली जा रही है। उसका बहुत ही चालाकी से शोषण हो रहा है। राजनीति एक तरह लूट का पर्याय बन गयी है। सब से दु:खद तथ्य यह है कि लुटेरों के मन में आत्मग्लानी नहीं है।  वे कभी लूट को स्वीकार ही नहीं करते, चाहे उन्हें कितने ही तर्क दिये जाय।  निश्चय ही, वे बैखोप है। उन्हें मालूम है, पकड़े जाने पर भी सजा नहीं होगी।  वे धन के बलबूते लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को अपने नियंत्रण में लेते रहेंगे और देश को निरन्तर लूटते रहेंगे। इस तरह भारत में आर्थिक अससमानता की खाई भरने के बजाय बढ़ती जायेगी।
जितनी असमानता की खाई बढे़गी समाज में विकृतियां बढ़ेगी। निर्धन भारत के युवाओं का आक्रोश बढ़ता जायेगा, जिससे वे गलत रास्त पर चल पडेंगे। हमे इस अभिशाप से छुटकारा पाने के उपाय सोचने चाहिये। इसका एक ही उपाय है- हमें वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था बदलनी होगी। व्यवस्था परिवर्तन तभी सम्भव है, जब राजनीति मे अच्छे लोगों का आगमन हो और वे बिना  धन खर्च किये एवं राजनीति दलों का अवलम्बन लिये चुनाव जीत सके।

Thursday, 14 November 2013

लोकतंत्र को हमें ही जीवंत बनाना है, ताकि खुशहाल भारत का निर्माण किया जा सके


लोकतंत्र को हमें ही जीवंत बनाना है, ताकि खुशहाल भारत का निर्माण किया जा सके

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यदि आप सार्वजनिक जीवन में हैं, तो अब वह समय आ गया है कि आपको गम्भीरता से सक्रिय हो जाना चाहिये। और यदि आप नहीं है, तो आपको देश हित में सार्वजनिक जीवन में आना चाहिये। यदि आपकी राजनीति में रुचि नहीं है, तो आपको रुचि लेनी चाहिये और जो लोग राजनीति में हैं, उन पर कड़ी नज़र  रखनी चाहिये।  देश की दुर्दशा को देख कर यदि आप मौन है, तो मुखर बन जाईये, क्योंकि आपका मौन देश को काफी क्षति पहुंचा रहा है। आपकी निष्क्रियाता से न केवल आपको हानि हो रही है, वरन इसका प्रभाव आपकी संतति के भविष्य पर भी पड़ रहा है। अत: हमें जागना है और हमारे पास जो सोये हुए हैं, उन्हें भी जगाना है। लोकतंत्र के सुफल तभी मिलते हैं, जब उस देश के नागरिक सजग प्रहरी बन कर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हैं। जागरुक नागरिक ही लोकतंत्र को जीवंत बनाते हैं, जिम्मेदार बनाते हैं और जनप्रतिनिधियों को सुशासन देने को बाध्य कर सकते हैं।
विषम राजनीतिक व आर्थिक परिस्थितियों को सुलझाने के लिए नागरिकों की सहभागिता की आवश्यकता महसूस की जा रही है। अब वह समय नहीं रहा है कि देश को पूरी तरह किसी राजनेता, राजनीति दल या गठबंधन के भरोसे छोड़ कर हम निशिंचत बैठे रहे। केवल वोट दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री करना ही पर्याप्त नहीं है। राजनेता और उनकी कलुषित राजनीति ने हमे काफी क्षति पहुंचाई है और पहुंचा रहे हैं। हमें इस कलंक से राष्ट्र को मुक्त कराना है। परन्तु इसके पहले हमें अपनी धार्मिक, जातीय व प्रान्तीय संकीर्णता से ऊपर उठना है। यदि हम अपने आपको रुढिवादी मानसिकता  से मुक्त नहीं कर पायें,  तो राजनीति में भ्रष्ट आचरण वाले लोग आते रहेंगे, प्रभावी होते रहेंगे, हमारी दुर्बलताओं का लाभ उठाते रहेंगे और हमे आपस में बांट कर सता हासिंल करते रहेंगे  और गलत तरीके अपना कर धन कमाते रहेंगे। हम कुछ नहीं कर पायेंगे। हम उनकी करतूतों को असहाय हो कर देखते रहेंगे, क्योंकि हमने ही उन्हें वोट दे कर आगे भेजा है। लोकतंत्र का स्वरुप उस देश की जनता ही बनाती है। यदि जनप्रतिनिधि सुशासन देने में असमर्थ रहते हैं, तो निश्चय ही हमने उन्हें चुनने में गलती की है।
देश को  प्रशासनिक कुशासन का अभिशाप झेलना पड़ रहा है। हमें आज एक ऐसे चमत्कारिक नेतृत्व की जरुरत है, जो सभी को साथ ले कर चल सके। जो राजनीति का शुद्धिकरण कर सकें और ऐसी परिस्थतियां उत्पन्न करें, जिससे अच्छे व्यक्तियों का राजनीति में प्रवेश हो। यह तभी सम्भव है कि हम राजनीतिक दलों को बाध्य करें कि वे ऐसा नेतृत्व खोजें, जो सर्वत्र स्वीकार्य हों,  तपस्वी मनोवृति का हो, देश को सुशासन देने का संकल्प ले। यदि कोई भी राजीनतिक दल ऐसा व्यक्तित्व देने में समर्थ हो जाता है, तो एक बार पूरे देश को उस राजनीतिक दल के साथ जुड़ जाना चाहिये। यदि   राजनीतिक दल ऐसा नहीं कर पाता है, तो देश की जनता को नेतृत्व खोज में लग जाना चाहिये।
