Tuesday, 28 May 2013

"नेहरू-गाँधी राजवंश की असलियत”

नेहरू-गाँधी राजवंश (?) की असलियत”…इसको पढने से हमें यह समझ में आता है कि कैसे सत्ता शिखरों पर सडाँध फ़ैली हुई है और इतिहास को कैसे तोडा-मरोडा जा सकता है, कैसे आम जनता को सत्य से वंचित रखा जा सकता है । हम इतिहास के बारे में उतना ही जानते हैं जितना कि वह हमें सत्ताधीशों द्वारा बताया जाता है, समझाया जाता है (बल्कि कहना चाहिये पीढी-दर-पीढी गले उतारा जाता है) । फ़िर एक समय आता है जब हम उसे ही सच समझने लगते हैं क्योंकि वाद-विवाद की कोई गुंजाईश ही नहीं छोडी जाती । हमारे वामपंथी मित्र इस मामले में बडे़ पहुँचे हुए उस्ताद हैं, यह उनसे सीखना चाहिये कि कैसे किताबों में फ़ेरबदल करके अपनी विचारधारा को कच्चे दिमागों पर थोपा जाये, कैसे जेएनयू और आईसीएचआर जैसी संस्थाओं पर कब्जा करके वहाँ फ़र्जी विद्वान भरे जायें और अपना मनचाहा इतिहास लिखवाया जाये..कैसे मीडिया में अपने आदमी भरे जायें और हिन्दुत्व, भारत, भारतीय संस्कृति को गरियाया जाये…ताकि लोगों को असली और सच्ची बात कभी पता ही ना चले… हम और आप तो इस खेल में कहीं भी नहीं हैं, एक पुर्जे मात्र हैं जिसकी कोई अहमियत नहीं (सिवाय एक ब्लोग लिखने और भूल जाने के)…तो किस्सा-ए-गाँधी परिवार शुरु होता है साहेबान…शुरुआत होती है “गंगाधर” (गंगाधर नेहरू नहीं), यानी मोतीलाल नेहरू के पिता से । नेहरू उपनाम बाद में मोतीलाल ने खुद लगा लिया था, जिसका शाब्दिक अर्थ था “नहर वाले”, वरना तो उनका नाम होना चाहिये था “मोतीलाल धर”, लेकिन जैसा कि इस खानदान की नाम बदलने की आदत थी उसी के मुताबिक उन्होंने यह किया । रॉबर्ट हार्डी एन्ड्रूज की किताब “ए लैम्प फ़ॉर इंडिया – द स्टोरी ऑफ़ मदाम पंडित” में उस तथाकथित गंगाधर का चित्र छपा है, जिसके अनुसार गंगाधर असल में एक सुन्नी मुसलमान था, जिसका असली नाम गयासुद्दीन गाजी था. लोग सोचेंगे कि यह खोज कैसे हुई ?
दरअसल नेहरू ने खुद की आत्मकथा में एक जगह लिखा था कि उनके दादा अर्थात मोतीलाल के पिता गंगा धर थे, ठीक वैसा ही जवाहर की बहन कृष्णा ने भी एक जगह लिखा है कि उनके दादाजी मुगल सल्तनत (बहादुरशाह जफ़र के समय) में नगर कोतवाल थे. अब इतिहासकारों ने खोजबीन की तो पाया कि बहादुरशाह जफ़र के समय कोई भी हिन्दू इतनी महत्वपूर्ण ओहदे पर नहीं था..और खोजबीन पर पता चला कि उस वक्त के दो नायब कोतवाल हिन्दू थे नाम थे भाऊ सिंह और काशीनाथ, जो कि लाहौरी गेट दिल्ली में तैनात थे, लेकिन किसी गंगा धर नाम के व्यक्ति का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला (मेहदी हुसैन की पुस्तक : बहादुरशाह जफ़र और १८५७ का गदर, १९८७ की आवृत्ति), रिकॉर्ड मिलता भी कैसे, क्योंकि गंगा धर नाम तो बाद में अंग्रेजों के कहर से डर कर बदला गया था, असली नाम तो था “गयासुद्दीन गाजी” । जब अंग्रेजों ने दिल्ली को लगभग जीत लिया था,तब मुगलों और मुसलमानों के दोबारा विद्रोह के डर से उन्होंने दिल्ली के सारे हिन्दुओं और मुसलमानों को शहर से बाहर करके तम्बुओं में ठहरा दिया था (जैसे कि आज कश्मीरी पंडित रह रहे हैं), अंग्रेज वह गलती नहीं दोहराना चाहते थे, जो हिन्दू राजाओं (पृथ्वीराज चौहान ने) ने मुसलमान आक्रांताओं को जीवित छोडकर की थी, इसलिये उन्होंने चुन-चुन कर मुसलमानों को मारना शुरु किया, लेकिन कुछ मुसलमान दिल्ली से भागकर पास के इलाकों मे चले गये थे । उसी समय यह परिवार भी आगरा की तरफ़ कूच कर गया…हमने यह कैसे जाना ? नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आगरा जाते समय उनके दादा गंगा धर को अंग्रेजों ने रोक कर पूछताछ की थी, लेकिन तब गंगा धर ने उनसे कहा था कि वे मुसलमान नहीं हैं, बल्कि कश्मीरी पंडित हैं और अंग्रेजों ने उन्हें आगरा जाने दिया… बाकी तो इतिहास है ही । यह “धर” उपनाम कश्मीरी पंडितों में आमतौर पाया जाता है, और इसी का अपभ्रंश होते-होते और धर्मान्तरण होते-होते यह “दर” या “डार” हो गया जो कि कश्मीर के अविभाजित हिस्से में आमतौर पाया जाने वाला नाम है । लेकिन मोतीलाल ने नेहरू नाम चुना ताकि यह पूरी तरह से हिन्दू सा लगे । इतने पीछे से शुरुआत करने का मकसद सिर्फ़ यही है कि हमें पता चले कि “खानदानी” लोग क्या होते हैं । कहा जाता है कि आदमी और घोडे़ को उसकी नस्ल से पहचानना चाहिये, प्रत्येक व्यक्ति और घोडा अपनी नस्लीय विशेषताओं के हिसाब से ही व्यवहार करता है, संस्कार उसमें थोडा सा बदलाव ला सकते हैं, लेकिन उसका मूल स्वभाव आसानी से बदलता नहीं है…. फ़िलहाल गाँधी-नेहरू परिवार पर फ़ोकस…
अपनी पुस्तक “द नेहरू डायनेस्टी” में लेखक के.एन.राव लिखते हैं….ऐसा माना जाता है कि जवाहरलाल, मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे और मोतीलाल के पिता का नाम था गंगाधर । यह तो हम जानते ही हैं कि जवाहरलाल की एक पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू । कमला नेहरू उनकी माता का नाम था, जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी । कमला शुरु से ही इन्दिरा के फ़िरोज से विवाह के खिलाफ़ थीं… क्यों ? यह हमें नहीं बताया जाता…लेकिन यह फ़िरोज गाँधी कौन थे ? फ़िरोज उस व्यापारी के बेटे थे, जो “आनन्द भवन” में घरेलू सामान और शराब पहुँचाने का काम करता था…नाम… बताता हूँ…. पहले आनन्द भवन के बारे में थोडा सा… आनन्द भवन का असली नाम था “इशरत मंजिल” और उसके मालिक थे मुबारक अली… मोतीलाल नेहरू पहले इन्हीं मुबारक अली के यहाँ काम करते थे…खैर…हममें से सभी जानते हैं कि राजीव गाँधी के नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के नाना के साथ ही दादा भी तो होते हैं… और अधिकतर परिवारों में दादा और पिता का नाम ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, बजाय नाना या मामा के… तो फ़िर राजीव गाँधी के दादाजी का नाम क्या था…. किसी को मालूम है ? नहीं ना… ऐसा इसलिये है, क्योंकि राजीव गाँधी के दादा थे नवाब खान, एक मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाय करता था और जिसका मूल निवास था जूनागढ गुजरात में… नवाब खान ने एक पारसी महिला से शादी की और उसे मुस्लिम बनाया… फ़िरोज इसी महिला की सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम था “घांदी” (गाँधी नहीं)… घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था…विवाह से पहले फ़िरोज गाँधी ना होकर फ़िरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली कारण भी यही था…हमें बताया जाता है कि राजीव गाँधी पहले पारसी थे… यह मात्र एक भ्रम पैदा किया गया है । इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का शिकार थीं । शांति निकेतन में पढते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित व्यवहार के लिये निकाल बाहर किया था… अब आप खुद ही सोचिये… एक तन्हा जवान लडकी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया पर पडी़ हुई हों… थोडी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी, और विपरीत लिंग की ओर क्यों ना आकर्षित होगी ? इसी बात का फ़ायदा फ़िरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को बहला-फ़ुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली (नाम रखा “मैमूना बेगम”) । नेहरू को पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए, लेकिन अब क्या किया जा सकता था…जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को मिली तो उन्होंने ताबडतोड नेहरू को बुलाकर समझाया, राजनैतिक छवि की खातिर फ़िरोज को मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले.. यह एक आसान काम था कि एक शपथ पत्र के जरिये, बजाय धर्म बदलने के सिर्फ़ नाम बदला जाये… तो फ़िरोज खान (घांदी) बन गये फ़िरोज गाँधी । और विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले और “सत्य के साथ मेरे प्रयोग” लिखने वाले गाँधी ने इस बात का उल्लेख आज तक कहीं नहीं किया, और वे महात्मा भी कहलाये…खैर… उन दोनों (फ़िरोज और इन्दिरा) को भारत बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुनः वैदिक रीति से उनका विवाह करवाया गया, ताकि उनके खानदान की ऊँची नाक (?) का भ्रम बना रहे । इस बारे में नेहरू के सेक्रेटरी एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक “रेमेनिसेन्सेस ऑफ़ थे नेहरू एज” (पृष्ट ९४ पैरा २) (अब भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित) में लिखते हैं कि “पता नहीं क्यों नेहरू ने सन १९४२ में एक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी, जबकि उस समय यह अवैधानिक था, कानूनी रूप से उसे “सिविल मैरिज” होना चाहिये था” । यह तो एक स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ समय बाद इन्दिरा और फ़िरोज अलग हो गये थे, हालाँकि तलाक नहीं हुआ था । फ़िरोज गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान किया करते थे, और नेहरू की राजनैतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे । तंग आकर नेहरू ने फ़िरोज का “तीन मूर्ति भवन” मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । मथाई लिखते हैं फ़िरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को बडी़ राहत मिली थी । १९६० में फ़िरोज गाँधी की मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी, जबकि वह दूसरी शादी रचाने की योजना बना चुके थे । अपुष्ट सूत्रों, कुछ खोजी पत्रकारों और इन्दिरा गाँधी के फ़िरोज से अलगाव के कारण यह तथ्य भी स्थापित हुआ कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी (या श्रीमती फ़िरोज खान) का दूसरा बेटा अर्थात संजय गाँधी, फ़िरोज की सन्तान नहीं था, संजय गाँधी एक और मुस्लिम मोहम्मद यूनुस का बेटा था । संजय गाँधी का असली नाम दरअसल संजीव गाँधी था, अपने बडे भाई राजीव गाँधी से मिलता जुलता । लेकिन संजय नाम रखने की नौबत इसलिये आई क्योंकि उसे लन्दन पुलिस ने इंग्लैण्ड में कार चोरी के आरोप में पकड़ लिया था और उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया था । ब्रिटेन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने तब मदद करके संजीव गाँधी का नाम बदलकर नया पासपोर्ट संजय गाँधी के नाम से बनवाया था (इन्हीं कृष्ण मेनन साहब को भ्रष्टाचार के एक मामले में नेहरू और इन्दिरा ने बचाया था) । अब संयोग पर संयोग देखिये… संजय गाँधी का विवाह “मेनका आनन्द” से हुआ… कहाँ… मोहम्मद यूनुस के घर पर (है ना आश्चर्य की बात)… मोहम्मद यूनुस की पुस्तक “पर्सन्स, पैशन्स एण्ड पोलिटिक्स” में बालक संजय का इस्लामी रीतिरिवाजों के मुताबिक खतना बताया गया है, हालांकि उसे “फ़िमोसिस” नामक बीमारी के कारण किया गया कृत्य बताया गया है, ताकि हम लोग (आम जनता) गाफ़िल रहें…. मेनका जो कि एक सिख लडकी थी, संजय की रंगरेलियों की वजह से गर्भवती हो गईं थीं और फ़िर मेनका के पिता कर्नल आनन्द ने संजय को जान से मारने की धमकी दी थी, फ़िर उनकी शादी हुई और मेनका का नाम बदलकर “मानेका” किया गया, क्योंकि इन्दिरा गाँधी को “मेनका” नाम पसन्द नहीं था (यह इन्द्रसभा की नृत्यांगना टाईप का नाम लगता था), पसन्द तो मेनका, मोहम्मद यूनुस को भी नहीं थी क्योंकि उन्होंने एक मुस्लिम लडकी संजय के लिये देख रखी थी । फ़िर भी मेनका कोई साधारण लडकी नहीं थीं, क्योंकि उस जमाने में उन्होंने बॉम्बे डाईंग के लिये सिर्फ़ एक तौलिये में विज्ञापन किया था । आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि संजय गाँधी अपनी माँ को ब्लैकमेल करते थे और जिसके कारण उनके सभी बुरे कृत्यों पर इन्दिरा ने हमेशा परदा डाला और उसे अपनी मनमानी करने की छूट दी । ऐसा प्रतीत होता है कि शायद संजय गाँधी को उसके असली पिता का नाम मालूम हो गया था और यही इन्दिरा की कमजोर नस थी, वरना क्या कारण था कि संजय के विशेष नसबन्दी अभियान (जिसका मुसलमानों ने भारी विरोध किया था) के दौरान उन्होंने चुप्पी साधे रखी, और संजय की मौत के तत्काल बाद काफ़ी समय तक वे एक चाभियों का गुच्छा खोजती रहीं थी, जबकि मोहम्मद यूनुस संजय की लाश पर दहाडें मार कर रोने वाले एकमात्र बाहरी व्यक्ति थे…। (संजय गाँधी के तीन अन्य मित्र कमलनाथ, अकबर अहमद डम्पी और विद्याचरण शुक्ल, ये चारों उन दिनों “चाण्डाल चौकडी” कहलाते थे… इनकी रंगरेलियों के किस्से तो बहुत मशहूर हो चुके हैं जैसे कि अंबिका सोनी और रुखसाना सुलताना [अभिनेत्री अमृता सिंह की माँ] के साथ इन लोगों की विशेष नजदीकियाँ….)एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक के पृष्ठ २०६ पर लिखते हैं – “१९४८ में वाराणसी से एक सन्यासिन दिल्ली आई जिसका काल्पनिक नाम श्रद्धा माता था । वह संस्कृत की विद्वान थी और कई सांसद उसके व्याख्यान सुनने को बेताब रहते थे । वह भारतीय पुरालेखों और सनातन संस्कृति की अच्छी जानकार थी । नेहरू के पुराने कर्मचारी एस.डी.उपाध्याय ने एक हिन्दी का पत्र नेहरू को सौंपा जिसके कारण नेहरू उस सन्यासिन को एक इंटरव्यू देने को राजी हुए । चूँकि देश तब आजाद हुआ ही था और काम बहुत था, नेहरू ने अधिकतर बार इंटरव्य़ू आधी रात के समय ही दिये । मथाई के शब्दों में – एक रात मैने उसे पीएम हाऊस से निकलते देखा, वह बहुत ही जवान, खूबसूरत और दिलकश थी – । एक बार नेहरू के लखनऊ दौरे के समय श्रध्दामाता उनसे मिली और उपाध्याय जी हमेशा की तरह एक पत्र लेकर नेहरू के पास आये, नेहरू ने भी उसे उत्तर दिया, और अचानक एक दिन श्रद्धा माता गायब हो गईं, किसी के ढूँढे से नहीं मिलीं । नवम्बर १९४९ में बेंगलूर के एक कॉन्वेंट से एक सुदर्शन सा आदमी पत्रों का एक बंडल लेकर आया । उसने कहा कि उत्तर भारत से एक युवती उस कॉन्वेंट में कुछ महीने पहले आई थी और उसने एक बच्चे को जन्म दिया । उस युवती ने अपना नाम पता नहीं बताया और बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद ही उस बच्चे को वहाँ छोडकर गायब हो गई थी । उसकी निजी वस्तुओं में हिन्दी में लिखे कुछ पत्र बरामद हुए जो प्रधानमन्त्री द्वारा लिखे गये हैं, पत्रों का वह बंडल उस आदमी ने अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया ।
मथाई लिखते हैं – मैने उस बच्चे और उसकी माँ की खोजबीन की काफ़ी कोशिश की, लेकिन कॉन्वेंट की मुख्य मिस्ट्रेस, जो कि एक विदेशी महिला थी, बहुत कठोर अनुशासन वाली थी और उसने इस मामले में एक शब्द भी किसी से नहीं कहा…..लेकिन मेरी इच्छा थी कि उस बच्चे का पालन-पोषण मैं करुँ और उसे रोमन कैथोलिक संस्कारों में बडा करूँ, चाहे उसे अपने पिता का नाम कभी भी मालूम ना हो…. लेकिन विधाता को यह मंजूर नहीं था…. खैर… हम बात कर रहे थे राजीव गाँधी की…जैसा कि हमें मालूम है राजीव गाँधी ने, तूरिन (इटली) की महिला सानिया माईनो से विवाह करने के लिये अपना तथाकथित पारसी धर्म छोडकर कैथोलिक ईसाई धर्म अपना लिया था । राजीव गाँधी बन गये थे रोबेर्तो और उनके दो बच्चे हुए जिसमें से लडकी का नाम था “बियेन्का” और लडके का “रॉल” । बडी ही चालाकी से भारतीय जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिये राजीव-सोनिया का हिन्दू रीतिरिवाजों से पुनर्विवाह करवाया गया और बच्चों का नाम “बियेन्का” से बदलकर प्रियंका और “रॉल” से बदलकर राहुल कर दिया गया… बेचारी भोली-भाली आम जनता !
प्रधानमन्त्री बनने के बाद राजीव गाँधी ने लन्दन की एक प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में अपने-आप को पारसी की सन्तान बताया था, जबकि पारसियों से उनका कोई लेना-देना ही नहीं था, क्योंकि वे तो एक मुस्लिम की सन्तान थे जिसने नाम बदलकर पारसी उपनाम रख लिया था । हमें बताया गया है कि राजीव गाँधी केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के स्नातक थे, यह अर्धसत्य है… ये तो सच है कि राजीव केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में मेकेनिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे, लेकिन उन्हें वहाँ से बिना किसी डिग्री के निकलना पडा था, क्योंकि वे लगातार तीन साल फ़ेल हो गये थे… लगभग यही हाल सानिया माईनो का था…हमें यही बताया गया है कि वे भी केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की स्नातक हैं… जबकि सच्चाई यह है कि सोनिया स्नातक हैं ही नहीं, वे केम्ब्रिज में पढने जरूर गईं थीं लेकिन केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में नहीं । सोनिया गाँधी केम्ब्रिज में अंग्रेजी सीखने का एक कोर्स करने गई थी, ना कि विश्वविद्यालय में (यह बात हाल ही में लोकसभा सचिवालय द्वारा माँगी गई जानकारी के तहत खुद सोनिया गाँधी ने मुहैया कराई है, उन्होंने बडे ही मासूम अन्दाज में कहा कि उन्होंने कब यह दावा किया था कि वे केम्ब्रिज की स्नातक हैं, अर्थात उनके चमचों ने यह बेपर की उडाई थी)। क्रूरता की हद तो यह थी कि राजीव का अन्तिम संस्कार हिन्दू रीतिरिवाजों के तहत किया गया, ना ही पारसी तरीके से ना ही मुस्लिम तरीके से । इसी नेहरू खानदान की भारत की जनता पूजा करती है, एक इटालियन महिला जिसकी एकमात्र योग्यता यह है कि वह इस खानदान की बहू है आज देश की सबसे बडी पार्टी की कर्ताधर्ता है और “रॉल” को भारत का भविष्य बताया जा रहा है । मेनका गाँधी को विपक्षी पार्टियों द्वारा हाथोंहाथ इसीलिये लिया था कि वे नेहरू खानदान की बहू हैं, इसलिये नहीं कि वे कोई समाजसेवी या प्राणियों पर दया रखने वाली हैं….और यदि कोई सानिया माइनो की तुलना मदर टेरेसा या एनीबेसेण्ट से करता है तो उसकी बुद्धि पर तरस खाया जा सकता है और हिन्दुस्तान की बदकिस्मती पर सिर धुनना ही होगा…

