Wednesday, 23 January 2013

desh ke neta


"मन तो मेरा भी करता है झूमूँ , नाचूँ, गाऊँ मैं
आजादी की स्वर्ण-जयंती वाले गीत सुनाऊँ मैं

लेकिन सरगम वाला वातावरण कहाँ से लाऊँ मैं
मेघ-मल्हारों वाला अन्तयकरण कहाँ से लाऊँ मैं

मैं दामन में दर्द तुम्हारे, अपने लेकर बैठा हूँ
आजादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ

घाव जिन्होंने भारत माता को गहरे दे रक्खे हैं
उन लोगों को z सुरक्षा के पहरे दे रक्खे हैं

जो भारत को बरबादी की हद तक लाने वाले हैं
वे ही स्वर्ण-जयंती का पैगाम सुनाने वाले हैं

आज़ादी लाने वालों का तिरस्कार तड़पाता है
बलिदानी-गाथा पर थूका, बार-बार तड़पाता है

क्रांतिकारियों की बलि वेदी जिससे गौरव पाती है
आज़ादी में उस शेखर को भी गाली दी जाती है

राजमहल के अन्दर ऐरे- गैरे तनकर बैठे हैं
बुद्धिमान सब गाँधी जी के बन्दर बनकर बैठे हैं

इसीलिए मैं अभिनंदन के गीत नहीं गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |

इससे बढ़कर और शर्म की बात नहीं हो सकती थी
आजादी के परवानों पर घात नहीं हो सकती थी

कोई बलिदानी शेखर को आतंकी कह जाता है
पत्थर पर से नाम हटाकर कुर्सी पर रह जाता है

गाली की भी कोई सीमा है कोईमर्यादा है
ये घटना तो देश-द्रोह की परिभाषा से ज्यादा है

सारे वतन-पुरोधा चुप हैं कोई कहीं नहीं बोला
लेकिन कोई ये ना समझे कोई खून नहीं खौला

मेरी आँखों में पानी है सीने में चिंगारी है
राजनीति ने कुर्बानी के दिल पर ठोकर मारी है

सुनकर बलिदानी बेटों का धीरज डोल गया होगा
मंगल पांडे फिर शोणित की भाषा बोल गया होगा

सुनकर हिंद - महासागर की लहरें तड़प गई होंगी
शायद बिस्मिल की गजलों की बहरें तड़प गई होंगी

नीलगगन में कोई पुच्छल तारा टूट गया होगा
अशफाकउल्ला की आँखों में लावा फूट गया होगा

मातृभूमि पर मिटने वाला टोला भी रोया होगा
इन्कलाब का गीत बसंती चोला भी रोया होगा

चुपके-चुपके रोया होगा संगम-तीरथ का पानी
आँसू-आँसू रोयी होगी धरती की चूनर धानी

एक समंदर रोयी होगी भगतसिंह की कुर्बानी
क्या ये ही सुनने की खातिर फाँसी झूले सेनानी ???

जहाँ मरे आजाद पार्क के पत्ते खड़क गये होंगे
कहीं स्वर्ग में शेखर जी केबाजू फड़क गये होंगे

शायद पल दो पल को उनकी निद्रा भाग गयी होगी
फिर पिस्तौल उठा लेने की इच्छा जाग गयी होगी

केवल सिंहासन का भाट नहीं हूँ मैं
विरुदावलियाँ वाली हाट नहीं हूँ मैं

मैं सूरज का बेटा तम के गीत नहीं गा सकता हूँ |
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ | |

महायज्ञ का नायक गौरव भारत भू का है
जिसका भारत की जनता से रिश्ता आज लहू का है

जिसके जीवन के दर्शन ने हिम्मत को परिभाषा दी
जिसने पिस्टल की गोली से इन्कलाब को भाषा दी

जिसकी यशगाथा भारत के घर-घर में नभचुम्बी है
जिसकी थोड़ी सी आयु भी कई युगों से लम्बी है

जिसके कारण त्याग अलौकिक माता के आँगन में था
जो इकलौता बेटा होकर आजादी के रण में था