राजनेता और सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्ट आचरण से पूरा देश उद्वेलित है। भ्रष्टतंत्र की कब्रो से मरे मुर्दे उखाड़ कर और सड़को पर ढ़ोल नगाडे़ बजाने से भ्रष्टाचार पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है।  जब सता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे व्यक्ति ही भ्रष्ट हैं और उन्हें भ्रष्ट आचरण से कोई परहेज नहीं है, तो हम चाहें जितना शोर करें, उनकी सेहत पर  असर पड़ने वाला नहीं है। व्यवस्था परिवर्तन के लिए किया गया सार्थक जन आंदोलन ही इस समस्या का एक मात्र उपाय है। परन्तु आंदोलन को सफल बनाने के लिए राजनीतिक दलों को जोड़ने से परहेज नहीं करना चाहिये। जिस राजनीतिक दल में भ्रष्ट हाथियों की भरमार है, वे तो वैसे भी जुडे़गे ही नहीं, किन्तु जिनमे छोटी-छोटी चिंटियां ही हो, उन्हें अपने साथ लेने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिये। भारतीय राजनीतिक दलों और उसके नेताओं का देश भर में व्यापक प्रभाव है, इनको साथ लिये बिना कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया जा सकता। हां, यह अवश्य है कि हमें उन्हीं दलों को साथ लेना चाहियें, जो सुधरने का संकल्प लें और अपना पूर्ण शुद्धिकरण कर दें।
जीवंत लोकतंत्र वह होता है, जिसमें खुलापन हो। वैचारिक द्वंद्व हो। यदि कोई सोच लोकतंत्र को संकीर्ण बना देती है और सच्चाई से उसे अलग कर देती है, तो यह त्रासद स्थिति होती है। किसी राजनीतिक दल में चाटुकारों की भरमार हो  और दुर्भाग्य से ऐसे दल के नेता के पास सता की कमान आ जाती है, तो स्वत: ही  असामन्य परिस्थितियां निर्मित हो जाती है। लोकतंत्र में विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व विचारधारा महत्वपूर्ण होती है। विचारों का आदान-प्रदान होता है। विचारों का मंथन और विश्लेषण होता है। सार्थक बहस होती है। इस बहस के आधार पर सामुहिक सहमति से जो निर्णय लिया जाता है, वहीं सिद्धान्त बनता है। लोकतंत्र में किसी व्यक्ति विशेष का कोई महत्व नहीं होता और उसका कोई विचार या निर्णय तब तक सिद्धान्त नहीं बनता, जब तक कि वह उक्त प्रक्रिया से नहीं गुजरता है। लोकतंत्र में कभी आज्ञा नहीं दी जाती। आज्ञाकारी अनुचर प्रवृति को निषेद्ध माना जाता है।
यदि किसी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में राजशाही जैसी शैली मान्यता प्राप्त कर लेती है, तब समझ लेना चाहिये कि यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है और देश को कई अप्रिय व असमान्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। इस समय भारत की सता एक परिवार के हाथों में केन्द्रीत हो गयी है।  इस परिवार के सदस्यों की बोद्धिक क्षमता का परिचय हमें उनके द्वारा दिये गये भाषणों में मिलता है। सता के केन्द्रीयकरण से कई दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं, जो लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के लिए शुभ नहीं कहे जा सकते।
सरकार से जुड़े नेताओं के आचरण पर और सरकार की नीतियों पर पूरा देश व मीडिया ध्यान रखता है। भारतीय संविधान ने नागरिकों को विचारों की अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार दे रख है। अत: कोई भी नागरिक किसी भी राजनेता के आचरण के संबंध में प्रश्न पूछने अधिकार रखता है। इसे किसी भी तरह से अपराध नहीं ठहराया जा सकता।  सामान्यत: जिस व्यक्ति के आचरण को ले कर प्रश्न किया जाता है, उसे स्वयं ही शालिनता से तार्किक आधार पर उत्तर दे कर, उस नागरिक को संतुष्ट करना चाहिये।  परन्तु जिससे प्रश्न किया जाता है, वह व्यक्ति तो  अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता है, किन्तु उसके समर्थन में कई व्यक्ति दौड़े आते हैं और आक्रामक शैली में सार्वजनिक रुप से धमकाते हैं, जैसे उसने कोई संगीन अपराध कर लिया हो। उनकी भाव-भंगिमा यही दर्शाती है कि उनके नेता भगवान है और उनके  भगवान के विरुद्ध कुछ भी कहने की जो हिम्मत करेगा, उसे हम देख लेंगे।
विश्व में जहां भी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है, वहां ऐसी असामान्य स्थिति नहीं है। इसे किसी भी तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं कहा जा सकता। देश की जनता को आगे बढ़ कर लोकतंत्र को राजशाही में परिवर्तित करने के कुत्सित प्रयास को निष्फल करना चाहिये, अन्यथा हम स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्पराओं के स्थान पर अप्रत्यक्षरुप से राजतंत्रीय परम्पराओं को मान्यता दे देंगे।

