Saturday, 27 June 2015

कांग्रेसी नेता देशी शासक से सत्ता छीन, फिर विदेशी को सौंपने के लिए मचल रहे हैं

सता खोने की छटपटाहट और पुन: पाने की कुलबुलाहट से सोनिया के वफादार सिपाही भारत को फिर उसी अंधेरे युग में ले जाना चाहते हैं, जहां से बमुश्किल मुल्क बाहर आया है। महारानी ने अपने अनुयायियों को आदेश दिया है- सत्ता के बिना रहना हमारे स्वभाव में नहीं। हम सत्ता के लिए जीते हैं और सत्ता के लिए ही मरते हैं। सत्ता सुख के लिए ही इस देश में रह रहे हैं। अपने परम बैरी को सत्ता सुख भोगते देख हमारे सीने पर सांप लौट रहा है। अत: मेरे आज्ञकारी अनुयायियों ! मोदी सरकार की गललियां ढूंढों। तिल का ताड़ बनाओं। रार्इ का पहाड़ बनाओ। जनता को अहसास हो जाय कि हमारे साथ दगाबाजी कर भारत की जनता ने बहुत बड़ी भूल की है। हमारा अब एक ही मिशन है- जनता से उसकी गलती का बदला लो। सरकार के किसी काम को सही मत ठहराओ। सरकार के विधायी कामों में अडंगे डालो। इतना शोर मचाओ कि आकाश हिल जाये और धरती कांप उठे।
आजकल कांग्रेस के हारे हुए योद्धा उस रण की तैयारी में तलवारें भांज रहे हैं, जो चार वर्ष बाद लड़ा जाने वाला है। रणबांकुरे सत्ता पाने के लिए तड़फ रहे हैं। उन्हें ऐसे लगा रहा है जैसे उनका प्रतिद्वंद्वी उनका शोर सुनकर कांप उठेगा। उनके सामने हथियार डाल देगा और सत्ता छोड़ कर भाग जायेगा। बावलों को यह नहीं मालूम कि न तो उनका प्रतिद्वंद्वी इतना लाचार और शक्तिहीन है, और न ही जनता की स्मरण शक्ति इतनी कमजोर है कि उनके पापों को भूल कर उन्हें पूण्यात्मा मानने लगेगी। पर महारानी का आदेश है- युद्ध चाहे आज हो या चार बरस बाद, हमें तैयारी आज से शुरु करनी पड़ेगी। उन्हें ललकारतें हुए अपनी ताकत का अहसास कराते रहो। चाहे संसद में हमारे सांसदों की कमी हो, पर हमारे पास धन की कमी नहीं है। हम सड़कों पर भीड़ एकत्रित कर हंगामा करने में सक्षम हैं। उन्हें शायद यह आभास नहीं कि आप भले ही सत्ता में बैठे हों पर सभी जगह हमारे आदमी जमे हुए हैं। मीडिया में हमारे चहते आदमी है, जो हमारे सुर में सुर मिलाते हैं। सरकरी दफ्तरो में हमारे वफादार बैठें हैं, जो मोदी सरकार को फेल करना चाहते हैं। क्रानी केपीटलिजम से धन कमाने वाले भारतीय उद्योगपति हमारे हैं, क्योंकि वे र्इमानदारी से नहीं बैमानी से धन कमाने के आदि हैं। मोदी सरकार से उनकी पटरी नहीं बैठ रही है। ये सभी हमारी सरकार चाहते हैं। हमारे साथ जो भी रहा, उसने जम कर मजे लूटे। हमारे पास ही वह साम्मर्थय है, जिससे सभी के मौज-मस्ती के दिन लौट आयेंगे। हमारे दिन वापस आते ही सरकारी धन का खूब मजा लुटेगे । खूब घपले- घोटाले करेंगें। ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि भारत में ऐसी ही सरकारे बनती है और चलती है।