Saturday, 25 May 2013

अपने महान हिंदू धर्म कि महान विरासत को

हमारे ऋषि-मुनियों ने कठोर तपस्याएं कि जिनके परिणामस्वरूप उन्हें ईश्वर का दर्शन हुआ और ईश्वर द्वारा उसकी इस सृष्टि के जीवन-मरण के अदभुत चक्र का ज्ञान प्राप्त हुआ तथा अनेक सिद्धियाँ (शक्तियाँ ) प्राप्त हुई जिनका प्रयोग करके उन्होनें ब्रह्मांड आदि के भी अनेक रहस्यों को जाना |


इस सारे ज्ञान को उन्होनें अपनी अगली पीढ़ी को सौंपा ,उस अगली पीढ़ी ने अपनी अगली पीढ़ी को वो ज्ञान ट्रांसफर किया ,ध्यान रहे यह सब मौखिक और क्रिया रूप में किया जाता रहा ना कि लिखित रूप में क्योंकि उस समय के हमारे भारतवासियों कि स्मरण शक्ति इतनी अधिक थी कि उन्हें उसे लिखकर याद रखने कि आवश्यकता नहीं थी ,गुरु अपने शिष्यों को मौखित रूप में ही सब कुछ बता देते थे और साक्षात् उसे सारी क्रियाओं का दर्शन देके और करवाकर उसे उसमें पारंगत कर देते थे यानी Oral Theory + Practical ये आज से हजारों से हजारों साल पुराना समय था |


ऐसा अनेकों वर्षों तक चलता रहा ,बाद में धीरे-२ प्रकर्ति में कुछ परिवर्तन आने शुरू हुए जिनका अच्छा-बुरा असर हम भारतवासियों पर भी पढ़ा और हमारी स्मरणशक्ति में थोड़ी कमी आनी शुरू हुई | अब वह पहले जितनी तीक्ष्ण नहीं रही थी ,केवल उदहारण के तौर ( यद्यपि असल संख्या बहुत ज्यादा थी ) पर अगर पुरानी पीढ़ी ने उस ज्ञान के एक लाख श्लोक नई पीढ़ी को बताए तो नई पीढ़ी केवल उसका 98% ही हुबहू रूप ग्रहण कर पाई ,बाकी 2 % को भी उसने किया जरूर परन्तु थोड़ी सी गडबड़ी के साथ | इतने विराट और अधिक ज्ञान को वैसा का वैसा याद रखने में कठिनाई महसूस कि जाने लगी |


अचानक आ रहे इस परिवर्तन को उस समय के महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने समझ लिया और उन्हें चिंता हुई कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो आने वाली पीढ़ियों के लिए यह विलक्षण ज्ञान नष्ट हो जाएगा या अगर उन तक पहुंचेगा भी तो वो गलत ,तोड़ा-मरोड़ा ,त्रुटिपूर्ण होगा जिससे कि धर्म पर अनास्था बढ़ेगी |


तो इस समस्या पर गहनतापूर्वक विचार करके उन्हें ये महसूस हुआ कि अब खाली मौखिक रूप से यह ज्ञान अगली पीढ़ी तक बिलकुल शुद्ध रूप में पहुंचाना सम्भव नहीं इसलिए उन्होनें इस ज्ञान को लिपिबद्ध यानी लिखित रूप में संजोकर अगली पीढ़ी दर पीढ़ी तक पहुंचाने का निर्णय किया |


ऐसा करने के लिए उन्होनें इस सारे ज्ञान को इकट्ठा करके उसे चार हिस्सों में बाँट दिया और उसे चार किताबों में लिख दिया | ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद और अथर्वेद | वेद का शाब्दिक अर्थ है ज्ञान | वेद का चार रूपों में ऐसा विभाजन करने के कारण ही महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास जी वेद-व्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए


प्रत्येक वेद-पुस्तक में वेद-व्यास जी ने मुख्यतः तीन खंड बनाए -


पहले खंड में श्लोक रूपी वे कवितायें डाली गई हैं जिनमें प्रकृति को उस ईश्वर का ही साक्षात् मौजूद स्वरूप मानकर उसकी उपासना कि गई है | यही कारण है कि उस समय ये ग्लोबल-वार्मिंग जैसी समस्याएं उत्पन्न नहीं होती थी क्योंकि उस समय मानव ने प्रकृति का शोषण नहीं किया क्योंकि वे प्रत्येक कण में ईश्वर का वास मानते थे जिसके कारण वे जानते थे कि हमें प्रकृति से केवल अपनी आवश्यकता तक का ही लेने का हक है परन्तु उससे अधिक लेकर उसका शोषण करके अन्य जीव-जन्तुओं तथा आने वाली पीढ़ी के जीवन को खतरे में डालने का हक हमें नहीं है | दुनिया के अनेक विद्वानों और विचारकों ने स्वयं इस बात को माना है कि इस खंड में जो कवितायें दी हुई हैं वे कविता कि दृष्टि से हर मापदंड में इतनी अधिक perfect हैं कि आज कि कविताओं कि उनके सामने कोई तुलना नहीं हो सकती |


दूसरे खंड में उन्होनें कर्म-कांड कि विधियाँ डाली हैं | इस कर्म-कांड के विषय में ये विवाद हो सकता है कि क्या इनसे वाकई कुछ लाभ होता है | उदहारण के तौर पर धन-तेरस में हमारे यहाँ कोई ना कोई बर्तन खरीद कर लाने का विधान है इस उम्मीद में कि इससे हमारे घर में धन कि वृद्धि होगी | अब असल में इस सबसे हमें कुछ फायदा होता हो या ना होता हो परन्तु क्या हमने कभी सोचा है कि इन त्योहारों में बताए गए सामान कि खरीददारी करने से उसे बनाने वाले कितने हजारों गरीब लोगों को स्वरोजगार एवं आमदानी कि सम्भावना खड़ी होती है | और बहुत सी कर्म-कांड कि विधियों के तो कई ऐसे वैज्ञानिक प्रमाण भी साबित हुए हैं जिनके अनुसार उससे हमारे आसपास के वातावरण पर काफी अच्छा असर पड़ता है और नकारत्मक उर्जा दूर होकर सकारात्मक उर्जा निर्माण होती है |

तीसरे और अंतिम खंड में उन्होनें स्वयं को जानने का ,इस सृष्टि एवं ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने का ,इस जीवन-मरण के चक्र को जानने इत्यादि का वह विलक्षण ज्ञान डाला जिसे पाने के लिए आज हम सभी लालियत रहते हैं कि आखिर हमारे जीवन का उदेश्य क्या है ,ईश्वर ने हमें क्यों इस धरती पर भेजा आदि आदि | हिंदू धर्म के इस रहस्यमयी ज्ञान को अथवा इस तीसरे खंड को ‘’ उपनिषदों ‘’ के नाम से भी जाना जाता है और ‘’ वेदान्त ‘’ के नाम से भी | वेदान्त के नाम से इसलिए क्योंकि यह वेद का अंतिम खंड है जिसके पश्चात इस वेद-पुस्तक का अंत होता है इसलिए इसे कहा गया ‘’ वेदान्त ‘’ | और उपनिषद नाम इसलिए क्योंकि इसमें मौजूद ज्ञान को शिष्य गुरुकुल में अपने गुरु के समीप बैठकर ग्रहण करते थे | उप का मतलब पास में ,नि का मतलब नीचे और षद का मतलब बैठकर यानी के गुरु के समीप नीचे बैठकर एकाग्रता पूर्वक ग्रहण किया गया अदभुत ज्ञान जो कि संस्कृत रूप में कहलाया ‘’ उपनिषद ‘’ |