Tuesday, 12 November 2013

आम आदमी पार्टी का जन्म और अन्ना के जन आंदोलन की अन्तयेष्टि

भारत की राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था भ्रष्टाचार में आंकठ डूबी हुर्इ है। व्यवस्था के प्रति जनता में व्यापक असंतोष है। वह व्यवस्था परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध दिखार्इ देती है। अन्ना का जनआंदोलन वस्तुत: भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए सरकार को बाध्य करना था। जन लोकपाल बिल का मसौदा सरकार को दे कर उन्होंने मांग रखी थी कि ऐसा लोकपाल बिल संसद पास करें, ताकि भ्रष्टाचार पर कुछ हद तक अंकुश लगाया जा सके।
सरकार की हठधर्मिता, अहंकार और छल ने आंदोलन को उग्र रुप दे दिया। पूरे देश का ध्यान अन्ना के जन आंदोलन की ओर आकृष्ट हो गया था। बिना किसी राजनीतिक दल के सहारे खड़ा किया गया यह आंदोलन व्यवस्था के प्रति आम भारतीय के आक्रोश की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया था। वयोवृद्ध गांधीवादी नेता में महात्मागांधी और बाबू जय प्रकाश नारायण की छवि दिखार्इ दी थी। अन्ना की सादगी। उनके सरल व बेबाक विचारो ने भारतीय जनमानस को काफी प्रभावित किया था।  भ्रष्टाचार के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष करने वाले अन्ना एक ऐसे योद्धा थे, जो कभी किसी राजनीतिक दल के समक्ष झुके नहीं थे और न ही उन्होंने किसी भी राजनीतिक दल के साथ पक्षपात किया था। इस योद्धा ने हर लडार्इ जीती थी, परन्तु दुर्भाग्य से अपने जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण लड़ार्इ हार गया।
प्रश्न उठता है कि अन्ना आंदोलन का ऐसा हश्र क्यों हुआ ? आज अन्ना कहां है ? वे पूरे देश में घूम कर चुपचाप क्यों बैठे हैं ? क्या पूरे देश में भ्रष्टाचार का उन्मूलन हो गया ? क्या बिना लोकपाल बिल के ही भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार आ गया ? क्या देश भर के किसी सरकारी कार्यालय में अब रिश्वत नहीं ली जाती है ? अन्ना अभिशप्त व पीड़ित भारतीय जन की आवाज बने थे, उनकी आवाज यकायक क्यों बंद हो गयी ? उन्हें किसने धोखा दिया ?
इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक ही है- कुछ व्यक्तियों का एक समूह जो अन्ना आंदोलन से जुड़ा हुआ था, अन्ना आंदोलन की दिशा बदल दी। अपनी अतृप्त राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए  पवित्र जन आंदोलन को राजनीति के दलदल में घसीट ले गये। ऐसे दलदल में धंसने की अन्ना की इच्छा नहीं थी। इस समूह की गतितिविधयों से क्षुब्ध हो कर देश के प्रतिष्ठित नागरिक अन्ना आंदोलन से अलग हो गये। अन्ना अकेले हो गये। उफान पर पहुंचे अन्ना आंदोलन पर पानी की बौछार डाल कर के उसके अपने ही आदमियों ने ठंड़ा कर दिया। आंदोलन से उन्होंने एक नयी राजनीतिक पार्टी को जन्म दिया और अन्ना आंदोलन की अन्तयेष्टि कर दी।
काश ! अन्ना आंदोलन सत्ता के अंहकार की चोट खा कर तिलमिलाते हुए दिल्ली से भारत के शहरो और गांवो की ओर मुड़ जाता, तो आज भारत की राजनीति की फ़िजा बदल जाती। कुछ नहीं करना था, एक मशाल पहुंचानी थी, जनता तो उस मशाल के पीछे-पीछे चलने को स्वत: ही आतुर दिखार्इ दे रही थी। तीन वर्षों में अन्ना आंदोलन भारत के सभी गांवों और शहरों में अपनी जड़े जमा लेता। सरकारी कार्यलयों का भ्रष्टाचार भयभीत हो जाता। राजनीतिक दल जिस ज़मीन पर खड़े हैं, वह जमीन हिलने लग जाती। 2013 के अंत तक राजनीतिक दलों की स्थिति ऐसी हो जाती कि वे बिना अन्ना की शरण में आयें चुनाव नहीं जीत पातें। उनके समक्ष शर्ते रखी जाती- हम समर्थन करेंगे, बशर्तें उस व्यक्ति को चुनाव में उतारों, जिसकी साफ सुथरी छवि हों। वह व्यक्ति भ्रष्टाचार उन्मूलन का संकल्प लें। यदि हमारा समर्थन मिल जायेगा, तो उसे चुनावों में धन बहाने की जरुरत नहीं पडे़गी। जो राजनीतिक दल हमारा विश्वास जीतेगा, कसौटी पर खरा उतरेगा, प्रदेश में उसकी सरकार बन जायेगी। परन्तु उस सरकार पर जनता का अप्रत्यक्ष नियंत्रण रहेगा।
अन्ना आंदोलन की व्यापकता से भारत की राजनीति का शुद्धिकरण सम्भव था। जो लोग यह सोचते हैं कि सारे राजनीतिक दल भ्रष्ट हैं, इसलिए हम नया राजनीतिक दल बना कर भारत की राजनीति का शुद्धिकरण कर देंगे, एक छलावा है। राजनीति का शुद्धिकरण नये राजनीतिक दल बनाने से नहीं होता है, अपितु जन जागृति के समक्ष राजनीतिक दलों के सर्मपण से होता है। राजनीतिक दलों को भारत की जनता ने बनाया और मजबूत किया है, उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता। राजनीतिक दलों को समाप्त करने का अधिकार उस जनता के पास है, जो उन्हें वोट देती हैं, कुछ लोगों के पास नहीं,  जो अपनी पार्टी के पक्ष में वोट पाने के लिए सारी पार्टियों  के अस्तित्व को नकारते हैं।
अन्ना का जन आंदोलन राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में छेड़ा गया था, उसका उद्धेश्य एक छोटे से प्रदेश को भ्रष्टाचार से मुक्त करना नहीं था। अन्ना ने अपना जनलोकपाल बिल भारतीय संसद को पास कर उसे कानून का रुप देने का अनुरोध किया था। उनका जनलोकपाल बिल मात्र दिल्ली प्रदेश की जनता के लिए नहीं था। फिर अन्ना के आंदोलन से निकले लोगों ने सिर्फ दिल्ली प्रदेश के लिए ही राजनीति पार्टी क्यों बनायी ? सिर्फ इसलिए नहीं कि दिल्ली विधानसभा का क्षेत्र बहुत छोटा है और उसमे सिर्फ सत्तर विधान सभा की सीटें हैं ? इस लघु प्रदेश को अपना कर्मक्षेत्र बनाने से आसानी से चुनाव जीता जा सकता है, क्योंकि प्रदेश के अधिकांश वोटर पढ़े लिखे और मध्यमवर्गीय परिवार से संबंध रखते हैं। अति चुतर लोगों ने बहुत चतुरार्इ से दिल्ली की जनता को लुभाने की रणनीति बनायी है।
पानी और बिजली की समस्या से पूरा देश पीड़ित है, फिर क्यों मात्र दिल्ली में ही इसे प्रभावी ढंग से उठाया गया ? भाजपा का प्रभाव कर्इ प्रदेशों में हैं। कुछ प्रदेशों में उसकी सरकारें भी है। फिर मात्र दिल्ली में ही भाजपा का विरोध करने का आखिर क्या मकसद है ? विगत पंद्रह वर्षों से दिल्ली में कांग्रेस की सरकार काम कर रही है। निश्चय ही जनता की समस्याओं के लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है, भाजपा नहीं। फिर भाजपा का तीव्र विरोध किस आधार पर किया जा रहा है ? क्या इसलिए नहीं कि सरकार के कामकाज से असंतुष्ट जनता के वोटों को भाजपा की ओर जाने से रोका जाय और उन्हें अपने पक्ष में मोड़ा जाय ? सारी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट है,  इसलिए हमें चुनों, क्योंकि हम भ्रष्ट नहीं है। आपने र्इमानदारी का प्रमाण-पत्र का कहां से प्राप्त कर लिया, जब कि आपने कभी शासन ही नहीं किया है ?
एक पार्टी का जन्म भ्रष्टाचार के विरुद्ध छेड़े गये जन आंदोलन के गर्भ से हुआ है। अत: उस पार्टी को जनता से वोट मांगने के लिए भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था का ही नारा देना चाहिये। इनके नेताओं को तुष्टिकरण की पैंतरेबाजी अपनाने की कहां जरुरत पड़ रही है ? किसी विवादास्पद मुस्लिम नेता के शरण में जाने की कहां जरुरत पड़ गयी ? क्या दिल्ली प्रदेश की मुस्लिम जनता भ्रष्टाचार और कुशासन से पीड़ित नहीं है ?
पार्इ का पार्इ का हिसाब वेबसार्इट पर देख लेने का दावा करने वाली पार्टी के नेताओं को विदेशियों से चंदा ले कर कानून तोड़ने की कहां जरुरत आ पड़ी ? जो यह दावा करते हैं कि हमारा हिसाब किताब बहुत साफ सुधरा है, उन्हीं लोगों द्वारा दिया गया एक करोड़ का चेक अन्ना ने क्यों लौटाया ? यह धन राशि अन्ना के आंदोलन के दौरान एकत्रित की गयी थी। अन्ना को इसमें कोर्इ गड़बड़ दिखार्इ दे रही थी, इसलिए उसे लौटाया । सरकारी महकमे में ऊंचे ओहदे पर काम करने वाले सरकारी अफसर को हिसाब दिखाने और छुपाने में महारथ हांलिस होता है।
एक नयी जन्मी पार्टी को जनता वोट देगी। दिल्ली विधानसभा की सीटे उपहार में दे देगी। समय इनकी असली सूरत और नीयत से देश को परिचय करा देगा। किन्तु एक जन आंदोलन के उफान को शांत करने का जो इन्होंने अक्षम्य अपराध किया, उसे जनता कभी क्षमा नहीं करेगी।

