सीबीआई द्वारा देश के रेल मन्त्री पवन कुमार बंसल के भांजे विजय सिंगला
को रिश्वत लेते हुये गिरफ्तार किये जाने के साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है
कि सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गयी?
जिस सीबीआई को विपक्ष काँग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन की उपमा देता रहा है, उसने रेल मन्त्रालय जैसे महत्वपूर्ण महकमे के मन्त्री के भांजे पर हाथ कैसे डाल दिया, जबकि इससे पहले से आरोपों से घिरी सरकार पर और दबाव बनता? हालाँकि भाजपा ने परम्परा का निर्वाह करते हुये बंसल के इस्तीफे की माँग की है और काँग्रेस ने भी पुराने रवैये को ही दोहराते हुये इस्तीफा लेने से इंकार कर दिया, मगर इससे अनेक सवाल मुँह बायें खड़े हो गये हैं।
इस वाकये एक पक्ष तो ये है कि सम्भव है भ्रष्टाचार के आरोपों से चारों ओर से घिरी कांग्रेस नीत सरकार ने यह जताने की कोशिश की हो कि विपक्ष का यह आरोप पूरी तरह से निराधार है कि सीबीआई उसके इशारे पर काम करती है। वह स्वतन्त्र और निष्पक्ष है। काँग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने तो बाकायदा यही कहा कि देखिये सीबीआई कितनी स्वतन्त्र है कि उसने मन्त्री के रिश्तेदार को भी दोषी मान कर गिरफ्तार कर लिया।
गिनाने को उनका तर्क जरूर दमदार है, लेकिन यकायक इस पर यकीन होता नहीं है। काँग्रेस की ओर से रेलमन्त्री का यह कह कर बचाव करने से सवालिया निशान उठता है कि सीबीआई की जाँच में रेलमन्त्री की संलिप्तता की पुष्टि अभी तक हुयी नहीं है। खुद रेल मन्त्री भी मामले की जाँच करने को कह रहे हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी। अपने भांजे की गिरफ्तारी के बाद रेलमन्त्री पवन बंसल ने भी कहा कि उनका उनके भांजे के साथ कोई कारोबारी रिश्ता नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि चंडीगढ़ में उनकी बहन के फर्म में छापा मारा गया है, उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है।
कुछ सूत्र ये भी कहते हैं कि बंसल पर आज तक कोई दाग नहीं है। उनकी छवि साफ-सुथरी है। यदि इसे सही मानें और बंसल की बात को भी ठीक मानें तो सवाल ये उठता है कि आखिर रेलवे बोर्ड के सदस्य (स्टाफ) नियुक्त हुये महेश कुमार ने किस बिना पर रिश्वत दी? क्या उनकी नये पद पर नियुक्ति में बंसल कोई हाथ नहीं है? जब रिश्वत ले कर ही नियुक्ति हुयी तो आखिर नियुक्ति किस प्रकार हुयी? रिश्वत की राशि का हिस्सा किसके पास पहुँचा? भले ही बंसल ये कहें कि उनका भांजे से कोई लेना-देना नहीं है, मगर उसने उन्हीं के नाम पर तो यह गोरखधंधा अंजाम दिया। ऐसे में क्या बंसल की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वे भूतपूर्व रेल मन्त्री लाल बहादुर शास्त्री की तरह ईमानदारी का परिचय नहीं दे सकते थे, जिन्होंने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुये पद छोड़ दिया था?
बताया जाता है कि काँग्रेस के मैनेजरों की राय यह रही कि इस प्रकार
इस्तीफा देने यह संदेश जाता है कि वाकई मन्त्री दोषी थे, इस कारण इस्तीफा न
दिलवाने का विचार बनाया गया।
इस वाकये का दूसरा पक्ष ये भी है कि क्या कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद सीबीआई चीफ वास्तव में निडर हो गये हैं और राजनीतिक आकाओं से आदेश नहीं ले रहे? या फिर केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिखाने के लिये ऐसा करवाया ताकि वह उसके इस दबाव से मुक्त हो सके कि वह सी
कुछ सूत्र बताते हैं कि अन्दर की कहानी कुछ और है। इस वाकये से ये जताने की कोशिश की जा रही है कि सीबीआई निष्पक्ष है, मगर यह काँग्रेस के आन्तरिक झगड़े का परिणाम है। बताया जा रहा है कि प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के विश्वसनीय कानून मन्त्री अश्वनी कुमार के साथ बंसल की नाइत्तफाकी का ही नतीजा है कि उन्हें हल्का सा झटका दिया गया है।
बताते हैं कि कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद जब भाजपा ने अश्वनी कुमार पर इस्तीफे का दबाव बनाया तो काँग्रेस का एक गुट भी हमलावर हो गया और उसमें बंसल अग्रणी थे। इसी कारण बंसल को सीमा में रहने का इशारा देने के लिये इस प्रकार की कार्यवाही की गयी। यदि यह सच है तो इसका मतलब भी यही है कि सीबीआई सरकार के इशारे पर ही काम करती है। सहयोगी दलों बसपा व सपा पर शिकंजा कसने के लिये, चाहे अपने मन्त्रियों को हद में रखने के लिये, उसका उपयोग किया ही जाता है।
इस प्रकरण का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि बंसल के इस्तीफे पर राजग के दो प्रमुख घटक दल भाजपा और जनता दल यूनाइटेड में ही मतभेद हो गया है। भाजपा जहाँ बंसल का इस्तीफा माँग रही है तो जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि रेलमन्त्री के इस्तीफे की कोई आवश्यकता नहीं है। भांजे ने रिश्वत ली तो बंसल की क्या गलती है? है न चौंकाने वाला बयान? खैर, राजनीति में न जाने क्या-क्या होता है, क्यों-क्यों होता है, पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है।
