केदारनाथ की तबाही के बाद लोगों के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे
हैं। आखिर केदारनाथ में पहले भी बारिश होती थी, नदियां उफनती थी और पहाड़
भी गिरते थे।
लेकिन कभी भी केदारनाथ जी कभी भी इस तरह के विनाश का
शिकार नहीं बने। प्रकृति की इस विनाश लीला को देखकर कुछ लोगों की आस्था की
नींव हिल गई है। जबकि कुछ आस्थावान ऐसे भी हैं जिनकी आस्था की नींव और
मजबूत हो गयी है।
ऐसे ही आस्थावान श्रद्धालुओं की नजर में केदारनाथ पर आई आपदा के पीछे कई धार्मिक कारण हैं।
धारी माता की नाराजगी
सोशल
मीडिया में इसके कारणों पर जो चर्चा चल रही है उसके अनुसार इस विनाश का
सबसे पहला और बड़ा कारण धारी माता का विस्थापन माना जा रहा है।
भारतीय
जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता उमा भरती ने भी एक सम्मेलन में इस बात को
स्वीकार किया कि अगर धारी माता का मंदिर विस्थापित नहीं किया जाता तो
केदारनाथ में प्रलय नहीं आती। धारी देवी का मंदिर उत्तराखंड के श्रीनगर से
15 किलोमीटर दूर कालियासुर नामक स्थान में विराजमान था।
धारी देवी
को काली का रूप माना जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार उत्तराखंड के 26
शक्तिपीठों में धारी माता भी एक हैं। बांध निर्माण के लिए 16 जून की शाम
में 6 बजे शाम में धारी देवी की मूर्ति को यहां से विस्थापित कर दिया गया।
इसके ठीक दो घंटे के बाद केदारघाटी में तबाही की शुरूआत हो गयी।
अशुभ मूहुर्त
आमतौर पर चार धार की यात्रा की शुरूआत अक्षय तृतीया के दिन गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट खुलने से होती है।
इस
वर्ष 12 मई को दोपहर बाद अक्षय तृतीया शुरू हो चुकी थी और 13 तारीख को 12
बजकर 24 मिनट तक अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त था। लेकिन गंगोत्री और
यमुनोत्री के कपाट को इस शुभ मुहूर्त के बीत जाने के बाद खोला गया।
खास
बात ये हुई कि जिस मुहूर्त में यात्रा शुरू हुई वह पितृ पूजन मुहूर्त था।
इस मुहूर्त में देवी-देवता की पूजा एवं कोई भी शुभ काम वर्जित माना जाता
है। इसलिए अशुभ मुहूर्त को भी विनाश का कारण माना जा रहा है।
तीर्थों का अपमान
बहुत
से श्रद्घालु ऐसा मानते हैं कि लोगों में तीर्थों के प्रति आस्था की कमी
के चलते विनाश हुआ। यहां लोग तीर्थ करने के साथ साथ धुट्टियां बिताने और
पिकनिक मनाने के लिए आने लगे थे। ऐसे लोगों में भक्ति कम दिखावा ज्यादा
होता है।
धनवान और रसूखदार व्यक्तियों के लिए तीर्थस्थानों पर विशेष
पूजा और दर्शन की व्यवस्था है, जबकि सामन्य लोग लंबी कतार में खड़े होकर
अपनी बारी आने का इंतजार करते रहते हैं। तीर्थों में हो रहे इस भेद-भाव से
केदारनाथ धाम भी वंचित नहीं रहा।
मैली होती गंगा का गुस्सा
मंदाकिनी,
अलकनंदा और भागीरथी मिलकर गंगा बनती है। कई श्रद्धालुओं का विश्वास है कि
गंगा अपने मैले होते स्वरूप और अपमान के चलते इतने रौद्र रूप में आ गई। कहा
जाता है कि गंगा धरती पर आना ही नहीं चाहती थी लेकिन भगवान शिव के दबाव
में आकर उन्हें धरती पर उतरना पड़ा।
भगवान शिव ने गंगा की मर्यादा
और पवित्रता को बनाए रखने का विश्वास दिलाया था। लेकिन बांध बनाकर और गंदला
करके हो रहा लगातार अपमान गंगा को सहन नहीं हो पाया।
अपने साथ हो
रहे अपमान से नाराज गंगा 2010 में भी रौद्र रूप दिखा चुकी हैं जब ऋषिकेश के
परमार्थ आश्रम में विराजमान शिव की विशाल मूर्ति को गंगा की तेज लहरें
अपने प्रवाह में बहा ले गई थी।
Saturday, 29 June 2013
Friday, 28 June 2013
मुस्लिम तुष्टिकरण
महत्त्वपूर्ण शासकीय जिम्मेदारी उठाए हुए एक वरिष्ठ केंद्रीय नेता का
ताजातरीन बयान गंभीरता से विचार करने योग्य है। उसमें तीन बातें ध्यान
आकर्षित करती हैं। पहली, ‘अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण का
उप-कोटा बनाया गया, लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने स्थगित कर दिया। इसलिए
अकादमिक संस्थानों में अल्पसंख्यकों के लिए नौकरी और पद सुरक्षित करने की
कोई नीति नहीं है।’ दूसरी, ‘हम आशान्वित हैं कि उप-कोटा लागू हो जाएगा। हम
अटॉर्नी जनरल से बात कर रहे हैं ताकि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और पहले करा
ली जाए और मामला सुलझा लिया जाए। लेकिन इस बीच हमें अल्पसंख्यकों की मदद
करनी होगी।’ उस मदद का विवरण देते हुए उन्होंने कहा, ‘चौवालीस पॉलिटेक्निक
और एक सौ तेरह आइटीआइ अल्पसंख्यक केंद्रित इलाकों में खोले जा रहे हैं।’
इतना ही नहीं, उन वरिष्ठ केंद्रीय नेता के अनुसार कार्मिक विभाग को निर्देश
दिया गया है कि वह सरकारी क्षेत्र के सभी सेलेक्शन बोर्डों और चयन
समितियों में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दे।
उनके आत्मविश्वास और कामकाजी अंदाज से स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक आरक्षण लागू होना तय है। केवल समय की बात है। वह भी जल्दी करने का इंतजाम हो रहा है। फिर भी जितनी देर हो, उस बीच अंतरिम लाभ के तौर पर एक सौ सत्तावन तकनीकी संस्थान ‘अल्पसंख्यकों’ के हित में खोले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, आमतौर पर सभी अकादमिक चयन समितियों में अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों को स्थान देने का सीधा अर्थ है कि अब सरकारी अकादमिक आदि पदों पर चयन का आधार यह भी होगा कि उम्मीदवार अल्पसंख्यक हो! नहीं तो, चयन समिति में ही ‘अल्पसंख्यक’ को लाने की चिंता का कोई अर्थ नहीं।
ये सब दूरगामी निर्णय किस सिद्धांत के आधार पर हो रहे हैं? क्या यह सब उचित है, न्यायपूर्ण है, देश-समाज के हित में है? इतना ही नहीं, क्या यह संविधान के भी अनुरूप है? ये प्रश्न बहुतों को अटपटे भी लग सकते हैं। क्योंकि ‘अल्पसंख्यकों’ के लिए यह और वह करने के अभियान इतने नियमित हो गए हैं कि उसे सहज और सामान्य तक समझा जाने लगा है। पर सचाई यह है कि न केवल यह अभियान देश के लिए अत्यंत खतरनाक और विघटनकारी है, बल्कि संविधान के भी अनुरूप नहीं है। चूंकि राजनीतिक दलों और प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग ने संकीर्ण लोभ और वैचारिक झक में इसे सही मान लिया है, इससे इसका अन्याय, असंवैधानिकता और संभावित भयावह दुष्परिणाम छिपाया नहीं जा सकता।
अन्याय और असंवैधानिकता की पहचान इसी से आरंभ हो सकती है कि ‘अल्पसंख्यक’ का अर्थ बदल कर एक विशेष समुदाय मात्र कर लिया गया है। यह विचित्र सचाई सभी जानते हैं। लेकिन क्या भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक का यही अर्थ है? दूसरी बात, जो उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हर कहीं अल्पसंख्यक को लाने और भरने के निर्णयों में समानता के उस संवैधानिक प्रावधान को घूरे में फेंक दिया गया है कि राज्य किसी आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं करेगा। अल्पसंख्यक संबंधी सभी घोषणाएं और निर्णय खुले भेदभाव के आधार पर हो रहे हैं। फलां व्यक्ति अल्पसंख्यक समुदाय का है, इसलिए किसी महत्त्वपूर्ण चयन समिति में लिया जाएगा- यह संविधान की किस धारा के अनुरूप है?
अल्पसंख्यक संबंधी संविधान की धाराओं में दूर-दूर तक इस तरह का कोई अर्थ नहीं निकलता। कृपया संविधान की वे धाराएं, 29 और 30, स्वयं पढ़ कर देखें। इसलिए अल्पसंख्यकों के लिए निरंतर बढ़ते, उग्रतर होते कार्यक्रम में जो कुछ किया जा रहा है उनमें अधिकतर पूरी तरह अवैधानिक हैं। यह ऐसी डाकेजनी है, जो इतने खुले रूप में हो रही है कि डाकेजनी नहीं लगती! शरलक होम्स के मुहावरे में कहें तो ‘इट इज सो ओवर्ट, इट इज कोवर्ट’।
हां, यह भी सच है कि अल्पसंख्यक के नाम पर इतनी मनमानियां इसलिए भी चल रही हैं क्योंकि संविधान ने इनकी पहचान करने में गड़बड़झाला कर दिया है। मूल गड़बड़ी उसी से शुरू हुई, मगर उसने अब जो रूप ले लिया है वह संविधान से भी अनुमोदित नहीं है।
बहरहाल, उन संवैधानिक धाराओं में गड़बड़ी यह है कि धारा 29 अल्पसंख्यक के संदर्भ में मजहब, नस्ल, जाति और भाषा, ये चार आधार देती है। जबकि धारा 30 में केवल मजहब और भाषा का उल्लेख है। तब अल्पसंख्यक की पहचान किन आधारों पर गिनी या छोड़ी जाएगी? यह अनुत्तरित है। संविधान में दूसरी बड़ी गड़बड़ी यह है कि अल्पसंख्यक की पूरी चर्चा में कहीं ‘बहुसंख्यक’ का उल्लेख नहीं है। कानूनी दृष्टि से यह निपट अंधकार भरी जगह है, जहां सारी लूटपाट हो रही है। क्योंकि कानून में कोई चीज स्वत: स्पष्ट नहीं होती।
जब लिखित कानूनी धाराओं पर अर्थ के भारी मतभेद होते हैं, जो न्यायिक बहसों, निर्णयों में दिखते हैं; तब किसी लुप्त, अलिखित धारणा पर अनुमान किया जा सकता है। इसीलिए ‘बहुसंख्यक’ के रूप में हमारे बुद्धिजीवी जो भी मानते हैं, वह संविधान में कहीं नहीं। इसी से भयंकर गड़बड़ियां चल रही हैं। संविधान में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों अपरिभाषित हैं, लेकिन व्यवहार में स्वार्थी नेतागण दोनों को जब जैसे
मनमाना नाम और अर्थ देकर किसी को कुछ विशेष दे और किसी से कुछ छीने ले रहे हैं।
यह सब इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि अल्पसंख्यक संदर्भ में बुनियादी प्रश्न पूरी तरह, और आरंभ से ही अनुत्तरित हैं। जैसे, बहुसंख्यक कौन है? अगर मजहब, नस्ल, जाति और भाषा (धारा 29); या केवल मजहब और भाषा (धारा 30) के आधार पर भी अल्पसंख्यक की अवधारणा की जाए, तो इसकी तुलना में बहुसंख्यक किसे कहा जाएगा? फिर, यह बहुसंख्यक और तदनुरूप अल्पसंख्यक भी जिला, प्रांत या देश, किस क्षेत्राधार पर चिह्नित होगा? इन बिंदुओं को प्राय: छुआ भी नहीं जाता। ऐसी भंगिमा बनाई जाती है मानो यह सब सबको स्पष्ट हो। जबकि ऐसा कुछ नहीं है।
न संविधान, न किसी सरकारी दस्तावेज, न सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय- कोई ‘बहुसंख्यक’ नामक चिड़िया कहीं दिखाई नहीं देती। न इसका कोई नाम है, न पहचान। दूसरे शब्दों में, बिना किसी बहुसंख्यक के ही अल्पसंख्यक का सारा खेल चल रहा है! कुछ ऐसा ही जैसे ताश के खेल में एक ही खिलाड़ी दोनों ओर से खेल रहा हो। या किसी सिक्के में एक ही पहलू हो। दूसरा पहलू सपाट, खाली हो। उसी तरह भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक तो है, बहुसंख्यक है ही नहीं!
