Thursday, 12 December 2013

भारत की राजनीति में विष घोल कर पुन: सत्ता पाने की अभद्र कोशिश

राजनीति में अत्यधिक विष घोल कर वातावरण को विषाक्त बनाने से उन्हें आखिर क्या हांसिल हो जायेगा ? क्या ऐसा करने से उनके सारे पाप छुप जायेंगे ? क्या वातावरण के प्रभाव से जनता मूर्छित हो कर उनके पक्ष में मतदान कर देगी ? नहीं ऐसा सम्भव नहीं होगा। हवा के रुख को बदला नहीं जा सकता। सवेरा निश्चित रुप से होगा, क्योंकि आकाश पर चढ़ कर सूर्य को उदय होने से नहीं रोका जा सकता। समय को अपनी मुट्ठी में बंद नहीं किया जा सकता।
मनुष्य हांड़-मांस का पुतला ही है, उसकी शक्तियां अजेय नहीं होती। वह कभी अजातशत्रु नहीं बन सकता। युद्ध में विजय मिल जायेगी, किन्तु पराजित भी होना पड़ सकता है, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी भी विजयी होने के लिए ही रण में उतरा है। किन्तु कोर्इ यह समझ बैठे कि हमे पराजित करने का किसी के पास अधिकार नहीं है, तो यह उसका अहंकार है। अहंकार व्यक्ति को हिरणाकस्यप, रावण, कंस और दुर्योधन बना देता है, जिसका अंतत: विनाश निश्चित है।
लोकतंत्र में रक्तपात से सत्ता का हस्तांतरण नहीं होता, क्योंकि किसी को स्थायी रुप से शासन करने का अधिकार नहीं दिया जाता। जो योग्य है, उपयुक्त है, कसौटी पर खरा उतरता है, उसे सेवा का अवसर दिया जाता है। उसे राष्ट्र का मालिकाना हक नहीं सौंपा जा सकता। परन्तु कोर्इ सेवा को ही मालिकाना हक मान बैठता है, इसका मतलब यह हुआ कि वह देश की जनता का मालिकाना हक छीनना चाहता है। क्योंकि लोकतांत्रिक गणराज्य में जनता ही उस गणराज्य की मालिक होती है। जो राजनीतिक दल ऐसा करने की चेष्टा करता है, उसे लोकतंत्र में आस्था नहीं हैं। वह जनता को सत्ता प्राप्ति का माध्यम समझता है, साध्य नहीं मानता । वह जनता की शक्ति को स्वीकार नहीं करता। उसे इस बात का गरुर हो जाता है कि देश पर शासन करने का अधिकार हमारा ही है। यह अधिकार हमसे छीना नहीं जा सकता।
सम्भवत: इसीलिए भारत के एक राजनीतिक दल के नेता देश की जनता को यह समझा रहे हैं कि अमूक व्यक्ति हमे नापसंद है, हम इससे घृणा करते हैं, अत: जनता इसे स्वीकार नहीं करें। शायद ऐसा कहते हुए वे यह भूल जाते हैं कि लोकतंत्र में जनता से आदेश लिया जाता है, जनता को निर्देश नहीं दिया जाता। कौन सही है और कौन गलत, इसका निर्णय लेने का अधिकार जनता के पास है। आप जनता के अधिकार और उसके विवेक को चुनौती नहीं दे सकते।
एक प्रदेश की यदि करोड़ो जनता किसी व्यक्ति के प्रति विश्वास जताते हुए, उसे अपना नेता स्वीकार करती है, तब स्वत: ही उस व्यक्ति का कद विराट हो जाता है। वह सम्मान पाने का अधिकारी है। उसका तिरस्कार व अपमान करना उस प्रदेश की करोड़ो जनता का अपमान करना है, जिसने उसे अपना नेता स्वीकार किया है। किन्तु इस हकीकत को स्वीकार करने में काफी कष्ट होता है। वे यह मानना ही नहीं चाहते कि अमूक व्यक्ति एक प्रदेश का नेता है और उसे यह पद प्रदेश की जनता ने संवैधानिक परम्परा के आधार पर सौंपा है। इस पद को उन्होंने हथियाया नहीं है।