मुसलमानों के लिए मोदी से अच्छा कोई नेता नहीं ……….

है ना अजीब बात ? लेकिन मैं साबित करने की कोशिश करता हूँ …………………………….
पहला सवाल ……..क्या मोदी समाज में एकजुटता ला सकते है ?……………हाँ
मैंने भी सुना है कि 2002 के दंगों में मोदी ने दंगों को हवा दी और मैं भी मानता हूँ कि अगर ये किया गया है तो निश्चित रूप से गलत था लेकिन फिर भी आज गुजरात मैं शान्ति है और वो मुख्यमंत्री हैं……. और जहां नितीश कुमार और मुलायम सिंह जैसे जो खुद को तथाकथित सेकुलर बताते नहीं थकते वहाँ मुस्लिमों पर अत्याचार हो रहे हैं और चूँकि दोनों कोंग्रेश को समर्थन दे रहे हैं इसीलिये कोंग्रेश भी जिम्मेवार है …..सवाल ये भी बनता है कि भाजपा ने ये दंगे कराये हैं ?…….वोट की खातिर ?……… तब सवाल ये भी उठता है कि अगर वोट दंगे कराने मिलता तो सबसे पहले दंगे मध्यप्रदेश , राजस्थान और छत्तीसगड़ में होने चाहिए ? और भाजपा को कराने में भी आसानी होती क्योंकि यहाँ पर इनकी स्थिति यूपी से अच्छी है !
दूसरा सवाल …….क्या मोदी कि मान्यताओं में मुसलमानों का कोई स्थान है ?……..बिलकुल है
अगर टोपी प्रकरण को समझा जाए तो एक पक्ष ये भी हो सकता है वो आपको धोखा नहीं देना चाहते उनके इरादों में धोखे बाजी नहीं है ये एक सच्चे इंसान कि निशानी है एक ओर जहां सारे देश में मुसलमान अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं वहीँ मोदी उनको मुख्या धारा में लाने का प्रयास कर रहे हैं उनके मुख से कभी भेदभाव कि बात नहीं आती !
तीसरा सवाल …… क्या मोदी के समय या राज में मुसलमान सुखी रहेंगे ?
लोग और विपक्षी पार्टिया गुजरात दंगों की बात करते हैं लेकिन मुसलमानों कि छवि खराब करने में इन्ही पार्टियों का हाथ है ये लोग एक तरफ जहां मुस्लिम समाज को वोट की खातिर बहुसंख्यक समाज से तोड़ने की साजिश करते रहते हैं वहीँ दूसरी तरफ गुजरात की शांती ने मुस्लिम समाज को विकास करने का मौक़ा मिला वहाँ ११ साल तक कोई दंगा ना होने वजह से आपसी द्वेष भी खात्मे की ओर है ! इंडियन मुजाहिदीन जिसे गुजरात दंगों की उपज माना जाता है आज गुजरात छोड़ कर पूरे भारत में आतंक वाद फैला रहा है गुजरात में जाने की हिम्मत नहीं पड़ती !
चौथा सवाल …… क्या मोदी आगे और भी जगह दंगे करवा सकते हैं ?
ये अन्य पार्टियों द्वारा फैलाया हुआ सबसे गंदा झूठ है दरअसल उन सबको खुद की चिता है कहीं गुजरात की तरह पूरे भारत से साफ़ ना हो जाएँ ……इन तथाकथित सेकुलर ताकतों ने आज तक हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए क्या किया ? इनका जब भी मुह खुलता है तो समाज को और वैमनश्व की तरफ धकेल देते हैं …..अगर ये तथाकथित सेकुलर दलों ने अगर भारत और समाज को कोई सही दिशा दी होती तो क्या आज की जनता भी सेकुलर नहीं होती और इतना बड़ा आरोप कि जो भी मोदी को वोट देगा वो सांप्रदायिक है ये भारतीय जनमानस के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाने जैसा है ना चाहते हुए भी ये लोग जानबूझ कर हिन्दू मुस्लिम की भावनाओं को दिशा देने का काम कर रहे हैं और अगर इसी प्रकार विषवमन करते रहे तो भविष्य के परिणाम समाज के लिए अच्छे नहीं होंगे !
एक सफ़ेद झूठ जिसे जबरजस्ती आरोपित किया जाता है और जिसे मीडिआ का भी पूरा समर्थन मिला हुआ है कि २००२ के तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने मोदी को राजधर्म नहीं निभा पाने को कहा था मैंने पूरा वीडिओ देखा है और हम सभी देख सकते हैं उन्होंने कहा है कि ” मोदी जी को राज धर्म का पालन करना चाहिए और मोदी जी वही कर रहे” हैं !
पांचवां सवाल ……क्या कोई और आप्शन भी है जनता के पास ?
बिलकुल नहीं ……….कोंग्रेश ये चाहती है कि वोट अगर मुझे ना मिले तो क्षेत्रीय पार्टियों को मिल जाए जिससे कि कोंग्रेश बाहर से समर्थन कर आपने पापों को धोने में कामयाब हो जाए ये स्थिति क्षेत्रीय पार्टियों और सामजिक अराजक तत्त्वओ के लिए भले ही अच्छी हो जाए लेकिन देश के लिए बहुत ही घातक साबित होगी ….देश एक दिशा हीनता की तरफ चला जाएगा जो कि सही नहीं है जिसे हमने 1992 से 1998 तक भुगता है अब और भुगतने की स्थिती मैं नहीं हैं......