Thursday, 23 May 2013

सरकार की मंशा से उभरी आशंका

हिन्दी क्षेत्र में, विशेषकर उत्तर प्रदेश में एक प्रचलित कहावत है-
जबरिया मारे, रोबन भी दे
अर्थात कोई किसी को जबरदस्ती मारे, उसे दर्द हो तो उसे रोने भी न दे। लगता है केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की यही मंशा है। सरकार घोटाले पर घोटाले करती रहे पर न आप शोर करिए, न जांच हो। सरकार की गलत नीतियों से महंगाई बढ़े, जनता दर्द से कराहे, पर उनके प्रदर्शन हों तो पुलिस उनपर लाठी बराए। संसद में घोटालों और नाकामियों के मुद्दे न उठें, इसीलिए वहां भी हंगामा। इस सबके बीच इंटरनेट के माध्यम से एक नई मुहिम शुरू हुई-सोशल नेटवर्क, तो उसकी साइट्स पर भी सरकार की तिरछी नजर है। सन् 2011 में योगगुरू स्वामी रामदेव व समाजसेवी अण्णा हजारे के आंदोलन के समय सरकार के हाथ-पांव फूल गए थे। उसे लगा कि इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स के कारण ही हंगामा बरपा है।
उस समय सरकार और उसके बड़बोले संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने इन साइट्स को नियंत्रित करने के नाम पर उनको दबाने का भी प्रयास किया। फेसबुक, ट्विटर पर पढ़ी-लिखी जनता अपने मन की बात भी न कह सके, इसके लिए असम हिंसा की आड़ लेकर उन्हें प्रतिबंधित करने की पूरी तैयारी थी, पर बात नहीं बनी। उसके बाद से सूचना प्रौद्योगिकी कानून का जमकर दुरुपयोग किया गया। फेसबुक, ट्विटर पर किसी नेता या सम्प्रदाय के विरुद्ध टिप्पणी करने वालों को बिना पूरी प्रक्रिया के जेल की हवा खानी पड़ी। महाराष्ट्र की दो युवतियों की ऐसे ही एक मामले में गिरफ्तारी से आईटीएक्ट की धारा 66ए के दुरुपयोग की बात सामने आई तो चौतरफा निंदा हुई। आनन फानन में उन युवतियों को छोड़ा गया, न्यायालय ने भी फटकारा और केन्द्र सरकार को उस संबंध में दिशा निर्देश जारी करने पड़े।
पर जब सारा जोर चोर-चोर के शोर को दबाने पर लगा हो तो कानून ऐसे बनाए जाते हैं या इस तरह तोड़-मरोड़े जाते हैं जिससे जनता की आवाज गले में ही घुटकर रह जाए। आंध्र प्रदेश की पुलिस ने भी ऐसी ही एक आवाज का गला घोंट दिया था। गैरसरकारी संगठन की कार्यकर्त्ता जया विंध्यालया ने फेसबुक पर प्रदेश के राज्यपाल और एक विधायक के खिलाफ कड़ी टिप्पणी कर दी, जिसे इन दोनों ने आपत्तिजनक माना और शिकायत होते ही जया पहुंच गई सलाखों के पीछे। इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचाने वाली श्रेया सिंघल की एक याचिका का निपटारा करते हुए न्यायाधीश बी.एस.चौहान और न्यायाधीश दीपक मिश्रा की खंडपीठ ने गत 16 मई को दिए निर्देश में साफ कर दिया कि ऐसे मामलों में सोच समझकर कार्रवाई की जाए। न्यायालय ने आईटी एक्ट की धारा 66(ए) पर पूरी तरह से रोक लगाने से तो इनकार कर दिया और उसकी वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका का अलग से निपटारा करने को कहा, पर यह भी साफ-साफ कहा कि सोशल साइट्स पर आपत्तिजनक टिप्पणी के मामलों में किसी की गिरफ्तारी से पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की अनुमति आवश्यक होगी। जिले के पुलिस अधीक्षक, क्षेत्र के महानिरीक्षक आदि की अनुमति के बिना आईटी एक्ट की धारा 66(ए) के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार न किया जाए।
इधर वर्तमान सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी भी गाहे-बगाहे मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर टिप्पणी कर रहे हैं। स्वामी रामदेव एवं अण्णा हजारे के आंदोलन के समय मीडिया का सुर सरकार के विरुद्ध था। पर अचानक ऐसा कुछ हुआ कि कुछ चैनलों और अखबारों के तेवर ढीले पड़ गए और जनजागरण में लगे इन दोनों योद्धाओं के आंदोलन के उद्देश्यों पर आशंकाओं के तीर छोड़ जाने लगे। इसके पीछे सरकार की इस सलाह का दबाव भी माना जा रहा था कि मीडिया को आत्मनियंत्रण के लिए स्वयं एक तंत्र बनाना चाहिए। पर वस्तुत: आत्म नियंत्रण की सलाह के पीछे सरकारी नियंत्रण का संदेश साफ-साफ प्रतिध्वनित हो रहा था।
जनता से संवाद के एक और सबसे सशक्त माध्यम टेलीविजन पर भी सरकारी नियंत्रण की पदचाप धीरे-धीरे सुनाई देने लगी है। पिछले कुछ दिनों तक देश के 38 महानगरों में हाहाकार मचा हुआ था और सब तरफ 'सेट टाप बाक्स, सेट टाप बाक्स' का शोर सुनाई दे रहा है। इन 38 महानगरों के टेलीविजन उपभोक्ताओं को 31 मार्च तक सेट टाप बाक्स लगवाना अनिवार्य कर दिया गया था, जिसे बढ़ाकर 15 अप्रैल कर दिया गया। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने साफ कर दिया कि अगर आपके केबल आपरेटर ने या आपने स्वयं 15 अप्रैल तक सेट टाप बाक्स नहीं लगवाया तो मनोरंजन की छुट्टी, बुद्धू बक्सा सिर्फ बक्सा ही रह जाएगा। बच्चों की गर्मियों की छुट्टी और उस पर से 'जम्पिंग जपांग' की तान-ऐसे में टीवी बंद हो जाएं तो मानों जीवन में कुछ बचा ही नहीं, इसलिए भगदड़ मच गई। 800-900 रु. का सेट टाप बाक्स 1500-1500 रु. तक में बिका, फिर भी पूरा नहीं पड़ा। देश के हजारों घर इन दिनों 'मनोरंजन' के बिना ही रह रहे हैं, क्योंकि कई महानगरों में सेट टाप बाक्स लगाने वाली कंपनियों की मनमानी और खींचतान के चलते टेलीविजन नहीं चल पा रहे हैं। जब तैयारी पूरी नहीं थी तो आखिर समय सीमा निर्धारित करने की जरूरत क्या थी? सरकार ने सेट टाप बाक्स की कालाबाजारी का अवसर क्यों प्रदान किया? और उससे भी बड़ी बात की सबको सेट टाप बाक्स लगवाना अनिवार्य ही क्यों किया गया?
दरअसल यह सारी कवायद शुरू हुई है 2006-07 से, तब एक शब्द हवा में तैरा-कैस, यानी कंडीशनल एक्सेस सिस्टम। टेलीविजन उपभोक्ताओं के ऊपर एक सुनहरा जाल फेंका गया कि अब आप जो देखना चाहें, सिर्फ उसी के पैसे दें, केबल आपरेटरों की मनमानी से मुक्ति पाएं। कहा यह भी गया केबल टेलिविजन उद्योग में बढती अव्यवस्था और उपभोक्ताओं की तरफ से लगातार आ रही शिकायतों की वजह से सरकार ने 'कैस' व्यवस्था लागू करने का निर्णय लिया। कहने को इसका उद्देश्य केबल सेवाओं में पारदर्शिता लाना है। अब केबल आपरेटर हर दूसरे महीने चैनलों की बढ़ी दर का हवाला देकर केबल कनेक्शन की राशि नहीं बढ़ाएंगे। प्रसारणकर्ताओं की यह नाराजगी भी दूर हो जाएगी कि ज्यादातर केबलआपरेटर उनके चैनलों के दर्शकों की संख्या ठीक नहीं बताते। 'कैस' लागू होने से व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी, प्रसारणकर्ता अपने चैनलों के उपभोक्ताओं की सही संख्या जान पाएंगे, क्योंकि 'सेट टाप' बक्से के जरिए ही भुगतान चैनल उन तक पहुंचेंगे। जब उन्हें अपने दर्शकों की सही संख्या पता चल जाएगी, तो वे विज्ञापनदाताओं से ठोस सबूत के आधार पर बात कर पाएंगे। अभी विज्ञापनदाता टेलीविजन 'आडियंस मानीटर' जैसी कुछ सर्वेक्षण कम्पनियों आदि की रपट के आधार पर प्रसारण कम्पनियों को विज्ञापन देते हैं और दर्शक उन्हें एक केबल कनैक्शन लेकर देखते हैं। लेकिन अब कुछ भुगतान चैनलों को दर्शक सिर्फ 'सेट टाप बक्से' के जरिए एक निश्चित राशि अदा करने के बाद ही देख सकेंगे फ्री चैनल, पेड चैनल डिजिटलाइजेशन, बेहतर तस्वीर और साफ आवाज, सरकार को मनोरंजन कर की प्राप्ति, विज्ञापनदाताओं के लिए सही दर्शक संख्या, इंटरएक्टिव टीवी और जो देखो उसके ही पैसे दो की कवायद में सरकार ने एक बड़ा खेल खेला और वह उसमें सफल भी होती दिख रही है। वह यह कि देश के हजारों-लाखों केबल आपरेटरों की बजाय अब उसे सिर्फ 5 प्रमुख केबल आपरेटर्स को ही नियंत्रित करना पड़ेगा। पहले केबल आपरेटर स्वतंत्र थे, उनकी छतरी पर उपग्रह से सीधे एनालॉग सिग्नल आते थे और वे तारों (केबल) के द्वारा उपभोक्ता तक पहुंचाते थे। शहर में साम्प्रदायिक हिंसा आदि किसी विषमपरिस्थिति में यदि उस पर नियंत्रण करना होता था तो प्रशासन निर्देशित करता था और पूरा प्रसारण ठप। पता चल जाती थी शासन प्रशासन की मंशा। पर अब सरकार चाहे और सिर्फ 5 आपरेटर्स की बांह मरोड़ दे और इशारा कर दे कि फलां फलां चैनल का प्रसारण कुछ समय के लिए ठप कर दो, क्योंकि वह सरकार के विरुद्ध ज्यादा जहर उगल रहे हैं, तो सिर्फ वही चैनल आप नहीं देख पाएंगे। आपको पता भी नहीं चलेगा और 'सेंसरशिप' लागू हो जाएगी। कैस सिस्टम के अन्तर्गत सैप टाप बाक्स लगवाना अनिवार्य किए जाने के पीछे उपजी इस आशंका को अब दरकिनार नहीं किया जा सकता। अभी तो यह शुरुआती दौर है। पहले 4 महानगरों (दिल्ली, मुम्बई, चेन्नै, बेंगलूरु) के बाद अब 38 महानगरों में कैस प्रणाली लागू हो गयी है। इसके बाद अब नगरों, फिर उपनगरों और गांव तक जाने की तैयारी है। इस प्रणाली के पूरी तरह लागू हो जाने के बाद सरकार को उपभोक्ताओं की सही संख्या तो पता चलेगी ही, उसे पूरा मनोरंजन शुल्क भी मिलेगा। पर इससे अधिक उसे वह ताकत भी मिलने की आशंका है, जिसे वह प्रसार माध्यमों पर अपने नियंत्रण के लिए जरूरी समझती है। 

Wednesday, 22 May 2013

सत्य की निरंतर खोज का नाम ही हिन्दू-धर्म है

हिन्दू-धर्म कोई संप्रदाय या पूजा पद्धति नहीं है। हिन्दुत्व एक सांस्कृतिक धारा है जो सभी को जोड़ने का कार्य करता है। सत्य की निरंतर खोज का नाम ही हिन्दू-धर्म है। यही विचार स्वामी विवेकानन्दजी के थे, जो आज के युग में भी प्रासंगिक और आवश्यक है। उक्त विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल ने स्वामी विवेकानन्द सार्ध शती समारोह समिति द्वारा आयोजित प्रबुद्ध नागरिक सम्मेलन में व्यक्त किए।
स्वामीजी ने विदेश की धरती पर जाकर उस समय भारत के प्रति प्रचलित धारणा – भारत के लोग जंगली, बर्बर और गवांर है, को नकारा और वास्तविक भारतीय दर्शन का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि मैं उनका प्रतिनिधि हूँ जो प्राणी मात्र के सुख का चिन्तन करते हैं। भारत का दर्शन वहीं हो सकता है जिसमें सभी के कल्याण की बात हो, जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’, ‘एकम् सत विप्रा बहुधा वदन्ति’ का संदेश देता हो।
स्वामीजी ने आग्रह किया कि ‘शिव भाव से जीव सेवा’ ही भारतीयों का कर्तव्य है। ये भगवा वस्त्र, मठ, मंदिर केवल स्वयं की साधना के लिए ही नहीं है अपितु असहायों, जरूरतमंदो की सेवा करने के लिए है। तुम तभी हिन्दू कहलाने के लायक होगें जब सामने खड़ा व्यक्ति का दु:ख तुम्हें अपना लगे।
डॉ. कृष्ण गोपाल ने कहा कि समाज में फैली हुई कुरीतियों को दूर करने के लिए एक नए ग्रंथ की रचना करनी होगी। महिला शिक्षा पर जोर देना होगा। दुनिया के लोग भारतीय दर्शन को समझने लगे हैं। स्वामीजी की हम इस वर्ष 150वीं जयंती मना रहे हैं। यह विडम्बना का विषय है कि भारत में पैदा हुए युगपुरुष स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस को युवा दिवस के रूप में मनाने कि पहल यू. एन. ओ. ने की, फिर इसके बाद भारत में इसकी शुरूआत हुई। विवेकानन्दजी चाहते थे कि भारत दुनिया का नेतृत्त्व करें, किन्तु पहले भारत में रहने वाले असहाय, गरीब और जरूरतमंद की सेवा को प्रभु की भक्ति माने। उन्होंने कहा कि हिन्दू-धर्म व संस्कृति में भेदभाव का कोई स्थान नहीं है।
मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए “प्रात:काल” समाचार पत्र के मुख्य सम्पादक सुरेश गोयल ने कहा कि यह हमारे लिए बहुत गौरव की बात है कि भारत में युवाओं का प्रतिशत सर्वाधिक है और अगर हमें देश को आगे बढ़ाना है तो इस सामर्थ्यवान युवाशक्ति को आगे लाना होगा। लेकिन हम अपनी युवा पीढ़ी के सामर्थ्य का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, फलस्वरूप हमारे युवा पश्चिमी संस्कृति के वाहक बन गए हैं।
लेफ्टनेंट जनरल नन्दकिशोर सिंह ने इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की।
‘हिन्दू एक बड़ा मंच है जिस पर कई संप्रदाय खड़े हैं’
हिन्दू संकुचित शब्द नहीं है। पाश्च्चात्य संस्कृति से प्रभावित व्यक्ति, विश्व के अन्य सम्प्रदायों से तुलना कर हिन्दू को भी सम्प्रदाय मानते हैं। यह उनकी बहुत बड़ी भूल है, क्योंकि हिन्दू तो एक बड़ा मंच है जिस पर कई सम्प्रदाय खड़े हैं, ऐसा प्रतिपादन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल ने किया। स्वामी विवेकानन्द सार्ध शती समारोह समिति, उदयपुर द्वारा 27 अप्रैल, 2013 को सामाजिक सद्भावना बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक में डॉ. कृष्ण गोपाल मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित थे।
पराधीनता के काल में प्राण रक्षा के लिए जातिगत व्यवस्था बनाकर कई प्रकार की व्यवस्थाऐं बनाई गईं, जो आज के परिपेक्ष्य में कुरीतियों के रूप में दिखाई देती हैं। आवश्यकता इस बात है कि स्वाधीनता के पश्चात प्राचीन जंजीरों की आवश्यकता नहीं है। इसलिए कुरीतियां रूपी जंजीरों को तोड़कर समाज में ऐक्यभाव देते हुए आगे बढ़ना चाहिए। जैसे, शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्नता होते हुए भी उनमें होने वाला रक्तसंचार शरीर के ऐक्यभाव को बनाए रखता है। उसी से हमारा राष्ट्रदेव खड़ा होगा। हजार-बारा सौ वर्ष के संघर्षकाल में प्राण रक्षा के लिए बहुमूल्य संस्कार छूट गए, जिन्हें पुन: संजोना होगा, ऐसा उन्होंने आवाहन किया।सद्भावना बैठक की भूमिका डॉ. भगवति प्रकाश ने रखी व विभिन्न समाजों के पधारे हुए प्रतिनिधियों ने अपने समाज में किए जा रहे नवाचारों को व्यक्त किया। 76 समाजों के 215 प्रतिनिधियों ने बैठक में भाग लिया। कार्यक्रम का संचालन रमेश शुक्ल ने किया व एकल गीत डॉ. कोशल शर्मा ने प्रस्तुत किया।

Wednesday, 15 May 2013

काग्रेस की काली नीयत और काले इतिहास

काग्रेस की काली नीयत और काले इतिहास
का काला सच अवश्य जानिये l
1. यह पार्टी पूरी तरह से हिन्दू मुस्लमान में फूट डालती है ।
2. अपने जन्म से ही यह पार्टी हिंदु
विरोधी पार्टी हैं.
3. भगत सिंह को फांसी लगाने
का विरोध नहीं किया उल्टा गाँधी नइ sign कर दिए ।
4. खिलाफत आन्दोलन को समर्थन किया.
5. क्रांतिकारियों को आतंकवादी बताते थे.
6. सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद से
हटने को मजबूर किया.
7. देश का बंटवारा मंज़ूरकिया.
8. यदि बंटवारा हो ही गया थातो पूरी तरह से
होना चाहिए था, परन्तु नेहरु
गाँधी के कारण से नहीं हो पाया.
9. कश्मीर समस्या नेहरु परिवार की देन हैं.
10. धारा 370 नेहरु परिवार की देन हैं.
11. जब भारतीय सेना आगे बढ़ रही थी तो युद्ध
विराम घोषित किया.
12 पूरा कश्मीर भारत के पास आ रहा था,
तो नेहरु ने पाकिस्तान के पास
एकहिस्सा छोड़ दिया.
13 एक हिस्सा चीन के पास जाने दिया.
14. तिब्बत तश्तरी में उठा के चीन कोदे दिया.
15. पाकिस्तान को 56 करोड़ रूपये दिए.
16. देश के विभाजन की जिम्मेदार मुस्लिम लीग
को सरकार में साझा किया.
17. कश्मीर में श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जेल में
डाल दिया, जहाँ पर
उनकी संदेहास्पद अवस्था में मौत हो गयी.
18. 1962 में चीन के सामने शर्मनाक रूप में
समर्पण किया.
19. 1971 की जीत को इंदिरा ने 1973 में
भुट्टो के सामने हार में बदल दिया.
20. देश में आपातकाल लागू किया.
21. इंदिरा के मरने पर देश में
20000सिक्खों का दर्दनाक क़त्ल करवा
दिया और कत्ल करने को नेशनल चैनल पर सबके सामने
लोगो को कहा
22. स्वर्ण मंदिर पर हमला किया और उसे नष्ट
कर दिया गया.
23. राजीव गाँधी ने अपने ही तमिल/हिंदु
भाइयोँ पर हमला करने के लिए
श्रीलंका में सेना भेजी, जिसमे हमारे 3000
जवान मारे गए.
24.हिन्दू मुस्लिमो को फूट डालने के लिए मुस्लिम आरक्षण
देना शुरू किया.
25. रामजन्म भूमि का विरोध शुरू किया.
26. राम सेतु को तुडवाना चाहा.
27. साधू संतो का व हिंदु प्रतीकों का अपमान
करना शुरू किया
28 हिंदुओ को आतंकवादी कहा ।
29. 4 जून आधी रातको योग गुरु बाबा रामदेव
के साथ अनशन कर रहे एक लाख
औरतोँ और बच्चों साधू-संतों पर रात के समय
लाठी व गोली चलवाई.
30. भृष्टाचार के सारे रिकॉर्ड तोड़दिए.
31. महंगाई ने लोगो से भोजन भी छीन लिया.
32. एक विदेशी औरत जो वेटर मात्र थी को आज
हमारे सर पर बैठा दिया.
33. प्रधानमंत्री की कुर्सी पर एक ही परिवार
का राज हो गया.
34. ओसामा को ओसामा जी व संतो को ठग बताते
हैं.
35.फूट डालने के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.
36. Indian होना इसदेश में एक गाली के
समान हो गया हैं.
37. करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक भगवान
श्रीराम चन्द्र
जी को काल्पनिक बताया आदि … ये सब नेहरु
परिवार व इस परिवार
की महाभ्रष्ट, लुटेरी पार्टी कांग्रेस
का इतिहास है, इसमें बहुत कुछ बाकी रह
गयाहै वो आप जोड़ देना -
हम तू इतना ही कहेंगें की अगर भारत
को बचाना है तो कांग्रेस हटाओ देश
बचाओ

