यहां की शक्ति "त्रिपुर सुंदरी" तथा भैरव "त्रिपुरेश" है. इस पीठ स्थान कूर्मपीठ भी कहते है. इस मंदिर का प्रांगण (आंगन)कछुवे की तरह है. तथा इस मंदिर में लाल-काली पत्थर की बनी मां महाकाली की भी मूर्ति है. इसके अतिरिक्त आद्धाकाली भी कहा जाता है. यहां देवी सती के दक्षिण पाद (पैर) का निपात हुआ था. यहां पर आधा मां की एक छोटी मूर्ति भी है. कहते ही कि त्रिपुरा-नरेश शिकार हेतु या युद्ध पर जाते समय स्वयं के प्राणों की रक्षा के लिए इन्हें अपने साथ रखते थे.
त्रिपुरसुंदरी मंदिर कथा | Tripura Sundari Temple Katha in Hindi
इस संबन्ध में एक कथा प्रचलित है. 16वीं शताब्दी के प्रथम दशक में त्रिपुरा पर धन्यमाणिक का शासन था. एक रात उन्हें मां त्रिपुरेश्वरी स्वप्न में दिखीं तथा बोली की चिंतागांव के पहाड पर उनकी मूर्ति है, जो उन्हें वहां से आज ही लानी है. स्वप्न देखते ही राजा जाग गए तथा सैनिकों को तुरन्त रात में ही मूर्ति लाने का हुक्म सुना दिया.सैनिक मूर्ति लेकर लौट रहे थे कि माता बाडी पहुंचते-पहुंचते सूर्योदय हो गया और माता के आदेशानुसार वहीं मंदिर बनवाकर मूर्ति स्थापित कर दी गई. वहीं कालांतर में त्रिपुरसुंदरी के नाम से जानी गई. इस विषय में एक और किवंदती प्रसिद्ध है.
त्रिपुरसुंदरी मंदिर कैसे बना | How was Tripur Sundari Temple Established
राजा धन्यमाणिक वहां विष्णु मंदिर बनवाने वाले थें. किन्तु त्रिपुरेश्वरी की मूर्ति स्थापित हो जाने के कारण राजा पेशोपेश में पड गएं. कि वहां वे किसका मंदिर बनवाएं. किन्तु उसी समय आकाशवाणी हुई क राजा उस स्थान पर, जहां विष्णु मंदिर बनवाने वाले थें. मां त्रिपुरसुंदरी का मंदिर बनवा दें और राजा ने वही किया.मंदिर के पीछे पूर्व की ओर झीळ की तरह एक तालाब है, जिसे कल्याणसागर कहते है. इसमें बडे-बडे कछुए तथा मछलियां है, जिन्हें मारना और पकडना अपराध है. प्राकृ्तिक मृ्त्यु प्राप्त कछुओं / मछलियों को दफनाने के लिए अलग से एक स्थान वहां नियत है. जहां पर पुरारियों की समाधियां भी बनी हुई है.
मंदिर तथा कल्याण सागर की देख-रेख त्रिपुरा सरकार कि एक समिति के द्वारा होता है. मंदिर का दैनिक व्यय इस समिति के द्वारा ही वहन किया जाता है. दीपावली के अवसर पर यहां भव्य मेले का आयोजन किया जाता है
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