हिन्दी क्षेत्र में, विशेषकर उत्तर प्रदेश में एक प्रचलित कहावत है-
जबरिया मारे, रोबन भी न दे
अर्थात कोई किसी को जबरदस्ती मारे, उसे दर्द हो तो उसे रोने भी न दे। लगता है केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की यही मंशा है। सरकार घोटाले पर घोटाले करती रहे पर न आप शोर करिए, न जांच हो। सरकार की गलत नीतियों से महंगाई बढ़े, जनता दर्द से कराहे, पर उनके प्रदर्शन हों तो पुलिस उनपर लाठी बराए। संसद में घोटालों और नाकामियों के मुद्दे न उठें, इसीलिए वहां भी हंगामा। इस सबके बीच इंटरनेट के माध्यम से एक नई मुहिम शुरू हुई-सोशल नेटवर्क, तो उसकी साइट्स पर भी सरकार की तिरछी नजर है। सन् 2011 में योगगुरू स्वामी रामदेव व समाजसेवी अण्णा हजारे के आंदोलन के समय सरकार के हाथ-पांव फूल गए थे। उसे लगा कि इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स के कारण ही हंगामा बरपा है।
उस समय सरकार और उसके बड़बोले संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने इन साइट्स को नियंत्रित करने के नाम पर उनको दबाने का भी प्रयास किया। फेसबुक, ट्विटर पर पढ़ी-लिखी जनता अपने मन की बात भी न कह सके, इसके लिए असम हिंसा की आड़ लेकर उन्हें प्रतिबंधित करने की पूरी तैयारी थी, पर बात नहीं बनी। उसके बाद से सूचना प्रौद्योगिकी कानून का जमकर दुरुपयोग किया गया। फेसबुक, ट्विटर पर किसी नेता या सम्प्रदाय के विरुद्ध टिप्पणी करने वालों को बिना पूरी प्रक्रिया के जेल की हवा खानी पड़ी। महाराष्ट्र की दो युवतियों की ऐसे ही एक मामले में गिरफ्तारी से आईटीएक्ट की धारा 66ए के दुरुपयोग की बात सामने आई तो चौतरफा निंदा हुई। आनन फानन में उन युवतियों को छोड़ा गया, न्यायालय ने भी फटकारा और केन्द्र सरकार को उस संबंध में दिशा निर्देश जारी करने पड़े।
पर जब सारा जोर चोर-चोर के शोर को दबाने पर लगा हो तो कानून ऐसे बनाए जाते हैं या इस तरह तोड़-मरोड़े जाते हैं जिससे जनता की आवाज गले में ही घुटकर रह जाए। आंध्र प्रदेश की पुलिस ने भी ऐसी ही एक आवाज का गला घोंट दिया था। गैरसरकारी संगठन की कार्यकर्त्ता जया विंध्यालया ने फेसबुक पर प्रदेश के राज्यपाल और एक विधायक के खिलाफ कड़ी टिप्पणी कर दी, जिसे इन दोनों ने आपत्तिजनक माना और शिकायत होते ही जया पहुंच गई सलाखों के पीछे। इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचाने वाली श्रेया सिंघल की एक याचिका का निपटारा करते हुए न्यायाधीश बी.एस.