जनता ने आपातकाल के अपराधियों को भी क्षमादान दे कर सता सौंपी, तो हमे क्यों नही सौंपेगी ? आखिर हम भी तो उसी खानदान के अवशेष हैं, जिसने भारत की जनता के साथ हमेशा दगाबाजी की पर जनता ने उसे सम्मान और आदर दिया। इसलिए इस बात पर रंज मत करो कि हमने पूरा प्रशासनिक ढांचा भ्रष्ट कर उसे शिथिल और अस्तव्यवस्त कर दिया। इस बात पर भी अफसोस मत करो कि हमारी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था का कबाड़ा कर दिया। इस बात पर भी पछताने की जरुरत नहीं है कि हमने घोटालों और घपलों से राजकोषीय घाटा इतना बढ़ाया की महंगार्इ आकाश छूने लगी। जनता ने हमे ठुकरा दिया इस पर हमे कोर्इ ग्लानि नहीं हैं, क्योंकि हम देश में ऐसी परिस्थितियां निर्मित करने में सक्षम हैं, जिससे थक हर हार कर जनता को हमारी ही शरण में आना पड़ेगा।
बड़े-बड़े घोटाले जो जांच से साबित हो गये, फिर भी हम नहीं मानते कि हमने कोर्इ घोटाले किये थे। पकड़े गये तब भी अपने आपको चोर नहीं समझते हैं। दस साल में बीस लाख करोड़ का घपला हुआ, फिर भी हमे अपना दामन साफ लगता है, क्योंकि हम घोटालों के मुख्य सूत्रधार है, पर हम पर कोर्इ आरोप बनते ही नहीं, क्योंकि हम किसी संवैधानिक पद पर नहीं थे, हमने कहीं अपने हस्ताक्षर नहीं किये। भारत का कोर्इ न्यायालय हमे दोषी ठहरा कर सजा नहीं सुना सकता। हांलांकि जनता ने हमे दोषी मान कर सजा सनुा दी है, पर हमे विश्वास है वह भी क्षमा कर कर देगी। हां, यह सच है कि घोटालों का अधिकांश धन हमने ही डकारा है, पर धन कहां है और हमने इसे कहां छुपा रखा है, इसका रहस्य हम कभी किसी को नहीं बतायेंगे। सरकार के पास न तो इतने स्त्रोत है और न क्षमता है कि वह हमारे छुपे हुए धन को खोज सके।
हम मानते हैं कि हम सर से पांव तक कीचड़ से सने हुए हैं, परन्तु यदि किसी के उजले दामन पर जरा से भी छींटे होने का आभास हों तो हमे शोर मचाने का अधिकार हैं, क्योंकि हम सत्ता में नहीं है। हम जनता को समझा देंगे कि आप हमारे शरीर पर जो कीचड़ देख रहे हैं, वह दरअसल आपका दृष्टि भ्रम है। आप पर हमारे ऊपर से दृष्टि हटा कर उनके कपड़ो पर दाग ढूढ़िये, जिसका आभास हमे हो रहा है।
हम जानते हैं कि भारत को आज़ादी मिले वर्षों हो गये, किन्तु इस देश की जनता की मानसिकता से गुलामी पूरी तरह हटी नहीं है, इसीलिए तो हमारी पार्टी के वफादार सिपाही एक विदेशी को ही अपना नेता मानते हैं और फिर एक विदेशी को हाथों में देश को सौंपने के लिए उतावले हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें देशी शासक बिल्कुल पसंद नहीं हैं। उन्हें इस बात का भी अहसास नहीं कि पार्टी नेतृत्व के कारण ही पूरे देश में पार्टी मुंह दिखाने लायक नहीं बची है, फिर भी उनकी वफादारी में कोर्इ आंच नहीं आर्इ है। हमारी पार्टी के नेता देशी नेतृत्व को कोसते रहेंगे और विदेशी नेतृत्व के प्रति आस्था प्रकट करते रहेंगे। भारत की राजनीति से जब तक हमारी पार्टी का अस्तित्व बचा रहेगा। पार्टी में हमारे वफादार अनुयायियों की भरमार रहेगी, हमारा राजनीतिक जीवन चलता रहेगा।
सम्भवत: इसीलिए कांग्रेस महारानी के वफादार सेवकों ने मोदी सरकार के विरुद्ध चार साल तक चलने वाले एक निर्णायक युद्ध की घोषणा कर दी है। उन्हें विश्वास है कि यदि सरकार के विरुद्ध इसी तरह की आक्रामकता दिखाते रहेंगे तो चार साल तक लड़े जाने वाले निर्णायक युद्ध में उनकी जीत निश्चित होगी। उनकी महारानी के पास सत्ता की डोर आ जायेगी। उनका नौसिखिया पुत्र भारत का शासन सम्भाल लेगा। देशी शासको का पराभव हो जायेगा और विदेशी शासक फिर भारतीयों पर शासन करने का अधिकार पा लेंगे।

