Wednesday, 23 September 2015

राहुल चिंतन नहीं करते, चिंतन का ढोग करते हैं

चिंतन- मनन से व्यक्ति को अपनी दुर्बलताओं का अहसास होता हैं। जो गलतियां हुर्इ है, उन्हें सुधारने की प्रेरणा मिलती है। चिंतन से विचारों में गम्भीरता झलकती है। चिंतक की वाणी ओजपूर्ण हो जाती है, जिससे भाव अभिव्यक्ति में कर्कशता नहीं होती, तार्किकता और माधुर्य होता है, जो जनमानस को मंत्रमुग्ध कर उसे मोहित कर देता है। राहुल के व्यक्तित्व में इन सभी गुणों का क्षणांस भी नहीं हैं। राहुल न चिंतन करते हैं, न चिंतक है, कांग्रेस पार्टी को उनका व्यक्तित्व काफी बोझिल लग रहा है और कांग्रेसी जन पार्टी के दुखद भविष्य को ले कर चिंतित है।
हकीकत यह है कि राहुल ने कभी देश की समस्याओं के बारें में चितन नहीं किया। उनका भारत के इतिहास  और संस्कृति के बारें में ज्ञान शून्य है। उन्होंने कभी भारतीय संविधान, भारत की राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का अध्ययन नहीं किया। गरीबों और मजदूरों की समस्याओं का उन्हें ज्ञान नहीं है। दरअसल  उनका अपना कोर्इ निज विचार  है ही नहीं। भारत के संबंध में वे क्या सोचते हैं और उनका क्या चिंतन है, न तो उन्होंने किसी लेख में लिपिबद्ध किया और न ही किसी भाषण में अभिव्यक्त किया।  चिंतन और चिंता से वे कोसो दूर है। चिंतन शब्द उन्हें उनके अनन्य भक्तों ने भेंट किया है। भक्त ही कहते हैं कि वे विदेश से देश के लिए चिंतन करते हुए लौटें हैं।  चिंतन के बाद वे आक्रामक हुए है। उनके भक्तों के प्रचार प्रपोगंड़े को ही भारतीय समाचार मीडिया प्रचारित करता रहता है।
राहुल विदेशों में अय्याशी करने जाते हैं, चिंतन करने नहीं। चिंतन तो घर के किसी कोने में एकांत में बैठ कर भी किया जा सकता है, उसके लिए विदेश जाने की आवश्यकता नहीं रहती। विदेश से आ कर उन्होंने संसद में जो छिछोरा भाषण दिया और जिस तरह अपने सांसदों को उपद्रव करने के लिए उकसाया, उससे भारतीय लोकतंत्र की गरिमा नष्ट हुर्इ है। भारतीय संसद कलंकित हुर्इ है। भारतीय संसद का हाल जो कभी मूर्धन्य सांसदों के ओजपूर्ण, विचारोतेजक और सारगर्भित भाषण से गूंजा करता था, उसी संसद में राहुल ने बेतुका, बेहुदा, अतार्किक और मर्यादाहीन भाषण दिया, जो संसद के रिकार्ड़ में भी रखने के लिए उपयुक्त नहीं है, उस भाषण में उनके भक्तों को राहुल के चिंतन का प्रभाव दिखार्इ दे रहा है।  स्वामीभक्ति का इससे निकृष्टतम उदाहरण और हो भी क्या सकता है ?