लेकिन जब बहुसंख्यक कहीं परिभाषित नहीं, तो अल्पसंख्यक की धारणा ही असंभव है! क्योंकि ‘अल्प’ और ‘बहु’ तुलनात्मक अवधारणाएं हैं। एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता। मगर भारतीय संविधान में यही हो गया है। तब वही परिणाम होगा, जो हो रहा है- यानी निपट मनमानी और अन्याय। उदाहरण के लिए, संविधान की धारा 29 में ‘जाति’ वाले आधार पर ब्राह्मण भी अल्पसंख्यक हैं। बल्कि हरेक जाति, पूरे देश, हरेक राज्य और अधिकतर जिलों में अल्पसंख्यक हैं। धारा 30 में ‘भाषा’ वाले आधार पर हर भाषा-भाषी एकाध राज्य छोड़ कर पूरे देश में अल्पसंख्यक हैं। तीन चौथाई राज्यों में हिंदी-भाषी भी अल्पसंख्यक हैं। इन अल्पसंख्यकों के लिए कब, क्या किया गया? अगर नहीं किया गया, तो क्यों?
इसका उत्तर है कि जान-बूझ कर अल्पसंख्यक को अस्पष्ट, अपरिभाषित रखा जा रहा है, ताकि मनचाहे निर्णय लिए जा सकें। जबकि बहुसंख्यक का तो कहीं उल्लेख ही नहीं! इसलिए न उसके कोई अधिकार हैं, न उसके साथ कोई अन्याय। क्योंकि संविधान या कानून में उसका अस्तित्व ही नहीं!
इस प्रकार, देश की राजनीति और विधान में बहुसंख्यक के बिना ही अल्पसंख्यक अधिकार चल रहा है। अल्पसंख्यकों में भी केवल मजहबी अल्पसंख्यक, उनमें भी केवल एक चुने हुए अल्पसंख्यक को नित नई सुविधाएं और विशेषाधिकर दिए जा रहे हैं। वह अल्पसंख्यक, जो वास्तव में सबसे ताकतवर है! जिससे देश के प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं, मीडिया और न्यायकर्मी भी सावधान रहते हैं। यह कटु सत्य सब जानते हैं। पर तब भी वास्तविक दबे-कुचले, उपेक्षित, निर्बल वर्गों की खोज-खबर नहीं ली जाती। संविधान में वर्णित ‘अल्पसंख्यक’ प्रावधान अपने अंतर्विरोध और अस्पष्टता के चलते घटिया और देश-विभाजक राजनीति का हथकंडा बन कर रह गया है।
यह हथकंडा ही है, यह इससे प्रमाणित होगा कि मनमाने अर्थ वाले ‘अल्पसंख्यक’ को गलत बताने, या उसकी एकाधिकारी सुविधाओं को खारिज करने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को सरसरी तौर पर उपेक्षित कर दिया जाता है। अर्थात वोट बैंक के लालच में नेतागण जो करना तय कर चुके हैं, उसके अनुरूप ही वे न्यायालय की बात मानते हैं, नहीं तो साफ ठुकराते हैं।
मसलन, सुप्रीम कोर्ट ने ‘बाल पाटील और अन्य बनाम भारत सरकार’ (2005) मामले में निर्णय लिखा था, ‘हिंदू शब्द से भारत में रहने वाले विभिन्न प्रकार के समुदायों का बोध होता है। अगर आप हिंदू कहलाने वाला कोई व्यक्ति ढूंढ़ना चाहें तो वह नहीं मिलेगा। वह केवल किसी जाति के आधार पर पहचाना जा सकता है। ...जातियों पर आधारित होने के कारण हिंदू समाज स्वयं अनेक अल्पसंख्यक समूहों में विभक्त है। प्रत्येक जाति दूसरे से अलग होने का दावा करती है। जाति-विभक्त भारतीय समाज में लोगों का कोई हिस्सा या समूह बहुसंख्यक होने का दावा नहीं कर सकता। हिंदुओं में सभी अल्पसंख्यक हैं।’ क्या अल्पसंख्यक की किसी चर्चा में इस निर्णय और सम्मति का कोई संज्ञान लिया जाता है? अगर नहीं, तो क्यों?
इस संदर्भ में दिनोंदिन बिगड़ती जा रही स्थिति से क्या अनिष्ट संभावित है, यह भी सुप्रीम कोर्ट के उसी निर्णय में है। न्यायाधीशों ने 1947 में देश-विभाजन का उल्लेख करते हुए वहीं पर लिखा है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक आधार पर किसी को अल्पसंख्यक मानने और अलग निर्वाचक-मंडल बनाने आदि कदमों से ही अंतत: देश के टुकड़े हुए।
इसीलिए न्यायाधीशों ने चेतावनी भी दी, ‘अगर मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन-शिक्षा-शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के ‘अल्पसंख्यक’ होने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।’ न्यायाधीशों ने ‘धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की भावना को प्रोत्साहित करने’ के प्रति विशेष चिंता जताई, जो देश में विभाजनकारी प्रवृत्ति बढ़ा सकती है।
उनके आत्मविश्वास और कामकाजी अंदाज से स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक आरक्षण लागू होना तय है। केवल समय की बात है। वह भी जल्दी करने का इंतजाम हो रहा है। फिर भी जितनी देर हो, उस बीच अंतरिम लाभ के तौर पर एक सौ सत्तावन तकनीकी संस्थान ‘अल्पसंख्यकों’ के हित में खोले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, आमतौर पर सभी अकादमिक चयन समितियों में अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों को स्थान देने का सीधा अर्थ है कि अब सरकारी अकादमिक आदि पदों पर चयन का आधार यह भी होगा कि उम्मीदवार अल्पसंख्यक हो! नहीं तो, चयन समिति में ही ‘अल्पसंख्यक’ को लाने की चिंता का कोई अर्थ नहीं।
ये सब दूरगामी निर्णय किस सिद्धांत के आधार पर हो रहे हैं? क्या यह सब उचित है, न्यायपूर्ण है, देश-समाज के हित में है? इतना ही नहीं, क्या यह संविधान के भी अनुरूप है? ये प्रश्न बहुतों को अटपटे भी लग सकते हैं। क्योंकि ‘अल्पसंख्यकों’ के लिए यह और वह करने के अभियान इतने नियमित हो गए हैं कि उसे सहज और सामान्य तक समझा जाने लगा है। पर सचाई यह है कि न केवल यह अभियान देश के लिए अत्यंत खतरनाक और विघटनकारी है, बल्कि संविधान के भी अनुरूप नहीं है। चूंकि राजनीतिक दलों और प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग ने संकीर्ण लोभ और वैचारिक झक में इसे सही मान लिया है, इससे इसका अन्याय, असंवैधानिकता और संभावित भयावह दुष्परिणाम छिपाया नहीं जा सकता।
अन्याय और असंवैधानिकता की पहचान इसी से आरंभ हो सकती है कि ‘अल्पसंख्यक’ का अर्थ बदल कर एक विशेष समुदाय मात्र कर लिया गया है। यह विचित्र सचाई सभी जानते हैं। लेकिन क्या भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक का यही अर्थ है? दूसरी बात, जो उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हर कहीं अल्पसंख्यक को लाने और भरने के निर्णयों में समानता के उस संवैधानिक प्रावधान को घूरे में फेंक दिया गया है कि राज्य किसी आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं करेगा। अल्पसंख्यक संबंधी सभी घोषणाएं और निर्णय खुले भेदभाव के आधार पर हो रहे हैं। फलां व्यक्ति अल्पसंख्यक समुदाय का है, इसलिए किसी महत्त्वपूर्ण चयन समिति में लिया जाएगा- यह संविधान की किस धारा के अनुरूप है?
अल्पसंख्यक संबंधी संविधान की धाराओं में दूर-दूर तक इस तरह का कोई अर्थ नहीं निकलता। कृपया संविधान की वे धाराएं, 29 और 30, स्वयं पढ़ कर देखें। इसलिए अल्पसंख्यकों के लिए निरंतर बढ़ते, उग्रतर होते कार्यक्रम में जो कुछ किया जा रहा है उनमें अधिकतर पूरी तरह अवैधानिक हैं। यह ऐसी डाकेजनी है, जो इतने खुले रूप में हो रही है कि डाकेजनी नहीं लगती! शरलक होम्स के मुहावरे में कहें तो ‘इट इज सो ओवर्ट, इट इज कोवर्ट’।
हां, यह भी सच है कि अल्पसंख्यक के नाम पर इतनी मनमानियां इसलिए भी चल रही हैं क्योंकि संविधान ने इनकी पहचान करने में गड़बड़झाला कर दिया है। मूल गड़बड़ी उसी से शुरू हुई, मगर उसने अब जो रूप ले लिया है वह संविधान से भी अनुमोदित नहीं है।
बहरहाल, उन संवैधानिक धाराओं में गड़बड़ी यह है कि धारा 29 अल्पसंख्यक के संदर्भ में मजहब, नस्ल, जाति और भाषा, ये चार आधार देती है। जबकि धारा 30 में केवल मजहब और भाषा का उल्लेख है। तब अल्पसंख्यक की पहचान किन आधारों पर गिनी या छोड़ी जाएगी? यह अनुत्तरित है। संविधान में दूसरी बड़ी गड़बड़ी यह है कि अल्पसंख्यक की पूरी चर्चा में कहीं ‘बहुसंख्यक’ का उल्लेख नहीं है। कानूनी दृष्टि से यह निपट अंधकार भरी जगह है, जहां सारी लूटपाट हो रही है। क्योंकि कानून में कोई चीज स्वत: स्पष्ट नहीं होती।
जब लिखित कानूनी धाराओं पर अर्थ के भारी मतभेद होते हैं, जो न्यायिक बहसों, निर्णयों में दिखते हैं; तब किसी लुप्त, अलिखित धारणा पर अनुमान किया जा सकता है। इसीलिए ‘बहुसंख्यक’ के रूप में हमारे बुद्धिजीवी जो भी मानते हैं, वह संविधान में कहीं नहीं। इसी से भयंकर गड़बड़ियां चल रही हैं। संविधान में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों अपरिभाषित हैं, लेकिन व्यवहार में स्वार्थी नेतागण दोनों को जब जैसे
मनमाना नाम और अर्थ देकर किसी को कुछ विशेष दे और किसी से कुछ छीने ले रहे हैं।
यह सब इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि अल्पसंख्यक संदर्भ में बुनियादी प्रश्न पूरी तरह, और आरंभ से ही अनुत्तरित हैं। जैसे, बहुसंख्यक कौन है? अगर मजहब, नस्ल, जाति और भाषा (धारा 29); या केवल मजहब और भाषा (धारा 30) के आधार पर भी अल्पसंख्यक की अवधारणा की जाए, तो इसकी तुलना में बहुसंख्यक किसे कहा जाएगा? फिर, यह बहुसंख्यक और तदनुरूप अल्पसंख्यक भी जिला, प्रांत या देश, किस क्षेत्राधार पर चिह्नित होगा? इन बिंदुओं को प्राय: छुआ भी नहीं जाता। ऐसी भंगिमा बनाई जाती है मानो यह सब सबको स्पष्ट हो। जबकि ऐसा कुछ नहीं है।
न संविधान, न किसी सरकारी दस्तावेज, न सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय- कोई ‘बहुसंख्यक’ नामक चिड़िया कहीं दिखाई नहीं देती। न इसका कोई नाम है, न पहचान। दूसरे शब्दों में, बिना किसी बहुसंख्यक के ही अल्पसंख्यक का सारा खेल चल रहा है! कुछ ऐसा ही जैसे ताश के खेल में एक ही खिलाड़ी दोनों ओर से खेल रहा हो। या किसी सिक्के में एक ही पहलू हो। दूसरा पहलू सपाट, खाली हो। उसी तरह भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक तो है, बहुसंख्यक है ही नहीं!