Thursday, 25 June 2015

गांधी परिवार की देशभक्ति संदेह के घेरे में

गांधी परिवार ने भारतीय योग का मुखर विरोध ही नहीं किया एक समुदाय के मन में भ्रान्तियां पैदा कर इससे दूर रहने की नसीहत दी है। सरकार की किसी नीति से असहमति जायज है, किन्तु भारत की जिस प्राचीन विधा से विश्व का जनमानस अभिभूत है, ऐसी विधा के प्रचार की सरकारी नीति का विरोध करना अनुचित है। विश्व के अधिकांश देश योग में आस्था प्रकट कर रहे है, फिर गांधी परिवार और कांग्रेस का इसमें अनास्था प्रकट करने का औचित्य क्या है ? सिर्फ इसलिए कि यह मोदी सरकार का आयोजन है और नरेन्द्र मोदी को गांधी परिवार ने अपना दुश्मन नम्बर एक मान रखा है। यदि विरोध का यही एक कारण है तो यह अलोकतांत्रिक मन:स्थिति को प्रकट करता है, क्योंकि लोकतंत्र में सत्ता कोर्इ व्यक्ति नहीं छीनता, जनता छीनती है। जनता ने गांधी परिवार से सत्ता छीन कर नरेन्द्र मोदी को सौंपी है । ऐसा होने पर क्या भारत की जनता को भी गांधी परिवार अपना दुश्मन नम्बर एक मानता है ?
योग को ले कर गांधी परिवार ने जो रवैया दर्शाया है, उससे यही साबित होता है कि इस परिवार की भारतीय संस्कृति और इसके मूल्यों में कोर्इ आस्था नहीं है। एक विदेशी की तरह गांधी परिवार भारतीयता को हेय दृष्टि से देखता है। अत: जिन लोगों के मन में भारत और भारतीयता के प्रति श्रद्धा नहीं हैं, उन्हें भारतीय की जनता पर शासन करने का हक भी नहीं है। अंगे्रजो की तरह उसकी नीति भी यही है कि भारत के दो समुदायों के बीच किसनी न किसी बहानें फूट डालों और उन्हें एक दूसरे से अलग करो, ताकि उनके मन में परस्पर अविश्वास की खार्इ गहरी होती जाय। कांग्रेस ने योग का भी इसी नीति की तरह विरोध किया है, जो उसकी कपटपूर्ण मंशा को दर्शाता है।
सोनिया गांधी लम्बे समय तक भारत में रहने के बाद भी अपने आपको भारतीय परिवेश में नहीं ढाल पार्इ है। भारत और भारतीयों पर वे सिर्फ और सिर्फ हुकूमत करना चाहती है, भारतीयों के दिलों से जुड़ने और भारतीयता के प्रति आस्था प्रकट करने के लिए उन्होंने अपने दीर्घ राजनीतिक जीवन में कोर्इ उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया। भारतीयता के प्रति कभी अपने आंतरिक मनोभावों को प्रकट नहीं किया। सार्वजनिक जीवन में रहने के बाद उनकी रहस्यमय चुप्पी हमेशा चुभती है। उनकी निजी विदेश यात्राएं यह संदेह प्रकट करती है कि लूट के कारोबार से कमार्इ गर्इ धन राशि को कहीं व्यवस्थित करने के लिए तो वे विदेश नहीं जाती है। यदि ऐसा नहीं है तो वे अपनी यात्रा के मकसद को हमेशा गोपनीय क्यों रखती है ? उनके निकटस्थ कांग्रेसियों के पास भी इस बात की जानकारी नहीं होती कि वे कहां गर्इ है और किस उद्धेश्य को ले कर विदेश गर्इ है ? इस प्रश्न को यह कह कर नहीं टाला जा सकता कि निजी यात्रा की जानकारी देश को रखना आवश्यक नहीं है। क्या कांग्रेसी यह बता सकता है कि जो लोग सार्वजनिक जीवन में होते हैं, उनका निजी क्या होता है ? उन्हें अपना निजी जीवन इतना ही प्रिय है, तो सार्वजनिक जीवन छोड़ क्यों नहीं देते ?