Thursday, 9 May 2013

दिखावा छो़डो मातृभाषा से मन लगाओ ||

मातृभाषा हिन्दी के उत्थान के प्रयास हर घर में होना चाहिए। हिन्दी के प्रति गंभीरता और सम्मान जरूरी है तभीहम अपनी मातृभाषा की लाज बचा पाएंगे। विदेशी लोग हिन्दी को अपना रहे हैं जबकि हम खुद इससे जी चुरा रहे हैं। जरूरत हमारे नजरिए को बदलने की है। ये बातें विभिन्न महाविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाने वाले विशेषज्ञों ने कही हैं।
महाविद्यालयों में हिन्दी विभाग के विद्यार्थियों की संख्या कितनी कम हुई है और हिन्दी के उत्थान के लिए क्या प्रयास किए जाना चाहिए, इसी पर आधारित है यह रिपोर्ट :
विशेषज्ञों से मिले कुछ सुझाव
* विद्यालयीन शिक्षा का माध्यम हर हालमें हिन्दी ही होना चाहिए
* विद्यालयों में हिन्दी के आधारभूत ज्ञान पर ध्यान देना चाहिए
* विभिन्न उद्देश्यों से होने वाले पत्र-व्यवहार में भी हिन्दी को प्राथमिकता दी जाना चाहिए ।
विद्यार्थियों की संख्या 70 से घटकर 15
शहर के विभिन्न शासकीय महाविद्यालयों में हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की व्यवस्था है। चिंता की बात है कि आम विषयों की अपेक्षा हिन्दी विषय के विद्यार्थियों की संख्या लगातार गिर रही है। शासकीय कला व वाणिज्य महाविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्षडॉ. पुष्पलता जैन मजेजी ने बताया कि दोसाल में हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों की संख्या 70 से घटकर 15 हो गई है। सेमेस्टर पद्धति लागू होने और अन्य कारणों से भी हिन्दी साहित्य में नियमित विद्यार्थियों की संख्या तेजी से कम हो रही है।
घटती जा रही है रुचि
न्यू जीडीसी के प्राचार्य डॉ. अशोक वाजपेई ने बताया कि संस्थान में स्नातकोत्तर उपाधि के पूर्वार्द्ध में हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों की संख्या 20 है। पिछले कुछ सालों में यह कम हुई है, क्योंकि युवा वर्ग में हिन्दी भाषा कीउपाधि हासिल करने की रुचि कम हुई है। हिन्दी के प्रति रुझान पैदा करने और ज्यादा से ज्यादा उपयोग के लिए विद्यालयीन स्तर से ही प्रयास की जरूरत है।
बढ़ें रोजगार के अवसर
हिन्दी विभाग की सहायक प्राध्यापक डॉ.मनोरमा अग्रवाल ने बताया कि पिछली बारहिन्दी साहित्य के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम (पूर्वार्द्ध) में 16 विद्यार्थी थे, इस बार 8 ही हैं। विद्यार्थियों में हिन्दी के आधारभूत ज्ञान का अभाव होना इसका बड़ा कारण है। बच्चों को अच्छी हिन्दी लिखने, प़ढ़ने और सीखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। मार्गदर्शिकाओं और कुंजियों से हटकर किताबों पर जोर दियाजाना तथा हिन्दी से संबंधित रोजगार केअवसर बढ़ाए जाना चाहिए।
अधूरा ज्ञान, ज्यादा कोशिश
अधिकांश वे ही लोग अंगरेजी बोलने की कोशिश करते हैं जिन्हें हिन्दी और अंगरेजी दोनों का ही अधूरा ज्ञान होताहै। कई लोग बोलचाल की भाषा में अंगरेजी के शब्दों का उपयोग करते हैं, लेकिन व्याकरण हिन्दी की ही होती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनका दोनों ही भाषाओं का ज्ञान कमजोर है।
कई लोग खुद के अधीनस्थ लोगों से अथवा कम शिक्षित लोगों से अंगरेजी में बात कर यह जताना चाहते हैं कि उनके ज्ञान का स्तर काफी ऊंचा हैं। खुद को ज्यादा श्रेष्ठ साबित करने के इस तरह का दिखावा छो़ड़कर मातृभाषा के प्रति गंभीरता रखी जाना चाहिए।

Tuesday, 7 May 2013

बेदाग छवि नहीं रही है पवन बंसल की

बेदाग छवि नहीं रही है पवन बंसल की

मिस्टर क्लीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के एक और खास सिपाही अब भ्रष्टाचार के आरोप में फँस रहे हैं। ये सिपाही हैं, रेल मन्त्री पवन कुमार बंसल। वैसे तो बंसल 1986 में ही राज्यसभा पहुँच गये थे और उसके बाद संसदीय जीवन की एक लम्बी पारी खेली है। लेकिन उनका वास्तविक राजनीतिक अभ्युदय मनमोहन सिंह के समय में हुआ। पहली बार वो यूपीए-1 में मनमोहन सिंह के कारण वित्त राज्य मन्त्री बने। दोबारा मनमोहन की सरकार बनी तो कैबिनेट रैंक में आये और संसदीय कार्यमन्त्री बन गये। जब ममता की पार्टी रेल मन्त्रालय से निकली तो उनकी लाटरी खुली और रेल मन्त्री बन गये। मनमोहन सिंह को खासी उम्मीद थी पवन बंसल से। एक तो बंसल विरोध की राजनीति नहीं करते। सामने वालों के लिये यसमैन रहते हैं। सरकार जो कहेगी वही करेंगे। रेल मन्त्रालय में यही किया। फिर मनमोहन सिंह को पवन बंसल के ज्ञान पर भी भरोसा रहा है। बंसल बिना बात के विवादों में नही पड़ते और यही काऱण है कि दिल्ली में स्वच्छ छवि बनाने में वे अभी तक कामयाब रहे थे।
लेकिन 3 मई 2013 की शाम उनके लिये खराब था। भ्रष्टाचार के आरोप में पवन बंसल बुरी तरह से घिर गये। उनके भांजे को 90 लाख रुपये का रिश्वत लेते सीबीआई ने गिऱफ्तार किया। वैसे चंडीगढ़ में इस बात की आम चर्चा थी कि अगर रेलवे में कोई काम हो तो विजय सिंगला से मिलो, पैसे दो और काम करवा लो। क्योंकि पवन बंसल के लिये सारा कामकाज वही देखते हैं। दरअसल रेल मन्त्री बनते ही पवन बंसल के रिश्तेदारों के यहाँ रेलवे के काम के लिये भीड़ लगने लगी थी। जिस दिन पवन बंसल को रेल मन्त्री बनाने का फैसला लिया गया था उस दिन चंडीगढ़ में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में पवन बंसल थे। जैसे ही उन्हें फोन से सूचना दी गयी उनके आसपास के समर्थक एक दूसरे को बधाई दे रहे थे। बधाई देने का कारण सिर्फ यह था कि सूखे संसदीय कार्य मन्त्रालय से उनका तबादला हरियाली वाले रेल मन्त्रालय में हो गया था। बेशक नई दिल्ली में पवन बंसल की गिनती ईमानदार मन्त्रियों में हो रही थी। लेकिन चंडीगढ़ में उनकी इमेज ईमानदार की कभी नहीं रही। उनके विरोधी उनके भांजे विजय सिंगला और उनके कुछ और रिश्तेदारों पर रेल मन्त्रालय में काम करवाने के एवज में डीलिंग करने का आरोप लगाते रहे।
विजय सिंगला इस समय सीबीआई की हिरासत में है। रेलवे बोर्ड के मेम्बर से काम के एवज में 90 लाख रुपये ले रहे थे। हालाँकि पवन बंसल ने इस मामले से पल्ला झाड़ लिया है। लेकिन देश की जनता बंसल की इस सफाई पर शायद ही भरोसा करे। अगर सीबीआई विजय सिंगला के पिछले पाँच छःह सालों में शुरू किये गये कई प्रोजेक्टों की भी जाँच करेगी तो पवन बंसल की मुश्किलें बढ़ जायेंगी क्योंकि विजय सिंगला ने चंडीगढ़ और इसके आसपास के लगते इलाकों में भारी सम्पत्ति अर्जित की है। शहर के सबसे महँगे इण्डस्ट्रियल एरिया में उनके प्लॉट हैं। ये प्लॉट पिछले कुछ सालों में ही खरीदे गये हैं। विजय सिंगला इण्डस्ट्रियल एरिया में ही  एक बड़ा मॉल बना रहे हैं। बीते साल ही इस मॉल में निर्माण कार्य के दौरान मलबा में दबकर मजदूरों की मौत हो गयी थी। लेकिन प्रशासन ने विजय सिंगला के दबदबे देख कोई कार्रवाई नहीं की थी। बंसल के तमाम विरोधियों का आरोप यही है कि विजय सिंगला के इस मॉल की ही सीबीआई जाँच करेगी तो पवन बंसल की मुश्किलें बढ़ जायेंगी। बंसल के खिलाफ लगातार चुनाव लड़ने वाले चंद्रशेखर सरकार में मन्त्री रहे हरमोहन धवन के अनुसार उन्होंने राजनीति में अपनी सम्पत्ति गँवायी लेकिन पवन बंसल की सम्पत्ति हर चुनाव के बाद बढ़ती गयी। धवन के अनुसार विजय सिंगला की सम्पत्तियों की ईमानदारी से अगर सीबीआई जाँच करवायेगी तो पवन बंसल के सारे निवेश का पता चल जायेगा। धवन आरोप लगाते है कि विजय सिंगला ने हिमाचल प्रदेश, चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा में अरबों रुपए की सम्पत्ति बनायी जो वास्तव में पवन बंसल की है।
सवाल यह है कि विजय सिंगला की गिरफ्तारी और घूस लिये जाने के मामले से पवन बंसल कैसे बच सकते हैं? घूस रेलवे के एक अधिकारी महेश कुमार ने भिजवायी। महेश कुमार पश्चिम रेलवे के जनरल मैनेजर भी रह चुके हैं। वे छोटे मोटे अधिकारी नहीं है। फिलहाल वो मेम्बर रेलवे बोर्ड हैं। आखिर रेलवे बोर्ड का एक मेम्बर पवन बंसल के भांजे को घूस क्यों देगा? समाज सेवा के लिये या मन्दिर में दान देने के लिये? अगर ये पैसे मन्दिर में दान और समाज सेवा के लिये नहीं थे फिर किसी काम के एवज में दिये गये। फिर उस अधिकारी का काम या उसके फाइलों पर दस्तखत विजय सिंगला को नहीं बल्कि पवन बंसल को ही करना है। तो निश्चित तौर पर इस पूरे रिश्वत प्रकरण की जानकारी पवन बंसल को रही होगी। इसलिये इस पूरे घूस काण्ड से पवन बंसल लाख सफाई के बावजूद बेदाग नहीं बच सकते है।
रेल मन्त्रालय में पिछले दिनों कुछ अहम परिवर्तन देखने को मिले थे। पत्रकारों का प्रवेश रेल मन्त्रालय में बन्द कर दिया गया था। रेल मन्त्रालय के कामकाज की पारदर्शिता खत्म हो गयी थी। कई लोगों ने साफ तौर पर कहा कि पत्रकारों का प्रवेश इसलिये बन्द किया गयी क्योंकि मन्त्रालय के अन्दर खुलेआम डीलिंग हो रही थी। कई लोगों ने साफ तौर पर आरोप लगाया कि पैसेंजर कमेटी के सदस्य बनने के लिये भी पैसे माँगे जा रहे है। राजनीतिक पदों पर नियुक्ति के लिये भी पैसे माँगे जा रहे है।
पवन बंसल का भरोसा अपने खास लोगों पर ही हमेशा रहा। वो भी रिश्तेदारों पर ही। यहाँ तक कि उनके पर्सनल स्टाफ में वही अधिकारी रखे गये जो कहीं न कहीं से उनकी रिश्तेदारी में हैं। चंडीगढ़ में कांग्रेस के ही लोग साफ कह रहे हैं कि पवन बंसल कई मामलों में पार्टी की सुनते ही नहीं थे। यहाँ तक कि टिकट कन्फर्मेशन के लिये भी कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की सुनवायी नहीं थी। जबकि विरोधी दलों का तर्क है कि उनके निजी स्टाफ की गतिविधियों को सीबीआई जाँच करे तो सारा खेल पता चल जायेगा।
आम चर्चा है कि रेल मन्त्री बनने के बाद पवन बंसल का व्यवहार एरोगेन्ट था। चंडीगढ़ में विरोधियों को धमका कर कांग्रेस में शामिल करवाया जा रहा था। पहले विरोधियों पर सरकारी अमलों से कारर्वाई करवायी जाती थी फिर उन्हें बुलाकर कहा जाता था कि कांग्रेस ज्वाइन कर लो, मामला रफा दफा हो जायेगा। चंडीगढ़ के गाँव दड़ुआ में भाजपा समर्थक दो-तीन होटल मालिक अपने होटल गिराये जाने के डर से ही कांग्रेस में शामिल हो गये। जबकि कुछ भाजपा समर्थक गोदाम मालिकों ने जब कांग्रेस में शामिल होने से इन्कार किया तो उनके गोदामों को प्रशासन से गिरवा दिया गया। चंडीगढ़ मार्केट कमेटी के चेयरमैन पर पहले प्रशासन ने छापा डाला और उस पर जुर्माना लगाया गया। चेयरमैन भाजपा समर्थक थे। मामला समझ गये। कांग्रेस में शामिल हो गये और ईश्वरीय कृपा से उनके खिलाफ चल रही सारी कार्रवाई रुक गयी।
यह पहला अवसर नहीं है कि बंसल विवादित हुये हैं। ये उनकी खुशकिस्मती रही कि उनका विवाद राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी नहीं बना। चंडीगढ़ की स्थानीय मीडिया तक ही उनका विवाद सीमित रह गया। यूँ तो उनका विवादों से वास्ता राजग सरकार के समय से ही था। उस समय चंडीगढ़ में अपने दिल्ली पब्लिक स्कूल के लिये जमीन आवंटन को लेकर बंसल विवाद में आ गये थे। हालाँकि उस समय सरकार भाजपा की थी और स्थानीय भाजपा नेता इस पर हंगामा करते रहे। लेकिन बताया जाता है कि बंसल को मदद उस समय राजग सरकार में मन्त्री रही सुषमा स्वराज से मिल गयी। संप्रग-1 के समय में चंडीगढ़ के पूर्व प्रशासक और पंजाब के गर्वनर एसएफ रोड्रिग्स से उनका विवाद सड़क पर आ गया था। बंसल का आरोप था कि रोड्रिग्स उनकी सुनते नहीं हैं। जबकि रोड्रिग्स ने साफ आरोप लगाया था कि बंसल अपने निजी फायदों के लिये उनसे काम करवाना चाहते हैं। रोड्रिग्स के समय में ही चंडीगढ़ के डिप्टी कमिशनर रहे अरूण कुमार से बंसल की सीधी टक्कर हो गयी थी। अरूण कुमार ने साफ कहा था कि पवन बंसल उनसे गलत काम करवाना चाहते थे। बंसल, अरूण कुमार से इतने नाराज हुये कि दो साल में ही उन्हें वापस उनके पैरेंट कैडर हरियाणा में भिजवा दिया। हालाँकि अरुण कुमार भी डरे नहीं और मीडिया में बंसल के खिलाफ मोर्चा खोलकर बैठ गये थे।
हाल ही में पवन बंसल का नाम चंडीगढ में बूथ घोटाले में उछला था। चंडीगढ़ के तत्कालीन एडीसी पीएस शेरगिल ने शहर में करोड़ों रुपये के हुये बूथ घोटाले की जाँच की थी। जाँच रिपोर्ट में एडीसी ने पवन बंसल पर अँगुली उठायी। एडीसी ने रिपोर्ट में बताया था कि इस बूथ घोटाले में करोड़ों रुपये का खेल हुआ है। इसके बाद पवन बंसल एडीसी से खासे नाराज हो गये थे। लेकिन बंसल का विवादों से सिर्फ यहीं लेना देना नहीं है। चंडीगढ़ में नगर निगम ने जेपी ग्रुप को एक प्लॉट आवंटित किया था। इस प्लाट आवंटन के खिलाफ कांग्रेस के ही एक पार्षद चंद्रमुखी शर्मा मोर्चा खोल बैठे थे। उन्होंने इस सम्बंध में सीवीसी तक शिकायत की। इस भूमि आवंटन में भी पवन बंसल पर अंगुली उठायी गयी थी। बंसल वो नेता है जो कांग्रेस के बराबर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में पैठ रखते हैं। संघ के एक जाति विशेष के स्थानीय पदाधिकारी जो पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ में हैं, बंसल के मुरीद हैं। बंसल को हमेशा उनसे मदद मिलती रही। इसके अलावा बंसल के सम्बंध सुषमा स्वराज समेत कई भाजपा नेताओं से अच्छे रहे। चंडीगढ़ में इस बात की आम चर्चा होती है कि बंसल के चुनाव में जितने कांग्रेसी उनके समर्थन में सक्रिय होते हैं उतने ही संघ और भाजपा के कार्यकर्ता उनके समर्थन में सक्रिय होते हैं। यही कारण है कि लगातार 1999 से बंसल चुनाव बंसल जीत रहे हैं।
पर एक अहम सवाल है कि आखिर सीबीआई ने एक कांग्रेसी मन्त्री पर हमला कैसे कर दिया ? क्या सीबीआई वाकई में स्वतन्त्र हो गयी है? क्योंकि पवन बंसल कोई कमजोर शख्स नहीं है। इसका जवाब काफी आसान है। इस समय सीबीआई चीफ रंजीत सिन्हा मुश्किल में हैं। कोलगेट घोटाले और चारा घोटाले में सीबीआई की हाल में हुयी कार्रवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई पर सवालिया निशान लगा दिया है। रंजीत सिन्हा ने इस सवालिया निशान का काट ढूँढ लिया। अब सुप्रीम कोर्ट में अगली पेशी में रंजीत सिन्हा यह बताने में सक्षम होंगे कि सीबीआई सरकारी दबाव में नहीं है। अगर सीबीआई सरकारी दबाव में होती तो बंसल के भांजे को गिरफ्तार नहीं किया जाता ? इतने ब़ड़े घूस काण्ड को सीबीआई एक्सपोज नहीं करती ?