जिस सीबीआई को विपक्ष काँग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन की उपमा देता रहा है, उसने रेल मन्त्रालय जैसे महत्वपूर्ण महकमे के मन्त्री के भांजे पर हाथ कैसे डाल दिया, जबकि इससे पहले से आरोपों से घिरी सरकार पर और दबाव बनता? हालाँकि भाजपा ने परम्परा का निर्वाह करते हुये बंसल के इस्तीफे की माँग की है और काँग्रेस ने भी पुराने रवैये को ही दोहराते हुये इस्तीफा लेने से इंकार कर दिया, मगर इससे अनेक सवाल मुँह बायें खड़े हो गये हैं।
इस वाकये एक पक्ष तो ये है कि सम्भव है भ्रष्टाचार के आरोपों से चारों ओर से घिरी कांग्रेस नीत सरकार ने यह जताने की कोशिश की हो कि विपक्ष का यह आरोप पूरी तरह से निराधार है कि सीबीआई उसके इशारे पर काम करती है। वह स्वतन्त्र और निष्पक्ष है। काँग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने तो बाकायदा यही कहा कि देखिये सीबीआई कितनी स्वतन्त्र है कि उसने मन्त्री के रिश्तेदार को भी दोषी मान कर गिरफ्तार कर लिया।
गिनाने को उनका तर्क जरूर दमदार है, लेकिन यकायक इस पर यकीन होता नहीं है। काँग्रेस की ओर से रेलमन्त्री का यह कह कर बचाव करने से सवालिया निशान उठता है कि सीबीआई की जाँच में रेलमन्त्री की संलिप्तता की पुष्टि अभी तक हुयी नहीं है। खुद रेल मन्त्री भी मामले की जाँच करने को कह रहे हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी। अपने भांजे की गिरफ्तारी के बाद रेलमन्त्री पवन बंसल ने भी कहा कि उनका उनके भांजे के साथ कोई कारोबारी रिश्ता नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि चंडीगढ़ में उनकी बहन के फर्म में छापा मारा गया है, उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है।
कुछ सूत्र ये भी कहते हैं कि बंसल पर आज तक कोई दाग नहीं है। उनकी छवि साफ-सुथरी है। यदि इसे सही मानें और बंसल की बात को भी ठीक मानें तो सवाल ये उठता है कि आखिर रेलवे बोर्ड के सदस्य (स्टाफ) नियुक्त हुये महेश कुमार ने किस बिना पर रिश्वत दी? क्या उनकी नये पद पर नियुक्ति में बंसल कोई हाथ नहीं है? जब रिश्वत ले कर ही नियुक्ति हुयी तो आखिर नियुक्ति किस प्रकार हुयी? रिश्वत की राशि का हिस्सा किसके पास पहुँचा? भले ही बंसल ये कहें कि उनका भांजे से कोई लेना-देना नहीं है, मगर उसने उन्हीं के नाम पर तो यह गोरखधंधा अंजाम दिया। ऐसे में क्या बंसल की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वे भूतपूर्व रेल मन्त्री लाल बहादुर शास्त्री की तरह ईमानदारी का परिचय नहीं दे सकते थे, जिन्होंने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुये पद छोड़ दिया था?
इस वाकये का दूसरा पक्ष ये भी है कि क्या कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद सीबीआई चीफ वास्तव में निडर हो गये हैं और राजनीतिक आकाओं से आदेश नहीं ले रहे? या फिर केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिखाने के लिये ऐसा करवाया ताकि वह उसके इस दबाव से मुक्त हो सके कि वह सी
कुछ सूत्र बताते हैं कि अन्दर की कहानी कुछ और है। इस वाकये से ये जताने की कोशिश की जा रही है कि सीबीआई निष्पक्ष है, मगर यह काँग्रेस के आन्तरिक झगड़े का परिणाम है। बताया जा रहा है कि प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के विश्वसनीय कानून मन्त्री अश्वनी कुमार के साथ बंसल की नाइत्तफाकी का ही नतीजा है कि उन्हें हल्का सा झटका दिया गया है।
बताते हैं कि कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद जब भाजपा ने अश्वनी कुमार पर इस्तीफे का दबाव बनाया तो काँग्रेस का एक गुट भी हमलावर हो गया और उसमें बंसल अग्रणी थे। इसी कारण बंसल को सीमा में रहने का इशारा देने के लिये इस प्रकार की कार्यवाही की गयी। यदि यह सच है तो इसका मतलब भी यही है कि सीबीआई सरकार के इशारे पर ही काम करती है। सहयोगी दलों बसपा व सपा पर शिकंजा कसने के लिये, चाहे अपने मन्त्रियों को हद में रखने के लिये, उसका उपयोग किया ही जाता है।
इस प्रकरण का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि बंसल के इस्तीफे पर राजग के दो प्रमुख घटक दल भाजपा और जनता दल यूनाइटेड में ही मतभेद हो गया है। भाजपा जहाँ बंसल का इस्तीफा माँग रही है तो जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि रेलमन्त्री के इस्तीफे की कोई आवश्यकता नहीं है। भांजे ने रिश्वत ली तो बंसल की क्या गलती है? है न चौंकाने वाला बयान? खैर, राजनीति में न जाने क्या-क्या होता है, क्यों-क्यों होता है, पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है।
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