जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, दोनों मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों
के चुनावी मुद्दे स्पष्ट होते जा रहे हैं। उनके बीच कटु वक्तव्यों का
आदान-प्रदान भी तेज हो गया है। भाजपा का चुनाव अभियान, बल्कि उसकी पूरी
विचारधारा, तर्कों के इस क्रम पर आधारित है : यह कि भारत एक प्राचीन
राष्ट्र और सभ्यता है, यह कि यह सभ्यता बाहरी आक्रमणों की वजह से क्षीण हो
गई है, यह कि काँग्रेस, भारत के प्राचीन गौरव को पुनस्र्थापित करने में
सक्षम नहीं है क्योंकि वह पश्चिमी मूल्यों की हामी है और उसने ब्रिटिश राज
के संस्थागत ढाँचे को यथावत रखा है, यह कि ‘‘सभ्यता की चेतना‘‘ ही भारत को
एक देश और एक राष्ट्र बनाती है व यह कि काँग्रेस, भारत के उस प्राचीन गौरव
और सभ्यता की पुनस्र्थापना नहीं कर सकती। इस प्राचीन सभ्यता की परिभाषा
हिन्दुओं (उच्च जातियों) द्वारा निर्धारित और हिन्दू ऋषियों और दार्शनिकों
की सोच पर आधारित है। भाजपा का यह भी मानना है कि कांग्र्रेस, वोट बैंक की
राजनीति की खातिर अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रही है, यह कि इसी कारण वह
पाकिस्तान के प्रति जरूरत से ज्यादा नरम है, यह कि काँग्रेस युद्ध की धमकी
देकर अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों को डरा-धमका कर नहीं रखती है व
पाकिस्तान को बहुत छूट देती है, यह कि बड़ी संख्या में बांग्लादेशियों को
भारत की पूर्वी सीमा से ‘घुसपैठ‘ करने की इजाजत दी जा रही है और यही लोग
भारत में आतंकी हमले कर रहे हैं। भाजपा का यह भी कहना है कि काँग्रेस की
कमजोरियों के कारण, भारत की आंतरिक सुरक्षा खतरे में है व काँग्रेस,
अलगाववादी व आतंकी ताकतों से मुकाबला करने में अक्षम सिद्ध हुयी है। वह
माओवादी आतंकवाद से भी सख्ती से नहीं निपट सकी है। अतः, भाजपा कहती है कि
इन सभी कारणों से, काँग्रेस, देश को प्रगति की राह पर नहीं ले जा सकती,
गरीबी दूर नहीं कर सकती और महँगाई पर काबू नहीं पा सकती।
सन् 2009 के लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में भाजपा कहती है, ‘‘स्वतन्त्रता के पश्चात, आवश्यकता इस बात की थी कि भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी जाती ताकि वह भारतीयों (पढ़ें उच्च जातियों के हिन्दुओं) की सोच, इच्छाओं और महत्वाकाँक्षाओं को प्रतिबिम्बित करती। यह नहीं किया गया और इसके नतीजे में आज भारतीय समाज विभाजित है, देश में घोर आर्थिक असमानता व्याप्त है, आतंकवाद और साम्प्रदायिक हिंसा का बोलबाला है, असुरक्षा का
भाव है और नैतिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक गिरावट है। हमारा राज्यतन्त्र, इनमें से किसी भी समस्या से निपटने में असफल रहा है।‘‘ इस बार के आम चुनाव में इन सभी मुद्दों के अलावा, भाजपा, भ्रष्टाचार को भी मुद्दा बनायेगी।
हिन्दू राष्ट्र, एकात्म मानवतावाद और हिन्दू सभ्यता की चेतना
