Thursday 29 December 2016

स्वप्न और यथार्थ

जीवन का सूक्ष्म रूप स्वप्न है और स्थूल रूप यथार्थ। जीवन की धारा सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ती है। बिना स्वप्न के यथार्थ की सत्ता नहीं हो सकती। इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि विचार करने के बाद उसे कार्य रूप में तब्दील करना स्वप्न से यथार्थ बनने जैसा है। जो जितना बड़ा स्वप्नदर्शी होता है उसके जीवन का उद्देश्य उतना ही बड़ा होता है, लेकिन यह उद्देश्य तब पूरा होता है जब वह यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है। स्वप्न और यथार्थ के मध्य जो सेतु का कार्य करता है, वह है साधना। ज्ञान-विज्ञान, गणित, व्यवहार, दर्शन और साहित्य जितने भी विषय हैं सभी स्वप्न और यथार्थ के साथ आगे बढ़ते हैं, लेकिन ये तब पूरा होते हैं जब कठोर श्रम साथ में किया जाए। समझना यह भी है कि बेहतर जिंदगी, बेहतर समाज और उच्च मानव मूल्यों के लिए किस तरह के स्वप्न देखे जाएं और इन्हें किस तरह यथार्थ में परिवर्तित करें। अच्छे शब्दों, अच्छे विचारों वाले वाक्यों और भावों को मन में बार-बार दोहराते रहिए। देखिएगा किस तरह शुभत्व का प्रवाह होने लगता है। कहा गया है जो व्यक्ति जैसा स्वप्न देखता है, फिर उस स्वप्न को साकार करने के लिए जैसा प्रयास करता है वैसा वह यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है। यानी स्वप्न और यथार्थ दोनों का बराबर महत्व है।
ब्रह्मा के दो लाड़ले पुत्र हैं। एक स्वप्न और दूसरा यथार्थ। दोनों में लड़ाई हुई। दोनों ब्रह्मा के पास पहुंचे और बोले-भगवन! आज आप निर्णय कर दीजिए कि हम दोनों में से किसकी महिमा अधिक है? ब्रह्मा को बेटों की नादानी पर हंसी आ गई। वह बोले-दोनों जमीन पर खड़े हो जाओ, जमीन पर खड़े-खड़े ही जो आकाश छू लेगा उसकी महिमा सबसे बड़ी है। दोनों परीक्षा देने को तैयार हो गए। स्वप्न ने आकाश तो छू लिया, लेकिन उसके पैर जमीन तक नहीं पहुंच सके। अब यथार्थ की बारी थी। जमीन पर तो वह स्थिर हो गया, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद भी आकाश नहीं छू सका। दोनों को परीक्षा में फेल देख ब्रह्मा हंसे और बोले, 'देख लिया न, तुम दोनों की महिमा एक दूसरे के पूरक होने में है अकेले में नहीं। ' यह कथानक यह संदेश देता है कि हमारे जीवन में स्वप्न और यथार्थ में पूरकता होनी चाहिए। किसी एक से जीवन की सफलता नहीं है।
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Tuesday 6 December 2016

ब्रह्मज्ञान

उपनिषद के ऋषि जिसे ब्रह्मज्ञान कहते हैं, उसी को महर्षि पतंजलि द्रष्टा का अनुभव कहते हैं। भगवान महावीर आत्मज्ञान और भगवान बुद्ध निर्वाण ज्ञान कहते हैं। ओशो ने इसी को बुद्धत्व कहा है। इस आंतरिक अनुभूति की व्याख्या नहीं की जा सकती है। हमारा मन है शब्दों का भंडार, भाषा का जानकार, स्मृतियों का संग्रह, भावी योजनाओं का स्वप्नदर्शी। समाधि में यह चंचल मन शेष नहीं बचता। मात्र चेतना रहती है-भविष्य और भूतकाल से सर्वथारहित। शुद्ध वर्तमान में स्थित चेतना को बस चेतना का ही ज्ञान होता है। अन्य समस्त ज्ञान द्वैत पर आधारित होते हैं। चेतना ज्ञाता होती है और बाहर संसार का या फिर भीतर मन का कोई विषय ज्ञेय होता है। ये 'आब्जेक्टिव नॉलेज' हैं। संबोधि में 'सब्जेक्टिव नॉलेज' होता है। आत्मा केवल स्वयं आत्मा को ही जानती है, किसी अन्य को नहीं। इसलिए उसे अद्वैतज्ञान या कैवल्यज्ञान कहना भी उचित है। यह द्वंद्वरहित अवस्था ध्यान से मिलती है, न कि तन या मन की क्रियाओं से। ध्यान है-क्रियाओं और बुद्धि की सूक्ष्म क्रियाओं को द्रष्टा बनकर देखना,उनके साक्षी होना। ध्यान एकाग्रता नहीं, बल्कि समग्र जागरूकता है। विचारों के प्रवाह को ऐसे देखें, जैसे किसी सड़क से गुजरते लोगों को देख रहे हैं आप। किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। न ही अच्छे-बुरे का निर्णय करें। सामने जो विषय है, उसमें रस न लेने के कारण, धीरे-धीरे चेतना पूरी तरह अपने पर ही लौट आती है। महावीर इसे प्रतिक्रमण और पतंजलि इसे प्रत्याहार कहते हैं। मौन, शांत, चुपचाप देखते-देखते आप दूर खड़े द्रष्टा बन जाएंगे। साधना में डूबते-डूबते कालांतर में कामना के सारे बीज नष्ट हो जाते हैं, तब निर्बीज समाधि घटती है। ऐसे ज्ञानी फिर जीवन-मुक्त हो जाते हैं, आवागमन के बंधन से छूट जाते हैं। संबोधि का अर्थ है-बोध का स्वयं में ठहर जाना, ज्ञान की शक्ति का आत्म-रमण। बहिर्मुखता के बंधन से छूटकर, अंतर्मुखता में या अपने स्वभाव में स्थिति। भगवान कृष्ण इसे ही स्थित-प्रज्ञ होना कहते हैं। दुनिया के सभी धर्म सच्चिदानंद की इस दशा को पाना ही मानव-जीवन का परम लक्ष्य बताते हैं। आनंद का यह खजाना बाहर नहीं, हमारे भीतर है। वस्तुत: यह उपलब्धि, कोई नया अन्वेषण नहीं, बल्कि शाश्वत सत्य का अनावरण है।
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लोभ की प्रवृत्ति

