सनातन परम्परा के १६ संस्कार ...
सनातन अथवा हिन्दू धर्म की
संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को
पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही
नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व
है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।
प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय
संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा
व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार
समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम
स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका
अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का
वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की
व्याख्या की गई है।ये निम्नानुसार हैं...
1.गर्भाधान संस्कार
2. पुंसवन संस्कार
3.सीमन्तोन्नयन संस्कार
4.जातकर्म संस्कार
5.नामकरण संस्कार
6.निष्क्रमण संस्कार
7.अन्नप्राशन संस्कार
8.मुंडन/चूडाकर्म संस्कार
9.विद्यारंभ संस्कार
10.कर्णवेध संस्कार
11. यज्ञोपवीत संस्कार
12. वेदारम्भ संस्कार
13. केशान्त संस्कार
14. समावर्तन संस्कार
15. विवाह संस्कार
16.अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार
1.गर्भाधान संस्कार...
हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ
जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को
मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ
सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान
से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। दैवी
जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह
परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग
करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।विवाह उपरांत की जाने वाली
विभिन्न पूजा और क्रियायें इसी का हिस्सा हैं...
गर्भाधान मुहूर्त---
जिस स्त्री को जिस दिन मासिक धर्म हो,उससे चार रात्रि पश्चात सम रात्रि
में जबकि शुभ ग्रह केन्द्र (१,४,७,१०) तथा त्रिकोण (१,५,९) में हों,तथा पाप
ग्रह (३,६,११) में हों ऐसी लग्न में पुरुष को पुत्र प्राप्ति के लिये अपनी
स्त्री के साथ संगम करना चाहिये। मृगशिरा अनुराधा श्रवण रोहिणी हस्त तीनों
उत्तरा स्वाति धनिष्ठा और शतभिषा इन नक्षत्रों में षष्ठी को छोड कर अन्य
तिथियों में तथा दिनों में गर्भाधान करना चाहिये,भूल कर भी शनिवार मंगलवार
गुरुवार को पुत्र प्राप्ति के लिये संगम नही करना चाहिये।
2.पुंसवन संस्कार...
गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को
उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय ।हिन्दू धर्म में, संस्कार
परम्परा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक,
मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई
पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें । उसके लिए
अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाता है। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत
पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के
विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है । वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण
एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो श्रेष्ठ प्रभाव
पड़ता ही है, अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी माँ
के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ कैसे विकसित की जाए ।
क्रिया और भावना...
गर्भ पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में
अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ । मन्त्र बोला जाए । मंत्र समाप्ति पर एक
तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए । वह उसे पेट से स्पर्श करके
रख दे । भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव अनुग्रह का लाभ देने
के लिए पूजन किया जा रहा है । गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ
पहुँचाने में सहयोग कर रही है ।
ॐ सुपर्णोऽसि
गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो, गायत्रं चक्षुबरृहद्रथन्तरे पक्षौ ।
स्तोमऽआत्मा छन्दा स्यङ्गानि यजूषि नाम । साम ते तनूर्वामदेव्यं,
यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः । सुपर्णोऽसि गरुत्मान् दिवं गच्छ
स्वःपत॥
3.सीमन्तोन्नयन...
सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण
अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य
संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की
रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से
गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती
की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता
है।
4.जातकर्म...
नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस
संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में
आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत
गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद
का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान,
स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को
स्तनपान कराती है।
5.नामकरण संस्कार...
नामकरण शिशु
जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है । यों तो जन्म के तुरन्त बाद ही
जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वह व्यवहार
में नहीं दीखता । अपनी पद्धति में उसके तत्त्व को भी नामकरण के साथ समाहित
कर लिया गया है । इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को
कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहँुचाने का सत्प्रयास किया जाता है ।
जीव के पूर्व संचित संस्कारों में जो हीन हों, उनसे मुक्त कराना, जो
श्रेष्ठ हों, उनका आभार मानना-अभीष्ट होता है । नामकरण संस्कार के समय शिशु
के अन्दर मौलिक कल्याणकारी प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं के स्थापन, जागरण के
सूत्रों पर विचार करते हुए उनके अनुरूप वातावरण बनाना चाहिए । शिशु कन्या
है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए । भारतीय संस्कृति में
कहीं भी इस प्रकार का भेद नहीं है । शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर
कहा गया है । 'दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता ।' इसके विपरीत पुत्र
भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है । 'जिमि कपूत के ऊपजे कुल
सद्धर्म नसाहिं ।' इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके भीतर के अवांछनीय
संस्कारों का निवारण करके श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की
दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए । यह संस्कार कराते समय शिशु के
अभिभावकों और उपस्थित व्यक्तियों के मन में शिशु को जन्म देने के अतिरिक्त
उन्हें श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के महत्त्व का बोध होता है । भाव
भरे वातावरण में प्राप्त सूत्रों को क्रियान्वित करने का उत्साह जागता है ।
आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है । उस दिन जन्म सूतिका
का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है । यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ
हो, तो उस कक्ष को लीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए । शिशु तथा माता को
भी स्नान कराके नये स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं । उसी के साथ यज्ञ एवं
संस्कार का क्रम वातावरण में दिव्यता घोलकर अभिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करता
है । यदि दसवें दिन किसी कारण नामकरण संस्कार न किया जा सके । तो अन्य
किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए । घर पर, प्रज्ञा
संस्थानों अथवा यज्ञ स्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है ।
6.निष्क्रमण् ...
निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा
चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा
की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों
की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन
देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये
आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का
विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि
के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर
में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने
देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में
आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
7.अन्नप्राशन संस्कार...
बालक को जब पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त अन्न देना प्रारम्भ किया जाता
है, तो वह शुभारम्भ यज्ञीय वातावरण युक्त धर्मानुष्ठान के रूप में होता है
। इसी प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है । बालक को दाँत निकल
आने पर उसे पेय के अतिरिक्त खाद्य दिये जाने की पात्रता का संकेत है ।
तदनुसार अन्नप्राशन ६ माह की आयु के आस-पास कराया जाता है । अन्न का शरीर
से गहरा सम्बन्ध है । मनुष्यों और प्राणियों का अधिकांश समय साधन-आहार
व्यवस्था में जाता है । उसका उचित महत्त्व समझकर उसे सुसंस्कार युक्त बनाकर
लेने का प्रयास करना उचित है । अन्नप्राशन संस्कार में भी यही होता है ।
अच्छे प्रारम्भ का अर्थ है- आधी सफलता । अस्तु, बालक के अन्नाहार के क्रम
को श्रेष्ठतम संस्कारयुक्त वातावरण में करना अभीष्ट है । हमारी परम्परा यही
है कि भोजन थाली में आते ही चींटी, कुत्ता आदि का भाग उसमें से निकालकर
पंचबलि करते हैं । भोजन ईश्वर को समर्पण कर या अग्नि में आहुति देकर तब
खाते हैं । होली का पर्व तो इसी प्रयोजन के लिए है । नई फसल में से एक दाना
भी मुख डालने से पूर्व, पहले उसकी आहुतियाँ होलिका यज्ञ में देते हैं । तब
उसे खाने का अधिकार मिलता है । किसान फसल मींज-माँड़कर जब अन्नराशि तैयार
कर लेता है, तो पहले उसमें से एक टोकरी भर कर धर्म कार्य के लिए अन्न
निकालता है, तब घर ले जाता है । त्याग के संस्कार के साथ अन्न को प्रयोग
करने की दृष्टि से ही धर्मघट-अन्नघट रखने की परिपाटी प्रचलित है । भोजन के
पूर्व बलिवैश्व देव प्रक्रिया भी अन्न को यज्ञीय संस्कार देने के लिए की
जाती है...
8 मुंडन/चूड़ाकर्म संस्कार...
इस संस्कार
में शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं । लौकिक रीति यह प्रचलित
है कि मुण्डन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक करा लें अथवा दो वर्ष पूरा
होने पर तीसरे वर्ष में कराएँ । यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि
मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह
कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास
व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के
कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण
किये रहता है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं । इन्हें
हटाने और उस स्थान पर मानवतावादी आदर्शो को प्रतिष्ठापित किये जाने का
कार्य इतना महान् एवं आवश्यक है कि वह हो सका, तो यही कहना होगा कि आकृति
मात्र मनुष्य की हुई-प्रवृत्ति तो पशु की बनी रही ।हमारी परम्परा हमें
सिखाती है कि बालों में स्मृतियाँ सुरक्षित रहती हैं अतः जन्म के साथ आये
बालों को पूर्व जन्म की स्मृतियों को हटाने के लिए ही यह संस्कार किया जाता
है...
9.विद्यारंभ संस्कार...
जब बालक/ बालिका की आयु
शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है
। इसमें समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा
किया जाता है, वही अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके इस पवित्र और महान
दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है कि बालक को अक्षर ज्ञान, विषयों के
ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रों का भी बोध और अभ्यास कराते रहें ।
10.कर्णवेध संस्कार...
हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही
प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की
शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति
प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं।
कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके
साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।
यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के
अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।
11.यज्ञोपवीत/उपनयन संस्कार...
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-उपनयन
संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है । मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस
संस्कार के अंग होते हैं।
सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे
यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है।
यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र
यज्ञोपवीत एक
विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात
ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि
होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण
किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के
प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना
यज्ञोपवीत धारण कये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का
मन्त्र है
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
12.वेदारम्भ संस्कार...
ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और
वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे
यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई
प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य
के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का
अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास
गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को
ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे
तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने
वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के
अक्षुण्ण भंडार हैं।
13.केशान्त संस्कार...
गुरुकुल
में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया
जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में
प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने
के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी
तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ
मुहूर्त में किया जाता था।
14.समावर्तन संस्कार...
गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस
संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान
कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित
पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के
जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता
था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के
समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि
आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का
अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं
गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।
15.विवाह संस्कार...
हिन्दू धर्म में; सद्गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के
योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार
कराया जाता है । भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक
अनुबन्ध मात्र नहीं हैं, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का
भी रूप दिया गया है । इसलिए कहा गया है ... 'धन्यो गृहस्थाश्रमः' ...
सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ
श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं । वहीं अपने संसाधनों से
ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों के साधकों को वाञ्छित सहयोग देते
रहते हैं । ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढ़ियों-कुरीतियों से
मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना आवश्क है ।
युग निर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग
सफल और उपयोगी सिद्ध हुए हैं ।
16. अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार...
हिंदूओं में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से
चिता में जलाने की प्रक्रिया को अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि
संस्कार कहा जाता है। यह हिंदू मान्यता के अनुसार सोलह संस्कारों में से एक
संस्कार है।
श्राद्ध... हिन्दूधर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ
कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता,पूर्वजों को नमस्कार प्रणाम करना हमारा
कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख
रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष
में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों
का श्राद्ध,तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य
समर्पित करते हैं। यदि कोई कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई
है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है |
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