राहुल के र्इर्द-गिर्द भी कोर्इ चिंतक नहीं है। जो भी उनके स्क्रीप्ट रार्इटर है, वे उनके व्यक्तित्व को और अधिक छिछोरा बना रहे हैं। सम्भवत: कांग्रेस के पतन का कारण भी गांधी परिवार के साये के साथ जुड़े हुए वे लोग हैं, जिनकी सलाह पर चल कर इस परिवार ने कांग्रेस पार्टी को गहरी क्षति पहुंचार्इ है। राहुल को नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान का उपहास उड़ाना कहां जरुरी था ? क्या स्वच्छता के पीछे उन्हें कोर्इ उद्धेश्य छुपा नहीं दिखार्इ दे रहा है ? स्वच्छ भारत का नारा दे कर प्रधानमंत्री ने कौनसा पाप कर दिया ? इसी तरह योग को प्रोत्साहित करने का जो विश्वस्तरीय प्रयास नरेन्द्र मोदी ने किया है, उसकी सराहना दुनियां कर रही है, किन्तु ऐसे मिशन की आलोचना करना राहुल अपना परम कर्तव्य समझते हैं। मेक इन इंड़िया के नारे के पीछे का अर्थ समझे बिना राहुल ने कह दिया- टेक इंड़िया। यह कितनी ओछी ओर बेतुकी बात है। क्या नरेन्द्र मोदी ने बुलेट के बल पर सत्ता पर नियंत्रण किया है ? बेलेट से जीती हुर्इ जंग का मजाक उड़ा कर राहुल उन करोड़ो भारतीयों का अपमान नहीं कर रहे है, जिन्होंने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में मतदान किया था ? राहुल इस बात को समझ क्यों नहीं पा रहे हैं कि  भारतीय जनता ने एक परिवार को सत्ता से बाहर कर साधारण परिवार से ऊपर उठे एक कर्मयोगी पर भरोसा कर सत्ता सौंपी है। यह लोकतंत्र की परिपक्कता की निशानी है, जो साबित करती है कि राहुल गांधी भारत के आम नागरिक से भी कम राजनीतिक सोच रखते हैं।
भूमिअधिग्रहण कानून संशोधन बिल पर पूरे देश में यह भ्रम फैलाया गया कि इस कानून के तहत मोदी सरकार किसानों की जमीन छीन कर पूंजीपत्तियों को देने जा रही है। सरकार इस बिल से पीछे हट गर्इ, क्योंकि पूरे देश में अनावश्यक भ्रम में डालना सही नहीं था। परन्तु कांग्रेस पार्टी इसके पीछे राहुल की रणनीति की जीत बता  कर प्रचारित कर रहे हैं। यद्यपि मोदी सरकार ने अब तक किसानों की एक इंच जमीन भी छीन कर पूंजीपत्तियों को नहीं दी है, किन्तु कांग्रेस ने अपने शासन के साठ सालों में किसानों की लाखों एकड़ जमीन छीन कर पूंजीपत्तियों को दी है, उसका हिसाब सरकार के पास है। अच्छा होगा सरकार दुष्प्रचार के जवाब में सारा हिसाब जनता को दिखाये, ताकि कांग्रेसी नंगे हो जाये।
राहुल ने खूब चिंतन मनन कर लिया अब वे पार्टी नेताओं  को चिंतन करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। चिंतन देश की तरक्की, खुशहाली और आम जन की भलार्इ के लिए नहीं किया जा रहा है, वरन इस बात को ले कर किया जा रहा है कि कैसे झूठे दुष्प्रचार के जरिये मोदी सरकार को कठघरें में खड़ा किया जा सके ? कैसे नरेन्द्र मोदी पर अनावश्यक आरोप लगा कर उनकी छवि विद्रुप बनार्इ जा सके़ ? किन्तु इस बारें में चिंतन, मनन और मंथन पर प्रतिबन्ध है कि कांग्रेस पार्टी निरन्तर रसातल में क्यों जा रही है ? भारत के प्रमुख राज्यों में चोथे और पांचवें नम्बर पर क्यों पहुंच गर्इ ? लोकसभा चुनावों के दौरान जिन राज्यों में उसकी सरकारे थीं, वहां शून्य क्यों हाथ लगा ? लोकसभा में उसका संख्या बल मात्र चंवालिस पर क्यों पहुंच गया ? क्या कांग्रेस पार्टी का वर्तमान नेतृत्व पार्टी को पुरानी स्थिति में पहुंचा पायेगा ? यदि कमजोर नेतृत्व के कारण पार्टी डूब रही है, तो क्या नेतृत्व परिवर्तन पर चिंतन किया जायेगा ?
