सद्कर्तव्य मुश्किल से मिले जीवन को व्यर्थ नहीं करना चाहिए, बल्कि इस जीवन में जितने सद्कर्तव्य किए जाएं उतना अच्छा। कर्म ही भाग्य कहलाता है, इसलिए पुरुषार्थ किए बगैर भाग्य का निर्माण नहीं हो सकता। इस संदर्भ में यह सवाल यह है कि कर्म का चुनाव कैसे किया जाए कि किस व्यक्ति को क्या कर्म करने हैं? विद्वान कहते हैं कि अपनी जिम्मेदारियों को निष्काम भाव से निभाना ही कर्म है-सद्कर्तव्य है। अपने कर्तव्य का निर्णय किस प्रकार करना चाहिए।
इसके जवाब में श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-‘क्या करना चाहिए, इसका निर्णय करने के लिए शास्त्र ही प्रमाण है। शास्त्र के विधान को जानकर आपको उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए। सिकंदर और पोरस में युद्ध चल रहा था। सिकंदर को सूचना मिली कि शत्रु देश का एक साधु अपनी जड़ी-बूटियों से उसके घायल सैनिकों का उपचार कर रहा है। सिकंदर ने उस साधु से मुलाकात की और पूछा, तुम शत्रुओं की सेवा क्यों कर रहे हो? साधु ने कहा-‘मेरी दृष्टि में मित्र-शत्रु सभी बराबर हैं। मैं प्राणियों की सेवा करता हूं। सिकंदर बोला-‘मैं तुम्हारी बात समझा नहीं।
साधु ने मरी हुई एक चींटी उठाई और पूछा-‘क्या तुम इसे जीवित कर सकते हो?’ जब सिकंदर ने इसका उत्तर नहीं में दिया तो साधु ने कहा-जब तुम एक चींटी तक को प्राण नहीं दे सकते, तो अनगिनत मनुष्यों के प्राण लेने का तुम्हें क्या अधिकार है? सिकंदर को कोई जवाब नहीं सूझा और उसने अपना सिर झुका लिया। 1शास्त्रों में लिखा है कि आपके हर कर्र्मो का फल इसी जीवन में मिलता है यानी बबूल के पेड़ बोने पर आम की लालसा नहीं रखनी चाहिए। सद्कर्तव्य और कुछ नहीं, बल्कि मानव धर्म का पालन करना है।
महर्षि दयानंद किसी स्थान पर विराजमान थे। उन्होंने देखा कि एक मजदूर सामान से लदे एक ठेले को चढ़ाई पर ले जा रहा है। भार अधिक होने के कारण मजदूर प्रयास करने के बावजूद ठेले को आगे नहीं बढ़ा पा रहा है। इससे नाराज उसका मालिक बेंत से उसे पीट रहा है। महर्षि दयानंद उठे और ठेला आगे बढ़ाने में उस मजदूर की मदद करने लगे। उन्हें सफलता मिल गई, लेकिन यह नजारा देखकर सेठ हाथ जोड़कर दयानंद के सामने खड़ा हो गया। दयानंद ने उससे कहा-यह तो उनका कर्तव्य व धर्म था।
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