राहुल गांधी को कांग्रेस ने अपना नेता स्वीकार कर लिया हेै और उनके कंधे पर पार्टी पूरा भार डालने की रणनीति बना रही है। अपरिपक्क और छिछोरी मानसिकता वाले व्यक्ति पर इतनी भारी जिम्मेदारी डालना युक्तियुक्त नहीं लगता, किन्तु कोर्इ भी कांग्रेसी इसका विरोध नहीं कर सकता, क्योंकि पार्टी सुप्रीमो की यही आंतरिक इच्छा है, जिसका विरोध करना अलोकतांत्रिक पार्टी की नियति में नहीं है। राहुलगांधी ने भारतीय संस्कृति और भारतीय इतिहास का अध्ययन नहीं किया। भारतीय राजनीति और संवैधानिक व्यवस्था पर भी उन्होंने कभी अपने विचार प्रकट नहीं किये। देश की प्रगति और खुशहाली के लिए क्या आर्थिक नीतियां बनानी चाहिये ? इसं संबंध में उन्होंने अपना कोर्इ निजी चिंतन नहीं प्रस्तुत किया। उनकी मन: स्थिति और राजनीतिक विचारों का परिचय कभी-कभी अपनी निकृष्ट,तथ्यहिन और बेतुकी भाषण शैली से देते रहते हैं। उनका राजनीतिक विचार और दर्शन यही है कि जनता द्वारा चुनी गर्इ एक सरकार का विरोध करते रहों। सरकार के प्रति तिरस्कार व अपमानित करने वाली शब्दावली का प्रयोग कर भाषण देते रहो।
प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस के पास एक अपरिपक्क मानसिकता वाले व्यक्ति के अलावा कोर्इ नेता नहीं है ? क्या राहुल एक विदेशी महिला – के पुत्र है, इसीलिए कांग्रेस उन्हें कांग्रेस अपना नेता मान रही है और भारत पर शासन करने का हक दिलाना चाहती है। क्या यह गुलाम मानसिकता नहीं है ? दस वर्षों तक मां-पुत्र की भ्रष्ट नीतियों से देश बर्बाद हो गया। पूरे राष्ट्र ने अपमानित कर कांग्रेस को ठुकरा दिया, फिर भी कांग्रेसी नेताओं के मन मे इस परिवार के प्रति अंध श्रद्धा में कोर्इ कमी नहीं आर्इ है। कर्इ राज्यों की सरकारे हाथ से गर्इ। कर्इ प्रदेशों से लोकसभा के चुनावों में शून्य हाथ लगा। बड़े-बड़े प्रदेशों से दो चार सीटे हाथ लगी। कांग्रेसी नेताओं के मन में अपनी इस अपमानित करने वाली पराजय से कोर्इ ग्लानि नहीं है। वे आत्मचिंतन क्यों नहीं करना चाहते ? क्यों वे उस परिवार के साथ जोंक की तरह चिपके रहना चाहते हैं, जिनकी देश भक्ति संदेह के घेरे में है। जिनके भ्रष्ट आचरण से पूरा देश क्रोधित है।
शासद कांग्रेसी नेताओं के मन में यह धारण है कि चाहे उनके पास चवांलिस सांसदों की पूंजी हों, किन्तु उनके गांधी परिवार के पास सम्भवत: चवांलिस हजार करोड़ की पूंजी होगी। अपनी धनशक्ति के बल पर यह परिवार भारतीय लोकतंत्र पर पुन: नियंत्रण कर लेगा। एक न एक दिन इस परिवार की कृपा से हमारा शासन फिर आयेगा। वे मौज मस्ती वाले दिन लौट आयेंगे। इसलिए यह परिवार अपने धन के प्रभाव से जो भी राजनीतिक प्रपंच रच रहा है, चाहे वह गलत हो उससे जुड़े रहो। एक चुनी हुर्इ लोकप्रिय सरकार पर जितने शाब्दिक प्रहार किये जाये, करते राहे। चाहे वे सही हो या गलत हो, उनके साथ अपने आपको जोड़े रहो।