चौहान और न्यायाधीश दीपक मिश्रा की खंडपीठ ने गत 16 मई को दिए निर्देश में साफ कर दिया कि ऐसे मामलों में सोच समझकर कार्रवाई की जाए। न्यायालय ने आईटी एक्ट की धारा 66(ए) पर पूरी तरह से रोक लगाने से तो इनकार कर दिया और उसकी वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका का अलग से निपटारा करने को कहा, पर यह भी साफ-साफ कहा कि सोशल साइट्स पर आपत्तिजनक टिप्पणी के मामलों में किसी की गिरफ्तारी से पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की अनुमति आवश्यक होगी। जिले के पुलिस अधीक्षक, क्षेत्र के महानिरीक्षक आदि की अनुमति के बिना आईटी एक्ट की धारा 66(ए) के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार न किया जाए।
इधर वर्तमान सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी भी गाहे-बगाहे मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर टिप्पणी कर रहे हैं। स्वामी रामदेव एवं अण्णा हजारे के आंदोलन के समय मीडिया का सुर सरकार के विरुद्ध था। पर अचानक ऐसा कुछ हुआ कि कुछ चैनलों और अखबारों के तेवर ढीले पड़ गए और जनजागरण में लगे इन दोनों योद्धाओं के आंदोलन के उद्देश्यों पर आशंकाओं के तीर छोड़ जाने लगे। इसके पीछे सरकार की इस सलाह का दबाव भी माना जा रहा था कि मीडिया को आत्मनियंत्रण के लिए स्वयं एक तंत्र बनाना चाहिए। पर वस्तुत: आत्म नियंत्रण की सलाह के पीछे सरकारी नियंत्रण का संदेश साफ-साफ प्रतिध्वनित हो रहा था।
जनता से संवाद के एक और सबसे सशक्त माध्यम टेलीविजन पर भी सरकारी नियंत्रण की पदचाप धीरे-धीरे सुनाई देने लगी है। पिछले कुछ दिनों तक देश के 38 महानगरों में हाहाकार मचा हुआ था और सब तरफ 'सेट टाप बाक्स, सेट टाप बाक्स' का शोर सुनाई दे रहा है। इन 38 महानगरों के टेलीविजन उपभोक्ताओं को 31 मार्च तक सेट टाप बाक्स लगवाना अनिवार्य कर दिया गया था, जिसे बढ़ाकर 15 अप्रैल कर दिया गया। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने साफ कर दिया कि अगर आपके केबल आपरेटर ने या आपने स्वयं 15 अप्रैल तक सेट टाप बाक्स नहीं लगवाया तो मनोरंजन की छुट्टी, बुद्धू बक्सा सिर्फ बक्सा ही रह जाएगा। बच्चों की गर्मियों की छुट्टी और उस पर से 'जम्पिंग जपांग' की तान-ऐसे में टीवी बंद हो जाएं तो मानों जीवन में कुछ बचा ही नहीं, इसलिए भगदड़ मच गई। 800-900 रु. का सेट टाप बाक्स 1500-1500 रु. तक में बिका, फिर भी पूरा नहीं पड़ा। देश के हजारों घर इन दिनों 'मनोरंजन' के बिना ही रह रहे हैं, क्योंकि कई महानगरों में सेट टाप बाक्स लगाने वाली कंपनियों की मनमानी और खींचतान के चलते टेलीविजन नहीं चल पा रहे हैं। जब तैयारी पूरी नहीं थी तो आखिर समय सीमा निर्धारित करने की जरूरत क्या थी? सरकार ने सेट टाप बाक्स की कालाबाजारी का अवसर क्यों प्रदान किया? और उससे भी बड़ी बात की सबको सेट टाप बाक्स लगवाना अनिवार्य ही क्यों किया गया?