चुनाव साँपनाथ और नागनाथ के बीच नहीं है

जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, दोनों मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों के चुनावी मुद्दे स्पष्ट होते जा रहे हैं। उनके बीच कटु वक्तव्यों का आदान-प्रदान भी तेज हो गया है। भाजपा का चुनाव अभियान, बल्कि उसकी पूरी विचारधारा, तर्कों के इस क्रम पर आधारित है : यह कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र और सभ्यता है, यह कि यह सभ्यता बाहरी आक्रमणों की वजह से क्षीण हो गई है, यह कि काँग्रेस, भारत के प्राचीन गौरव को पुनस्र्थापित करने में सक्षम नहीं है क्योंकि वह पश्चिमी मूल्यों की हामी है और उसने ब्रिटिश राज के संस्थागत ढाँचे को यथावत रखा है, यह कि ‘‘सभ्यता की चेतना‘‘ ही भारत को एक देश और एक राष्ट्र बनाती है व यह कि काँग्रेस, भारत के उस प्राचीन गौरव और सभ्यता की पुनस्र्थापना नहीं कर सकती। इस प्राचीन सभ्यता की परिभाषा हिन्दुओं (उच्च जातियों) द्वारा निर्धारित और हिन्दू ऋषियों और दार्शनिकों की सोच पर आधारित है। भाजपा का यह भी मानना है कि कांग्र्रेस, वोट बैंक की राजनीति की खातिर अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रही है, यह कि इसी कारण वह पाकिस्तान के प्रति जरूरत से ज्यादा नरम है, यह कि काँग्रेस युद्ध की धमकी देकर अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों को डरा-धमका कर नहीं रखती है व पाकिस्तान को बहुत छूट देती है, यह कि बड़ी संख्या में बांग्लादेशियों को भारत की पूर्वी सीमा से ‘घुसपैठ‘ करने की इजाजत दी जा रही है और यही लोग भारत में आतंकी हमले कर रहे हैं। भाजपा का यह भी कहना है कि काँग्रेस की कमजोरियों के कारण, भारत की आंतरिक सुरक्षा खतरे में है व काँग्रेस, अलगाववादी व आतंकी ताकतों से मुकाबला करने में अक्षम सिद्ध हुयी है। वह माओवादी आतंकवाद से भी सख्ती से नहीं निपट सकी है। अतः, भाजपा कहती है कि इन सभी कारणों से, काँग्रेस, देश को प्रगति की राह पर नहीं ले जा सकती, गरीबी दूर नहीं कर सकती और महँगाई पर काबू नहीं पा सकती।
सन् 2009 के लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में भाजपा कहती है, ‘‘स्वतन्त्रता के पश्चात, आवश्यकता इस बात की थी कि भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी जाती ताकि वह भारतीयों (पढ़ें उच्च जातियों के हिन्दुओं) की सोच, इच्छाओं और महत्वाकाँक्षाओं को प्रतिबिम्बित करती। यह नहीं किया गया और इसके नतीजे में आज भारतीय समाज विभाजित है, देश में घोर आर्थिक असमानता व्याप्त है, आतंकवाद और साम्प्रदायिक हिंसा का बोलबाला है, असुरक्षा का
इरफान इंजीनियर
इरफान इंजीनियर, लेखक स्तम्भकार एवं Institute for Peace Studies & Conflict Resolution के निदेशक हैं,
भाव है और नैतिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक गिरावट है। हमारा राज्यतन्त्र, इनमें से किसी भी समस्या से निपटने में असफल रहा है।‘‘ इस बार के आम चुनाव में इन सभी मुद्दों के अलावा, भाजपा, भ्रष्टाचार को भी मुद्दा बनायेगी।
हिन्दू राष्ट्र, एकात्म मानवतावाद और हिन्दू सभ्यता की चेतना
यद्यपि भाजपा देश की सारी समस्याओं के लिये काँग्रेस को जिम्मेदार ठहराती है, परन्तु काँग्रेस को कटघरे में खड़ा करने के पीछे उसका एकमात्र उद्धेश्य चुनाव में विजय हासिल करना है। अगर हम भाजपा के चुनावी घोषणापत्रों को ध्यान से पढ़ें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि वह काँग्रेस को दोषी ठहराने के पीछे उसका एक सीमित उद्धेश्य है-वह काँग्रेस को देश में व्याप्त समस्याओं का वाहक सिद्ध करना चाहती है। भाजपा यह नहीं कहती या मानती कि काँग्रेस, हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की राह में बाधा है। भाजपा का विचारधारात्मक लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है और इस लक्ष्य की प्राप्ति में काँग्रेस रास्ते में आ रही है, ऐसा भाजपा ने कभी नहीं कहा। काँग्रेस, चुनाव में भाजपा की प्रतिद्वन्दी है और इसलिये चुनाव के दौरान उस पर निशाना साधा जाना चाहिये। परन्तु वह हिन्दू राष्ट्र की शत्रु नहीं है। हिन्दू राष्ट्र के तीन घोषित शत्रु हैं- मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट। इनके अतिरिक्त, नागरिक व मानवाधिकारों और विशेषकर समानता की पश्चिमी अवधारणाएं भी हिन्दू राष्ट्र की शत्रु हैं। ऋषियों द्वारा परिभाषित ‘हिन्दू‘ सभ्यता की चेतना में नागरिक व मानवाधिकारों और समानता के लिये कोई स्थान नहीं है।
हिन्दू सभ्यता, जाति-आधारित ऊँच-नीच पर टिकी हुयी है जिसमें जानवरों को तो छुआ जा सकता है-और कुछ की पूजा भी की जाती है-परन्तु अछूतों को नहीं छुआ जा सकता। हिन्दू सभ्यता की यह चेतना महिलाओं को उनके सभी अधिकारों और मानवीय गरिमा से वंचित करती है और उन्हें पहले अपने पिता और बाद में अपने पति की सम्पत्ति से ऊँचा दर्जा नहीं देती। मुसलमान और ईसाई, काँग्रेस का इस्तेमाल नागरिक अधिकार पाने के लिये कर रहे हैं। ‘‘समय-समय पर काँग्रेसी नेताओं ने कल्याणकारी राज्य, समाजवाद और उदारवाद को अपना लक्ष्य घोषित किया है‘‘, यह था भाजपा के पूर्व संस्करण भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय का उनके एक भाषण में भारी मन से दिया गया वक्तव्य।
भाजपा, हिन्दू राष्ट्र और दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त में विश्वास रखती है। एकात्म मानवतावाद ‘‘सामाजिक अनुबन्ध सिद्धान्त‘ को पूरी तरह खारिज करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, समाज के नियम और कानून, उसके सदस्यों के बीच अन्तर्निहित अनुबन्ध से उद्भूत होते हैं। ‘‘यह सही है कि समाज कई व्यक्तियों से मिलकर बनता है परन्तु समाज केवल व्यक्तियों का समूह नहीं है और ना ही कई व्यक्तियों के एक साथ रहने मात्र से समाज अस्तित्व में आ जाता है। हमारे विचार से समाज स्वतः जन्म लेता है।‘‘
एकात्म मानवतावाद, समाज की तुलना विराट पुरूष से करता है। ‘‘चतुर्वर्णों की हमारी अवधारणा यह है कि चारों वर्ण, विराट पुरूष के अलग-अलग अंगों से उत्पन्न हुये हैं। विराट पुरूष के सिर से ब्राह्मणों का निर्माण हुआ, क्षत्रिय उसके हाथों से जन्मे, वैश्य उसके पेट से और शूद्र उसके पैरों से। अगर हम इस अवधारणा की विवेचना करें तो हमारे सामने यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि विराट पुरूष के सिर, हाथ, पेट और पैरों के बीच टकराव की स्थिति में क्या होगा? ऐसे किसी टकराव की स्थिति में शरीर बच ही नहीं सकता। एक ही शरीर के अलग-अलग हिस्सों के बीच टकराव न तो सम्भव है और न वाँछनीय। इसके विपरीत, पूरा शरीर ‘एक व्यक्ति‘ के रूप में काम करता है। शरीर के सारे अंग एक दूसरे के पूरक होते हैं और एक ही लक्ष्य की पूर्ति की दिशा में काम करते हैं। सभी अंगों के हित एक से होते हैं और उनकी पहचान भी एक ही होती है। जातिप्रथा इसी सिद्धान्त पर आधारित है।‘‘ जिस समाज को दीनदयाल उपाध्याय स्वतः जन्मा (व इसलिये प्राकृतिक) बता रहे हैं, वह दरअसल जाति-आधारित पदानुक्रम है, जिसमें व्यक्ति के कार्यक्षेत्र का निर्धारण उसके जन्म से होता है, जिसमें कुछ लोगों को ढेर सारे विशेषाधिकार हासिल होते हैं और कुछ अन्य केवल अपने कर्तव्यों का पालन करते हुये दास की तरह जीवन बिताते हैं। यह व्यवस्था कुछ लोगों को केवल अधिकार देती है और कुछ के हिस्से में केवल कर्तव्य आते हैं। यह व्यवस्था बलप्रयोग और जबरदस्ती पर आधारित है और स्वतः जन्मी या प्राकृतिक नहीं है। रामायण और महाभारत में भी इस बलप्रयोग और जबरदस्ती का विवरण है, जिस ओर दीनदयाल उपाध्याय का ध्यान नहीं गया। एकलव्य का अँगूठा काटा जाना, वेद पढ़ने के कारण शम्बूक की हत्या और सीता की अग्निपरीक्षा इसके कुछ उदाहरण हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और गरिमा की अवधारणाओं से इंकार और ‘‘सामाजिक अनुबन्ध सिद्धान्त‘‘ को नकारने के पीछे उद्धेश्य यह है कि समाज के सभी सदस्य, ‘‘स्वतः जन्मे‘‘ समाज की प्रभुता स्वीकार कर लें और समाज के सभी तबके-अर्थात जातियाँ-सामञ्जस्य से रहें, उनमें कोई आपसी विवाद न हो और वे प्राकृतिक और स्वतः जन्मी सामाजिक व्यवस्था को चुनौती न दें। हर व्यक्ति को इस व्यवस्था को स्वीकार करना है, चाहे वह कितनी  ही दमनकारी और ऊँच-नीच को औचित्यपूर्ण ठहराने वाली क्यों न हो। उन्हें ऐसा इसलिये करना है ताकि समाज में सामञ्जस्य बना रहे और इसलिये भी क्योंकि व्यक्तियों का अलग से कोई अस्तित्व नहीं है। उनका कर्तव्य समाजहित में काम करना है और उनका अस्तित्व केवल राष्ट्र की खातिर है।
भाजपा की दृष्टि में राज्य, राष्ट्र के अधीन है और राज्य का निर्माण, राष्ट्र को सुरक्षा प्रदान करने के उद्धेश्य से किया गया है। राज्य का उद्धेश्य ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करना और उन्हें बनाये रखना है जिनमें राष्ट्र के आदर्शों को कार्यरूप में परिणित किया जा सके। एकात्म मानवतावाद, राष्ट्र के आदर्शों को उसका ‘‘चित्त‘‘ निरूपित करता है।
राष्ट्र के चित्त की तुलना व्यक्ति की आत्मा से की जा सकती है। दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार, जिन नियम-कानूनों से राष्ट्र के चित्त को व्यक्त और पोषित किया जा सकता है, वही धर्म है और धर्म सर्वोच्च है। जो इस धर्म के साथ विश्वासघात करता है वह राष्ट्रद्रोही है। यह चित्त या हिन्दू सभ्यता की चेतना या धर्म, सदियों तक जिन्दा रहा। अनेक विदेशी आक्रमण हुये परन्तु उसका कुछ ना बिगड़ा। कहने की आवश्यकता नहीं कि जातिगत पदानुक्रम और ढाँचा इस चित्त के केन्द्र में हैं। धर्म या चित्त या हिन्दू सभ्यता की चेतना, खाप पंचायतों जैसी संस्थाओं के जरिये सदियों तक बची रही और इसलिये अमर है। भाजपा का एकात्म मानवतावाद यह प्रतिपादित करता है कि लोगों के लिये क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसका निर्धारण बहुमत के आधार पर नहीं बल्कि धर्म के आधार पर होगा। ‘‘जनराज्य‘‘ से ‘‘धर्मराज्य‘‘ कहीं अधिक बेहतर है और धर्मराज्य की स्थापना का प्रयास किया जाना चाहिये। धर्मराज्य में राज्य, राष्ट्र के अधीन होगा और धर्म की ध्वजा को थामे रहेगा। जातिप्रथा भाजपा के एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त का इतना महत्वपूर्ण भाग है कि न तो राष्ट्र-राज्य और ना ही आमजनों का बहुमत, उसमें कोई परिवर्तन कर सकता है। प्रजातान्त्रिक राज्य, जिसमें उदारवाद या समाजवाद या व्यक्ति की गरिमा या मानवाधिकारों के लिये कोई जगह हो पर भी यह भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह जातिप्रथा का प्रतिरक्षण करेगा। अतः, राष्ट्र के ‘‘चित्त‘‘ पर बहुत कम संख्या वाले तबके विशेष का एकाधिकार होगा और इस तबके को राष्ट्र में धर्म स्थापना के लिये सैनिक व एकाधिकारवादी राज्यतन्त्र की आवश्यकता होगी। लोगों को या तो इस तन्त्र के आगे आत्मसमर्पण करना होगा और या उन्हें गम्भीर, दमनकारी हिंसा भोगनी होगी। यही कारण है कि मुसलमानों, ईसाईयों और कम्युनिस्टों को हिन्दू राष्ट्र का शत्रु बताया गया है। ये तीनों ही वर्ग ना तो हिन्दू धार्मिक चेतना को स्वीकार करेंगे और ना ही एकात्म मानवतावाद द्वारा प्रतिपादित धर्म को क्योंकि समानता की अवधारणा उनके धर्मों और विचारधारा की आत्मा है। यद्यपि यह भी सही है कि व्यावहारिक स्तर पर न तो मुसलमानों न ईसाईयों और न कम्यूनिस्टों में समानता है।
काँग्रेस पार्टी
काँग्रेस, राहुल गाँधी के आसपास करिश्माई व्यक्तित्व का आभामण्डल बुनने की कोशिश कर रही है। राहुल स्वयं ऐसा दिखा रहे हैं कि वे प्रधानमन्त्री बनने के इच्छुक नहीं हैं और उनकी मुख्य रूचि, टीम काँग्रेस की सहायता से देश में व्याप्त विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में है।
हमें भाजपा के नेतृत्व वाले राजग और काँग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग को बराबर खराब या बराबर भ्रष्ट राजनैतिक गठबन्धनों के रूप में नहीं देखना चाहिये। राजग और संप्रग के बीच अन्तर एक भ्रष्ट और ईमानदार संगठन का नहीं है, वह एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष और अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने वाले छद्म धर्मनिरपेक्ष संगठन का भी नहीं है और ना ही यह पूँजीपति-केन्द्रित विकास और मानवीय चेहरे वाले विकास का अन्तर है। यह अन्तर है दुनिया को देखने के दो परस्पर विरोधाभासी तरीकों का, जिसमें एक ओर है धर्म द्वारा अनुमोदित, पदानुक्रम पर आधारित सामाजिक व्यवस्था, जिसे एकाधिकारवादी राज्य द्वारा बल प्रयोग से लागू किया जायेगा और दूसरी ओर है स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व और मानवीय गरिमा के मूल्य।
मित्रों, सवाल प्रजातन्त्र को बचाने का है।

