राजनीति के भंवर में फंसी नीतीश कुमार की कश्ती के डूबने की पूरी सम्भावना है। जब तक भाजपा का साथ था, राजनीति की शांत जल धारा में नीतीश आसानी से कश्ती खे रहे थे। न तूफान था। न तेज हवा बह रही थी, विकास की गाड़ी आगे बढ़ रही थी। उन्हें सुशासन बाबू का तमगा मिल गया था। पंद्रह वर्ष तक अराजकता का दंश झेल रहा भारत का पिछड़ा और गरीब बिहार विकास के मार्ग पर आगे बढ़ रहा था। यद्यपि बिहार की हालत पूरी तरह नहीं सुधरी थी, फिर भी मन में आशा बंधी थी कि यदि ऐसा ही चलता रहा, तो एक दिन बिहार अपने पिछड़ेपन और गरीबी के अभिशाप से मुक्त हो जायेगा।
बीजेपी के साथ रहने से नीतीश के विरोधियों के हौंसले पस्त हो गये थे। वे चुनौती देने की ताकत खोते जा रहे थे। अचानक नीतीश को अपने आप पर अभिमान हो गया। सम्मिलित ताकत को अपनी निज ताकत समझ बैठें। उन्हें भारत का प्रधानमंत्री बनने का सपना आया और उन्होंने एक झटके से भाजपा का साथ छोड़, अपनी कश्ती को राजनीतिक तूफान के हवाले कर दिया। लोकसभा चुनाव परिणामों ने उन्हें अपनी गलती का अहसास करा दिया, किन्तु गलती को सुधारा नहीं। कश्ती को शांत जल धारा की ओर मोड़ने का प्रयास नहीं किया। उसे उसे गहरे भंवर की ओर धेकेल दिया।
परम मित्र को शत्रु बना, प्रबल शत्रु को मित्र बनाने की जो जोखिम नीतीश कुमार ले रहे हैं, वह उनके राजनीतिक जीवन की सब से बड़ी भूल है। ऐसा न हो कि इस जोखिम से गहरी खार्इ में गिर, वे राजनीति के बिंयाबन में कहीं गुम हो जायें। यह सही हैं, राजनीति में कोर्इ स्थायी दुश्मन और स्थायी मित्र नहीं होते, किन्तु यह भी सही है कि राजनीति के गणित में कभी एक और एक दो नहीं होते। दो प्रबल शत्रुओं के वोट जुड़ कर उन्हें जीत नहीं दिला सकते। जनता इतनी भी मूर्ख नहीं है कि वह जिंदा मक्खी आंख बंद कर निगल लें। वह इस बात को अच्छी तरह जानती है कि कल तक तो जो एक दूसरे के शरीर में खंजर घोंपने के लिए मौके की तलाश में रहते थे, अब अचानक क्यों अपने हाथ में पकड़े हुए खंजर पीछे छुपा कर गले मिलने की कोशिश कर रहे हैं। इतनी गहरी कटुता एक क्षण में नहीं भुलायी जा सकती है। कटुता न चाहते हुए भी इसलिए भुलार्इ जा रही है, क्योंकि दोनों के पावों के नीचे से जमीन खिसक रही है।
ऐसी सत्ता भी क्या काम की जो अपने राजनीतिक बैरी की महरबानी से मिल जाय। ऐसी सत्ता मिल भी जाय, तो वह किसी काम की नहीं रहेगी, क्योंकि शत्रु अपनी शत्रुता भुलेगा नहीं। गले मिलने के पहले जिस खंजर को अपनी पीठ के पीछे छुपा रखा था, उसका उपयोग करेंगे और एक दूसरे को अपने मार्ग से हटाने का प्रयास करेंगे। ऐसा होने पर बिहार में फिर अराजकता का दौर प्रारम्भ होगा। क्योंकि भाजपा ने नीतीश को नेता माना था, किन्तु लालू कभी उन्हें नेता स्वीकार नहीं किया है। यदि करेंगे भी तो उसकी भारी कीमत वसूलेंगे। यदि नीतीश कीमत चुका देंगे, तो दिवालिया हो जायेंगे। उन्हें खुदा मिलेगा न बिसाले सनम, न इधर के रहेंगे न उधर के रहेंगे। उनका