यदि राहुल वास्तव में चिंतन करते हैं, भारतीय नागरिकों की समस्याओं को ले कर चिंतित हैं, तो अपने दस वर्ष के कार्यकाल में मनमोहन सरकार को ऐतिहासिक घोटालें करने से क्यों नहीं रोका ? उनकी सरकार के कार्यकाल में महंगार्इ, बैरोजगारी और गरीबी भयावह रुप से बढ़ी थी, उस समय वे गरीबों, मजदूरों, किसानों की पीड़ा को ले कर दुखी क्यों नहीं हुए ? दस वर्षों के पापों पर कोर्इ पछतावा नहीं, कोर्इ चिंतन नहीं, पर सोलह माह पुरानी सरकार को सारे पापों के लिए दोषी समझा जा रहा है। बेहतर है दूसरों के पाप गिनाने के पहले पापियों को अपने पापों को स्वीकार कर जनता से क्षमा मांगनी चाहिये। राहुल को यह बात याद रखनी चाहिये कि जनता उनकी सरकार के कर्मों को भूली नहीं है। जब तक राहुल अपनी सरकार के कामों की माफी नहीं मांगेंगे. जनता उन्हें कभी अपना नेता स्वीकार नहीं करेगी। वे अपने कुछ चापलुसों के ही नेता बन कर रह जायेंगे। राहुल  चिंतन का ढोंग करते रहेंगे और भारत की जनता उनके चिंतन का उपहास उड़ाती रहेगी।  राहुल बकवास करते हुए घूमते रहेंगे और कांग्रेस सत्ता से दूर जाती रहेगी। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कांग्रेस के अच्छे दिन लौटने की कोर्इ सम्भावना नहीं है।

Thursday, 17 September 2015

नीतीश की कश्ती डांवाडोल-डूबने की पूरी सम्भावना

राजनीति के भंवर में फंसी नीतीश कुमार की कश्ती के डूबने की पूरी सम्भावना है। जब तक भाजपा का साथ था, राजनीति की शांत जल धारा में नीतीश आसानी से कश्ती खे रहे थे। न तूफान था। न तेज हवा बह रही थी, विकास की गाड़ी आगे बढ़ रही थी। उन्हें सुशासन बाबू का तमगा मिल गया था। पंद्रह वर्ष तक अराजकता का दंश झेल रहा भारत का पिछड़ा और गरीब बिहार विकास के मार्ग पर आगे बढ़ रहा था। यद्यपि बिहार की हालत पूरी तरह नहीं सुधरी थी, फिर भी मन में आशा बंधी थी कि यदि ऐसा ही चलता रहा, तो  एक दिन बिहार अपने पिछड़ेपन और गरीबी के अभिशाप से मुक्त हो जायेगा।
बीजेपी के साथ रहने से नीतीश के विरोधियों के हौंसले पस्त हो गये थे। वे चुनौती देने की ताकत खोते जा रहे थे। अचानक नीतीश को अपने आप पर अभिमान हो गया। सम्मिलित ताकत को अपनी निज ताकत समझ बैठें। उन्हें भारत का प्रधानमंत्री बनने का सपना आया और उन्होंने एक झटके से भाजपा का साथ छोड़, अपनी कश्ती को राजनीतिक तूफान के हवाले कर दिया। लोकसभा चुनाव परिणामों ने उन्हें अपनी गलती का अहसास करा दिया, किन्तु गलती को सुधारा नहीं। कश्ती को शांत जल धारा की ओर मोड़ने का प्रयास नहीं किया। उसे उसे गहरे भंवर की ओर धेकेल दिया।
परम मित्र को शत्रु बना, प्रबल शत्रु को मित्र बनाने की जो जोखिम नीतीश कुमार ले रहे हैं, वह उनके राजनीतिक जीवन की सब से बड़ी भूल है। ऐसा न हो कि इस जोखिम से गहरी खार्इ में गिर, वे राजनीति के बिंयाबन में कहीं गुम हो जायें। यह सही हैं,  राजनीति में कोर्इ स्थायी दुश्मन और स्थायी मित्र नहीं होते, किन्तु यह भी सही है कि राजनीति के गणित में कभी एक और एक दो नहीं होते। दो प्रबल शत्रुओं के वोट जुड़ कर उन्हें जीत नहीं दिला सकते।  जनता इतनी भी मूर्ख नहीं है कि वह जिंदा मक्खी  आंख बंद कर निगल लें।  वह इस बात को अच्छी तरह जानती है  कि कल तक तो जो एक दूसरे के शरीर में खंजर  घोंपने के लिए मौके की तलाश में रहते थे, अब अचानक क्यों अपने हाथ में पकड़े हुए खंजर पीछे छुपा कर गले मिलने की कोशिश कर रहे हैं। इतनी गहरी कटुता एक क्षण में नहीं भुलायी जा सकती है। कटुता न चाहते हुए भी इसलिए भुलार्इ जा रही है, क्योंकि दोनों के पावों के नीचे से जमीन खिसक रही है।