यद्यपि भाजपा देश की सारी समस्याओं के लिये काँग्रेस को जिम्मेदार ठहराती है, परन्तु काँग्रेस को कटघरे में खड़ा करने के पीछे उसका एकमात्र उद्धेश्य चुनाव में विजय हासिल करना है। अगर हम भाजपा के चुनावी घोषणापत्रों को ध्यान से पढ़ें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि वह काँग्रेस को दोषी ठहराने के पीछे उसका एक सीमित उद्धेश्य है-वह काँग्रेस को देश में व्याप्त समस्याओं का वाहक सिद्ध करना चाहती है। भाजपा यह नहीं कहती या मानती कि काँग्रेस, हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की राह में बाधा है। भाजपा का विचारधारात्मक लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है और इस लक्ष्य की प्राप्ति में काँग्रेस रास्ते में आ रही है, ऐसा भाजपा ने कभी नहीं कहा। काँग्रेस, चुनाव में भाजपा की प्रतिद्वन्दी है और इसलिये चुनाव के दौरान उस पर निशाना साधा जाना चाहिये। परन्तु वह हिन्दू राष्ट्र की शत्रु नहीं है। हिन्दू राष्ट्र के तीन घोषित शत्रु हैं- मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट। इनके अतिरिक्त, नागरिक व मानवाधिकारों और विशेषकर समानता की पश्चिमी अवधारणाएं भी हिन्दू राष्ट्र की शत्रु हैं। ऋषियों द्वारा परिभाषित ‘हिन्दू‘ सभ्यता की चेतना में नागरिक व मानवाधिकारों और समानता के लिये कोई स्थान नहीं है।
हिन्दू सभ्यता, जाति-आधारित ऊँच-नीच पर टिकी हुयी है जिसमें जानवरों को तो छुआ जा सकता है-और कुछ की पूजा भी की जाती है-परन्तु अछूतों को नहीं छुआ जा सकता। हिन्दू सभ्यता की यह चेतना महिलाओं को उनके सभी अधिकारों और मानवीय गरिमा से वंचित करती है और उन्हें पहले अपने पिता और बाद में अपने पति की सम्पत्ति से ऊँचा दर्जा नहीं देती। मुसलमान और ईसाई, काँग्रेस का इस्तेमाल नागरिक अधिकार पाने के लिये कर रहे हैं। ‘‘समय-समय पर काँग्रेसी नेताओं ने कल्याणकारी राज्य, समाजवाद और उदारवाद को अपना लक्ष्य घोषित किया है‘‘, यह था भाजपा के पूर्व संस्करण भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय का उनके एक भाषण में भारी मन से दिया गया वक्तव्य।
भाजपा, हिन्दू राष्ट्र और दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त में विश्वास रखती है। एकात्म मानवतावाद ‘‘सामाजिक अनुबन्ध सिद्धान्त‘ को पूरी तरह खारिज करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, समाज के नियम और कानून, उसके सदस्यों के बीच अन्तर्निहित अनुबन्ध से उद्भूत होते हैं। ‘‘यह सही है कि समाज कई व्यक्तियों से मिलकर बनता है परन्तु समाज केवल व्यक्तियों का समूह नहीं है और ना ही कई व्यक्तियों के एक साथ रहने मात्र से समाज अस्तित्व में आ जाता है। हमारे विचार से समाज स्वतः जन्म लेता है।‘‘
एकात्म मानवतावाद, समाज की तुलना विराट पुरूष से करता है। ‘‘चतुर्वर्णों की हमारी अवधारणा यह है कि चारों वर्ण, विराट पुरूष के अलग-अलग अंगों से उत्पन्न हुये हैं। विराट पुरूष के सिर से ब्राह्मणों का निर्माण हुआ, क्षत्रिय उसके हाथों से जन्मे, वैश्य उसके पेट से और शूद्र उसके पैरों से। अगर हम इस अवधारणा की विवेचना करें तो हमारे सामने यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि विराट पुरूष के सिर, हाथ, पेट और पैरों के बीच टकराव की स्थिति में क्या होगा? ऐसे किसी टकराव की स्थिति में शरीर बच ही नहीं सकता। एक ही शरीर के अलग-अलग हिस्सों के बीच टकराव न तो सम्भव है और न वाँछनीय। इसके विपरीत, पूरा शरीर ‘एक व्यक्ति‘ के रूप में काम करता है। शरीर के सारे अंग एक दूसरे के पूरक होते हैं और एक ही लक्ष्य की पूर्ति की दिशा में काम करते हैं। सभी अंगों के हित एक से होते हैं और उनकी पहचान भी एक ही होती है। जातिप्रथा इसी सिद्धान्त पर आधारित है।