Friday, 12 June 2015

साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक शक्तियां- देश के बहुसंख्यक समाज को दी जाने वाली गालियां है

भारतीय राजनेताओं के लिए इस देश में रहने वाला बहुसंख्यक समाज दोयम दर्जें का नागरिक हैं, अत: जब तब उसकी धार्मिक आस्था और विश्वास पर बेहिचक चोट पहुंचार्इ जाती है, क्योंकि इसी तबके का पढ़ा लिखे सभ्रान्त समाज को अपने धर्म और परम्पराओं से परहेज है और वे इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, इसलिए जब कभी भी सम्प्रदाय और साम्प्रदायिकता को ले कर बवाल उठता है, वह राजनेताओं की जमात के साथ खड़ा हो जाता है।
यदि आप बहुसंख्यक समाज के धर्म से जुड़े हुए हैं और आपकी अपने धर्म में आस्था हैं, तो आप साम्प्रदायिक कहलाते हैं, किन्तु आपकी यदि उस धर्म में आस्था हैं, जो बहुसंख्यक समाज का नहीं है, तो आप धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं। इसी तरह एक धर्म के प्रचार प्रसार में लगे हुए साधु-संतों को साम्प्रदायिक शक्तियां कह कर पुकारा जाता है, वहीं दूसरे धर्मों के प्रचार प्रसार में लगे लोगों को धर्मनिरपेक्ष ताकते कहा जाता है। जो राजनीतिक दल भारत की प्राचीन मान्यताओं और संस्कृति के प्रति अपना अनुराग दिखाता है, वह साम्प्रदायिक दल हो जाता है, किन्तु जो राजनीतिक दल विदेशों से आयातित धर्म और मान्यताओं को अपना समर्थन देते हैं, वे धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल बन जाते हैं।
भारतीय संस्कृति से जुड़े हुए देवी देवताओं के कार्टुन बनाना और उनका उपहास उड़ाना जायज समझा जाता है। ऐसा करने पर जो अपनी आपत्ति दर्ज करते हैं, उन्हें साम्प्रदायिक कह कर उनकी तौहीन की जाती है, किन्तु किसी मजहब विशेष के संबंध में एक शब्द लिख देना या बोल देना जघन्य अपराध माना जाता है। पूरे विश्व में कोहराम मच जाता है। भारी खून-खराबा होता है, किन्तु इस पागलपन पर कुछ भी बोलने से धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं की जबान लड़खड़ा जाती है। इसी तरह मंदिरों से मूर्तिया चुरा कर उन्हें अन्तरराष्ट्रीय बाज़ारों में बैच देने पर कोर्इ हंगाम नहीं होता, किन्तु किसी सिरफिरे द्वारा चर्च पर एक पत्थर फैंक देने से तूफान खड़ा हो जाता है। धर्मनिरपेक्ष राजनेता और समाचार मीडिया छोटी सी घटना पर गाहे बगाहे उबल पड़ता है।
कोर्इ राजनीतिक दल यदि बहुसंख्यक समाज के सबंध में कुछ बोलता है या उसकी पीड़ा के साथ अपने आपको जोड़ता है तो यह कहा जाता है ये लोग साम्प्रदायिकता की आग लगा रहे हैं। समाज में साम्प्रदायिकता विष भर रहे हैं। बार-बार ये शब्द दोहराये जाते हैं- साम्प्रदायिक ताकतों को रोको ! दुर्भाग्य से ऐसा कहने और करने वाले वे ही लोग हैं, जो भारत के बहुसंख्यक समाज का एक भाग हैं, किन्तु अपने राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेकने के लिए अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं को रौंदने का उपक्रम करते हैं।
पच्चीस वर्ष पहले कश्मीर घाटी के पंड़ितो पर अमानुषिक अत्याचार कर उन्हें खदेड़ दिया गया इस षड़यंत्र को पड़ोसी देश ने स्थानीय राजनेताओं के साथ मिल कर अंजाम दिया था। अपने ही देश में शरणार्थी बने ये भारतीय नागरिक इसलिए प्रताड़ित हैं, क्योंकि ये भारत के बहुसंख्यक समाज के अंग है। इन अभागे देशवासियों के प्रति सहानुभूति के दो शब्द किसी धर्मनिरपेक्ष राजनेता की जबान से नहीं फिसलें, क्योंकि वे ऐसा करते तो साम्प्रदायिक हो जाते। उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि कलंकित हो जाती। वहीं दूसरी ओर गुजरात दंगो पर बारह वर्ष तक तूफान खड़ा करने वाली धर्मनिरपेक्ष ताकतों के मन में कश्मीरी पंड़ितो के प्रति सहानुभूति क्यों नहीं उपजी ? यह प्रश्न अभी भी अनुतरित है। इस बारें में यही कहा जा सकता है कि भारत की राजनीति बहुसंख्यक समाज की पीड़ा से कभी द्रवित नहीं होती। उसके संबंध में कुछ भी कहने से अपने आपको अलग