मुसलमान कहते हैं कि कुरान ईश्वरीय वाणी है तथा यह धर्म अनादि काल से चली आ रही है------

मुसलमान कहते हैं कि कुरान ईश्वरीय वाणी है तथा यह धर्म अनादि काल से चली आ रही है,परंतु इनकी एक-एक बात आधारहीन तथा तर्कहीन हैं-सबसे पहले तो ये पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति का जो सिद्धान्त देते हैं वो हिंदु धर्म-सिद्धान्त का ही छाया प्रति है.हमारे ग्रंथ के अनुसार ईश्वर ने मनु तथा सतरूपा को पृथ्वी पर सर्व-प्रथम भेजा था..इसी सिद्धान्त के अनुसार ये भी कहते हैं कि अल्लाह ने सबसे पहले आदम और हौआ को भेजा.ठीक है...पर आदम शब्द संस्कृत शब्द "आदि" से बना है जिसका अर्थ होता है-सबसे पहले.यनि पृथ्वी पर सर्वप्रथम संस्कृत भाषा अस्तित्व में थी..सब भाषाओं की जननी संस्कृत है ये बात तो कट्टर मुस्लिम भी स्वीकार करते हैं..इस प्रकार आदि धर्म-ग्रंथ संस्कृत में होनी चाहिए अरबी या फारसी में नहीं.

इनका अल्लाह शब्द भी संस्कृत शब्द अल्ला से बना है जिसका अर्थ देवी होता है.एक उपनिषद भी है "अल्लोपनिषद". चण्डी,भवानी,दुर्गा,अम्बा,पार्वती आदि देवी को आल्ला से सम्बोधित किया जाता है.जिस प्रकार हमलोग मंत्रों में "या" शब्द का प्रयोग करते हैं देवियों को पुकारने में जैसे "या देवी सर्वभूतेषु....", "या वीणा वर ...." वैसे ही मुसलमान भी पुकारते हैं "या अल्लाह"..इससे सिद्ध होता है कि ये अल्लाह शब्द भी ज्यों का त्यों वही रह गया बस अर्थ बदल दिया गया.

चूँकि सर्वप्रथम विश्व में सिर्फ संस्कृत ही बोली जाती थी इसलिए धर्म भी एक ही था-वैदिक धर्म.बाद में लोगों ने अपना अलग मत और पंथ बनाना शुरु कर दिया और अपने धर्म(जो वास्तव में सिर्फ मत हैं) को आदि धर्म सिद्ध करने के लिए अपने सिद्धान्त को वैदिक सिद्धान्तों से बिल्कुल भिन्न कर लिया ताकि लोगों को ये शक ना हो कि ये वैदिक धर्म से ही निकला नया धर्म है और लोग वैदिक धर्म के बजाय उस नए धर्म को ही अदि धर्म मान ले..चूँकि मुस्लिम धर्म के प्रवर्त्तक बहुत ज्यादा गम्भीर थे अपने धर्म को फैलाने के लिए और ज्यादा डरे हुए थे इसलिए उसने हरेक सिद्धान्त को ही हिंदु धर्म से अलग कर लिया ताकि सब यही समझें कि मुसलमान धर्म ही आदि धर्म है,हिंदु धर्म नहीं..पर एक पुत्र कितना भी अपनेआप को अपने पिता से अलग करना चाहे वो अलग नहीं कर सकता..अगर उसका डी.एन.ए. टेस्ट किया जाएगा तो पकड़ा ही जाएगा..इतने ज्यादा दिनों तक अरबियों का वैदिक संस्कृति के प्रभाव में रहने के कारण लाख कोशिशों के बाद भी वे सारे प्रमाण नहीं मिटा पाए और मिटा भी नही सकते....

भाषा की दृष्टि से तो अनगिणत प्रमाण हैं यह सिद्ध करने के लिए कि अरब इस्लाम से पहले वैदिक संस्कृति के प्रभाव में थे.जैसे कुछ उदाहरण-मक्का-मदीना,मक्का संस्कृत शब्द मखः से बना है जिसका अर्थ अग्नि है तथा मदीना मेदिनी से बना है जिसका अर्थ भूमि है..मक्का मदीना का तात्पर्य यज्य की भूमि है.,ईद संस्कृत शब्द ईड से बना है जिसका अर्थ पूजा होता है.नबी जो नभ से बना है..नभी अर्थात आकाशी व्यक्ति.पैगम्बर "प्र-गत-अम्बर" का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है आकाश से चल पड़ा व्यक्ति..

चलिए अब शब्दों को छोड़कर इनके कुछ रीति-रिवाजों पर ध्यान देते हैं जो वैदिक संस्कृति के हैं--

ये बकरीद(बकर+ईद) मनाते हैं..बकर को अरबी में गाय कहते हैं यनि बकरीद गाय-पूजा का दिन है.भले ही मुसलमान इसे गाय को काटकर और खाकर मनाने लगे..