और क्या एक राजनीतिक दल, जिसके पक्ष में देश के करोड़ो मतदाता, मतदान करते हैं, यह अधिकार नहीं है कि देश के प्रधानमंत्री पद के लिए अपना एक उम्मीदवार घोषित करें ? करोड़ो मतदाता वाला राजनीतिक दल यदि किसी व्यक्ति विशेष को अपने दल की  ओर से अधिकृत प्रत्यासी मानता है, उसे जनता से निर्देश लेने की अनुमति देता है, तो इसमें गलत क्या है ? क्या ऐसा करना उस राजनीतिक दल का संवैधानिक अधिकार नहीं है ? क्या एक स्वर में उस व्यक्तित्व को अशोभनयी शब्दावली से संबोधित करना करोड़ो जनता का अपमान करना नहीं है, जो उस पार्टी के साथ जुड़ी हुर्इ है और उसके पक्ष में मतदान करती है ? क्या  एक राजनीतिक दल के नेताओं की ओछी मनोवृति अप्रत्यक्षरुप से देश की जनता को यह समझाने की कोशिश नहीं करती कि देश पर शासन करने का अधिकार हमारा ही है। हम यह अधिकार किसी ओर को नहीं लेने देंगे।
यदि आप सत्ता में हैं,  तो आपके कार्यों की आलोचना करने के आधार पर ही विपक्ष जनता से वोट मांगेगा और जनता से निवेदन करें कि आप एक बार हमें भी सेवा का अवसर दें, हम आपकी कसौटी पर खरे उतरेंगें। क्या ऐसा करना राजनीतिक अपराध की श्रेणी में आता है ? क्या  विपक्ष की आलोचना का सारगर्भित शब्दावली में जवाब देने के बजाय, उस पर कटाक्ष करना उचित है ? क्या उसके नेता को तरह-तरह के अशोभनीय अलंकारों से अलंकृत कर उनकी छवि को जानबूझ कर विद्रूप  करना सही है ? सिद्धान्त: यदि सत्ता पक्ष पुन: सत्ता में आना चाहता है, तो किये गये कार्यों का प्रमाणित विवरण जनता को  दे, अपनी उपलब्धियों के आधार पर जनता से पुन: सेवा का अवसर मांगे । विपक्ष के नेता के विरुद्ध अर्नगल व नींदनीय शब्दावली का प्रयोग करना, उनकी कुत्सिक मन:स्थिति को दर्शाता है, जो यह साबित करता है कि भारत की राजनीति को इन्होंने अपने स्वार्थ के लिए कितनी विषैली बना दिया है।
एक पार्टी के अधिकांश नेता, एक घृणित रणनीति के तहत एक व्यक्ति विशेष की आलोचना करना और उनके द्वारा कहे गये एक -एक शब्द का पोस्टमार्टम कर उन्हें नीचा दिखाने की धूर्त कोशिश करना, क्या यह नहीं दर्शाता कि उनका लोकतंत्र, भारत के सवं​िधान और संवैधानिक संस्थाओं में कोर्इ विश्वास नहीं हैं। वे किसी भी तरह सत्ता पर नियंत्रण चाहते हैं और इसके लिए वे एक हद तक गिर सकते हैं।
मनुष्य सर्वगुण सम्पन्न नहीं होता। जनता के समक्ष बोलते समय कुछ त्रुटियां होना स्वाभिक ही है। इतिहास के बारें में कोर्इ गलत  तथ्य प्रस्तुत करने का मतलब यह नहीं होता कि यह व्यक्ति निकृष्ट है। उसके सारे संवैधानिक अधिकार समाप्त हो गये हैं। पहाड़ सी गलती वह कहलाती है, जब व्यक्ति संवैधानिक पद का दुरुपयोग करते हुए देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटता है। अपने अपराध को स्वीकार नहीं करता हैं। अपराध को छुपाने और दबाने के लिए जांच एंजेसियों का सहयोग लेता है। ऐसे क्षुद्रतम अपराध करने वाले व्यक्ति या उस राजनीतिक दल को पुन: जनता से सत्ता का अधिकार मांगना, किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता।
किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं रहने के उपरांत भी किसी व्यक्ति विशेष या एक परिवार के प्रति एक लोकतांत्रिक पार्टी के नेताओं द्वारा अत्यधिक स्वामीभक्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन, यह दर्शाता है कि इस पार्टी का लोकतंत्र के बजाय राजतंत्र में ज्यादा आस्था है। ऐसे परिवार के एक सदस्य के लिए शहजादा संबोधन गाली नही कहा जा सकता। इसे लोकतंत्र में राजतंत्र की परम्परा निभाने पर कटाक्ष ही समझा जा सकता है। किन्तु प्रतिकार में  बोले गये रावण, दैत्य, भष्मासुर आदि अनेक अलंकारों को क्या उपयुक्त और शोभनीय कहा जा सकता है ?