‘‘ जिस समाज को दीनदयाल उपाध्याय स्वतः जन्मा (व इसलिये प्राकृतिक) बता रहे हैं, वह दरअसल जाति-आधारित पदानुक्रम है, जिसमें व्यक्ति के कार्यक्षेत्र का निर्धारण उसके जन्म से होता है, जिसमें कुछ लोगों को ढेर सारे विशेषाधिकार हासिल होते हैं और कुछ अन्य केवल अपने कर्तव्यों का पालन करते हुये दास की तरह जीवन बिताते हैं। यह व्यवस्था कुछ लोगों को केवल अधिकार देती है और कुछ के हिस्से में केवल कर्तव्य आते हैं। यह व्यवस्था बलप्रयोग और जबरदस्ती पर आधारित है और स्वतः जन्मी या प्राकृतिक नहीं है। रामायण और महाभारत में भी इस बलप्रयोग और जबरदस्ती का विवरण है, जिस ओर दीनदयाल उपाध्याय का ध्यान नहीं गया। एकलव्य का अँगूठा काटा जाना, वेद पढ़ने के कारण शम्बूक की हत्या और सीता की अग्निपरीक्षा इसके कुछ उदाहरण हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और गरिमा की अवधारणाओं से इंकार और ‘‘सामाजिक अनुबन्ध सिद्धान्त‘‘ को नकारने के पीछे उद्धेश्य यह है कि समाज के सभी सदस्य, ‘‘स्वतः जन्मे‘‘ समाज की प्रभुता स्वीकार कर लें और समाज के सभी तबके-अर्थात जातियाँ-सामञ्जस्य से रहें, उनमें कोई आपसी विवाद न हो और वे प्राकृतिक और स्वतः जन्मी सामाजिक व्यवस्था को चुनौती न दें। हर व्यक्ति को इस व्यवस्था को स्वीकार करना है, चाहे वह कितनी ही दमनकारी और ऊँच-नीच को औचित्यपूर्ण ठहराने वाली क्यों न हो। उन्हें ऐसा इसलिये करना है ताकि समाज में सामञ्जस्य बना रहे और इसलिये भी क्योंकि व्यक्तियों का अलग से कोई अस्तित्व नहीं है। उनका कर्तव्य समाजहित में काम करना है और उनका अस्तित्व केवल राष्ट्र की खातिर है।
भाजपा की दृष्टि में राज्य, राष्ट्र
के अधीन है और राज्य का निर्माण, राष्ट्र को सुरक्षा प्रदान करने के
उद्धेश्य से किया गया है। राज्य का उद्धेश्य ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करना और
उन्हें बनाये रखना है जिनमें राष्ट्र के आदर्शों को कार्यरूप में परिणित
किया जा सके। एकात्म मानवतावाद, राष्ट्र के आदर्शों को उसका ‘‘चित्त‘‘
निरूपित करता है।
राष्ट्र के चित्त की तुलना व्यक्ति की आत्मा से की जा सकती है। दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार, जिन नियम-कानूनों से राष्ट्र के चित्त को व्यक्त और पोषित किया जा सकता है, वही धर्म है और धर्म सर्वोच्च है। जो इस धर्म के साथ विश्वासघात करता है वह राष्ट्रद्रोही है। यह चित्त या हिन्दू सभ्यता की चेतना या धर्म, सदियों तक जिन्दा रहा। अनेक विदेशी आक्रमण हुये परन्तु उसका कुछ ना बिगड़ा। कहने की आवश्यकता नहीं कि जातिगत पदानुक्रम और ढाँचा इस चित्त के केन्द्र में हैं। धर्म या चित्त या हिन्दू सभ्यता की चेतना, खाप पंचायतों जैसी संस्थाओं के जरिये सदियों तक बची रही और इसलिये अमर है। भाजपा का एकात्म मानवतावाद यह प्रतिपादित करता है कि लोगों के लिये क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसका निर्धारण बहुमत के आधार पर नहीं