लेकिन जब बहुसंख्यक कहीं परिभाषित नहीं, तो अल्पसंख्यक की धारणा ही असंभव है! क्योंकि ‘अल्प’ और ‘बहु’ तुलनात्मक अवधारणाएं हैं। एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता। मगर भारतीय संविधान में यही हो गया है। तब वही परिणाम होगा, जो हो रहा है- यानी निपट मनमानी और अन्याय। उदाहरण के लिए, संविधान की धारा 29 में ‘जाति’ वाले आधार पर ब्राह्मण भी अल्पसंख्यक हैं। बल्कि हरेक जाति, पूरे देश, हरेक राज्य और अधिकतर जिलों में अल्पसंख्यक हैं। धारा 30 में ‘भाषा’ वाले आधार पर हर भाषा-भाषी एकाध राज्य छोड़ कर पूरे देश में अल्पसंख्यक हैं। तीन चौथाई राज्यों में हिंदी-भाषी भी अल्पसंख्यक हैं। इन अल्पसंख्यकों के लिए कब, क्या किया गया? अगर नहीं किया गया, तो क्यों?
इसका उत्तर है कि जान-बूझ कर अल्पसंख्यक को अस्पष्ट, अपरिभाषित रखा जा रहा है, ताकि मनचाहे निर्णय लिए जा सकें। जबकि बहुसंख्यक का तो कहीं उल्लेख ही नहीं! इसलिए न उसके कोई अधिकार हैं, न उसके साथ कोई अन्याय। क्योंकि संविधान या कानून में उसका अस्तित्व ही नहीं!
इस प्रकार, देश की राजनीति और विधान में बहुसंख्यक के बिना ही अल्पसंख्यक अधिकार चल रहा है। अल्पसंख्यकों में भी केवल मजहबी अल्पसंख्यक, उनमें भी केवल एक चुने हुए अल्पसंख्यक को नित नई सुविधाएं और विशेषाधिकर दिए जा रहे हैं। वह अल्पसंख्यक, जो वास्तव में सबसे ताकतवर है! जिससे देश के प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं, मीडिया और न्यायकर्मी भी सावधान रहते हैं। यह कटु सत्य सब जानते हैं। पर तब भी वास्तविक दबे-कुचले, उपेक्षित, निर्बल वर्गों की खोज-खबर नहीं ली जाती। संविधान में वर्णित ‘अल्पसंख्यक’ प्रावधान अपने अंतर्विरोध और अस्पष्टता के चलते घटिया और देश-विभाजक राजनीति का हथकंडा बन कर रह गया है।
यह हथकंडा ही है, यह इससे प्रमाणित होगा कि मनमाने अर्थ वाले ‘अल्पसंख्यक’ को गलत बताने, या उसकी एकाधिकारी सुविधाओं को खारिज करने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को सरसरी तौर पर उपेक्षित कर दिया जाता है। अर्थात वोट बैंक के लालच में नेतागण जो करना तय कर चुके हैं, उसके अनुरूप ही वे न्यायालय की बात मानते हैं, नहीं तो साफ ठुकराते हैं।
मसलन, सुप्रीम कोर्ट ने ‘बाल पाटील और अन्य बनाम भारत सरकार’ (2005) मामले में निर्णय लिखा था, ‘हिंदू शब्द से भारत में रहने वाले विभिन्न प्रकार के समुदायों का बोध होता है। अगर आप हिंदू कहलाने वाला कोई व्यक्ति ढूंढ़ना चाहें तो वह नहीं मिलेगा। वह केवल किसी जाति के आधार पर पहचाना जा सकता है। ...जातियों पर आधारित होने के कारण हिंदू समाज स्वयं अनेक अल्पसंख्यक समूहों में विभक्त है। प्रत्येक जाति दूसरे से अलग होने का दावा करती है। जाति-विभक्त भारतीय समाज में लोगों का कोई हिस्सा या समूह बहुसंख्यक होने का दावा नहीं कर सकता। हिंदुओं में सभी अल्पसंख्यक हैं।’ क्या अल्पसंख्यक की किसी चर्चा में इस निर्णय और सम्मति का कोई संज्ञान लिया जाता है? अगर नहीं, तो क्यों?
इस संदर्भ में दिनोंदिन बिगड़ती जा रही स्थिति से क्या अनिष्ट संभावित है, यह भी सुप्रीम कोर्ट के उसी निर्णय में है। न्यायाधीशों ने 1947 में देश-विभाजन का उल्लेख करते हुए वहीं पर लिखा है कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक आधार पर किसी को अल्पसंख्यक मानने और अलग निर्वाचक-मंडल बनाने आदि कदमों से ही अंतत: देश के टुकड़े हुए।
इसीलिए न्यायाधीशों ने चेतावनी भी दी, ‘अगर मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन-शिक्षा-शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के ‘अल्पसंख्यक’ होने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।’ न्यायाधीशों ने ‘धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की भावना को प्रोत्साहित करने’ के प्रति विशेष चिंता जताई, जो देश में विभाजनकारी प्रवृत्ति बढ़ा सकती है।
Wednesday, 26 June 2013
आखिर सच्चाई से कब तक मुह मोड़ेंगे ??
आखिर सच्चाई से कब तक मुह मोड़ेंगे ??
नालंदा विश्वविद्यालयन
को क्यों जलाया गया था..?
जानिए सच्चाई ...??
एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क
लूटेरा था....बख्तियार खिलजी.
इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर
दिया।
उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित
कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था.
एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने
उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली ...
मगर वह ठीक नहीं हो सका.
किसी ने उसको सलाह दी...
नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के
प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र
जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय
विधियों से इलाज कराया जाय
उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय
वैद्य ...
उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और
वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाए
फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए
उनको बुलाना पड़ा
उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी...
मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा...
किसी भी तरह मुझे ठीक करों ...
वर्ना ...मरने के लिए तैयार रहो.
बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई... बहुत
उपाय सोचा...
अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर
चले गए..
कहा...इस कुरान की पृष्ठ संख्या ... इतने से
इतने तक पढ़ लीजिये... ठीक हो जायेंगे...!
उसने पढ़ा और ठीक हो गया ..
जी गया...
उसको बड़ी झुंझलाहट
हुई...उसको ख़ुशी नहीं हुई
उसको बहुत गुस्सा आया कि ... उसके
मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय
वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...!
बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने
के बदले ...उनको पुरस्कार देना तो दूर ...
उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग
लगवा दिया ...पुस्तकालयों को ही जला के
राख कर दिया...!
वहां इतनी पुस्तकें थीं कि ...आग
लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके
जलती रहीं
उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार
डाले.
आज भी बेशरम सरकारें...उस नालायक
बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन
बनाये पड़ी हैं... !
उखाड़ फेंको इन अपमानजनक नामों को...
मैंने यह तो बताया ही नहीं... कुरान पढ़ के वह
कैसे ठीक हुआ था.
हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर
रख के नहीं पढ़ते...
थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते
lekin vo muslim shashk ठीक उलटा करते हैं..... कुरान के हर पेज
को थूक लगा लगा के पलटते हैं...!
बस...
वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ
पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप
लगा दिया था...
वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट
गया...ठीक हो गया और उसने इस एहसान
का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया
आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान
लेते है
यह प्राचीन भारत में उच्च्
शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और
विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के
इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के
साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के
छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में
पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व
और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में
एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम
द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध
विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन
वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक
पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण
के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग
तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस
विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत
जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में
यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक
विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत
किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र'
का जन्म यहीं पर हुआ था।
स्थापना व संरक्षण
इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय
गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७०
को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार
गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग
मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले
सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में
अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट
हर्षवर्द्धन और पाल
शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए
शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के
साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से
भी अनुदान मिला।
स्वरूप
यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय
विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें
विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं
अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस
विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न
क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान,
चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस
तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण
करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट
शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध
धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय
की नौवीं शती से बारहवीं शती तक
अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।
परिसर
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र
में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य
कला का अद्भुत नमूना था।
इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से
घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य
द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर
मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक
भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध
भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं।
केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और
इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें
व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में
तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के
होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल
के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर
की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक
इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे।
प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था।
आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक
प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के
अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें
भी थी।
प्रबंधन
समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध
कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे
जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे।
कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के
परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम
समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य
देखती थी और द्वितीय समिति सारे
विश्वविद्यालय की आर्थिक
व्यवस्था तथा प्रशासन की देख--भाल
करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले
दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय
की देख--रेख यही समिति करती थी। इसी से
सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े
तथा आवास का प्रबंध होता था।
आचार्य
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के
आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम,
द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे।
नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र,
धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और
स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग
के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख
शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक
और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से
ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ
एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस
विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे
जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है
वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र।
ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ
आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र
३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ
का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।
प्रवेश के नियम
प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और
उसके कारण
प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते
थे। उन्हें तीन कठिन
परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था।
यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध
आचरण और संघ के नियमों का पालन
करना अत्यंत आवश्यक था।
अध्ययन-अध्यापन पद्धति
इस विश्वविद्यालय में आचार्य
छात्रों को मौखिक व्याख्यान
द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त
पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी।
शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर
में अध्ययन तथा शंका समाधान
चलता रहता था।
अध्ययन क्षेत्र
यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन,
वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं
का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत
और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण,
दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र
तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के
अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक
काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ
विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु
की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान
का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र
अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।
पुस्तकालय
नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और
आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक
विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से
अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस
पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें
थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर'
नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था।
'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य
हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से
अनेक
पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने
साथ ले गये थे।
नालंदा विश्वविद्यालयन
को क्यों जलाया गया था..?
जानिए सच्चाई ...??
एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क
लूटेरा था....बख्तियार खिलजी.
इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर
दिया।
उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित
कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था.
एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने
उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली ...
मगर वह ठीक नहीं हो सका.
किसी ने उसको सलाह दी...
नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के
प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र
जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय
विधियों से इलाज कराया जाय
उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय
वैद्य ...
उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और
वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाए
फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए
उनको बुलाना पड़ा
उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी...
मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा...
किसी भी तरह मुझे ठीक करों ...
वर्ना ...मरने के लिए तैयार रहो.
बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई... बहुत
उपाय सोचा...
अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर
चले गए..
कहा...इस कुरान की पृष्ठ संख्या ... इतने से
इतने तक पढ़ लीजिये... ठीक हो जायेंगे...!
उसने पढ़ा और ठीक हो गया ..
जी गया...
उसको बड़ी झुंझलाहट
हुई...उसको ख़ुशी नहीं हुई
उसको बहुत गुस्सा आया कि ... उसके
मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय
वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...!
बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने
के बदले ...उनको पुरस्कार देना तो दूर ...
उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग
लगवा दिया ...पुस्तकालयों को ही जला के
राख कर दिया...!
वहां इतनी पुस्तकें थीं कि ...आग
लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके
जलती रहीं
उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार
डाले.
आज भी बेशरम सरकारें...उस नालायक
बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन
बनाये पड़ी हैं... !
उखाड़ फेंको इन अपमानजनक नामों को...
मैंने यह तो बताया ही नहीं... कुरान पढ़ के वह
कैसे ठीक हुआ था.
हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर
रख के नहीं पढ़ते...
थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते
lekin vo muslim shashk ठीक उलटा करते हैं..... कुरान के हर पेज
को थूक लगा लगा के पलटते हैं...!
बस...
वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ
पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप
लगा दिया था...
वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट
गया...ठीक हो गया और उसने इस एहसान
का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया
आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान
लेते है
यह प्राचीन भारत में उच्च्
शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और
विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के
इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के
साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के
छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में
पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व
और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में
एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम
द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध
विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन
वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक
पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण
के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग
तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस
विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत
जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में
यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक
विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत
किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र'
का जन्म यहीं पर हुआ था।
स्थापना व संरक्षण
इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय
गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७०
को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार
गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग
मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले
सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में
अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट
हर्षवर्द्धन और पाल
शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए
शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के
साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से
भी अनुदान मिला।
स्वरूप
यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय
विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें
विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं
अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस
विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न
क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान,
चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस
तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण
करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट
शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध
धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय
की नौवीं शती से बारहवीं शती तक
अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।
परिसर
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र
में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य
कला का अद्भुत नमूना था।
इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से
घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य
द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर
मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक
भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध
भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं।
केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और
इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें
व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में
तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के
होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल
के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर
की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक
इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे।
प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था।
आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक
प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के
अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें
भी थी।
प्रबंधन
समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध
कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे
जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे।
कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के
परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम
समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य
देखती थी और द्वितीय समिति सारे
विश्वविद्यालय की आर्थिक
व्यवस्था तथा प्रशासन की देख--भाल
करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले
दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय
की देख--रेख यही समिति करती थी। इसी से
सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े
तथा आवास का प्रबंध होता था।
आचार्य
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के
आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम,
द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे।
नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र,
धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और
स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग
के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख
शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक
और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से
ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ
एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस
विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे
जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है
वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र।
ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ
आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र
३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ
का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।
प्रवेश के नियम
प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और
उसके कारण
प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते
थे। उन्हें तीन कठिन
परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था।
यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध
आचरण और संघ के नियमों का पालन
करना अत्यंत आवश्यक था।
अध्ययन-अध्यापन पद्धति
इस विश्वविद्यालय में आचार्य
छात्रों को मौखिक व्याख्यान
द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त
पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी।
शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर
में अध्ययन तथा शंका समाधान
चलता रहता था।
अध्ययन क्षेत्र
यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन,
वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं
का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत
और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण,
दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र
तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के
अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक
काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ
विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु
की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान
का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र
अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।
पुस्तकालय
नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और
आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक
विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से
अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस
पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें
थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर'
नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था।
'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य
हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से
अनेक
पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने
साथ ले गये थे।
Tuesday, 25 June 2013
छिछोरा है ना टपोरा है, ये तो खाली बोरा है....|
बांबे है ना दिल्ली है, माइनो काली बिल्ली है....||
कुत्ता है ना पिग्गी है, अरे ये तो अपना दिग्गी है....|
भिँडी है ना टिँडे है, ये तो साला सिँडे है....||
ना गुल है ना शोर है, ये तो बैसाखी चोर है....|
ना चप्पल है ना जुत्ता है, ये तो कोन्ग्रेसी कुत्ता है....||
बांबे है ना दिल्ली है, माइनो काली बिल्ली है....||
कुत्ता है ना पिग्गी है, अरे ये तो अपना दिग्गी है....|
भिँडी है ना टिँडे है, ये तो साला सिँडे है....||
ना गुल है ना शोर है, ये तो बैसाखी चोर है....|
ना चप्पल है ना जुत्ता है, ये तो कोन्ग्रेसी कुत्ता है....||
जो हिंदू इस घमंड मे जी रहे है कि अरबो सालो से सनातन धर्म है और इसे कोई नही मिटा सकता, वो जवाब दे-
1. आखिर अफगानीस्तान से हिंदू क्यों मिट गया |
2. काबुल जो श्री राम के पुत्र कुश का बनाया शहर था आज वहाँ एक भी मंदिर नही बचा|
3. गंधार जिसका विवरण महाभारत मे है जहां की रानी गांधारी थी आज उसका नाम कंधार हो चूका है और वहाँ आज एक भी हिंदू नही बचा|
1. आखिर अफगानीस्तान से हिंदू क्यों मिट गया |
2. काबुल जो श्री राम के पुत्र कुश का बनाया शहर था आज वहाँ एक भी मंदिर नही बचा|
3. गंधार जिसका विवरण महाभारत मे है जहां की रानी गांधारी थी आज उसका नाम कंधार हो चूका है और वहाँ आज एक भी हिंदू नही बचा|
4. कम्बोडिया जहां राजा सूर्य देव बर्मन ने दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर अंकोरवाट बनाया आज वहा भी हिंदू नही है |
5. बाली द्वीप मे 20 साल पहले तक 90% हिंदू थे आज सिर्फ 20% बचे |
6. कश्मीर घाटी मे सिर्फ 20 साल पहले 50% हिंदू थे , आज नाम मात्र के ही हिंदू बचे|
7. केरल मे 10 साल पहले तक 60% जनसंख्या हिन्दुओ की थी आज सिर्फ 10% हिंदू केरल मे है |
8. उत्तर-पूर्व जैसे सिक्किम, नागालैंड , आसाम आदि मे हिंदू हर रोज मारे या भगाए जाते है या उनका धर्मपरिवर्तन हो रहा है |
-----------------------------
1569 तक ईरान का नाम पारस या पर्शिया होता था और वहाँ एक भी मुस्लिम नही था सिर्फ पारसी रहते थे .. जब पारस पर मुस्लिमो का आक्रमण होता था तब पारसी बूढ़े बुजुर्ग अपने नौजवान को यही सिखाते थे की हमे कोई मिटा नही सकता .
लेकिन ईरान से सारे के सारे पारसी मिटा दिये गए .. धीरे धीरे उनका कत्लेआम और धर्मपरिवर्तन होता रहा .. एक नाव मे बैठकर 21 पारसी किसी तरह गुजरात के नवसारीजिले के उद्वावाडा गांव मे पहुचे और आज पारसी सिर्फ भारत मे ही गिनती की संख्या मे बचे है |
-----------------------------
कांग्रेस के लोग कृपा करके सोनिया गाँधी को समझाये की वो विभाजन काल की ग़लती को ना दुहराएँ. जो इतिहास से कुछ सीखता नही वो मिट जाता है.
अब समय हैं जागने का...
अगर अब भी नही जागे तो फिर हमारी भी हालत कश्मीर घाटी, कम्बोडिया, पारस या पर्शिया, जैसी हो जायेगी और फिर हम घर के रहेंगे न घाट के..
हम हिन्दुओ को अपने इतिहास से सिखने की जरूरत हैं, आखिर क्यों हम हिन्दू अपना इतिहास भूल जाते हैं??
5. बाली द्वीप मे 20 साल पहले तक 90% हिंदू थे आज सिर्फ 20% बचे |
6. कश्मीर घाटी मे सिर्फ 20 साल पहले 50% हिंदू थे , आज नाम मात्र के ही हिंदू बचे|
7. केरल मे 10 साल पहले तक 60% जनसंख्या हिन्दुओ की थी आज सिर्फ 10% हिंदू केरल मे है |
8. उत्तर-पूर्व जैसे सिक्किम, नागालैंड , आसाम आदि मे हिंदू हर रोज मारे या भगाए जाते है या उनका धर्मपरिवर्तन हो रहा है |
-----------------------------
1569 तक ईरान का नाम पारस या पर्शिया होता था और वहाँ एक भी मुस्लिम नही था सिर्फ पारसी रहते थे .. जब पारस पर मुस्लिमो का आक्रमण होता था तब पारसी बूढ़े बुजुर्ग अपने नौजवान को यही सिखाते थे की हमे कोई मिटा नही सकता .
लेकिन ईरान से सारे के सारे पारसी मिटा दिये गए .. धीरे धीरे उनका कत्लेआम और धर्मपरिवर्तन होता रहा .. एक नाव मे बैठकर 21 पारसी किसी तरह गुजरात के नवसारीजिले के उद्वावाडा गांव मे पहुचे और आज पारसी सिर्फ भारत मे ही गिनती की संख्या मे बचे है |
-----------------------------
कांग्रेस के लोग कृपा करके सोनिया गाँधी को समझाये की वो विभाजन काल की ग़लती को ना दुहराएँ. जो इतिहास से कुछ सीखता नही वो मिट जाता है.
अब समय हैं जागने का...
अगर अब भी नही जागे तो फिर हमारी भी हालत कश्मीर घाटी, कम्बोडिया, पारस या पर्शिया, जैसी हो जायेगी और फिर हम घर के रहेंगे न घाट के..
हम हिन्दुओ को अपने इतिहास से सिखने की जरूरत हैं, आखिर क्यों हम हिन्दू अपना इतिहास भूल जाते हैं??
Monday, 24 June 2013
आदमखोर सरकार
हमारे देश के गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे का सबसे बड़ा झूंठ:
"राहुल गांधी उत्तराखंड में दौरे के दौरान हेलिकोप्टर से नीचे नहीं उतरे"
सच: राहुल गांधी देहरादून गए. वह रुके. फिर इसके बाद वो रुद्रप्रयाग गए , वह उनको नीचे उतरा गया. उन्होंने वहां पर लगे शिवरों में जानकारी ली. फिर इसके बाद आज वो गुप्तकाशी गए. उनका हेलिकोप्टर नीचे उतरा, वह उन्होंने नीचे उतारकर नजारा देखा. फिर इसके बाद उनका हेलिकोप्टर गोचर पहुंचा, वह वो मिलेट्री के राहत केम्प और अस्पताल गए.
शिंदे तू बहुत गद्दार और झूँठा इंसान है. इतनी ज्यादा चापलूसी करके क्या मिलेगा तुझे. नरेन्द्र मोदी के हेलिकोप्टर को जमीन पर उतरने पर पाबंदी लगा दी थी. इस सगे मंदबुध्धि बच्चे के हेलिकोप्टर को जमीन पर उतारने से पाबन्दी लगाने में चड्डी फट गयी क्या.....????