यदि कोर्इ राजनेता अपने व्यक्तित्व के बल पर जनता में भरोसा जगाने में समर्थ लगने लगता है, तो उसे रोकने एक ही उपाय है- उसके समक्ष अपने किसी प्रभावशाली व्यक्तित्व को मैदान में उतारना। किन्तु आपके पास ऐसा कोर्इ व्यक्तित्व है ही नहीं और यदि है तो वह बहुत बौना है, अत: एक अन्वेषण टीम बना कर प्रतिद्वंद्वी व्यक्तित्व की छोटी सी गलती को पहाड़ बता कर मीडिया के माध्यम से खूब प्रचार करना, एक तरह से युद्ध आरम्भ होने के पहले ही हार स्वीकार करना ही है, जिसे खीझ और बौखलाहट कहा जा सकता है।

Thursday, 5 December 2013

धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता पर नयी बहस छेड़ने की आवश्यकता है

साम्प्रदायिकता हिंसा निरोधक बिल - बाजी जीतने की घृणित कोशिश
हम भारतीय नागरिक है, किसी जानवारों की मंड़ी के जानवर नहीं, जिनका नस्ल के आधार पर भेदभाव किया जाय। धर्म के आधार पर हमारी पहचान नहीं होती। हमारी पहचान भारतीयता के आधार पर होती है। संविधान ने भारतीय नागरिकता की परिभाषा दी है, उसे किसी भी तरह से खंड़ित नहीं किया जा सकता। धर्म के आधार पर नागरिकों का संविधान ने विभाजन नहीं किया है। धर्म के आधार पर नागरिकों को विशेष अधिकार नहीं दिये गये है, इसीलिए भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट् कहा जाता है।
धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा बदलने के लिए युपीए सरकार -साम्प्रदायिक हिंसा रोकने  के लिये ए क बिल  communalलाना चाहती है। यह न केवल हमारे संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है, वरन हमारे संघीय लोकतंत्र की पवित्रता पर अकारण किया जा रहा कुठाराघात है। जो सरकार देश को जवाबदेय सुशासन नही दे पायी। महंगाई और भ्रष्टाचार के भयावह प्रकोप से त्राहि-त्राहि कर रही जनता को राहत नहीं दे पायी।  ऐसी सरकार की नीतियों और अर्कमण्यता से  जनता नाराज है। सरकार चलाने वालो नेताओं को यह अहसास हो गया है कि जनता अब उन्हें पूरी तरह तिरस्कृत कर देगी, इसलिए देश में आग लगा कर ही यदि पुन: सत्ता सुख मिल सकता है, तो ऐसा करने में कहां एतराज है। सम्भवत: इसी कारण एक नये कानून को लाने की आवश्यकता आ पड़ी है।
इस समय पूरा देश शांत हैं। असम और उत्तर प्रदेश को छोड़ कर कहीं साम्प्रदायिक दंगे नहीं हो रहे हैं। उन प्रदेशों में भी नहीं, जहां दस पंद्रह वर्षों से वे सरकारे काम कर रही है, जिनकी धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है। नागरिकों के मन में एक दूसरे सम्प्रदाय के प्रति नफरत और घृणा का  भाव नहीं है। सभी नागरिकों की समस्याएं एक जैसी है। उनकी तकलीफे एक जैसी है। वे कुशासन से मुक्ति पाने के लिए एक हो रहे हैं और एक हो कर नयी सरकार का विकल्प ढूंढ रहे हैं। यही कारण है कि भ्रष्ट कारनामों के उजागर होने से भयभीत सरकार, नागरिकों के जीवन को संकट में डालने का घृणित खेल, खेलने के लिए विचलित दिखाई दे रही है।