Monday, 6 May 2013

हिन्दुस्तानी मीडिया को तो बस युद्ध दे दो

पाक जेल में एक भारतीय कैदी सरबजीत की मौत से पिछले दिनों पूरा देश गुस्से से लाल दिखा। हर तरफ पकिस्तान मुर्दाबाद नारे लगे। लोग भारत सरकार से माँग कर रहे थे कि वो पकिस्तान के खिलाफ सख्त रुख अपनाये। प्रश्न है कि क्या वास्तव में सरबजीत की मौत के लिये पूरी तरीके से पाक सरकार ही जिम्मेदार है? सरसरी निगाह से अगर हम देखें तो यह कहा जा सकता है कि सरबजीत की मौत के लिये पाक सरकार जिम्मेदार है पर जरा गम्भीरता से इस विषय पर सोचें तो हम पायेंगे कि सरबजीत की मौत के लिये जितना पाक सरकार जिम्मेदार है उतना ही हमारा मीडिया जिसने सरबजीत मामले को आम से खास बना दिया। एक ऐसा मसला बना दिया जो दोनों देशो के हुक्मरानों के लिये सियासत का एक नया मुद्दा बन गया विशेषकर पकिस्तानी हुक्मरानों के लिये। यह तो जगजाहिर है कि मीडिया जब भी किसी मसले को उठता है तो निजाम पर यह दबाव होता है कि वो मसले को जल्द से जल्द निपटाये।
सरबजीत मसले पर भी कुछ इसी तरह की तस्वीर बनी। यह मसला पाकिस्तान के हुक्मरानों के लिये गले की फाँस बन गया जिसे वो न तो जल्दी उगल सकते थे और न ही निगल सकते थे। पकिस्तानी निजाम यह बात अच्छी तरह समझ चुका था कि एक न एक दिन सरबजीत को रिहा करना पड़ेगा क्योंकि उसकी सजा पूरी होने वाली है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सरबजीत एक गम्भीर मसला बन गया है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तानी निजाम के लिये यह जरूरी हो गया था कि वो सरबजीत मसले को जल्द से जल्द निपटाये क्योंकि यदि सरबजीत रिहा हो जाता तो पकिस्तानी निजाम पर ही खतरा मँडराने लगता क्योंकि वहाँ सत्ता में वही रह सकता है जो भारत विरोधी विचारधारा से लैस हो।
ऐसी स्थिति के बावजूद कई भारतीय कैदी पकिस्तान की जेलों से रिहा होकर भारत आये फिर सरबजीत प्रकरण में ऐसा क्यों नहीं हुआ? आखिर क्यों पाक सरकार ने सरबजीत चैप्टर को ही ख़तम कर दिया ? इसका सीधा जवाब है हद से ज्यादा इस मामले मीडिया का हस्तक्षेप जिसकी बाजारवादी नीति ने एक निर्दोष की जान ले ली। यह मीडिया की ही देन थी कि 27 जून 2012 को सरबजीत की रिहाई का आदेश सुरजीत की रिहाई में तब्दील हो गया और सरबजीत रिहा होते-होते रह गया।
अनुराग मिश्र, लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
कहने का तात्पर्य है कि किसी भी मसले को आज के दौर में मीडिया सिर्फ व्यावसायिक दृष्टिकोण से देख रहा है। उस मसले का मानवीय और सामजिक पहलू क्या है, मीडिया को उससे सरोकार नहीं है। यही कारण है कि वो लगातार ऐसे मसलों को उठा रहा है जो आम जनमानस को उद्वेलित करें और आम जनता को अन्ध राष्ट्रभक्ति की तरफ धकेलें।
अब ताजा मामला भारत-चीन सीमा विवाद का ही ले लें। इस पूरे मसले की जो तस्वीर मीडिया ने बनायीं वो कुछ इस प्रकार थी कि मानो चीन-भारत से युद्ध करने जा रहा है और भारत चीन के सामने हाथ जोड़े खड़ा हो कि हमें माफ़ कर दो। जबकि परिस्थिति इसके काफी विपरीत थी। न तो चीन युद्ध चाहता है और न ही भारत। दोनों ही इस मसले का कूटनीतिक स्तर पर हल चाहते थे जो निकला भी। यह कूटनीतिक वार्ता की ही देन थी कि बिना युद्ध के ही चीन ने अपनी सेना वापस बुला ली लेकिन यह बात भारतीय मीडिया कौन समझाये उसे तो सिर्फ और सिर्फ युद्ध ही नजर आ रहा था। क्योंकि युद्ध ही उसे टीआरपी देता, युद्ध ही उसे विज्ञापन देता। जैसे सरबजीत मसला दे रहा था।
ऐसे न जाने कितने उदहारण हैं जहाँ मीडिया ने व्यावासिक हितों के लिये राष्ट्र हित को ही दाँव पर लगा दिया। आज मीडिया के लिये वही मुद्दा जनसरोकारी मुद्दा है जो देश के आम नागरिक में चेतना से ज्यादा गुस्से को पैदा करें। बेहतर होगा कि दूसरों पर उँगली उठाने से पहले मीडिया स्वयं के कार्यकलापों पर विचार करें और यह निर्धारित करें कि सशक्त भारत में निर्माण में उसकी भूमिका नकरात्मक है या सकरात्मक क्योकि यदि अब अगर मीडिया ने इस पर विचार नहीं किया तो वो दिन दूर नहीं जब समाज को जाग्रत करने वाला मीडिया समाज के पतन का कारक बन जायेगा।

Sunday, 5 May 2013

यकायक सीबीआई इतनी ईमानदार कैसे हो गयी?

सीबीआई द्वारा देश के रेल मन्त्री पवन कुमार बंसल के भांजे विजय सिंगला को रिश्वत लेते हुये गिरफ्तार किये जाने के साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गयी?
जिस सीबीआई को विपक्ष काँग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन की उपमा देता रहा है, उसने रेल मन्त्रालय जैसे महत्वपूर्ण महकमे के मन्त्री के भांजे पर हाथ कैसे डाल दिया, जबकि इससे पहले से आरोपों से घिरी सरकार पर और दबाव बनता? हालाँकि भाजपा ने परम्परा का निर्वाह करते हुये बंसल के इस्तीफे की माँग की है और काँग्रेस ने भी पुराने रवैये को ही दोहराते हुये इस्तीफा लेने से इंकार कर दिया, मगर इससे अनेक सवाल मुँह बायें खड़े हो गये हैं।
इस वाकये एक पक्ष तो ये है कि सम्भव है भ्रष्टाचार के आरोपों से चारों ओर से घिरी कांग्रेस नीत सरकार ने यह जताने की कोशिश की हो कि विपक्ष का यह आरोप पूरी तरह से निराधार है कि सीबीआई उसके इशारे पर काम करती है। वह स्वतन्त्र और निष्पक्ष है। काँग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने तो बाकायदा यही कहा कि देखिये सीबीआई कितनी स्वतन्त्र है कि उसने मन्त्री के रिश्तेदार को भी दोषी मान कर गिरफ्तार कर लिया।
गिनाने को उनका तर्क जरूर दमदार है, लेकिन यकायक इस पर यकीन होता नहीं है। काँग्रेस की ओर से रेलमन्त्री का यह कह कर बचाव करने से सवालिया निशान उठता है कि सीबीआई की जाँच में रेलमन्त्री की संलिप्तता की पुष्टि अभी तक हुयी नहीं है। खुद रेल मन्त्री भी मामले की जाँच करने को कह रहे हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी। अपने भांजे की गिरफ्तारी के बाद रेलमन्त्री पवन बंसल ने भी कहा कि उनका उनके भांजे के साथ कोई कारोबारी रिश्ता नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि चंडीगढ़ में उनकी बहन के फर्म में छापा मारा गया है, उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है।
कुछ सूत्र ये भी कहते हैं कि बंसल पर आज तक कोई दाग नहीं है। उनकी छवि साफ-सुथरी है। यदि इसे सही मानें और बंसल की बात को भी ठीक मानें तो सवाल ये उठता है कि आखिर रेलवे बोर्ड के सदस्य (स्टाफ) नियुक्त हुये महेश कुमार ने किस बिना पर रिश्वत दी? क्या उनकी नये पद पर नियुक्ति में बंसल कोई हाथ नहीं है? जब रिश्वत ले कर ही नियुक्ति हुयी तो आखिर नियुक्ति किस प्रकार हुयी? रिश्वत की राशि का हिस्सा किसके पास पहुँचा? भले ही बंसल ये कहें कि उनका भांजे से कोई लेना-देना नहीं है, मगर उसने उन्हीं के नाम पर तो यह गोरखधंधा अंजाम दिया। ऐसे में क्या बंसल की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वे भूतपूर्व रेल मन्त्री लाल बहादुर शास्त्री की तरह ईमानदारी का परिचय नहीं दे सकते थे, जिन्होंने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुये पद छोड़ दिया था?
बताया जाता है कि काँग्रेस के मैनेजरों की राय यह रही कि इस प्रकार इस्तीफा देने यह संदेश जाता है कि वाकई मन्त्री दोषी थे, इस कारण इस्तीफा न दिलवाने का विचार बनाया गया।
इस वाकये का दूसरा पक्ष ये भी है कि क्या कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद सीबीआई चीफ वास्तव में निडर हो गये हैं और राजनीतिक आकाओं से आदेश नहीं ले रहे? या फिर केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिखाने के लिये ऐसा करवाया ताकि वह उसके इस दबाव से मुक्त हो सके कि वह सी
कुछ सूत्र बताते हैं कि अन्दर की कहानी कुछ और है। इस वाकये से ये जताने की कोशिश की जा रही है कि सीबीआई निष्पक्ष है, मगर यह काँग्रेस के आन्तरिक झगड़े का परिणाम है। बताया जा रहा है कि प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के विश्वसनीय कानून मन्त्री अश्वनी कुमार के साथ बंसल की नाइत्तफाकी का ही नतीजा है कि उन्हें हल्का सा झटका दिया गया है।
बताते हैं कि कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद जब भाजपा ने अश्वनी कुमार पर इस्तीफे का दबाव बनाया तो काँग्रेस का एक गुट भी हमलावर हो गया और उसमें बंसल अग्रणी थे। इसी कारण बंसल को सीमा में रहने का इशारा देने के लिये इस प्रकार की कार्यवाही की गयी। यदि यह सच है तो इसका मतलब भी यही है कि सीबीआई सरकार के इशारे पर ही काम करती है। सहयोगी दलों बसपा व सपा पर शिकंजा कसने के लिये, चाहे अपने मन्त्रियों को हद में रखने के लिये, उसका उपयोग किया ही जाता है।
इस प्रकरण का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि बंसल के इस्तीफे पर राजग के दो प्रमुख घटक दल भाजपा और जनता दल यूनाइटेड में ही मतभेद हो गया है। भाजपा जहाँ बंसल का इस्तीफा माँग रही है तो जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि रेलमन्त्री के इस्तीफे की कोई आवश्यकता नहीं है। भांजे ने रिश्वत ली तो बंसल की क्या गलती है? है न चौंकाने वाला बयान? खैर, राजनीति में न जाने क्या-क्या होता है, क्यों-क्यों होता है, पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है।

Saturday, 4 May 2013

हिमालय की चोटी पर चढ़.....हिन्दू वीरों ने दहाड़ा है.....

हिमालय की चोटी पर चढ़.....हिन्दू वीरों ने दहाड़ा है......
दूर हटो ए दुनिया वालों......."हिन्दुस्थान " हमारा है.....
माना कि धरती के नक़्शे में………… . तादात हमारी कम है..।
महाकाल के भक्त हैं………क्या इतना गौरव कम है…?
टकरा पाये हमसे कोई………… .. किसमें इतना दम है..?
हम राम-कृष्ण के वंशज ……… जग में किससे कम है..??
हर हर महादेव... जय माँ भारती...