भारतीय योग का विरोध कर गांधी परिवार ने अपने आपको भारतीयता से अलग कर दिया है। यह साबित कर दिया है कि वे ऐसे किसी आयोजन के समर्थक नहीं है, जिससे भारत को विश्व में प्रतिष्ठा मिले। इस वििश्ष्ट आयोजन के समय पूरा परिवार देश छोड़ कर चला गया, जिससे परिवार की राष्ट्र भक्ति संदेह के घेरे में आ गर्इ हैं। अतीत में ऐसे कर्इ कृत्य इस परिवार ने किये हैं, जिससे उनकी राष्ट्रभक्ति पर प्रश्न चिन्ह लगे थे। परन्तु अब यह साबित हो रहा है कि यह विदेशी परिवार भारत पर शासन करने की मंशा सिर्फ इसलिए रखता है, ताकि किस न किसी तरह भारत की संवैधानिक व्यवस्था पर नियंत्रण कर अपने लूट के कारोबार को जारी रखा जा सके।
नरेन्द्र मोदी ही उस जीवट ऊर्जा वाले व्यक्ति हैं, जिन्होंने एक विदेशी परिवार को सत्ता से दूर किया है। अपनी छल विधा से यह परिवार साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर रखने के राजनीतिक षड़यंत्र के तहत मोदी सरकार का विरोध करता रहेगा और सारे विरोधी दलों को एक जुट करता रहेगा। लोकसभा में सरकार प्रभावी काम नहीं कर पाये, उसके लिए अवरोध डालता रहेगा।

Friday, 12 June 2015

साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक शक्तियां- देश के बहुसंख्यक समाज को दी जाने वाली गालियां है

भारतीय राजनेताओं के लिए इस देश में रहने वाला बहुसंख्यक समाज दोयम दर्जें का नागरिक हैं, अत: जब तब उसकी धार्मिक आस्था और विश्वास पर बेहिचक चोट पहुंचार्इ जाती है, क्योंकि इसी तबके का पढ़ा लिखे सभ्रान्त समाज को अपने धर्म और परम्पराओं से परहेज है और वे इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, इसलिए जब कभी भी सम्प्रदाय और साम्प्रदायिकता को ले कर बवाल उठता है, वह राजनेताओं की जमात के साथ खड़ा हो जाता है।
यदि आप बहुसंख्यक समाज के धर्म से जुड़े हुए हैं और आपकी अपने धर्म में आस्था हैं, तो आप साम्प्रदायिक कहलाते हैं, किन्तु आपकी यदि उस धर्म में आस्था हैं, जो बहुसंख्यक समाज का नहीं है, तो आप धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं। इसी तरह एक धर्म के प्रचार प्रसार में लगे हुए साधु-संतों को साम्प्रदायिक शक्तियां कह कर पुकारा जाता है, वहीं दूसरे धर्मों के प्रचार प्रसार में लगे लोगों को धर्मनिरपेक्ष ताकते कहा जाता है। जो राजनीतिक दल भारत की प्राचीन मान्यताओं और संस्कृति के प्रति अपना अनुराग दिखाता है, वह साम्प्रदायिक दल हो जाता है, किन्तु जो राजनीतिक दल विदेशों से आयातित धर्म और मान्यताओं को अपना समर्थन देते हैं, वे धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल बन जाते हैं।