प्रश्न उठता है कि धर्मनिरपेक्षता की विकृत परिभाषा प्रस्तुत कर देश के नागरिकों के मध्य विभ्रम की स्थिति निर्मित करने का आखिर क्या औचित्य है ? दुनियां में कही ऐसा कानून हैं, जहां दो व्यक्तियों के झगड़े में यह नियम बना लिया जाय कि झगड़ा चाहे कोई भी प्रारम्भ करें, दोषी एक विशेष व्यक्ति को ही माना जायेगा। उसी पर मुकदमा चलाया जायेगा और दूसरे को दोष मुक्त माना जायेगा। प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त क्या ऐसे नियम को सही ठहराता है ? क्या यह वोट पाने के लिए कुटिल नीति नहीं है। आखिर सत्ता पाने के लिए ऐसा कानून बनाने की कहां आवश्यकता आ पड़ी कि दंगा होने पर एक समुदाय को ही दोषी मान कर उस पर मुकदमा चलाया जायेगा और दूसरे को दोष मुक्त समझा जायेगा। क्या ऐसा कानून बनाने वालों की घृणित सोच को साम्प्रदायिकता नहीं कहा जा सकता ? निश्चय ही ये लोग साम्प्रदायिक हैं और धर्मनिरपेक्षता का उपहास उड़ा रहे हैं।
साम्प्रदायिक दंगों में असामाजिक तत्वों की मुख्य भूमिका होती है, जो सभी समाज में पाये जाते हैं। दंगा भड़काने वाली सरकारे इन असमाजिक तत्वों का उपयोग करती हैं। अत: वे सरकारे साम्प्रादियक कही जा सकती है, जिनके मन में कुटिलता होती है, जो धर्म को आधार मान कर अपना घृणित राजनीतिक उद्धेश्य पूरा करती है। वे सरकारे नहीं, जो जनता को सुशासन देने के लिए वचनबद्ध होती है। दंगे सरकार की प्रशासनिक विफलता से फैलते हैं। दक्ष सरकारों के प्रशासन में कभी दंगे नहीं होते। “
कोई भी झगड़ा या विवाद दो व्यक्तियों या व्यक्ति समूह के बीच किसी निजी स्वार्थ को ले कर होता है। उसे अकारण ही राजनीतिक लाभ उठाने के लिए साम्प्रदायिक रंग दे दिया जाता है, ताकि झगड़ा साम्प्रदायिक रंग पा कर फैलें और राजनेताओं का अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने का बहाना मिल जाय। दंगे बहुधा प्रायोजित होते हैं, जिन्हें एक निश्चित उद्धेश्य की पूर्ति के लिए भड़काया जाता है। उत्तर प्रदेश का मुजफ्फर नगर दंगा इसका ज्वलन्त उदाहरण है। ऐसा कार्य वे ही सरकारे करती हैं, जिनके कुशासन और भ्रष्ट शासन से जनता रुष्ट हो जाती है। तब वे अपनी अर्कमण्यता और निकम्मेपन पर पर्दा डालने के लिए किसी आपसी विवाद को साम्प्रदायिक रंग दे कर उसमें आग लगाती हैं और निर्दोष नागरिकां को उसमें झुलसने के लिए छोड़ देते हैं।
अंग्रेज शासक तो भारत पर शासन करने के लिए ऐसे विकृत कानून बनाते थे, ताकि भारतीय जनता में आपस फूट डाल कर राज किया जा सके। सम्भवत: इसी नीति के कारण अंग्रेज इस देश पर वर्षों तक राज करते रहें। क्या ऐसी ही कुटिल नीति को आधार बना कर कांग्रेस पार्टी भारत पर शासन करने का अधिकार पाना चाहती है ? क्या यह उसकी साम्प्रदायिक सोच नहीं है , क्या इस आधार पर उसे एक साम्प्रदायिक पार्टी नहीं ठहराया जासकता ?