दरअसल यह सारी कवायद शुरू हुई है 2006-07 से, तब एक शब्द हवा में तैरा-कैस, यानी कंडीशनल एक्सेस सिस्टम। टेलीविजन उपभोक्ताओं के ऊपर एक सुनहरा जाल फेंका गया कि अब आप जो देखना चाहें, सिर्फ उसी के पैसे दें, केबल आपरेटरों की मनमानी से मुक्ति पाएं। कहा यह भी गया केबल टेलिविजन उद्योग में बढती अव्यवस्था और उपभोक्ताओं की तरफ से लगातार आ रही शिकायतों की वजह से सरकार ने 'कैस' व्यवस्था लागू करने का निर्णय लिया। कहने को इसका उद्देश्य केबल सेवाओं में पारदर्शिता लाना है। अब केबल आपरेटर हर दूसरे महीने चैनलों की बढ़ी दर का हवाला देकर केबल कनेक्शन की राशि नहीं बढ़ाएंगे। प्रसारणकर्ताओं की यह नाराजगी भी दूर हो जाएगी कि ज्यादातर केबलआपरेटर उनके चैनलों के दर्शकों की संख्या ठीक नहीं बताते। 'कैस' लागू होने से व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी, प्रसारणकर्ता अपने चैनलों के उपभोक्ताओं की सही संख्या जान पाएंगे, क्योंकि 'सेट टाप' बक्से के जरिए ही भुगतान चैनल उन तक पहुंचेंगे। जब उन्हें अपने दर्शकों की सही संख्या पता चल जाएगी, तो वे विज्ञापनदाताओं से ठोस सबूत के आधार पर बात कर पाएंगे। अभी विज्ञापनदाता टेलीविजन 'आडियंस मानीटर' जैसी कुछ सर्वेक्षण कम्पनियों आदि की रपट के आधार पर प्रसारण कम्पनियों को विज्ञापन देते हैं और दर्शक उन्हें एक केबल कनैक्शन लेकर देखते हैं। लेकिन अब कुछ भुगतान चैनलों को दर्शक सिर्फ 'सेट टाप बक्से' के जरिए एक निश्चित राशि अदा करने के बाद ही देख सकेंगे फ्री चैनल, पेड चैनल डिजिटलाइजेशन, बेहतर तस्वीर और साफ आवाज, सरकार को मनोरंजन कर की प्राप्ति, विज्ञापनदाताओं के लिए सही दर्शक संख्या, इंटरएक्टिव टीवी और जो देखो उसके ही पैसे दो की कवायद में सरकार ने एक बड़ा खेल खेला और वह उसमें सफल भी होती दिख रही है। वह यह कि देश के हजारों-लाखों केबल आपरेटरों की बजाय अब उसे सिर्फ 5 प्रमुख केबल आपरेटर्स को ही नियंत्रित करना पड़ेगा। पहले केबल आपरेटर स्वतंत्र थे, उनकी छतरी पर उपग्रह से सीधे एनालॉग सिग्नल आते थे और वे तारों (केबल) के द्वारा उपभोक्ता तक पहुंचाते थे। शहर में साम्प्रदायिक हिंसा आदि किसी विषमपरिस्थिति में यदि उस पर नियंत्रण करना होता था तो प्रशासन निर्देशित करता था और पूरा प्रसारण ठप। पता चल जाती थी शासन प्रशासन की मंशा। पर अब सरकार चाहे और सिर्फ 5 आपरेटर्स की बांह मरोड़ दे और इशारा कर दे कि फलां फलां चैनल का प्रसारण कुछ समय के लिए ठप कर दो, क्योंकि वह सरकार के विरुद्ध ज्यादा जहर उगल रहे हैं, तो सिर्फ वही चैनल आप नहीं देख पाएंगे। आपको पता भी नहीं चलेगा और 'सेंसरशिप' लागू हो जाएगी। कैस सिस्टम के अन्तर्गत सैप टाप बाक्स लगवाना अनिवार्य किए जाने के पीछे उपजी इस आशंका को अब दरकिनार नहीं किया जा सकता। अभी तो यह शुरुआती दौर है। पहले 4 महानगरों (दिल्ली, मुम्बई, चेन्नै, बेंगलूरु) के