जिस तरह हिंदु अपने पितरों को श्रद्धा-पूर्वक उन्हें अन्न-जल चढ़ाते हैं वो परम्परा अब तक मुसलमानों में है जिसे वो ईद-उल-फितर कहते हैं..फितर शब्द पितर से बना है.वैदिक समाज एकादशी को शुभ दिन मानते हैं तथा बहुत से लोग उस दिन उपवास भी रखते हैं,ये प्रथा अब भी है इनलोगों में.ये इस दिन को ग्यारहवीं शरीफ(पवित्र ग्यारहवाँ दिन) कहते हैं,शिव-व्रत जो आगे चलकर शेबे-बरात बन गया,रामध्यान जो रमझान बन गया...इस तरह से अनेक प्रमाण मिल जाएँगे..आइए अब कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर नजर डालते हैं...

अरब हमेशा से रेगिस्तानी भूमि नहीं रहा है..कभी वहाँ भी हरे-भरे पेड़-पौधे लहलाते थे,लेकिन इस्लाम की ऐसी आँधी चली कि इसने हरे-भरे रेगिस्तान को मरुस्थल में बदल दिया.इस बात का सबूत ये है कि अरबी घोड़े प्राचीन काल में बहुत प्रसिद्ध थे..भारतीय इसी देश से घोड़े खरीद कर भारत लाया करते थे और भारतीयों का इतना प्रभाव था इस देश पर कि उन्होंने इसका नामकरण भी कर दिया था-अर्ब-स्थान अर्थात घोड़े का देश.अर्ब संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ घोड़ा होता है. {वैसे ज्यादातर देशों का नामकरण भारतीयों ने ही किया है जैसे सिंगापुर,क्वालालामपुर,मलेशिया,ईरान,ईराक,कजाकिस्थान,तजाकिस्थान,आदि..} घोड़े हरे-भरे स्थानों पर ही पल-बढ़कर हृष्ट-पुष्ट हो सकते हैं बालू वाले जगहों पर नहीं..

इस्लाम की आँधी चलनी शुरु हुई और मुहम्मद के अनुयायियों ने धर्म परिवर्त्तन ना करने वाले हिंदुओं का निर्दयता-पूर्वक काटना शुरु कर दिया..पर उन हिंदुओं की परोपकारिता और अपनों के प्रति प्यार तो देखिए कि मरने के बाद भी पेट्रोलियम पदार्थों में रुपांतरित होकर इनका अबतक भरण-पोषण कर रहे हैं वर्ना ना जाने क्या होता इनका..!अल्लाह जाने..!

चूँकि पूरे अरब में सिर्फ हिंदु संस्कृति ही थी इसलिए पूरा अरब मंदिरों से भरा पड़ा था जिसे बाद में लूट-लूट कर मस्जिद बना लिया गया जिसमें मुख्य मंदिर काबा है.इस बात का ये एक प्रमाण है कि दुनिया में जितने भी मस्जिद हैं उन सबका द्वार काबा की तरफ खुलना चाहिए पर ऐसा नहीं है.ये इस बात का सबूत है कि सारे मंदिर लूटे हुए हैं..इन मंदिरों में सबसे प्रमुख मंदिर काबा का है क्योंकि ये बहुत बड़ा मंदिर था.ये वही जगह है जहाँ भगवान विष्णु का एक पग पड़ा था तीन पग जमीन नापते समय..चूँकि ये मंदिर बहुत बड़ा आस्था का केंद्र था जहाँ भारत से भी काफी मात्रा में लोग जाया करते थे..इसलिए इसमें मुहम्मद जी का धनार्जन का स्वार्थ था या भगवान शिव का प्रभाव कि अभी भी उस मंदिर में सारे हिंदु-रीति रिवाजों का पालन होता है तथा शिवलिंग अभी तक विराजमान है वहाँ..यहाँ आने वाले मुसलमान हिंदु ब्राह्मण की तरह सिर के बाल मुड़वाकर बिना सिलाई किया हुआ एक कपड़ा को शरीर पर लपेट कर काबा के प्रांगण में प्रवेश करते हैं और इसकी सात परिक्रमा करते हैं.यहाँ थोड़ा सा भिन्नता दिखाने के लिए ये लोग वैदिक संस्कृति के विपरीत दिशा में परिक्रमा करते हैं अर्थात हिंदु अगर घड़ी की दिशा में करते हैं तो ये उसके उल्टी दिशा में..पर वैदिक संस्कृति के अनुसार सात ही क्यों.? और ये सब नियम-कानून सिर्फ इसी मस्जिद में क्यों?ना तो सर का मुण्डन करवाना इनके संस्कार में है और ना ही बिना सिलाई के कपड़े पहनना पर ये दोनो नियम हिंदु के अनिवार्य नियम जरुर हैं.

चूँकि ये मस्जिद हिंदुओं से लूटकर बनाई गई है इसलिए इनके मन में हमेशा ये डर बना रहता है कि कहीं ये सच्चाई प्रकट ना हो जाय और ये मंदिर उनके हाथ से निकल ना जाय इस कारण आवश्यकता से अधिक गुप्तता रखी जाती है इस मस्जिद को लेकर..अगर देखा जाय तो मुसलमान हर जगह हमेशा डर-डर कर ही जीते हैं और ये स्वभाविक भी है क्योंकि इतने ज्यादा गलत काम करने के बाद डर तो मन में आएगा ही...अगर देखा जाय तो मुसलमान धर्म का अधार ही डर पर टिका होता है.हमेशा इन्हें छोटी-छोटी बातों के लिए भयानक नर्क की यातनाओं से डराया जाता है..अगर कुरान की बातों को ईश्वरीय बातें ना माने तो नरक,अगर तर्क-वितर्क किए तो नर्क अगर श्रद्धा और आदरपूर्वक किसी के सामने सर झुका दिए तो नर्क.पल-पल इन्हें डरा कर रखा जाता है क्योंकि इस धर्म को बनाने वाला खुद डरा हुआ था कि लोग इसे अपनायेंगे या नहीं और अपना भी लेंगे तो टिकेंगे या नहीं इसलिए लोगों को डरा-डरा कर इस धर्म में लाया जाता है और डरा-डरा कर टिकाकर रखा जाता है..जैसे अगर आप मुसलमान नहीं हो तो नर्क जाओगे,अगर मूर्त्ति-पूजा कर लिया तो नर्क चल जाओगे,मुहम्मद को पैगम्बर ना माने तो नर्क;इन सब बातों से डराकर ये लोगों को अपने धर्म में खींचने का प्रयत्न करते हैं.पहली बार मैंने जब कुरान के सिद्धान्तों को और स्वर्ग-नरक की बातों को सुना था तो मेरी आत्मा काँप गई थी..उस समय मैं दसवीं कक्षा में था और अपनी स्वेच्छा से ही अपने एक विज्यान के शिक्षक से कुरान के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की थी..उस दिन तक मैं इस धर्म को हिंदु धर्म के समान या थोड़ा उपर ही समझता था पर वो सब सुनने के बाद मेरी सारी भ्रांति दूर हुई और भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया कि मुझे उन्होंने हिंदु परिवार में जन्म दिया है नहीं पता नहीं मेरे जैसे हरेक बात पर तर्क-वितर्क करने वालों की क्या गति होती...!