फूट डाल कर यदि ऐसे तत्व सरकार बनाने में पुन: समर्थ हो जाते हैं, इससे सभी को नुकसान होगा।  उन नागरिकों का भी  होगा, जिनको उपकृत कर एक अक्षम सरकार पुन: सत्ता सुख भोगना चाहती है, क्योंकि भ्रष्ट और अकर्मण्य सरकारों का भार सभी नागरिकों  को उठाना पड़ेगा। ऐसी सरकारों का सीधा भार नागरिकों की जेब पड़ता है। उनके घर के  चुल्हें पर पड़ता है। उनके बच्चों के भविष्य पर पड़ता है। साम्प्रदायिकता की आग कभी कभार कहीं ही लगती है, उसे आम नागरिक नहीं लगाते, राजनेता लगाते हैं। यह आग तो क्षणिक होती है, जो बुझ जाती है। किन्तु पेट की आग तो रोज लगती है। बच्चों के भविष्य और उनकी पढाई की चिंता रोज सताती है। महंगाई रोज पीड़ा देती है। अत: नागरिकों को स्थायी समस्याओं के समाधान का हल खोजना चाहिये। ऐसी सरकारे चुननी चाहिये, जिनके मन में सुशासन देने की इच्छा हों। सम्प्रदाय या धर्म के आधार पर नागरिकों को आपस में लड़ाने की कुटिलता नहीं हो।
सदियों से भारत के गांवों और शहरों में दोनो समुदाय के लोग शांति से रह रहे हैं। वे एक दूसरे की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हैं। कोई इसमें व्यवधान उपस्थित नहीं करता। मुसलमान मज्जिद में जाते हैं, उन्हें हिन्दू नहीं टोकते हैं। हिन्दू मंदिर में जा कर पूजा अर्चना करते हैं, उससे मुसलमानों को कभी  एतराज नहीं होता। अन्य इस्लामी देशों की तरह हिन्दू किसी मज्जिद को अपवित्र नही करते । भारत की किसी म​िज्ज़द में गोलीबारी और हत्याकांड़ नहीं होता। यह हमारी आपसी समझ और सहिष्णुता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
अत: भारत के नागरिकों को अब यह आपसी समझ विकसित करनी चाहिये कि हम एक हैं हमारे बीच किसी तरह का कोई मतभेद नहीं है। धर्म या सम्प्रदायिकता के आधार पर जो हमारे बीच खाई खोदने का प्रयास करेगा, उसे हम मिल कर रोकेंगं। हम उसी पार्टी के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करेंगे, जो हमे सुशासन देने का वादा करेगी। यदि हम एक हो जायेंगे, तो फूट डालों और राज करों के स्थान पर राजनीतिक पार्टियां सुशासन दों और राज करों, सिद्धान्त को आत्मसात करेगी। यदि ऐसा हो जाता है तो देश में एक नयी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण होगा। देश को अपनी समस्याओं से निजात दिलाने के लिए देश की जनता सहायक बनेगी।

Monday, 2 December 2013

तरुण तेजपाल की तरह भ्रष्टचारियों को जेल भेजने का अब हमे कठोर कानून चाहिये

दिसम्बर 2012 का स्वत:स्फूर्त व नेतृत्व विहीन युवा जन आंदोलन ने भारतीय राजनेताओं अचंभित कर दिया था।  कड़कती ठंड में उन पर डाली गयी पानी की बौछारों को सहते हुए वे रात में भी सड़कों पर डटे हुए थे। युवाओं ने सत्ता के अहंकार और निष्ठुरता को चूर-चूर कर रख दिया था। स्त्री प्रताड़ना को सहने का आदि भारतीय समाज भ्रष्ट पुलिस की निरंकुशता से परिचित था और जानता था कि पुलिस बिक जायेगी और निर्भया का ऐसा लच्चर केस बनायेगी कि कुछ ही दिनों  में अपराधी छूट जायेंगे। युवाओं को  संवेदनाविहीन पुलिस और राजननैतिक व्यवस्था से न्याय की आशा नहीं थी।