लोभ-लालच से आच्छादित मन, मृग-मरीचिका में भटकता रहता है, पर वह दूसरों को नहीं, बल्कि स्वयं को ठगता है। धोखा देने के चक्कर में स्वयं धोखा खाता है। दूसरों को छलने से स्वयं की आत्मा में छाले पड़ जाते हैं और वे रिसते रहते हैं। जहां लालच और लोभ की वृत्ति ज्ञात होने पर स्वजन और मित्रों का स्नेह भंग हो जाता है, वहीं लालच की विसंगति खुलने से स्वयं को भी आत्म-ग्लानि के साथ लच्जित होना पड़ता है। लालची और लोभी व्यक्ति अपने कपट-व्यवहार को कितना ही छिपाये देर-सबेर प्रकट हो ही जाता है। आज का मानव बहुरूपिया बन गया है, उसका स्वभाव जटिलताओं का केंद्र बन गया है। हर किसी के साथ और हर स्थान पर लोभ और लालच से पेश आता है। यहां तक कि भगवान के आगे भी वह अपनी लोभी बुद्धि का कमाल दिखाए बगैर बाज नहीं आता। एक व्यक्ति देवी के मंदिर में जाकर मनौती मांग रहा था, नि:संतान था। इसलिए उसने प्रार्थना की हे देवी! मुझे पुत्र की प्राप्ति हो जाए, मैं सोने की पोशाक चढ़ाऊंगा। कालांतर में पुत्र की प्राप्ति हो गई, उसका लोभ-लालच प्रबल हुआ। उसने बच्चे का नाम ही ‘सोने लाल’ रख लिया। एक कपड़े का टुकड़ा ला ‘झबला’ सिलकर बच्चे को पहनाया। फिर वही देवी को भेंट करते हुए कहा-देवी मां वायदे के अनुसार ‘सोने की पोशाक दे रहा हूं, बच्चे पर कृपा-दृष्टि रखना।’ यह मात्र एक दृष्टांत है, परंतु आज व्यक्ति हर समय, हर क्षण लोभ-लालच में लिप्त है।
कहा जाता है सर्प टेढ़ा-मेढ़ा वक्रता में चलता है, परंतु अपने ‘बिल’ में वह सीधा जाता है, परंतु मानव अपनी वक्रता, कूटनीति कभी नहीं छोड़ता। वह मायाजाल बुनता ही रहता है। धर्मात्मा का नाटक कर दो नंबर में अर्थोपार्जन करना अब सामान्य सी बात है। ऐसे ही व्यक्तियों को ‘बगुला भगत’ कहा गया है। मायाचारी और लोभी बदल-बदल कर छल-कपट के व्यवहार से पाप कमाता है। वह अपनी कुटिलता, छल, कपट, धोखेबाजी से क्षणिक सफलता पा भी ले, परंतु अंततोगत्वा कष्ट ही उठाता है। ऐसे व्यक्ति शंकाशील रहने के कारण भयभीत रहते हैं। वैसे कहावत भी है-काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। अर्थात मायाचार, लोभ-लालच स्थायी सफलता नहीं दे सकते और जब बेईमानी का भांडा फूटता है, तो अपयश की चिंगारी दूर-दूर तक तपन से झुलसाती है। यह कुटिलता लोक-परलोक दोनों में ही दुखद है।
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Monday 5 December 2016