बल्कि धर्म के आधार पर होगा। ‘‘जनराज्य‘‘ से ‘‘धर्मराज्य‘‘ कहीं अधिक बेहतर है और धर्मराज्य की स्थापना का प्रयास किया जाना चाहिये। धर्मराज्य में राज्य, राष्ट्र के अधीन होगा और धर्म की ध्वजा को थामे रहेगा। जातिप्रथा भाजपा के एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त का इतना महत्वपूर्ण भाग है कि न तो राष्ट्र-राज्य और ना ही आमजनों का बहुमत, उसमें कोई परिवर्तन कर सकता है। प्रजातान्त्रिक राज्य, जिसमें उदारवाद या समाजवाद या व्यक्ति की गरिमा या मानवाधिकारों के लिये कोई जगह हो पर भी यह भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह जातिप्रथा का प्रतिरक्षण करेगा। अतः, राष्ट्र के ‘‘चित्त‘‘ पर बहुत कम संख्या वाले तबके विशेष का एकाधिकार होगा और इस तबके को राष्ट्र में धर्म स्थापना के लिये सैनिक व एकाधिकारवादी राज्यतन्त्र की आवश्यकता होगी। लोगों को या तो इस तन्त्र के आगे आत्मसमर्पण करना होगा और या उन्हें गम्भीर, दमनकारी हिंसा भोगनी होगी। यही कारण है कि मुसलमानों, ईसाईयों और कम्युनिस्टों को हिन्दू राष्ट्र का शत्रु बताया गया है। ये तीनों ही वर्ग ना तो हिन्दू धार्मिक चेतना को स्वीकार करेंगे और ना ही एकात्म मानवतावाद द्वारा प्रतिपादित धर्म को क्योंकि समानता की अवधारणा उनके धर्मों और विचारधारा की आत्मा है। यद्यपि यह भी सही है कि व्यावहारिक स्तर पर न तो मुसलमानों न ईसाईयों और न कम्यूनिस्टों में समानता है।
काँग्रेस पार्टी
काँग्रेस, राहुल गाँधी के आसपास करिश्माई व्यक्तित्व का आभामण्डल बुनने की कोशिश कर रही है। राहुल स्वयं ऐसा दिखा रहे हैं कि वे प्रधानमन्त्री बनने के इच्छुक नहीं हैं और उनकी मुख्य रूचि, टीम काँग्रेस की सहायता से देश में व्याप्त विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में है।
हमें भाजपा के नेतृत्व वाले राजग और काँग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग को बराबर खराब या बराबर भ्रष्ट राजनैतिक गठबन्धनों के रूप में नहीं देखना चाहिये। राजग और संप्रग के बीच अन्तर एक भ्रष्ट और ईमानदार संगठन का नहीं है, वह एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष और अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने वाले छद्म धर्मनिरपेक्ष संगठन का भी नहीं है और ना ही यह पूँजीपति-केन्द्रित विकास और मानवीय चेहरे वाले विकास का अन्तर है। यह अन्तर है दुनिया को देखने के दो परस्पर विरोधाभासी तरीकों का, जिसमें एक ओर है धर्म द्वारा अनुमोदित, पदानुक्रम पर आधारित सामाजिक व्यवस्था, जिसे एकाधिकारवादी राज्य द्वारा बल प्रयोग से लागू किया जायेगा और दूसरी ओर है स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व और मानवीय गरिमा के मूल्य।
मित्रों, सवाल प्रजातन्त्र को बचाने का है।
सन् 2009 के लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में भाजपा कहती है, ‘‘स्वतन्त्रता के पश्चात, आवश्यकता इस बात की थी कि भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी जाती ताकि वह भारतीयों (पढ़ें उच्च जातियों के हिन्दुओं) की सोच, इच्छाओं और महत्वाकाँक्षाओं को प्रतिबिम्बित करती। यह नहीं किया गया और इसके नतीजे में आज भारतीय समाज विभाजित है, देश में घोर आर्थिक असमानता व्याप्त है, आतंकवाद और साम्प्रदायिक हिंसा का बोलबाला है, असुरक्षा का