वैधानिक चेतावनी : देशवासियों, इस देश के गृह मंत्री सुशील शिंदे पर विशवास मत कीजिये....ये ४२० है.इस पर ४२० का मुकदमा भी दर्ज हो गया है
"राहुल गांधी उत्तराखंड में दौरे के दौरान हेलिकोप्टर से नीचे नहीं उतरे"
सच: राहुल गांधी देहरादून गए. वह रुके. फिर इसके बाद वो रुद्रप्रयाग गए , वह उनको नीचे उतरा गया. उन्होंने वहां पर लगे शिवरों में जानकारी ली. फिर इसके बाद आज वो गुप्तकाशी गए. उनका हेलिकोप्टर नीचे उतरा, वह उन्होंने नीचे उतारकर नजारा देखा. फिर इसके बाद उनका हेलिकोप्टर गोचर पहुंचा, वह वो मिलेट्री के राहत केम्प और अस्पताल गए.
शिंदे तू बहुत गद्दार और झूँठा इंसान है. इतनी ज्यादा चापलूसी करके क्या मिलेगा तुझे. नरेन्द्र मोदी के हेलिकोप्टर को जमीन पर उतरने पर पाबंदी लगा दी थी. इस सगे मंदबुध्धि बच्चे के हेलिकोप्टर को जमीन पर उतारने से पाबन्दी लगाने में चड्डी फट गयी क्या.....????
वैधानिक चेतावनी : देशवासियों, इस देश के गृह मंत्री सुशील शिंदे पर विशवास मत कीजिये....ये ४२० है.इस पर ४२० का मुकदमा भी दर्ज हो गया है
Friday, 21 June 2013
.अपराध और दंड... सबके अपने-अपने विचार. लेकिन
.अपराध और दंड... सबके अपने-अपने विचार. लेकिन कसाब, अफजल की फांसी की सजा
और दिल्ली रेप केस के बाद इन पर बुध्दिजीवी तबके के साथ-साथ समाज भी अचानक
ही कुछ ज्यादा जागरुक होता नज़र आया . कोई इनके आरोपीयों को सीधे फांसी पर
चढाने की मांग कर रहा था तो कोई सीधे विरोध...
अपराध और दंड के इस मुद्दे पर एक लेख.. मुझे लगता है पढना चाहिए एक बार इसे... गर सच में आप इस मुद्दे को लेकर आंदोलित हैं तो...आज लगभग नौ साल बाद भी मामला ज्यों का त्यों है। 16 दिसंबर 2012 की खौफनाक घटना के बाद जब पूरा देश सड़कों पर उतर कर बलात्कार व हत्या के लिए कठोरतम सजा की मांग कर रहा था, तब यह बात फिर से चर्चा में आयी कि देश की भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने गृह विभाग की संस्तुति पर तीस लोगों की फांसी की सजा माफ कर दी थी, जिनमें 22 ऐसे लोगों की सजा माफ की गयी, जिन्होंने बच्चियों का बलात्कार किया था, सामूहिक हत्याकांडों को अंजाम दिया था और छोटे बच्चों को बर्बरतापूर्वक मार डाला था। इंडिया टुडे (22 दिसंबर 2012) में छपी सूचना के अनुसार मोतीराम तथा संतोष यादव बलात्कार के जुर्म में जेल में रह रहे थे, उन्हें सुधारने के लिए उन्हें जेलर के बगीचे का बागवान नियुक्त किया गया। उन्होंने जेलर की दस वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार करके उसे मार डाला। प्रतिभा पाटिल ने उसे क्षमादान दिया। सुशील मुर्मू ने एक नौ वर्षीय बच्चे का गला काट डाला, इससे पहले वह अपने छोटे भाई की बलि चढ़ा चुका था, वह भी पाटिल की दया का पात्र बना। धर्मेंद्र और नरेंद्र यादव ने नाबालिग बच्ची का बलात्कार का प्रयास किया था और उनका प्रतिरोध करने पर उसके परिवार के पांच लोगों की हत्या कर दी थी और एक दस साल के लड़के की गरदन काट कर उसका शरीर आग में झोंक दिया था। मोहन और गोपी ने एक पांच वर्ष के बच्चे का अपहरण करके उसे यातनाएं देकर मार डाला और पांच लाख की फिरौती मांगी।
हम सब जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केसेज में ही मृत्युदंड सुनाता है। हमारे देश में खास कर हमारे उत्तर प्रदेश में पिछले एक वर्ष से सामूहिक बलात्कार के बाद छोटी बच्चियों की हत्या अखबार में प्रतिदिन छपने वाली खबर है। यह रेयर नहीं रह गयी है, पर सजा रेयरली ही सुनायी जाती है।
भेरूसिंह बनाम राजस्थान सरकार के मामले में, जिसमें अपराधी ने अपनी पत्नी तथा पांच बच्चों की नृशंस हत्या की थी, न्यायालय ने कहा “सजा देने का उद्देश्य है कि अपराध बिना सजा के न छूट जाए, पीड़ित तथा समाज को यह संतोष हो कि इंसाफ किया गया है। हमारी राय में सजा का परिमाण अपराध की क्रूरता पर निर्भर होना चाहिए, अपराधी के आचरण पर भी और असहाय तथा असुरक्षित पीड़ित की अवस्था पर भी। न्याय की मांग है कि सजा अपराध के अनुरूप हो और न्यायालय के न्याय में समाज की उस अपराध के प्रति वितृष्णा परिलक्षित हो। न्यायालय को केवल अपराधी के अधिकारों को ही नहीं, पीड़ित के अधिकारों को भी ध्यान में रखना चाहिए और समाज को भी।’’ (एससीसी पृ 481 पृ 28)
आज हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तथाकथित बुद्धिजीवियों के उपहास व निंदा के पात्र हैं कि उन्होंने प्रतिभा पाटिल की राह नहीं अपनायी। अखबार में कार्टून है कि कहीं फांसी के फंदे चीन से आयात न करने पड़ें। पत्रकार भूल रहे हैं कि यह सजाएं 20-30 वर्ष पहले दी गयी थीं, यदि तभी तामील हो जातीं तो शायद सजा का डिमान्स्ट्रेटिव तथा डिटेरेंट होने का लक्ष्य पूरा कर कर पातीं।
प्रणव मुखर्जी ने जिन्हें दया के योग्य नहीं समझा, उनमें धरमपाल था, जो बलात्कार के अपराध में जेल गया था। बीमारी के नाम पर पैरोल पर छूटा और बलात्कार की शिकार के परिवार के पांच लोगों को मार डाला। प्रवीन कुमार ने चार लोगों की हत्या की, रामजी और सुरेश जी चौहान ने बड़े भाई की पत्नी की चार बच्चों समेत कुल्हाड़ी से काट कर हत्या की, गुरमीत ने तीन सगे भाइयों की, उनकी पत्नियों बच्चों समेत तेरह लोगों को तलवार से काट डाला, जाफर अली ने अपनी पत्नी व पांच बच्चियों को मार डाला। (हिंदुस्तान 5 अप्रैल 2013)
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने जिनको क्षमादान नहीं दिया, उनमें वीरप्पन के चार साथी भी शामिल हैं। पाठकों को शायद स्मरण हो कि जब सैकड़ों हाथियों और पुलिसकर्मियों की हत्या करने वाले तस्कर वीरप्पन को पूर्ण क्षमादान का आश्वासन देकर उससे आत्मसर्मपण करवाने की बात सरकार चला रही थी, तब एक शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी ने याचिका दी थी कि यदि अपराधी से समझौता ही करना या तो क्यों जंगलों की रक्षा करते हुए उसके पति को, वीरप्पन के हाथों मारे जाने दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी की याचिका पर सरकार द्वारा वीरप्पन से समझौते पर रोक लगा दी थी।
जेल में रहकर अपराधी को अनेक अधिकार हैं। पैरोल पर छूटकर बाहर आकर अपराधों को अंजाम देने और पीड़ित के परिवार को नेस्तनाबूत करने और गवाहों को धमकाने के उदाहरण असंख्य हैं। हमारे प्रयासों से जो कर्नल वाही पिता पुत्र जेल गये थे, वे भी अक्सर लखनऊ की जेल रोड पर घूमते और फल सब्जी खरीदते देखे जाते थे। हम सबने नीतीश कटारा के हत्यारे विकास यादव, कार से लोगों को कुचलने वाले नंदा और अपराधी मनु शर्मा को पैरोल पर छूट कर मयखानों में डिस्को डांस करते हुए दिखाई देने के समाचार पढ़े हैं। अपराधी स्वयं अपनी सुविधा के अनुसार समर्पण करते हैं। हम लोग यह सब संजय दत्त के मामले में देख ही रहे हैं, कि वे जेल में जाने के लिए छह महीने की मोहलत मांग रहे हैं, और उनके साथ के अन्य अपराधी भी। मोहलत मांगने का हक मुल्जिम को है, क्या अपराधी अपने शिकार को कोई मोहलत देते हैं?
शिकार के हक की रक्षा तो कानून भी नहीं करता। शिकार और उनके दोस्त अहबाब सिर्फ इंतजार करते हैं। अभी गोंडा में 31 वर्ष पहले हुई पुलिस के एसओ केपी सिंह तथा 12 अन्य निर्दोषों की हत्या के अपराधियों को निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनायी। अखबार में किंजल सिंह की रोते हुए तस्वीर छपी है, पिता की हत्या के समय वे चार माह की थीं, आज वे एक आइएएस अधिकारी हैं। इन 31 वर्षों के बीच उनकी मां भी गुजर गयीं। (दैनिक जागरण 6 अप्रैल 2013) ऐसे अपराधियों के पास सर्वोच्च न्यायालय तक जाने और वहां भी अपराधी पाये जाने के बाद भी दया पाने का हक है। पीड़ितों के पास शीघ्र इंसाफ पाने का कोई मौलिक अधिकार नहीं।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डॉ एएस आनंद ने ’विक्टिम ऑफ क्राइम – अनसीन साइड’ में लिखा है, ’’विक्टिम (मजलूम) दुर्भाग्य से दंड प्रक्रिया का सर्वाधिक विस्मृत और तिरस्कृत प्राणी है। एंग्लो सेक्शन प्रणाली पर आधारित अन्य प्रणालियों की भांति हमारी दंड प्रक्रिया भी अपराधी पर केंद्रित है – उसके कृत्य, उसके अधिकार और उसका सुधार। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकसित देशों जैसे ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड अमरीका आदि ने अभागे पीड़ितों पर भी ध्यान देना शुरू किया है, जो दरअसल अपराध के सबसे बड़े शिकार होते हैं और जिनकी क्षति पूर्ति किया ही जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा (1985) के बाद अमरीका ने भी विक्टिम ऑफ क्राइम एक्ट बनाया। मुजरिम को जमानत का अधिकार एक अधिकार स्वरूप मिला है, पर पीड़ित को जमानत का विरोध करने का यह अधिकार नहीं। राज्य की इच्छा पर निर्भर है कि वह चाहे तो विरोध करे चाहे न करे। पूरी दंड प्रक्रिया में पीड़ित की भूमिका सिवा एक गवाह के कुछ नहीं, वह भी तब, यदि सरकारी वकील चाहे।’’
मेरा यह आलेख फांसी की सजा के पक्ष में लिखा गया आलेख नहीं है। यह मजलूम के हकों के पक्ष में लिखा गया लेख है। यह आवाज पीड़ित के अधिकार के पक्ष में उठी आवाज है। हमारी दंड प्रक्रिया क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम कहलाती है, जो क्रिमिनल को केंद्र में रखती है – उसके अधिकार, उसकी सुविधा, उसकी सुरक्षा, उसकी खुराक, उसका परिवार, उसके परिवार का दुख, दंड का विरोध करने का उसका हक, उसका सुधार। निर्भया कांड के अभियुक्त विनय शर्मा ने अदालत के माध्यम से अपने लिए तिहाड़ जेल में फलों अंडे और दूध से युक्त बेहतर खुराक की मांग की है कि वह परीक्षा में बैठेगा। जिन्होंने बेटी खोयी है वे क्या खा रहे होंगे, क्या उन्हें भी ऐसी मांगें रखने का कानूनी हक है? जो अपराध का शिकार हुए, उस पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा न हमारे कानून की जिज्ञासा का विषय है, न हमारी।
आज जब मैं अपने इस पुराने आलेख को पुन: आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं, हमारे आदरणीय बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का जन्मदिन चौदह अप्रैल है। अखबार में उनके संविधानसभा में दिये गये भाषण का मुख्य अंश छपा है, ’’संविधान सभा के कार्य पर नजर डालते हुए नौ दिसंबर 1946 को हुई उसकी पहली बैठक के बाद अब दो वर्ष ग्यारह महीने और सात दिन हो जाएंगे। संविधान सभा में मेरे आने के पीछे मेरा उद्देश्य अनुसूचित जातियों की रक्षा करने से अधिक कुछ नहीं था। जब प्रारूप समिति ने मुझे उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया, तो मेरे लिए यह आश्चर्य से भी परे था। इतना विश्वास करने और सेवा का अवसर देने के लिए मैं अनुग्रहीत हूं। मैं मानता हूं कि कोई संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे कितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। ’’(दैनिक हिंदुस्तान, रविवार, 14 अप्रैल 2013, पृ 16)
हमारे संविधान निर्माता डॉ अंबेडकर की कही हुई उक्त अंतिम पंक्ति कितनी सरल और कितनी साधारण है, पर कितनी सारगर्भित। अच्छे लोग पीड़ित की पीड़ा को देखकर पीड़ित के अधिकार की रक्षा के लिए संविधान का इस्तेमाल करेंगे या संविधान में दी गयी भांति भांति की न्यायिक प्रक्रियाओं का आश्रय लेकर अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करते हुए अपराधियों के पक्ष में जुलूस निकालते रहेंगे। हमारा समाज और संविधान भोले बेकसूर हंस की रक्षा करेगा या कुसूरवार बेरहम शिकारी की?