भारतीय संस्कृति से जुड़े हुए देवी देवताओं के कार्टुन बनाना और उनका उपहास उड़ाना जायज समझा जाता है। ऐसा करने पर जो अपनी आपत्ति दर्ज करते हैं, उन्हें साम्प्रदायिक कह कर उनकी तौहीन की जाती है, किन्तु किसी मजहब विशेष के संबंध में एक शब्द लिख देना या बोल देना जघन्य अपराध माना जाता है। पूरे विश्व में कोहराम मच जाता है। भारी खून-खराबा होता है, किन्तु इस पागलपन पर कुछ भी बोलने से धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं की जबान लड़खड़ा जाती है। इसी तरह मंदिरों से मूर्तिया चुरा कर उन्हें अन्तरराष्ट्रीय बाज़ारों में बैच देने पर कोर्इ हंगाम नहीं होता, किन्तु किसी सिरफिरे द्वारा चर्च पर एक पत्थर फैंक देने से तूफान खड़ा हो जाता है। धर्मनिरपेक्ष राजनेता और समाचार मीडिया छोटी सी घटना पर गाहे बगाहे उबल पड़ता है।
कोर्इ राजनीतिक दल यदि बहुसंख्यक समाज के सबंध में कुछ बोलता है या उसकी पीड़ा के साथ अपने आपको जोड़ता है तो यह कहा जाता है ये लोग साम्प्रदायिकता की आग लगा रहे हैं। समाज में साम्प्रदायिकता विष भर रहे हैं। बार-बार ये शब्द दोहराये जाते हैं- साम्प्रदायिक ताकतों को रोको ! दुर्भाग्य से ऐसा कहने और करने वाले वे ही लोग हैं, जो भारत के बहुसंख्यक समाज का एक भाग हैं, किन्तु अपने राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेकने के लिए अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं को रौंदने का उपक्रम करते हैं।
पच्चीस वर्ष पहले कश्मीर घाटी के पंड़ितो पर अमानुषिक अत्याचार कर उन्हें खदेड़ दिया गया इस षड़यंत्र को पड़ोसी देश ने स्थानीय राजनेताओं के साथ मिल कर अंजाम दिया था। अपने ही देश में शरणार्थी बने ये भारतीय नागरिक इसलिए प्रताड़ित हैं, क्योंकि ये भारत के बहुसंख्यक समाज के अंग है। इन अभागे देशवासियों के प्रति सहानुभूति के दो शब्द किसी धर्मनिरपेक्ष राजनेता की जबान से नहीं फिसलें, क्योंकि वे ऐसा करते तो साम्प्रदायिक हो जाते। उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि कलंकित हो जाती। वहीं दूसरी ओर गुजरात दंगो पर बारह वर्ष तक तूफान खड़ा करने वाली धर्मनिरपेक्ष ताकतों के मन में कश्मीरी पंड़ितो के प्रति सहानुभूति क्यों नहीं उपजी ? यह प्रश्न अभी भी अनुतरित है। इस बारें में यही कहा जा सकता है कि भारत की राजनीति बहुसंख्यक समाज की पीड़ा से कभी द्रवित नहीं होती। उसके संबंध में कुछ भी कहने से अपने आपको अलग कर देती है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूसरे धर्मों का आदर करते हैं, किन्तु उनकी आस्था अपने धर्म में ही है, जिसे वे पाप नहीं समझते। पूजा-अर्चना करने और प्रसिद्ध मंदिरों में वे जाते हैं, किन्तु अपने आपको धर्मनिरपेक्ष घोषित करने के लिए वे अन्य मजहब की टोपी नहीं पहनते, क्योंकि ऐसी नौटंकी करना उन्हें पसंद नहीं है। इन्हीं उदाहरणों से उनकी साम्प्रदायिक मनोवृति को प्रमाणित किया जाता है और कट्टरवादी नेता कहा जाता है। किन्तु जिन नेताओं के मन में एक धर्म विशेष में आस्था नहीं है। वे उस धर्म की परम्पराओं को नहीं मानते, फिर भी यदि टोपी पहन लेते हैं, तो उनकी धर्मनिरपेक्षता प्रमाणित हो जाती है।