"कायरो की जमात" कांग्रेस

अगर भगवा आतंकवाद है तो क्या स्वामी विवेकानंद आतंकवादी थे ,बताये कांग्रेस जरा ।
अगर आतंकवाद है भगवा तो हम हसी हसी गले लगाने को तयार है ।
लेकिन कायरो की जमात कांग्रेस थी ,है और रहेगी इसको कोई झुठला नही सकता ।।
कभी थे अकेले हुए आज इतने
नही तब डरे तो भला अब डरेंगे
विरोधों के सागर में चट्टान है हम
जो टकराएंगे मौत अपनी मरेंगे
लिया हाथ में ध्वज कभी न झुकेगा
कदम बढ रहा है कभी न रुकेगा
न सूरज के सम्मुख अंधेरा टिकेगा
निडर है सभी हम अमर है सभी हम
के सर पर हमारे वरदहस्त करता
गगन में लहरता है भगवा हमारा॥
-----जय हिन्द ।।

transfer of power agreement

"Transfer of Power Agreement" को जाने और दुसरो को बताएं
14 अगस्त 1947 कि रात को आजादी नहीं आई बल्कि ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट हुआ था

सत्ता के हस्तांतरण की संधि ( Transfer of Power Agreement ) यानि भारत के आज़ादी की संधि | ये इतनी खतरनाक संधि है की अगर आप अंग्रेजों द्वारा सन 1615 से लेकर 1857 तक किये

गए सभी 565 संधियों या कहें साजिस को जोड़ देंगे तो उस से भी ज्यादा खतरनाक संधि है ये | 14 अगस्त 1947 की रात को जो कुछ हुआ है वो आजादी नहीं आई बल्कि ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का

एग्रीमेंट हुआ था पंडित नेहरु और लोर्ड माउन्ट बेटन के बीच में | Transfer of Power और Independence ये दो अलग चीजे है | स्वतंत्रता और सत्ता का हस्तांतरण ये दो अलग चीजे है |

और सत्ता का हस्तांतरण कैसे होता है ? आप देखते होंगे क़ि एक पार्टी की सरकार है, वो चुनाव में हार जाये, दूसरी पार्टी की सरकार आती है तो दूसरी पार्टी का प्रधानमन्त्री जब शपथ ग्रहण करता है,

तो वो शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद एक रजिस्टर पर हस्ताक्षर करता है, आप लोगों में से बहुतों ने देखा होगा, तो जिस रजिस्टर पर आने वाला प्रधानमन्त्री हस्ताक्षर करता है, उसी रजिस्टर को

ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर की बुक कहते है और उस पर हस्ताक्षर के बाद पुराना प्रधानमन्त्री नए प्रधानमन्त्री को सत्ता सौंप देता है | और पुराना प्रधानमंत्री निकल कर बाहर चला जाता है | यही

नाटक हुआ था 14 अगस्त 1947 की रात को 12 बजे | लार्ड माउन्ट बेटन ने अपनी सत्ता पंडित नेहरु के हाथ में सौंपी थी, और हमने कह दिया कि स्वराज्य आ गया | कैसा स्वराज्य और काहे का

स्वराज्य ? अंग्रेजो के लिए स्वराज्य का मतलब क्या था ? और हमारे लिए स्वराज्य का मतलब क्या था ? ये भी समझ लीजिये | अंग्रेज कहते थे क़ि हमने

स्वराज्य दिया, माने अंग्रेजों ने अपना राज तुमको सौंपा है ताकि तुम लोग कुछ दिन इसे चला लो जब जरुरत पड़ेगी तो हम दुबारा आ जायेंगे |

ये अंग्रेजो का interpretation (व्याख्या) था | और हिन्दुस्तानी लोगों की व्याख्या क्या थी कि हमने स्वराज्य ले लिया | और इस संधि के अनुसार ही भारत के दो टुकड़े किये गए और भारत और

पाकिस्तान नामक दो Dominion States बनाये गए हैं | ये Dominion State का अर्थ हिंदी में होता है एक बड़े राज्य के अधीन एक छोटा राज्य, ये शाब्दिक अर्थ है और भारत के सन्दर्भ में इसका

असल अर्थ भी यही है | अंग्रेजी में इसका एक अर्थ है "One of the self-governing nations in the British Commonwealth" और दूसरा "Dominance or power through legal authority "|

Dominion State और Independent Nation में जमीन आसमान का अंतर होता है | मतलब सीधा है क़ि हम (भारत और पाकिस्तान) आज भी अंग्रेजों के अधीन/मातहत ही हैं | दुःख तो ये होता

है की उस समय के सत्ता के लालची लोगों ने बिना सोचे समझे या आप कह सकते हैं क़ि पुरे होशो हवास में इस संधि को मान लिया या कहें जानबूझ कर ये सब स्वीकार कर लिया | और ये जो

तथाकथित आज़ादी आयी, इसका कानून अंग्रेजों के संसद में बनाया गया और इसका नाम रखा गया Indian Independence Act यानि भारत के स्वतंत्रता का कानून | और ऐसे धोखाधड़ी से अगर इस

देश की आजादी आई हो तो वो आजादी, आजादी है कहाँ ? और इसीलिए गाँधी जी (महात्मा गाँधी) 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में नहीं आये थे | वो नोआखाली में थे | और कोंग्रेस के बड़े नेता

गाँधी जी को बुलाने के लिए गए थे कि बापू चलिए आप | गाँधी जी ने मना कर दिया था | क्यों ? गाँधी जी कहते थे कि मै मानता नहीं कि कोई आजादी आ रही है | और गाँधी जी ने स्पस्ट कह दिया

था कि ये आजादी नहीं आ रही है सत्ता के हस्तांतरण का समझौता हो रहा है | और गाँधी जी ने नोआखाली से प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी |

उस प्रेस स्टेटमेंट के पहले ही वाक्य में गाँधी जी ने ये कहा कि मै हिन्दुस्तान के उन करोडो लोगों को ये सन्देश देना चाहता हु कि ये जो तथाकथित आजादी (So Called Freedom) आ रही है ये मै नहीं

लाया | ये सत्ता के लालची लोग सत्ता के हस्तांतरण के चक्कर में फंस कर लाये है | मै मानता नहीं कि इस देश में कोई आजादी आई है | और 14 अगस्त 1947 की रात को गाँधी जी दिल्ली में नहीं थे

नोआखाली में थे | माने भारत की राजनीति का सबसे बड़ा पुरोधा जिसने हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई की नीव रखी हो वो आदमी 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में मौजूद नहीं था | क्यों ?

इसका अर्थ है कि गाँधी जी इससे सहमत नहीं थे | (नोआखाली के दंगे तो एक बहाना था असल बात तो ये सत्ता का हस्तांतरण ही था) और 14 अगस्त 1947 की रात को जो कुछ हुआ है वो आजादी

नहीं आई .... ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट लागू हुआ था पंडित नेहरु और अंग्रेजी सरकार के बीच में | अब शर्तों की बात करता हूँ , सब का जिक्र करना तो संभव नहीं है लेकिन कुछ महत्वपूर्ण

शर्तों की जिक्र जरूर करूंगा जिसे एक आम भारतीय जानता है और उनसे परिचित है
इस संधि की शर्तों के मुताबिक हम आज भी अंग्रेजों के अधीन/मातहत ही हैं | वो एक शब्द आप सब

सुनते हैं न Commonwealth Nations | अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में Commonwealth Game हुए थे आप सब को याद होगा ही और उसी में बहुत बड़ा घोटाला भी हुआ है | ये Commonwealth

का मतलब होता है समान सम्पति | किसकी समान सम्पति ? ब्रिटेन की रानी की समान सम्पति | आप जानते हैं ब्रिटेन की महारानी हमारे भारत की भी महारानी है और वो आज भी भारत की

नागरिक है और हमारे जैसे 71 देशों की महारानी है वो | Commonwealth में 71 देश है और इन सभी 71 देशों में जाने के लिए ब्रिटेन की महारानी को वीजा की जरूरत नहीं होती है क्योंकि वो अपने

ही देश में जा रही है लेकिन भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को ब्रिटेन में जाने के लिए वीजा की जरूरत होती है क्योंकि वो दुसरे देश में जा रहे हैं | मतलब इसका निकाले तो ये हुआ कि या तो

ब्रिटेन की महारानी भारत की नागरिक है या फिर भारत आज भी ब्रिटेन का उपनिवेश है इसलिए ब्रिटेन की रानी को पासपोर्ट और वीजा की जरूरत नहीं होती है अगर दोनों बाते सही है तो 15 अगस्त

1947 को हमारी आज़ादी की बात कही जाती है वो झूठ है | और Commonwealth Nations में हमारी एंट्री जो है वो एक Dominion State के रूप में है न क़ि Independent Nation के रूप में| इस

देश में प्रोटोकोल है क़ि जब भी नए राष्ट्रपति बनेंगे तो 21 तोपों की सलामी दी जाएगी उसके अलावा किसी को भी नहीं | लेकिन ब्रिटेन की महारानी आती है तो उनको भी 21 तोपों की सलामी दी जाती

है, इसका क्या मतलब है? और पिछली बार ब्रिटेन की महारानी यहाँ आयी थी तो एक निमंत्रण पत्र छपा था और उस निमंत्रण पत्र में ऊपर जो नाम था वो ब्रिटेन की महारानी का था और उसके नीचे

भारत के राष्ट्रपति का नाम था मतलब हमारे देश का राष्ट्रपति देश का प्रथम नागरिक नहीं है | ये है राजनितिक गुलामी, हम कैसे माने क़ि हम एक स्वतंत्र देश में रह रहे हैं | एक शब्द आप सुनते होंगे

High Commission ये अंग्रेजों का एक गुलाम देश दुसरे गुलाम देश के यहाँ खोलता है लेकिन इसे Embassy नहीं कहा जाता | एक मानसिक गुलामी का उदहारण भी देखिये ....... हमारे यहाँ के

अख़बारों में आप देखते होंगे क़ि कैसे शब्द प्रयोग होते हैं - (ब्रिटेन की महारानी नहीं) महारानी एलिज़ाबेथ, (ब्रिटेन के प्रिन्स चार्ल्स नहीं) प्रिन्स चार्ल्स , (ब्रिटेन की प्रिंसेस नहीं) प्रिंसेस डैना (अब

तो वो हैं नहीं), अब तो एक और प्रिन्स विलियम भी आ गए है |
भारत का नाम INDIA रहेगा और सारी दुनिया में भारत का नाम इंडिया प्रचारित किया जायेगा और

सारे सरकारी दस्तावेजों में इसे इंडिया के ही नाम से संबोधित किया जायेगा | हमारे और आपके लिए ये भारत है लेकिन दस्तावेजों में ये इंडिया है | संविधान के प्रस्तावना में ये लिखा गया है

"India that is Bharat " जब क़ि होना ये चाहिए था "Bharat that was India " लेकिन दुर्भाग्य इस देश का क़ि ये भारत के जगह इंडिया हो गया | ये इसी संधि के शर्तों में से एक है | अब हम

भारत के लोग जो इंडिया कहते हैं वो कहीं से भी भारत नहीं है | कुछ दिन पहले मैं एक लेख पढ़ रहा था अब किसका था याद नहीं आ रहा है उसमे उस व्यक्ति ने बताया था कि इंडिया का नाम बदल के

भारत कर दिया जाये तो इस देश में आश्चर्यजनक बदलाव आ जायेगा और ये विश्व की बड़ी शक्ति बन जायेगा अब उस शख्स के बात में कितनी सच्चाई है मैं नहीं जानता, लेकिन भारत जब तक

भारत था तब तक तो दुनिया में सबसे आगे था और ये जब से इंडिया हुआ है तब से पीछे, पीछे और पीछे ही होता जा रहा है |

भारत के संसद में वन्दे मातरम नहीं गया जायेगा अगले 50 वर्षों तक यानि 1997 तक | 1997 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने इस मुद्दे को संसद में उठाया तब जाकर पहली बार इस तथाकथित

आजाद देश की संसद में वन्देमातरम गाया गया | 50 वर्षों तक नहीं गाया गया क्योंकि ये भी इसी संधि की शर्तों में से एक है | और वन्देमातरम को ले के मुसलमानों में जो भ्रम फैलाया गया वो

अंग्रेजों के दिशानिर्देश पर ही हुआ था | इस गीत में कुछ भी ऐसा आपत्तिजनक नहीं है जो मुसलमानों के दिल को ठेस पहुचाये | आपत्तिजनक तो जन,गन,मन में है जिसमे एक शख्स को

भारत भाग्यविधाता यानि भारत के हर व्यक्ति का भगवान बताया गया है या कहें भगवान से भी बढ़कर |

इस संधि की शर्तों के अनुसार सुभाष चन्द्र बोस को जिन्दा या मुर्दा अंग्रेजों के हवाले करना था | यही वजह रही क़ि सुभाष चन्द्र बोस अपने देश के लिए लापता रहे और कहाँ मर खप गए ये आज तक

किसी को मालूम नहीं है | समय समय पर कई अफवाहें फैली लेकिन सुभाष चन्द्र बोस का पता नहीं लगा और न ही किसी ने उनको ढूँढने में रूचि दिखाई | मतलब भारत का एक महान स्वतंत्रता

सेनानी अपने ही देश के लिए बेगाना हो गया | सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिंद फौज बनाई थी ये तो आप सब लोगों को मालूम होगा ही लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है क़ि ये 1942 में बनाया गया था और

उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और सुभाष चन्द्र बोस ने इस काम में जर्मन और जापानी लोगों से मदद ली थी जो कि अंग्रेजो के दुश्मन थे और इस आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों को

सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया था | और जर्मनी के हिटलर और इंग्लैंड के एटली और चर्चिल के व्यक्तिगत विवादों की वजह से ये द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ था और दोनों देश एक दुसरे के कट्टर

दुश्मन थे | एक दुश्मन देश की मदद से सुभाष चन्द्र बोस ने अंग्रेजों के नाकों चने चबवा दिए थे | एक तो अंग्रेज उधर विश्वयुद्ध में लगे थे दूसरी तरफ उन्हें भारत में भी सुभाष चन्द्र बोस की वजह से

परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था | इसलिए वे सुभाष चन्द्र बोस के दुश्मन थे |
इस संधि की शर्तों के अनुसार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकुल्लाह, रामप्रसाद विस्मिल

जैसे लोग आतंकवादी थे और यही हमारे syllabus में पढाया जाता था बहुत दिनों तक | और अभी एक महीने पहले तक ICSE बोर्ड के किताबों में भगत सिंह को आतंकवादी ही बताया जा रहा था, वो

तो भला हो कुछ लोगों का जिन्होंने अदालत में एक केस किया और अदालत ने इसे हटाने का आदेश दिया है (ये समाचार मैंने इन्टरनेट पर ही अभी कुछ दिन पहले देखा था) |

आप भारत के सभी बड़े रेलवे स्टेशन पर एक किताब की दुकान देखते होंगे "व्हीलर बुक स्टोर" वो इसी संधि की शर्तों के अनुसार है | ये व्हीलर कौन था ? ये व्हीलर सबसे बड़ा अत्याचारी था | इसने

इस देश क़ि हजारों माँ, बहन और बेटियों के साथ बलात्कार किया था | इसने किसानों पर सबसे ज्यादा गोलियां चलवाई थी | 1857 की क्रांति के बाद कानपुर के नजदीक बिठुर में व्हीलर और नील

नामक दो अंग्रजों ने यहाँ के सभी 24 हजार लोगों को जान से मरवा दिया था चाहे वो गोदी का बच्चा हो या मरणासन्न हालत में पड़ा कोई बुड्ढा | इस व्हीलर के नाम से इंग्लैंड में एक एजेंसी शुरू हुई थी

और वही भारत में आ गयी | भारत आजाद हुआ तो ये ख़त्म होना चाहिए था, नहीं तो कम से कम नाम भी बदल देते | लेकिन वो नहीं बदला गया क्योंकि ये इस संधि में है |

इस संधि की शर्तों के अनुसार अंग्रेज देश छोड़ के चले जायेगे लेकिन इस देश में कोई भी कानून चाहे वो किसी क्षेत्र में हो नहीं बदला जायेगा | इसलिए आज भी इस देश में 34735 कानून वैसे के वैसे

चल रहे हैं जैसे अंग्रेजों के समय चलता था | Indian Police Act, Indian Civil Services Act (अब इसका नाम है Indian Civil Administrative Act), Indian Penal Code (Ireland में भी IPC

चलता है और Ireland में जहाँ "I" का मतलब Irish है वही भारत के IPC में "I" का मतलब Indian है बाकि सब के सब कंटेंट एक ही है, कौमा और फुल स्टॉप का भी अंतर नहीं है) Indian

Citizenship Act, Indian Advocates Act, Indian Education Act, Land Acquisition Act, Criminal Procedure Act, Indian Evidence Act, Indian Income Tax Act, Indian Forest

Act, Indian Agricultural Price Commission Act सब के सब आज भी वैसे ही चल रहे हैं बिना फुल स्टॉप और कौमा बदले हुए |