ऐसी सत्ता भी क्या काम की जो अपने राजनीतिक बैरी की महरबानी से मिल जाय। ऐसी सत्ता मिल भी जाय, तो वह किसी काम की नहीं रहेगी, क्योंकि शत्रु अपनी शत्रुता भुलेगा नहीं। गले मिलने के पहले जिस खंजर को अपनी पीठ के पीछे छुपा रखा था, उसका उपयोग करेंगे और एक दूसरे को अपने मार्ग से हटाने का प्रयास करेंगे। ऐसा होने पर बिहार में फिर अराजकता का दौर प्रारम्भ होगा। क्योंकि भाजपा ने नीतीश को नेता माना था, किन्तु लालू कभी उन्हें नेता स्वीकार नहीं किया है।  यदि करेंगे भी तो उसकी भारी कीमत वसूलेंगे। यदि नीतीश कीमत चुका देंगे, तो दिवालिया हो जायेंगे। उन्हें  खुदा मिलेगा न बिसाले सनम, न इधर के रहेंगे न उधर के रहेंगे।  उनका राजनीतिक जीवन बर्बाद हो जायेगा। लालू के संग आ कर  वे राजनीतिक खुदकशी कर रहें हैं। अपने हाथों से पांवों पर कुल्हाड़ी से वार कर अपाहिज बन, लालू की बैसाखियों के सहारे चलना चाहते हैं, जिसे राजनीतिक मूर्खता के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। याद रहे ये वही लालू यादव हैं, जिन्हें विवश हो कर मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था, किन्तु उन्होंने वर्षों से पार्टी के साथ जुड़े किसी विश्वस्त व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद देने के बजाय अपनी निरक्षर पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया, जो प्रशासनिक ज्ञान की दृष्टि से भी अनपढ़ थी। फिर भला क्यों लालू अपने परमशत्रु के समक्ष मुख्यमंत्री का पद तश्तरी में रख कर भेंट कर देंगे ?
बिहार की जनता नहीं चाहेगी कि राजनीति के भंवर में फंसी नीतीश की डांवाडोल कश्ती में बैठ कर अपने भविष्य को दांव पर लगा दें। नीतीश ने जोखिम ली है, उससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि जनता भी वैसी ही जोखिम ले लें। लालू राज की दुखद यादे जनता के जेहन में आज भी ताजा है। नीतीश भूल गये हैं, किन्तु जनता भूली नहीं है। नीतीश ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए लालू के अपराधों को क्षमा कर अपना मित्र बना लिया, किन्तु न्यायालय उन्हें अभी भी अपराधी ही ठहरा रहा है। एक अपराधी के मित्र पर जनता क्यों कर विश्वास करेगी। यदि विश्वास करेगी, तो वे निश्चित रुप से धोखा खायेगी।
बिहार चुनाव परिणाम न केवल बिहार का भविष्य तय करेंगे, अपितु भारत के विकास का रथ, जो संसद ने अवरुद्ध कर रखा है, उसे बाहर निकालने में बिहार की जनता महत्वपूर्ण निभायेंगी। इस चुनाव में मोदी की जीत होगी या नीतीश कुमार की, यह तो समय ही बताएगा, किन्तु बिहार को जंगलराज की सौगात देने वाला शख्स यदि इस चुनाव के बाद ताकतवर बन कर उभरेगा तो बिहार की तकदीर फिर एक बार अपराधियों के हाथों में आ जायेगी, जो निश्चित रुप से दुर्भाग्यजनक स्थिति होगी, क्योंकि अवसरवादी अराजक शक्तियां हमेशा विनाश की गाथा ही लिखती है, सृजन की नहीं।
बिहार चुनाव परिणाम नीतीश कुमार के भाग्य का फैंसला करेगा, जिसमें एक मुख्यमंत्री सत्ता के नज़दीक पहुंच कर भी हार जायेगा, क्योंकि जीत उसके प्रबल राजनीतिक बैरी के सहयोग से मिलेगी, जो अपनी पूरी कीमत वसूल करेगा। यदि नीतीश सत्ता से दूर हो जायेंगे, तब भी उनकी हार ही होगी।  निश्चय ही उनके पास पाने को कुछ नहीं है, खोना ही खोना है। शांत जलधारा में तेर रही कश्ती को तूफान के हवाले करना और फिर उसे भंवर में धकेलने का यही अंजाम होना था।  भॅंवर में फंसी  नीतीश कुमार की डांवाडोल कश्ती का राजनीति के गहरे समुंद्र में डूबना लगभग निश्चित दिखार्इ दे रहा है। ऐसा होने पर अवसरवादी और कपटपूर्ण राजनीति का अवसान हो जायेगा।