भाव है और नैतिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक गिरावट है। हमारा राज्यतन्त्र, इनमें से किसी भी समस्या से निपटने में असफल रहा है।‘‘ इस बार के आम चुनाव में इन सभी मुद्दों के अलावा, भाजपा, भ्रष्टाचार को भी मुद्दा बनायेगी।
हिन्दू राष्ट्र, एकात्म मानवतावाद और हिन्दू सभ्यता की चेतना
यद्यपि भाजपा देश की सारी समस्याओं के लिये काँग्रेस को जिम्मेदार ठहराती है, परन्तु काँग्रेस को कटघरे में खड़ा करने के पीछे उसका एकमात्र उद्धेश्य चुनाव में विजय हासिल करना है। अगर हम भाजपा के चुनावी घोषणापत्रों को ध्यान से पढ़ें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि वह काँग्रेस को दोषी ठहराने के पीछे उसका एक सीमित उद्धेश्य है-वह काँग्रेस को देश में व्याप्त समस्याओं का वाहक सिद्ध करना चाहती है। भाजपा यह नहीं कहती या मानती कि काँग्रेस, हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की राह में बाधा है। भाजपा का विचारधारात्मक लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है और इस लक्ष्य की प्राप्ति में काँग्रेस रास्ते में आ रही है, ऐसा भाजपा ने कभी नहीं कहा। काँग्रेस, चुनाव में भाजपा की प्रतिद्वन्दी है और इसलिये चुनाव के दौरान उस पर निशाना साधा जाना चाहिये। परन्तु वह हिन्दू राष्ट्र की शत्रु नहीं है। हिन्दू राष्ट्र के तीन घोषित शत्रु हैं- मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट। इनके अतिरिक्त, नागरिक व मानवाधिकारों और विशेषकर समानता की पश्चिमी अवधारणाएं भी हिन्दू राष्ट्र की शत्रु हैं। ऋषियों द्वारा परिभाषित ‘हिन्दू‘ सभ्यता की चेतना में नागरिक व मानवाधिकारों और समानता के लिये कोई स्थान नहीं है।
हिन्दू सभ्यता, जाति-आधारित ऊँच-नीच पर टिकी हुयी है जिसमें जानवरों को तो छुआ जा सकता है-और कुछ की पूजा भी की जाती है-परन्तु अछूतों को नहीं छुआ जा सकता। हिन्दू सभ्यता की यह चेतना महिलाओं को उनके सभी अधिकारों और मानवीय गरिमा से वंचित करती है और उन्हें पहले अपने पिता और बाद में अपने पति की सम्पत्ति से ऊँचा दर्जा नहीं देती। मुसलमान और ईसाई, काँग्रेस का इस्तेमाल नागरिक अधिकार पाने के लिये कर रहे हैं। ‘‘समय-समय पर काँग्रेसी नेताओं ने कल्याणकारी राज्य, समाजवाद और उदारवाद को अपना लक्ष्य घोषित किया है‘‘, यह था भाजपा के पूर्व संस्करण भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय का उनके एक भाषण में भारी मन से दिया गया वक्तव्य।
भाजपा, हिन्दू राष्ट्र और दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त में विश्वास रखती है। एकात्म मानवतावाद ‘‘सामाजिक अनुबन्ध सिद्धान्त‘ को पूरी तरह खारिज करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, समाज के नियम और कानून, उसके सदस्यों के बीच अन्तर्निहित अनुबन्ध से उद्भूत होते हैं। ‘‘यह सही है कि समाज कई व्यक्तियों से मिलकर बनता है परन्तु समाज केवल व्यक्तियों का समूह नहीं है और ना ही कई व्यक्तियों के एक साथ रहने मात्र से समाज अस्तित्व में आ जाता है। हमारे विचार से समाज स्वतः जन्म लेता है।‘‘