अन्ना ह्जारे  और बाबा रामदेव के जनआंदोलन को निष्ठुरता और निर्ममता से दबाने वाला सत्ताधारी राजनीतिक दल पूरे देश में यकायक फैले इस जन आंदोलन से घबरा गया। उसे लगा यदि अगले लोकसभा चुनावों में भारत का युवा वर्ग उसके विरुद्ध हो गया, तो सत्ता उसके हाथ से चली जायेगी। इसी भय से विवश हो कर स्त्री प्रताड़ना के विरुद्ध कड़ा कानून बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा। संसद की मंजूरी मिल गयी। भारत के किसी भी राजनीतिक दल ने इस कानून का विरोध नहीं किया।
संयोग से इस कठोर कानून की चपेट में सक ऐसा सख्श आ गया, जो उंचे रसूख वाला था। एक सत्ताधारी दल की राजनीतिक तिकड़म का सहयोगी था। धूर्तता को पत्रकारी पेशे के साथ घालमेल कर उसने अपार धन कमाया था। उसने अपराध किया। अहंकार के साथ इसे स्वीकार किया। इस गलतफहमी में निश्चिंत हो गया कि इस देश में उसका कोर्इ कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उससे जो कृत्य हो गया, सो हो गया, अत: जिन्हें उसने उपकृत किया था, वह नेताबिरादरी उसके पक्ष में खड़ी हो जायेगी और आगे आ कर उसे बचा लिया जायेगा। आखिर बड़े और रुतबे वाले लोग थोड़े ही किसी जेल में बंद हो सकते हैं।
इसी भरोसे और गरुर के साथ  भारत के भ्रद समाज का अभद्र जानवर -तरुण तेजपाल हैकड़ी और हैसियत का रंग दिखाता हुआ दिल्ली से गोवा गया था। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा, क्योंकि दिल्ली का एक ताकतवर मंत्री उसके बचाव में उतर आयेगा। उसके खिलाप की जा रही कार्यवाही को विरोधी दल का षड़यंत्र माना जायेगा और भारत के शीर्षस्थ राजघराने की ताकत उसे अंतत: बचा लेगी।
तरुण तेजपाल के अहंकार और उनके अजीब आत्मविश्वास को पूरा देश भांप गया। जनमानस उद्वेलित हो गया। चारों तरफ से आवाजे़ उठने लगी- क्या भारत के राजनेताओं के खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं ? सभी की जबान को लकवा क्यों मार गया है ? नये राजनीतिक दल के वे महाशय जो निर्भया आंदोलन का लाभ उठाने के लिए युवाओं के साथ सड़को पर उतर गये थे और बहुत जोर-शोर से स्त्री प्रताड़ना के पक्ष में दलिले दे रहे थे, वे भी क्यों चुप हो गये ? सभी की चुप्पी का एक ही कारण था- भाजपा तेजपाल के कृत्य का विरोध कर रही थी। भाजपा याने सांम्प्रदायिक पार्टी। याने हिन्दुत्व की समर्थक पार्टी। इसलिए जिस न्यायोचित प्रकरण का भाजपा समर्थन करेगी, वह मामला कैसा भी हो उसका हम समर्थन नहीं करेंगे, चाहे यह मामला किसी अबला नारी के सम्मान, उसकी आबरु और स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध उठायी गये उसके साहसिक निर्णय  से जुड़ा हो। चाहे वह मामल उस कानून से जुड़ा हो, जिसे भारतीय संसद ने पास किया था।
कानून की लाख बाजीगरी दिखाने के बाद भी तरुण तेजपाल की जमानत याचिका खारिज कर दी गयी। उन महाशय को हवालात में दिन गुजारने पड़ रहे हैं। पंच सितारा संस्कृति के जीव के चेहरे के रंग तब उडे़ हुए थे, जब उन्हें निर्णय सुनाया गया था। वे ऐसी जगह कैसे रह सकते हैं, जहां का जीवन स्तर उनके लिए नारकीय हो। शायद उस अभद्र पुरुष ने दुस्साहस करते हुए स्वपन में भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसे दिन भी देखने पड़ सकते हैं। उसे ऐसा अहसास था  कि वह अपने रुतबे और ताकत से एक प्रताड़ित अबला नारी की आवाज वह दबा देगा। सम्भवत: पूर्व में भी उसने ऐसा किया होगा और किसी युवती की दुर्बलता का लाभ उठा कर समर्पण के लिए बाध्य किया होगा। क्योंकि ऐसे दुष्कर्म वही व्यक्ति करता है, जो आदतन ऐसे कृत्य करने का  अनुभवी होता है।