राजनीतिक जीवन बर्बाद हो जायेगा। लालू के संग आ कर वे राजनीतिक खुदकशी कर रहें हैं। अपने हाथों से पांवों पर कुल्हाड़ी से वार कर अपाहिज बन, लालू की बैसाखियों के सहारे चलना चाहते हैं, जिसे राजनीतिक मूर्खता के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। याद रहे ये वही लालू यादव हैं, जिन्हें विवश हो कर मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था, किन्तु उन्होंने वर्षों से पार्टी के साथ जुड़े किसी विश्वस्त व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद देने के बजाय अपनी निरक्षर पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया, जो प्रशासनिक ज्ञान की दृष्टि से भी अनपढ़ थी। फिर भला क्यों लालू अपने परमशत्रु के समक्ष मुख्यमंत्री का पद तश्तरी में रख कर भेंट कर देंगे ?
बिहार की जनता नहीं चाहेगी कि राजनीति के भंवर में फंसी नीतीश की डांवाडोल कश्ती में बैठ कर अपने भविष्य को दांव पर लगा दें। नीतीश ने जोखिम ली है, उससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि जनता भी वैसी ही जोखिम ले लें। लालू राज की दुखद यादे जनता के जेहन में आज भी ताजा है। नीतीश भूल गये हैं, किन्तु जनता भूली नहीं है। नीतीश ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए लालू के अपराधों को क्षमा कर अपना मित्र बना लिया, किन्तु न्यायालय उन्हें अभी भी अपराधी ही ठहरा रहा है। एक अपराधी के मित्र पर जनता क्यों कर विश्वास करेगी। यदि विश्वास करेगी, तो वे निश्चित रुप से धोखा खायेगी।
बिहार चुनाव परिणाम न केवल बिहार का भविष्य तय करेंगे, अपितु भारत के विकास का रथ, जो संसद ने अवरुद्ध कर रखा है, उसे बाहर निकालने में बिहार की जनता महत्वपूर्ण निभायेंगी। इस चुनाव में मोदी की जीत होगी या नीतीश कुमार की, यह तो समय ही बताएगा, किन्तु बिहार को जंगलराज की सौगात देने वाला शख्स यदि इस चुनाव के बाद ताकतवर बन कर उभरेगा तो बिहार की तकदीर फिर एक बार अपराधियों के हाथों में आ जायेगी, जो निश्चित रुप से दुर्भाग्यजनक स्थिति होगी, क्योंकि अवसरवादी अराजक शक्तियां हमेशा विनाश की गाथा ही लिखती है, सृजन की नहीं।
बिहार चुनाव परिणाम नीतीश कुमार के भाग्य का फैंसला करेगा, जिसमें एक मुख्यमंत्री सत्ता के नज़दीक पहुंच कर भी हार जायेगा, क्योंकि जीत उसके प्रबल राजनीतिक बैरी के सहयोग से मिलेगी, जो अपनी पूरी कीमत वसूल करेगा। यदि नीतीश सत्ता से दूर हो जायेंगे, तब भी उनकी हार ही होगी। निश्चय ही उनके पास पाने को कुछ नहीं है, खोना ही खोना है। शांत जलधारा में तेर रही कश्ती को तूफान के हवाले करना और फिर उसे भंवर में धकेलने का यही अंजाम होना था। भॅंवर में फंसी नीतीश कुमार की डांवाडोल कश्ती का राजनीति के गहरे समुंद्र में डूबना लगभग निश्चित दिखार्इ दे रहा है। ऐसा होने पर अवसरवादी और कपटपूर्ण राजनीति का अवसान हो जायेगा।
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