एकात्म मानवतावाद, समाज की तुलना विराट पुरूष से करता है। ‘‘चतुर्वर्णों की हमारी अवधारणा यह है कि चारों वर्ण, विराट पुरूष के अलग-अलग अंगों से उत्पन्न हुये हैं। विराट पुरूष के सिर से ब्राह्मणों का निर्माण हुआ, क्षत्रिय उसके हाथों से जन्मे, वैश्य उसके पेट से और शूद्र उसके पैरों से। अगर हम इस अवधारणा की विवेचना करें तो हमारे सामने यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि विराट पुरूष के सिर, हाथ, पेट और पैरों के बीच टकराव की स्थिति में क्या होगा? ऐसे किसी टकराव की स्थिति में शरीर बच ही नहीं सकता। एक ही शरीर के अलग-अलग हिस्सों के बीच टकराव न तो सम्भव है और न वाँछनीय। इसके विपरीत, पूरा शरीर ‘एक व्यक्ति‘ के रूप में काम करता है। शरीर के सारे अंग एक दूसरे के पूरक होते हैं और एक ही लक्ष्य की पूर्ति की दिशा में काम करते हैं। सभी अंगों के हित एक से होते हैं और उनकी पहचान भी एक ही होती है। जातिप्रथा इसी सिद्धान्त पर आधारित है।‘‘ जिस समाज को दीनदयाल उपाध्याय स्वतः जन्मा (व इसलिये प्राकृतिक) बता रहे हैं, वह दरअसल जाति-आधारित पदानुक्रम है, जिसमें व्यक्ति के कार्यक्षेत्र का निर्धारण उसके जन्म से होता है, जिसमें कुछ लोगों को ढेर सारे विशेषाधिकार हासिल होते हैं और कुछ अन्य केवल अपने कर्तव्यों का पालन करते हुये दास की तरह जीवन बिताते हैं। यह व्यवस्था कुछ लोगों को केवल अधिकार देती है और कुछ के हिस्से में केवल कर्तव्य आते हैं। यह व्यवस्था बलप्रयोग और जबरदस्ती पर आधारित है और स्वतः जन्मी या प्राकृतिक नहीं है। रामायण और महाभारत में भी इस बलप्रयोग और जबरदस्ती का विवरण है, जिस ओर दीनदयाल उपाध्याय का ध्यान नहीं गया। एकलव्य का अँगूठा काटा जाना, वेद पढ़ने के कारण शम्बूक की हत्या और सीता की अग्निपरीक्षा इसके कुछ उदाहरण हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और गरिमा की अवधारणाओं से इंकार और ‘‘सामाजिक अनुबन्ध सिद्धान्त‘‘ को नकारने के पीछे उद्धेश्य यह है कि समाज के सभी सदस्य, ‘‘स्वतः जन्मे‘‘ समाज की प्रभुता स्वीकार कर लें और समाज के सभी तबके-अर्थात जातियाँ-सामञ्जस्य से रहें, उनमें कोई आपसी विवाद न हो और वे प्राकृतिक और स्वतः जन्मी सामाजिक व्यवस्था को चुनौती न दें। हर व्यक्ति को इस व्यवस्था को स्वीकार करना है, चाहे वह कितनी ही दमनकारी और ऊँच-नीच को औचित्यपूर्ण ठहराने वाली क्यों न हो। उन्हें ऐसा इसलिये करना है ताकि समाज में सामञ्जस्य बना रहे और इसलिये भी क्योंकि व्यक्तियों का अलग से कोई अस्तित्व नहीं है। उनका कर्तव्य समाजहित में काम करना है और उनका अस्तित्व केवल राष्ट्र की खातिर है।
राष्ट्र के चित्त की तुलना व्यक्ति की आत्मा से की जा सकती है। दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार, जिन नियम-कानूनों से राष्ट्र के चित्त को व्यक्त और पोषित किया जा सकता है, वही धर्म है और धर्म सर्वोच्च है। जो इस धर्म के साथ विश्वासघात करता है वह राष्ट्रद्रोही है। यह चित्त या हिन्दू सभ्यता की चेतना या धर्म, सदियों तक जिन्दा रहा। अनेक विदेशी आक्रमण हुये परन्तु उसका कुछ ना बिगड़ा। कहने की आवश्यकता नहीं कि जातिगत पदानुक्रम और ढाँचा इस