जिसको ख़ूनी मेहंदी से भी देह रचना आता था
आजादी का योद्धा केवल चना-चबेना खाता था

अब तो नेता सड़कें, पर्वत, शहरों को खा जाते हैं
पुल के शिलान्यास के बदले नहरों को खा जाते हैं

जब तक भारत की नदियों में कल-कल बहता पानी है
क्रांति ज्वाल के इतिहासोंमें शेखर अमर कहानी है

आजादी के कारण जो गोरों से कभी लड़ी है रे
शेखर की पिस्तौल किसी तीरथ से बहुत बड़ी है रे !

स्वर्ण जयंती वाला जो ये मंदिर खड़ा हुआ होगा
शेखर इसकी बुनियादों के नीचे गड़ा हुआ होगा
मैं साहित्य नहीं चोटों का चित्रण हूँ

आजादी के अवमूल्यन का वर्णन हूँ
मैं दर्पण हूँ दागी चेहरों को कैसे भा सकता हूँ
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ
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अंतिम पंकतिया उन शहीदों को सलाम !
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जो सीने पर गोली खाने को आगे बढ़ जाते थे,

भारत माता की जय कह कर फ़ासीं पर जाते थे |

जिन बेटो ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली,

आजादी के हवन कुँड के लिये जवानी दे डाली !

वे देवो की लोकसभा के अँग बने बैठे होगे

वे सतरँगी इन्द्रधनुष के रँग बने बैठे होगे !

दूर गगन के तारे उनके नाम दिखाई देते है

उनके स्मारक चारो धाम दिखाई देते है !

जिनके कारण ये भारत आजाद दिखाई देता है

अमर तिरँगा उन बेटो की याद दिखाई देता है !

उनका नाम जुबा पर लो तो पलको को झपका लेना

उनको जब भी याद करो तो दो आँसू टपका लेना

उनको जब भी याद करो तो दो आँसू टपका लेना....

Thursday, 10 January 2013

MANVIYA MULYA

आज का जगत विज्ञान का जगत है। एक तरफ मानव सभ्यता का विकास और भौतिक समृधि  अपनी उचाई पर है, तो दूसरी तरफ मनुष्य का मन चारित्रिक पतन की अतल गहराई में है। भोगवादी संस्कृति में उलझा मानव सफलता की नित नई नई परिभाषाओ में उलझता जा रहा है। आज सफलता का मापदंड है अधिक से अधिक धन ,पद , और प्रतिष्टा को हासिल किया जाना। नित नए अविष्कार के साथ साथ नित नई कामनायें राक्षसी सुरमा की तरह मुख फैलाती चली जा रही है। मनुष्य अंतहीन इच्छाओ के विशाल रेगिस्तान में भटकता जा रहा है। सच्ची शांति और सुख की प्यास से आकुल व्याकुल व्यक्ति मृग मरीचिका के सामान भ्रमित हो अनेक मानसिक रोगों का शिकार हो रहा है। चारो तरफ गहरी हताशा , निराशा तथा मानसिक तनाव और उससे मुक्ति के  लिए अल्पकाल के उपाय जैसे दवाइयाँ , नशीली वस्तुएं तथा और भी बहुत तरह के विवेक शुन्य आनंद ने सामाजिक और  उसके नैतिक मूल्यों का तो दिवालियापन ही ला दिया है। येसे में आज मनुष्य को पुनः अपने अंदर मानवीय मूल्यों को स्थापित कर एक संवृद्ध तथा सुखद समाज की  स्थापना के लिए इस दिशा में गहराई से विचार करना चाहिए और इस प्रकार जीवन के बदलते संदर्भो में सफलता के लिए गहन पुरुषार्थ करना चाहिए। यधपि समाज में मानवीय मूल्यों को स्थापित करने में सरकार की प्रयास शीघ्र सफलता  दिलाने में सफल हो सकता है लेकिन दुर्भाग्यता वश सरकार का हर कृत मानवीय मूल्यों को चारित्रिक पतन की ओर अग्रसर कर समाज को विघटित ही कर रहा है न कि मानवीय मूल्यों को स्थापित करने में सहायक।