बाद अब 38 महानगरों में कैस प्रणाली लागू हो गयी है। इसके बाद अब नगरों, फिर उपनगरों और गांव तक जाने की तैयारी है। इस प्रणाली के पूरी तरह लागू हो जाने के बाद सरकार को उपभोक्ताओं की सही संख्या तो पता चलेगी ही, उसे पूरा मनोरंजन शुल्क भी मिलेगा। पर इससे अधिक उसे वह ताकत भी मिलने की आशंका है, जिसे वह प्रसार माध्यमों पर अपने नियंत्रण के लिए जरूरी समझती है।
जबरिया मारे, रोबन भी न दे
अर्थात कोई किसी को जबरदस्ती मारे, उसे दर्द हो तो उसे रोने भी न दे। लगता है केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की यही मंशा है। सरकार घोटाले पर घोटाले करती रहे पर न आप शोर करिए, न जांच हो। सरकार की गलत नीतियों से महंगाई बढ़े, जनता दर्द से कराहे, पर उनके प्रदर्शन हों तो पुलिस उनपर लाठी बराए। संसद में घोटालों और नाकामियों के मुद्दे न उठें, इसीलिए वहां भी हंगामा। इस सबके बीच इंटरनेट के माध्यम से एक नई मुहिम शुरू हुई-सोशल नेटवर्क, तो उसकी साइट्स पर भी सरकार की तिरछी नजर है। सन् 2011 में योगगुरू स्वामी रामदेव व समाजसेवी अण्णा हजारे के आंदोलन के समय सरकार के हाथ-पांव फूल गए थे। उसे लगा कि इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स के कारण ही हंगामा बरपा है।
उस समय सरकार और उसके बड़बोले संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने इन साइट्स को नियंत्रित करने के नाम पर उनको दबाने का भी प्रयास किया। फेसबुक, ट्विटर पर पढ़ी-लिखी जनता अपने मन की बात भी न कह सके, इसके लिए असम हिंसा की आड़ लेकर उन्हें प्रतिबंधित करने की पूरी तैयारी थी, पर बात नहीं बनी। उसके बाद से सूचना प्रौद्योगिकी कानून का जमकर दुरुपयोग किया गया। फेसबुक, ट्विटर पर किसी नेता या सम्प्रदाय के विरुद्ध टिप्पणी करने वालों को बिना पूरी प्रक्रिया के जेल की हवा खानी पड़ी। महाराष्ट्र की दो युवतियों की ऐसे ही एक मामले में गिरफ्तारी से आईटीएक्ट की धारा 66ए के दुरुपयोग की बात सामने आई तो चौतरफा निंदा हुई। आनन फानन में उन युवतियों को छोड़ा गया, न्यायालय ने भी फटकारा और केन्द्र सरकार को उस संबंध में दिशा निर्देश जारी करने पड़े।
पर जब सारा जोर चोर-चोर के शोर को दबाने पर लगा हो तो कानून ऐसे बनाए जाते हैं या इस तरह तोड़-मरोड़े जाते हैं जिससे जनता की आवाज गले में ही घुटकर रह जाए। आंध्र प्रदेश की पुलिस ने भी ऐसी ही एक आवाज का गला घोंट दिया था। गैरसरकारी संगठन की कार्यकर्त्ता जया विंध्यालया ने फेसबुक पर प्रदेश के राज्यपाल और एक विधायक के खिलाफ कड़ी टिप्पणी कर दी, जिसे इन दोनों ने आपत्तिजनक माना और शिकायत होते ही जया पहुंच गई सलाखों के पीछे। इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचाने वाली श्रेया सिंघल की एक याचिका का निपटारा करते हुए न्यायाधीश बी.एस.