जीवन का संघर्ष

सनातन धर्म की कुछ कथाओं की सार्थकता हर युग में पाई जाती है। जैसे राम-रावण युद्ध, महाभारत और सागर मंथन। सागर मंथन हर मनुष्य पूरी जिंदगी करता है। यदि देवताओं की तरह उसके प्रयास और कार्यप्रणाली सत्मार्गी है तो उसे अमृत की प्राप्ति होती है। अन्यथा अनैतिक मार्गों के द्वारा किए मंथन के द्वारा अहंकार रूपी मदिरा प्राप्त होती है, जिसे पीकर वह पतन को प्राप्त होता है। इसी प्रकार राम-रावण युद्ध भी हर समय लड़ा जा रहा है। जो प्राणी सुग्रीव और विभीषण की तरह भगवान के पक्ष में युद्ध करते हैं उन्हें भवसागर को पार करने में विजय प्राप्त होती है और रावण की सेना के राक्षस जीवन मरण रूपी भवसागर में डूबते, उतरते रहते हैं और बार-बार अपने कर्मों के अनुसार निम्नतर योनियों में जन्म लेकर नर्क का दुख भोगते हैं। इसी प्रकार महाभारत की कथा का चित्रण भी किया गया है। गुरुनानक देव के अनुसार केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसे बुद्धि और विवेक के अनुसार कर्म करने का अधिकार प्राप्त होता है। जिस प्रकार बुद्धि और विवेक मनुष्य को सत्कर्मों की तरफ प्रेरित करते हैं, उसी प्रकार अंधी इच्छाएं उसे मानसिक व्याधियां प्रदान करती हैं। महाभारत के कथानक के अनुसार धृतराष्ट्र की इच्छाएं अंधी थीं। इन अंधी इच्छाओं से उत्पन्न संतानें भी उसी प्रकार ईष्र्या, लोभ, मोह रूपी पुत्रों-दुर्योधन और दुशासन आदि कहलाती हैं।
बुद्धि और विवेक रूपी पांडव और धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों रूपी बुराइयां हर मनुष्य में होती हैं, परंतु कृष्णरूपी अच्छे पथ-प्रदर्शक और मनुष्य की अपनी मेहनत और विवेक के जरिये कुछ जीवनरूपी महाभारत को जीत लेते हैं और शेष लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति करते-करते कौरवों की तरह जीवनरूपी संग्राम में मारे जाते हैं। ज्यादातर लोग अपनी बुराइयों के कारण असफल होने पर कहते हैं कि इस युग में कृष्णरूपी सारथी कहां तलाशें, परंतु ऐसे लोगों को यदि कोई अच्छा पथप्रदर्शक मिलता भी है तो ये उसके दिखाए मार्ग की खिल्ली उड़ाकर उस पर नहीं चलते हैं। भगवान कृष्ण ने दुर्योधन और धृतराष्ट्र को समझाकर सद्मार्ग पर चलने के लिए कहा था उसी प्रकार दुर्योधन ने भगवान का मजाक उड़ाकर उनके दिखाए मार्ग पर चलने से मना कर दिया था।
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धर्म क्या है?