यदि संवैधानिक अधिकार प्राप्त करने के बाद कोर्इ राजनेता अपनी प्रशासनिक क्षमता प्रमाणित नहीं कर पाता हैं। जन समस्याओं को सुलझाने में वह असमर्थ रहता है, किन्तु धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़ कर साम्प्रदायिकता के नाम पर बहुसंख्यक समाज को कोसता है, तो उसकी सारी प्रशासनिक दुर्बलताएं छुप जाती है। इसी तरह अपने शासनकाल में ऐतिहासिक धोटाले कर देश की अर्थव्यवस्था को कबाड़ा करने वाला राजनीतिक दल भी अपने आपको पाक साफ समझता हैं, क्योंकि उसने धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़ रखा है और साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ लड़ने की कसमें खा रखी है।
ललू यादव ने बिहार प्रदेश पर पंद्रह वर्ष तक शासन किया और पूरे प्रदेश जंगलराज में तब्दील कर दिया। पशुओं के चारे के लिए जारी किये जाने वाले करोड़ो रुपये के फंड का घपला किया, जिसका दोष प्रमाणित हो चुका है। किन्तु ये महाशय पुन: बिहार की राजनीतिक को अपने नियंत्रण मे लेना चाहते हैं, क्योंकि ये धर्मनिरपेक्ष हैं और यह मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता ने उनके सारे पाप धो दिये हैं और साम्प्रदायिक शक्तियों को बिहार की सत्ता नहीं सौंपने का अधिकार उन्हें देश की धर्मनिरपेक्षत ताकतों ने दे दिये हैं। वे स्वयं ही ऐसा मान रहे है कि ये ताकते आग लगताती है, जिसे बुझाने के लिए फायर बिग्रेड बन कर आया हूं। अर्थात आग लगी नहीं, धुआं उठा नहीं, फिर भी आग की कल्पना कर जनता को भयभीत करने वाले अपने आपको पुण्यात्मा समझते हैं, तो यह उनका अतिआत्मविश्वास है।
चाहे बिहार में नीतीश कुमार के साथ मिल कर साम्प्रदायिक शक्तियों ने अच्छा प्रशासन दिया हों, किन्तु उनके पुण्य को भी पाप ही माना जायेगा, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ये शक्तियां भारत के बहुसंख्यक समाज का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए ये पापी है। अत: जब तक भारत का बहुसंख्यक समाज बंटा रहेगा, उसे साम्प्रदायिक कह कर कोसा जाता रहेगा, किन्तु जब वह एक हो जायेगा, भारत के कर्इ राजनेताओं की दुकाने बंद हो जायेगी। तब विवश हो कर अपने शरीर पर डाला गया धर्मनिरपेक्षता का लबादा फैंकना पड़ेगा। तब उन्हें भी सबका साथ सबका विकास का नारा देना पड़ेगा।
अब समय आ गया है जब हम एक हो जायें और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो लोग बहुसंख्यक समाज को साम्प्रदायिक और साम्प्रदायिकता की गालियां देते हैं, उनको भारत की राजनीति से तिरस्कृत कर दें, क्योंकि भारत का बहुसंख्यक समाज अपने सारे पूर्वाग्रहों को छोड़ कर अपनी संस्कृति और परम्पराओं में आस्था प्रकट करेगा, तब उन्हें भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें चिढ़ाने की हिम्मत नहीं कर पायेगी। भारत की प्रगति और खुशहाली तथा भारतीय राजनीति के शुद्धिकरण के लिए यह आवश्यक है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर राजनेता अपनी प्रशासनिक अकुशलता, भ्रष्टआचरण को छुपाना बंद कर दें और एक धर्म विशेष से जुड़े समाज के प्रति झूठी सहानुभूति दर्शाने का उपक्रम बंद कर दें