कालमान एवं तिथिगण्ना किसी भी देश की ऐतिहासिकता की आधारशीला होती है।
किंतु जिस तरह से हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को
विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व धूमिल कर रहा है,कमोवेश यही हश्र हमारे
राष्ट्रीय पंचांग,मसलन कैलेण्डर का भी है। किसी पंचांग की कालगण्ना का आधार
कोर्इ न कोर्इ प्रचलित संवत होता है। हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक
संवत है। हालांकि शक संवत को राष्ट्रीय संवत की मान्यता नहीं मिलनी चाहिए
थी, क्योंकि शक परदेशी थे और हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे।
हालांकि यह अलग बात है कि शक भारत में बसने के बाद भारतीय संस्कृति में ऐसे
रच बस गए कि अनकी मूल पहचान लुप्त हो गर्इ। बावजूद शक संवत को राष्ट्रीय
संवत की मान्यता नहीं देनी चाहिए थी। क्योंकि इसके लागू होने बाद भी हम इस
संवत अनुसार न तो कोर्इ राष्ट्रीय पर्व व जयंतिया मानते हैं और न ही लोक
परंपरा के पर्व। तय है, इस संवत का हमारे दैनंदिन जीवन में कोर्इ महत्व
नहीं रह गया है। इसके वनिस्वत हमारे संपूर्ण राष्ट्र के लोक व्यवहार में
है,विक्रम संवत के आधार पर तैयार किया गया पंचांग। हमारे सभी प्रमुख
त्यौहार और तिथियां इसी पंचांग के अनुसार लोक मानस में मनाए जाते हैं। इस
पंचांग की विलक्षण्ता है कि यह र्इसा संवत से तैयार ग्रेगेरियन कैलेंडर से
भी 57 साल पहले वर्चस्व में आ गया था,जबकि शक संवत की शुरूआत र्इसा संवत के
78 साल बाद हुर्इ थी। मसलन हमने कालगणना में गुलाम मानसिकता का परिचय देते
हुए पिछड़ेपन को ही स्वीकारा।
प्रचीन भारत और मघ्यअमेरिका दो ही ऐसे देश थे, जहां आधुनिक सैकेण्ड से सूक्ष्मतर और प्रकाशवर्ष जैसे उत्कृष्ठ कालमान प्रचलन में थे। अमेरिका में मयसभ्यता का वर्चस्व था। में संस्कृति में शुक्रग्रह के आधार पर कालगण्ना की जाती थी। विश्वकर्मा मय,दानवों के गुरू शुक्राचार्य का पौत्र और शिल्पकार त्वष्टा का पुत्र था। मय के वंशजो ने अनेक देशों में अपनी सभ्यता को विस्तार दिया। इस सभ्यता की दो प्रमुख विशेषताएं थीं, स्थापत्य कला और दूसरी सूक्ष्म ज्योतिष व खगोलीय गण्ना में निपुण्ता। रावण की लंका का निर्माण इन्हीं गय दानवों ने किया था। प्रचीन समय में युग,मनवन्तर,कल्प जैसे महत्तम और कालांश लधुतम समय मापक विधियां प्रचलन में थीं। समय नापने के कालांश को निम्न नाम दिए गए हैं, 14 निमेष यानी 1 तुट, 2 तुट यानी 1 लव,2 लव यानी 1 निमेष, 5 निमेष यानी एक काष्ठा, 30 काष्ठा यानी 1 कला, 40 कला यानी 1 नाडि़का,2 नाडि़का यानी 1 मुहुर्त, 15 यानी 1 अहोरत्र, 15 अहोरात्र यानी 1 पक्ष, 7 अहोरत्र यानी 1 सप्ताह, 2 सप्ताह यानी 1 पक्ष, 2 पक्ष यानी 1 मास, 12 मास यानी 1 वर्ष। र्इसा से 1000 से 500 साल पहले ही भारतीय ़ऋृषियों ने अपनी आश्चर्यजनक ज्ञानशकित द्वारा आकाश मण्डल के उन समस्त तत्वों का ज्ञान हासिल कर लिया था,जो कालगण्ना के लिए जरूरी थे,इसिलिए वेद,उपनिषद्र आयुर्वेद,ज्योतिष और ब्राह्राण संहिताओं में मास,ऋतु,अयन,वर्ष,युग,ग्रह,ग्रहण,ग्रहकक्षा,नक्षत्र,विषव और दिन-रात का मान तथा उसकी वृद्धि-हानि संबंधी विवरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
ऋृगवेद में वर्ष को 12 चंद्रमासों में बांटा गया है। हरेक तीसरे वर्ष चंद्र और सौर वर्ष का तालमेल बिठाने के लिए एक अधिकमास जोड़ा गया। इसे मलमास भी कहा जाता है। ऋृगवेद की ऋचा संख्या 1,164,48 में एक पूरे वर्ष का विविरण इस प्रकार उल्लेखित है-