आज के बहुत सारे हिन्दू ""धर्म''' का मतलब ही नहीं जानते हैं और अज्ञानतावश वे..... धर्म, संप्रदाय और मजहब को एक ही समझ लेते हैं....... और, उससे भी दुखद तो ये है कि...
धर्म को ना जानने के कारण बहुत सारे लोग......"" सभी धर्म एक समान"" सरीखे नारे को बुलंद करते आ जाते हैं...!
इसीलिए... ऐसे सेक्यूलरों को समुचित जबाब देने हेतु सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि.... आखिर "धर्म" है क्या....और, धर्म की वास्तविक परिभाषा क्या है....?????
दरअसल.... ""धर्म"" संस्कृत भाषा का शब्द हैं... "धृ" धातु से बना हैं..... जिसका अर्थ होता है.... " धारण करने वाली""
इस तरह हम कह सकते हैं कि..... "धार्यते इति धर्म:" .......अर्थात, जो धारण किया जाये वह धर्म हैं,,,,।
दूसरे शब्दों में ....लोक परलोक के सुखों की सिद्धि हेतु ......सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना ही धर्म हैं....।
अगर हम इतनी तकनीकी बातों को छोड़ कर सीधे-सीधे कहें तो.....
हम यह भी कह सकते हैं कि .... मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल ........जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं ........वही धर्म हैं।
मिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में भी .......धर्म के लक्षण का विवरण हैं.. जो बताता है कि..... लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं।
साथ ही..... वैदिक साहित्य में धर्म......... वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं...... जैसे कि ......
जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं .........और , प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं।
उसी प्रकार .... मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि.....
धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:
"धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं" ६/९
अर्थात .......धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।
दूसरे स्थान पर कहा हैं........
"आचार:परमो धर्म" १/१०८
अर्थात सदाचार परम धर्म हैं
( ध्यान रहे कि.... "आचार:परमो धर्म" को ही कुछ स्वार्थी तत्वों ने बदल कर ......... ""अहिंसा परमो धर्मः"" बना दिया है )
इसी तरह.... महाभारत में भी धर्म को समझाते हुए लिखा गया हैं कि ...
"धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा:"
अर्थात .........जो धारण किया जाये और जिसे प्रजाएँ धारण की हुई हैं........ वह धर्म हैं।
सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि.... वैशेषिक दर्शन के कर्ता महामुनि कणाद ने धर्म का लक्षण बताते हुए कहा है कि.....
यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:
अर्थात..... जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म हैं।
और तो और.... आधुनिक समय के स्वामी दयानंद जो कि... आर्य समाज के संस्थापक भी है..... के अनुसार धर्म की परिभाषा
जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार हैं उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।-सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास
पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध हैं, उसको धर्म मानता हूँ - सत्यार्थ प्रकाश मंतव्य
इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।- सत्यार्थ प्रकाश
इसका मतलब ........ सभी के सभी धर्मग्रंथ एवं ऋषि-मुनियों ने एक स्वर में यह बतलाया है कि.....
धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक हैं......... और, धर्म के मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है....!
फिर भी "कुछ वामपंथी लोग" धर्म को ... समाज के "उत्थान में बाधक" समझाने का प्रयास करते हैं....!
और , इसकी शुरुआत वामपंथी कार्ल मार्क्स ने की थी.... जिसने धर्म को अफीम कह कह कर सम्बोधित किया था...!
असल में... कार्लमार्क्स ने ......... मजहब और संप्रदाय के सन्दर्भ में ये बात कही थी...... जिसे , बाद के लोगों ने विकृत कर "मजहब और संप्रदाय" की जगह "धर्म" कर दिया...!
जबकि, मजहब का मतलब ........ धर्म के बिलकुल ही विपरीत है..... और, मजहब किसी एक पीर-पैगम्बर के द्वारा स्थापित और उसी के सिद्धांतों की मान्यता को लेकर बनाए जाते हैं.... जिसका प्रमुख मकसद जनकल्याण नहीं बल्कि..... रक्तपात, अन्धविश्वास, बुद्धि के विपरीत किये जाने वाले पाखंडों आदि......... किसी भी प्रकार का प्रोपोगंडा कर अपने मजहब में लोगों की संख्या बढ़ाना होता है.... ताकि, वे उस समुदाय के अपने सिद्धांतों के हिसाब से .. भेड़ों की तरह हाँक हांक सकें.....!
इसी तरह.... संप्रदाय को भी धर्म की संज्ञा देना उचित नहीं है .... क्योंकि... संप्रदाय .... धर्म और मजहब के अंदर के भाग होते हैं..... सिर्फ , उनकी मान्यताओं और दर्शन में अंतर होता है...!
अंत में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि..... एक हिन्दू सनातन धर्म ही उपरोक्त ""धर्म"" की परिभाषा पर खरा उतरता है.... जो हमें ,
धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध ... आदि के बारे में बताता है...
ना कि.... किसी को धर्म परिवर्तन कैसे करवाना है.. अथवा, जेहाद कैसे चलाना है ... इस बारे....!
इसीलिए मित्रो.... सच को जाने .... क्योंकि, सच ही वो प्रकाश है जो..... मनहूस सेक्यूलरों द्वारा फैलाये प्रोपोगंडा रूपी इस अन्धकार को दूर कर ....
हमारे हिन्दू सनातन धर्म के अस्तित्व की रक्षा में सहायक होगा...!
हमेशा एक बात याद रखें कि....
अन्याय और पाप को सहने वाला भी उतना ही दोषी होता है.... जितना अन्याय और पाप करने वाला....!
इसीलिए.... हर चीज की सच्चाई को जानते हुए ....अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीखो.... और.., 


