उपनिषद के ऋषि जिसे ब्रह्मज्ञान कहते हैं, उसी को महर्षि पतंजलि द्रष्टा का अनुभव कहते हैं। भगवान महावीर आत्मज्ञान और भगवान बुद्ध निर्वाण ज्ञान कहते हैं। ओशो ने इसी को बुद्धत्व कहा है। इस आंतरिक अनुभूति की व्याख्या नहीं की जा सकती है। हमारा मन है शब्दों का भंडार, भाषा का जानकार, स्मृतियों का संग्रह, भावी योजनाओं का स्वप्नदर्शी। समाधि में यह चंचल मन शेष नहीं बचता। मात्र चेतना रहती है-भविष्य और भूतकाल से सर्वथारहित। शुद्ध वर्तमान में स्थित चेतना को बस चेतना का ही ज्ञान होता है। अन्य समस्त ज्ञान द्वैत पर आधारित होते हैं। चेतना ज्ञाता होती है और बाहर संसार का या फिर भीतर मन का कोई विषय ज्ञेय होता है। ये 'आब्जेक्टिव नॉलेज' हैं। संबोधि में 'सब्जेक्टिव नॉलेज' होता है। आत्मा केवल स्वयं आत्मा को ही जानती है, किसी अन्य को नहीं। इसलिए उसे अद्वैतज्ञान या कैवल्यज्ञान कहना भी उचित है। यह द्वंद्वरहित अवस्था ध्यान से मिलती है, न कि तन या मन की क्रियाओं से। ध्यान है-क्रियाओं और बुद्धि की सूक्ष्म क्रियाओं को द्रष्टा बनकर देखना,उनके साक्षी होना। ध्यान एकाग्रता नहीं, बल्कि समग्र जागरूकता है। विचारों के प्रवाह को ऐसे देखें, जैसे किसी सड़क से गुजरते लोगों को देख रहे हैं आप। किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। न ही अच्छे-बुरे का निर्णय करें। सामने जो विषय है, उसमें रस न लेने के कारण, धीरे-धीरे चेतना पूरी तरह अपने पर ही लौट आती है। महावीर इसे प्रतिक्रमण और पतंजलि इसे प्रत्याहार कहते हैं। मौन, शांत, चुपचाप देखते-देखते आप दूर खड़े द्रष्टा बन जाएंगे। साधना में डूबते-डूबते कालांतर में कामना के सारे बीज नष्ट हो जाते हैं, तब निर्बीज समाधि घटती है। ऐसे ज्ञानी फिर जीवन-मुक्त हो जाते हैं, आवागमन के बंधन से छूट जाते हैं। संबोधि का अर्थ है-बोध का स्वयं में ठहर जाना, ज्ञान की शक्ति का आत्म-रमण। बहिर्मुखता के बंधन से छूटकर, अंतर्मुखता में या अपने स्वभाव में स्थिति। भगवान कृष्ण इसे ही स्थित-प्रज्ञ होना कहते हैं। दुनिया के सभी धर्म सच्चिदानंद की इस दशा को पाना ही मानव-जीवन का परम लक्ष्य बताते हैं। आनंद का यह खजाना बाहर नहीं, हमारे भीतर है। वस्तुत: यह उपलब्धि, कोई नया अन्वेषण नहीं, बल्कि शाश्वत सत्य का अनावरण है।
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