चौहान और न्यायाधीश दीपक मिश्रा की खंडपीठ ने गत 16 मई को दिए निर्देश में साफ कर दिया कि ऐसे मामलों में सोच समझकर कार्रवाई की जाए। न्यायालय ने आईटी एक्ट की धारा 66(ए) पर पूरी तरह से रोक लगाने से तो इनकार कर दिया और उसकी वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका का अलग से निपटारा करने को कहा, पर यह भी साफ-साफ कहा कि सोशल साइट्स पर आपत्तिजनक टिप्पणी के मामलों में किसी की गिरफ्तारी से पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की अनुमति आवश्यक होगी। जिले के पुलिस अधीक्षक, क्षेत्र के महानिरीक्षक आदि की अनुमति के बिना आईटी एक्ट की धारा 66(ए) के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार न किया जाए।
इधर वर्तमान सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी भी गाहे-बगाहे मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर टिप्पणी कर रहे हैं। स्वामी रामदेव एवं अण्णा हजारे के आंदोलन के समय मीडिया का सुर सरकार के विरुद्ध था। पर अचानक ऐसा कुछ हुआ कि कुछ चैनलों और अखबारों के तेवर ढीले पड़ गए और जनजागरण में लगे इन दोनों योद्धाओं के आंदोलन के उद्देश्यों पर आशंकाओं के तीर छोड़ जाने लगे। इसके पीछे सरकार की इस सलाह का दबाव भी माना जा रहा था कि मीडिया को आत्मनियंत्रण के लिए स्वयं एक तंत्र बनाना चाहिए। पर वस्तुत: आत्म नियंत्रण की सलाह के पीछे सरकारी नियंत्रण का संदेश साफ-साफ प्रतिध्वनित हो रहा था।
जनता से संवाद के एक और सबसे सशक्त माध्यम टेलीविजन पर भी सरकारी नियंत्रण की पदचाप धीरे-धीरे सुनाई देने लगी है। पिछले कुछ दिनों तक देश के 38 महानगरों में हाहाकार मचा हुआ था और सब तरफ 'सेट टाप बाक्स, सेट टाप बाक्स' का शोर सुनाई दे रहा है। इन 38 महानगरों के टेलीविजन उपभोक्ताओं को 31 मार्च तक सेट टाप बाक्स लगवाना अनिवार्य कर दिया गया था, जिसे बढ़ाकर 15 अप्रैल कर दिया गया। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने साफ कर दिया कि अगर आपके केबल आपरेटर ने या आपने स्वयं 15 अप्रैल तक सेट टाप बाक्स नहीं लगवाया तो मनोरंजन की छुट्टी, बुद्धू बक्सा सिर्फ बक्सा ही रह जाएगा। बच्चों की गर्मियों की छुट्टी और उस पर से 'जम्पिंग जपांग' की तान-ऐसे में टीवी बंद हो जाएं तो मानों जीवन में कुछ बचा ही नहीं, इसलिए भगदड़ मच गई। 800-900 रु. का सेट टाप बाक्स 1500-1500 रु. तक में बिका, फिर भी पूरा नहीं पड़ा। देश के हजारों घर इन दिनों 'मनोरंजन' के बिना ही रह रहे हैं, क्योंकि कई महानगरों में सेट टाप बाक्स लगाने वाली कंपनियों की मनमानी और खींचतान के चलते टेलीविजन नहीं चल पा रहे हैं। जब तैयारी पूरी नहीं थी तो आखिर समय सीमा निर्धारित करने की जरूरत क्या थी? सरकार ने सेट टाप बाक्स की कालाबाजारी का अवसर क्यों प्रदान किया? और उससे भी बड़ी बात की सबको सेट टाप बाक्स लगवाना अनिवार्य ही क्यों किया गया?