आज एक संपूर्ण व्यक्तित्व की जरूरत है। व्यक्ति में तीन प्रकार की क्षमताएं होती हैं-सहज, अर्जित और ओढ़ी हुई। सहज क्षमता किसी-किसी में होती है। सहज क्षमता जिसमें होती है उसका व्यक्तित्व काफी अंशों में पूर्ण होता है। वह जो कुछ सोचता है, उसे उसी रूप में निष्पन्न कर लेता है। कार्य की निष्पत्ति के लिए न तो निरर्थक दौड़-धूप करनी पड़ती है और न ही वह किसी अवसर को खो सकता है। सहज-समर्थ व्यक्ति अपने काल को इतना उजागर कर देता है कि शताब्दियों-सहस्त्राब्दियों तक वह युग के चित्रपट पर मूर्तिमान रहता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो बहुत ही साधारण व्यक्तित्व लेकर इस धरती पर आते हैं, किंतु अपने पुरुषार्थ से चमक जाते हैं। उन्हें व्यक्तित्व-विकास के लिए जो भी अवसर मिलता है वे मुक्तभाव से उसका उपयोग करते हैं। इनकी क्षमता अर्जित होती है, फिर भी कालांतर में वह स्वाभाविक-सी बन जाती है। ऐसे व्यक्ति भी अपने समाज और देश को दुर्लभ सेवाएं दे सकते हैं। इसीलिए ऐसे व्यक्तियों के लिए विद्वान डोनाल्ड एम. नेल्सन को कहना पड़ा कि हमें यह मानना बंद कर देना चाहिए कि ऐसा कार्य जिसे पहले कभी नहीं किया गया है, उसे किया ही नहीं जा सकता है। तीसरी पंक्ति में वे व्यक्ति आते हैं, जिनके पास न तो सहज क्षमता होती है और न वे क्षमता का अर्जन ही कर पाते हैं। किंतु स्वयं को सक्षम कहलाना चाहते हैं। कोई दूसरा उन्हें मान्यता दे या नहीं, वे अपने आप महत्वपूर्ण बन जाते हैं। इस आरोपित क्षमता से कभी कोई विकास हो, संभव नहीं लगता। 
ओढ़ी हुई क्षमता वाले व्यक्ति गरिमापूर्ण दायित्व को ओढ़कर भी उसको निभा नहीं सकते। विचारक जॉन वुडन ने कहा भी है कि अपने सम्मान के बजाय अपने चरित्र के प्रति अधिक गंभीर रहें। आपका चरित्र ही यह बताता है कि आप वास्तव में क्या हैं, जबकि आपका सम्मान केवल यही दर्शाता है कि दूसरे आपके बारे में क्या सोचते हैं। कोई आज छाया में इसलिए बैठा हुआ है, क्योंकि किसी ने काफी समय पहले एक पौधा लगाया था। ऐसे पौधे लगाने वालों के अनेक उदाहरणों से विश्व-इतिहास भरा पड़ा है। सिर्फ समझ का दरवाजा खोलने की जरूरत है। अगर समझपूर्वक जीना आ गया तो जीवन के प्रत्येक धरातल पर विकास की सरिता स्वत: प्रवाहित होने लगेगी। आनंद का दरिया लहराने लगेगा। जिंदगी का हर एक लम्हा नया अंदाज देकर जाएगा।

विहंगम योग

विहंगम योग आज सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये ही नही, बल्कि स्वस्थ जीवनयापन के साधन के रुप में भी मान्यता एंव लोकप्रियता प्राप्त करता जा रहा है । वेदों के अनुसार योग का अन्तिम लक्ष्य आत्मा एंव परमात्मा का संयोग है । योग के इस श्रेष्ठतम रुप को विहंगम योग या ब्रह्मविद्या कहा जाता है ।


विहंगम योग क्या है?
 
योग-योग सब कोई कहै योग न जाना कोय ।अधर्व धार जब उधर्व चले योग कहावे सोय ॥विहंगम योग आज सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये ही नही, बल्कि स्वस्थ जीवनयापन के साधन के रुप में भी मान्यता एंव लोकप्रियता प्राप्त करता जा रहा है । आज ज्यादातर भारतीय योगी आसन प्राणायाम सिखाने में लगे है, जो की योग के अंग मात्र है, सम्पूर्ण योग नहीं। हठयोग, मंत्रयोग, लययोग तथा राजयोग यह सब योग की कुछ प्रणालियां है, जो कि भारत मे प्रचलित है । ये सभी प्राकृतिक योग हैं, इनकी साधना शरीर, मन, बुद्धि तथा प्राण के प्राकृतिक धरातल पर होती है, जिससे इनकी शक्तियाँ विकसित हो जाती है । वेदों के अनुसार योग का अन्तिम लक्ष्य आत्मा एंव परमात्मा का संयोग है । योग के इस श्रेष्ठतम रुप को विहंगम योग या ब्रह्मविद्या कहा जाता है ।