द्वादश प्रघयश्चक्रमेंक त्रीणि नम्यानि क उ तशिचकेत।
तसिमन्त्साकं त्रिशता न शंकोवो•र्पिता: षषिटर्न चलाचलास:।
इसी तरह प्रश्नव्याकरण में 12 महिनों की तरह 12 पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम और उनके फल बताए गए हैं। ऐतरेय ब्राह्राण में 5 प्रकार की ऋतुओं का वर्णन है। तैत्तिरीय ब्राह्राण में ऋतुओं को पक्षी के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है-
तस्य ते वसन्त: शिर:। ग्रीष्मो दक्षिण: पक्ष: वर्ष: पुच्छम।
शरत पक्ष:। हेमान्तो मघ्यम।
अर्थात वर्ष का सिर वसंत है। दाहिना पंख ग्रीष्म। बायां पंख शरद। पूंछ वर्षा और हेमन्त को मघ्य भाग कहा गया है। मसलन तैत्तिरीय ब्राह्राण काल में वर्ष और ऋतुओं की पहचान और उनके समय का निर्धारण प्रचलन में आ गया था। ऋतुओं की सिथति सूर्य की गति पर आधारित थी। एक वर्ष में सौर मास की शुरूआत,चंद्रमास के प्रारंभ से होती थी। प्रथम वर्ष के सौर मास का आरंभ शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को और आगे आने वाले तीसरे वर्ष में सौर मास का आरंभ कृष्ण पक्ष की अष्ठमी से होता था। तैत्तिरीय संहिता में सूर्य के 6 माह उत्तारयण और 6 माह दक्षिणायन रहने की सिथति का भी उल्लेख है। दरअसल जम्बू द्वीप के बीच में सुमेरू पर्वत है। सूर्य और चन्द्र्रमा समेत सभी ज्योर्तिमण्डल इस पर्वत की परिक्रमा करते हैं। सूर्य जब जम्बूद्वीप के अंतिम आभ्यातंर मार्ग से बाहर की ओर निकलता हुआ लवण समुद्र्र की ओर जाता है,तब इस काल को दक्षिणायन और जब सूर्य लवण समुद्र्र के अंतिम मार्ग से भ्रमण करता हुआ जम्बूद्वीप की ओर कूच करता है,तो इस कालखण्ड को उत्तरायण कहते हैं।
ऋगवेद में युग का कालखण्ड 5 वर्ष माना गया है। इस पांच साला युग के पहले वर्ष को संवत्सर,दूसरे को परिवत्सर,तीसरे को इदावत्सर,चौथे को अनुवत्सर और पांचवें वर्ष को इद्वत्सर कहा गया है। इन सब उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि ऋगवैदिक काल से ही चन्द्र्रमास और सौर वर्ष के आधार पर की गर्इ कालगणना प्रचलन में आने लगी थी, जिसे जन सामान्य ने स्वीकार कर लिया था। चंद्रकला की वृद्धि और उसके क्षय के निष्कर्षां को समय नापने का आधार माना गया। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के आधार पर उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने विक्रम संवत की विधिवत शुरूआत की। इस दैंनंदिन तिथी गण्ना को पंचांग कहा गया। किंतु जब स्वतंत्रता प्रापित के बाद अपना राष्ट्रीय संवत अपनाने की बात आर्इ तो राष्ट्रभाषा की तरह सांमती मानसिकता के लोगों ने विक्रम संवत को राष्ट्रीय संवत की मान्यता देने में विवाद पैदा कर दिए। कहा गया कि भारतीय कालगणना उलझाऊ है। इसमें तिथियों और मासों का परिमाप धटता-बढ़ता है,इसलिए यह अवैज्ञानिक है। जबकि राष्ट्रीय न होते हुए भी सरकारी प्रचलन में जो ग्रेगेरियन कैलेंडर है,उसमें भी तिथियों का मान धटता-बढ़ता है। मास 30 और 31 दिन के होते हैं। इसके अलावा फरवरी माह कभी 28 तो कभी 29 दिन का होता है। तिथियों में संतुलन बिठाने के इस उपाय को ‘लीप र्इयर यानी ‘अधिक वर्ष कहा जाता है। ऋगवेद से लेकर विक्रम संवत तक की सभी भारतीय कालगाण्नाओं में इसे अधिकमास ही कहा गया है। ग्रेगेरियन