कर देती है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूसरे धर्मों का आदर करते हैं, किन्तु उनकी आस्था अपने धर्म में ही है, जिसे वे पाप नहीं समझते। पूजा-अर्चना करने और प्रसिद्ध मंदिरों में वे जाते हैं, किन्तु अपने आपको धर्मनिरपेक्ष घोषित करने के लिए वे अन्य मजहब की टोपी नहीं पहनते, क्योंकि ऐसी नौटंकी करना उन्हें पसंद नहीं है। इन्हीं उदाहरणों से उनकी साम्प्रदायिक मनोवृति को प्रमाणित किया जाता है और कट्टरवादी नेता कहा जाता है। किन्तु जिन नेताओं के मन में एक धर्म विशेष में आस्था नहीं है। वे उस धर्म की परम्पराओं को नहीं मानते, फिर भी यदि टोपी पहन लेते हैं, तो उनकी धर्मनिरपेक्षता प्रमाणित हो जाती है।
यदि संवैधानिक अधिकार प्राप्त करने के बाद कोर्इ राजनेता अपनी प्रशासनिक क्षमता प्रमाणित नहीं कर पाता हैं। जन समस्याओं को सुलझाने में वह असमर्थ रहता है, किन्तु धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़ कर साम्प्रदायिकता के नाम पर बहुसंख्यक समाज को कोसता है, तो उसकी सारी प्रशासनिक दुर्बलताएं छुप जाती है। इसी तरह अपने शासनकाल में ऐतिहासिक धोटाले कर देश की अर्थव्यवस्था को कबाड़ा करने वाला राजनीतिक दल भी अपने आपको पाक साफ समझता हैं, क्योंकि उसने धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़ रखा है और साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ लड़ने की कसमें खा रखी है।
ललू यादव ने बिहार प्रदेश पर पंद्रह वर्ष तक शासन किया और पूरे प्रदेश जंगलराज में तब्दील कर दिया। पशुओं के चारे के लिए जारी किये जाने वाले करोड़ो रुपये के फंड का घपला किया, जिसका दोष प्रमाणित हो चुका है। किन्तु ये महाशय पुन: बिहार की राजनीतिक को अपने नियंत्रण मे लेना चाहते हैं, क्योंकि ये धर्मनिरपेक्ष हैं और यह मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता ने उनके सारे पाप धो दिये हैं और साम्प्रदायिक शक्तियों को बिहार की सत्ता नहीं सौंपने का अधिकार उन्हें देश की धर्मनिरपेक्षत ताकतों ने दे दिये हैं। वे स्वयं ही ऐसा मान रहे है कि ये ताकते आग लगताती है, जिसे बुझाने के लिए फायर बिग्रेड बन कर आया हूं। अर्थात आग लगी नहीं, धुआं उठा नहीं, फिर भी आग की कल्पना कर जनता को भयभीत करने वाले अपने आपको पुण्यात्मा समझते हैं, तो यह उनका अतिआत्मविश्वास है।
चाहे बिहार में नीतीश कुमार के साथ मिल कर साम्प्रदायिक शक्तियों ने अच्छा प्रशासन दिया हों, किन्तु उनके पुण्य को भी पाप ही माना जायेगा, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ये शक्तियां भारत के बहुसंख्यक समाज का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए ये पापी है। अत: जब तक भारत का बहुसंख्यक समाज बंटा रहेगा, उसे साम्प्रदायिक कह कर कोसा जाता रहेगा, किन्तु जब वह एक हो जायेगा, भारत के कर्इ राजनेताओं की दुकाने बंद हो जायेगी। तब विवश हो कर अपने शरीर पर डाला गया धर्मनिरपेक्षता का लबादा फैंकना पड़ेगा। तब उन्हें भी सबका साथ सबका विकास का नारा देना पड़ेगा।
अब समय आ गया है जब हम एक हो जायें और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो लोग बहुसंख्यक समाज को साम्प्रदायिक और साम्प्रदायिकता की गालियां देते हैं, उनको भारत की राजनीति से तिरस्कृत कर दें, क्योंकि भारत का बहुसंख्यक समाज अपने सारे पूर्वाग्रहों को छोड़ कर अपनी संस्कृति और परम्पराओं में आस्था प्रकट करेगा, तब उन्हें भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें चिढ़ाने की हिम्मत नहीं कर पायेगी। भारत की प्रगति और खुशहाली तथा भारतीय राजनीति के शुद्धिकरण के लिए यह आवश्यक है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर राजनेता अपनी प्रशासनिक अकुशलता, भ्रष्टआचरण को छुपाना बंद कर दें और एक धर्म विशेष से जुड़े समाज के प्रति झूठी सहानुभूति दर्शाने का उपक्रम बंद कर दें

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