योग का शाब्दिक अर्थ है जोड़ या सम्बन्ध, जोकि आत्मा व परमात्मा का ही होता है, क्योंकि जोड़ हमेशा चेतन से चेतन का होता है, जो नित्य रहता है, तथा आत्मा व परमात्मा दोनो ही चेतन है, इसलिए इन दोनो का योग ही नित्य व शाश्वत है । विहंगम योग तब घटित होता है, जब आत्मा मन व बुद्धि के बन्धन से मुक्त होकर अपना शुद्ध चेतन स्वरुप ग्रहण कर लेती है । परमात्मा शुद्ध चेतन तत्व है, और मन-बुद्धि की पहुँच से परे है क्योंकि मन व बुद्धि जङ है, तथा आत्मा की चेतना से सक्रिय होती है । अतः किसी जड़ तत्व की पहुँच चेतन तत्व तक नही हो सकती, उससे सम्बन्ध स्थापित होना तो दूर की बात है । अतः प्राकृतिक योग विहंगम योग की ऊँचाई को प्राप्त नही कर सकते । जिस प्रकार पक्षी पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के विरुध हवा में विचरण करता है, उसी प्रकार आत्मा की चेतना अपने प्राकृतिक आधार अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि को छोड़कर असीम चेतन मंडल में विचरण करती है । महर्षि पंतजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध (मानसिक क्रियाओं का रुक जाना )को योग कहा है, यह राजयोग की परिभाषा है । राजयोग सारे प्राकृतिक योगों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और विहंगम योग का प्राथमिक सोपान है । वास्तव में जहां राजयोग समाप्त हो जाता है वहीं से विहंगम योग का प्रारम्भ होता है ।
 


हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य.
 
लख चौरासी भोग के पौ पे अटके अ।य ।अबकी पासा ना पड़े तो फिर चौरासी जाय ॥ उपरोक्त दोहे का मतलब यह है कि चौरासी लाख योनियौँ को भोगने के बाद जब परमात्मा जीव पर दया करता है तो यह मानव जीवन प़दान करता है और इसका उद्देश्ये परमात्मा को प़ाप्त करना होता है । लेकिन मानव सँसार मे अ।ने के बाद परमात्मा को भूल जाता है और वह संसारिक सुखों को प़ाप्त करना ही अपने जीवन का  उद्देश्य.मान लेता है ।

अ।पने देखा होगा कि मानव हर वक्त किसी सुख या खुशी की तलाश मे रहता है ओर वह संसार में उपलब्घ वस्तुओं में उस सुख को तलाश करता है । इस के लिए वह संसार से उन सभी वस्तुऔ को जुटाता है जो उसे खुशी दे सके ओर सभी वस्तुएं थोड़ी देर के लिए ही सही खुशी प़दान करती है लेकिन यह खुशी सास्वत नही होती ओर अगले ही क्षण समाप्त हो जाती है । क्या अ।पने सोचा है, कि ए॓सा क्यों होता है ? क्यो कि अ।त्मा शरीर घारण करने से पहले जब परमात्मा के सानिघ्य मे रहता था तब वह परमानन्द का उपभोग करता था इसलिए वह उस अ।नन्द की तलाश इस नस्वर संसार मे करता है ओर उसे पाने के लिए संसारिक सुखों व सुविघाओं को इकठ्ठा करता है, लेकिन वह भुल जाता है कि संसार मे वह सुख नही है । इसी तरह जीव अपना पूरा जीवन बीता देता है लेकिन उस परमानन्द को प़ाप्त नही कर पाता है जिसका पान उसकी अ।त्मा पहले कर चुकी है, क्योंकि वह अ।नन्द इस संसार में नही है, वह तो परमात्मा के पास ही है ओर इसे पाने के लिए तो परमात्मा को पाना होगा ओर उसे पाने के लिए, वह विघा जानने की अ।वश्यकता होती है, जिससे उसे पाया जा सके ।

इस संसार में दो तरह की विघांए होती है पहली अपरा विघा व दूसरी परा विघा । संसार मे जीवन यापन के लिए अपरा विघा की अ।वश्यकता होती है (जिसमे वेद भी सम्लित है )तथा परमात्मा को पाने के लिए परा विघा की । यह भी पूण॔तः वैज्ञानिक विघा है, इसे मघु विघा या ब़म्ह विघा भी कहते हैं । सदगुरु इस विघा का अ।चाय॔ होता है, जो इस विघा को जानता है । अतः सदगुरु की खोज कर यह विघा सीखनी चाहिए ताकि अ।त्मा को जिस परमानन्द की तलाश है, वह उसे पा सके ।


 मानव शरीर के कार्य 

आज दैनिक जीवन में कम्प्यूटर का महत्व तो आप सभी जानतें हैं । इसका कार्य करने का तरीका भी जानते हैं । कम्प्यूटर में एक हार्ड डिस्क, रैम, रोम, प्रोसेसर इत्यादि सभी चीजें होती है तथा सभी का अपना कार्य होता है । कुछ इसी प्रकार हमारा शरीर भी कार्य करता है । उसमें भी मन, बुद्धि, चित व अहंकार ये चार अन्तःकरण है तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ क्रमशः हाथ, पाँव, पायू, उपस्थ, वाणी है तथा पाँच ही ज्ञानेन्द्रियाँ क्रमशः नाक, कान, जीभ, आँख व त्वचा है । इन सब का अपना कार्य है ।