केलैंण्डर की रेखाकिंत कि जाने वाली महत्वपूर्ण विसंगति यह है कि दुनिया भर की कालगण्नाओं में वर्ष का प्रारंभ वसंत के बीच या उसके आसपास से होता है,जो फागुन में अंगडार्इ लेता है। इसके तत्काल बाद ही चैत्र मास की शुरूआत होती है। इसी समय नर्इ फसल पक कर तैयार होती है,जो एक ऋतुचक्र समाप्त होने और नये वर्ष के ऋतुचक्र के प्रारंभ का संकेत है। दुनिया की सभी अर्थ व्यवस्थाएं और वित्तीय लेखे-जोखे भीइसी समय नया रूप लेते हैं। अंग्रेजी महीनों के अनुसार वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च का होता है। ग्राम और कृषि आधारित अर्थ व्यवस्थाओं के वर्ष का यही आधार है। इसलिए हिंदी मास या विक्रम संवत में चैत्र और वैशाख महिनों को मधुमास कहा गया है। इसी दौरान चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी गुड़ी पड़वा से नया संवत्सर प्रारंभ होता है। जबकि ग्रेगेरियन में नए साल की शुरूआत पौष मास अर्थात जनवरी से होती है,जो किसी भी उल्लेखनीय परिर्वतन का प्रतीक नहीं है।
विक्रम संवत की उपयोगिता ऋतुओं से जुड़ी थी,इसलिए वह ऋगवैदिक काल से ही जनसामान्य में प्रचलन में थी। बावजूद हमने शक संवत को राष्ट्रीय संवत के रूप में स्वीकारा,जो शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है। क्योंकि शक विदेशी होने के साथ आक्रांता थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने उन्हें उज्जैन में परास्त कर उत्तरी मघ्य भारत में शकों का अंत किया और विक्रमादित्य की उपधि धारण की। यह ऐतिहासिक धटना र्इसा सन से 57 साल पहले धटी और विक्रमादित्य ने इसी दिन से विक्रम संवत की शुरूआत की। जबकि इन्हीं शकों की एक लड़ाकू टूकड़ी को कुषाण शासक कनिष्क ने मगध और पाटलीपुत्र में र्इसा सन के 78 साल बाद परास्त किया और शक संवत की शुरूआत की। विक्रमादित्य को इतिहास के पन्नों में ‘शकारी भी कहा गया है,अर्थात शकों का नाश करने वाला शत्रु। शत्रुता तभी होती है जब किसी राष्ट्र की संप्रभुता और संस्कृति को क्षति पहुंचाने का दुश्चक्र कोर्इ विदेशी आक्रमणकारी रचता है। इस सब के बावजूद राष्ट्रीयता के बहाने हमें र्इसा संवत को त्यागना पड़ा तो विक्रम संवत की बजाए शक संवत को स्वीकार लिया। मसलन पंचांग यानी कैलेंडर की दुनिया में 57 साल आगे रहने की बजाए हमने 78 साल पीछे रहना उचित समझा ? अपनी गरिमा को पीछे धकेलना हमारी मानसिक गुलामी की विचित्र विडंबना है, जिसका स्थायीभाव नष्ट नहीं होता।
प्रचीन भारत और मघ्यअमेरिका दो ही ऐसे देश थे, जहां आधुनिक सैकेण्ड से सूक्ष्मतर और प्रकाशवर्ष जैसे उत्कृष्ठ कालमान प्रचलन में थे। अमेरिका में मयसभ्यता का वर्चस्व था। में संस्कृति में शुक्रग्रह के आधार पर कालगण्ना की जाती थी। विश्वकर्मा मय,दानवों के गुरू शुक्राचार्य का पौत्र और शिल्पकार त्वष्टा का पुत्र था। मय के वंशजो ने अनेक देशों में अपनी सभ्यता को विस्तार दिया। इस सभ्यता की दो प्रमुख विशेषताएं थीं, स्थापत्य कला और दूसरी सूक्ष्म ज्योतिष व खगोलीय गण्ना में निपुण्ता। रावण की लंका का निर्माण इन्हीं गय दानवों ने किया था। प्रचीन समय में युग,मनवन्तर,कल्प जैसे महत्तम और कालांश लधुतम समय मापक विधियां प्रचलन में थीं। समय नापने के कालांश को निम्न नाम दिए गए हैं, 14 निमेष यानी 1 तुट, 2 तुट यानी 1 लव,2 लव यानी 1 निमेष, 5 निमेष यानी एक काष्ठा, 30 काष्ठा यानी 