चित्त के केन्द्र में हैं। धर्म या चित्त या हिन्दू सभ्यता की चेतना, खाप पंचायतों जैसी संस्थाओं के जरिये सदियों तक बची रही और इसलिये अमर है। भाजपा का एकात्म मानवतावाद यह प्रतिपादित करता है कि लोगों के लिये क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसका निर्धारण बहुमत के आधार पर नहीं बल्कि धर्म के आधार पर होगा। ‘‘जनराज्य‘‘ से ‘‘धर्मराज्य‘‘ कहीं अधिक बेहतर है और धर्मराज्य की स्थापना का प्रयास किया जाना चाहिये। धर्मराज्य में राज्य, राष्ट्र के अधीन होगा और धर्म की ध्वजा को थामे रहेगा। जातिप्रथा भाजपा के एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त का इतना महत्वपूर्ण भाग है कि न तो राष्ट्र-राज्य और ना ही आमजनों का बहुमत, उसमें कोई परिवर्तन कर सकता है। प्रजातान्त्रिक राज्य, जिसमें उदारवाद या समाजवाद या व्यक्ति की गरिमा या मानवाधिकारों के लिये कोई जगह हो पर भी यह भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह जातिप्रथा का प्रतिरक्षण करेगा। अतः, राष्ट्र के ‘‘चित्त‘‘ पर बहुत कम संख्या वाले तबके विशेष का एकाधिकार होगा और इस तबके को राष्ट्र में धर्म स्थापना के लिये सैनिक व एकाधिकारवादी राज्यतन्त्र की आवश्यकता होगी। लोगों को या तो इस तन्त्र के आगे आत्मसमर्पण करना होगा और या उन्हें गम्भीर, दमनकारी हिंसा भोगनी होगी। यही कारण है कि मुसलमानों, ईसाईयों और कम्युनिस्टों को हिन्दू राष्ट्र का शत्रु बताया गया है। ये तीनों ही वर्ग ना तो हिन्दू धार्मिक चेतना को स्वीकार करेंगे और ना ही एकात्म मानवतावाद द्वारा प्रतिपादित धर्म को क्योंकि समानता की अवधारणा उनके धर्मों और विचारधारा की आत्मा है। यद्यपि यह भी सही है कि व्यावहारिक स्तर पर न तो मुसलमानों न ईसाईयों और न कम्यूनिस्टों में समानता है।
काँग्रेस पार्टी
काँग्रेस, राहुल गाँधी के आसपास करिश्माई व्यक्तित्व का आभामण्डल बुनने की कोशिश कर रही है। राहुल स्वयं ऐसा दिखा रहे हैं कि वे प्रधानमन्त्री बनने के इच्छुक नहीं हैं और उनकी मुख्य रूचि, टीम काँग्रेस की सहायता से देश में व्याप्त विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में है।
हमें भाजपा के नेतृत्व वाले राजग और काँग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग को बराबर खराब या बराबर भ्रष्ट राजनैतिक गठबन्धनों के रूप में नहीं देखना चाहिये। राजग और संप्रग के बीच अन्तर एक भ्रष्ट और ईमानदार संगठन का नहीं है, वह एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष और अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने वाले छद्म धर्मनिरपेक्ष संगठन का भी नहीं है और ना ही यह पूँजीपति-केन्द्रित विकास और मानवीय चेहरे वाले विकास का अन्तर है। यह अन्तर है दुनिया को देखने के दो परस्पर विरोधाभासी तरीकों का, जिसमें एक ओर है धर्म द्वारा अनुमोदित, पदानुक्रम पर आधारित सामाजिक व्यवस्था, जिसे एकाधिकारवादी राज्य द्वारा बल प्रयोग से लागू किया जायेगा और दूसरी ओर है स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व और मानवीय गरिमा के मूल्य।
मित्रों, सवाल प्रजातन्त्र को बचाने का है।
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