चित मानव शरीर में स्थापित एक हार्ड डिस्क है जो हमारे सामने आने वाले हर दृश्य, संवाद तथा विचार को हमारे न चाहते हुए भी रिकार्ड कर लेता है । चित मे जो विचार संग्रहित होते है उन से ही हमारे संस्कार बनते हैं तथा उसी के अनुसार हम अपना कर्म करते हैं ।

जब भी हमें कोई कार्य करना होता है तो चित मे एक विचार उठता है जिसको हमारा मन पकड़ता है तथा विशलेषण करने के लिए बुद्धि को दे देता है और बुद्धि उसका विशलेषण करती है कि इस कार्य को कैसे सम्पन्न करना है और अपना निर्णय पुनः मन को दे देती है। मन उस निर्णय के अनुसार उस कार्य को सम्पन्न करने का आदेश इन्द्रियों को देता है और इन्द्रियों के माध्यम से वह कार्य सम्पन्न होता है और कार्य सम्पन्न होने के बाद यह विचार कि कार्य "मैने किया" यही अहंकार है । इस प्रकार जो कार्य किया गया उसका फल जैसा भी हो अच्छा या बुरा हमारी आत्मा को भोगना पड़ता है । जिसकी इस कार्य को करने मे कोई भुमिका नही होती है । इसका दोष केवल इतना होता है कि मन जिस शक्ति का उपयोग करता है वह आत्मा की होती है ।

यदि हम अपने मन पर नियन्त्रण स्थापित करलें तो यह कोई ऐसा काम नही करेगा जिसका फल अशुभ हो, लेकिन मन पर नियन्त्रण करना भी इतना आसान नही है । इसके लिए हमे ऐसे गुरु की खोज करनी होगी जो यह बताये की मन पर नियन्त्रण कैसे किया जा सकता है ।
इस तन में मन कहाँ बसे निकस जात किस और ।
गुरु गम हो तो परख ले नही तो गुरु कर ओर ॥
अथार्त इस शरीर में मन का निवास कहाँ है, यह ज्ञान हो जाने पर ही इसको वश मे किया जा सकता है, जब तक हमे इसके निवास का ज्ञान ही नही होगा हम उसे वश मे कैसे कर सकतें हैं । अतः हमारे गुरु वह हो जिन्हे यह पता हो कि इस शरीर में मन का निवास कहाँ हैं । उसके बाद वह हमें बतलाए कि इसे कैसे वश मे किया जाये ।