1 कला, 40 कला यानी 1 नाडि़का,2 नाडि़का यानी 1 मुहुर्त, 15 यानी 1 अहोरत्र, 15 अहोरात्र यानी 1 पक्ष, 7 अहोरत्र यानी 1 सप्ताह, 2 सप्ताह यानी 1 पक्ष, 2 पक्ष यानी 1 मास, 12 मास यानी 1 वर्ष। र्इसा से 1000 से 500 साल पहले ही भारतीय ़ऋृषियों ने अपनी आश्चर्यजनक ज्ञानशकित द्वारा आकाश मण्डल के उन समस्त तत्वों का ज्ञान हासिल कर लिया था,जो कालगण्ना के लिए जरूरी थे,इसिलिए वेद,उपनिषद्र आयुर्वेद,ज्योतिष और ब्राह्राण संहिताओं में मास,ऋतु,अयन,वर्ष,युग,ग्रह,ग्रहण,ग्रहकक्षा,नक्षत्र,विषव और दिन-रात का मान तथा उसकी वृद्धि-हानि संबंधी विवरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
ऋृगवेद में वर्ष को 12 चंद्रमासों में बांटा गया है। हरेक तीसरे वर्ष चंद्र और सौर वर्ष का तालमेल बिठाने के लिए एक अधिकमास जोड़ा गया। इसे मलमास भी कहा जाता है। ऋृगवेद की ऋचा संख्या 1,164,48 में एक पूरे वर्ष का विविरण इस प्रकार उल्लेखित है-
द्वादश प्रघयश्चक्रमेंक त्रीणि नम्यानि क उ तशिचकेत।
तसिमन्त्साकं त्रिशता न शंकोवो•र्पिता: षषिटर्न चलाचलास:।
इसी तरह प्रश्नव्याकरण में 12 महिनों की तरह 12 पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम और उनके फल बताए गए हैं। ऐतरेय ब्राह्राण में 5 प्रकार की ऋतुओं का वर्णन है। तैत्तिरीय ब्राह्राण में ऋतुओं को पक्षी के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है-
तस्य ते वसन्त: शिर:। ग्रीष्मो दक्षिण: पक्ष: वर्ष: पुच्छम।
शरत पक्ष:। हेमान्तो मघ्यम।
अर्थात वर्ष का सिर वसंत है। दाहिना पंख ग्रीष्म। बायां पंख शरद। पूंछ वर्षा और हेमन्त को मघ्य भाग कहा गया है। मसलन तैत्तिरीय ब्राह्राण काल में वर्ष और ऋतुओं की पहचान और उनके समय का निर्धारण प्रचलन में आ गया था। ऋतुओं की सिथति सूर्य की गति पर आधारित थी। एक वर्ष में सौर मास की शुरूआत,चंद्रमास के प्रारंभ से होती थी। प्रथम वर्ष के सौर मास का आरंभ शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को और आगे आने वाले तीसरे वर्ष में सौर मास का आरंभ कृष्ण पक्ष की अष्ठमी से होता था। तैत्तिरीय संहिता में सूर्य के 6 माह उत्तारयण और 6 माह दक्षिणायन रहने की सिथति का भी उल्लेख है। दरअसल जम्बू द्वीप के बीच में सुमेरू पर्वत है। सूर्य और चन्द्र्रमा समेत सभी ज्योर्तिमण्डल इस पर्वत की परिक्रमा करते हैं। सूर्य जब जम्बूद्वीप के अंतिम आभ्यातंर मार्ग से बाहर की ओर निकलता हुआ लवण समुद्र्र की ओर जाता है,तब इस काल को दक्षिणायन और जब सूर्य लवण समुद्र्र के अंतिम मार्ग से भ्रमण करता हुआ जम्बूद्वीप की ओर कूच करता है,तो इस कालखण्ड को उत्तरायण कहते हैं।
ऋगवेद में युग का कालखण्ड 5 वर्ष माना गया है। इस पांच साला युग के पहले वर्ष को संवत्सर,दूसरे को परिवत्सर,तीसरे को इदावत्सर,चौथे को अनुवत्सर और पांचवें वर्ष को इद्वत्सर कहा गया है। इन सब उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि ऋगवैदिक काल से ही चन्द्र्रमास और सौर वर्ष के आधार पर की गर्इ कालगणना प्रचलन में आने लगी थी, जिसे जन सामान्य ने स्वीकार कर लिया था। चंद्रकला की वृद्धि और उसके क्षय के निष्कर्षां को समय नापने का आधार माना गया। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के आधार पर उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने विक्रम संवत की विधिवत शुरूआत की। इस दैंनंदिन तिथी गण्ना को पंचांग कहा गया। किंतु जब स्वतंत्रता प्रापित के बाद अपना राष्ट्रीय संवत अपनाने की बात आर्इ तो राष्ट्रभाषा की तरह सांमती मानसिकता के लोगों ने विक्रम संवत को राष्ट्रीय संवत की मान्यता देने में विवाद पैदा कर दिए। कहा गया कि भारतीय कालगणना उलझाऊ है। इसमें तिथियों और मासों का परिमाप धटता-बढ़ता है,इसलिए यह अवैज्ञानिक है। जबकि राष्ट्रीय न होते हुए भी सरकारी प्रचलन में जो ग्रेगेरियन कैलेंडर है,उसमें भी तिथियों का मान धटता-बढ़ता है। मास 30 और 31 दिन के होते हैं। इसके अलावा फरवरी माह कभी 28 तो कभी 29 दिन का होता है। तिथियों में संतुलन बिठाने के इस उपाय को ‘लीप र्इयर यानी ‘अधिक वर्ष कहा जाता है। ऋगवेद से लेकर विक्रम संवत तक की सभी भारतीय कालगाण्नाओं में इसे अधिकमास ही कहा गया है। ग्रेगेरियन केलैंण्डर की रेखाकिंत कि जाने वाली महत्वपूर्ण विसंगति यह है कि दुनिया भर की कालगण्नाओं में वर्ष का प्रारंभ वसंत के बीच या उसके आसपास से होता है,जो फागुन में अंगडार्इ लेता है। इसके तत्काल बाद ही चैत्र मास की शुरूआत होती है। इसी समय नर्इ फसल पक कर तैयार होती है,जो एक ऋतुचक्र समाप्त होने और नये वर्ष के ऋतुचक्र के प्रारंभ का संकेत है। दुनिया की सभी अर्थ व्यवस्थाएं और वित्तीय लेखे-जोखे भीइसी समय नया रूप लेते हैं। अंग्रेजी महीनों के अनुसार वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च का होता है। ग्राम और कृषि आधारित अर्थ व्यवस्थाओं के वर्ष का यही आधार है। इसलिए हिंदी मास या विक्रम संवत में चैत्र और वैशाख महिनों को मधुमास कहा गया है। इसी दौरान चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी गुड़ी पड़वा से नया संवत्सर प्रारंभ होता है। जबकि ग्रेगेरियन में नए साल की शुरूआत पौष मास अर्थात जनवरी से होती है,जो किसी भी उल्लेखनीय परिर्वतन का प्रतीक नहीं है।
विक्रम संवत की उपयोगिता ऋतुओं से जुड़ी थी,इसलिए वह ऋगवैदिक काल से ही जनसामान्य में प्रचलन में थी। बावजूद हमने शक संवत को राष्ट्रीय संवत के रूप में स्वीकारा,जो शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है। क्योंकि शक विदेशी होने के साथ आक्रांता थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने उन्हें उज्जैन में परास्त कर उत्तरी मघ्य भारत में शकों का अंत किया और विक्रमादित्य की उपधि धारण की। यह ऐतिहासिक धटना र्इसा सन से 57 साल पहले धटी और विक्रमादित्य ने इसी दिन से विक्रम संवत की शुरूआत की। जबकि इन्हीं शकों की एक लड़ाकू टूकड़ी को कुषाण शासक कनिष्क ने मगध और पाटलीपुत्र में र्इसा सन के 78 साल बाद परास्त किया और शक संवत की शुरूआत की। विक्रमादित्य को इतिहास के पन्नों में ‘शकारी भी कहा गया है,अर्थात शकों का नाश करने वाला शत्रु। शत्रुता तभी होती है जब किसी राष्ट्र की संप्रभुता और संस्कृति को क्षति पहुंचाने का दुश्चक्र कोर्इ विदेशी आक्रमणकारी रचता है। इस सब के बावजूद राष्ट्रीयता के बहाने हमें र्इसा संवत को त्यागना पड़ा तो विक्रम संवत की बजाए शक संवत को स्वीकार लिया। मसलन पंचांग यानी कैलेंडर की दुनिया में 57 साल आगे रहने की बजाए हमने 78 साल पीछे रहना उचित समझा ? अपनी गरिमा को पीछे धकेलना हमारी मानसिक गुलामी की विचित्र विडंबना है, जिसका स्थायीभाव नष्ट नहीं होता।
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