Thursday 5 December 2013

धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता पर नयी बहस छेड़ने की आवश्यकता है

साम्प्रदायिकता हिंसा निरोधक बिल - बाजी जीतने की घृणित कोशिश
हम भारतीय नागरिक है, किसी जानवारों की मंड़ी के जानवर नहीं, जिनका नस्ल के आधार पर भेदभाव किया जाय। धर्म के आधार पर हमारी पहचान नहीं होती। हमारी पहचान भारतीयता के आधार पर होती है। संविधान ने भारतीय नागरिकता की परिभाषा दी है, उसे किसी भी तरह से खंड़ित नहीं किया जा सकता। धर्म के आधार पर नागरिकों का संविधान ने विभाजन नहीं किया है। धर्म के आधार पर नागरिकों को विशेष अधिकार नहीं दिये गये है, इसीलिए भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट् कहा जाता है।
धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा बदलने के लिए युपीए सरकार -साम्प्रदायिक हिंसा रोकने  के लिये ए क बिल  communalलाना चाहती है। यह न केवल हमारे संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है, वरन हमारे संघीय लोकतंत्र की पवित्रता पर अकारण किया जा रहा कुठाराघात है। जो सरकार देश को जवाबदेय सुशासन नही दे पायी। महंगाई और भ्रष्टाचार के भयावह प्रकोप से त्राहि-त्राहि कर रही जनता को राहत नहीं दे पायी।  ऐसी सरकार की नीतियों और अर्कमण्यता से  जनता नाराज है। सरकार चलाने वालो नेताओं को यह अहसास हो गया है कि जनता अब उन्हें पूरी तरह तिरस्कृत कर देगी, इसलिए देश में आग लगा कर ही यदि पुन: सत्ता सुख मिल सकता है, तो ऐसा करने में कहां एतराज है। सम्भवत: इसी कारण एक नये कानून को लाने की आवश्यकता आ पड़ी है।
इस समय पूरा देश शांत हैं। असम और उत्तर प्रदेश को छोड़ कर कहीं साम्प्रदायिक दंगे नहीं हो रहे हैं। उन प्रदेशों में भी नहीं, जहां दस पंद्रह वर्षों से वे सरकारे काम कर रही है, जिनकी धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है। नागरिकों के मन में एक दूसरे सम्प्रदाय के प्रति नफरत और घृणा का  भाव नहीं है। सभी नागरिकों की समस्याएं एक जैसी है। उनकी तकलीफे एक जैसी है। वे कुशासन से मुक्ति पाने के लिए एक हो रहे हैं और एक हो कर नयी सरकार का विकल्प ढूंढ रहे हैं। यही कारण है कि भ्रष्ट कारनामों के उजागर होने से भयभीत सरकार, नागरिकों के जीवन को संकट में डालने का घृणित खेल, खेलने के लिए विचलित दिखाई दे रही है।
प्रश्न उठता है कि धर्मनिरपेक्षता की विकृत परिभाषा प्रस्तुत कर देश के नागरिकों के मध्य विभ्रम की स्थिति निर्मित करने का आखिर क्या औचित्य है ? दुनियां में कही ऐसा कानून हैं, जहां दो व्यक्तियों के झगड़े में यह नियम बना लिया जाय कि झगड़ा चाहे कोई भी प्रारम्भ करें, दोषी एक विशेष व्यक्ति को ही माना जायेगा। उसी पर मुकदमा चलाया जायेगा और दूसरे को दोष मुक्त माना जायेगा। प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त क्या ऐसे नियम को सही ठहराता है ? क्या यह वोट पाने के लिए कुटिल नीति नहीं है। आखिर सत्ता पाने के लिए ऐसा कानून बनाने की कहां आवश्यकता आ पड़ी कि दंगा होने पर एक समुदाय को ही दोषी मान कर उस पर मुकदमा चलाया जायेगा और दूसरे को दोष मुक्त समझा जायेगा। क्या ऐसा कानून बनाने वालों की घृणित सोच को साम्प्रदायिकता नहीं कहा जा सकता ? निश्चय ही ये लोग साम्प्रदायिक हैं और धर्मनिरपेक्षता का उपहास उड़ा रहे हैं।
साम्प्रदायिक दंगों में असामाजिक तत्वों की मुख्य भूमिका होती है, जो सभी समाज में पाये जाते हैं। दंगा भड़काने वाली सरकारे इन असमाजिक तत्वों का उपयोग करती हैं। अत: वे सरकारे साम्प्रादियक कही जा सकती है, जिनके मन में कुटिलता होती है, जो धर्म को आधार मान कर अपना घृणित राजनीतिक उद्धेश्य पूरा करती है। वे सरकारे नहीं, जो जनता को सुशासन देने के लिए वचनबद्ध होती है। दंगे सरकार की प्रशासनिक विफलता से फैलते हैं। दक्ष सरकारों के प्रशासन में कभी दंगे नहीं होते। “