 आत्मा का शरीर

 यह तो हम सभी जानतें हैं कि मानव शरीर आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि व जल इन पाँच तत्वों सें निर्मित है । लेकिन क्या यह पता है कि आत्मा के भी छः देह क्रमशः हँस देह, कैवल्य देह, महाकारण देह, कारण देह, सूक्ष्म देह तथा स्थूल देह होती है ।स्थूल शरीरःइसका निर्माण पाँच तत्वों आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि व जल से होता है । इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ क्रमशः कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा नासिका होती है, जो शब्द स्पर्श, रुप, स्वाद तथा गंध के सवेंद ग्रहण करती है और पाँच कर्मेन्द्रियाँ क्रमशः वाणी, हाथ, पांव, लिंग तथा गुदा होती हैं जो बोलने, पकड़ने, चलने, मूत्रत्याग एवं प्रजनन करने तथा मल त्याग करने की क्रियाँए सम्पन्न करती है । इनके अतिरिक्त चार भीतरी इन्द्रियाँ (अन्तःकरण;) - मन, बु‍ध्दि, चित्त तथा अंहकार होते है । पाँच प्राणः प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान व पाँच उप प्राणः कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त होते हैं । इन सभी में मन महत्वपूर्ण है ।सुक्ष्म शरीरःयह स्थूल शरीर से भिन्न है क्योंकि इसमे केवल उन पाँच तत्वों का अभाव होता है जिनसे स्थूल शरीर का निर्माण होता है बाकी सभी इन्द्रियाँ, प्राण व अन्तः करण बीज रुप में विद्यमान रहतें हैं । कारण शरीरःकारण शरीर में मन, बुद्धि व प्राण का अभाव हो जाता है । आत्मा का यह शरीर कारण शरीर कहलाता है । यानि इसमें चित्त, अहंकार व प्रकृति के तीन गुण सत, रज व तम विद्यमान रहतें है।महाकारण शरीरःइस शरीर में प्रकृति के तीनो गुणो का भी अभाव हो जाता है और आत्मा असीमित बल व तेज को प्राप्त करता है ।कैवल्य शरीरःइस शरीर में आत्मा परमात्मा सें सयुंक्त होकर असीम आनंद को प्राप्त करता है और परमात्मा सें सयुंक्त होने के कारण परमात्मा के सारे गुणो को ऐसे ही धारण कर लेता है जिस प्रकार लोहा अग्नि के सम्पर्क में आने पर अग्नि के सारे गुणो को धारण कर लेता है और इस स्थिति में आत्मा में "मैं ब्रह्म हूँ " ऐसे भाव का उदय होता है । आत्मा का यह अहंकार भाव अज्ञानवश होता है और यह भाव ही आत्मा के पतन का मुख्य कारण है ।हँस शरीरःयह आत्मा की शुद्ध अवस्था है । जब आत्मा परमात्मा के सानिध्य में योग की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर अपने इस अहंकार भाव का त्याग करता है तो परमात्मा के साथ स्वामी सेवक का सम्बन्ध स्थापित होता है । आत्मा की यह अवस्था हँस अवस्था होती है । इस अवस्था को प्राप्त कर आत्मा परमानन्द के अनन्त सागर में गोते लगाता है ।
 आपको अपने विषय में पता है ..? अगर किसी से पुछा जाये कि तुम कौन हो ? वह अपना नाम बताएगा कि मैं अमुक व्यक्ति हूँ या अमुक जाति का हूँ लेकिन कभी आपने सोचा है कि हम रोज कहते है कि यह मेरा हाथ है, यह मेरा पाँव है, यह मेरा शरीर है तथा यह मेरी आँख है । कभी एकान्त में बैठकर सोचा है कि यह सब मेरा है लेकिन जो यह कह रहा है कि "यह मेरा है" वह कौन है ? क्या आपने कभी विचार किया है ? शायद नही किया होगा । क्योंकि आपको अपने लिए इतना समय ही कहाँ मिला होगा कि सोच सको कि मै कौन हूँ । आप इसे पढ़कर जरुर सोचना । एकान्त मैं बैठकर सोचने से जवाब मिलेगा तू आत्मा है, तू जीव है, जीवात्म है, तू चाहे किसी भी जाति का हो, कोई भी भाषा बोलता हो या किसी भी धर्म का हो इससे कोई फर्क नही पड़ता है ?
यह जो तेरा शरीर है वह तू नही है, इस स्थूल शरीर के अन्दर सुक्ष्म शरीर, कारण, महाकारण और कैवल्य शरीर भी तू नहीं है । मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार भी तू नही है । न ही तू दस इंन्द्रियां नेत्र, कान, त्वचा, नाक या जीभ ही है और न तू हाथ, पैर, पायु, उपस्थ एवं वाणी ही है । तू न प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान है और न कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त ये पांच उप प्राण ही है ।तू न मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, ब्रह्मरंध्राख्य, आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रार चक्र ही है । तू अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोश भी नहीं है । तू तो शुद्ध चेतन, नित्य- अनादि एकदेशीय सत्ता है । तेरा स्वरुप अत्यंत सूक्ष्म, परमाणु से भी छोटा है । तू सर्वत्र, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ सर्व समर्थ नहीं है । तू आनंदाभिलाषी, सत्, चित् स्वरुप आत्मा है । तेरे अंदर अज्ञान का आविर्भाव होने से तू अपने आप को शरीर समझ रहा है । तू अपने आप को ज्ञानी, ध्यानी, पंडित, मौलवी, गुरु या इसी प्रकार का कुछ अन्य समझ रहा है । तू अपने आप को परमात्मा तक मान बैठा है । बता तो सही जिस परमात्मा ने इतनी विशाल, अनंत सृष्टि का निर्माण कर डाला है, जिसकी अनंतता का माप करते - करते तू थका जा रहा है तुझे इसकी थाह का पता नही चल रहा है, वही परमात्मा क्या तू है ? यह तेरे अज्ञान - भ्रम का परिणाम है कि तू नन्ही- सी सत्ता अपने - आपको समग्र सृष्टि में व्यापक ब्रह्म समझ रहा है । कैसी विडंबना है ? कितना धोखा है? तू मन के प्रभाव में आकर मन- मोदक से अपनी क्षुधा को तृप्त करना चाहता है । अभी भी अवसर है । तू सचेत हो जा । अपने आप को पहचान ले । अज्ञान, कर्म तथा जड़- चेतन की ग्रंथि से तू अपने- आप को मुक्त करले, पर यह होगा कैसे ? क्या अपने आप हो जाएगा ? क्या अपने जैसे ही बंधनग्रस्त जीवों को अपना गुरु बनाकर उनके द्वारा तू इन बंधनो से मुक्त हो पाएगा ? जो स्वयं बंधन में है, वह किसी दूसरे बंधनग्रस्त को बंधन से मुक्त कैसे करेगा ? अतः तू खोज कर उस गुरु की जो तुझे अपने आप को जानने का ज्ञान बता दे ।

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