अपराध और दंड के इस मुद्दे पर एक लेख.. मुझे लगता है पढना चाहिए एक बार इसे... गर सच में आप इस मुद्दे को लेकर आंदोलित हैं तो...आज लगभग नौ साल बाद भी मामला ज्यों का त्यों है। 16 दिसंबर 2012 की खौफनाक घटना के बाद जब पूरा देश सड़कों पर उतर कर बलात्कार व हत्या के लिए कठोरतम सजा की मांग कर रहा था, तब यह बात फिर से चर्चा में आयी कि देश की भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने गृह विभाग की संस्तुति पर तीस लोगों की फांसी की सजा माफ कर दी थी, जिनमें 22 ऐसे लोगों की सजा माफ की गयी, जिन्होंने बच्चियों का बलात्कार किया था, सामूहिक हत्याकांडों को अंजाम दिया था और छोटे बच्चों को बर्बरतापूर्वक मार डाला था। इंडिया टुडे (22 दिसंबर 2012) में छपी सूचना के अनुसार मोतीराम तथा संतोष यादव बलात्कार के जुर्म में जेल में रह रहे थे, उन्हें सुधारने के लिए उन्हें जेलर के बगीचे का बागवान नियुक्त किया गया। उन्होंने जेलर की दस वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार करके उसे मार डाला। प्रतिभा पाटिल ने उसे क्षमादान दिया। सुशील मुर्मू ने एक नौ वर्षीय बच्चे का गला काट डाला, इससे पहले वह अपने छोटे भाई की बलि चढ़ा चुका था, वह भी पाटिल की दया का पात्र बना। धर्मेंद्र और नरेंद्र यादव ने नाबालिग बच्ची का बलात्कार का प्रयास किया था और उनका प्रतिरोध करने पर उसके परिवार के पांच लोगों की हत्या कर दी थी और एक दस साल के लड़के की गरदन काट कर उसका शरीर आग में झोंक दिया था। मोहन और गोपी ने एक पांच वर्ष के बच्चे का अपहरण करके उसे यातनाएं देकर मार डाला और पांच लाख की फिरौती मांगी।
हम सब जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केसेज में ही मृत्युदंड सुनाता है। हमारे देश में खास कर हमारे उत्तर प्रदेश में पिछले एक वर्ष से सामूहिक बलात्कार के बाद छोटी बच्चियों की हत्या अखबार में प्रतिदिन छपने वाली खबर है। यह रेयर नहीं रह गयी है, पर सजा रेयरली ही सुनायी जाती है।
भेरूसिंह बनाम राजस्थान सरकार के मामले में, जिसमें अपराधी ने अपनी पत्नी तथा पांच बच्चों की नृशंस हत्या की थी, न्यायालय ने कहा “सजा देने का उद्देश्य है कि अपराध बिना सजा के न छूट जाए, पीड़ित तथा समाज को यह संतोष हो कि इंसाफ किया गया है। हमारी राय में सजा का परिमाण अपराध की क्रूरता पर निर्भर होना चाहिए, अपराधी के आचरण पर भी और असहाय तथा असुरक्षित पीड़ित की अवस्था पर भी। न्याय की मांग है कि सजा अपराध के अनुरूप हो और न्यायालय के न्याय में समाज की उस अपराध के प्रति वितृष्णा परिलक्षित हो। न्यायालय को केवल अपराधी के अधिकारों को ही नहीं, पीड़ित के अधिकारों को भी ध्यान में रखना चाहिए और समाज को भी।’’ (एससीसी पृ 481 पृ 28)
आज हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तथाकथित बुद्धिजीवियों के उपहास व निंदा के पात्र हैं कि उन्होंने प्रतिभा पाटिल की राह नहीं अपनायी। अखबार में कार्टून है कि कहीं फांसी के फंदे चीन से आयात न करने पड़ें। पत्रकार भूल रहे हैं कि यह सजाएं 20-30 वर्ष पहले दी गयी थीं, यदि तभी तामील हो जातीं तो शायद सजा का डिमान्स्ट्रेटिव तथा डिटेरेंट होने का लक्ष्य पूरा कर कर पातीं।
प्रणव मुखर्जी ने जिन्हें दया के योग्य नहीं समझा, उनमें धरमपाल था, जो बलात्कार के अपराध में जेल गया था। बीमारी के नाम पर पैरोल पर छूटा और बलात्कार की शिकार के परिवार के पांच लोगों को मार डाला। प्रवीन कुमार ने चार लोगों की हत्या की, रामजी और सुरेश जी चौहान ने बड़े भाई की पत्नी की चार बच्चों समेत कुल्हाड़ी से काट कर हत्या की, गुरमीत ने तीन सगे भाइयों की, उनकी पत्नियों बच्चों समेत तेरह लोगों को तलवार से काट डाला, जाफर अली ने अपनी पत्नी व पांच बच्चियों को मार डाला। (हिंदुस्तान 5 अप्रैल 2013)
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने जिनको क्षमादान नहीं दिया, उनमें वीरप्पन के चार साथी भी शामिल हैं। पाठकों को शायद स्मरण हो कि जब सैकड़ों हाथियों और पुलिसकर्मियों की हत्या करने वाले तस्कर वीरप्पन को पूर्ण क्षमादान का आश्वासन देकर उससे आत्मसर्मपण करवाने की बात सरकार चला रही थी, तब एक शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी ने याचिका दी थी कि यदि अपराधी से समझौता ही करना या तो क्यों जंगलों की रक्षा करते हुए उसके पति को, वीरप्पन के हाथों मारे जाने दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी की याचिका पर सरकार द्वारा वीरप्पन से समझौते पर रोक लगा दी थी।
जेल में रहकर अपराधी को अनेक अधिकार हैं। पैरोल पर छूटकर बाहर आकर अपराधों को अंजाम देने और पीड़ित के परिवार को नेस्तनाबूत करने और गवाहों को धमकाने के उदाहरण असंख्य हैं। हमारे प्रयासों से जो कर्नल वाही पिता पुत्र जेल गये थे, वे भी अक्सर लखनऊ की जेल रोड पर घूमते और फल सब्जी खरीदते देखे जाते थे। हम सबने नीतीश कटारा के हत्यारे विकास यादव, कार से लोगों को कुचलने वाले नंदा और अपराधी मनु शर्मा को पैरोल पर छूट कर मयखानों में डिस्को डांस करते हुए दिखाई देने के समाचार पढ़े हैं। अपराधी स्वयं अपनी सुविधा के अनुसार समर्पण करते हैं। हम लोग यह सब संजय दत्त के मामले में देख ही रहे हैं, कि वे जेल में जाने के लिए छह महीने की मोहलत मांग रहे हैं, और उनके साथ के अन्य अपराधी भी। मोहलत मांगने का हक मुल्जिम को है, क्या अपराधी अपने शिकार को कोई मोहलत देते हैं?
शिकार के हक की रक्षा तो कानून भी नहीं करता। शिकार और उनके दोस्त अहबाब सिर्फ इंतजार करते हैं। अभी गोंडा में 31 वर्ष पहले हुई पुलिस के एसओ केपी सिंह तथा 12 अन्य निर्दोषों की हत्या के अपराधियों को निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनायी। अखबार में किंजल सिंह की रोते हुए तस्वीर छपी है, पिता की हत्या के समय वे चार माह की थीं, आज वे एक आइएएस अधिकारी हैं। इन 31 वर्षों के बीच उनकी मां भी गुजर गयीं। (दैनिक जागरण 6 अप्रैल 2013) ऐसे अपराधियों के पास सर्वोच्च न्यायालय तक जाने और वहां भी अपराधी पाये जाने के बाद भी दया पाने का हक है। पीड़ितों के पास शीघ्र इंसाफ पाने का कोई मौलिक अधिकार नहीं।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डॉ एएस आनंद ने ’विक्टिम ऑफ क्राइम – अनसीन साइड’ में लिखा है, ’’विक्टिम (मजलूम) दुर्भाग्य से दंड प्रक्रिया का सर्वाधिक विस्मृत और तिरस्कृत प्राणी है। एंग्लो सेक्शन प्रणाली पर आधारित अन्य प्रणालियों की भांति हमारी दंड प्रक्रिया भी अपराधी पर केंद्रित है – उसके कृत्य, उसके अधिकार और उसका सुधार। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकसित देशों जैसे ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड अमरीका आदि ने अभागे पीड़ितों पर भी ध्यान देना शुरू किया है, जो दरअसल अपराध के सबसे बड़े शिकार होते हैं और जिनकी क्षति पूर्ति किया ही जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा (1985) के बाद अमरीका ने भी विक्टिम ऑफ क्राइम एक्ट बनाया। मुजरिम को जमानत का अधिकार एक अधिकार स्वरूप मिला है, पर पीड़ित को जमानत का विरोध करने का यह अधिकार नहीं। राज्य की इच्छा पर निर्भर है कि वह चाहे तो विरोध करे चाहे न करे। पूरी दंड प्रक्रिया में पीड़ित की भूमिका सिवा एक गवाह के कुछ नहीं, वह भी तब, यदि सरकारी वकील चाहे।’’
मेरा यह आलेख फांसी की सजा के पक्ष में लिखा गया आलेख नहीं है। यह मजलूम के हकों के पक्ष में लिखा गया लेख है। यह आवाज पीड़ित के अधिकार के पक्ष में उठी आवाज है। हमारी दंड प्रक्रिया क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम कहलाती है, जो क्रिमिनल को केंद्र में रखती है – उसके अधिकार, उसकी सुविधा, उसकी सुरक्षा, उसकी खुराक, उसका परिवार, उसके परिवार का दुख, दंड का विरोध करने का उसका हक, उसका सुधार। निर्भया कांड के अभियुक्त विनय शर्मा ने अदालत के माध्यम से अपने लिए तिहाड़ जेल में फलों अंडे और दूध से युक्त बेहतर खुराक की मांग की है कि वह परीक्षा में बैठेगा। जिन्होंने बेटी खोयी है वे क्या खा रहे होंगे, क्या उन्हें भी ऐसी मांगें रखने का कानूनी हक है? जो अपराध का शिकार हुए, उस पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा न हमारे कानून की जिज्ञासा का विषय है, न हमारी।
आज जब मैं अपने इस पुराने आलेख को पुन: आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं, हमारे आदरणीय बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का जन्मदिन चौदह अप्रैल है। अखबार में उनके संविधानसभा में दिये गये भाषण का मुख्य अंश छपा है, ’’संविधान सभा के कार्य पर नजर डालते हुए नौ दिसंबर 1946 को हुई उसकी पहली बैठक के बाद अब दो वर्ष ग्यारह महीने और सात दिन हो जाएंगे। संविधान सभा में मेरे आने के पीछे मेरा उद्देश्य अनुसूचित जातियों की रक्षा करने से अधिक कुछ नहीं था। जब प्रारूप समिति ने मुझे उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया, तो मेरे लिए यह आश्चर्य से भी परे था। इतना विश्वास करने और सेवा का अवसर देने के लिए मैं अनुग्रहीत हूं। मैं मानता हूं कि कोई संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे कितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। ’’(दैनिक हिंदुस्तान, रविवार, 14 अप्रैल 2013, पृ 16)
हमारे संविधान निर्माता डॉ अंबेडकर की कही हुई उक्त अंतिम पंक्ति कितनी सरल और कितनी साधारण है, पर कितनी सारगर्भित। अच्छे लोग पीड़ित की पीड़ा को देखकर पीड़ित के अधिकार की रक्षा के लिए संविधान का इस्तेमाल करेंगे या संविधान में दी गयी भांति भांति की न्यायिक प्रक्रियाओं का आश्रय लेकर अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करते हुए अपराधियों के पक्ष में जुलूस निकालते रहेंगे। हमारा समाज और संविधान भोले बेकसूर हंस की रक्षा करेगा या कुसूरवार बेरहम शिकारी की?