कोई भी झगड़ा या विवाद दो व्यक्तियों या व्यक्ति समूह के बीच किसी निजी स्वार्थ को ले कर होता है। उसे अकारण ही राजनीतिक लाभ उठाने के लिए साम्प्रदायिक रंग दे दिया जाता है, ताकि झगड़ा साम्प्रदायिक रंग पा कर फैलें और राजनेताओं का अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने का बहाना मिल जाय। दंगे बहुधा प्रायोजित होते हैं, जिन्हें एक निश्चित उद्धेश्य की पूर्ति के लिए भड़काया जाता है। उत्तर प्रदेश का मुजफ्फर नगर दंगा इसका ज्वलन्त उदाहरण है। ऐसा कार्य वे ही सरकारे करती हैं, जिनके कुशासन और भ्रष्ट शासन से जनता रुष्ट हो जाती है। तब वे अपनी अर्कमण्यता और निकम्मेपन पर पर्दा डालने के लिए किसी आपसी विवाद को साम्प्रदायिक रंग दे कर उसमें आग लगाती हैं और निर्दोष नागरिकां को उसमें झुलसने के लिए छोड़ देते हैं।
अंग्रेज शासक तो भारत पर शासन करने के लिए ऐसे विकृत कानून बनाते थे, ताकि भारतीय जनता में आपस फूट डाल कर राज किया जा सके। सम्भवत: इसी नीति के कारण अंग्रेज इस देश पर वर्षों तक राज करते रहें। क्या ऐसी ही कुटिल नीति को आधार बना कर कांग्रेस पार्टी भारत पर शासन करने का अधिकार पाना चाहती है ? क्या यह उसकी साम्प्रदायिक सोच नहीं है , क्या इस आधार पर उसे एक साम्प्रदायिक पार्टी नहीं ठहराया जासकता ?
फूट डाल कर यदि ऐसे तत्व सरकार बनाने में पुन: समर्थ हो जाते हैं, इससे सभी को नुकसान होगा।  उन नागरिकों का भी  होगा, जिनको उपकृत कर एक अक्षम सरकार पुन: सत्ता सुख भोगना चाहती है, क्योंकि भ्रष्ट और अकर्मण्य सरकारों का भार सभी नागरिकों  को उठाना पड़ेगा। ऐसी सरकारों का सीधा भार नागरिकों की जेब पड़ता है। उनके घर के  चुल्हें पर पड़ता है। उनके बच्चों के भविष्य पर पड़ता है। साम्प्रदायिकता की आग कभी कभार कहीं ही लगती है, उसे आम नागरिक नहीं लगाते, राजनेता लगाते हैं। यह आग तो क्षणिक होती है, जो बुझ जाती है। किन्तु पेट की आग तो रोज लगती है। बच्चों के भविष्य और उनकी पढाई की चिंता रोज सताती है। महंगाई रोज पीड़ा देती है। अत: नागरिकों को स्थायी समस्याओं के समाधान का हल खोजना चाहिये। ऐसी सरकारे चुननी चाहिये, जिनके मन में सुशासन देने की इच्छा हों। सम्प्रदाय या धर्म के आधार पर नागरिकों को आपस में लड़ाने की कुटिलता नहीं हो।
सदियों से भारत के गांवों और शहरों में दोनो समुदाय के लोग शांति से रह रहे हैं। वे एक दूसरे की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हैं। कोई इसमें व्यवधान उपस्थित नहीं करता। मुसलमान मज्जिद में जाते हैं, उन्हें हिन्दू नहीं टोकते हैं। हिन्दू मंदिर में जा कर पूजा अर्चना करते हैं, उससे मुसलमानों को कभी  एतराज नहीं होता। अन्य इस्लामी देशों की तरह हिन्दू किसी मज्जिद को अपवित्र नही करते । भारत की किसी म​िज्ज़द में गोलीबारी और हत्याकांड़ नहीं होता। यह हमारी आपसी समझ और सहिष्णुता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
अत: भारत के नागरिकों को अब यह आपसी समझ विकसित करनी चाहिये कि हम एक हैं हमारे बीच किसी तरह का कोई मतभेद नहीं है। धर्म या सम्प्रदायिकता के आधार पर जो हमारे बीच खाई खोदने का प्रयास करेगा, उसे हम मिल कर रोकेंगं। हम उसी पार्टी के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करेंगे, जो हमे सुशासन देने का वादा करेगी। यदि हम एक हो जायेंगे, तो फूट डालों और राज करों के स्थान पर राजनीतिक पार्टियां सुशासन दों और राज करों, सिद्धान्त को आत्मसात करेगी। यदि ऐसा हो जाता है तो देश में एक नयी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण होगा। देश को अपनी समस्याओं से निजात दिलाने के लिए देश की जनता सहायक बनेगी।

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