तरुण तेजपाल प्रकरण से हमें एक नसीहत मिलती है- क्या स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध बनाये गये कानून की तरह भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए भारतीय संसद ऐसा कोर्इ कठोर कानून बना सकती है, जिससे बड़े-बड़े तीसमार खां अपराधियों को जेल की सलाखों के भीतर ठूंसा जा सके।  वर्तमान भारतीय संसद का जो स्वरुप है, उससे   तो ऐसी आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि इसमें एक से बढ़ कर एक भ्रष्टाचार में आंकठ डूबे व्यक्ति बैठे हुए हैं।
भारतीय संसद का स्वरुप बदला जा सकता है- यदि 2014 के लोकसभा चुनावों के पूर्व एक ऐसा युवा जनआंदोलन पूरे देश में फैले, जो यह मांग रखे कि हम उसी राजनीतिक दल और उसके नेता को समर्थन करेंगे, जो भारत में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कठोर कानून बनायेगा। हम ऐसा कानून चाहते हैं, जिसके अनुपालन से उन सफेदपोश राजनेता और नौकरशाह कानून के लपेटें में आ कर जेल भेजे जा सकें, जिन्होंने बेबाक हो कर देश के अरबों रुपये लूटे हैं।
भारतीय संसद ऐसा कानून बनाये जिससे विदेशों में जमा काला धन वापस लाया जा सके और जिन अपराधियों ने यह कृत्य किया है, उन्हें कठोर दंड़ से दंड़ित किया जाय। पूरे देश में फैली भ्रष्टाचारियों की  बैमानी संपति को जब्त किया जा सके।
भारत आर्थिक ताकत तभी बन सकता है, जब भ्रष्टाचार पर पूर्ण अंकुश लगाया जा सके, क्योंकि भ्रष्टाचार के उन्मूलन से ही निर्धनता का अंधकार मिटाया जा सकता है। देश का तीव्र औद्योगिक विकास कर उसे समृद्धिशाली राष्ट् बनाया जा सकता है। भारतीय युवा शक्ति अपनी ताकत भारत से सारे राजनीतिक समीकरण को बदल सकती है। जो राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों के सहारे चुनाव जीतते हैं और भ्रष्टाचार को सींचते हैं, उन सभी राजनीतिक दलों का राजनीति से अवसान हो जायेगा। इन राजनीतिक दलों से जुडे़ अपराधी वृति के व्यक्ति चुनाव हार जायेंगे। ऐसा सम्भव होने पर ही भारतीय संसद का स्वरुप बदला जा सकता है।
अत: निर्भया आंदोलन की तर्ज पर ही अब पूरे देश में भ्रष्टाचार उन्मूलन का आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। इस आंदोलन का नारा होगा – हम भारतीय हैं, भारतीयता ही हमारी जाति है। भारतीयता ही हमारा धर्म हैं। हर भारत की राजनीति का शुद्धिकरण करने के लिए सब एक हैं। हमें ऐसी संसद चाहिये जो भ्रष्टाचार उन्मूलन के कठोर कानून बना सकें। हमारा समर्थन उसी राजनीतिक दल को होगा, जो शपथ ले कर यह घोषणा करें कि यदि हमारा दल सत्ता में आया और उसे जनता ने पूर्ण बहुमत दिया, तो हम भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर कानून बनायेंगे और सभी अपराधियों को जेल भेजेंगें।
यदि ऐसा सम्भव हो पायेगा तो भारत की तकदीर बदल जायेगी। तरुण तेजपाल की तरह सारे अपराधी चाहे वो कितने ही ताकतवर क्यों न हो, अपनी बची हुर्इ जिंदगी जेलों में गुजारेंगे।