इस संधि के अनुसार अंग्रेजों द्वारा बनाये गए भवन जैसे के तैसे रखे जायेंगे | शहर का नाम, सड़क का नाम सब के सब वैसे ही रखे जायेंगे | आज देश का संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, राष्ट्रपति

भवन कितने नाम गिनाऊँ सब के सब वैसे ही खड़े हैं और हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं | लार्ड डलहौजी के नाम पर डलहौजी शहर है , वास्को डी गामा नामक शहर है (हाला क़ि वो पुर्तगाली था ) रिपन रोड,

कर्जन रोड, मेयो रोड, बेंटिक रोड, (पटना में) फ्रेजर रोड, बेली रोड, ऐसे हजारों भवन और रोड हैं, सब के सब वैसे के वैसे ही हैं | आप भी अपने शहर में देखिएगा वहां भी कोई न कोई भवन, सड़क उन

लोगों के नाम से होंगे | हमारे गुजरात में एक शहर है सूरत, इस सूरत शहर में एक बिल्डिंग है उसका नाम है कूपर विला | अंग्रेजों को जब जहाँगीर ने व्यापार का लाइसेंस दिया था तो सबसे पहले वो

सूरत में आये थे और सूरत में उन्होंने इस बिल्डिंग का निर्माण किया था | ये गुलामी का पहला अध्याय आज तक सूरत शहर में खड़ा है |

हमारे यहाँ शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजों की है क्योंकि ये इस संधि में लिखा है और मजे क़ि बात ये है क़ि अंग्रेजों ने हमारे यहाँ एक शिक्षा व्यवस्था दी और अपने यहाँ अलग किस्म क़ि शिक्षा व्यवस्था रखी है

| हमारे यहाँ शिक्षा में डिग्री का महत्व है और उनके यहाँ ठीक उल्टा है | मेरे पास ज्ञान है और मैं कोई

अविष्कार करता हूँ तो भारत में पूछा जायेगा क़ि तुम्हारे पास कौन सी डिग्री है ? अगर नहीं है तो मेरे अविष्कार और ज्ञान का कोई मतलब नहीं है | जबकि उनके यहाँ ऐसा बिलकुल नहीं है आप अगर

कोई अविष्कार करते हैं और आपके पास ज्ञान है लेकिन कोई डिग्री नहीं हैं तो कोई बात नहीं आपको प्रोत्साहित किया जायेगा | नोबेल पुरस्कार पाने के लिए आपको डिग्री की जरूरत नहीं होती है | हमारे

शिक्षा तंत्र को अंग्रेजों ने डिग्री में बांध दिया था जो आज भी वैसे के वैसा ही चल रहा है | ये जो 30 नंबर का पास मार्क्स आप देखते हैं वो उसी शिक्षा व्यवस्था क़ि देन है, मतलब ये है क़ि आप भले ही

70 नंबर में फेल है लेकिन 30 नंबर लाये है तो पास हैं, ऐसा शिक्षा तंत्र से सिर्फ गदहे ही पैदा हो सकते हैं और यही अंग्रेज चाहते थे | आप देखते होंगे क़ि हमारे देश में एक विषय चलता है जिसका

नाम है Anthropology | जानते है इसमें क्या पढाया जाता है ? इसमें गुलाम लोगों क़ि मानसिक अवस्था के बारे में पढाया जाता है | और ये अंग्रेजों ने ही इस देश में शुरू किया था और आज आज़ादी

के 64 साल बाद भी ये इस देश के विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है और यहाँ तक क़ि सिविल सर्विस की परीक्षा में भी ये चलता है |

इस संधि की शर्तों के हिसाब से हमारे देश में आयुर्वेद को कोई सहयोग नहीं दिया जायेगा मतलब हमारे देश की विद्या हमारे ही देश में ख़त्म हो जाये ये साजिस की गयी | आयुर्वेद को अंग्रेजों ने नष्ट

करने का भरसक प्रयास किया था लेकिन ऐसा कर नहीं पाए | दुनिया में जितने भी पैथी हैं उनमे ये होता है क़ि पहले आप बीमार हों तो आपका इलाज होगा लेकिन आयुर्वेद एक ऐसी विद्या है जिसमे

कहा जाता है क़ि आप बीमार ही मत पड़िए | आपको मैं एक सच्ची घटना बताता हूँ -जोर्ज वाशिंगटन जो क़ि अमेरिका का पहला राष्ट्रपति था वो दिसम्बर 1799 में बीमार पड़ा और जब उसका बुखार

ठीक नहीं हो रहा था तो उसके डाक्टरों ने कहा क़ि इनके शरीर का खून गन्दा हो गया है जब इसको निकाला जायेगा तो ये बुखार ठीक होगा और उसके दोनों हाथों क़ि नसें डाक्टरों ने काट दी और खून

निकल जाने की वजह से जोर्ज वाशिंगटन मर गया | ये घटना 1799 की है और 1780 में एक अंग्रेज भारत आया था और यहाँ से प्लास्टिक सर्जरी सीख के गया था | मतलब कहने का ये है क़ि हमारे

देश का चिकित्सा विज्ञान कितना विकसित था उस समय | और ये सब आयुर्वेद की वजह से था और उसी आयुर्वेद को आज हमारे सरकार ने हाशिये पर पंहुचा दिया है |

इस संधि के हिसाब से हमारे देश में गुरुकुल संस्कृति को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जायेगा | हमारे

देश के समृद्धि और यहाँ मौजूद उच्च तकनीक की वजह ये गुरुकुल ही थे | और अंग्रेजों ने सबसे पहले इस देश की गुरुकुल परंपरा को ही तोडा था, मैं यहाँ लार्ड मेकॉले की एक उक्ति को यहाँ बताना

चाहूँगा जो उसने 2 फ़रवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में दिया था, उसने कहा था ""I have traveled across the length and breadth of India and have not seen one person who is a

beggar, who is a thief, such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such caliber, that I do not think we would ever conquer this

country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and

cultural heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient
education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and

English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their
native culture and they will become what we want them, a truly dominated nation" |

गुरुकुल का मतलब हम लोग केवल वेद, पुराण,उपनिषद ही समझते हैं जो की हमारी मुर्खता है
अगर आज की भाषा में कहूं तो ये गुरुकुल जो होते थे वो सब के सब Higher Learning Institute
हुआ करते थे |

इस संधि में एक और खास बात है | इसमें कहा गया है क़ि अगर हमारे देश के (भारत के) अदालत में कोई ऐसा मुक़दमा आ जाये जिसके फैसले के लिए कोई कानून न हो इस देश में या उसके फैसले

को लेकर संबिधान में भी कोई जानकारी न हो तो साफ़ साफ़ संधि में लिखा गया है क़ि वो सारे

मुकदमों का फैसला अंग्रेजों के न्याय पद्धति के आदर्शों के आधार पर ही होगा, भारतीय न्याय पद्धति का आदर्श उसमे लागू नहीं होगा | कितनी शर्मनाक स्थिति है ये क़ि हमें अभी भी अंग्रेजों का ही अनुसरण करना होगा |

भारत में आज़ादी की लड़ाई हुई तो वो ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ था और संधि के हिसाब से ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत छोड़ के जाना था और वो चली भी गयी लेकिन इस संधि में ये भी है

क़ि ईस्ट इंडिया कम्पनी तो जाएगी भारत से लेकिन बाकि 126 विदेशी कंपनियां भारत में रहेंगी और भारत सरकार उनको पूरा संरक्षण देगी | और उसी का नतीजा है क़ि ब्रुक बोंड, लिप्टन, बाटा,

हिंदुस्तान लीवर (अब हिंदुस्तान यूनिलीवर) जैसी 126 कंपनियां आज़ादी के बाद इस देश में बची रह गयी और लुटती रही और आज भी वो सिलसिला जारी है |

अंग्रेजी का स्थान अंग्रेजों के जाने के बाद वैसे ही रहेगा भारत में जैसा क़ि अभी (1946 में) है और ये भी इसी संधि का हिस्सा है | आप देखिये क़ि हमारे देश में, संसद में, न्यायपालिका में, कार्यालयों में

हर कहीं अंग्रेजी, अंग्रेजी और अंग्रेजी है जब क़ि इस देश में 99% लोगों को अंग्रेजी नहीं आती है | और उन 1% लोगों क़ि हालत देखिये क़ि उन्हें मालूम ही नहीं रहता है क़ि उनको पढना क्या है और UNO

में जा के भारत के जगह पुर्तगाल का भाषण पढ़ जाते हैं |
आप में से बहुत लोगों को याद होगा क़ि हमारे देश में आजादी के 50 साल बाद तक संसद में वार्षिक

बजट शाम को 5:00 बजे पेश किया जाता था | जानते है क्यों ? क्योंकि जब हमारे देश में शाम के 5:00 बजते हैं तो लन्दन में सुबह के 11:30 बजते हैं और अंग्रेज अपनी सुविधा से उनको सुन सके

और उस बजट की समीक्षा कर सके | इतनी गुलामी में रहा है ये देश | ये भी इसी संधि का हिस्सा है |
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ तो अंग्रेजों ने भारत में राशन कार्ड का सिस्टम शुरू किया

क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों को अनाज क़ि जरूरत थी और वे ये अनाज भारत से चाहते थे | इसीलिए उन्होंने यहाँ जनवितरण प्रणाली और राशन कार्ड क़ि शुरुआत क़ि | वो प्रणाली आज भी

लागू है इस देश में क्योंकि वो इस संधि में है | और इस राशन कार्ड को पहचान पत्र के रूप में इस्तेमाल उसी समय शुरू किया गया और वो आज भी जारी है | जिनके पास राशन कार्ड होता था

उन्हें ही वोट देने का अधिकार होता था | आज भी देखिये राशन कार्ड ही मुख्य पहचान पत्र है इस देश में |

अंग्रेजों के आने के पहले इस देश में गायों को काटने का कोई कत्लखाना नहीं था | मुगलों के समय तो ये कानून था क़ि कोई अगर गाय को काट दे तो उसका हाथ काट दिया जाता था | अंग्रेज यहाँ आये

तो उन्होंने पहली बार कलकत्ता में गाय काटने का कत्लखाना शुरू किया, पहला शराबखाना शुरू किया, पहला वेश्यालय शुरू किया और इस देश में जहाँ जहाँ अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी वहां

वहां वेश्याघर बनाये गए, वहां वहां शराबखाना खुला, वहां वहां गाय के काटने के लिए कत्लखाना खुला | ऐसे पुरे देश में 355 छावनियां थी उन अंग्रेजों के | अब ये सब क्यों बनाये गए थे ये आप सब

आसानी से समझ सकते हैं | अंग्रेजों के जाने के बाद ये सब ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ क्योंक़ि ये भी इसी संधि में है |

हमारे देश में जो संसदीय लोकतंत्र है वो दरअसल अंग्रेजों का वेस्टमिन्स्टर सिस्टम है | ये अंग्रेजो के

इंग्लैंड क़ि संसदीय प्रणाली है | ये कहीं से भी न संसदीय है और न ही लोकतान्त्रिक है| लेकिन इस देश में वही सिस्टम है क्योंकि वो इस संधि में कहा गया है | और इसी वेस्टमिन्स्टर सिस्टम को

महात्मा गाँधी बाँझ और वेश्या कहते थे (मतलब आप समझ गए होंगे) |

ऐसी हजारों शर्तें हैं | मैंने अभी जितना जरूरी समझा उतना लिखा है | मतलब यही है क़ि इस देश में जो कुछ भी अभी चल रहा है वो सब अंग्रेजों का है हमारा कुछ नहीं है | अब आप के मन में ये सवाल

हो रहा होगा क़ि पहले के राजाओं को तो अंग्रेजी नहीं आती थी तो वो खतरनाक संधियों (साजिस) के जाल में फँस कर अपना राज्य गवां बैठे लेकिन आज़ादी के समय वाले नेताओं को तो अच्छी अंग्रेजी

आती थी फिर वो कैसे इन संधियों के जाल में फँस गए | इसका कारण थोडा भिन्न है क्योंकि आज़ादी के समय वाले नेता अंग्रेजों को अपना आदर्श मानते थे इसलिए उन्होंने जानबूझ कर ये

संधि क़ि थी | वो मानते थे क़ि अंग्रेजों से बढियां कोई नहीं है इस दुनिया में | भारत की आज़ादी के समय के नेताओं के भाषण आप पढेंगे तो आप पाएंगे क़ि वो केवल देखने में ही भारतीय थे लेकिन

मन,कर्म और वचन से अंग्रेज ही थे | वे कहते थे क़ि सारा आदर्श है तो अंग्रेजों में, आदर्श शिक्षा व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श अर्थव्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श चिकित्सा व्यवस्था है तो

अंग्रेजों की, आदर्श कृषि व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श न्याय व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श कानून व्यवस्था है तो अंग्रेजों की | हमारे आज़ादी के समय के नेताओं को अंग्रेजों से बड़ा आदर्श कोई

दिखता नहीं था और वे ताल ठोक ठोक कर कहते थे क़ि हमें भारत अंग्रेजों जैसा बनाना है | अंग्रेज हमें जिस रस्ते पर चलाएंगे उसी रास्ते पर हम चलेंगे | इसीलिए वे ऐसी मूर्खतापूर्ण संधियों में फंसे |

अगर आप अभी तक उन्हें देशभक्त मान रहे थे तो ये भ्रम दिल से निकाल दीजिये | और आप अगर समझ रहे हैं क़ि वो ABC पार्टी के नेता ख़राब थे या हैं तो XYZ पार्टी के नेता भी दूध के धुले नहीं हैं |

आप किसी को भी अच्छा मत समझिएगा क्योंक़ि आज़ादी के बाद के इन 64 सालों में सब ने चाहे वो राष्ट्रीय पार्टी हो या प्रादेशिक पार्टी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद तो

सबो ने चखा ही है | खैर ...............

तो भारत क़ि गुलामी जो अंग्रेजों के ज़माने में थी, अंग्रेजों के जाने के 64 साल बाद आज 2011 में जस क़ि तस है क्योंकि हमने संधि कर रखी है और देश को इन खतरनाक संधियों के मकडजाल में

फंसा रखा है | बहुत दुःख होता है अपने देश के बारे जानकार और सोच कर | मैं ये सब कोई ख़ुशी से नहीं लिखता हूँ ये मेरे दिल का दर्द होता है जो मैं आप लोगों से शेयर करता हूँ |

ये सब बदलना जरूरी है लेकिन हमें सरकार नहीं व्यवस्था बदलनी होगी और आप अगर सोच रहे हैं क़ि कोई मसीहा आएगा और सब बदल देगा तो आप ग़लतफ़हमी में जी रहे हैं | कोई हनुमान जी,

कोई राम जी, या कोई कृष्ण जी नहीं आने वाले | आपको और हमको ही ये सारे अवतार में आना होगा, हमें ही सड़कों पर उतरना होगा और और इस व्यवस्था को जड मूल से समाप्त करना होगा |

भगवान भी उसी की मदद करते हैं जो अपनी मदद स्वयं करता है |

ब्रिटेन की संसद द्वारा पास किये गए "भारत की आज़ादी का कानून-1947" की छायाप्रति संलग्न है- pdf Copy of "Indian Independance Act-1947"

यह वही कानून जिसकी वजह से भारत का बटवारा हुआ और इसके बारे में हमें कभी भी नहीं बताया गया| इसमे साफ-साफ़ लिखा है कि इंडिया और पाकिस्तान ब्रिटेन की सत्ता के अधीन होंगे और इसी में लिखा है कि इन अधीन राज्यों का गठन 15 अगस्त-1947 को किया जायेगा| इसी के आधार पर "ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर अग्रीमेंट" हुआ था जिस पर नेहरू और माउन्ट बेटन ने 14 अगस्त 1947 की रात को हस्ताक्षर किया था |

इस सच को सभी भारतियों तक पहुँचा कर अपना राष्ट्र धर्म निभाएं वन्देमातरम !
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आपने स्वयं और अपने परिवार के लिए सब कुछ किया, देश के लिए भी कुछ करिये,
क्या यह देश सिर्फ उन्ही लोगो का है जो सीमाओं पर मर जाते हैं??? सोचिये......