एक तो इस मंदिर को बाहर से एक गिलाफ से पूरी तरह ढककर रखा जाता है ही(बालू की आँधी से बचाने के लिए) दूसरा अंदर में भी पर्दा लगा दिया गया है.मुसलमान में पर्दा प्रथा किस हद तक हावी है ये देख लिजिए.औरतों को तो पर्दे में रखते ही हैं एकमात्र प्रमुख और विशाल मस्जिद को भी पर्दे में रखते हैं.क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर ये मस्जिद मंदिर के रुप में इस जगह पर होता जहाँ हिंदु पूजा करते तो उसे इस तरह से काले-बुर्के में ढक कर रखा जाता रेत की आँधी से बचाने के लिए..!! अंदर के दीवार तो ढके हैं ही उपर छत भी कीमती वस्त्रों से ढके हुए हैं.स्पष्ट है सारे गलत कार्य पर्दे के आढ़ में ही होते हैं क्योंकि खुले में नहीं हो सकते..अब इनके डरने की सीमा देखिए कि काबा के ३५ मील के घेरे में गैर-मुसलमान को प्रवेश नहीं करने दिया जाता है,हरेक हज यात्री को ये सौगन्ध दिलवाई जाती है कि वो हज यात्रा में देखी गई बातों का किसी से उल्लेख नहीं करेगा.वैसे तो सारे यात्रियों को चारदीवारी के बाहर से ही शिवलिंग को छूना तथा चूमना पड़ता है पर अगर किसी कारणवश कुछ गिने-चुने मुसलमानों को अंदर जाने की अनुमति मिल भी जाती है तो उसे सौगन्ध दिलवाई जाती है कि अंदर वो जो कुछ भी देखेंगे उसकी जानकारी अन्य को नहीं देंगे..

कुछ लोग जो जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से किसी प्रकार अंदर चले गए हैं,उनके अनुसार काबा के प्रवेश-द्वार पर काँच का एक भव्य द्वीपसमूह लगा है जिसके उपर भगवत गीता के श्लोक अंकित हैं.अंदर दीवार पर एक बहुत बड़ा यशोदा तथा बाल-कृष्ण का चित्र बना हुआ है जिसे वे ईसा और उसकी माता समझते हैं.अंदर गाय के घी का एक पवित्र दीप सदा जलता रहता है.ये दोनों मुसलमान धर्म के विपरीत कार्य(चित्र और गाय के घी का दिया) यहाँ होते हैं..एक अष्टधातु से बना दिया का चित्र में यहाँ लगा रहा हूँ जो ब्रिटिश संग्रहालय में अब तक रखी हुई है..ये दीप अरब से प्राप्त हुआ है जो इस्लाम-पूर्व है.इसी तरह का दीप काबा के अंदर भी अखण्ड दीप्तमान रहता है .

ये सारे प्रमाण ये बताने के लिए हैं कि क्यों मुस्लिम इतना डरे रहते हैं इस मंदिर को लेकर..इस मस्जिद के रहस्य को जानने के लिए कुछ हिंदुओं ने प्रयास किया तो वे क्रूर मुसलमानों के हाथों मार डाले गए और जो कुछ बच कर लौट आए वे भी पर्दे के कारण ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं कर पाए.अंदर के अगर शिलालेख पढ़ने में सफलता मिल जाती तो ज्यादा अच्छा होता !

Monday, 11 November 2013

सामंतशाही के प्रति अंधश्रद्धा और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अनास्था