दरअसल यह सारी कवायद शुरू हुई है 2006-07 से, तब एक शब्द हवा में तैरा-कैस, यानी कंडीशनल एक्सेस सिस्टम। टेलीविजन उपभोक्ताओं के ऊपर एक सुनहरा जाल फेंका गया कि अब आप जो देखना चाहें, सिर्फ उसी के पैसे दें, केबल आपरेटरों की मनमानी से मुक्ति पाएं। कहा यह भी गया केबल टेलिविजन उद्योग में बढती अव्यवस्था और उपभोक्ताओं की तरफ से लगातार आ रही शिकायतों की वजह से सरकार ने 'कैस' व्यवस्था लागू करने का निर्णय लिया। कहने को इसका उद्देश्य केबल सेवाओं में पारदर्शिता लाना है। अब केबल आपरेटर हर दूसरे महीने चैनलों की बढ़ी दर का हवाला देकर केबल कनेक्शन की राशि नहीं बढ़ाएंगे। प्रसारणकर्ताओं की यह नाराजगी भी दूर हो जाएगी कि ज्यादातर केबलआपरेटर उनके चैनलों के दर्शकों की संख्या ठीक नहीं बताते। 'कैस' लागू होने से व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी, प्रसारणकर्ता अपने चैनलों के उपभोक्ताओं की सही संख्या जान पाएंगे, क्योंकि 'सेट टाप' बक्से के जरिए ही भुगतान चैनल उन तक पहुंचेंगे। जब उन्हें अपने दर्शकों की सही संख्या पता चल जाएगी, तो वे विज्ञापनदाताओं से ठोस सबूत के आधार पर बात कर पाएंगे। अभी विज्ञापनदाता टेलीविजन 'आडियंस मानीटर' जैसी कुछ सर्वेक्षण कम्पनियों आदि की रपट के आधार पर प्रसारण कम्पनियों को विज्ञापन देते हैं और दर्शक उन्हें एक केबल कनैक्शन लेकर देखते हैं। लेकिन अब कुछ भुगतान चैनलों को दर्शक सिर्फ 'सेट टाप बक्से' के जरिए एक निश्चित राशि अदा करने के बाद ही देख सकेंगे फ्री चैनल, पेड चैनल डिजिटलाइजेशन, बेहतर तस्वीर और साफ आवाज, सरकार को मनोरंजन कर की प्राप्ति, विज्ञापनदाताओं के लिए सही दर्शक संख्या, इंटरएक्टिव टीवी और जो देखो उसके ही पैसे दो की कवायद में सरकार ने एक बड़ा खेल खेला और वह उसमें सफल भी होती दिख रही है। वह यह कि देश के हजारों-लाखों केबल आपरेटरों की बजाय अब उसे सिर्फ 5 प्रमुख केबल आपरेटर्स को ही नियंत्रित करना पड़ेगा। पहले केबल आपरेटर स्वतंत्र थे, उनकी छतरी पर उपग्रह से सीधे एनालॉग सिग्नल आते थे और वे तारों (केबल) के द्वारा उपभोक्ता तक पहुंचाते थे। शहर में साम्प्रदायिक हिंसा आदि किसी विषमपरिस्थिति में यदि उस पर नियंत्रण करना होता था तो प्रशासन निर्देशित करता था और पूरा प्रसारण ठप। पता चल जाती थी शासन प्रशासन की मंशा। पर अब सरकार चाहे और सिर्फ 5 आपरेटर्स की बांह मरोड़ दे और इशारा कर दे कि फलां फलां चैनल का प्रसारण कुछ समय के लिए ठप कर दो, क्योंकि वह सरकार के विरुद्ध ज्यादा जहर उगल रहे हैं, तो सिर्फ वही चैनल आप नहीं देख पाएंगे। आपको पता भी नहीं चलेगा और 'सेंसरशिप' लागू हो जाएगी। कैस सिस्टम के अन्तर्गत सैप टाप बाक्स लगवाना अनिवार्य किए जाने के पीछे उपजी इस आशंका को अब दरकिनार नहीं किया जा सकता। अभी तो यह शुरुआती दौर है। पहले 4 महानगरों (दिल्ली, मुम्बई, चेन्नै, बेंगलूरु) के बाद अब 38 महानगरों में कैस प्रणाली लागू हो गयी है। इसके बाद अब नगरों, फिर उपनगरों और गांव तक जाने की तैयारी है। इस प्रणाली के पूरी तरह लागू हो जाने के बाद सरकार को उपभोक्ताओं की सही संख्या तो पता चलेगी ही, उसे पूरा मनोरंजन शुल्क भी मिलेगा। पर इससे अधिक उसे वह ताकत भी मिलने की आशंका है, जिसे वह प्रसार माध्यमों पर अपने नियंत्रण के लिए जरूरी समझती है।
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