गुरु का प्रभाव

इतना होने पर भी ऐसा नहीं है कि गुरु परंपरा का बीज नष्ट हो गया हो या अच्छे संतों की संख्या कम हो गई हो। हां, यह जरूर है कि उनकी प्रतिष्ठा में कमी हो गई है
गुरु का जो सम्मान होना चाहिए वह अब नहीं हो रहा है। समाज में इसमें बहुत अंतर आ गया है। लोग केवल औपचारिक रूप से संतों से जुड़ते हैं, गुरु से जुड़ते हैं। गुरु के आध्यात्मिक जीवन से लाभ उठाने की प्रेरणा लेनी चाहिए। उनके लिए समर्पित, सेवा भावी और निष्ठावान बनना चाहिए।
यह भी आश्चर्य है कि गुरुओं के जीवन में भी संयम, नियम और तप की बहुत कमी आ गई है, जो बड़ी चिंता का विषय है। लेकिन इतना होने पर भी ऐसा नहीं है कि गुरु परंपरा का बीज नष्ट हो गया हो या अच्छे संतों की संख्या कम हो गई हो। हां, यह जरूर है कि उनकी प्रतिष्ठा में कमी हो गई है। अब संतों में उतनी शक्ति नहीं रही। यह एक बड़ी विडंबना है, ऐसे में रघुवंश के गुरु महर्षि वशिष्ठ हमारे लिए प्रेरक हैं। उनसे सीखकर संतों को आगे बढ़ना चाहिए।
एक बड़े विद्वान कह रहे थे कि एक नेता उनके यहां बहुत आया करते थे। जब वे बड़े ओहदे पर पहुंच गए, तब भी शुरू में एक महीना में एक बार मिलने लगे, एक साल बीत गया तो दो महीने में एक बार मिलने लगे, बाद में छह महीने में एक बार मिलने लगे, पांचवां साल आया तो एक ही बार मिले, बाद में एक बार भी नहीं मिले। इससे लगता है कि हमारे संबंध परस्पर कितने स्वार्थपूर्ण हो रहे हैं।
आध्यात्मिक ऊर्जा या संतों से अपने को नहीं जोड़ते हैं। वे संतों की संगति में कम रहते हैं, बस कुछ देर के लिए मिले, आशीर्वाद लिया और आगे बढ़ गए। उन्हें यह चिंता तो है कि हमारा धन बढ़े, हम समृद्ध हों, लेकिन हमारा परलोक भी ठीक हो जाए, आचार-विचार शुद्ध हो, ऐसी कोई चिंता नहीं है। लोगों का संतों का वास्तविक लाभ उठाना नहीं चाहते। भगवान श्रीराम ने ऐसा नहीं किया।वह जो भी करते हैं, गुरुदेव वशिष्ठ को पूछकर करते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-वेद पुराण वशिष्ठ बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं।
वशिष्ठ अयोध्या में श्रीराम को वेद-पुराण सुनाते हैं। श्रीराम अत्यंत आदर के साथ सुनते हैं, जैसे कुछ जानते ही नहीं हों। उन्हें सब मालूम है। परमात्मा हैं तो कौन-सा ज्ञान होगा, जो उनमें नहीं होगा। अत: यह आवश्यक है कि गुरु से हमारा संबंध आध्यात्मिक ऊर्जा को बढ़ने वाला हो।
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