वही लोकतंत्र जीवंत बनता है, जिसकी कमान ऐसे व्यक्तियों के हाथों में होती है, जो जमीन से जुड़े रहते हैं। अपनी विलक्षण प्रतिभा से करोड़ो लोगों का विश्वास जीतते हैं। दिलों को आपस में जोड़ते हैं। सभी को साथ ले कर आगे बढते हैं। कर्म, निष्ठा, लगन और प रिश्रमसे वे शिखर पर पहुंचते हैं। वहां पहुंचाने में उनसे जुड़े जनसमूह की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। वे सदैव उस जनता के ऋणि रहते हैं, जिसने उन्हें शिखर पर पहुंचाया। वे जनता के हितों के प्रति संवेदनशील बने रहते हैं।
भारत की एक शीर्षस्थ राजनीतिक पार्टी, जिसका अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है और जो अधिकांश समय शासन में रही है, जमीन से जुड़े नेताओं का अकाल भोग रही है। यही कारण है कि इसका आकार निरन्तर सिकुड़ रहा है। देश को कर्इ प्रतिभाशाली राष्ट्रीय नेता देने वाली पार्टी, नेताविहिन हो कर ऐसे मार्ग पर चल रही है, जिस पर यदि आगे बढ़ती रही, तो निश्चय ही एक दिन अपनी पूर्ण आभा खो देगी।  तब राष्ट्रीय पार्टी  नहीं, एक परिवार की निजी धरोहर पार्टी कही जायेगी।
देश व समाज के प्रति नहीं, एक परिवार के प्रति पूरी निष्ठा दर्शाने वाले अति चालाक व धूर्त व्यक्ति, जिनका कोर्इ जनाधार नहीं है, एक ऐतिहासिक राजनीतिक पार्टी, जिसने भारतीय लोकतंत्र को जन्म दिया, उस लोकतांत्रिक पार्टी का पूर्णतया राजतंत्रीयकरण करने पर प्रतिबद्ध दिखार्इ दे रहे हैं। जनता से जुड़ कर आगे बढ़ने के बजाय एक परिवार पर पूर्णतया अपने आपको पराश्रित बना दिया है। जानबूझ कर एक ऐसे घोड़े पर दाव लगा रहे हैं, जिसमें इतनी क्षमता नहीं है कि एक मुश्किल रेस को जीत सकें।
परन्तु ऐसा करने के अलावा उनके पास कोर्इ चारा भी नहीं है। वे जनता से जुड़ कर अपने परिश्रम व कर्म से सत्ता सुख भोगना नहीं चाहते, वरन उन्होंने  एक परिवार से जुड़ कर सत्ता का सुख भोगने का शार्ट कट ढूंढ लिया है। परिवार के प्रति अंधश्रद्धा से ही वे अपना राजनीतिक भविष्य चमकाना चाहते हैं। एक ऐसी पार्टी जिसकी जड़े पूरे देश के प्रत्येक गांव और शहर में हैं, ऐसा हश्र होगा, इसकी किसी ने कल्पना ही नहीं की थी।
जनतंत्र में जननायक वह होता है, जो अपना पूरा जीवन जनसेवा के लिए समर्पित कर देता है। वह जनता के बीच रहता है, जनता से जुड़ा रहता है, उसके सुख-दु:ख में सहभागी बनता है। उसका चिंतन जनता के लिए होता है। उसके कर्म में जन कल्याण का भाव छुपा रहता है। उसके पास तप और त्याग का बल आ जाता है, जिससे उसकी वाणी में ओज आ जाता है। उसकी वाणी से जो विचार प्रकट होते हैं, उसीसे प्रेरित हो कर  जनसमूह भावात्मकरुप से उससे बंध जाता है। जनसमूह मंत्रमुग्ध सा उसके पीछे-पीछे चल पड़ता है। उससे जुड़ा हुआ जनविश्वास उसे असीम शक्तियां देता है, जिससे वह सारी बाधाओं को पार कर  सता के शिखर पहुंच जाता है। वह कष्ट सह कर जमीन से शिखर पर पहुंचता है, वह जमीनी हकीकत से रुबरु होता है। कंकरीली, कंटीली व फिसलनवाली कठिन चढ़ाई से उसे जो अनुभव प्राप्त होता है, वही उसकी सफलता की कहानी होती है। दुर्गम रास्तों से जो शिखर पर पहुंचते हैं, उन्हें शिखर से फिसल कर जमीन पर गिरने का भय नहीं रहता, क्योंकि यदि वे फिसल भी गये, तो फिर चढ़ने की क्षमता रखते हैं।
किन्तु राजतंत्र में जन नायक बनने के लिए जनता से जुड़ना आवश्यक नहीं रहता। जनता का विश्वास जीतने की जरुरतत नहीं रहती।  क्योंकि राजतंत्र में जनता पर शासन करने का वे अपना अधिकार समझते हैं। वे हमेशा दरबारियों से गिरे रहते है। वे जन नायक नहीं होते, परन्तु दरबारी उसे जन नायक बना देते है। जनता उसके पीछे-पीछे नहीं चलती। जनता को उसके पीछे-पीछे चलने के आदेश दिये जाते हैं। वे राजप्रसाद में बैठ कर अपने दरबारियों से जनता के बारें में जानकारी जुटाते है। वे स्वयं विचारक नहीं होते। उनका कोई चिंतन नहीं होता। उसे दरबारी विचार उपलब्ध करा देते हैं, जिन्हें वे आवश्यकता अनुसार जनता के समक्ष प्रकट कर देते है। चाटुकारिता में निष्णात दरबारी हमेशा उनका यशगाण करते रहते हैं। उन्हें कई तरह के शाब्दिक अलंकारों से सुशोभित करते हैं। उनके साधारण व्यक्तित्व को भी विराट बना कर प्रचारित करते हैं। दरबारी उनकी हमेशा जयजयकार करते रहते हैं और जनता को उनका अनुशरण करने की अपेक्षा रखते है। सता के शिखर पर इन्हें जमीन मार्ग से नहीं, अपितु आकाश मार्ग से सीधा उतारा जाता है। इस प्रयास को महान उपलब्धि मान कर प्रचारित किया जाता है। किन्तु इस तरह आकाश से जमीन पर उतारे गये व्यक्ति यदि शिखर से फिसल गये तो सीधी जमीन पर ही गिरते हैं।  फिर कभी शिखर पर नहीं पहुंच पाते। दरबारियों का साथ भी जब तक रहेगा, जब तक वे उनके काम के रहेंगे। यदि वे क्षमता खो देंगे, तब दरबारी स्वत: उनसे दूर हो जायेंगे।
भारतीय जनतंत्र को राजतंत्र बनाने के लिए एक राजनीतिक पार्टी प्रयासरत है। इस पार्टी के सारे के सारे नेता चाटुकारिता की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं। एक परिवार के प्रति इतनी अंधश्रद्धा की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, जैसे एक सौ बीस करोड़ का देश उनके बिना पूर्णतया अनाथ है। एक अति साधारण व्यक्तित्व को विराट व्यक्तित्व बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। उन्हें जमीन से शिखर पर चढ़ने के प्रेरित नहीं किया जा रहा, वरन प्रायोजित रुप से धुमधड़ाके के साथ आकाश मार्ग से शिखर पर उतारने की कवायद की जा रही हैं। जनता को समझाया जा रहा है कि अब ये ही आपके भाग्य निर्माता है। ये ही आप पर शासन करने का अधिकार रखते हैं।
जनतंत्र में जनता अपना नेता चुनती है। शासक चुनती है। जो जनता का विश्वास जीतता है- वही उसका नायक होता है।  मीडिया का सहारा ले कर प्रायोजितररुप से किसी व्यक्तित्व को महान बनाने की कोशिश करना, वस्तुत: लोकतांत्रिक परम्पराओं और मूल्यों के प्रति अनास्था का भाव प्रकट करना ही है। यदि कोई राजनीतिक पार्टी एक सोची समझी रणनीति के तहत ऐसा करती है, तो यह उसके आत्मविश्वास की कमी को प्रकट करता है। यह भी दर्शाता है कि एक पार्टी के पास जुझारु, कर्मठ और जनता से जुड़े हुए राजनेताओं का पूर्णतया अभाव हो गया है। उनके पास चुनावी वैतरणी पार करने के लिए एक व्यक्तित्व को महिमामंडित करना ही एक मात्र उपाय रह गया है। सामंतशाही के प्रति ऐसी अंध श्रद्धा अंतत: एक ऐतिहासिक पार्टी के पतन का कारण बन जाय, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।