Wednesday, 19 June 2013
ताजा नाटक भाजपा और जद(यू) की नूरा कुश्ती है
लीजिये। भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) का 17 साल चला लिव इन रिलेशनशिप अब ब्रेक अप हो गया है और 2002 के गुजरत दंगों के दौरान नरेन्द्र मोदी को आँख बन्द कर समर्थन दे रहे नीतीश कुमार भी सेक्युलर हो गये हैं।
जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार के साथ प्रेस वार्ता में गठबन्धन तोड़ने के फैसले का एलान किया और भाजपा के सदन वाकआउट की मेहरबानी से ही नीतीश ने विधानसभा में अपना बहुमत भी साबित कर दिया।
बहरहाल जद(यू) के ताजा रुख पर जितना मुँह उतनी बातें हैं। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार जुगनू शारदेय ने बड़ी सटीक टिप्पणी की है- “जदयू और भाजपा को ले कर लोग, ख़ास कर अनपढ़ अख़बार, खूब लिख रहे हैं तलाक – तलाक -तलाक, शायद कुत्ता घसीटी फोंफा पार्टी ने भी अपने बकर बकर कचर कचर में बोला हो। दोस्तो यह लिव इन रिलेशनशिप था। बहुत साथ रह लिए अब अलग अलग रहने जा रहे हैं। तो काहे का तलाक …”
यानी यह ब्रेक अप है तलाक नहीं। तलाक में पुनर्मिलन की कोई सम्भावना नहीं होती है और ब्रेक अप में जब जी चाहो तब लिव इन रिलेशनशिप। इसीलिये राजग की सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के नरेश गुजराल ने अपनी भलमनसाहत में कह दिया है, ‘यह अस्थायी टूट है, स्थायी नहीं।’
दरअसल जद(यू) के नेता जो तर्क दे रहे हैं वह निरपेक्ष विश्लेषकों के गले भी उतर नहीं रहे हैं। हालाँकि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ बहुत मासूमियत से पूछ रहे हैं कि, “क्या कारण हो गया कि आज भारतीय जनता पार्टी से जनता दल (यू) ने रिश्ते तोड़ लिये। भारतीय जनता पार्टी ने ऐसा क्या अपराध कर दिया कि 17 वर्षों के रिश्ते को जद (यू) ने तार-तार कर दिया।” लेकिन असल सवाल यह है कि नीतीश एण्ड कम्पनी जिस पटकथा पर काम कर रही है वह साफ तौर पर दिख रहा है कि नागपुर से लिखी गयी है। वरना नीतीश की दलीलों पर कुछ अहम तर्क हैं। मसलन-
जो सवाल भाजपा के सुशील मोदी ने पूछा कि – ‘जो व्यक्ति 2002 में साम्प्रदायिक हो नहीं था, आज वो व्यक्ति कैसे साम्प्रदायिक हो गया।’
सारा देश जानता है कि जब गुजरात दंगे हुये उस समय स्वयं नीतीश कुमार राजग और भारतीय जनता पार्टी के अहम सहयोगी थे। वह समय ऐसा था जब सारा देश मोदी की सरकार को बर्खास्त करने की माँग कर रहा था। अपने स्वयं सेवक होने पर गर्व करने वाले तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी भी कह रहे थे कि मोदी ने राजधर्म का पालन नहीं किया। उस समय नीतीश कुमार, शरद यादव और उनके तत्कालीन नेता जॉर्ज फर्नान्डीज़ न केवल मोदी के साथ तनकर खड़े थे बल्कि जॉर्ज तो चार हाथ आगे जाकर कह रहे थे कि बलात्कार होते ही रहते हैं।
इतना ही नहीं जब गोधरा काण्ड हुआ नीतीश उस समय रेलमन्त्री थे। लेकिन इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी उन्होंने एक बार भी गोधरा का न तो दौरा करना उचित समझा न इस्तीफा दिया और न इस हादसे की कोई जाँच कराई। आखिर इसका कोई जवाब है उनके पास।
सुशील मोदी ने तो अपनी पार्टी लाइन पर जाकर पूछा है कि जो 2002 में साम्प्रदायिक नहीं था वह आज कैसे साम्प्रदायिक हो गया। लेकिन देश और खासकर बिहार की जनता भी तो जानना चाहती है कि नरेन्द्र मोदी के जिस अपराध की बिना पर नीतीश आज भाजपा के साथ 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ रहे हैं वह अपराध आखिर है क्या? अगर वह अपराध 2002 के गुजरात दंगे हैं तो सवाल उठना लाजिमी है कि 2002 से लेकर आज तक नीतीश भारतीय जनता पार्टी के साथ गलबहियाँ क्यों कर रहे थे?
मुख्तार अब्बास नकवी ने जद (यू) के इस फैसले के बाद कहा जो है कि नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार समिति का चेयरमैन बनाना पार्टी का अन्दरूनी फैसला था, वह गलत नहीं है। सवाल यह है कि मोदी हों या अडवाणी यह तय करना भाजपा का अन्दरूनी मसला है ठीक उसी तरह जैसे एक समय में जॉर्ज को धता बताकर नीतीश ने शरद यादव को चुना था।
क्या नीतीश अपने इस कदम के जरिये भारतीय जनता पार्टी को पाक-साफ होने का प्रमाणपत्र देना चाहते हैं? क्या नीतीश यह साबित करना चाहते हैं कि भारतीय जनता का साम्प्रदायिक और उग्र हिन्दुत्व का एजेण्डा नहीं है बस नरेन्द्र मोदी ही साम्प्रदायिक और उग्र हिन्दुत्व का एजेण्डा चला रहे हैं।
दरअसल नीतीश अपने पिछले 17 वर्षों के अपराध पर पर्दा डालने का काम कर रहे हैं। वरना जो एजेण्डा मोदी का है वही एजेण्डा तो भारतीय जनता पार्टी का है जिसे वह पिछले 17 वर्षों से नीतीश के जद(यू) और पूर्ववर्ती समता पार्टी के साथ चला रही है।
सत्यता यह है कि ताजा नाटक भाजपा और जद(यू) की नूरा कुश्ती है और इसकी पटकथा नागपुर से ही लिखी गयी है। जल्दबाजी में अपरोक्षतः नीतीश इस बात को स्वीकार भी कर गये हैं। गठबन्धन टूटने के लिये कौन जिम्मेदार है, जब यह सवाल नीतीश से पत्रकारों ने पूछा तो उन्होंने कहा, ‘हम जिम्मेदार नहीं है। हमें गठबन्धन तोड़ने के लिये मजबूर किया गया है। प्रधानमन्त्री बनने के लिये 272 सांसद चाहिये, जो कि राजग से भी नहीं होगा। ऐसी कोई आँधी नहीं जिससे भाजपा अगले आम चुनाव में 272 सीटें जीत सके। हमें राजग से और लोगों को जोड़ने की कोशिश करनी होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब ऐसी नौबत आ गयी थी कि या तो आप समझौता करें या फिर बाहर जायें। ऐसे में हमने परिणाम की चिन्ता किये बगैर बाहर होने में अपनी भलाई समझी।’
नीतीश के इस कथन में आधा सच और आधा झूठ है। आधा सच तो यह है कि लोकसभा की 543 सीट्स में से 150 लोकसभा सीटों पर तो भाजपा सिफर है और कुल मिलाकर उसके पास 272 सीटों पर चुनाव लड़ने योग्य गम्भीर प्रत्याशी ही नहीं हैं। नीतीश की इस बात में दम है कि प्रधानमन्त्री बनने के लिये 272 सांसद चाहिये, जो कि राजग से भी नहीं होगा। ऐसी कोई आँधी नहीं जिससे भाजपा अगले आम चुनाव में 272 सीटें जीत सके। बाबरी मस्जिद/ राम जन्म भूमि विवाद से भाजपा को जितना फायदा लेना था वह ले चुकी और उसका अधिकतम स्कोर 180 पहुँचा था। सनद् रहे तब भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अन्य दलों का सूपड़ा साफ कर दिया था। आज यूपी में वह दहाई का आँकड़ा भी छू जाये तो यह अद्भुत् आश्चर्य होगा।
… और नीतीश का आधा झूठ यह है कि ‘हमने परिणाम की चिन्ता किये बगैर बाहर होने में अपनी भलाई समझी।’
दरअसल परिणाम समझते हुये ही भाजपा और नीतीश ने यह नूरा कुश्ती की है और उन्हें गठबंधन तोड़ने के लिये किसी ने मजबूर नहीं किया है। नीतीश को मालूम है कि उनके सुशासन का ढोल फट चुका है और अगर वह भाजपा के साथ मैदान में उतरते तो उनके प्रतिद्वन्दी लालू प्रसाद यादव के राजद से सीधा मुकाबला होता जिसमें राजद, भाजपा-जद(यू) का सफाया कर देता।
अब बहुत होशियारी के साथ दोनों ने रणनीति के तहत मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने का प्रयास किया है। जाहिर सी बात है कि त्रिकोणीय मुकाबले में नुकसान राजद का होगा और अगर 2014 के बाद ऐसा मौका आया कि केन्द्र में एनडीए की सरकार जोड़-तोड़ से बन सके तो नीतीश भाजपा और अडवाणी जी को सेक्युलर होने का प्रमाणपत्र जारी कर ही चुके हैं। उनका भाजपा के साथ ब्रेक अप समाप्त हो जायेगा और सेक्युलर भाजपा, साम्प्रदायिक मोदी को किनारे करके उदार अडवाणी जी को गद्दी सौंप देगी। नीतीश जी की महानता भी सिद्ध हो जायेगी कि उन्होंने साम्प्रदायिक मोदी को रोककर उदार-सेक्युलर भाजपा को बचा लिया।
…और अगर ऐसी नौबत नहीं आती है कि भाजपा सरकार बना पाये (जो कि नीतीश कह ही चुके हैं कि ऐसी कोई आँधी नहीं है कि भाजपा+ 272 ले आये) तो भी नीतीश जी महान सेक्युलर हैं हीं क्योंकि उन्होंने ही तो मोदी की आँधी रोकी! और अपनी इस महानता के बल पर वह बिहार में अपना समय पूरा कर लेंगे और सेक्युलरिज्म के आखाड़े के महान् योद्धा घोषित हो जायेंगे। यानी नीतीश के दोनों हाथों में लड्डू हैं।