Wednesday, 9 January 2013

allahabad kumbh 2013

 भारतीय दर्शन के शिखर पुरुष आदि-शंकराचार्य ने अद्वैतवादी दर्शन में दृश्य जगत को माया का आवरण बताया है। "ब्रह्म सत्यं-जगत मिथ्या" की सरल व्याख्या में उन्होंने ठहरे जल में चन्द्र-प्रतिबिंब से माया की तुलना की है।प्रतिबिंब को हटाने के लिए जल में हलचल की जरुरत होती है। ब्रह्म मुहूर्त में जिस वक्त प्रतिबिंब सर्वाधिक स्थिर और स्पष्ट होता है। उसी समय एक डुबकी न सिर्फ माया के प्रतिबिंब को मिटा सकती है बल्कि आम मानव को उसकी अन्तःशक्तियों से भी रूबरू कराती है। यूं तो कंकड़ी फ़ेंक कर भी इस प्रतिबिंब को लुप्त करने का कार्य किया जा सकता है। लेकिन ऐसा करने से दर्शक मात्र बनकर ही संतोष किया जा सकता है।

शंकराचार्य ने सर्वोच्च सत्ता 'ब्रह्म' को 'नेति-नेति' से संबोधित किया है। सरल शब्दों में "न की भी न"। अद्वैत का अर्थ होता है- "कोई दूसरा नहीं होना"। 'एक' की स्वीकार्यता में अन्य की उपस्थिति का संकेत भी होता है। निर्विकार, निराकार, निरुद्देश्य, शिव स्वरूप असीमित शक्ति पुंज से भेंट करने और माया से मुक्त होने के लिए यह छोटा सा कर्मकांड कितना प्रभावी है। इसे समझने के लिए एक ओर कई सदियाँ भी कम हैं और वहीँ एक पल ही काफी है।
महा स्नान का पर्व 'कुंभ' हमें इसी माया से मुक्ति की ओर प्रेरित करता है। जहां हमें समस्त भौतिक वस्तुओं को त्याग कर अकेले ही शांत-ठहरे जल में उतर जाने और समस्त प्रतिच्छायाओं को विलुप्त कर देने को प्रेरित करता है। अत्यंत छोटे प्रयास से ही बिखर जाने वाले ये माया प्रतिबिंब हमें तब तक ही सत्य नजर आते हैं जब तक हम हिम्मत जुटाकर जल राशी में उतर नहीं जाते।
प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव उसका निजी अनुभव होता है अतः सत्य जानने की राह पर चल पड़े जिज्ञासु को किसी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती। यह नितांत व्यक्तिगत प्रयास होता है। कुंभ स्नान भी इसी ओर इशारा करता है। इस बार कुंभ स्नान का महापर्व 'महाकुंभ' प्रयाग, इलाहाबाद में मकर संक्रांति (14 फरवरी 2013) से शुरू हो रहा है जो महाशिवरात्रि (10 मार्च 2013) तक चलेगा। इसमें तीन शाही स्नान (मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या और वसंत पंचमी) और सात पर्व स्नानों मिलाकर 10 प्रमुख स्नान होंगे।
दस प्रमुख स्नानों में दुनियाभर से दस लाख से ज्यादा लोग गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम स्थल पर डुबकी लगाएंगे। इनमें से अधिकतर सिर्फ डुबकी लगाकर अपने-अपने गंतव्यों की ओर लौट जाएंगे और इस पावन अवसर को महज एक सांस्कृतिक और सामाजिक कर्मकांड भर ही मानकर रह जाएंगे। कुंभ स्नान के दौरान जुटने वाला साधु समाज यहां यही संकेत देने इकठ्ठा होता है कि यह सिर्फ असाधारण स्नान का पर्व भर नहीं है।
सत्य के अन्वेषकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण अवसर है। यहां कवरेज को जुटने वाला देशी-विदेशी मीडिया भी लोगों की भीड़ और साधुओं की वेशभूषा, स्नान क्रीडा और उनके कार्य-कलाप का चित्रण और वर्णन करेगा। व्यक्तिगत आंतरिक बदलावों तक न तो कैमरा पहुंच सकता है न ही विद्वान पत्रकार वर्ग। सर्द सुबह में लगभग जमे हुए से जल में उतरने के लिए देह का स्वस्थ और ऊर्जावान होना जरुरी है। इसके लिए युवावस्था से बेहतर कौन सी अवस्था हो सकती है। इसलिए कुंभ स्नान को 'युवा स्नान' का पर्व पुकारा जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होना चाहिए।
यह पर्व अंतस निर्मल कर उसको नवीनता प्रदान करता है। बच्चों के लिए यह पर्व इसलिए महत्वपूर्ण है कि बच्चों के समान जिज्ञासा से भरा खाली मन-मस्तिष्क लाने वाले ही यहां से सर्वाधिक ग्रहण कर पाते हैं। पिता के कंधों पर सवार मासूम आंखें कुंभ स्थल पर जुटी भीड़ को देखकर सिहर जरूर सकती हैं लेकिन परम पिता से भेंट कराने को उत्साहित पिता के मजबूत कंधे उसे साहस और संबल प्रदान करते हैं। यह प्रयास मानव को महामानव बनाने का है।
भारतवर्ष की मेधाशक्ति ने कभी भौतिक वाद का समर्थन नहीं किया। चार्वाक दर्शन (आत्मा को न मानने वाला और देखे पर विश्वास करने वाला ) को सबसे निचले क्रम पर रखने वाले भारतीय दर्शन में अद्वैतवाद का सर्वोच्च स्थान है। कुंभ स्नान इसी 'अद्वैतवाद' और 'ब्रह्म' से परिचय प्राप्त करने का प्रारंभिक प्रयास है।
कुंभ स्नान पर्व को धर्म विशेष से जोड़कर देखा जाना भी इसके साथ न्याय नहीं करता। ईश्वर की राह में एक स्थिति ऐसी भी आ सकती है जब समस्त चराचर संस्कारों का त्याग करना पड़ सकता है। इसमे धर्म भी शामिल हो सकता है। यहां जुटने वाला साधु समाज भी किसी एक धर्म का ध्वजवाहक नहीं माना जा सकता। साधु जन धर्म को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उससे बंधे नहीं होते हैं। भारतीय समाज भी उन्हें इस रूप में स्वीकार करता है।

Friday, 4 January 2013

क्या हमें अपने आप से यह प्रश्न नहीं करना चाहिए कि जीवन क्या है? हम क्यों जी रहे है? मात्र आजीविका के लिए , कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लेना, कुछ व्यवसाय कर लेना, बच्चे पैदा कर लेना, और अत्यधिक यांत्रिक जीवन में बंध कर क्रमश: ख़त्म होते जाना, क्या यही जीवन है? उच्च प्रतिष्ठा, धन की सम्पनता, उच्च पद आदि यदि प्राप्त कर भी लिया तो क्या इससे जीवन आनंदमय हो जायेगा? अभी तक तो  देखने में नहीं आया , बल्कि पाने के इस दौड़ में हमारा मन भय, चिंता, तनाव, उदासी, और कुंठा से ग्रसित हो जाता है तो जीवन में इन उपलब्धियों का क्या अर्थ रह जाता है? हमें इस बात की तलाश अवश्य करनी चाहिए कि इससे भी मुक्त कोई एसा जीवन है जहाँ जीवन के सभी संबंधो समाज में रहते हुए , बिना पलायन के, बिना सघर्ष के एक असीम आनंद, शाश्वत शांति और प्रेम का संसार हो,  निःसंदेह जीवन का यह अदभुत विलक्षण और अगाध साम्राज्य , बहुआयामी सामजस्य  पूर्ण और अनन्त रहस्यमयी व्यवस्था से ओत-प्रोत है जरुरत है उसे जानने , पाने, और खोजने की।