अब देखना यह है कि बिहार की जनता खासतौर पर अल्पसंख्यक नीतीश के इस दावँ को कितना समझ पाते हैं। यह आने वाला समय तय करेगा। बहरहाल इतना तय है कि संघ की पटकथा पर नीतीश इस समय सफल अभिनय कर रहे हैं।
जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार के साथ प्रेस वार्ता में गठबन्धन तोड़ने के फैसले का एलान किया और भाजपा के सदन वाकआउट की मेहरबानी से ही नीतीश ने विधानसभा में अपना बहुमत भी साबित कर दिया।
बहरहाल जद(यू) के ताजा रुख पर जितना मुँह उतनी बातें हैं। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार जुगनू शारदेय ने बड़ी सटीक टिप्पणी की है- “जदयू और भाजपा को ले कर लोग, ख़ास कर अनपढ़ अख़बार, खूब लिख रहे हैं तलाक – तलाक -तलाक, शायद कुत्ता घसीटी फोंफा पार्टी ने भी अपने बकर बकर कचर कचर में बोला हो। दोस्तो यह लिव इन रिलेशनशिप था। बहुत साथ रह लिए अब अलग अलग रहने जा रहे हैं। तो काहे का तलाक …”
यानी यह ब्रेक अप है तलाक नहीं। तलाक में पुनर्मिलन की कोई सम्भावना नहीं होती है और ब्रेक अप में जब जी चाहो तब लिव इन रिलेशनशिप। इसीलिये राजग की सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के नरेश गुजराल ने अपनी भलमनसाहत में कह दिया है, ‘यह अस्थायी टूट है, स्थायी नहीं।’
दरअसल जद(यू) के नेता जो तर्क दे रहे हैं वह निरपेक्ष विश्लेषकों के गले भी उतर नहीं रहे हैं। हालाँकि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ बहुत मासूमियत से पूछ रहे हैं कि, “क्या कारण हो गया कि आज भारतीय जनता पार्टी से जनता दल (यू) ने रिश्ते तोड़ लिये। भारतीय जनता पार्टी ने ऐसा क्या अपराध कर दिया कि 17 वर्षों के रिश्ते को जद (यू) ने तार-तार कर दिया।” लेकिन असल सवाल यह है कि नीतीश एण्ड कम्पनी जिस पटकथा पर काम कर रही है वह साफ तौर पर दिख रहा है कि नागपुर से लिखी गयी है। वरना नीतीश की दलीलों पर कुछ अहम तर्क हैं। मसलन-
जो सवाल भाजपा के सुशील मोदी ने पूछा कि – ‘जो व्यक्ति 2002 में साम्प्रदायिक हो नहीं था, आज वो व्यक्ति कैसे साम्प्रदायिक हो गया।’
सारा देश जानता है कि जब गुजरात दंगे हुये उस समय स्वयं नीतीश कुमार राजग और भारतीय जनता पार्टी के अहम सहयोगी थे। वह समय ऐसा था जब सारा देश मोदी की सरकार को बर्खास्त करने की माँग कर रहा था। अपने स्वयं सेवक होने पर गर्व करने वाले तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी भी कह रहे थे कि मोदी ने राजधर्म का पालन नहीं किया। उस समय नीतीश कुमार, शरद यादव और उनके तत्कालीन नेता जॉर्ज फर्नान्डीज़ न केवल मोदी के साथ तनकर खड़े थे बल्कि जॉर्ज तो चार हाथ आगे जाकर कह रहे थे कि बलात्कार होते ही रहते हैं।
इतना ही नहीं जब गोधरा काण्ड हुआ नीतीश उस समय रेलमन्त्री थे। लेकिन इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी उन्होंने एक बार भी गोधरा का न तो दौरा करना उचित समझा न इस्तीफा दिया और न इस हादसे की कोई जाँच कराई। आखिर इसका कोई जवाब है उनके पास।
सुशील मोदी ने तो अपनी पार्टी लाइन पर जाकर पूछा है कि जो 2002 में साम्प्रदायिक नहीं था वह आज कैसे साम्प्रदायिक हो गया। लेकिन देश और खासकर बिहार की जनता भी तो जानना चाहती है कि नरेन्द्र मोदी के जिस अपराध की बिना पर नीतीश आज भाजपा के साथ 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ रहे हैं वह अपराध आखिर है क्या? अगर वह अपराध 2002 के गुजरात दंगे हैं तो सवाल उठना लाजिमी है कि 2002 से लेकर आज तक नीतीश भारतीय जनता पार्टी के साथ गलबहियाँ क्यों कर रहे थे?
मुख्तार अब्बास नकवी ने जद (यू) के इस फैसले के बाद कहा जो है कि नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार समिति का चेयरमैन बनाना पार्टी का अन्दरूनी फैसला था, वह गलत नहीं है। सवाल यह है कि मोदी हों या अडवाणी यह तय करना भाजपा का अन्दरूनी मसला है ठीक उसी तरह जैसे एक समय में जॉर्ज को धता बताकर नीतीश ने शरद यादव को चुना था।
क्या नीतीश अपने इस कदम के जरिये भारतीय जनता पार्टी को पाक-साफ होने का प्रमाणपत्र देना चाहते हैं? क्या नीतीश यह साबित करना चाहते हैं कि भारतीय जनता का साम्प्रदायिक और उग्र हिन्दुत्व का एजेण्डा नहीं है बस नरेन्द्र मोदी ही साम्प्रदायिक और उग्र हिन्दुत्व का एजेण्डा चला रहे हैं।
दरअसल नीतीश अपने पिछले 17 वर्षों के अपराध पर पर्दा डालने का काम कर रहे हैं। वरना जो एजेण्डा मोदी का है वही एजेण्डा तो भारतीय जनता पार्टी का है जिसे वह पिछले 17 वर्षों से नीतीश के जद(यू) और पूर्ववर्ती समता पार्टी के साथ चला रही है।
सत्यता यह है कि ताजा नाटक भाजपा और जद(यू) की नूरा कुश्ती है और इसकी पटकथा नागपुर से ही लिखी गयी है। जल्दबाजी में अपरोक्षतः नीतीश इस बात को स्वीकार भी कर गये हैं। गठबन्धन टूटने के लिये कौन जिम्मेदार है, जब यह सवाल नीतीश से पत्रकारों ने पूछा तो उन्होंने कहा, ‘हम जिम्मेदार नहीं है। हमें गठबन्धन तोड़ने के लिये मजबूर किया गया है। प्रधानमन्त्री बनने के लिये 272 सांसद चाहिये, जो कि राजग से भी नहीं होगा। ऐसी कोई आँधी नहीं जिससे भाजपा अगले आम चुनाव में 272 सीटें जीत सके। हमें राजग से और लोगों को जोड़ने की कोशिश करनी होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब ऐसी नौबत आ गयी थी कि या तो आप समझौता करें या फिर बाहर जायें। ऐसे में हमने परिणाम की चिन्ता किये बगैर बाहर होने में अपनी भलाई समझी।’
नीतीश के इस कथन में आधा सच और आधा झूठ है। आधा सच तो यह है कि लोकसभा की 543 सीट्स में से 150 लोकसभा सीटों पर तो भाजपा सिफर है और कुल मिलाकर उसके पास 272 सीटों पर चुनाव लड़ने योग्य गम्भीर प्रत्याशी ही नहीं हैं। नीतीश की इस बात में दम है कि प्रधानमन्त्री बनने के लिये 272 सांसद चाहिये, जो कि राजग से भी नहीं होगा। ऐसी कोई आँधी नहीं जिससे भाजपा अगले आम चुनाव में 272 सीटें जीत सके। बाबरी मस्जिद/ राम जन्म भूमि विवाद से भाजपा को जितना फायदा लेना था वह ले चुकी और उसका अधिकतम स्कोर 180 पहुँचा था। सनद् रहे तब भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अन्य दलों का सूपड़ा साफ कर दिया था। आज यूपी में वह दहाई का आँकड़ा भी छू जाये तो यह अद्भुत् आश्चर्य होगा।
… और नीतीश का आधा झूठ यह है कि ‘हमने परिणाम की चिन्ता किये बगैर बाहर होने में अपनी भलाई समझी।’
दरअसल परिणाम समझते हुये ही भाजपा और नीतीश ने यह नूरा कुश्ती की है और उन्हें गठबंधन तोड़ने के लिये किसी ने मजबूर नहीं किया है। नीतीश को मालूम है कि उनके सुशासन का ढोल फट चुका है और अगर वह भाजपा के साथ मैदान में उतरते तो उनके प्रतिद्वन्दी लालू प्रसाद यादव के राजद से सीधा मुकाबला होता जिसमें राजद, भाजपा-जद(यू) का सफाया कर देता।
अब बहुत होशियारी के साथ दोनों ने रणनीति के तहत मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने का प्रयास किया है। जाहिर सी बात है कि त्रिकोणीय मुकाबले में नुकसान राजद का होगा और अगर 2014 के बाद ऐसा मौका आया कि केन्द्र में एनडीए की सरकार जोड़-तोड़ से बन सके तो नीतीश भाजपा और अडवाणी जी को सेक्युलर होने का प्रमाणपत्र जारी कर ही चुके हैं। उनका भाजपा के साथ ब्रेक अप समाप्त हो जायेगा और सेक्युलर भाजपा, साम्प्रदायिक मोदी को किनारे करके उदार अडवाणी जी को गद्दी सौंप देगी। नीतीश जी की महानता भी सिद्ध हो जायेगी कि उन्होंने साम्प्रदायिक मोदी को रोककर उदार-सेक्युलर भाजपा को बचा लिया।
…और अगर ऐसी नौबत नहीं आती है कि भाजपा सरकार बना पाये (जो कि नीतीश कह ही चुके हैं कि ऐसी कोई आँधी नहीं है कि भाजपा+ 272 ले आये) तो भी नीतीश जी महान सेक्युलर हैं हीं क्योंकि उन्होंने ही तो मोदी की आँधी रोकी! और अपनी इस महानता के बल पर वह बिहार में अपना समय पूरा कर लेंगे और सेक्युलरिज्म के आखाड़े के महान् योद्धा घोषित हो जायेंगे। यानी नीतीश के दोनों हाथों में लड्डू हैं।
अब देखना यह है कि बिहार की जनता खासतौर पर अल्पसंख्यक नीतीश के इस दावँ को कितना समझ पाते हैं। यह आने वाला समय तय करेगा। बहरहाल इतना तय है कि संघ की पटकथा पर नीतीश इस समय सफल अभिनय कर रहे हैं।
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